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हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन किये हैं। छोटे-छोटे समारोंका प्रयोग कर अभिव्यजनाको शक्तिशाली बनानेका पूर्ण प्रयास किया गया है।
कविवर रूपचन्द पाण्डे महाकवि बनारसीदासके अभिन्न मित्र थे। इन्होंने बनारसीदासके नाटक समयसारपर हिन्दी गद्यमे टीका लिखी है। इनकी गद्य शैली बनारसीदासकी गद्य शैलीसे मिलती-जुलती है । वाक्यगठनमें कुछ सफाई प्रतीत होती है। रूपचन्दने संस्कृतके तत्सम शब्दोके साथ जतन, पहार, विजोग, वखान जैसे तद्भव शब्दोंका भी प्रयोग किया है । अरबी-फारसीके चलते हुए शब्द दाग, दुसमन, दगा आदिको भी स्थान दिया है | भावाभिव्यञ्जनमे सफाई और सतर्कता है। .
इनके वाक्य अधिकतर लम्बे होते है, परन्तु अन्वयमे क्लिष्टता नहीं है। सरलता और स्पष्टता इनके गद्यकी प्रधान विशेषता है। प्रचलित शब्दोंके प्रयोग-द्वारा मापामें प्रवाह और प्रभाव दोनों ही को उत्पन्न करनेकी चेष्टा की गयी है। शुष्क विषयमे भी रोचकता उत्पन्न करनेका प्रयास स्तुत्य है। भापा और शैली-सम्बन्धी अव्यवस्था और अस्थिरताके उस युगमे इस प्रकारके गद्यका लिखा जाना लेखककी प्रतिभा और दूरदर्शिताका परिचायक है । इनके गद्यका नमूना निम्न है
"जैसे कोई पुरुप पहारपर पदिक नीची दृष्टि करै तब तलहटीको पुरुप तिस पहारीको छोटो-सो लागै, भरु तलहटी बारौ पुरुप तिहि पहार वारौको लखै देखै तो पहार बारौ छोटो-सो लागे। पीछे दोनों उतरिक मिले तब दुहोको श्रम भाग। तैसे अभिमानी पुरुप ऊँची गरदन राखनहारों और जीवकों लघु पदको दाग है इतनै छोटै तुच्छ करि नानै ।"
१८वी शताब्दीके मध्य भागमे दीपचन्द कासलीवालका जन्म हुआ। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत और अपनश भापाके ग्रन्थोंका हिन्दीमें अनुवाद न कर स्वतन्त्ररूपसे जैन हिन्दी गद्य साहित्यकी श्रीवृद्धि की। इनकी अनुभव प्रकाश, चिविलास, गुणस्थानभेद आदि धार्मिक रचनाएँ प्रसिद्ध है। इनकी गद्यशैली संयत है, वाचक शब्दोंके अतिरिक्त लक्षक शब्दोका