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हिन्दी - जैन साहित्य-परिशीलन
[ १८६७ ], ज्ञानाणंच टीका [ १८६८ ], भक्तामर चरित्र [ १८७० ], सामायिक पाठ और चन्द्रप्रभ काव्यके द्वितीय सर्गकी टीका, पत्र-परीक्षावचनिका आदि ग्रन्थ रचे । टीकाओकी भाषा पुरानी ढूँढारी है; फिर भी विपयका स्पष्टीकरण अच्छी तरह हो जाता है । उदाहरणार्थ निम्न गद्याच उदधृत है
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"यहाँ कार्य ग्रहण तो कर्मका तथा अवयवीका अर अनित्यगुण तथा प्रध्वंसाभावका ग्रहण है। बहुरि कारणको कहते हैं, समवायी समवाय तथा प्रध्वंस के निमित्तका ग्रहण है । बहुरि गुणतें नित्य गुणका ग्रहण है अर गुणी कहते हैं गुणके आश्रयरूप हव्यका ग्रहण हैं । बहुरि सामान्य ग्रहण पर, अपर जातिरूप समान परिणामका ग्रहण है । 'तथैव, तद्वत्' वचनतै अर्थरूप विशेपनिका ग्रहण है। ऐसे वैशेषिकमती माने है जो इन सबके भेद ही है, ये नाना ही हैं, अभेद नाही हैं । ऐसा एकान्तकार मान है। ताकूँ आचार्य कहें हैं कि ऐसा मानने तँ दूपण आ है" ।
२० वी शती के प्रारम्भमें पं० सदासुखदास, पन्नालाल चौधरी, पं० भागचन्द्र, चपाराम, जौहरीलाल शाह, फतेहलाल, शिवचन्द्र, शिवनीलाल आदि कई टीकाकार हुए। इन टीकाओंसे जैन हिन्दी साहित्यम गका प्रचलन तो हुआ, पर गद्यका प्रसार नही हो सका ।
आधुनिक गद्य साहित्य [ २०वी शती ]
जैन लेखक आरम्भ से ही ऐसे भावको, जिनमें जीवनका सत्य, मानवकल्याणकी प्रेरणा और सौन्दर्यकी अनुभूति निहित है, उपयोगी समझ स्थायी बनानेका यत्न करते आ रहे हैं। मानव भावनाओंकी अभिव्यक्तिका संग्रह नवीन रूपसे इस शताब्दीमे गद्यमं जितना किया गया है उतना पद्यमे नहीं । कारण स्पष्ट है कि आजका मानव तर्क और भावना के साम