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त्रैमासिक शोध पत्रिका
20P
महावीर निर्वाण विशेषांक
सासव
विमल
अनेकान्त
परस्परोपवनाम
वर्ष २८
वीर निर्वाण सम्बत् २५०१
१९७५
परामर्श-मण्डल
डा० प्रा० ने० उपाध्ये
डा प्रेमसागर जन श्री यशपाल जैन
सम्पादक
श्री गोकुल प्रसाद जैन एम.ए., एल.एल.बी.
साहित्यरत्न
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर
२१, दरियागंज,
दिल्ली
M12
मूल्य : १० रुपए
भगवान श्री बाहुबलि
गोम्मटेश
जैननगर, फिरोजाबाद
प्रतिष्ठा
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सम्पादकीय
महाश्रमण तीर्थंकर महावीर विश्व-इतिहास में ईसा-पूर्व छठी शताब्दी का काल अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है। अनेक देशों में माध्यात्मिक व्यग्रता तथा बौद्धिक विक्षोभ के चिह्न दष्टिगोचर हो रहे थे। भारत की स्थिति भी इस काल में अत्यन्त दयनीय थी। चारों ओर हिंसा, अनाचार, शोषण एवं कर्मकाण्ड का ताण्डव-नृत्य हो रहा था। वाणी-रहित दीन पशुमों की बलि देकर यज्ञादि धार्मिक कृत्य सम्पन्न किए जाते थे । शूद्र एवं नारी की स्थिति तो पशु से भी हीन तथा दयनीय हो चुकी थी। प्रहम्मन्य पण्डित विविध प्रकार के खण्डन-मण्डन से व्याप्त वितण्डावाद में व्यस्त थे तथा इतर सिद्धान्तों को हीन घोषित करके अपने ही दष्टिकोण को श्रेष्ठ एवं सर्वमान्य प्रतिपादित कर रहे थे। सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि अधर्म, धर्म का तथा पाप, पुण्य का परिधान पहिन कर खड़ा हो गया था। ऐसी विषम परिस्थितियों में इस मनाचार का सफल विरोध किसी साधारण 'वीर' के लिए सम्भव न था। इसके लिए तो एक ऐसे 'महावीर' की मावश्यकता थी जो मात्म-बल द्वारा जन-जन के कल्याण हेतु अत्याचार का निराकरण कर सके तथा भटके हुए दुःख-प्रस्त प्राणियों को सन्मार्ग प्रदर्शित कर उनको दुःखों से मुक्ति दिला सके ।
युग की इसी आवश्यकता के समनुरूप वैशाली के एक सन्निवेश कुण्डग्राम में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के पुनीत दिवस को भगवान् महावीर का जन्म हुआ। समस्त सुख-साधनों से सम्पन्न क्षत्रिय राजकुमार होकर भी वे भोगविलास में प्रासक्त नहीं हए और ३० वर्ष की अवस्था में सभी राज्य-वैभव त्याग कर उन्होंने वीतराग प्रवज्या ग्रहण की। लगभग १२ वर्षों तक तीव्र तप-साधना करके तथा घोर उपसर्गों को सहन करके केवलज्ञान प्राप्त किया। सर्वज्ञ होकर उन्होंने अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, स्याद्वाद आदि सिद्धान्तो का प्रचार करके, सभी प्राणियों का कल्याण किया । सर्वतोमुखी क्रान्ति के सूत्रधार महावीर ने लोक-भाषा को अपने उपदेशों का माध्यम बना कर पण्डितों के भाषाभिमान का निराकरण किया। ७२ वर्ष की प्रायु तक प्राणिमात्र को दिव्य ध्वनि का रस-पान करा कर भगवान महावीर ने कार्तिक अमावस्या को पावापुरी में निर्वाण लाभ किया।
ऐसे क्रान्तिकारी युग-पुरुष महाश्रमण तीर्थंकर महावीर की २५००वी निर्वाण-तिथि की पावन वेला में महावीरपरिनिर्वाण-वर्ष का आयोजन महती धर्म-प्रभावना तथा प्रात्मोन्नति का पुनीत अवसर है। इस उपलक्ष में जितने भी धार्मिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन हो, वे अल्प ही हैं । भगवान् महावीर के प्रति सच्ची श्रद्धा तभी व्यक्त हो सकेगी, जब हम प्रादर्श एवं व्यवहार में समता लाकर उनके प्रादों को अपने जीवन में चरितार्थ कर सकें।
इस पुनीत पर्व पर 'भनेकान्त' का यह महावीर-निर्वाण-विशेषांक माननीय विद्वानों तथा जिज्ञासु पाठकों के कर-कमलों में सादर समर्पित है। भगवान् महावीर के जीवन दर्शन एवं सिद्धान्त, श्रमण संस्कृति भौर परम्परा, जैन दर्शन और साहित्य तथा जैन पुरातत्व, इतिहास, कला, स्थापत्य, ज्योतिष प्रादि विविध विषयों पर विभिन्न अधिकारी विद्वानों के शोषपूर्ण लेखों से सुसज्जित करके इस विशेषांक को सर्वाङ्ग-सम्पन्न बनाने का हमारा प्रयास कितना सफल हमा है इसका निर्णय तो सुविज्ञ पाठक ही कर सकेंगे। हम तो केवल त्रुटियों के लिए क्षमार्थी हैं।
प्रस्तुत विशेषांक के लिए हमें जिन विद्वान् लेखकों का सहयोग प्राप्त हुमा है, उसके लिए हम उनके अत्यन्त पभारी हैं। माशा है कि भविष्य में भी हमें इसी प्रकार उनका सहयोग एवं भाशीर्वाद प्राप्त होता रहेगा।
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चित्र परिचय
वीर सेवा मन्दिर
'वीर सेवा मन्दिर सोसाइटी' का वार्षिक अधिवेशन प्रावरण मुखपृष्ठ : प्रथम जैन तीर्थकर सम्राट ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र
२६ सितम्बर, १९७५ को हुआ। नियमावली की धारा
६(१) के अन्तर्गत कार्यकारिणी समिति के एक तिहाई तथा सम्राट भरत चक्रवर्ती के भ्राता, महाप्रतापी, दृढ़।
सदस्यों को अवकाश प्राप्त करना था। अत: लाटरी के तपस्वी एवं महायोगी महासत्व श्री बाहुबलि गोम्मटेश की मनोज्ञ ४५ फुट ऊंची मूर्ति। यह मूर्ति सेठ छदामी लाल
प्राधार पर सर्व श्री साहू शान्तिप्रसाद जैन, श्यामलान जैन जैन ट्रस्ट, जैन नगर, फिरोजाबाद द्वारा मंगलापाड़, कार
ठेकेदार, बाबू लाल जैन (श्रीमती) जयवन्ती देवी जैन, महेन्द्र कल (कर्नाटक) में, राष्ट्रपति द्वारा १९६६ में पुरस्कृत
सेन जैनी, शीलचन्द जैन तथा लक्ष्मीचन्द जैन ने अवकाश प्रसिद्ध शिल्पी श्री रेन्जाल गोपाल शेण से उत्कीर्ण कराई
प्राप्त किया। गई है।
अधिवेशन मे इन सातों सदस्यों की सर्व सम्मति से पुनः
कार्यकारिणी समिति का सदस्य निर्वाचित किया गया। मति विवरण : प्रखण्ड शिला की लम्बाई ४५ फुट
तत्पश्चात् १ अक्तूबर १९७५ को नवनिर्मित कार्यतथा चौड़ाई १२ फुट । मूर्ति की लम्बाई (मापाद-मस्तक)
मापाद-मस्तक) कारिणी समिति की बैठक में निम्नलिखित पदाधिकारी ३५३ फुट । मूर्ति का भार १८० टन । शिल्पकार्य :
भी सर्वसम्मति से पुन: निर्वाचित किए गए :प्रारम्भ १२-६-१९७३; पूर्ण २०-२-१९७५ ।
श्री साह शान्तिप्रसाद जैन... अध्यक्ष इस मूर्ति की प्रतिष्ठा जैन गगर, फिरोजाबाद मे
श्री श्यामलाल जैन ठेकेदार'......उपाध्यक्ष फरवरी १६७६ में होने की सम्भावना है। उपाध्याय
श्री महेन्द्र मेन जैनी .........." महासचिव मुनि श्री विद्यानन्द जी ने सेठ छदामी लाल जी को इस
-सचिव महत्कार्य के लिए 'माधुनिक चामुण्डराय' की उपाधि से |
'अनेकान्त' के सम्बन्ध में तथ्य सम्बन्धी घोषणा विभूषित किया है। इस सम्पूर्ण कार्य में श्री रत्नत्रय धारी
प्रकाशन-स्थान - वीर सेवा मन्दिर, जैन एवं श्री विमल कुमार जैन दोनो ट्रस्टियों का विशेष.
२१, दरियागज, दिल्ली-६ तया अनुपम योगदान रहा है।
प्रकाशन प्रवधि- मासिक प्रावरण चतुर्थ पृष्ठः
मद्रक-प्रकाशक - वीर सेवा मन्दिर के मिमित्त श्री महावीर जिन मन्दिर, जैन नगर, फिरोजाबाद
श्री प्रोमप्रकाश जैन (श्री छदागी लाल जैन ट्रस्ट द्वारा निर्मित)। मकराना
राष्ट्रिकता - भारतीय धवल पाषाण (संगमरमर) निर्मित इस भव्य मन्दिर
पता -- २३, दरियागंज, दिल्ली-६ की स्थापना तथा भगवान महावीर की मूर्ति की प्रतिष्ठा
सम्पादक -श्री गोकुल प्रसाद जैन (पंच कल्याणक) सन् १९६१ में हुई थी। ट्रस्ट के
राष्ट्रिकता -भारतीय
-३, रामनगर, नई दिल्ली-५५ पादर्श संकल्पानुसार मन्दिर में केवल एक ही मूर्ति
स्वामित्व -वीर सेवा मन्दिर, भगवान महावीर की लगभग १० फुट ऊंची पद्मासन
२१, दरियागज, दिल्ली-६ मूर्ति-विराजमान है। मन्दिर चारों भोर से उदासीन
मैं, मोमप्रकाश जैन, एतद्वारा घोषित करता हूं कि पाश्रम, कान्जी पुस्तकालय, मतिथि-गृह, प्रवचन भवन,
मेरी पूर्ण जानकारी एवं विश्वास के अनुसार उपर्युक्त सग्रहालय एवं सुन्दर सरोवर से परिवृत्त है।
विवरण सत्य है। इसी मन्दिर के पीछे भौर संग्रहालय के सामने भग
मोमप्रकाशन वान श्री बाहुबलि की उक्त सुविशाल खड्गासन मूर्ति की
प्रकाशक पापना की जाएगी।
पता
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विषयानुक्रमणिका
प्रारम्भिका
श्री महावीर-स्तवनम्
भगवान महावीर : उनका युग और जीवन-दर्शन महावीर की तपस्या और सिद्धि
-उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द भगवान् महावीर की वाणी के स्फुलिंग
-प्राचार्य श्री तुलसी भगवान महावीर की वैचारिक क्रान्ति
-साहू श्रेयांस प्रसाद जैन लोकनायक महावीर
-श्री राजधर जैन 'मानसहंस' भगवान महावीर का क्रान्ति तत्त्व और वर्तमान सन्दर्भ -डा० नरेन्द्र भानावत भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण
-श्री बाबूलाल जैन भगवान् महावीर का जीवन-दर्शन : प्राधुनिक सन्दर्भ में -प्रो० श्रीरंजन सूरिदेव महावीर : कुछ तथ्य
-श्री शोभनाथ पाठक तीर्थंकर महावीर तथा महात्मा बुद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क -डा० भाग चन्द्र जैन महावीर के विदेशी समकालीन
---डा. भगवत शरण उपाध्याय महावीर-कालीन भारत की सांस्कृतिक झलक
-श्री कन्हैया लाल सरावगी महावीर-काल : कुछ ऐतिहासिक व्यक्ति
-श्री दिगम्बर दास जैन महावीर तथा नारी
-श्री रत्नत्रय धारी जन
''30राय
१४९
१६३ १७१
१८६ १६७
श्रमण संस्कृति और परम्परा श्रमण-संस्कृति : इतिहास और पुरातत्व के सन्दर्भ में
-मुनि श्री नगराज श्रमण-साहित्य में वर्णित बिभिन्न सम्प्रदाय
-डा. भागचन्द्र जैन भारतीय संस्कृति में 'परहन्त' की प्रतिष्ठा
-डा. हरीन्द्रभूषण जैन श्रमण-साहित्य : एक दृष्टि
-मुनि श्री दूलहराज श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
-श्री चित्रेश गोस्वामी श्रमण-परम्परा की प्राचीनता
-पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री श्रमण-संस्कृति एवं परम्परा
-श्री युगेश जैन
नपर्शन एवं न्याय
सूफी भौर जैन रहस्य-भावना स्याद्वाद और अनेकान्त : एक सही विवेचन भागवत पुराण और जैन धर्म स्याद्वाद का इतिहास महिंसा के मायाम : महावीर मौर गांधी
-डा. पुष्पलता जैन -श्री बाबूलाल जैन -श्री त्रिवेणी प्रसाद शर्मा -श्री मिश्रीलाल जैन -श्री यशपाल जैन
२१६ २२१
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२२९
११७
१३३ १५२ २२५
५७
निर्गण रहस्य-भावना और जैन रहस्य-भावना
-डा० पुष्पलता जैन जैन न्याय-परिशीलन
-डा० दरबारीलाल कोठिया
जैन साहित्य कुन्दकुन्दाचार्य और उनकी रचनाएं
-श्री प्रेमचन्द जैन जैन कवि कुशललाभ का हिन्दी-साहित्य को योगदान
-डा. मनमोहन स्वरूप माथुर भारतीय वाङ्मय को प्राकृत कथा-काव्य की देन
-डा० कुसुम जैन छुनकलाल कृत नेमि-ब्याह
-श्री कुन्दनलाल जैन इसि-भासियाई-सूत्र का जापानी अनुवाद
-श्री चन्द्रशेखर प्रसाद दर्शन-सार का हिन्दी-पद्यानुवाद
-श्री कुन्दनलाल जैन उपाध्याय यशोविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
-श्री गोकुल प्रसाद जैन कुछ प्राचीन जैन विद्वान्
-पं० परमानन्द जैन
जैन इतिहास एवं राजनीति महाराज प्रशोक मौर जैन धर्म
-श्री दिगम्बर दास जैन वैशाली गणतन्त्र
-श्री राजमल जैन मगध और जैन संस्कृति
-डा. ज्योति प्रसाद जैन अहिंसा : प्राचीन से वर्तमान तक
-श्री जगन्नाथ उपाध्याय यापनीय संघ पर कुछ पौर प्रकाश
-डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये
जैन पुरातत्त्व एवं कला शिल्प-कला एवं प्रकृति-वैभव का प्रतीक : अमर सागर
-श्री भर चन्द्र जैन उड़ीसा में जैन धर्म एवं कला
-श्री मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी मध्य प्रदेश की प्राचीन जैन कला
-प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी महावीर स्वामी : स्मृति के झरोखे में
-श्री शिवकुमार नामदेव तीर्थकरों के शासन देव और देवियाँ
-पं० बलभद्र जैन जैन संस्कृति और मौर्यकालीन अभिलेख
-स्व. डा० पुष्यमित्र जैन भारतीय संस्कृति को जैन कला का योगदान
-श्री नीरज जैन
मैन-विज्ञान हरिवंश पुराण में शरीर-लक्षण
-श्री राजमल जैन विज्ञान मोर महावीर की महिंसा
-श्री शम्सुद्दीन जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
-स्व. डा. नेमि चन्द्र शास्त्री
विविधा पुस्तक-समीक्षा
-श्री युगेश जैन
१७१ २४४
११५
१३६ १५८ १७८
२०४
२५४
-
वार्षिक मूल्य ६) रुपये महावीर निर्वाण विशेषांक का मूल्य
१०) रुपए
जो सबस्य इस विशेषांक से मनेकान्त के ग्राहक बनेंगे, उन्हें यह विशेषांक प्राधे मल्य में दिया जाएगा।
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प्रोम् महम्
যাণকর
महावीर निर्वाण विशेषांक
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यग्ध सिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
वीर-निर्वाण संवत् २५०१, वि० सं० २०३२
श्री महावीर-स्तवनम् तिहुवण-भवणप्पसरिय-पच्चक्खववोह-किरण-परिवेढो। उइनो वि अणत्थवणो परहंत-विवायरो जयउ॥
-महाबन्ध अर्थ--प्रर्हत् (महन्त) भगवान रूपी उस सूर्य की जय हो, जो तीन लोक रूपी भवन में प्रसृत ज्ञानकिरणों से व्याप्त हैं तथा जो उदित हुए भी अस्त नहीं होते।
सो जयइ जस्स केवलणाणुज्जलदप्पणम्मि लोयालोयं । पुढ पदिबिवं दोसइ वियसिय सयवत्तगभगउरो वीरो॥
-कसायपाहुड (जयधवल) अर्थ-जिसके केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल दर्पण में लोक और प्रलोक विशद रूप से प्रतिबिम्ब के समान
दिखाई देते हैं और जो विकसित कमल के गर्भ के समान समुज्ज्वल तथा सोनेके समान पीतवर्ण हैं, उन भगवान् महावीर की जय हो।
जयइ जगजीव जोणी, विहाण प्रो जगगुरु जगाणन्यो। जगनाहो जगबन्धु, जयह जगपियामहा भगवं ॥ जयह सुयाणयभवो, तित्थयराणं अपच्छिमो जयह।
जयइ गुरुलोयाणं, जयइ महप्पा महावीरो ॥ पर्य-जगत् के सम्पूर्ण चराचर जीवों के ज्ञाता तथा जगत के गुरु, नाथ, बन्धु पोर मानन्द-रूप
पितामह भगवान् महावीर की जय हो, जय हो। द्वादशांग सूत्रों के जन्म-दाता, मन्तिम तीर्थकर, समग्र लोक के गुरु तथा महान् प्रात्मा, भगवान् महावीर की जय हो, जय हो।
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कुन्दकुन्दाचार्य और उनकी रचनाएँ
प्रेम चन्द्र जैन, शोष-छात्र, राजस्थान विश्वविद्यालय
दिगम्बर जैनवाङमय में भगवान महावीर और गौतम से इनके नाम का विशेष उल्लेख है। गणधर के बाद प्राचार्य कुन्दकुन्द एक अग्रगण्य एवं इनके उपलब्ध ग्रंथों का परिचय निम्न प्रकार से है: सम्माननीय मनिवर तथा ग्रन्थकार है। दिगम्बर ग्रन्थों में
कुन्दकुन्दाचार्य के उपलब्ध सभी ग्रंथ प्राकृत पद्यो में इनका विविध नामों से उल्लेख प्राप्त होता है, जैसे हैं । अर्थात उनका एक भी ग्रंथ न तो गद्य मे है और न पानन्दी, गृधपिच्छ, चक्रगीव और एलाचार्य । परन्तु इन ही संस्कृत मे | दिगम्बर जैन वाङ्मय मे सबसे अधिक ग्रंथ मामों की वास्तविकता शंकास्पद है। इनका समय भी (२२-२३) आपके ही उपलब्ध होते है, जो ८४ पाहुड़ विवाद है। इस विषय में कोई स्पष्ट और प्रामाणिक ग्रंथों के कर्ता के नाम से प्रसिद्ध है। . . उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। कोण्डकुण्ड के निवासी १.पंचास्तिकाय सार : होने के कारण ये कुन्दकुन्द नाम से कहे जाते है। पंचस्थकायसंग्रहसक्त' (पंचाम्तिकायसंग्रहसूत्र) अथवा इसी नाम से इनकी वंश परंपरा चली है अथवा पंचस्थिकायसार' पद्यात्मक, जैन शौरसेनी मे रचित इस 'कुन्दकुन्दान्वय' स्थापित हुना है, जो अनेक शाखा- कति के दो स्वरूप प्राप्त होते हैं। एक में अमृतचन्द्र के प्रशाखाओं में विभक्त होकर दूर-दूर तक फैला है, मर्करा
मत से इस समग्र कृति में १७३ गाथाएं है और दूसरे में के ताम्रपत्र में, जो शक संवत ३८८ में उत्कीर्ण हुपा है,
जयसेन और बसुदेव कृत टीका के अनुसार १८१ पद्य हैं। इसी कोण्डकुन्दान्वय की परम्परा में होने वाले छः पुरातन,
अंतिम पद्य में यद्यपि 'पंचस्थिकायमंग्रहमूक्त' नाम प्राता प्राचार्यों का गुरु-शिष्य के क्रम से उल्लेख है।'
है, परन्तु दूसरा नाम विशेष प्रचार में है। अमृतचन्द्र के ये बहुत ही प्रामाणिक एवं सुप्रतिष्ठित प्राचार्य हुए। अनुसार प्रथम स्कन्ध में १०४ गाथाएं तथा द्वितीय स्कन्ध सम्भवत: इनको उक्त श्रुत-सुप्रतिष्ठा के कारण ही शास्त्र. में ६६ गाथाएं हैं, प्रारम्भ के २६ पद्य पीठबंध रूप है और सभाके प्रादि में जो मंगलाचरण 'मंगलं भगवान् वीरों' ६४ वीं प्रादि गाथाओं का निर्देश सिद्धांतसूत्र के नाम से इत्यादि किया जाता है उसमें 'मंगलं कुन्दकुन्दायों इस रूप किया गया है। सौ इन्द्रों द्वारा नमस्कृत जिनों का वन्दन १. देखो : कुर्ग-इन्स्क्रिपशन्स का निम्न अंश-(ई. व्याख्या नाम की संस्कृत टीका हेमराज पाण्डे के सी० आई०)।
बालावबोध पर से पन्नालाल बाकलीवाल कृत हिन्दी २. दस भक्ति मे गद्यात्मक अंश है, परन्तु उसके कुन्दकुन्द अनुवाद के साथ (रायचन्द्र जैन ग्रंथमाला) ने १९०४ को मौलिक रचना होने में सन्देह है।
में तथा अंग्रेजी अनुवाद सहित पारा से प्रकाशित हुई ३. देवसेनाचार्य ने भी अपने दर्शनसार (वि० सं० १६.)
