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हिन्दी - जैन-साहित्य में अलंकार-योजना
तारी पी तुम भूलकर, तारी तन रस लीन । तारी खोजहु ज्ञान की, तारी पति घर लीन ॥ कवि वृन्दावनदासने भी गुरुकी स्तुतिमे शब्दालकारोंकी सुन्दर योजना की है । "जिन नामके परभावसी, परभावकों दहो" में प्रथम परभावका अर्थ प्रभाव है और द्वितीय परभावका अर्थ परभाव-भेद बुद्धि या अन्य पदार्थ विषयक बुद्धि है ।
कवि बनारसीदासने आत्मानुभूतिकी व्यजना वक्रोक्ति अलंकारमे भी की है। इस नामरूपात्मक जगत्के बीच परमार्थतत्त्वका शुद्ध स्वरूप भेदबुद्धि द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । स्वात्मानुभव ही शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करनेमें सहायक होता है।
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अर्थालकारो में उपमा, उत्प्रेक्षा, उदाहरण, असम, दृष्टान्त, रूपक, विनोक्ति, विचित्र, उल्लेख, सहोक्ति, समासोक्ति, काव्यलिङ्ग, श्लेष, विरोधाभास एवं व्याजस्तुति आदिका प्रयोग जैन काव्योमे पाया जाता है।
जैन कवियोंने सादृश्यमूलक अत्रकारोकी योजना स्वरूपमात्रका बोध करानेके लिए नहीं की है, किन्तु उपमेयके भावको उदयुद्ध करनेके लिए, की है । स्वरूपमात्र सादृश्यमें उपमान द्वारा केवल उपमेयकी आकृति या रंगका बोध हो सकता है किन्तु प्रस्तुतके समान ही आकृतिवाले अप्रस्तुतकी योजना कर देने मात्र से तब्बन्य भावका उदय नहीं हो सकता है । अतएव "गो सहशो गवयः" के समान साहस्यवोधक वाक्योमे अलंकार नही हो सकता । जवतक अप्रस्तुतके द्वारा प्रस्तुतके रूप या गुणमे सौन्दर्य या उत्कर्ष नही पहुँचता है तबतक अर्थालंकार नहीं माना जा सकता । अर्थालंकार के लिए "सादृश्यं सुन्दरं वाक्याथोपकारम्” अर्थात् साहृदयमं 'चमत्कृत्याधायकत्वका रहना आवश्यक है । तात्पर्य यह है कि जिस अप्रस्तुतकी योजना से भावानुभूतिमे वृद्धि हो वही वास्तवमं आलंकारिक रमणीयता है । कवि बनारसीदासने निम्न पद्यमें उपमालंकारकी कितनी सुन्दर योजना की है।