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________________ ' परिशिष्ट - मैं हो जीव द्रव्य नित्य चेतना स्वरूप मेरो, लग्यो है अनादि ते कलंक कर्म मल को। पाही को निमित्त पाय रागादिक भाव भए, भयो है शरीरको मिलाप जैसे खलको । रागादिक भावनको पायके निमित्त पुनि, होत कर्मबन्ध ऐसो है बनाव कलको। ऐसे ही भ्रमत भयो मानुष शरीर जोग, बने तो बने यहाँ उपाय निज थलको । पं० जयचन्द-श्री पं० टोडरमलजीके समकालीन विद्वानोम पं० जयचन्दनी छावडाका नाम भी आदरके साथ लिया जाता है। आप भी जयपुरके निवासी थे । प्रमेयरत्नमालाकी वचनिकामे लिखा है देश हुढाहर जयपुर जहाँ, सुवस वलै नहिं दुःखी तहाँ। नृप जगतेश नीति बलवान, ताके बड़े-बड़े परधान ॥ प्रजा सुखी तिनकै परताप, काहक न वृथा संताप । अपने अपने मत सव चले, जैन धर्म अधिको भलें ।। तामैं तेरह पंथ सुपंथ, शैली बड़ी गुनी गुन ग्रन्थ । तामें मैं जयचन्द्र सुनाम, वैश्य छाबड़ा कहै सुगाम ॥ प० जयचन्द्रजी बड़े ही निरभिमानी, विद्वान् और कवि थे। इनकी सं० १८७० की लिखी हुई एक पद्यात्मक चिट्ठी वृन्दावनविलासमे प्रकाशित है। इससे इनकी प्रतिमाका सहज ही परिशान किया जा सकता है। यह भी टोडरमलजीके समान संस्कृत और प्राकृत भापाके विद्वान् थे । न्याय, अध्यात्म और साहित्य विषयपर इनका अपूर्व अधिकार था। इनकी निम्न १३ वचनिकाएँ उपलब्ध हैं १ सर्वार्थसिद्धि वि० स० १८६१ २ प्रमेयरत्नमाला , १८६३
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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