है। इसी ग्रंथ-माला में प्रकाशित इसकी दूसरी को निम्न गाथा में कुन्दकुन्द (पद्मनन्दि) के सीमंधर
प्रावृति में अमनचन्द्र जयसेन की संस्कृत टीकायें तथा स्वामी से दिव्यज्ञान प्राप्त कराने की बात लिखी है. हेमराज पाण्डेय का बालावबोध छपा है। अमृतचन्द्र जइप उमणदि-णाहो सोमंधरसाभि-दिवबणाणण ।
की टीका के माथ गुजराती अनुवाद 'दिगम्बर न विवोहइ तो समणा कहं सुभगं पयाणंति ॥ स्वाध्याय मन्दिर, से वि० सं० २०१४ में प्रकाशित
श्रवणबेलगोल शिलालेख न.४० ४. यह कृति अमृतचन्द्र कृत तत्वदीपिका यानी समय ५. धवला में 'पंचस्थिकायसार' का उल्लेख है।
हुमा है।
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कुन्दकुन्वाचार्य और उनकी रचनाएँ करके इसका प्रारम्भ किया गया है।
किया गया है। कुल मिलाकर २७५ गाथाएं हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध में षड्द्रव्य और पांच प्रस्तिकायों का प्रथम श्रुतस्कन्ध : व्याख्यान किया गया है। यहाँ द्रव्य का नक्षण, द्रव्य के सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्र का भेद, सप्तभंगी, गुण और पर्याय, काल द्रव्य का स्वरूप, मोक्ष मार्ग के रूप में उल्लेख, चारित्र का धर्म के रूप में जीब का लक्षण, सिद्धों का स्वरूप, जीव और पुद्गल का धर्म का शम के साथ ऐक्य, और शम द्रव्य के लक्षण, जीव बंध, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के लक्षण के शुभाशुभ और शुद्ध परिणाम, सर्वज्ञ का स्वरूप, 'स्वयंभ' का प्रतिपादन किया गया है। द्वितीय स्कन्ध में नौ की व्याख्या, ज्ञान द्वारा सर्वव्यापिता, श्रुतकेवली, सूत्र पौर पदार्थों के प्ररूपण के साथ मोक्षमार्ग का वर्णन किया प्रतीन्द्रिय ज्ञान तथा क्षायिक ज्ञान की व्याख्या, तीर्थपुर गया है। पुण्य, पाप, जीव, मजीव, प्रास्रव, बंध, संवर, द्रव्य, पर्यायों मादि के लक्षण, स्वभाव एवं अनन्तता, निर्जरा और मोक्ष का कथन किया गया है।
प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ज्ञान की व्याख्या, सिद्ध परमात्मा की सूर्य टीकाएं : उपरोक्त कृति पर अमृतचन्द्र ने तत्वदीपिका के साथ तुलना, इन्द्रियजन्य सुख की प्रसारिता प्रादि । अथवा समय व्याख्या नाम की टीका लिखी है। व्याख्या
द्वितीय श्रुतस्कन्ध : कार ने इसमें कहा है कि द्रव्य में प्रति समय परिवर्तन होने
द्रव्य, गुण और पर्याय के लक्षण, स्वरूप तथा पारपर भी उसके स्वभाव को अबाधित रखने का कार्य प्रगुरु
स्परिक सम्बन्ध, सप्तभगी की व्याख्या जीवादि पांच और लघु नामक गुण करता है । इसके अतिरिक्त जयसेन',
काल का निरूपण, परमाणु और प्रमेय की व्याख्या, शुद्ध ब्रह्मदेव, ज्ञानचन्द्र, मल्लिषण और प्रभाचन्द्र ने भी संस्कृत
____मात्मा पोर बन्ध की व्याख्या आदि। टीकाएं लिखी है, इसके अलावा प्रज्ञातकृतक दो संस्कृत टीकाएं भी है जिनमे से प्रथम का नाम तात्पर्यवृति है। तृतीय श्रुतास्कन्ध : ऐसा उल्लेख जिनरत्नकोष (विभाग १ पृष्ठ २३१) में चारित्र श्रुतस्कन्ध में श्रामण्य के चिह्न, छेदोपस्थापक है। मूल कृति पर हेमराज पाण्डे ने हिन्दी में बालावबोध श्रमण, छेद का स्वरूप, युक्त पाहार, उत्सर्ग और पपलिखा। बालचन्द्र देव की कन्नड़ टीकाएं भी हैं। प्रभा- वादमार्ग, पागमज्ञान का महत्व, श्रवण का लक्षण, मोक्ष चन्द्र की हिन्दी टीका भी प्राप्त होती है।
तत्वादि का प्ररूपण है। २. प्रवचनसार:
टोकाएं : पवयणसार पर संस्कृत, कन्नड़ और हिन्दी "पवयणसार" प्राकृत के एक प्रकार के शौरसेनी में, में अनेक व्याख्यायें की गई हैं। संस्कृत व्याख्यानों में मार्या छन्द में रचित है । इस ग्रन्थ में तीन तस्कन्ध है, अमृतचन्द्र की वृत्ति सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण है। प्रथम में ६२, द्वितीय में १०८ एवं तृतीय में ७५ गाथाए दूसरी संस्कृत में जयसेन की टीका तात्पर्यवृत्ति' है। इसमें है। इसमें कमशः ज्ञान, ज्ञेय और चरित्र का प्रतिपादन टीकाकार ने पंचाथिकायसंग्रह की टीका का निर्देश किया ६. इनकी टीका का नाम 'तात्पर्यवृति' है । इसकी उल्लेख पवयणसार की उनकी टीकामों में है। इन
पुष्पिका के अनुसार मूलवृति तीन अधिकारों में तीनों में से पंचस्थिकाय संग्रह की टीका में सबसे विभक्त है। प्रथम अधिकार में १११ गाथाएं हैं और
अधिक उद्धरण पाते हैं। पाठ अन्तराधिकार है, द्वितीय अधिकार में ५० ७. इनकी टीका का नाम 'प्रदीप' है। गाथाए हैं और दस अन्तराधिकार हैं तथा तृतीय
५. कई लोगों के मत से देवजित ने भी संस्कृत में टीका
लिखी है। अधिकार में २० गाथाएं हैं और वह बारह विभागों
९. बालचन्द्र ने कन्नड़ में टीका लिखी है। में विभक्त हैं। इस तरह इस टीका के अनुसार कुल
१०. देखिये-पृष्ठ १६२-१८६ जैन इतिहास-मेहता १८१ गाथाएं होती हैं। जयसेन की इस टीका का एण्ड कापड़िया।
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४, वर्ष २८, कि०.
अनेकान्त है। दार्शनिक विषयों के निरूपण में ये अमृतचन्द्र का शुद्ध नय की अपेक्षा जीव को कमों से अस्पृष्ट माना अनुसरण करते हैं और उनकी वृत्ति का भी उपयोग करते हैं। इनका समय बारहवीं शताब्दी के द्वितीय चरण के
"ओवे कम्मं बद्धं पुष्ठं चेदि ववहारणयाणवं। पासपास है। प्रभातचन्द्र कृत "सरोज भास्कर" पवयण
सुधणयस्स दुजोवे प्रबद्धपुटठं हवा कम्मं ॥ सार की तीसरी टीका है। उसकी रचना समयसार की
व्यवहार नय की अपेक्षा जीव कर्मों से स्पष्ट है, शुद्ध बालचन्द्र कृत टीका के पश्चात् हुई है। इनका समय नय की अपेक्षा तो उसे प्रबद्ध और प्रस्पष्ट समझना चौदहवीं शताब्दी का है। मल्लिषेण नामक किसी दिगम्बर चाहिए। ने इस पर संस्कृत में टीका लिखी थी, ऐसा माना जाता कर्म भाव के नष्ट हो जाने पर कर्म का फिर से उदय है। इनके अलावा वर्षमान ने भी एक वृति लिखी है। नही होता: हेमराज पाण्डे (वि० सं० १७०६) ने हिन्दी में बालावबोध पक्के फलम्मि परिव जहः ण फलं यज्झबे पुणों विहे। लिखा है, इसका प्राधार अमृतचन्द्र की टीका है।
जीवस्स कम्मझावे पडिदे ण पुणोदयमवेह ॥ ३. समयसार:
जेसे पक्के फल के गिर जाने पर फिर अपने डंठल से समयसार कुन्दकुन्दाचार्य को जैन शौरसेनी में पद्य में यक्त नही होता, वैसे ही कर्मभाव के नष्ट हो जाने पर रचित एक महत्वपूर्ण कृति है। इसकी दो वाचनाए मिलती फिर से उसका उदय नहीं होता। हैं"। प्रथम में ४१५ पद्य है तथा द्वितीय में ४३६ है।
२९ है। टीकाएं: समयसार पर अमृत चन्द्र ने 'प्रात्मख्याति' ममतचन्द्र ने समग्र कृति को ६ विभागो में व्यक्त नामक टीका लिखी है। इसमें २६३ पद्य का एक किया है। प्रथम ३८ गाथानो को पूर्व रंग कहा है। कलश है। कुन्दकुन्दाचार्य की प्राप्त सभी कृतियों में समयसार सबसे
जयसेन ने 'तात्पर्यवृत्ति'१५ नाम की संस्कृत टीका बड़ा है। जयसेन को टीका में १० अधिकार है। पहले
लिखी है। इसके अलावा निम्न टीकाकार भी हैंमें स्वसमय, परसमय, शुद्धनय, मात्मभावना और सम्यक्त्व
(१) प्रभाचन्द्र, (२) नयकीति के शिष्य बालचन्द्र, का प्ररूपण है। दूसरे में जीव-प्रजीव, तीसरे में कर्म-कर्ता,
विशाला कीति तथा जिनमुनि। इस पर एक अज्ञातकृतक चौथे में पुण्य-पाप, पांचवें में मानव, छठे मे संवर, सातवें में निर्जरा, माठ में बन्ध, नवें में मोक्ष और मन्तिम
संरकृत टीका भी है। दसवें में शुद्ध पूर्ण ज्ञान का प्रतिपादन है।
४. नियमसार: समयसार का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए कहा है : श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित यह पद्यात्मक कृति कम्म बबमबद्ध जीवं एवं तु जाण णयपखं ।
भी जैन शोरसेनी मे है तथा प्राध्यात्मिक विषय को लिए पक्साहिपकंतो पुण भण्णवि जो सो समयसारो॥ हए है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्
जीव कर्म से बद्ध है या नहीं, यह नयों की अपेक्षा से चारित्र को नियम-नियम से किया जाने वाला कार्यही जानना चाहिए । जो नयो की अपेक्षा से रहित है उसे एवं मोक्षोपाय बतलाया गया है और मोक्ष के उपाय भूत समय का सार समझना चाहिए।
सम्यग्दर्शनादि का स्वरूपकथन करते हुए उनके अनुष्ठान ११. अनुवाद के साथ 'सेकरिड बुक आफ द जैन्स' सिरीज त्मक अनुवाद जैन भतिथि सेवा समिति, सोनगढ़ की में १९३० में तथा अमृतचन्द्र पौर जयसेन की
पोर से १९४० में प्रकाशित हुआ है। टीकामों के साथ सनातन जैन 'ग्रंथमाला' बनारस ये १
१२. इस कलश पर शुभ्रचन्द्र ने सस्कृत मे तथा रायमल्ल
और जयचन्द्र ने एक-एक टीका हिन्दी मे लिखी है। से भी १९४४ में यह छप चुका है। इनके अतिरिक्त १३. इसमे पंचस्थिकाय संग्रह को अपनी टीका का उल्लेख श्री हिम्मतलाल जेठालाल शाह का गुजराती पथा- किया है।
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कुन्दाकुन्दाचार्य और उनकी रचनाएँ
का तथा उनके विपरीत मिथ्या-दर्शनादिके त्याग का विधान मूल कृति पर हेमराज पाण्डे ने हिन्दी में बालबोध किया गया है और इसी को जीवन का सार निर्दिष्ट लिखा है। किया गया है।
पाहत नियमसार में प्राप्त, आगम और तत्वों की श्रद्धा से
_कई विद्वानों की मान्यता है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने सम्यकत्व की उत्पति, अठारह दोषो का उल्लेख, प्रागम,
८४ पाहुड़ लिखे थे। परन्तु इन सबके अब तक भी नाम जीव प्रादि छः तत्वार्थ, ज्ञान एवं दर्शनरूप उपयोग के प्रकार, स्वभाव पर्याय एवं विभाव पर्याय, मनुष्यादि के
उपलब्ध नही हुए है"। जैन शौरसेनी में पाठ पाहुड़ प्राप्त
होते है। जो निम्न प्रकार से है : भेद, व्यवहार एवं निश्चय से कर्तृत्व और भोक्तृत्व पुद्गल मादि अजीव पदार्थों का स्वरूप, हेय एवं उपादेय तत्व, १-नसणपाहुड़ (दर्शन प्राभुति) शुद्ध जीव में बन्ध स्थान, उदय स्थान, क्षायक आदि चार
इसमें सम्यग्दर्शना के महात्म्यादि का वर्णन ३६ भावों के स्थान, जीव स्थान और मार्गणा स्थान का गाथाओं में है। इससे यह जाना जाता है कि सम्यग्दर्शन प्रभाव, शुद्ध जीव का स्वरूप, संसारी जीव का प्रात्मा से
को ज्ञान और चरित्र पर प्रधानता प्राप्त है। वह धर्म का अभेद, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की व्याख्या, अहिमा मूल है और इसलिए जो सम्यग्दर्शन से जीवादि तत्वों के प्रादि पच महाव्रत की, ईर्या आदि पाँच समिति की तथा यथार्थ-श्रद्धान से भ्रष्ट है, उसको मक्ति की प्राप्ति नही व्यवहार एवं निश्चय नय की अपेक्षा से मनोगुप्ति आदि
हो सकती। २६वी गाथा में तीर्थङ्कर चौंसठ चामरों से तीन गुप्ति की स्पष्टता, पंच परमेष्ठी का स्वरूप, भेद
युक्त होते है और जिनके चौतीस अतिशय होते है तथा विज्ञान के द्वारा निश्चय, चारित्र की प्राप्ति, निश्चय नय
३५वी गाथा में उनकी देह १००८ लक्षणों से लक्षित होती के अनुसार प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, चतुर्विध पालोचना,
है, इस बात का प्ररूपण है। प्रायश्चित, परम समाधि, सामयिक एवं परम भक्ति का निरूपण, निश्चय बहिरात्मा और अन्तरात्मा, व्यवहार एवं
टीका : दसणपाहुड़ पर विद्यानन्द के शिष्य श्रुत
सागर" ने संस्कृत मे टीका लिखी है। दसणपाहुड़ पर निश्चय नय के अनुसार सर्वज्ञता, केवल ज्ञानी में ज्ञान
अमृतचन्द्र ने टीका लिखी थी। ऐसा कई लोगों का और दर्शन का एक ही समय में सद्भाव आदि ।
अनुमान है। ____टीकाएं : इस ग्रन्थ पर एक मात्र संस्कृत टीका पद्म. प्रभ मलचरिदेव की टीका उपलब्ध है। इसके अनुसार २-चारित्रपाहुड़ (चारित्र प्राभूत) गाथानों की संख्या १८७ है । टीका का नाम 'तात्पर्यवति'
इस ग्रथकी गाथा संख्या ४४ तथा विषय सम्यकचारित्र है । इसमें उन्होने अमृताशीति, श्रुतबन्धु और मार्गप्रकाश
है। यह चरित्र तथा उसके दो भेद सम्यक्त्वचरण मौर में से उद्धरण दिये है।
सयम-चरण ऐसे दो भेदों में विभक्त करके उनका अलग-अलग इनके अतिरिक्त अकलंक, अमृतच द्र, गुणभद्र, चन्द्र- स्वरूप बताता है और सयमचरण के सागार और अनागार कोति, पूज्यपाद, माधवसेन, बीर नन्दी, समन्तभद्र, ऐसे दो भेद करके उनके द्वारा क्रमश. श्रावकधर्म का सूचनासिद्धसेन, और सोमदेव का भी उल्लेख पाता है। त्मक निर्देश करता है।
१४. ये पाहुड और प्रत्येक की संस्कृत छाया, दसपाहुड १५, इनका परिचय इन्ही की रचित प्रौदार्यचिन्तामणि
प्रादि प्रारम्भ के छपाहुडो की श्रुतसागर कृत संस्कृत इत्यादि विविध कृतियों के निर्देश के साय मैंने 'जैन टीका, रयणसार और वारसाणु-वेक्खा 'षट्प्राभूतादि- संस्कृत साहित्यनों के इतिहास' [खंड १: सार्वजनीन संग्रह:' के नाम से माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथ- साहित्य पृष्ठ ४२-४४ और ४६ और ३००) में दिया माला में प्रकाशित हुए है।
है। श्रत सागर विक्रम सोलहवीं सदी में हए थे।
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६, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
टीका: चारित्तपाहुड पर श्रुतसागर की टीका है। ६-मोक्ख पाहड (मोक्ष प्राभूत)
इसमें १०६ पद्य है। इसमें प्रात्मा के बहिरात्मा, ३-सुतपाहुड (सूत्र प्राभूत)
और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके उनके स्वरूप को समयह ग्रन्थ २७ गाथात्मक है। इसमें सूत्रार्थ की मार्गणा झाया है। मुक्ति अथवा मरमात्मा-पद कैसे प्राप्त हो सकता का उपदेश है । प्रागम का महत्व ख्यापित करते हुए उसके है, इसका अनेक प्रकार से निर्देश किया गया है। अनसार चलने की शिक्षा दी गई है, जैसे कि सूत्र से युक्त खान में से निकलने वाला स्वर्ण और शुद्ध किये गये सूई हो तो वह नष्ट नहीं होती, गुम नहीं होती वैसे ही
सुवर्ण में जैसा अन्तर है, वैसा अंतर अन्तरात्मा और परसूत्र का ज्ञाता संसार मे भटकता नही है।
मात्मा में है। टोका : इसकी टीका के रचयिता श्रुतसागर है।
इस दसपाहुड से मोक्खपाहुड तक के छ: प्राभूत ४-बोषपाहुड (बोष प्राभूत)
ग्रंथों पर श्रुतसागर का टीका भी उपलब्ध है, जो कि
माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के षट्प्राभूतादि संग्रह में मूल ग्रंथों इस पाहुड के शरीर में ६२ हड्डियों की गाथानों से
के साथ प्रकाशित हो चुकी है। निर्मित हैं। इसका प्रारम्भ प्राचार्यों के नमस्कार से होता है । इसकी तीसरी तथा चौथी गाथामो में इसमें प्राने ७-लिग पाहुड (लिंग प्राभूत) वाले ग्यारह अधिकारों का निर्देश है-(१)मायतन, यह २२ गाथात्मक ग्रंथ है। इसमे श्रमण लिंग को (२) चैत्यगृह, (३) जिन प्रतिमा, (४) दर्शन, (५)
लक्ष्य लेकर उन पाचरणों का उल्लेख किया गया है जो जिन बिम्ब, (६) जिन मुद्रा, (७) ज्ञान, (८) देव,
इस लिंगधारी जैन साधु के लिए निषिद्ध है। जो श्रमण (९) तीर्थ, (१०) तीर्थङ्कर एव (११) प्रबज्या। प्रब्रह्म का प्राचरण करे, वह संसार में भटकता है। जो टीका : इस पर श्रुतसागर की टीका है। अन्तिम
विवाह कराए, कृषि कर्म, वाणिज्य और जीवघात कराये, तीन गाथानों को उन्होंने 'चूलिका कहा है।
