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हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन आत्माकी तड़पन और उसकी वेचैनीकी अवस्थाका चित्रण महाकवि बनारसीदासने बड़े ही मार्मिक शब्दोमें किया है । कवि कहता है
मै विरहिन पियके अधीन, यो तलको ज्यों जल बिन मीन । मेरा मनका प्यारा जो मिले, मेरा सहज सनेही नो मिल ।। - अनुभूतिके दिव्य होने पर नव बहिरुन्मुखी वृत्तियाँ अन्तरुन्मुखी हो जाती हैं, तो बहिर्जगत्मे कुछ दिखलायी नहीं पड़ता; किन्तु आन्तरिक जगत्मे ही दिव्यानुभूति होने लगती है। इसी अवस्थाका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
वाहिर देखू तो पिय दूर । घट देखें घटमें भरपूर । जव अनुभव करते-करते लम्बा अरसा बीत गया और आत्मदर्शन नहीं हुआ तो उसके धैर्यका बॉघ टूट गया और मुंहसे अचानक निकल पड़ा
अलख अमूरति वर्णन कोय । अवधी पियको दर्शन होय ॥ सुगम पंथ निकट है और । अन्तर आउ विरहकी दौर । नहुँ देखू पियकी उनहार । तन मन सरवस ढारों वार ।। होहु मगनमें दरशन पाय । ज्या दरियामै बूंद समाय ॥ पिनको मिलो अपनपो खोय । बोला गल पानी ज्या होय ॥
चतुर्थ अवस्थाम पहुँचनेपर, नव कि मोक्षरमासे रमण होने ही वाला है; आत्मानुभूति की निम्न पुकार होने लगती है
पिय मोरे घट मैं पिय माहि, जल तरंग ज्या द्विविधा नाहि । पिय मी करता मैं करतूति, पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति ॥ पिय सुख सागर में सुख सीव, पिय शिव मंदिर मैं शिव नीध । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम, पिय माधव मो कमला नाम । पिय शंकर मैं देवि भवानि, पिय निनवर मैं केवलि वानि ॥