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रहस्यवाद केई उदास रहे प्रभु कारन, केई कहीं उठि जाहिं कहीं के । बेई प्रणाम करै घट मूरति, केई पहार चढे चढि छीके ।। केई कहं आसमान के ऊपरि, केई कह प्रभु हेठ जमीके ।
मेरो धनी नहिं दूर दिशांतर, मोहिमे है मोहि सूझत नीके ॥ • हिन्दी जैन साहित्यम रहस्यवादकी दूसरी व्ह स्थिति है जहाँ मन ऐन्द्रियक विषयोसे मुक्त हो मुत्तिकी ओर तेजीसे दौड़ना आरम्भ करता है । इस स्थितिका वर्णन वनारसीदासके काव्यमे भावात्मक स्पसे किया गया है। हठयोग सम्बन्धी साधनात्मक रहस्यवाद हिन्दी जैन साहित्यमें नहीं पाया जाता है। केवल भावालक रहत्ववादका वर्णन ही किया है। साधनाकै क्षेत्र विकार और कपायोको दूर करनेके लिए संयम, इन्द्रिय-निग्रह और मेदविज्ञान या त्वानुभूतिको स्थान दिया गया है । परन्तु इनकी यह साधना भी भावात्मक ही है। इस अवस्थाका महाकवि बनारसीदासने निम्न चित्रण किया है।
मूलनबेटा जायोरे साधो, मूलनः । जाने खोज कुटुम्ब सव खायो रे साधो, मूलन० ॥ जन्मत माता ममता खाई, मोह लोभ दोइ भाई। काम क्रोध दोइ काका खाए, खाई तृपना दाई । पापी पाप परोसी खायो, अशुभ में दोइ मामा। मान नगरको राजा खायो, फैल परो सव गामा ॥ दुरमति दादी विकथा दादो, मुख देखत ही मूलो । मंगलाचार वधाए बाजे, जब दो वालक हो। नाम धस्यो वालकको रुयो, रूप घरन कछु नाही।
नाम घरन्ते पाण्डे खाए, कहत बनारसि भाई ॥ रहस्यवादकी इस दूसरी स्थितिमे गुरुका उपदेश श्रवण करना तथा उस उपदेशके अनुसार भ्रमरूपी कीचड़का प्रक्षालन कर अपने अन्तस्को