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२३० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन दीसै घरवासी रहें घरहूतै उदासी,
जिन मारग प्रकाशी जग कीरत जगमासी है। कहाँ लौ कहीने गुणसागर सुखदास जूके,
ज्ञानामृत पीय बहु मिथ्याबुद्धि नासी है ॥ श्री पण्डित सदासुखदासके गार्हस्थ्य जीवनके सम्बन्धमे विशेष जानकारी प्रास नहीं है । फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि पण्डितजीको एक ही पुत्र था, जिसका नाम गणेशीलाल था। यह पुत्र भी पिताके अनुरूप होनहार और विद्वान् था। पर दुर्भाग्यवश बीस वर्षकी अवस्थामे ही इकलौते पुत्रका वियोग हो जानेसे पण्डितजी पर विपत्तिका पहाड़ टूट पड़ा । संसारी होनेके कारण पण्डितजी मी इस आघातसे विचलितसे हो गये । फलतः अजमेर निवासी स्वनामधन्य सेठ मूलचन्दजी सोनीने इन्हे जयपुरसे अजमेर बुला लिया । यहाँ आने पर इनके दुःखका उफान कुछ शान्त हुआ।
पण्डित सदासुखनीकी भाषा ढूंढारी होने पर भी पण्डित टोडरमलजी और पण्डित जयचन्दनीकी अपेक्षा अधिक परिष्कृत और खडी बोलीके निकट है । भगवती आराधनाकी प्रशस्तिकी निम्न पक्तियाँ दर्शनीय है।
मेरा हित होने को और, दीखै नाहिं जगत में और। यातें भगवति शरण जु गही, मरण आराधन पाऊँ सही। हे भगवति तेरे परसाद, मरणसमै मति होहु विषाद । पंच परमगुरु पद करि ढोक, संयम सहित लहू परलोक ॥ इनका समाधिमरण संवत् १९२३ मे हुआ था ।
पं० भागचन्द-बीसवी शताब्दीके गण्यमान्य विद्वानों में पं० भागचन्दजीका स्थान है। आप सस्कृत और प्राकृत भाषाके साथ हिन्दी भाषाके भी मर्मज्ञ विद्वान थे । ग्वालियरके अन्तर्गत ईसागढके निवासी थे। सस्कृतमे आपने महावीराष्टक स्तोत्र रचा है। अमितगति-श्रावकाचार,