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हिन्दी-जैन-साहित्य परिगीलन
मौन्दर्य मी माले लिए समान ही होता है। एक सुन्दर वस्तुको देखकर नी ममान आहाट होता है। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि सौन्दर्यागुनिलिमहदय होनकी आवश्यकता है । यद्यपि प्रकृतिमेदसे एक ही बन्द्र मिन-भिन्न प्रारक गुण या दुर्गुण उत्पन्न करती है, फिर भी उसका उत्तम मर लिए नमान ही होता है। साहित्यमें भेद करनेके अर्थ ई, पनवता भेट परना । अतएव हिन्दी जन साहित्यका अध्ययन, अनुमन और विचन भी उमन हिन्दी साहित्यके समान होना चाहिए।
स्य आलेवरी दृष्टिले यह वैपन्यकता पर्दा ओझल नहीं होगा, तब साहित्य क्षेत्रमें एक यखाद्ध मामाज्य स्थापित नहीं हो सकता।
प्रन्टुत हिन्दी-जन-गहित्य-परिशीलनमें मात्र साहित्यको शृखलाको संदना मायान दिया है। यतः यह साहित्य अब तक आलोचकों हाग मंदित रहा है। अब समय ऐसा प्रस्तुत है कि साहित्य के क्षेत्रम मिनी भी प्रकारका नेद करना मानवतामे भेद करना कहा जायगा। इस चना द्वारा मनीषियागो हिन्दी जन साहित्यके अध्ययनकी प्रेरणा मिलेगी
या'नाहित्यत्री मुरली दूटी कड़ियाँको जोड़नेमे पूरी सहायता मिलेगी। मावि स्नारनीदास, भैण भगवतीदास, कवि भूधरदास, कवि टलतराम, कवि वृन्दाग्नदास हिन्दी साहित्यके लिए गौरवकी वस्तु है। इन पत्रिणने चिरन्तन गैन्दर्यकी अभिव्यञ्जना की है।
इस द्वितीय मागमं आधुनिक काव्य एवं प्राचीन और नूतन गद्य साहित्यपर परिशीलनारम्ब प्रकाश डाला गया है। गद्यके क्षेत्रमे जैन नाहित्यगर बहुत आगे बढ़े हुए हैं। श्री पं० दौलतरामजी ने खडी बोली
गायक विकासम बढ़ा सहयोग दिया है। इनका गद्य बहुत विकसित है। चौदहन और पन्द्रहवीं शताब्दीमे जैन विद्वानोने टीका और बचनिगटगे-बारा गद्यको व्यवस्थित रूप दिया है। हॉ, यह बात अवश्य है मिरिन्दी न साहित्यके निर्माणका क्षेत्र जयपुरके आस-पासकी भूमि होने के कारण मायापर वृद्धारीका प्रमाव है। आगरा और दिल्लीके निकट