वह द्रव्य-लिंगी नरक में जाता है।
____टीका : लिंग पाहुड पर एक भी संस्कृत टीका अगर ५-भावपाहुड (भाव प्राभूत)
रची भी गई हो तो प्रभाचन्द्र की मानी जाती है। १६३ गाथानों से निर्मित यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्व का ८-सील पाहर (शील प्राभत) है। इसमें भाव को चित्तशुद्धि की महत्ता को अनेक प्रकार इस ग्रंथ में ४० गाथाएं हैं। इसमें शील का, विषयों से सर्वोपरि निरूपित किया गया है। बिना भाव के बाह्य से विरा काम
या है। बिना भाव के बाह्य से विराग का महत्व बताया गया। पांचवीं गाथा में एसा परिग्रह का त्याग करके नग्न दिगम्बर साधु होने और बन उल्लेख है कि चारित्र रहित ज्ञान, दर्शन रहित लिंग ग्रहण में जाकर बैठने तक को व्यर्थ ठहराया गया है। परिणाम पौर संयमरहित तप निरर्थक है। उन्नीसवें पद्य में जीवनति के बिना संसार परिभ्रमण नही रुकता और न बिना दया, दम, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान भाव के कोई पुरुषार्थ हो सकता है।
और तप को शील का परिवार कहा है। विषय-लोलुपता इसका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि उपलब्ध
के कारण सत्यकि पुत्र नरक में गया, ऐसा उल्लेख किया
गया है। सभी आठों पाहडों में सबसे बड़ा है। इनमें से (१६३ में से) अधिकांश आर्या छन्द में है।
____टीका: सील पाहड पर भी एक भी संस्कृत टीका
यदि रची गई है तो प्रभाचन्द्र की मानी जाती है। टीका : इस पर श्रुतसागर का टीका है।
१.कुछ पद्य मनुस्टुप में हैं। अधिकांश भाग भार्या छन्द में है।
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सफी और जैन रहस्य-भावना
Dडा. श्रीमती पुष्पलता जैन मध्यकालीन सुफी-हिन्दी जैन साहित्य के अध्ययन से कारण वह प्रकट नही हो पाता । जायसी ने भी गुरु रूपी ऐसा प्रतीत होता है कि सूफी कवियो ने भारतीय साहित्य परमात्मा को अपने हृदय में पाया है। जायसी का ब्रह्म और दर्शन से जो कुछ ग्रहण किया है, उसमें जैनदर्शन की सारे संसार में व्याप्त है और उसी के रूप से सारा संसार भी पर्याप्त मात्रा रही है। जायसी ब्रह्म को सर्व व्यापक, ज्योतिर्मान है।जनों का प्रात्मा भी सर्वव्यापक है और शाश्वत, मलख और अरूपी' मानते हैं । जनदर्शन में भी उसके विशुद्ध स्वरूप में संसार का हर पदार्थ दर्पणवत् मात्मा को अरस, अरूपी और चेतना गुण से युक्त मानते प्रतिभाषित होता है। है। सूफियो ने मूलत: प्रात्मा के दो भेद किये हैं- नक्स जायसी ने ब्रह्म के साथ अद्वैतावस्था पाने में माया और रूह । नफ्स ससार में भटकने वाला प्रात्मा है और मिलाउहीन) और शैतान (राघवदूत) को बाधक तत्व रूह विवेक सम्पन्न है' । जैन दर्शन में भी प्रात्मा के दो माना है। वासनात्मक प्रासक्ति ही माया है । शंतान स्वरूपों का चित्रण किया गया है-पारमार्थिक और प्रेम-साधना की परीक्षा लेने वाला तत्त्व है । पद्मावत में व्यावहारिक । पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा शाश्वत है नागमती को दुनियाँ धंधा, अलाउद्दीन को माया एवं
और व्यावहारिक दृष्टि से वह संसार में भटकती रहती राघव चेतन को शैतान के रूप में इसीलिए चित्रित किया है । सूफी दर्शन मे रूह को विवेक सम्पन्न माया गया है। गया है। जायसी ने लिखा है- मैंने जब तक प्रात्मा जैनो ने प्रात्मा का गुण अनन्तज्ञान दर्शन माना है। सूफी स्वरूरी गुरु को नही पहिचाना, तब तक करोड़ो पर्दे बीच दर्शन मे रूह (उच्चतर) के तीन भेद माने गए हैं- में थे, किन्तु ज्ञानोदय हो जाने पर माया के सब आवरण कल्व (दिल) रूह (जान) सिर (अन्त.करण) । जनों ने नष्ट हो गए । प्रात्मा और जीवगत भेद नष्ट हो गया। भी प्रात्मा के तीन भेद माने है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा जीव जब अपने प्रात्मभाव को पहिचान लेता है तो फिर पौर परमात्मा सूफियों की आत्मा का सिर्र रूप जैनों का यह अनुभव हो जाता है कि तन, मन, जीवन सब कुछ अन्तरात्मा कहा जा सकता है । यही से परमात्म पद की वही एक प्रात्मदेव है । लोग अहकार के वशीभूत होकर प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है । संसार की सृष्टि का हर द्वैतभाव में फंसे रहते है, किन्तु ज्यों ही अहकार नष्ट हो कोना सूफी दर्शन के अनुसार ब्रह्म का ही प्रश है। पर जाता है, त्यों ही छाया और प्रातप वाला भेद नष्ट हो जैन दर्शन के अनुमार सृष्टि की संरचना में परमात्मा का जाता है। माया की अपरिमित शक्ति है । उसने कोई हाथ नहीं रहता । जैन दर्शन का प्रात्मा ही बिशुद्ध रतनसेन जैसे सिद्ध माधक को पदच्युत कर दिया । होकर परमात्मा बनता है अर्थात् उसकी प्रात्मा में ही अलाउद्दीन रूपी माया सदैव स्त्रियों में प्रासक्त रहती है । परमात्मा का वास रहता है पर अज्ञान के प्रावरण के छल-कपट भी उसकी अन्यतम विशेषता है । दश द्वार में १. जायसी ग्रन्थावली पृ. ३
७. प्रवचनसार, प्रथम अधिकार; बनारसी विलास, २. समयसार, ४६; नाटक समयसार, उत्थानिका ३६-३७ ज्ञानबावनी, ४
८. जायसी ग्रन्थमाला, पृ. ३०१ ३. हिय के जोति दीप वह सुझा-जायसी ग्रन्थावली, पृ ५१
६. जब लगि गुरू हौं पड़ा न चीन्हा । ४ जायसी ग्रथावली, पृ १५६
कोटि अन्तरपट बीचहिं दीन्हा । ५. गुरू भोरे भोरे हिये दिये तुरंगम ठाट, वही पृ. १०५ जब चीन्हा तब और कोई । तन मन जिउ जीवन सब सोई॥ ६. नयन जो देखा केवल भा, निरमल नीर सरीर । 'हों हों करत धोख इतराहीं। जब भा सिद्ध कहाँ परछाहीं।। हंसत जो देखा हंस भा, दसन जोति नगहीर ॥
वही, पृ. १०५, जायसी का पदमावत: काव्य और वही पृ. २५
दर्शन, पृ. २१६-२०.
पावली
तुरंग-
रसरा
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८, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
स्थित प्रात्मतत्त्व को अन्तर्मुखी दृष्टि से ही देखा जा के परिपालन से प्राप्त होता है'। जायसी ने भी जैनों के सकता है पर माया इस प्रात्मदर्शन में बाधा डालती है। समान तोता रूप सद्गुरु को महत्त्व दिया है। यही पद्मामाया को इसीलिए ठग, बटमार आदि जैसी उपमायें भी बती रूपी साध्य का दर्शन कराता है। बी गई हैं। संसार मिथ्या माया का प्रतीक है। यह सब जायसी ने विरह को प्रेम से भी अधिक महत्त्व दिया प्रसार है।
है। इसलिए जायसी का विरह-वर्णन साहित्य और दर्शन जैनदर्शन में माया-मोह अथवा कर्म को साध्य प्राप्ति के क्षेत्र में एक अनुपम योगदान है। उत्तरकालीन जैन भक्त में सर्वाधिक बाधक कारण माना गया है। इसमें प्रासक्त साधक भी इस विरह की ज्वाला में जले है। बनारसीदास व्यक्ति ऐन्द्रिक सुख को ही यथार्थ सुख मानता है। यहां और प्रानंदधन को इस दृष्टि से नही भुलाया जा सकता। माया और शैतान जैसे पृथक् दो तत्त्व नहीं माने गये। जायसी के समान ही हिन्दी जैन कवियों ने भी प्राध्यासारा संसार माया और मिथ्यात्वजन्य ही है। मिथ्यात्व त्मिक विवाह और मिलन रचाये है । जायसी ने परमात्मा के कारण ही इस क्षणिक संसार को जीव अपना मानता को पति रूप माना है पर वह है स्त्री-पद्मावती । परन्तु है। जायसी ने जिसे अन्तरपद अथवा अन्तर्दर्शन कहा है, जैन साधकों-भक्तों ने परमात्मा को पति रूप में स्वीकार जनधर्म उसे प्रात्मज्ञान अथवा भेदविज्ञान कहता है । जब किया है पर उसका रूप स्त्री नहीं, पुरुष रहा है। बनातक भेद विज्ञान नही होता तब तक मिथ्यात्व, माया, कर्म रसीदास का नाम दाम्पत्यमूलक जैन साधकों में अग्रणी है। अथवा अहंकार प्रादि दूर नहीं होते। जायसी के समान जायसी और हिन्दी जैन कवियों की वर्णन शैली में यहां जीव और प्रात्मा, दो पृथक् तत्त्व नही है। जीव ही अवश्य अन्तर है। जायसी ने भारतीय लोक कथा का प्रात्मा है। उसे माया रूपी ठगिनी जब ठग लेती है तो प्राधार लेकर एक मरम रूपक खड़ा किया है और उसी वह संसार में जन्म-मरण के चक्कर लगाता रहता है।
के माध्यम से सूफी दर्शन को स्पष्ट किया है। परन्तु जैन वासना को यहां भी संसार का प्रमुख कारण माना गया साहित्य के कवियों ने लोक कथाओं का प्राथय तो लिया है। मिथ्यात्व को दुःखदायी और पात्मज्ञान को मोक्ष का
है परन्तु उनमे वह रहस्यानुभूति नहीं जो जायसी में कारण कहा गया है।
दिखाई देती है। जैनो ने अपने तीर्थदुर नेमिनाथ के जैन योग साधना के समान सूफी योग साधना भी है। विवाह का खुव वर्णन किया और उनके विरह में राजुल मष्टांगयोग और यम-नियम लगभग समान है। जायसी रूप माधक की प्रात्मा को तडफाया भी है परन्तु मिलन के का योग प्रेम से संबलित है पर जैनयोग नही। जायसी ने माध्यम से प्रनिर्वचनीय आनंद की प्राप्ति में प्रस्फुटन को राजयोग माना है, हठयोग नहीं। जैन भी हठयोग को भल गये जिसे जायसी ने अपनी जादूभरी कलम से प्राप्त मुक्ति का साधन नहीं मानते। सूफियों में जीवन मुक्ति
हा मानत । सूफिया म जावन मुक्ति कराया है। वहा पद्मावती रूपी परमात्मा भी रत्नसेन और जीवनोत्तर मुक्ति, दोनों मुक्तियो का वर्णन मिलता रूपी प्रियतम साधक के विरह से प्राकुल-व्याकुल हुई है। है। जीवन मुक्ति दिलाने वाली भावना है जो फना और जैनों का परमात्मा साधक के लिए इतना तड़पता हुमा बका को एक कर देती है। फना मे जीव की सारी सांसा दिखाई नही देता। वह तड़फे भी क्यो ? वह तो बेचारा रिक आकांक्षायें, मोह, मिथ्यात्व प्रादि नष्ट हो जाते हैं। बीतरागी है। रागी प्रास्मा भले ही तड़पती रहे । जैनधर्म में इसी अवस्था को वीतराग अवाया कहा गया इस प्रकार सूफी और रहस्यभावना के तुलनात्मक है। इसी को अद्वैतावस्था भी कह सकते है, जहां आत्मा अध्ययन से यह पता चलता है कि सूफी कवि जैन साधना अपनी परमोच्च अवस्या में लीन हो जाती है। यही से बहत कुछ प्रभावित रहे है। उन्होंने अपनी साहित्यिक निर्वाण है जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सक्षमता से इस प्रभाव को भलीभांति अन्तर्भूत किया है। १. प्रवचनसार, ६४; बनारसी विलास, ज्ञानबावनी १६-३० ३. पंचास्तिकाय, १६२, नाटक समयसार, संवरद्वार, ६, २. उत्तराध्ययन, २०-३७; हिन्दी पद संग्रह, पृ. ३६ पृ. १२५ नाटक समयसार, जीवद्वार, २३
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निर्गुण रहस्य भावना और जैन रहस्य भावना
D डा० श्रीमती पुष्नलता जैन
निर्गुण का तात्पर्य है-पूर्ण वीतराग अवस्था । कबीर कबीर की माया, भ्रम, मिथ्याज्ञान, क्रोध, लोभ, मादि निर्गुणी सन्तों का ब्रह्म इसी प्रकार का निर्गण और मोह, वासना, प्रामक्ति प्रादि मनोविकार मन के परिधान निराकार माना जाता है। कबीर ने निर्गुण के साथ ही है, जिन्होने त्रिलोक को अपने वश मे किया है। यह माया सगुण ब्रह्म का भी वर्णन किया है। इसका अर्थ यह है ब्रह्म की लीला की शक्ति है। इसी के कारण मनुष्य कि कबीर का ब्रह्म निराकार और साकार, द्वत और दिग्भ्रमित होता है। इसीलिए इसे ठगौरी, ठगिनी, छलनी, अद्वैत तथा भावरूप और प्रभावरूप है। जैसे जैनों के नागिन आदि कहा गया गया है। कबीर ने व्यावहारिक अनेकान्त में दो विरोधी पहल अपेक्षाकृत दष्टि से निभ दृष्टि से भाषा के तीन भेद माने है - मोटी माया, झीनी सकते हैं, वैसे कबीर के ब्रह्म में भी है। कबीर पर जाने माया और विद्यारूपिणी। मोटी माया को कर्म कहा गया अनजाने एक ऐसी परम्परा का जबरदस्त प्रभाव पड़ा था, है। इसके अन्तर्गत धन, सम्पदा, कनक, कामिनी आदि जो अपने में पूर्ण थी और स्पष्टतः कबीरदास की सत्या- पाते है। पूजा-पाठ प्रादि बाहाडम्बर में उलझना भी न्वेषक बुद्धि ने उसे स्वीकार किया। उन्होने अनुभूति के ऐसे कर्म है जिनसे व्यक्ति परमपद की प्राप्ति नहीं कर माध्यम से उसे पहिचाना। जैन परम्परा में भी प्रात्मा पाता। झीनी माया के अन्तर्गत माशा, तृष्णा, मान आदि के दो भेद मिलते है। निष्कल और सकल'। इसे ही हम मनोविकार पाते है। विद्यारूपिणी माया के माध्यम से क्रमशः निर्गुण और सगुण कह सकते है। रामसिंह ने सन्त साध्य तक पहुंचने का प्रयत्न करते है। यह प्रात्मा निर्गुण को ही नि संग कहा है। उसे ही निरंजन भी का व्यावहारिक स्वरूप है। कहा जाता है। दूसरे शब्दो में हम कह सकते हैं कि जैनों का मिथ्यात्व अथवा कम कबीर की माया के पञ्चपरमेष्ठियों में अर्हन्त और सिद्ध क्रमश: सगुण और सिद्वान्त के समानार्थक है। कबीर के समान जन कवियों निगुण ब्रह्म है जिसे कबीर ने स्वीकार किया है । बनारसी. ने भी माया को ठगिनी कहा है। कबीर की मोटी माया दास ने इसी निगंण को शुद्ध, बद्ध, अविनाशी और शिव जैनों का कर्म है जिसके कारण जीव में मोहासक्ति बनी संज्ञाओं से अभिहित किया है।
रहती है। जैसा हम देख चुके हैं, जैन कवि भी कवीर के
: १. सतों, धोखा कांसू कहिये, उनकी कथायें जहां एक तरफ लोकिक दिखाई देती है, वहां रूपक के माध्यम से वही पारलौकिक दिखती है, जबकि
गुण में निरगुण, निरगुण में गुण, जैन कवि प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी इस शैली को नहीं
बांट छाड़ि क्यू नहिये?-कबीर ग्रंथावली, पद १८० अपना सके। उनका विशेष उद्देश्य प्राध्यात्मिक सिद्धान्तों
२. जैन शोध और समीक्षा-पृ० ६२ का निरूपण करना रहा । जायसी का प्रात्मा और ब्रह्म ये ३. परमात्मप्रकाश, १-२५ दोनों पृथक्-पृथक तत्व है जो अन्तर्मुखी वृतियों के माध्यम ४. पाहुड़दोहा, १०० से अद्वैत अवस्था में पहुंचते हैं। जबकि जनों का परमात्मा ५. परमात्मप्रकाश, १.१६ मात्मा की ही विशुद्धतम स्थिति है। वहाँ दो पृथक्-पृथक् ६. बनारसी बिलास, शिवपच्चीसी, १-२५ तत्व नहीं इसलिए मिलन या ब्रह्मसाक्षात्कार की समान ७. कबीर ग्रंथावली, पु०९६६ तीव्रता होते हुए भी दिशायें अलग-अलग रहीं। ...... . वही, पृ० १५१ ९ . वही पृ० ११६
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१०, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
समान बाह्याडम्बर के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं। वे तो शुष्क हठयोग को जैनों ने अवश्य स्वीकार नहीं किया है। पारमा के विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विशुद्ध कबीर के समान जैन कवि भी समदरसी हुए है और साधन को ही अपनाने की बात करते हैं। विद्यारूपिणी प्रेम के खूब प्याले पिये हैं । तभी तो उनका दुविधा भाव माया का सम्बन्ध मुनियों के चारित्र से जोड़ा जा सकता जा सका । कबार
जा सका । कबीर ने लिखा है-- है । कबीर और जैनों की माया में मलभत अन्तर यही है पाणी ही त हिम भया, हिम है गया बिलाइ। कि कबीर माया को ब्रह्म की लीला की शक्ति मानते है
जो कुछ या सोई भया, अब कछ कह्या न जाइ।
बनारसीदास ने भी ऐसा ही कहा है-- पर जैन उसे एक मनोविकार जन्य कर्म का भेद स्वीकार
पिय मोरे घट, मैं पिय माहि, करते हैं।
जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि ॥ ___ माया अथवा मनोविकारों से मुक्त होना ही मुक्ति "राम की बहुरिया" मानकर ब्रह्म का साक्षात्कार को प्राप्त करना है। उसके बिना संसार-सागर से पार किया है। पिया के प्रेमरस में भी कबीर खूब नहाये नहीं हुमा जा सकता। इसलिए "पापा पर सब एक है। बनारसीदास और प्रानन्दधन ने भी इसी प्रकार समान, तब हम पाया पद निरबाण" कहकर कबीर ने दाम्पत्यमुनक प्रेम को अपनाया है। कबीर के समान ही मुक्ति-मार्ग को निर्दिष्ट किया है। जैन कवियों ने इसे छीहल भी पाने प्रियतम के विरह से पीड़ित है । प्रानन्दही भेदविज्ञान कहा है और वही मोक्ष का कारण माना धन की प्रात्मा तो कबीर से भी अधिक प्रियतम के वियोग गया है। कबीर और जैन, दोनों संसार को दु.खमय, में तड़पती दिखाई देती है। कबीर की चुनरिया को क्षणिक और अनित्य मानते है। नरभव-दुर्लभता को भी उसके प्रीतम ने संवारा' और मगबती दास ने अपनी दोनों ने स्वीकार किया है। दोनों ने ही दुविधाभाव का चुनरिया को इष्टदेव के रंग में रगा। कबीर और बनाअन्त करके मुक्तावस्था प्राप्त करने की बात कही है। रसीदास दोनों का प्रेम अहेतुक है। दोनो की पत्नियों कबीर की जीवन्मुक्त और विदेह भवस्था जैनों की केवली अपने प्रियतम के वियोग मे जल के बिना मछली के समान और सिद्ध अवस्था कही जा सकती है।
तड़फी है। आध्यात्मिक विवाह रचाकर भी वियोग की स्वानुभति को जनों के समान निणी सन्तों ने भी सर्जना हुई है। ब्रह्ममिलन के लिए निर्गुण सन्तों और महत्त्व दिया है। कबीर ने ब्रह्म को ही पारमार्थिक सत् जैन कवियो ने खूब रगरलियां भी खेली हैं। माना है और कहा है कि ब्रह्म स्वयं ज्ञानरूप है, सर्वज्ञ
र कहा है कि ब्रह्म स्वय ज्ञानरूप है, सर्वज्ञ इस प्रकार निर्गुणियां सन्तों और मध्यकालीन हिन्दी व्यापक है और प्रकाशित है-अविगत अपरंपार ब्रह्म, जैन कवियों ने थोड़ी बहुत असमानतानों के साथ समान ग्यान रूप सब ठाम'।" जैनों का विशुद्ध पात्मा भी चेतन रूप से गुरू की प्रेरणा पाकर ब्रह्म का साक्षात्कार किया गुण रूप है और ज्ञान-दर्शन शक्ति से समन्वित है। इसी है। इसके लिए उन्होने भक्ति अथवा प्रपत्ति की सारी ज्ञान शक्ति से मिथ्याज्ञान का विनाश होता है। कबीर विधानों का प्राश्रय लिया है। जैन साधकों ने अपने इष्ट की 'पातमदृष्टि' जैनो का भेदविज्ञान अथवा प्रात्मज्ञान देव की वीतर गता को जानते हुए भी श्रद्धावशात् उनकी है। बनारसीदास, द्यानतराय मादि हिन्दी जैन कवियों साधना की है ।
00 ने सहजभाव को भी कबीर के समान अपने ढग से लिया
न्यू एक्सटेन्सन एरिया, है । अष्टांग योगो का भी लगभग समान वर्णन हुआ है।
सदर, नागपुर १. कबीर ग्रन्थावली, पृ० १४५
६. बनारसी विलास, अध्यात्मगीत, १६ २. नाटक समय सार, निर्जरा द्वार, पृ० २१०
७. आनन्दधन बहोत्तरी, ३२-४१ ३. कबीर ग्रन्थावली, पृ० २४१
८. कबीर-डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृ० पू८७ ४. कबीर ग्रन्थावली, पृ० १००
९. चनरी, हस्तलिखित प्रति; अपभ्रंश और हिन्दी में ५. कबीर ग्रन्थावली, परचा को भंग, १७
जैन रहस्यवाद, पृ०१०
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श्रमण साहित्य में वर्णित विभिन्न सम्प्रदाय
D० भागचन्द जैन भास्कर, नागपुर विश्वविद्यालय
प्राचीन साहित्य मे साहित्यकार स्वपालित दर्शन को निश्चित स्थिति ज्ञान तक न पहुंचने पर अमराविक्खेपवाद, उपस्थित करने के साथ ही इतर दर्शनों का खण्डन किया नेवसजीनासीवाद, उच्छेदवाद प्रादि जैसे सिद्धान्तों करता था । श्रमण (जैन-बौद्ध) साहित्य में यह खण्डन- की स्थापना की गई। प्राकृत साहित्य में सम्भवत इन्हीं मण्डन परम्परा भलीभांति उपलब्ध होती है। यहां हम मतों को ३६३ भेदो मे विभाजित किया गया है-क्रियाभ० महावीर और भ० बुद्ध कालीन ऐसे ही सम्प्रदायों का वाद के १८०, प्रक्रियावाद के ८४, प्रज्ञानवाद के ६७ प्रौर उल्लेख कर रहे है जिनकी परम्परा लगभग छिन्न-भिन्न हो विनयवाद के ३२ । बारहवें अग दृष्टिवाद में भी जनेतरः चुकी है।
__मतों का वर्णन रहा होगा । सभ्भव है, इन मतों के मूलत पालि-साहित्य में महात्मा बुद्ध के समकालीन छः दो भेद रहे हो-क्रियावाद और प्रक्रियावाद । तटस्थ-वतितीर्थंकरों का उल्लेख पाता है-पूरण कस्सप, मक्खलि ने इसके बाद प्रज्ञानवाद को, और उसके उपरान्त विनय गोसाल, अजित-केसकम्बलि, प्रबुध कच्चायन, संजय वेलट्ठि- वाद को जन्म दिया होगा। पुत्त तथा निगण्ठनातपुत (महावीर)। इनके अतिरिक्त
१. क्रियावाद - इस दर्शन के अनुसार जीव का और भी छोटे-मोटे शास्ता थे जो अपने सिद्धांतो को समाज
अस्तित्व है और वह अपने पुण्य-पाप रूप कर्मों के फल का
भोक्ता है। इन कर्मों की निर्जरा कर उसके मत में जीव मत इस प्रसंग में उल्लेखनीय है जिन्हें वहां दुर्जेय कहा निर्वाण प्राप्त कर लेता है। कही-कही क्रिया का अर्थ गया है।
चारित्र भी किया गया है । तदनूसार व्यक्ति को क्रिया ही १. प्रादि सम्बन्धी १८ मत (पुब्बान्तानुदिट्ठि
फलदायी होती है, ज्ञान नही; क्योंकि वह ज्ञान से संतुष्ट अठारसहि वत्थूहि)
नहीं होता। अत: एकान्त रूप से जीवादि पदार्थो को (i) सस्सतवाद
स्वीकारने वाला मत क्रियावाद है। उसके १८० भेद हैं। (ii) एकच्चसस्सतवाद
जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य पौर (iii) अन्तानन्तवाद (iv) अमराविक्षेपवाद
पाप, ये नव पदार्थों के स्वत: और परत के भेद से दो प्रकार (v) अधिच्चसगुपान्तवाद
के है। वे नित्य और अनित्य भी रहते है। पुन: ये सभी २. अन्त सम्बन्धो ४४ मत (अपरन्तानुदिट्ठी- भेद काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और प्रात्मा चतुचतारी वत्थूहि)
के भेद से ५ प्रकार के है। इस प्रकार ६x२x२४५ १. उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा १६)
=१८० भेद हुए। २. " असञ्जीवादा
क्रियावाद की दृष्टि में ज्ञान रहित क्रिया से ३. " नेवसजीनासजीवादा ८४४+१=
किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती। 'इसीलिए पढम ४. उच्छेदवाद
७]
६२ ५. दिट्ठधम्मनिब्बानवाद
नाणं तपो दया" कहा गया है। 'अहं सु विज्जाचरणं इन बासठ मिथ्यादष्टियों में प्रात्मा, लोक, पुनर्जन्म पमोक्खम' का भी यही सदर्भ है। इसी प्रसंग में सांख्य, जैसे प्रश्नों पर विशेष रूप से विचार किया गया है। किसी वैशेषिक, नैयायिक एवं बौद्धों को क्रियावादी कहा गया १. दीघनिकाय, सामञ्चफलसुत्त ।
२. सूत्रकृतांग, नियुक्ति १, १२, ११६ । ३. वही, १, १२, ११ ।
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१२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
है । जैन दर्शन भी क्रियावादी है। उसके अनुसार काल, सकते। अजीवादि पदार्थों में भी प्रत्येक के सात विकल्प स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ, कर्म आदि समस्त पदार्थों को होते है। प्रतः ६४७-६३ मत हुए। इनमें चार भेद पृथक्-पृथक् मानना मिथ्या है। उनके सम्मिलित स्वरूप और मिलाये जाते है ---(iiii) अर्थ की उत्पत्ति सत् को ही यहाँ स्वीकार किया गया है।
असत्, सद्सत् से होती है, यह कौन जानता है और उससे २. प्रक्रियावाद-क्रियावाद के विपरीत प्रक्रियावाद फल भी क्या है, (iv) वह प्रवक्तव्य भी होती है, यह मात्मा, पुण्य, पाप आदि कर्मों का कोई स्थान नहीं। कौन जानता है और उस जानने से फल भी क्या है । लोकायतिक और बौद्धों को इस दष्टि से प्रक्रियावादी
दीघनिकाय के अनुसार अज्ञानवाद का प्रस्थापक कहा जा सकता है। पालि साहित्य मे निगण्ठनातपुत्त को
सञ्जयवेलट्रिपुत्त है। वे हर दार्शनिक समस्या के प्रति क्रियावादी कहा गया है जबकि बुद्ध ने स्वयं को क्रिया
अज्ञानता और अनिश्चितता व्यक्त करते है। शीलांक वादी और प्रक्रियावादी, दोनो माना है। क्रियावादी इस
सञ्जय का नाम ही भूल गये। उन्होंने उपयुक्त सिद्धान्त लिए कि वे जीवों को सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करते
जिन प्राचार्यों से सम्बद्ध मानते है वे शत प्रतिशत् सही है और प्रक्रियावादी इसलिए कि वे इस कर्म को त्यागने
नहीं लगते । उदाहरणार्थ उन्होने मक्खलि गोसाल का का उपदेश देते है। सूत्रकृतांग में भी बद्ध को एक स्थान
सम्बन्ध प्रज्ञानवाद, नियतिवाद और विनयवाद से जोड़ा पर क्रियावादी और दूसरे स्थान पर प्रक्रियावादी कहा
है जबकि सजय वेलट्रिपुत्त से अपरिचितता व्यक्त की गया है। प्रात्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करने के कारण
है । वस्तुतः अज्ञानवाद सजय वेलट्रिपुत्त का सिद्धान्त है। उसे यहां सम्मिलित किया गया है; अन्यथा वह क्रिया
और नियतिवाद मक्खलि गोसाल का। पालि साहित्य में वादी ही है।
इसे अधिक स्पष्ट किया गया है। भगवती सूत्र में भी प्रक्रियावाद के ८४ भेद है। जीवादि सप्त पदार्थ
गोसालक को नियतिवाद का प्रवक्ता माना गया है। और उनके स्व-पर के भेद से दो भेद है। वे सभी भेद
सूत्रकृतांग ने अज्ञानवाद को 'पासबद्धा', 'मिच्छादिट्ठी', पुनः काल, यदृच्छा प्रादि के भेद से छ प्रकार के हैं। इस
'अणारिया' जैसे विशेषणों से सम्बद्ध किया है । भ० महाप्रकार ७४२x६=८४ हुए। प्रात्माके अक्रिय होने पर
वीर के धर्म को स्वीकारने वालों में सञ्जय का नाम प्रक्रियावाद में कृतनाश और अकृताभ्यागमदोष मावेगे।
पाता है । संभव है, वे सजय वेलट्टिपुत्त ही हों । समस्त वस्तु जगत भी सर्व वस्तु स्वरूप हो जायेगा।
३. प्रमानवाव-इसके अनुसार श्रमण ब्राह्मणों के ४. विनयवाद - विनयवादी विनय से ही मुक्ति मत परस्पर विरुद्ध है, अत: असत्य के अधिक निकट है। मानते है। समस्त प्राणियों के प्रति वे पादर भाव व्यक्त इसलिए अज्ञान को ही श्रेष्ठ माना जाना चाहिए। करते है। किसी की निन्दा नहीं करते । विनयवाद के ३२ फिर संसार में कोई अतिशय ज्ञानी नहीं जिसे सर्वज्ञ कहा भेद हैं-देवता, राजा, यति, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता जा सके । ज्ञान ज्ञेय पदार्थ के पूर्ण स्वरूप को एक साथ जान और पिता। इन पाठ व्यक्तियों का मन, वचन, काय और भी नहीं सकता। अज्ञानता होने से चित्त-विशद्धि अधिक वाद के द्वारा विनय करना अभीष्ट है। प्रतः ५४४= बनी रह सकती है। प्रज्ञानवादी जिस प्रज्ञान को कल्याण ३२ भेद हुए। पालि साहित्य से पता चलता है कि यह का कारण मानते है । वह ६७ प्रकार का है-सत्, असत्, बात लोकप्रिय रहा होगा। महात्मा बुद्ध भी स्वयं को सदसत्, प्रवक्तव्य, असद् वक्तव्य और सद्सद्वक्तव्व। वेनयिको समणो गोतमो कहते है। सूत्रकृतांग ने वही इन सात प्रकारों से जीवादिक नव पदार्थ नहीं जाने जा विनय कल्याणकारी बताया है जो सम्यग्दर्शन से युक्त हो। १. वही, १, १२ : नियुक्ति १२१, वृत्ति पृ. २१०-१। ३. वही, १, १२, नि. १२१, वृत्ति पृ. २१०-१। २. सूत्रकृतांग १, १, १२, वृ. पृ. २०८-१; नियुक्ति ४. वही, १, १२, २ की वृत्ति । ११६-१२१, ६, २७, ३. पृ. १५२ ।
५. अंगुत्तरनिकाय, भाग ३, पृ. २६५ ।
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श्रमण साहित्य में वणित विभिन्न सम्प्रदाय
उपर्युक्त चारों मतों के पुरस्कर्तामों के विषय में इस मत के अनुसार सत्त्वों के क्लेश मौर शुद्धि का पर्याप्त मतभेद है । अकलक' ने इस सन्दर्भ में कुछ नाम कोई हेतु-प्रत्यय नही। वे निर्बल, निर्वीर्य, भाग्य मौर गिनाये है। उनके अनुसार कोल्कल, काणेविद्धि, कौशिक, संयोग से छ: जातियों में उत्पन्न होते हैं और सुख-दुःख हरिस्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, अश्वलायन भोगते है। वहाँ शील, व्रत, तप, ब्रह्मचर्य प्रादि का कोई प्रादि प्राचार्य क्रियावादी है। मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, स्थान नही । सुख-दुःख द्रोण से तुले हुए है। जैसे सूत की गार्य, व्याघ्रभूति, वादूलि, माठर, मौद्गलायन आदि गोली फेंकने पर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूर्ख और भाचार्य प्रक्रियावादी परम्परा के है। साकल्य, बल्कल, पण्डित दौड़कर आवागमन में पड़कर दुःखों का अन्त कुथुमि, सात्यमग्र, नारायण, वृद्ध, माध्यन्दिन, मौद, पप्लाद, करेंगे।' प्राकृत साहित्य में भी निर्यातवाद इसी रूप में वादरायण, अम्बष्ठि, कृदौविकायन, वसू, जेमिनि प्रादि वणित है। वहाँ कहा गया है कि निर्यातवाद के अनुसार प्राचार्य अज्ञानवादी है। वसिष्ठ, पाराशर, जतुकर्णी, बाह्य कारणों से उत्पन्न सुख-दुःख स्वयंकृत अथवा परकृत वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औष- नहीं। इसके पीछे काल, ईश्वर, स्वभाव, कर्म और पुरुमन्यव, इन्द्रदत्त, अयस्थूण आदि वैनयिक आचार्य हैं। इन षार्थ भी कारण नहीं। उसके पीछे मात्र एक कारण मतों का निरूपण दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में हुग्रा नियति है। महान् प्रयत्न करने पर भी अभव्य वस्तु की है । चूकि यह अग उपलब्ध नहीं, अत: इस विषय में कुछ उत्पत्ति नहीं होती और भव्य वस्तु का विनाश नहीं होता। भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी यह द्रष्टव्य है कि शीलांक ने प्राजीवक, अज्ञानवादी और वैनयिक के उक्त प्राचार्यों में अधिकांश आचार्य पौराणिक है। व्याख्या सिद्धान्तों को मिश्रित कर दिया है और इन तीनों का प्रज्ञप्ति के तीसवें शतक में इन चारों वादों की अपेक्षा से प्रस्थापक गोशालक को मान लिया है। यह निश्चित ही समस्त जीवों का विचार किया गया है।
भ्रामक है। पर इससे यह अनुमान अवश्य लगाया जा नियतिवाद :
सकता है कि प्रज्ञानवाद और विनयवाद अधिक लोकप्रिय नियतिवाद का प्रस्थापक मक्खलि पुत्त गोशालक को नहीं हो सके और शीलांक के समय तक ये प्राजीविक माना जाता है । यही आजीविक सम्प्रदाय का प्रवर्तक है। सम्प्रदाय के अग बन गये। गोशालक का राशिक पालि साहित्य में मक्खलि शब्द मिलता है पर प्राकृत सिद्धान्त प्रसिद्ध ही है। उसे भी शीलांक ने अस्पष्ट ही साहित्य 'मंख लिपुत्र' शब्द का उल्लेख आता है। मंख का रहने दिया । अर्थ है-हाथ में चित्रपट लेकर उनके द्वारा लोगों को सजीवतच्छरीरवाद : उपदेश देकर प्राजीविका चलाने वाला भिक्षुक । व्याख्या सूत्र कृताग में प्रथमतः चार्वाक और तज्जीवतच्छरीप्रज्ञप्ति के पन्द्रहवें शतक के उल्लेख से ऐसा लगता है कि रवादियों के मत को पृथक्-पृथक् बताया है और बाद में यह मंख परम्परा भ० महावीर से पूर्व भी प्रचलित थी। दोनो को एक कर दिया है। तज्जीवतच्छरीरवादी वह है मंखलि महावीर का शिष्य भी बना और बाद मे सघ से जो शरीर और जीव को एक माने । भूतवादी चार्वाक और पृथक् भी हुआ। उसके शांत, कलंद, कणिकार, अछिद्र, तज्जीवछरीरवादी में अन्तर यह है कि भूतवादी के अनुअग्निवेश्यायन और गोमायुपुत्र अर्जुन इन छः शिष्यों सार पांच भूत ही शरीर रूप में परिणत होकर सब (दिशाचरों) का भी उल्लेख मिलता है। ये शिष्य महा- क्रियायें करते है परन्तु तज्जीवतच्छरीरवादी के मन में वीर के पथभ्रष्ट शिष्य थे। इसलिए मक्खलि को और शरीर रूप में परिणत उन पांच भूतो से चैतन्य शक्ति की इन शिष्यों को चर्णिकार ने 'पासत्थ कहा है। पासत्थ उत्पत्ति होती है। शरीर के नष्ट होने पर उसका भी पथभ्रष्ट भिक्षयों के लिए ही अधिक प्रयुक्त हुया है। विनाश हो जाता है। कर्मफलभोक्ता परलोकगामी मात्मा १. तत्वार्थ वार्तिक १,२०, १२ पृ. ४७ । । २. सूत्रकृतांग ३, ४, ६ वृत्ति पृ. ६८, ११, ११३ वृत्ति ३. दीघनिकाय, सामञ फल सुत्त ।
