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२०० हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन स्वप्न और अन्तरालमें उन्मत्त आकांक्षा युक्त मानव जीवनका मूर्तिमान रूप पुष्प और फल प्रतीक द्वारा अभिव्यजित किया गया है।
किसलय प्रतीक सासारिक प्रेम, रागमय अनुरक्ति एवं मधुर प्रलोमनोकी अभिव्यक्तिके लिए प्रयुक्त हुआ है। वसन्त ऋतुके आगमनके समय नवीन कोपले निकल आती है, मस्त प्रभात रक्त किसलयोंको लेकर मदिर भावोंका कूजन करता है । फलतः वासनात्मक प्रेम उत्पन्न होता है। यह अनुरक्ति संसारके विपयोंके प्रति सहज होती है।
अमृत आत्मानन्दकी अभिव्यञ्जनाके लिए व्यवहृत हुआ है। अजान, मिथ्यात्व और राग-द्वेप-मोहके निकल जानेपर ज्ञानकलिका अपनी पंखुड़ियोमे विकार और वासनाको बन्द कर लेती है कोयल अपनी नीरवतामे उसके अनन्त सौन्दर्यके दर्शन करती है ; रजनीके तारे रात मर उस आत्मानन्दकी बाट जोहते रहते हैं । यह आत्मानन्द भी कपायोदयकी मन्दता, क्षीणता और तीव्रोदयके कारण अनेक स्पोंमे व्यक्त होता है। अमृत, प्रदीप और प्रकाश-द्वारा आत्मज्ञान और आत्मानन्दकी अमिव्यञ्जना की गई है।
मोती, प्रभात और ऊपा प्रतीको-द्वारा जीवन और जगत्के शाश्वत सौन्दर्यकी अभिव्यञ्जना कवियोने की है। भैया भगवतीदासने आत्मनान प्राप्त करनेकी ओर सकेत करते हुए कहा है
लाई हौं लालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी धनी है। ऐसी कहूँ तिहुँ लोको सुन्दर, और न नारि अनेक धनी है। थाही ते तोहि कह नित चेतन, याहुकी प्रीति जो तोसौ सनी है। तेरी औराधेकी रीम अनन्त, सो मोपै कहूँ यह जान गनी है।
प्राचीन जैन कवियोने जीवनके मार्मिक पभोके उद्घाटनके लिए अलंकार रूपमे ही प्रतीकोकी योजना की है। नवीन कविताओं में वैचित्र्यप्रदर्शन के लिए भी प्रतीकोंका आयोजन किया गया है। अतएव संक्षेपमे