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१७८ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन
जा सम न दूनी और कन्या देखि रूप लजे रती ॥ इस प्रकार कवि भृघरदासने निम्न पद्यम हृदयकी भावनाओं और मानसिक विचारोंको कितना साकार करनेका आवास किया है। मावाने विकासमय आलोककी ग्रोवल राशि जगमगाती हुई दृष्टिगत होती है। कृमिरास कुवास सराप दह, शुचिता सव धीवत नाय सही। निह पान किये सुध नात हिये, बननी जन नानत नार यहीं॥ मदिरा सम मान निपिद कहा, यह जान मल कुलमें न गहीं। धिक है उनको वह नाम नले, निन मृहनके मत लीन नही ।
इस पद्यमें कविने मदिराके समान अन्य हेय पदार्थका अनाव दिखलाकर मदिराकी अशुचिताका दिग्दर्शन कराया है। इसी प्रकार आखेटका नियंध करते हुए कवि कहता है कि-"काननमें बस ऐसा आन न गरीब तीच, प्राननसों प्यारे प्रान पूना निस पर है ।" अर्थात् हिरणके समान अन्य कोई भी प्राणी दीन नहीं होता है।
एकके बिना दूसरेके शोमित अथवा अद्योमित हानेका वर्णन कर विनोक्ति अलंकारको योजना बड़ी ही चतुराईसे की गयी है। नैया मगरतीदासने-"मातमके कान विन रखसम राजसुख, सुनो महाराज कर कान किन दाहिने !" में आत्मोद्धारक बिना राज्यनुखको मी धूल समान बताया है। कवि भूधरदासने राग बिना संसारके मोगाी सारहीनताका चित्रण करते हुए विनोक्ति अलंकारकी अन्टी योनना भी है
राग उई भोगभाव लागत सुहावनेस बिना राग ऐसे लागे से नाग कार हैं। राग हानसा पाग रहं तनमें सीव नीब राग गये आवत गिलानि होत न्यारे है। रागसॉ बगत रीति ही सब साँच नान राग मिटे सूझत असार खेल सार हैं।