पृ. १६६ इत्यादि।
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१४, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
जैसे पदार्थ का शरीर से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं। इस त्रता और मुर्गे का रंग यह सब स्वभाव से ही होता है।' दष्टि से यहाँ पुण्य-पाप कर्मों का भी कोई अस्तित्व नहीं।' बुद्धचरित और शास्त्रवार्तासमुच्चय' में भी स्वभाववाद राजप्रश्नीय में केशी और प्रदेशी के बीच जीव और पात्मा की यही व्याख्या की गई है। शीलांक ने इसे तज्जीवके सन्दर्भ में जो विवाद हमा, उसमें प्रदेशी तज्जीवतच्छरी- तच्छरीरवाद से सम्बद्ध किया है और यह कारण दिया है रवादी दिखाई देता है।
कि चूकि पंच महाभूतों से मात्मा पृथक् नही है। इसलिए पालि साहित्य में तज्जीवतच्छरीरवाद को उच्छेदवाद जगत की विचित्रता में स्वभाववाद कारण रूप माना के भेदों में देखा जा सकता है सम्भव है चार्वाक् सम्प्र- जाना चाहिए। दाय में कुछ मतमतान्तर रहे हों। और तज्जीवतच्छरीर. इसके अतिरिक्त प्रव्याकृत वाद, कालवाद, यदृच्छावाद, बाद उनमें से एक रहा हो। शीलांक ने भी इन दोनों पुरुषवाद, पुरुषार्थवाद, ईश्वरवाद, देववाद आदि जैसे अनेक को कहीं कहीं अपृथक माना है।
वादों के उल्लेख मिलते है जिन्हें लोकनिर्माण के कारण भास्मषष्ठवावी
के रूप में स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन में भी इन सूत्र-कृतांग मे इसे सांख्य तथा वैशेषिक दर्शन से सम्बद्ध सभी को कारण माना गया है, परन्तु उनके समन्वित रूप माना है। पांच महाभूत के बाद आत्मा को छठा पदार्थ को, न कि पृथक्-पृथक् रूप को।। मान लेने के कारण वे प्रात्मषष्ठवादी कहे गये है।' नहि कालादि हितो केवलए हितो जायए किंचि । प्रास्मातवाद:
इह मुग्गरषणाइवि ता सब्बे समृदिया हेउ ।' शीलांक प्रात्माद्वैतवाद एवं एकान्तात्मद्वैतवाद दोनों इसके साथ ही जनदर्शन में कर्म को भी ससार के इस शब्दों को समानार्थक मानते है। इसके अनुसार जैसे एक वैचित्र्य का कारण बताया गया है । उसको भी सु ही पृथ्वी समूह विविध रूपों में लक्षित होती है, उसी का कारण माना गया है। कर्म मूर्त है क्योकि सुखादि से प्रकार एक मात्मस्वरूप यह समस्त जगत नाना रूपों में सम्बद्ध होने के कारण भी व्यक्ति तदनुकल अनुभव करता देखा जाला है। उसकी दृष्टि में एक ही ज्ञान पिण्ड प्रात्मा है। मूर्त कर्म द्वारा अमूर्त प्रात्मा का उपघात अधवा उपपृथ्वी आदि भूतों के प्राकार में अनेक प्रकार का देखा कार उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मदिरा आदि मूर्त जाता है परन्तु इस भेद के कारण प्रात्मा के उस स्वरूप में वस्तुओं द्वारा विज्ञानादि अमूर्त वस्तुओं का । लोक षड् कोई भेद नहीं होता। चेतन अचेतन रूप समस्त पदार्थ द्रव्यमय है। द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। उसका एक ही प्रात्मा है'। प्रात्माद्वैतवाद में न प्रमाण है,न नूतन पर्यायों में परिणमन, पूर्व पर्यायो का विनाश तथा प्रमेय, न प्रतिपाद्य है, न प्रतिपादक, न हेतु है, न दृष्टान्त मूल अंश की स्थिति रहती है। इसमें ईश्वर को परि
और न उनका प्राभास । समस्त जगत मात्मा से अभिन्न चालक मानने की भावश्यकता ही नहीं। होने के कारण एक हो जाता है। इस स्थिति मे पिता, प्रारण्यक: पत्र, मित्र प्रादि का भेद नहीं रहता, सुखादिक नहीं रहते। प्रारण्यक मारण्य में ही रहना अपना धर्म समझते मतः मात्माद्वैतवाद निर्दोष नहीं।
थे। वे कन्दमूल फलाहारी, वृक्षमूलवासी, ग्रामन्तकवासी स्वभाववाद:
तथा सर्वसावद्यानुष्ठान से पनिवृत रहते थे और एकेन्द्रिय स्वभावबाद के अनुसार जगत की विचित्रता का मूल जीवों के घात से प्रायः वे अपना निर्वाह करते थे। तापस कारण स्वभाव है। कण्टक की तीक्ष्णता, मयूर की विचि- प्रादि ऐसे ही होते थे। वे द्रव्यत: अनेक व्रतों का माचरण १. सूत्रकृतांग १, १, ११ वृत्ति पृ. २०,२।
५. बुद्धचरित ५। २. वही १, १, १६ वृत्ति पृ. २४।। ३. वही, १, १,६वृत्ति पृ. १६ ।
६. शास्त्रवार्ता समुच्चय १६६-१७२ । ४. वही, चूणि पू. ३०, दीपिका पृ०५।
७. सूत्रकृतांग २, ५, १५ वृत्ति ।
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अमण साहित्य में गणित विभिन्न सम्प्रदाय
करने पर भावतः उनसे शून्य रहते थे। इसके पालक प्रायः ७. गोव्रती-गोव्रत रखने वाले। ब्राह्मण रहा करते थे। प्रत. वे अपने आपको प्रहन्तव्य ८. गृहिधर्मी-गृहस्थाश्रम को ही श्रेष्ठ मानने वाले । मानते थे। उनका मत था- शद्रं व्यापाद्य प्राणाय में है. धर्मचिन्तक-धर्मशास्त्र का अध्ययन करने वाले। जपेत् किञ्चिद् दद्यात् ।' पालि साहित्य मे भी प्रारण्यकों १०. अविरुद्ध-विनयवादी। पौर परिव्राजकों के पर्याप्त उल्लेख मिलते है।
११. वृद्धा-संन्यास में विश्वास रखने वाले । अन्य सम्प्रदाय :
१२. श्रावक-धर्मश्रोता। उपर्युक्त सम्प्रदायो के अतिरिक्त श्रमण साहित्य में रक्तपट-रक्त वस्त्रधारी परिव्राजक'। और भी अनेक प्रकार के सम्प्रदायों के उल्लेख मिलते है। श्रमण साहित्य में पर मतों का उल्लेख अनेक नामों से प्रश्न व्याकरण मे असत्यमापक के रूप में सम्प्रदायों का हुमा है-जैसे एगे पवयमाणा, अन्य यूथिकाः, पासत्था, विभाजन इस प्रकार किया है
दिसाचरा, मन्यतीथिकाः, मिथ्यादृष्टि वाला प्रादि । इस१. नास्तिकवादी अथवा वामलोकवादी-चार्वाक लिए उनका सही विवरण मिलना कठिन हो जाता है । २. पंचस्कन्धवादी
बौद्ध
सूत्र कृतांग के कुशील अध्ययन में चर्णिकार ने कुछ प्रसंयमी ३. मनोजीववादी
सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। उनमें प्रमुख हैं - गौतम, ४. वायुजीववादी
गोवतिक, रंडदेवता, वीरभद्रक, अग्निहोमवादी तथा जल५. अन्डे से जगत की उत्पत्ति मानने वाले ।
शोचवादी। ऋषिअषित' ग्रंथ में कुछ अहंदरूप ऋषियों ६. लोक को स्वयंभूकृत मानने वाले।
का उल्लेख है। उनमे से कुछ ये है-असितदेवल, अंगि७. संसार को प्रजापति निर्मित मानने वाले। रस, (भारद्वाज), महाकश्यप, मंखलिपुत्त, याज्ञवल्क्य, ८. सारे संसार को विष्णुमय मानने वाले ।
बाहुक, माथुरायण, सोरियायण, परिसव कण्ह, परियोयण, ६. प्रात्मा को एक प्रकर्ता, वेदक, नित्य, निष्क्रिय, गाधापतिपुत्र तरुण, रामपुत्र, हरिगिरि, मातंग, वायु, पिग और निलिप्त मानने वाले।
ब्राह्मणपरिव्राजक, अरुण महासाल, तारायण, सातिपुत्र १०. जगत को यादृच्छिक मानने वाले ।
(बुद्ध), द्वैपायन, सोम, यम, वरुण, वैश्रमण । ११. स्वभाववादी।
प्रोपपातिक सूत्र में गंगातटवासी वानप्रस्थों का १२. देववादी।
उल्लेख मिलता है१३. नियतिवादी।
१. होत्तिय-अग्नि होम करने वाले। १४. ईश्वरवादी।
२. पोत्तिय-वस्त्रधारी। 'नायाधम्मकहानो' के नंदीमूल नामक पन्द्रहवें अध्याय ३. कोत्तिय-भूशायी। में एक संघ के साथ विविध मत वालों के प्रवास का ४. जण्णई -याज्ञिक । उल्लेख है । उन मत वालों के नाम ये हैं
५ सड्ढई ---श्रद्धाशील । १. चरक-त्रिदण्डी अथवा कछनीधारी-कोपीनधारी तापस ६ थालई -सारा सामान लेकर चलने वाले । २. चीरिक -चीथड़ों से निमित वस्त्रधारी।
७ हुंव उड्ढ-कुण्डी लेकर चलने वाले । ३ चर्मखण्डिक चर्मवस्त्र अथवा चर्मोपकरण रखने वाले। ८ दतुम्वलिय-दांतों से चबाकर खाने वाले । ४. भिच्छुड-भिक्षुक अथवा बौद्ध भिक्षुक ।
६ उम्मज्जक, सम्मज्जक और निमज्जक-स्नान करने ५. पंडुरग- शिवभक्त, भस्म लगाने वाले ।
वाले । ६. गौतम -साथ मे बैल रखने वाले भिक्षक ।
१०. संपवाल-शरीर पर मिट्टी लगाकर स्नान करनेवाले १. सूत्र. २,२,२८.२६ ।
२. प्रौपपातिक ३८वा सूत्र भी देखिये। १. मध्ययन २६ व ३१ ।
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१६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त ११. दक्खिकलग-गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले। औपपातिक सूत्र में ही प्राजीविक श्रमणों के सात १२. उत्तरकुलग-- गगा उत्तर तट पर रहने वाले। प्रकार वताये गये हैं-दुधरंतरिया (दो घर छोड़कर १३. संखधमक--शंख बजाकर भोजन करने वाले । भिक्षा लेने वाले, तिघरतरिया, सताघरंतरिया, उप्पल१४. कुलधमक-किनारे पर खड़े होकर अावाज कर वेंटिया (कमल के डंठल खाकर रहने वाले), घरसमभोजन करने वाले।
दाणिय (प्रत्येक घर से भिक्षा लेने वाले), विज्जुअंतरिया
(विद्यतपात के समय भिक्षा न लेने वाले) तथा उट्टिय१५. मियलुदय-पशु भक्षण करने वाले ।
समण किसी बड़े मिट्टी के वर्तन में बैठकर तप करने १६. हत्थितावस-हाथी को मार कर एक वर्ष तक उसे
वाले) । इनके अतिरिक्त प्रत्तुवकोसिय, परपरिवाइय खाने वाले।
तथा भूइकम्मिय श्रमण भी थे । सात निहृवों १७. उडुडंडक-दण्ड को ऊपर कर चलने वाले ।
का भी यहाँ उल्लेख करना आवश्यक है-बहुरय १५. दिसापोक्खी-दिशा सिञ्चन करने वाले ।
जीवपएसिय ( प्रवर्तक -तिस्यगुप्त ), प्रवत्तिय १६ वक्कपोसी-वल्कल पहनने वाले ।
(प्रवर्तक-प्राविढाचार्य), सामुच्छेइय (संस्थापक-प्रश्व२०. अंबुवासी-जलवासी।
मित्र, दोकरिया (प्रवर्तक-गगाचार्य), तेरासिया (रहि२१. बिलवासी-विल में रहने वाले ।
गुहा सस्थापक) तथा प्रवद्धिय (सस्थापक माहिल) ये २२. वेलवासी-समुद्र के किनारे रहने वाले ।
मूलतः किसी न किसी सम्प्रदाय से सम्बद्ध प्राचार्य थे। २३. रुक्खमूलिया- वृक्ष के नीचे रहने वाले ।
पागम साहित्य में श्रमणों के पांच भेद भी दिये गये है। २४. अंबुभक्खी (जलभक्षी), वायभक्खी और सेवालभक्खी। निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक और प्राजीविक। इनमें से
प्राज निर्ग्रन्थ और शाक्य ही शेष रहे है । इसी सूत्र में प्रवजित श्रमण का अलग से उल्लेख इस प्रकार पालि-प्राकृत-संस्कृत साहित्य में षड्दर्शनों किया गया है। संखा (साख्य), जोई (योगी), कविल के अतिरिक्त प्राचीनकाल में विशेषतः भ० महावीर के (कपिल), भिउच्च (भगु ऋषि के अनुयायी), हस (वन- काल में अनेकवादों का विवरण मिलता है। परन्तु उनका बासी पर भिक्षार्थ ग्रामभ्रमण करने वाले), परमहस (नदी
मूल मैद्धान्तिक साहित्य उपलब्ध नही होता। सम्भवत: तटवासी तथा वस्त्रादि छोड़कर प्राण त्याग करने वाले),
अधिकांश उक्तवादों का कोई विशेष साहित्य था भी नहीं; बहुउदय (गांव में एक रात और नगर में पांच रात रहने
अन्यथा उनका उल्लेख अवश्य मिलता। इसलिए प्रतीत वाले), कुडिब्बय (गृहवासी तथा रागादि त्यागी), वृण्ह
होता है कि ये वाद अधिक प्रभावक सिद्ध नही रहे होंगे परिव्यायग (कृष्ण परिव्राजक) उनमें प्रमुख है। ब्राह्मण ।
जाल तथा यह भी सभव है कि उनका जीवन काल अधिक नहीं परिव्राजकों में कण्ड, करकण्ड, अंबड, परासर, कण्हदीवा रहा होगा। प्रावश्यकता यह है कि इस विषय पर गंभीर यण, देवगुप्त और णारय तथा क्षत्रिय परिव्राजकों मे शोध की जाय और उनके समूचे सिद्धान्त विविध साहित्य सेलई, ससिहार, णग्गई, भग्गई, विदेह, रायाराय प्रमुख है। से एकत्रित कर भारतीय संस्कृति में उनके स्थान का ये परिव्राजक वेदवेदांग में निष्णात, स्नानादि में विश्वास निर्णय किया जाय । मानव के लिए उनकी कहाँ तक करने वाले, सादे ढंग से रहने वाले अनर्थदण्ड से विरत उपयोगिता है, इसका भी मूल्यांकन किया जाना अपे. रहने वाले थे।
क्षित है। अध्यक्ष पाली-प्राकृत विभाग
00 नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर
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भारतीय संस्कृति में अरहन्त की प्रतिष्ठा
0 डा. हरीन्द्र भूषण
'परहंत' जैन धर्मावलम्बियों के परमाराध्य देव है। भरहंत शब्द का प्रति प्राचीन इतिहास है। जैनइसी कारण अनादिनिधन मंत्र में इन्हें सर्वप्रथम नमस्कार वाङ्मय के प्रति प्राचीन ग्रन्थों में तो इस शब्द का प्रयोग किया गया है -'णमो अरहताणं णमो सिद्धाणं ।' अरहंत हमा ही है, किन्तु वैदिक बौद्ध एवं संस्कृत वाङ्मय में भी शब्द प्राकृत है। इसका संस्कृत रूप है 'महत्' । 'प्रहपूजा- इस शब्द का प्रयोग उपलब्ध होता है। याम्' अर्थात्-पूजार्थक 'अहं' धातु से 'प्रहः प्रशंसायाम्' पाणिनि-सूत्र से प्रशंसा अर्थ में 'शत्' प्रत्यय होकर 'महत्'
बंरिक-वाङ्मय में महंत शब्द
। शब्द निष्पन्न होता है। प्रथमा के एक वचन में 'उगिदचर्चा
प्राचार्य विनोबा भावे ने ऋग्वेद के एक मंत्र का उख' सर्वनामस्थाने घातो.' पाणिनि-सूत्र से 'नुम्' का पागम
रण देते हुए जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध की है। वे कहते होकर 'महन्' पद बनता है। सम्बोधन एक वचन में भी
हैं ~'ऋग्वेद में भगवान की प्रार्थना में एक जगह कहा गया
हावद 'अर्हन' रूप बनता है।
है-'अहंत् इदं दयसे विश्वमम्बम्' (ऋग्वेद २.३३.१०)प्राकृत भाषा में 'शत' प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय हे महत्, तुम इस तुच्छ दुनिया पर दया करते हो। इसमें होकर 'प्रहंत' रूप बनता है। साथ में प्राकृत व्याकरण के
महत् और दया दोनों जनों के प्यारे शब्द हैं। मेरी तो 'इ:श्री ह्रीक्रीतक्लान्तक्लेशम्लास्वप्नस्पर्शहहिंगषु'(प्राकृत
मान्यता है कि जितना हिन्दू धर्म प्राचीन है शायर उतना प्रकाश ३.६२), सूत्र के अनुसार रह के मध्य इकार का
ही जैन धर्म प्राचीन है। मागम होकर 'अरिहंत' तथा प्राकृत की परम्परा के अनु
ऋग्वेद का उपर्युक्त मंत्र इस प्रकार हैसार प्रकार का प्रागम होकर 'प्ररहंत' रूप प्राकृत भाषा
अर्हत् विभर्षि सायकानि में बनते हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने प्राकृत भाषा मे इसका
धन्वाहन्निष्कं यजत विश्व रूपम् । एक रूप 'प्ररुह भी प्रयोग किया है-'प्राहा सिद्धायरिया'
प्रहन्निदं दयसे विश्वमम्बं
न वा प्रोजीरो रूद्र त्वदन्यदस्ति ।। (भोक्त पाहुड ६१०४) सम्भवत: इस अरुहा शब्द पर तमिल का प्रभाय हो।
'प्रतिष्ठातिलक के कर्ता प्राचार्य नेमिचन्द्र ऋग्वेद के
उपर्युक्त मंत्र से प्रत्यन्त प्रभावित प्रतीत होते हैं। उन्होंने प्रकार हैं
उपयुक्त मंत्र के प्रायः समस्त पदों को ग्रहण करके भईन्त संस्कृत
महंत के गुणों का निम्न प्रकार विस्तार से वर्णन किया हैप्राकृत
परहंत तथा परिहत 'महंत विमर्षि मोहारिविध्वंसिनयसायकान् । पालि
मरहन्त अनेकान्तद्योतिनिधिप्रमाणोदारधनुः च ।। जैन शौरसेनी
ततस्त्वमेव देवासि युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । मागधी
अलहंत तथा मलिहंत दष्टेष्टवाधितेष्टाः स्युः सर्वकान्तवादिनः ।। भपभ्रंश
पमहतु तथा पलिहतु पहन्निष्कमिवात्मानं बहिरन्तर्मलक्षयम् । तमिल
