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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
तव भय, निराशा और घबडाहटका नामोनिशान भी नही रहता । "मनुष्यत्व देवत्वसे उच्च है महाराज" । वचनमे अपरिमित आत्मशक्ति निहित है । यही कारण है कि उनके मस्तककै नम्र होते ही शिवलिङ्ग सैकडो टुकड़ोंमे विभक्त हो जाता है और वहाँ एक अलौकिक प्रकाशपुञ्ज आविर्भूत होता है । शिवलिङ्गके स्थानपर चन्द्रप्रभ तीर्थकरका बिम्ब प्रकट होते ही राजा गर्वहीन हो जाता है और कह उठता है - "मैं आपका शिष्य हॅू महाराज" ।
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'बलिदान' कथा मानव कर्त्तव्यसे ओत-प्रोत है । धर्मप्रेमी, दृढप्रतिश अकलक अपने अनुजके साथ बौद्धगुरुके समक्ष उपस्थित होते हैं और बुद्धिचातुर्यद्वारा पूर्ण विद्वत्ता प्राप्त करते हैं। भेद प्रकट हो जानेपर दोनो बन्दी बना लिये जाते हैं । बन्दीगृहमें निष्कलक कहता है"हमारा निश्चय न है ।" आगे कहता है- " पुरुषार्थ उससे प्रवल होगा भैया ।" मै शक्तिपर विश्वास करता हूँ । आत्मबलिदानकी गाथा इसी एक वाक्यपर आश्रित है - "भैया शीघ्रता करो वे आ पहुँचे । जिनधर्मकी रक्षा तुम्हारे हाथ है ।" तलवारोंके बीच निकलक 'नमो सिद्धाण' कहकर शान्त हो जाता है । वह स्वय मिटकर धर्मकै प्रचार और प्रसार के लिए अपने आग्रहको सुरक्षित रखता है ।
'सत्यकी ओर' कहानी में त्याग और विवेक शक्ति द्वारा सन्देहका प्रासाद ढहता हुआ चित्रित किया गया है। "मैं सच कहता हूँ महाराज, चोर मेरी दृष्टिसे घुस नहीं सकता । मेरी शिक्षा असमर्थ नहीं हो सकती ।" सत्यकी अनुभूति हो जानेपर विद्यश्वर कहता है- "हाँ, श्रीमान् कुख्यात विद्युदर मैं ही हूँ". "मुझे राज्यकी आवश्यकता नहीं महाराज, मुझे इससे घृणा है ।"
'मोह-निवारण' इस कहानी में आत्मिक शक्तिकी सर्वोपरिता व्यक्त की गयी है। कर्म-शक्तिको भी यह शक्ति अपने अधिकारमे रखती है । समदर्शी भगवान् महावीरका उपदेश सभी प्राणी श्रवण करते थे, इस बातको प्रकट
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