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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
यहॉपर आदि पुराणको सिंह और मिथ्यातमको गयन्दका रूपक दिया गया है | आदि पुराणके अध्ययन और चिन्तन से मिध्यात्व बुद्धिका दूर हो जाना दिखलाया गया है । मिथ्यात्वका निराकरण सम्यक्तत्व के प्राप्त होनेपर ही होता है। इसी कारण साम्यक्त्वको सिंह और मिथ्यात्वको मतग -- गज कहा है । आदि पुराणका स्वाध्याय सम्यग्दर्शन उत्पन्न करता है, अतएव सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कारण होनेसे कविने उसे सिंहका रूपक दिया है।
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जैन कवियोंने प्रतिपाद्य विषयको प्रस्तुत करनेके लिए उन्हीं उपमानोंका उपयोग नहीं किया है, जो परम्परागत है । काव्यानुभूतिका सर्वांग सुन्दर चित्र वहीं प्रस्फुटित होता है, जहाँ कविकी निजी अनुभूतिका उसके विचारोंसे सामञ्जस्य हो । यह अनुभूति जितनी विस्तृत और गम्भीर होती है, उतना ही प्रतिपाद्य विपय आकर्षक होता है। पुराने उपमानों को सुनते-सुनते हमें अरुचि उत्पन्न हो गई है, अतएव नवीन उपमान ही हमें अधिक प्रभावित करते हैं तथा चर्वितचर्वण किये हुए उपमानों की अपेक्षा प्रभाव भी स्थायी होता है । कवि वनारसीदासने अनेक नवीन उपमानोंके उदाहरण देकर वयं विपयको प्रभावशाली बनाया है । कवि बनारसीदासने उदाहरणाकारका प्रयोग बहुत ही सुन्दर किया है। निम्न दर्शनीय है
जैसे तृन काण वाँस आरने इत्यादि और, ईंधन अनेक विधि पावकमै दहिये ।
आकृति विलोकत कहावै आगि
नानारूप,
दीस एक दाहक सुभाउ जब गहिये ॥ तैसे नवतत्वमें भयो है बहु भेखी जीन, शुद्ध रूप मिश्रित अशुद्ध रूप कहिये । जाही दिन चेतना शकतिको विचार कीलें, ताही छिन अलख अभेद रूप लहिये ॥
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