माह विश्वरूपंच बिश्वार्थे वेदितं लभसे सदा ।।
अव्हत. माह पहंन्निदं च दयसे विश्वमभ्यंतराश्रयम् । १. प्राचार्य विनोबा भावे-श्रमण संस्कृति, पृ. ५७ २. प्राचार्य नेमिचन्द्र प्रतिष्ठातिलक १७४-७५
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१८वर्ष २८, कि०१
नृसुरासुरसंघातं मोक्षमार्गोपदेशनात् ॥ 'वेदान्ताहतसांख्यसौगतगुरुयभक्षादिसूक्तादृशो।" ब्रह्मासुरजयी वान्यो देश रुद्रस्त्वदस्ति ।। 'ब्राह्मशवं वैष्णवं च सौरं शाक्तं तथाहतम् ।"
'हे अहंन् ! माप मोह-शत्रु को नष्ट करने वाले 'नय' शरीरपरिमाणो हि जीव इत्याहंतामन्यन्ते।" रूपी बाणों को धारण करते हो तथा अनेकान्त को प्रका
संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य कवि कालिदास ने अपने शित करने वाले निर्बाध प्रमाण रूप विशाल धनुष के
काव्य-नाटकों में अनेकत्र 'महत्' का प्रयोग किया है । धारक हो। युक्ति एवं शास्त्र से अविरुद्ध वचन होने के कार भाप ही हमारे माराध्य देव हो। सर्वथा एकान्तवादी
रघुवंश में, राजा रघु गुरुदक्षिणाभिलाषी कौत्स ऋषि को
सम्बोषित करते हुए कहते हैं-हे महत, माप दो तीन हमारे देवता नहीं हो सकते ; क्योंकि उनका उपदेश प्रत्यक्ष
दिन ठहरने का कष्ट करें तब तक मैं मापके लिए गुरुएवं अनुमान से बाधित है।
दक्षिणा का प्रबन्ध करता हूं'हे महन, माप ऐसी प्रात्मा को धारण करते हो जो
द्वित्राण्यहान्यर्हसि सोढ महेन् यावद्यते साधयितु निष्क अर्थात् प्राभूषण या रल की तरह प्रकाशमान है,
- त्वदर्थम् । बाह्य भोर मन्तः मल से रहित है और जो समस्त विश्व
रघुवंश में एक अन्य स्थान पर कालिदास अर्हत् को के पदार्थों को एक साथ निरन्तर जानता है। हे मर्हन, नयचा विशेषण देकर सम्भवतः उनके प्रमाण एव नयो माप मनुष्य, सुर एवं असुर सभी को मोक्षमार्ग का उपदेश सभा
1 उपदश के ज्ञातृत्व की पोर सकेत करते हैदेते हो; अतः विम्ब पर दया-भाव से परिपूर्ण हो पाप से
'प्रर्हणामहंते चक्रुमुनयो नयचक्षुष ।" पन्य कोई और ब्रह्म अथवा प्रसुर को जीतने वाला बलवान्
शाश्वतकोष तथा शारदीय नाम माला में महत् शब्द देवता नहीं है।'
'जिन' का पर्यायवाची कहा गया है। ऋग्वेद में अन्य स्थानों पर भी महंत पद का प्रयोग मिलता है
'स्तादहन जिनपूज्ययोः ।। 'पहन देवान् यक्षि मानुषत् पूर्वो प्रध।"
'तीर्थकरो जगन्नाथो जिनोऽर्हन भगवान् प्रभुः।" 'महन्तो ये सुदानवो नरो प्रसामि शव सः ।" अमरकोषकार ने प्रर्हत् को मानने वाले लोगों को प्रहन्ता चित्युरोदधे शेव देवावर्तते ।" भाईक, स्याद्वादिक तथा पार्हत् कहा है। ऋग्वेद के उपयुक्त उद्धरणों से ऐसा प्रतीत होता है
'स्यात् स्याद्वादिक प्रार्हक: प्रार्हत इत्यदि।" कि ऋग्वेद काल में जैन धर्मावलम्बी महन्त की उपासना
प्राचार्य हेमचन्द्र प्रर्हत् को पदार्थ का यथार्थ वर्णत करते थे।
करने वाले परमेश्वर कहते हैंवराहमिहिरसंहिता, योगवासिष्ठ, वायुपुराण तथा 'यथास्थितार्थवादी च देवोऽहत् परमेश्वरः । ५ ब्रह्मसूत्रशंकरभाष्य में भी पर्हत् मत का उल्लेख हनुमन्नाटक में कहा गया है कि जैन शासन के मानने मिलता है।
वाले अपने ईश्वर को महंत कहते हैं'दिग्वासास्तरुणो रूपबांश्च कार्योऽहंतांदेवः।" पहन्नित्यथ जैनशासनरतः कर्मेति मीमांसकाः ।" ३. ऋग्वेद-२६५।२२।४१
१०. रघुवंश ५।२५ ४. वही- ४१३।६।५२१५
११. वही ११५५ ५. वही-३८६५
१२. शाश्वतकोष-६४१ ६. वराहमिहिर संहिता ४५४५८
१३. शारदीयास्य नाममाला-हर्षकीतिः, ६ ७. वाल्मीकि, योगवासिष्ठ ६।१७३१३४
१४. अमरकोष २०७।१८ (वणिप्रभा टीका) ८. वायुपुराण १०४१६
१५. हेमचन्द्र, योगशास्त्र २-४ ६. ब्रह्मसूत्रशाङ्करभाष्य, २।२।३३
१९. हनुमन्नाटक १,३
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भारतीय संस्कृति में महन्त की प्रतिष्ठा बौडवाङ्मय में महत् शम
जिनकी मात्मा शुद्ध है, वे महंत हैं। गढवदुषाइकम्मो ___ बौद्ध वाङ्मय में अरहन्त शब्द महात्मा बुद्ध के लिए दसणसुहणाण वीरियमईप्रो । प्रयुक्त प्रयोग है। मरहन्त के जो गुण पालि-साहित्य में सुहहत्यो मम्मा सुद्धो परिहो विचितिज्जो। कहे गये हैं। वे बहुत अंशों में जैन परहन्त के गुणों से समा
(द्रव्य संग्रह ५०) मता रखते हैं। पालि-भाषा के बौद्ध पागम (त्रिपिटिक), धवला ठीका में प्ररिहन्त का अर्थ करते हुए लिखा 'धम्मपद' में 'परहन्तबग्गो' नामक एक प्रकरण है। इसमें है किदश गाथानों में भरहन्त का वर्णन किया गया है। धम्मपद परिहननादरिहंता, ... रजोहननादा परिहन्ता, के अनुसार प्ररहन्त वह है जिसने अपनी जीवन-यात्रा प्रतिशय पूजाहत्वादा परिहन्ताः" समाप्त कर ली है, जो शोक रहित है, जो संसार से मुक्त
मर्थात् परिहन्त वे हैं जिन्होंने कर्म-शत्रुओं का प्रथवा है, जिसने सब प्रकार के परिग्रह को छोड़ दिया है और
कर्ममल का नाश कर दिया है तथा जो अतिशय पूजा के जो कष्ट रहित है
योग्य हैं। 'गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सब्बधि ।
पाचार्य कुन्दकुन्द 'बोधपाहुड में परिहन्त के गुणों का सब्बगन्थपहीनस्स परिलाहो न विज्जति ॥'
वर्णन करते हुए लिखते हैं(धम्मपद, परहन्तबग्गी, १०)
जरवाहिजम्ममरणं च उगइगमणं च पूण्णपावं च । ऐसा प्ररहन्त जहां कहीं भी विहार करता है वह तण दोषकम्मे हउणाणमयं च परहंतो ।। भूमि रमणीय (पवित्र) है
अर्थात् जिन्होंने जरा, व्याधि, जन्म, मरण, चतुर्गति'यत्थारहन्तो बिहरन्ति तं भूमि रामणेय्यक ।'
गमन, पुण्य, पाप-इन दोषों तथा कर्मों का नाश कर (धम्मपद, अरहन्त बग्गो ९२)
दिया है और जो ज्ञानमय हो गये हैं वे परहत हैं। महात्मा बुद्ध ने कहा था "भिभुमो, प्राचीनकाल में
भरहंत की इन्हीं विशेषतामों को पंचाध्यायी में इस जो भी परहन्त तथा बुद्ध हुए थे, उनके भी ऐसे ही दो
प्रकार कहा गया हैमुख्य अनुयायी थे जैसे मेरे अनुयायी सारिपुत्त मौर मौग्ग
दिव्यौदारिकदेहस्था घौतघातिचतुष्टयः । लायन है ।' 'संयुक्त निकाय', ५.१६४ (गौतम बुद्ध ।
ज्ञानदृग्वीर्यसौख्याढ्यः सोऽहं न धर्मोपदेशकः ।।" पृ० १४७)
उपसंहार मैनों के उपास्य मरहन्त
भारतीय समस्त साहित्य में अरहन्त शब्द अतिशय जैन धर्म में पांच अवस्थामों से सम्पन्न भात्मा पूज्य प्रात्मा के अर्थ में प्रयुक्त हुमा है। वेदकाल से लेकर सर्वोत्कृष्ट एवं पूज्य मानी गई है। इनमें परहन्त सर्वप्रथम अद्यावषि इस शब्द का महत्व है। मरहन्त, जैनों के तो हैं। प्रस्हन्त किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। वह परमाराध्य देव हैं । जैन धर्म में जो चार शरण बतलाए हैं तो माध्यात्मिक गुणों के विकास से प्राप्त होने वाला महान उनमें परहन्त सबसे पहले शरण हैंमङ्गलमय पद है। ,
चित्तारि शरणं पव्वज्जामि । प्ररहन्ते शरणं जैनागम में परहंत का स्वरूप निम्न प्रकार बताया पळजामि । सिद्धं शरण पव्वज्जामि । साह गया है-जिन्होंने चार घातियाकर्मों का नाश कर दिया शरण पग्वजामि केवलि पण्णत्तो धम्मो है, जो अनन्त दर्शन सुख शान मौर वीर्य के धारक है, जो
शरणं पव्वज्जामि। उत्तम देह में विराजमान पर्यात् जीवनमुक्त हैं, और १७. धवला-टीका, प्रथम पुस्तक, पृ० ४२-४४
१६. पञ्चाध्यायी-२६०७ १६. बोधपाहुड, ३०
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श्रमण-साहित्य : एक दृष्टि
"पोष्ट
- मुनि श्री दुलहराज जी
भगवान महावीर का जीवन-काल ई. पूर्व छठी- श्रमण-साहित्य की संज्ञा दी।' इस श्रमण-साहित्य में पांचवीं शताब्दी [B.C. 527-455] था। उस समय चौदह पूर्व, क्रियावाद, प्रक्रियावाद, नियतिवाद भादि अनेक मत प्रचलित थे। सभी धर्म-प्रवर्तकों का अपना- सिद्धान्तों को पोषण देने वाला साहित्य समाविष्ट हुमा। अपना साहित्य था। सारा साहित्य चार भागों में विभक्त जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में इस प्राचीन 'श्रमण या।
साहित्य' की झांकी उपलब्ध होती है। डा० विन्टरनिट्ज (१) श्रमण साहित्य ।
ने लिखा है-In the Sacred texts of the Jainas, (२) ब्राह्मण साहित्य ।
a great part of the ascetic literature of ancient (३) बौद्ध-साहित्य ।
India is embodied, which has also left its (४) जैन साहित्य ।
traces in Buddhist literature as well as in the इन चार विभागों में प्रथम विभाग 'श्रमण-साहित्य'
Epics and the Puranas. Jaina literature is, ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
therefore, closely connected with the other उस काल में सभी संप्रदाय दो भागों में विभक्त थे
branehes of post vedic religious literaturc. (१) वैदिक संप्रदाय (२) श्रमण संप्रदाय ।
"मागम साहित्य में प्राचीन भारत के श्रमण साहित्य वैदिक संप्रदाय के अन्तर्गत ईश्वरवादी तापस प्रादि ' का बहुत बड़ा भाग है । श्रमण-साहित्य का कुछ प्रश बौद्ध पाते थे और श्रमण-संप्रदाय में जैन, बौद्ध, प्राजीवक, साहित्य तथा पौराणिक काव्यो में भी मिलता है। प्रतः त्रिदण्डी प्रादि-पादि संप्रदाय माते थे। वैदिक मान्यता के जैन-साहित्य वेदों के उत्तरवर्ती वैदिक धर्म-साहित्य से प्रतिनिधि प्रन्थ वेद सबसे प्राचीन माने जाते थे। बहुत संबधित है।" कालानुक्रम से उनके ऋषि-महर्षियों ने बाहाण, महाभारत प्रादि ग्रन्थों में अनेक स्थल ऐसे है जिनसे पारण्यक, उपनिषद्, कल्प-सूत्र आदि की रचना की यह स्पष्ट विबित होता है कि उसमे प्रतिपादित धर्म
और वैदिक साहित्य को अपनी उपलब्धियों से समृद्ध रहस्य ब्राह्मणेतर-परम्परा का है।' यह ब्राह्मणेतर परम्परा किया। महात्मा बुद्ध के उपदेशो को संग्रहीत कर बोड- श्रमण-परम्परा से अतिरिक्त नहीं है। मनीषियों ने उसे त्रिपिटक की संज्ञा दी। भगवान महा- भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध सम-सामयिक वीर की वाणी का संग्रह करके जैन महषियों ने उसे अंग थे। उनका कार्य क्षेत्र एक था। राजगृह, नालन्दा, वैखाली
और अंग-बाह्य भागम के रूप में उपस्थित किया। यह श्रावस्ती, पाटलिपुत्र प्रादि-आदि नगर इनके प्रचार के निर्ग्रन्थ-प्रवचन कहलाया। भगवान् महावीर और महात्मा केन्द्र थे। अतः यह स्वाभाविक था कि उनकी साधनाबद्ध से पूर्व जो वैदिकेतर साहित्य था, उसे श्रमण-साहित्य' पबति भी कई समान रेखामों पर बली। प्राचार और कहा गया। प्रो०ई० ल्यूमेन ने इसे परिव्राजक-साहित्य विचार की कुछ समानतामों का प्रतिबिंब उनके साहित्य कहा मौर डा० विन्टरनिट्ज ने इसे (ऐसेटिक लिटरेचर) में प्राज भी उपलब्ध होता है । इन समानतामों के माधार
2. Jainas in Indian iiterature Page 6,7.
1. Some Problems of Indian literature-Asce-
gic literature of ancient Indta Page 21.
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भमण-साहिल : एक दृष्टि
२१
पर किस पद्धति का किस पर प्रभाव पड़ा है, यह पसं- सही है कि बुद्ध के वचनों का बहुलांश भाग बौद्ध भिक्षयों दिग्ध रूप से नहीं कहा जा सकता। इस विषय में हमें में प्रचलित था और उन्हीं का संग्रह पिटकों में किया यह नहीं भुला देना चाहिए कि कोई भी साहित्य पारि- गया है। परन्तु वर्तमान में पिटकों के विभिन्न अंश, उन पाश्विक यातावरण के मादान-प्रदान से मुक्त नहीं रह का वर्तमान व्यवस्थापन और विभाग निश्चित ही बहुत सकता। इस विषय पर हम आगे चर्चा करेंगे।
काल बाद का है। जन प्रागम-साहित्य के ऐसे अनेक स्थल है जिनकी बौद्ध पिटक का बहुलांश भाग अशोक के समय में तुलना बौद्ध-साहित्य से तथा ब्राह्मण-साहित्य से भी की लिखा गया और उसको पूर्णरूप बहुत मागे तक मिलता जा सकती है। हजारों श्लोक ऐसे है जिनमे शब्द-साम्य रखा। तपा अर्थ-साम्य है। इस प्रकार की रचनामों से पाठक के
बौद्ध साहित्य महात्मा बुद्ध तथा उनके उत्तरवर्ती मन में यह प्रश्न उभर पाता है कि पहले कौन ! इस प्रश्न प्राचार्यों द्वारा प्रन्थित है। इससे पूर्व उनका साहित्य किसी का उत्तर इतना सहज नहीं है। जैन मागम वीर निर्वाण
म वार निवाण भी रूप में रहा हो, यह नहीं माना जाता। जो वर्तमान की दशवीं शताब्दी (६६३) मे लिपिबद्ध किए गये । इससे जैन मागम है, वे भगवान महावीर की परम्परा के हैं। पूर्व वे नहीं लिखे गये-यह प्रसंदिग्ध रूप से नहीं कहा .
उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने इन पर व्याख्यात्मक ग्रन्थ लिखे जा सकता। इस एक सहस्राब्दी में स्मृतिभ्रश मादि दोषों
और उसे सुबोध बनाने का प्रयास किया; परन्तु भगवान् के कारण अनेक स्थल पूर्ण विस्मृत हो गए, अनेक स्थल
महावीर से पूर्व भगवान् पार्श्व की परम्परा का साहित्य अर्द्ध-विस्मृत हुए और अनेक नए स्थलों का यथा-स्थान
उपलब्ध था और अनेक पापित्यीय श्रमण उस साहित्य समावेश हुमा । स्वयं पागम इसके साक्षी हैं।
के उद्गाता थे। भगवान महावीर के समय में वे काफी बौद्ध साहित्य भी इसका अपवाद नहीं रहा। उसमें संख्या में थे। पापित्यीय श्रमणोंपासकों का उल्लेख भी नए-नए समावेश हुए और बौद्धाचार्यों ने उसे साहि
प्रागम साहित्य में भी पाया है। जब पार्श्व की परम्परा त्यिक रूप देकर जन योग्य प्रणाली में प्रस्तुत किया। इस
भगवान् महावीर की परम्परा में विलीन हो गयी, तब उस कार्य पद्धति से अनेक प्राचीन स्थल बदल गए । नए स्थलों
परम्परा से चतुर्दश पूर्व का ज्ञान भी उसी में अन्तनिहित को यथा स्थान बैठाया गया।
हो गया। अतः जैन परम्परा भगवान् महावीर से प्राचीन भिक्ष प्रानन्द कौशल्यायन ने लिखा है-"प्रश्न हो है और उसका साहित्य भी पुराना है। उस साहित्य को सकता है कि त्रिपिटक तो बुद्ध के ५०० वर्ष बाद लिपि- लिपिबद्ध करने के लिए तीन प्रमुख वाचनायें हुई और बद्ध किया गया। इतने समय में उसमे कुछ मिलावट की
अन्तिम वाचना वीर (९९३) में उसे व्यवस्थित रूप दिया काफी संभावना है। हो सकता है लेकिन फिर त्रिपिटक
गया। इस वाचना में अनेक प्राचीन घटनायें संगहीत पर किस दूसरे साहित्य को प्राथमिकता दें? यदि यह
हई। इससे उन घटनाओं की प्रामाणिकता बढ़ी। अतः माम भी लिया जाय कि बुद्ध की अपनी शिक्षाओं के साथ
जैन साहित्य को केवल लिपिबद्धता के प्राधार पर प्रर्वाकहीं-कहीं त्रिपिटक में कुछ ऐसी शिक्षाएँ भी दृष्टिगोचर
चीन और अविश्वसनीय मानना उचित नहीं लगता। होती हैं जिनकी संगति बुद्ध की शिक्षाओं से प्रासानी से नहीं मिलायी जा सकती, तो भी हम बुद्ध की शिक्षामों के जैन, बौद्ध और वैदिक साहित्य में अनेक समान लिए त्रिपिटक को छोड़कर और किसी दूसरे साहित्य की कथानक माते है । कहीं-कही वे एक से लगते हैं, कहीं-कहीं शरण लें।"
उनकी व्याख्या-पद्धति और कथावस्तु में अन्तर भी लगता डा० भार० सी० मजूमदार ने मामा-'यह कोई मही है। उत्तराध्ययन सूत्र मे भनेक कथायें ऐसी हैं जिनका मानता कि पिटकों में केवल बुद्ध के ही वचन है। यह उल्लेख बौद्ध तथा वैदिक साहित्य में भी हुमा है । जैसे3. बुख वचन (द्वितीय संस्करण) भूमिका पृ० २ . Ancient India, Page 182.
