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क्या-साहित्य की वात-चीत और माव-भंगिमाके समन्वयने कथोपकथनको इतना प्रभावक बना दिया है, जिससे कोई भी पाठक कलाकारके उद्देश्यको हृदयंगम कर सकता है। कहानीमें इतनी रोचकता और सरसता है, कि आरम्भ कर देनेपर समाप्त किये विना जी नहीं मानता।
विद्युञ्चर हस्तिनापुरके राजा संवरके ज्येष्ठ पुत्र थे । कुमार विद्युञ्चरकी शिक्षा-दीमा राजकुमारोकी भॉति हुई । समस्त विद्याओम प्रवीण हो जानेके उपरान्त कुमारने निश्चय किया कि वह चोर बनेगा । कुमारने चोरीके मार्गमे आगे कहीं ममता और मोह वाधक न हों, इससे पहले पिताके यहाँ ही चोरी करना आवश्यक समझा | शुभ काम घरसे ही शुरू हो, Charity begins at home अर्थात् पहली चोरीका लक्ष्य अपने घरका ही रानमहल और अपने पिताका ही राजकोप न हो तो क्या हो।
विद्युच्चरने एक असाधारण चोरके समान अपने पिताके ही राजकोपसे एक सहस्र दीनार चुराये। चोरी असाधारण थी-परिमाणम, साहसिकतामे और कौशलमे भी । जव महीनो परिश्रम करनेपर भी चोरका पता न लग सका तो कुमारने स्वयं ही जाकर पितासे चोरीकी बात कह दी। पहले तो पिताको विश्वास न हुआ, किन्तु कुमारने वार-बार उमी वातको दुहराया और चोरीका व्यवसाय करनेका अपना निश्चय प्रकट दिया तो पिताकी ऑखोंसे अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। क्षोभके कारण उनके नुखते अधिक न निक्ल सका, केवल यही कहा कि यह नुच्छ और घृणित कार्य तुम्हारे करनेके योग्य नहीं। पिताके द्वारा अनेक प्रकारमे समझाये जानेपर भी कुमारने कुछ नहीं सुना और वह चोरीके पेशेमे प्रवीण हो गया। चारों ओर उसका आतङ्क व्याप्त था, धनिकोके प्राण ही सूखते थे । निरर्थक हिंसाका प्रयोग करना विद्युच्चरको इष्ट नहीं था। व्ह एक डाकुओंके दलका मुखिया था ।
कुछ समयके उपरान्त वह रानगृही नगरीमे गया और वहाँ वसन्त