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________________ हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष १५३ इस पद्यमें 'ऐसी दशा माही मित्र काहे की कुशल है' मे सम्बोधनपर जोर देकर भाषाको भावप्रवण वनानेमें कविने कुछ उठा न रखा है। बुधजन कविकी भापामे भी चमकीलापन पाया जाता है "धर्म विन कोई नहीं अपना, सब सम्पति धन थिर नहिं जगमे, जिसा रैन सपना" मे भाषाका स्वच्छ और स्वस्थरूप है। ____ कवि दौलतरामने सगीतकी अवतारणा करते हुए भापाके आभ्यन्तरिक और वाह्यरूपको संवारनेकी पूरी चेष्टा की है। कहीं-कही तो भाषा परैड करते हुए सैनिकोके समान चहलकदमी करती हुई प्रतीत होती है। निम्नपद दर्शनीय है छाँदत क्यों नहिं रे नर, रीति अयानी । वारम्वार सिख देव सुगुरु यह, दे आनाकानी । विषय न तनत न भजत बोध व्रत, दुख-सुख जाति न जानी। शर्म चहै न लहै शठ ज्या, घृत देत बिलोवत पानी॥ छाडत क्यों नहि रे नर, रीति अयानी। जैन कवियोकी सामाजिक पदावलिया संगीतके उपकूलोमे बॅधकर कितनी वेगवती हुई है, यह उपर्युक्त पदसे स्पष्ट है। अपूर्व शब्दलालित्य, नवीन अन्तःसगीत और भावाभिव्यक्तिकी नूतन शक्ति जैन कवियोंकी भाषामे विद्यमान है। निम्न पक्तियोमे तत्सम शब्दोने मापामे कितनी मिठास और लचक उत्पन्न की है, यह दर्शनीय है नवल धबल पल सोहैं कलमैं, क्षुध तृप व्याधि दरी । हलत न पलक अलक नख बढत न, गति नभमाहि करी॥ ध्यानपान पानि गहि नाशी त्रेसठ प्रकृति भरी। जा-बिन शरन भरन जर घर घर महा असात भरी। दौल तास पद दास होत है, वास-मुक्तिनगरी। ध्यानपान पानि गहि नाशी, वेसठ प्रकृति मरी।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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