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श्रमण-संस्कृति : इतिहास और पुरातत्त्व के संदर्भ में
अणुव्रत-परामर्शक मुनि श्री नगराज जो
मार्यों का प्रागमन :
जीवन-व्यवहार गा प्रमुख अंग थी। मेक्समूलर तथा अन्य पाश्चात्य विद्वानों की गवेष- भौतिक विकास की दिशा मे भी वे लोग प्रगति के णाओं ने यह तो सर्व-सम्मत रूप से प्रमाणित कर दिया है शिखर पर थे। उनके आवास, उनके ग्राम और उनके कि किसी युग मे उत्तरी क्षेत्रों से वहत बड़ी संख्या में नगर बहुत व्यवस्थित थे और हाथी व घोड़ों की सवारी आर्य लोग भारतवर्ष में पाए। उन लोगों की एक व्यव. भी वे करते थे। उनके पास गमनागमन के यान भी थे, स्थित सभ्यता थी। यहां के आदिवासी लोगों को उन्होने यहां तक कि उनमें भक्ति और पुनर्जन्म के विचारों का सामाजिक, राजनैतिक आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों में भी विकास था।' परास्त किया और उत्तर से दक्षिण तक समग्र देश में त्रिमल मति : अपनी संस्कृति का प्रभाव बढाया। यह वही सभ्यता मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खदाई से मिलने वाले है, जिसे लोग वैदिक सभ्यता के नाम से अभिहित
पुरातत्त्वावशेष उपरोक्त धाराओं के आधार बनते हैं। करते है।
इन अवशेषों में एक योगासन स्थित त्रिमुख योगी की प्राग-प्रार्य सभ्यता:
प्रतिमा विशेष उल्लेखनीय है । उस मूर्ति के सम्मुख हाथी, इस गवेषणा के साथ अब तक यह तथ्य भी जडा व्याघ्र, महिष और मृग प्रादि पशु स्थित है। इस मूर्ति हमा था कि पार्यों के आगमन से पूर्व इस भारतवर्ष में के विषय में विद्वानों द्वारा नाना कल्पनाएं की गई है। कोई समुन्नत, सभ्यता या संस्कृति नही थी। जैन और बहुतों का कथन है—यह पशुपति शिव की मूर्ति है।' बौद्ध परम्पराएं भी इसी संस्कृति की उत्क्रान्तिया-मात्र यह भी सोचा गया है कि योगसूत्र - 'अहिंसा प्रतिष्ठायां हैं । इन दिनों में जिस प्रकार इतिहास करवट ले रहा है, तत् सन्निधो वैरत्याग, के सूचक किसी पहचे हए योगी की उससे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि पार्यों के आगमन मूति है। से पूर्व यहां एक समुन्नत संस्कृति और सभ्यता विद्यमान शिव या शान्ति जिन ? थी। वह संस्कृति अहिंसा, सत्य और त्याग पर आधारित त्रिमुख मूर्ति के अवलोकन से अर्हत-अतिशयों से थी। यहां तक कि उस संस्कृति मे पले-पुसे लोग अपने अभिज्ञ व्यक्ति के मन में यह कल्पना भी सहज रूप से सामाजिक, राजनैतिक एवं धार्मिक हितों के संरक्षण के होती है कि समवसरण-स्थित चतुर्मख तीर्थकर का ही वह लिए भी युद्ध करना पसन्द नहीं करते थे । अहिंसा उनके कोई शिल्प-चित्रण है। उसकी बनावट के साथ एक मुख 1. Ancient India (An Ancient History of By majumdar, Ray Chaudhary and K. C. India-PartI)
Dutta P. 21) By Majumdar, Roy Chaudhary and K. C. Datta, P. 23.
S. Mohan-jo-dro and the Indur civilization 2. The Religion of Ahinsa, By Prof. A. (1931) vol. 1, P.P. 32-3. Chakaravarti, M. A. P. 17.
6. mohan-jo dro and the Indus civilization 3. Mohan-Jo-dro and the Indus civilization
(1931) Vol. 1, P.P. 52-3. (1931) Vol 1 P.P.93-5. 4. Ancient Indla (An Ancient History of 7. ADIDSa in indian culture, by Dr. Nathmal India Part 1)
Tantia m.A., D. Litt.
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श्रमण-संस्कृति : इतिहास और पुरातत्व के संदर्भ में
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का अदृश्य होना स्वाभाविक है। यह विशेषता तो किया। इसीलिए उनकी रानी और देश के प्रथम चक्रवर्ती तीर्थकरों की स्वय-सिद्धि है ही कि उनके सान्निध्य में की माता विद्याधर वंश की थी। इससे यह प्रमाणित व्याघ्र, गज, मग ग्रादि नित्य विरोधी पशु भी मैत्री पूर्वक होता है कि इक्ष्वाक और विद्याधर प्राग्-पाय-काल में यहाँ बैठते है। मग की अवस्थिति टीक वैसे ही है, जैसे रहते थे और उनमें मंत्री-मम्बन्ध था, जो उक्त विवाहवर्तमान युग में शान्तिनाथ प्रभु की मूर्तियों में हमा प्रसग से जाना जाता है। करती है। मृग सोलहवें तीर्थ वर का लाछन भी है। एक और प्रागार्य वश पर भी हमें यहां ध्यान देना यह कल्पना इस लिए की जा सकती है कि हडप्पा और चाहिए। हरिवंश के लोग देश के पश्चिम भाग में रहने मोहनजोदडों की खदाइयों में कुछ अन्य मूर्तिया तथा वाले थे। श्रीकृष्ण और भगवान् अरिष्टनेमि दोनो हरिमुद्राएं उपलब्ध हुई है, जिनसे जैन तीर्थकर और जैन मस्कृति वंश के थे । इस वंश के राजा अहिंसा धर्म के रक्षक होने का आभास मिलता है, ऐसा विद्वानो का अभिमत है। के रूप मे सुविख्यात है। इतिहास के इस सिंहावलोकन त्रिमुख मूर्ति के विषय मे उपर्युक्त कल्पना एकाएक स यह स्पष्ट हा जाता है कि प्राया क अ
से यह स्पष्ट हो जाता है कि पार्यों के आने से पहले भी भले ही कुछ दूर की लगे, पर उस सम्बन्ध से शिव की अहिंसा-धर्म इस देश में व्यापक था और वह राजकल्पना करने में भी विद्वान पूरा निर्वाह नहीं कर पा रहे परिवारों के द्वारा समादत था। सम्भव तो यह भी है है। उनका कहना है कि तीन नेत्रो के स्थान पर तीन कि वह देश के बहुत सारे भागों में राजधर्म भी था। मुख हो सकते है और त्रिशूल के द्योतक, मूर्ति के दिखलाये
प्रागार्य विद्याधर, जो कि प्रागार्य सभ्यता और संस्कृति के दो सोग हो सकते है। सचमच ही यह कल्पना बड़ा ही मूल पुरुष थे, द्रविड लोगो के पूर्वज माने जाते है । यदि लचीली और खीचतान की मी है। कुछ भी हो; त्रिमुख
पुरातत्त्व-गवेषक विद्वानों की यह मान्यता स्वीकार हो मूर्ति से इतना तो निर्विवाद है ही कि आर्यों के आगमन
जाती है तो इस निश्चय पर पहुंच ही जाते हैं कि वह से पूर्व उस प्रदेश से ध्यान और मनित्व का अस्तित्व
अहिंसा-धर्म ही है जो प्राचीन द्रविड संस्कृति और सभ्यता वर्तमान था।
का आधार था। प्रागार्य वंश:
डा० ए० सी० संन, एम० ए०, एल-एल० बी, पोसुप्रसिद्ध विद्वान प्रो. ए. चक्रवर्ती का कहना है,
१. एच० डी० (हैम्बुर्ग) का भी अभिमत है"-बुद्ध और महा'ऐसा कहा जाता है, भगवान् ऋपभ इक्ष्वाकुवंदा के थे।
वीर के विचार वैदिक संस्कृति से स्वतन्त्र रूप में विकसित अन्य अधिकाश तीर्थङ्कर भी इसी वश के थे। भगवान श्री
हुए है और यह बहुत सम्भव है कि इनमे से बहुत सारे
र महावीर के समकालीन शाक्य मनि गौतम बदध भी इसी विचारों का प्रारम्भ प्राचीन प्रागार्य और प्राग वैदिक युग इक्ष्वाकुवंश के थे। अवतार पूरुष माने जाने वाले राम में हो चुका था। भी इक्ष्वाकुवंश के थे। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है नवागत संस्कृति और श्रीकृष्ण : कि प्राचीन भारत मे इक्ष्वाकुवंश का एक सम्मानित स्थान इतिहास और अनुसन्धान के क्षेत्र में यह तो निर्विवाद था। बहुत सम्भव है, इक्ष्वाकु लोग प्रागार्य थे; क्योकि निश्चित है ही कि आर्य-संस्कृति लोकपषणा-प्रधान थी। वैदिक संहिताग्री में उन्हें उस देश के प्राचीन लोगों में प्रात्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष, अहिंसा, सत्य तथा त्याग जैसी से माना है। यद्यपि भगवान् ऋपभ इक्ष्वाकुवंश के थे मान्यताएं उनमे नहीं थी। विभिन्न देवों की हिमा-प्रधान तथापि एक विद्याधर राज-कन्या में भी उन्होने विवाह यज्ञों से उपामना करना और अपना भौतिकी इष्ट मांगना 8. Kamta Prasad Jain in his paper in the 9. Ancient India (An Advanced History of Voice of Ahinsa-Tirthankar Rishbhadeva
India Part 1 )By Majumdar Ray, Chaudhary Number, Vol. VII N. 3-4 march-April
and K.C. Dutta, P. 20.
10. The Religion of Ahinsa, p.p.37-31. 1957, P.P. 152-6.
11. Elements of Jainism, p.2.
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(२८, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
भारत का ही स्वर्णयुग नहीं था प्रत्युत जिस काल में महा- रहा पर उसका निवास झोंपड़ी था। समर्थ रामदास, वीर और बद्ध भारत का नेतृत्व कर रहे थे, विश्व का शिवाजी और हिन्दू राष्ट्र के पथ प्रदर्शक थे पर स्वयं एक नेतत्व भी कही ईसा तो कहीं मोहम्मद साहब सम्भाले लंगोटी मे सन्तुष्ट थे। ऋपि और मनि कूटियो में रहते हुए थे। यह सब हो रहा था सापेक्षता के प्राधार पर। थे, सम्राटों के राज्य मंचालन के केन्द्र-बिन्दु थे। वर्तमान
महाबीर माज भी विद्यमान है, इसलिए कि जैन भारत के स्वातन्त्र्य यज्ञ के अधिष्ठाता महात्मा गांधी भी विद्यमान है। और अब जैन है तो वे बिना नेता के नही संत ही थे। क्या वे वैभव का जीवन बिताने में असमर्थ हो सकते । संसार कहीं भी बिना नेतत्व के कभी खडा थे? नही, किन्तु यह समर्थता धारण करना उनकी प्रात्मनहीं हमा। नेतृत्व ने जब चाहा भयानक नर संहार की स्वीकृति के बाहर था। नेतृत्व सदैव उदार, निस्पृह, घोषणा कर दी, विसंगतियों को पनपने की छट दे दी। निस्वार्थ एवं अपरिग्रही होता है; तभी नेतृत्व सफल होता नेतत्व ने चाहा तो प्रानन्द की वर्षा होने लसी, स्वर्ण और है। महावीर ऐसे ही नेता थे। सब को सब कुछ दिया रत्न बरसने लगे।
निष्काम होकर । उन्होने जन-जन को समृद्ध किया जड़ता हमारा देश स्वतन्त्र हो चुका है। महावीर का जन-
रहित विवेक से सम-प्रभ्युदय के लिए, सम-विकास के
राहत विवक स सम-प्रभ्युदय के लिए, तन्त्र, प्रजातन्त्र के रूप में पुनः स्थापित हुमा है, तो दीर्घ- लि कालीन तमित्रापूर्ण रात्रि का यह अन्तिम प्रहर है।
प्रजातन्त्र का अर्थ भी यही है। प्रजा का तन्त्र केवल प्रभ्युदय निकट है। प्राची से प्रकाश की भोर कदम रखता' समानता है। एक ओर पूजी और दूसरी ओर दरिद्रता, अशुमालि पुनः प्रकट हो रहा है। हमे जीवन की ओर यह प्रजातन्त्र की घोषणा के विपरीत है। इसलिए जनअग्रसर होना है। हमें सही पथ प्रदर्शन चाहिए । महावीर तन्त्र में जन्मे महावीर ससत्व की घोषणा करते है से अनुप्राणित ही सही नेतृत्व दे सकता है गन्तव्य की प्रजा के यथार्थ तन्त्र की व्यवस्था के लिए । प्रजातन्त्र का प्राप्ति के लिए। तो हमें नेता की ओर दष्टिपात करना अर्थ है जातीयता का भाव । महावीर ने जातीयता को होगा। महावीर पर एक दृष्टि डालें तो वे मग्न दिखाई
मजातीयता में बदल दिया। प्रजातन्त्र का अर्थ है एकता । देते हैं। यह नग्नता स्वय की मोर जितनी अर्थपूर्ण है. महावीर ने अनेकान्त से एकता की स्थापना की। भिन्नउतनी ही समष्टि की भोर भी। महावीर प्रस्तुत है सब
भिन्न दृप्टियाँ भेद का कारण बनती है, महावीर ने इस त्याग कर परमार्थ की मोर । पर होगा तो घर के प्राग्रह।
विज्ञान को लान लेने की बात कही जिसे जान लेने के
उपरान्त भेद की दीवारे गिर जाती है, एकता का घरातल होंगे, वस्त्र होंगे तो शरीर के भाग्रह होंगे। उनकी, समग्र
निर्मित हो जाता है । प्रजातन्त्र का अर्थ है पूर्ण विकास । को कल्याण भावना भटक न जाये, महावीर पूर्ण प्रपरिग्रही हो जाते हैं। जेसे ही जनका व्यक्तिगत घर छूटता है
इसके लिए महावीर ने सम्यकत्व प्रतिपादित किया, जह' तो वे बराबर के निकट हो जाते हैं। एक और दृष्टि
केवल समानता होगी, कलह नहीं होगा, घृणा नहीं होगी
और तब होगी केवल समृद्धि, जो आज खीचातानी मे टूट महावीर को सोचने की। महावीर को दीन, दुखी और
रही है। प्रजातन्त्र का अर्थ है चरित्र की उज्ज्वलता। दरिद्र के भी निकट जाना था तो वे वैभव को त्याग कर
महावीर ने सम्यक् चारित्र की घोषणा की, ब्रह्मचर्य को ही सामीप्य प्राप्त कर सकते थे। वे उनके कष्टों को
प्रतिष्ठित किया। यह प्रावरण जीवन के प्रोज, पुरुषार्थ जीवन में अनुभव करके जानना चाहते थे और उन्होंने का प्राचरण होगा। यहां जमाखोरी नही होगी, भ्रष्टाचार जाना, और उनसे तादात्म्य स्थापित किया।
नही होगा, तस्करी नही होगी, व्यभिचार नहीं होगा, जिन्होंने भी सही नेतृत्व किया है, इसी स्थिति में समाज 'उण्ड नहीं होगा, विद्यार्थी समाचरण के होगे, ठहरे है। नेता मादेश नहीं देता, मादर्श उपस्थित करता रंजन विज्ञ एव प्रादर्श होगे, व्यापारी अर्थाचारी नही है । प्रादेशों की अवज्ञा होती है, प्रादर्शों का प्रमुकरण' होगा, अधिकारी स्वेच्छाचारी नही होगे, कर्मचारी और सम्मान | चाणक्य पूरे गुप्त साम्राज्य का संचालक ममाचारी नहीं होगे। यह है नेतृत्व की भादर्शवादिता।
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भगवान महावीर का क्रांति-तत्त्व और वर्तमान सन्दर्भ
D डा० नरेन्द्र भानावत
एक विसकी पूति
और माना
पाटने के
क्रान्ति पुरुष
है जो सूक्ष्म द्रष्टा हो, जिसकी वृत्ति निर्मल, स्वार्थरहित वर्धमान महावीर क्रातिकारी व्यक्तित्व लेकर प्रकट और सम्पूर्ण मानवता के हितो की सवाहिका हो। महावीर हुए । उनमे स्वस्थ समाज निर्माण और प्रादर्श ने भौतिक ऐश्वर्य की चरमसीमा का स्पर्श किया था, पर व्यक्ति-निर्माण की तडप थी। यद्यपि स्वय उसके लिए एक विचित्र प्रकार की रिक्तता का अनुभव वे बराबर समस्त ऐश्वर्य और वैज्ञानिक उपादान प्रस्तुत थे, तथापि करते रहे, जिसकी पूर्ति किसी बाह्य साधना से सम्भव न उनका मन उनमे नही लगा। वे जिस बिन्दु पर व्यक्ति भी। वह प्रान्तरिक चेतना और मानसिक तटस्थता से ही
और समाज को ले जाना चाहते थे, उसके अनुकूल परि- पाटी जा सकती थी। इसी रिक्तता को पाटने के लिए स्थितियां उस समय न थी। धार्मिक जड़ता पीर अन्धश्रद्धा उन्होने घर-बार छोड़ दिया, राज-वैभव को लात मार दी ने सबको पुरुषार्थ रहित बना रखा था, आर्थिक विषमता और बन गये अटल वैरागी, महान् त्यागी, एकदम अपरिअपने पूरे उभार पर थी। जाति-भेद और सामाजिक ग्रही, निस्पृह । वैपन्य समाज-देह मे घाव बन चुके थे। गतानुगतिकता ।
उनके जीवन-दर्शन की यही पृष्ठभूमि उन्हे क्रांति की का छोर पकड़ कर ही सभी चले जा रहे थे। इस विषम
पौर ले गई। उन्होने जीवन के विभिन्न परिपाश्वों को और चेतनारहित परिवेश मे महावीर ने दायित्व को
जड, गतिहीन और निष्क्रिय देखा । वे सबमे चेतनता, गतिममझा। दूसरो के प्रति सहानुभूति और सदाशयता के
शीलता और पुरुषार्थ भावना भरना चाहते थे। धार्मिक, भाव उनमे गे श्री. एक क्रान्तदर्शी व्यक्तित्व के रूप
सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक क्षेत्र में उन्होंने जो में वे सामने पाये, जिसने सबको जागत कर दिया, अपने
क्रान्ति की, उसका यही दर्शन था। अपने कर्तव्यों का भान करा दिया और व्यक्ति तथा समाज
कामिक क्रांति को भूलभुलया से बाहर निकाल कर सही दिशा-निर्देश ही नही किया, वरन उसका मार्ग भी प्रशस्त कर दिया। ___ महावीर ने देखा कि धर्म को लोग उपासना की क्रान्ति की पृष्ठभूमि
नहीं, प्रदर्शन की वस्तु समझने लगे है। उसके लिए मन परिवेश के विभिन्न मूत्रो को वही व्यक्ति पकड मकना के विकारों और विभागो का त्याग अावश्यक नहीं रहा,
प्रावश्यक सा यज्ञ मे भौतिक मामग्री की पाहुति देना, (पृष्ठ २८ का शेषास)
यहाँ तक कि पशुओ का बलिदान करना। धर्म अपने इसलिए लोकनायक महावीर के नायकत्व की घोषणा धर्मानुप्राणित राजनीति है, प्रजातन्त्र की जीवन रक्षा के
स्वभाव को भूल कर एकदम क्रियाकाड बन गया था।
