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________________ २४० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कविको अपनी मृत्युका परिज्ञान अपने स्वर्गवासके छः दिन पहले ही हो गया था । अतः उन्होने अपने समस्त कुटुम्बियोकों एकत्रित कर कहा"आजसे छठे दिन मध्याह्नके पश्चात् मै इस शरीरसे निकलकर अन्य शरीर धारण करूँगा" | सबसे क्षमा याचना कर सवत् १९२३ मार्गशीपं कृष्ण अमावास्याको मध्याह्नमे देहलीमे इन्होंने प्राण त्याग किया था। ___ कविवरके समकालीन विद्वानोंमे रत्नकरण्डके वचनिकाके कर्त्ता प० सदासुख, बुधजनविलासके कर्ता बुधजन, तीस-चौवीसीके कत्ती वृन्दावन, चन्द्रप्रभ काव्यकी वचनिकाके कर्ता तनसुखदास, प्रसिद्ध भजन-रचयिता भागचन्द और प० वखतावरमल आदि प्रमुख हैं। पं० जगमोहनदास और पं० परमेष्ठी सहाय-यह निस्सकोच स्वीकार किया जा सकता है कि हिन्दी जैनसाहित्यकी श्रीवृद्धिमे खण्डेलवाल और अग्रवाल जातिके विद्वानोंका प्रमुख भाग रहा है। जयपुर, आगरा, दिल्ली और ग्वालियर हिन्दी साहित्यके रचे जानेके प्रमुख स्थान हैं। आगरा सदासे अग्रवालोका गढ़ रहा है। यहॉपर भी समय-समयपर विद्वान् होते रहे, जिन्होने हिन्दी जैन साहित्यकी श्रीवृद्धिमे योग दिया । आरा निवासी प० परमेष्ठी सहाय और प० जगमोहनदासको हिन्दी जैन साहित्यके इतिहाससे पृथक् नहीं किया जा सकता है । श्री प० परमेष्ठीसहायने 'अर्थप्रकाशिका' नामकी एक टीका जगमोहनदासकी तत्त्वार्थ विपयक जिज्ञासाकी शान्तिके लिए लिखी है। इस ग्रन्थकी प्रशस्तिमे बताया गया है पूरव इक गंगातट धाम, अति सुन्दर मारा तिस नाम। तामैं जिन चैत्यालय लस, अग्रवाल जैनी बहु बसें ।। बहु ज्ञाता तिन में जु रहाय, नाम तासु परमेष्ठीसहाय। जैनग्रन्थ रुचि बहु केरे, मिथ्या धरम न चित्त में घेरे। सो तरवार्थसूत्र की, रची धचनिका सार । नाम जु अर्थ प्रकाशिका, गिणती पाँच हजार ॥
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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