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१६६ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन अर्थ मदोन्मत्त है, दूसरी पंक्तिमे प्रथम मतवारेका अर्थ मतवाले और द्वितीय मतवारका अर्थ मतन्योछावर है।
मैया भगवतीदासने 'परमात्म शतक में आत्माको सम्बोधित करते हुए परमात्माका स्प यमकालकारमं बहुत ही सुन्दर दिखलाया है। .
पीरे होहु सुजान, पीरे कारे है रहे।
परेि तुम विन ज्ञान, पीरे सुधा सुबुद्धि कह॥ इस पद्यमे प्रथम पीरेका अर्थ पिपरे अर्थात् हे प्रिय है और द्वितीय पीरेका अर्थ पीले है । द्वितीय पत्तिम प्रथम पीरेका अर्थ पीड़े और द्वितीय पारेका अर्थ पी-३ अर्थात पियो है। इसी प्रकार निम्न पद्यमें भी यमकालकार भावाकी उत्कर्ष व्यजनामें कितना सहायक है। साधक संसारके विषयोसे ग्लानि प्राप्त करनेके अनन्तर कहता है कि मैं बलवान कामको न जीत सका, व्यर्थ ही विषयासक्त रहा। आत्म-साधना न कर मैं कामदेवके आधीन बना रहा अतः मुझसे मुख और कौन होगा। सब विपयोंसे पूर्ण विरक्ति हो जाती है, उस समय इस प्रकारके भाव या विचारोका उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यह सत्य है कि आत्मभर्त्सना या आत्मालोचनाकी अग्निके विना विकार भस्म नहीं हो सकते है ।
मैं न काम जील्यो बली, मैं न काम रसलीन । मैं न काम अपनी किया, मैं न काम आधीन । इस पद्यमें प्रथम पंक्तिमे प्रथम न कामका अर्थ है कामदेवको नहीं और दूसरे न कामका अर्थ है व्यर्थ ही, दूसरी तिमे न कामका अर्थ है कार्य नहीं किया और दूसरे नकामका में न काम, इस प्रकारका परिच्छेदका अर्थ करनेपर कामदेवके आधीन अर्थ निकलता है। इसी प्रकार निम्न पद्यमें "तारी" शब्दके विभिन्न अर्थ कर पदावृत्ति की गई है।