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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
कवि भगवतीदास आत्मतत्त्वकी महत्ता बतलाता हुआ कहता है कि आँखें जो कुछ भी रूप देखती है, कान जो कुछ भी सुनते हैं, जीम जो कुछ भी रसको चखती हैं, नाक जो कुछ भी गन्ध घती है और शरीर जो कुछ भी आठ तरहके स्पर्शका अनुभव करता है, यह सब तेरी ही करामात है । है आत्मा ! तू इस शरीर मन्दिरमे देवरूपमे बैठी है। मन ! तू इस आत्मदेवकी सेवा क्यों नहीं करता, कहाँ दौडता है-
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याही देह देवलमें केवल स्वरूप देव, ताकर सेव मन कहाँ दौड़े जात 1
कवि भगवतीदास अपने घटमे ही परमात्माको ढूढनेके लिए कहता है कि हे भाई! तुम इधर-उधर कहाँ घूमते हो, शुद्ध दृष्टिसे देखने पर परमात्मा तुमको इस घटके भीतर ही दिखलायी पड़ेगा । यह अमृतमय ज्ञानका भाण्डार है । संसार पार होकर नौकाके समान दूसरोको भी पार करनेवाला है । तीन लोकमें उसकी बादशाहत है । शुद्ध स्वभावमय है, उसको समझदार ही समझ सकते हैं। वही देव, गुरु, मोक्षका वासी और त्रिभुवनका मुकुट है । हे चेतन सावधान हो जाओ, अपनेको परखो।
देव च गुरु है वहै, शिव है बसइया । त्रिभुवन मुकुट व सदा, वेतो चितवइया ॥
कवि बनारसीदासने भी बतलाया है कि जो लोग परमात्माको ढूँढने के नानाप्रकारके प्रयत्न करते हैं, वे मूर्ख हैं तथा उनके सभी प्रयत्न अयथार्थ हैं । उदासीन होकर जगलोकी खाक छाननेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती है। मूर्ति बनाकर प्रणाम करनेसे और छीकोपर चढकर पहाड़की चोटियोपर चढ़ने से भी उसकी प्राप्ति नही हो सकती है। परमात्मा न ऊपर आकाशमे है और न नीचे पातालमे । ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणोकी धारी यह आत्मा ही परमात्मा है और यह प्रत्येक व्यक्तिके भीतर विद्यमान है । कवि कहता है----