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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
उसे अपने पापका फल समाज-वहिष्कार या अन्य प्रकारका दण्ड सहना ही पड़ता है । इसका आपने कितने सुन्दर शब्दोंमे वर्णन किया है— "पाप चाहे बड़ा मनुष्य करे या छोटा । पाप तो पाप ही रहेगा, उसका दण्ड उन दोनोंको समान ही मिलना चाहिये। ऐसा न होनेसे ही संसारमें आज पंचायती सत्ताका लोप हो गया है। बड़े आदमी चाहे जो करें उनके दोपको छिपाने की चेष्टा की जाती है और ग़रीबोंको पूरा दण्ड दिया जाता है "यह क्या न्याय है ? देखो बड़ा वही कहलाता है, जो समदर्शी हो । सूर्यकी रोशनी चाहे दरिद्र हो चाहे अमीर दोनोंके वरॉपर समान रूपसे पडती है ।"
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इस आत्मकथाकी एक सबसे विशेषता यह भी है कि इसमें जैन समाजका सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और शिक्षा विकासका इतिहास मिल जायगा | क्योकि वर्णाजी व्यक्ति नहीं, संस्था है । उनके साथ अनेक संस्थाएँ सम्बद्ध हैं । ज्ञान प्रचार और प्रसार करनेमें थापने अटूट परिश्रम किया है । भारतके एक कोनेसे दूसरे कोने तक विहारकर जैन समाजको -जागृत किया है ।
श्री व्यतिप्रसाद जैन एम० ए० की यह आत्मकथा है । इस आत्मकथाका नाम ही औपन्यासिक ढंगका है और एकाएक पाठकको अपनी ओर आकृष्ट करनेवाला है । घटनाएँ एक दूसरेसे अज्ञात जीवन' विल्कुल सम्बद्ध हैं; वाल्यकाल से लेकर वृद्धावस्थातककी घटनाओंको मोतीकी लड़ीके समान पिरोकर इसे पाठकोंका कण्टहार -चनानेका लेखकने पूरा प्रयास किया है। रोचकता और सरलता गुण पूरे रूपमें विद्यमान हैं।
यद्यपि लेखकने आत्मकथाका नाम अज्ञात जीवन रखा है, किन्तु लेखकका जीवन समाजमे अज्ञात नहीं है । समाजसे सम्मान और आदर प्रयाग |
१. प्रकाशक : रायसाहब रामदयाल अगरवाला,