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रहस्यवाद
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यही कहा जा सकता है कि सूक्ष्म भावोकी अनुभूति प्रतीक योजना द्वारा गहराई के साथ अभिव्यक्त हुई है।
रहस्यवाद
ब्रह्मकी - आत्माकी व्यापक सत्ता न माननेपर भी हिन्दी जैन साहित्य मे उच्चकोटिका रहस्यवाद विद्यमान है । हिन्दी जैन काव्य स्रष्टाओने स्वय शुद्धात्म तत्त्वकी उपलब्धिके लिए रहस्यवादको स्थान दिया है । आत्मा रहस्यमय, सूक्ष्म, अमूर्त, ज्ञान, दर्शन आदि गुणोका भाण्डार है, इसकी उपलब्धि भेदानुभूतिसे होती है । शुद्धात्मामें अनन्त सौन्दर्य और तेज है । इसकी प्राप्ति के लिए स्वयं अपनेको शुद्ध करनेके लिए, उस लोकमे साधक विचरण करता है, जहाँ भौतिक सम्बन्ध नहीं । ऐन्द्रियक विपयोको आकाक्षा नही, ससार और शरीरसे पूर्ण विरक्ति है । यह प्रथम अवस्था है, यहाँ पर स्वानुभवकी और जीव अग्रसर होता है । दोहा पाहुडमें इस अवस्थाका निम्न प्रकार चित्रण किया है
जो जिहिं लक्खहिं परिभमद्द अप्पा दुक्खु सहंतु । पुत्तकलत्तहूं मोहियउ जाम ण वोहि लहंतु ॥ आत्मा और परमात्माकी एकताका जितना सुन्दर चित्रण हिन्दीके जैन कवि कर सके हैं, उतना सम्भवतः अन्य कवि नहीं । जैन सिद्धान्तमे शुद्ध होनेपर यही आत्मा परमात्मा बन जाती है । कवि बनारसीदास इसी कारण आध्यात्मिक विवेचन करते हुए कहते है कि रे प्राणी ! तू अपने धनीको कहाँ ढूढता है, वह तो तुम्हारे पास ही है
ज्यो मृग नाभि सुवाससो, हृदत वन दौरे । त्यों तुझमें तेरा धनी, तू खोजत और n करता भरता भोगता, घट सो घट माहीं । ज्ञान बिना सद्गुरु बिना, तू सूझत नाहीं ॥