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नाटक
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नाटक अतीतकी किसी असाधारण और मार्मिक घटनाको लेकर उसका अनुकरण करनेकी प्रवृति मानवमात्रमे पायी जाती है। इसी प्रवृत्तिका फल नाटकोंका सुजन होना है । जैन लेखक भी प्राचीन कालसे अपने प्राचीन नाटकोका अनुवाद तथा समयानुसार पुराने कथानकोको लेकर नवीन नाटक लिखते आ रहे है। इस शताब्दीके प्रारम्भमे श्री जैनेन्द्रकिशोर आरा निवासीका नाम नाटककारकी दृष्टिसे आदरके साथ लिया
जा सकता है। आपने अपने जीवनमे लगभग १ दर्जनसे अधिक नाटक लिखे हैं । यद्यपि इन नाटकोंकी मापाशैली प्राचीन है, तो भी इन नाटकोके द्वारा जैन हिन्दी साहित्यकी पर्यात श्रीवृद्धि हुई है। "सोमा सती" और "पणदास" ये दो प्रहसन भी आपके द्वारा रचित है । आरामे आपके प्रयत्नसे एक जैन नाटकमण्डली भी स्थापित थी। यह भण्डली आपके रचित रूपोंका अभिनय करती थी। विदूपकका पार्ट आप स्वय करते थे | बहुत दिनो तक इस मण्डलीने अच्छा कार्य किया, पर आपकी मृत्यु हो जानेके पश्चात् इसका कार्य रुक गया। ___ श्री जैनेन्द्रकिशोरके सभी नाटक प्रायः पद्यबद्ध हैं । उर्दू का प्रभाव पद्योपर अत्यधिक है | "कलिकौतुक के मगलाचरणके पद्म सुन्दर है। आपके ये नाटक अप्रकाशित हैं और आरानिवासी श्रीराजेन्द्रप्रसादनीके पास सुरक्षित हैं। ___ मनोरमा सुन्दरी, अंजना सुन्दरी, चीर द्रौपदी, प्रद्युम्न चरित और श्रीपालचरित्र नाटक साधारणतया अच्छे है। पौराणिक उपाख्यानोको लेखकने अपनी कल्पना-द्वारा पर्यात सरस और हृदय-ह्य वनानेका प्रयास किया है। टेकनिककी दृष्टिसे यद्यपि इन नाटकोंमे लेखकको पूरी सफलता नहीं मिल सकी है, तो भी इनका सम्बन्ध रगमचसे है। कथाविकासमे नाटकोचित उतार-चढाव विद्यमान है । वह लेखककी क्ला