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हिन्दी - जैन-साहित्य में भलंकार-योजना
सम सरज नीत चित चिन्त ढे, वृन्द मिष्ट अनशस्त्रधर । जल मलय महत अकहत अकृत, देवदृष्टि दुःखदृष्टि हर ॥
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उपर्युक्त पद्यसे स्पष्ट है कि कविका हृदय उपमानोका अक्षय भण्डार है। ये उपमान प्रकृतिसे तो लिये ही गये हैं, पर कुछ परम्परा भुक्त भी हैं। ज्योही कवि सौन्दर्यकी अभिव्यजना करनेकी इच्छा करता है, त्योंही उपमान उसकी कल्पनाकी पिटारीसे निकलने लगते है । कवि दौलतराम ने भी उपमानोकी झड़ी लगा दी है। एक ही उपमेयचा सर्वांगीण चित्रण करने के लिए अनेकानेक उपमानोका एक ही साथ व्यवहार किया है ।
पद्मासन पद्मपद पद्मा–मुक्त स दरशावल है । कलिमय-गंजन मन अलि रंजन सुनिजन सरन सुपावन है ।
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मतंग - नशाचन है ।
जाको शासन पंचानन सो, कुमति जैन कवियोकी एक विशेषता है कि उनके उपमान किसी न किसी भावको पुष्ट करनेके लिए ही आते है । विश्वमे मोहका बन्धन सत्रते सबल होता है, ससारमे ऐसा कोई प्राणी नहीं, जिसे मोहका विष व्याप्त न हो । मोहका तीक्ष्ण विष प्राणीको सदा मृहित रखता है । अतः कवि दौलतराम और भैया भगवतीदासने इस मोहका चार उपमानो द्वारा विश्लेषण किया है । व्याल, शराब, गरल और धतूरा । इन चारो उपमानोंसे भिन्न-भिन्न भावनाओकी अभिव्यजना होती है । व्याल - सर्प जिस प्रकार व्यक्तिको काट लेता है तो वह व्यक्ति सर्पके विपके प्रभावसे मृहित हो जाता है। तन-बदनका उसको होश नही रहता; उसी प्रकार मोहाभिभूत हो जानेते प्राणी भी विवेक शून्य हो जाता है । रात-दिन ससार के विषय साधनांम अनुरक्त रहता है । अतएव सर्प विप द्वारा प्रस्तुत' मोहके प्रभावका विश्लेषण किया गया है। इसी प्रकार अवशेष तीन उपमान भी मोहाभिभूत दशाकी अभिव्यजना करनेमें समझ हैं ।