उसका सामान्यीकृत रूप विकृत होकर विशेषाधिकार के लिए, प्रजातन्त्र के समुन्नत विकास के लिए महावीर
__ कटघरे मे बन्द हो गया था। ईश्वर की उपासना सभी २५०० वर्ष पूर्व जनतन्त्र के नायक थे । प्राज उनका दर्शन
मक्त हृदय से नही कर सकते थे। उम पर एक वर्ग का ही प्रजातन्त्र का नायकत्व करेगा। अन्तर निर्मन है, केवल
एकाधिपत्य-सा हो गया था। उनकी दृष्टि सूक्ष्म से स्थल मल को हटाना है।
00
पौर अन्तर से बाह्य हो गई थी। इस स्थिति को चुनौती सिविल वार्ड न. १ सेठ भोजराज का बाडा
दिये बिना आगे बढना दुष्कर था। अत. भगवान महावीर सिनेमा रोड-दमोह (म०प्र०)
ने प्रचलित धर्म और उपासना पद्धति का तीव्र शब्दों में
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२०, वर्ष २८, कि०१
भनेकाम्स खंडन किया और बताया कि ईश्वरत्व को प्राप्त करने के तारणा कभी कर्म के आधार पर सामाजिक सुधार के साधनों पर किसी वर्ग विशेष या व्यक्ति विशेष का अधि- लिए श्रम-विभाजन को ध्यान में रख कर की गई थी, वह कार नहीं है । वह तो स्वयं मे स्वतन्त्र, मुक्त, निर्लेप और आते-आते रूढ़िग्रस्त ही रह गई और उसका प्राधार अब निविकार है। उसे हर व्यक्ति, चाहे वह किसी जाति, जन्म ही रह गया। जन्म से व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग, धर्म या लिंग का हो- मन की शुद्धता और प्राचरण और शूद्र कहलाने लगा। फल यह हुआ कि शूद्रों की की पवित्रता के बल पर प्राप्त कर सकता है । इसके लिए स्थिति अत्यन्त दयनीय हो गई। नारी जाति की भी यही आवश्यक है कि वह अपने कषायों-क्रोध, मान लोभ
स्थिति थी। शद्रों की और नारी जाति की इस दयनीय का त्याग कर दे।
अवस्त्रा के रहते हुए धार्मिक क्षेत्र में प्रवर्तित क्रांति का धर्म के क्षेत्र मे उस समय उच्छङ्खलता फैल गई थी।
कोई महत्व नहीं था। अतः महावीर ने बड़ी दृढ़ता और हर प्रमुख साधक अपने को तीर्थकर मान कर चल रहा
निश्चितता के साथ शूद्रो और नारी जाति को अपने धर्म
है था। उपासक की स्वतंत्र चेतना का कोई महत्व नही रह मे दीक्षित किया और यह घोषणा की कि जन्म से कोई गया था। महावीर ने ईश्वर को इतना व्यापक बना
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि नहीं होता, कर्म से ही सब दिया कि कोई भी आत्म साधक ईश्वर को प्राप्त ही नही
होता है। हरिकेशी चाण्डाल के लिए, सद्दाल पुत्र कुम्भकार करे, वरन् स्वयं ही ईश्वर बन जाय । इस भावना ने प्रस
के लिए, चन्दनबाला (स्त्री) के लिए उन्होंने अध्यात्महाय, निष्क्रिय जनता के हृदय में शक्ति, आत्म-विश्वास
साधना का रास्ता खोल दिया। और आत्मबल का तेज भरा। वह सारे प्रावरणों को भेद
प्रादर्श समाज कैसा हो? इस पर भी महावीर की कर, एकबारगी उठ खड़ी हुई। अब उसे ईश्वर-प्राप्ति के
दृष्टि रही। इसीलिए उन्होंने व्यक्ति के जीवन मे व्रतलिए परमुखापेक्षी बन कर नही रहना पड़ा। उसे लगा
साधना की भूमिका प्रस्तुत की । श्रावक के बारह व्रतों में कि साधक भी वही है और साध्य भी वही है। ज्यों-ज्यो
समाजवादी समाज रचना के अनिवार्य तत्व किसी न किसी साधक तप, सयम और अहिंसा को आत्मसात् करता
रूप में समाविष्ट है । निरपराध को दण्ड न देना, असत्य जायगा, त्यों-त्यों यह साध्य के रूप में परिवर्तित होता
न बोलमा, चोरी न करना, न चोर को किसी प्रकार की जायगा। इस प्रकार धर्म के क्षेत्र से दलालों और मध्यस्थो
सहायता देना, स्वदार-सतोष के प्रकाश मे काम भावना को बाहर निकाल कर, महावीर ने सही उपासना पद्धति
पर नियन्त्रण रखना, प्रावश्यकता से अधिक संग्रह न का सूत्रपात किया।
करना, व्यय प्रवृत्ति के क्षेत्र की मर्यादा करना, जीवन मे सामाजिक क्रांति
समता, संयम, तप और त्याग वृत्ति को विकसित करनामहावीर यह अच्छी तरह जानते थे कि धार्मिक क्रांति इस व्रत-साधना का मूल भाव है। कहना न होगा कि इस के फलस्वरूप जो नयी जीवन-दृष्टि मिलेगी। उसका क्रिया- साधना को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति जिस न्वयन करने के लिए समाज के प्रचलित रूढ मूल्यों को समाज के अंग होगे, वह समाज कितना प्रादर्श, प्रगतिशील भी बदलना पड़ेगा। इसी सन्दर्म मे महावीर ने सामाजिक पौर चरित्रनिष्ठ होगा। शक्ति और शील का, प्रवत्ति क्रान्ति का सूत्रपात किया। महावीर वे देखा कि समाज में और निवृत्ति का वह सुन्दर सामञ्जस्य ही समाजवादी दो वर्ग है । एक कुलीन वर्ग जो कि शोषक है. दूसरा निम्न समाज-रचना का मूलाधार होना चाहिए। महावीर की वर्ग जिसका कि शोषण किया जा रहा है। इसे रोकना यह सामाजिक क्रान्ति हिंसक न होकर अहिंसक है, संघर्षहोगा। इसके लिए उन्होंने अपरिग्रह दर्शन की विचार- मूलक न होकर समन्वय-मूलक है। धारा रखी, जिसकी भित्ति पर आगे चल कर आर्थिक मार्थिक क्रान्ति । क्रान्ति हई। उस समय समाज में वर्ण-भेद अपने उभार महावीर स्वयं राजपुत्र थे । धन-सम्पदा और भौतिक पर था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की जो भव- वैभव की रंगीनियों से उनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध था, इसी.
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भगवान महावीर का कान्ति-तस्वीर वर्तमान संदर्भ
लिए वे प्रर्थ की उपयोगिता को और उसकी महत्ता को ने स्यादवाद या भनेकान्त दर्शन कहा। माइन्स्टीन का ठीक-ठीक समझ सके थे। उनका निश्चित मत था कि सापेक्षवाद इसी भूमिका पर खड़ा है। इस भूमिका पर सच्चे जीवनानन्द के लिए आवश्यकता से अधिक संग्रह ही आगे चल कर सगुण-निर्गुण के वाद-विवाद को, ज्ञान उचित नही। अावश्यकता से अधिक सग्रह करने पर दो और भक्ति के झगडे को सुलझाया गया। प्राचार में समस्यायें उठ खडी होती है। पहली समस्या का सम्बन्ध अहिंसा की और विचार में अनेकान्त की प्रतिष्ठा कर व्यक्ति मे है, दूसरी का समाज से । अनावश्यक संग्रह करने महावीर ने अपनी क्रान्तिमूलक दृष्टि की व्यापकता दी। से व्यक्ति लोभ-वृत्ति की ओर अग्रसर होता है और समाज का शेष अंग उस वस्तु विशेष से वंचित रहता है। फल
अहिंसक दृष्टि स्वरूप समाज मे दो वर्ग हो जाते हैं-एक सम्पन्न,
इन विभिन्न क्रान्तियों के मूल में महावीर का वीर दूसरा विपन्न और दोनों में संघर्ष प्रारम्भ होता है। कार्ल
व्यक्तित्व ही सर्वत्र झांकता है। वे वीर ही नहीं. महावीर मास ने इसे वर्ग-संघर्ष की संज्ञा दी है और इसका हल
थे। इनकी महावीरता का स्वरूप प्रात्मगत अधिक था। हिंसक क्राति में ढढा है। पर महावीर ने इस प्राथिक
उसमें दुष्टों से प्रतिकार या प्रतिशोध लेने की भावना वैषम्य को मिटाने के लिए अपरिग्रह की विचारधारा रखी
नहीं. वरन् दूष्ट के हृदय को परिवर्तित कर उसमें मानहै। इसका सीधा अर्थ है --ममत्व को कम करना, अना
वीय सद्गुणों दया, प्रेम करुणा अदि को प्रस्थापित करने बश्यक संग्रह न करना। अपनी जितनी प्रावश्यकता हो,
की स्पृहा अधिक है। चण्डकौशिक के विष को अमृत बना उसे पूरा करने की दृष्टि से प्रवृत्ति को मर्यादित और
देने में यही मूल प्रवृत्ति रही है। महावीर ने ऐसा नहीं प्रात्मा को परिष्कृत करना जरूरी है। श्रावक के बारह
किया कि चण्डकौशिक को ही नष्ट कर दिया हो। उनकी व्रतों में इन सबकी भूमिकायें निहित हैं। मार्क्स की
वीरता में शत्रु का दमन नही, शत्रु के दुर्भावों का दमन आर्थिक क्राति का मूल आधार भौतिक है, उसमे चेतना
है । वे बुराई का बदला बुराई से नहीं, बल्कि भलाई से को नकारा गया है जबकि महावीर की यह पार्थिक क्रांति
देकर बुरे व्यक्ति को भला मनुष्य बना देना चाहते है। चेतनामूलक है। इसका केन्द्र-बिन्दु कोई जड़ पदार्थ नहीं,
यही अहिंसक दृष्टि महावीर की क्रान्ति की पृष्ठ-भूमि वरन् व्यक्ति स्वयं है।
रही है। बौद्धिक क्रान्ति
वर्तमान संदर्भ और महावीर महावीर ने यह अच्छी तरह जान लिया था कि भमैवान महावीर को हुए आज २५०० वर्ष हो गये जीवन तत्व अपने में पूर्ण होते हुए भी वह कई प्रशों की हैं पर अभी भी हम उन मूल्यो को प्रात्मसात् नही कर प्रखण्ड समष्टि है। इसीलिए अंशों को समझने के लिए पाये हैं जिनकी प्रतिष्ठापना उन्होंने अपने समय में की अंश का समझना भी जरूरी है। यदि हम ग्रंश को नकारते थी। सच तो यह है कि महावीर के तत्व-चिन्तन का रहे, उसकी उपेक्षा करते रहे तो हम अंशों को उसके महत्व उनके अपने समय की अपेक्षा प्राज वर्तमान संदर्भ सर्वाङ्ग सम्पूर्ण रूप में नहीं समझ सकेंगे। सामान्यत: में कहीं अधिक सार्थक और प्रासंगिक लगने लगा है। समाज में जो झगड़ा या वाद विवाद होता है, वह दुराग्रह वज्ञानिक चिन्तन ने यद्यपि धर्म के नाम पर होने वाले हठवादिता और एक पक्ष पर खड़े रहने के ही कारण बाह्य क्रियाकाण्डों, अत्याचारों और उन्मादकारी प्रवृत्तियों होता है। यदि उसके समस्त पहलमों को अच्छी तरह देख के विरुद्ध जनमानस को संघर्षशील बना दिया है. उमकी लिया जाय तो कहीं न कहीं सत्यांश निकल पायेगा। इन्द्रियों के विषय-सेवन के क्षेत्र का विस्तार कर एक ही वस्तु को विचार वा एक तरफ से ही न देख कर दिया है, औद्योगीकरण के माध्यम से उत्पादन की उसे चारों ओर से देख लिया जाय, फिर किसी को एत- प्रक्रिया को तेज कर दिया है, राष्ट्रों की दूरी परस्पर कम राज न रहेगा। इस बौद्धिक दृष्टिकोण को ही महावीर कर दी है, तथापि प्राज का मानव सुखी और शांत नहीं
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३२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
है। उसकी दूरियां बढ़ गई है। जातिवाद, रंगभेद, के अनुपालन की स्वतन्त्रता है। ये परिस्थितियां मानव भुखमरी. गुटपरस्ती जैसे सूक्ष्म जहारी कीटाणो से वह इतिहास में इस रूप में इतनी सार्वजनिक बन कर पहले ग्रस्त है । वह अपने परिचितो के बीच रह कर भी अपरि- कभी नही पाई। प्रकारान्तर से भगवान महावीर का चित है, अजनवी है. पराया है। मानमिक कुण्ठानों, अपरिग्रह व अनेकान्त सिद्धान्त ही इस चिन्तन के मूल में वैयक्तिक पीड़ामो और युग की कडवाहट से वह त्रस्त है. प्रेरक रहा है। सन्तान है। इसका मूल कारण है-यात्मगत मुल्यो के वर्तमान परिस्थितियों ने प्राध्यात्मिकता के विकास प्रति उनकी निष्ठा का प्रभाव । इस प्रभाव को वैज्ञानिक के लिए अच्छा वातावरण तैयार कर दिया है। आज प्रगति प्रऔर ग्रा.यागिक स्फुरणा के सामंजस्य से ही दूर अावश्यकता इस बात की है कि भगवान महावीर के तत्वकिया जा सकता है।
चिन्तन का उपयोग समसामयिक जीवन की समस्याग्रो के _आध्यात्मिक स्फुरण की पहली शर्त है-व्यक्ति के समाधान के लिए भी प्रभावकारी तरीके से किया जाय । स्वतन्त्रचेता अस्तित्व की मान्यता जिस पर भगवान महा- वर्तमान परिस्थितिया इतनी जटिल एवं भयावह बन गयी वीर ने सर्वाधिक बल दिया और आज की विचारधारा भी है कि व्यक्ति अपने ग्रावेगों को रोक नही पाता और यह व्यक्ति में वादित मुल्यो की प्रतिष्ठा के लिए अनुकूल परि- विवेकहीन होकर आत्मघात कर बैठता है । प्रात्महत्याग्रो स्थिति के निर्माण पर विशेष बल देती है। अाज सरकारी के ये प्राकडे दिल दहलाने वाले है। ऐमी परिस्थितियों
और गैर-सरकारी स्तर पर मानव-कल्याण के लिए नाना- से बचाव तभी हो सकता है जबकि व्यक्ति का दृष्टिकोण विध संस्थाए और एजेन्मिया कार्यरत है। गहरी सम्पत्ति प्रात्मोन्मखी बने। इसके लिए पावश्यक है कि वह जड की सीमाबन्दी, भूमि की सीलिग और अायकर-पद्धति तत्व में परे चेतन तत्व की सत्ता में विश्वास कर यह प्रादि कुछ ऐसे कदम लो आर्थिक विषमता को कम चिन्तन करे कि मै कोन ह. कहा से प्राया है. किससे करने में सहायक सिद्ध हो सकते है। धर्म निरपेक्षता का
सकत ह । धम निरपेक्षता का बगहूं मुझे कहा जाना है? यह चितन-क्रम उसमें सिद्धान्त भी मुलत इस बात पर बल देता है कि अपनी- प्रात्म-विश्वास, स्थिरता, धर्य. एकाग्रता जैसे सद्भावों अपनी भावना के अनुकूल प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म का विकाम करेगा।
जैन साहित्य में पद्गल सृष्टि जिन मूल ६ द्रव्यों से रची हुई है, पुद्गल उनमें से एक है। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, ये चार पुद्गल के गुण हैं । पुद्गल को गलन मिलन की प्रक्रिया में द्वितीयक गुण उत्पन्न होते है, जिसमें भारहीनता एक है । स्निग्ध स्पर्श गुण को प्रत्यधिक वृद्धि से पुद्गल भारी हो जाता है तथा रुक्ष स्पर्श गण की अत्यधिक वृद्धि से हल्का हो जाता है। विज्ञान की भाषा में स्निग्ध विद्यत ऋणात्मकता का कम होना और रुक्षता विद्युत ऋणात्मकता का बढ़ना है। परमाणों का बन्ध विशेष नियमों से होता है। जैन विचार के अनुसार स्निग्ध तथा रुक्ष अपने ही सदृश्य गुण वाले परमाणपों से जब बन्ध करता है। तो परस्पर में दो अथवा दो से अधिक प्रशों का अंतर होना चाहिए। प्राधनिक विज्ञान की दृष्टि में ये परमाणु को नाभि अधिक स्थाई होते हैं तथा बहुतायत में ऐसे तत्त्व पाये जाते हैं जिनमें प्रोटीन की संख्या में वो का भाग जा सके। स्कन्ध दो प्रकार के हैं स्थूल, सूक्ष्म । सूक्ष्म स्कन्ध भी दो प्रकार के हैं -प्रष्ट स्पर्शी तथा चतुस्पर्शी। चतुस्पर्शी पुद्गलों का व्यवहार अत्यन्त निराला है। ये भारहीन होते हैं। विज्ञान की वृष्टि में भारहीन की कल्पना कठिन है किन्तु क्योंकि भौतिक कण वे ही माने जाते है। जिनमें 'प्रापर मास' तथा गति हो। जैन विचार के अनुसार भौतिक कण भार तभी ग्रहण करते हैं जब उनमें विद्यत ऋणात्मकता को गहरी कमी होती है। पदार्थ सम्बन्धी ज्ञान जो जैन साहित्य में उपलब्ध है वह माधुनिक विज्ञान के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है।
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महाराज अशोक और जैनधर्म
। श्री दिगम्बर दास जैन, एडवोकेट, सहारनपुर बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर
है कि वे बौद्ध ग्रन्थो का ऐतिहासिक रूप अस्वीकार करते ____ मौर्य सम्राट अशोक (२३२-२७१ ई० पू०) को कुछ है। प्रो० डेविड भी बौद्ध ग्रन्थो के ऐतिहासिक प्रौर विद्वान बौद्ध ग्रन्थो के आधार पर बौद्ध धर्मी समझते है, धार्मिक कथन को महत्व मही देते। डा० कर्न बौद्ध परन्तु प्रसिद्ध बौद्ध इतिहासकार डा० विन्सेन्ट स्मिथ बौद्ध ग्रन्थो से तत्व की बात निकाल कर असुरक्षित स्वीकार प्रन्थो को शेखचिल्ली की कहानियो से अधिक महत्व नहीं करते है और कहते है कि अशोक की राजनीति बौद्ध तत्य देते और कहते है कि उनका कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं प्रकट नहीं करती। मि० हैराम का कथन है कि बौद्ध है। प्रो०भण्डारकर बौद्ध कथाग्री को सच्चाई के विरुद्ध और साहित्य ने बहन से विद्वानों को धोखे में रखा और बौद्ध विपरीत कथन पाते है और उनका ऐतिहासिक सत्य स्वीकार ग्रन्थो का यह कहना कि महाराज अशोक म. बद्ध का नहीं करते। प्रो० प्रार० के० मकर्जी बौद्ध ग्रन्थों के एक शिष्य था, बिल्कुल विश्वास योग्य नहीं' । स्वय बौद्ध ग्रन्थ वर्णन को दूसरे से अनेक स्थानो पर इतना विपरीत पाते (समानता प्रसादिका] (१४४४५) से स्पष्ट वर्णन है कि
1. Dr. Vincent Smith admits that Buddhist
Chronicles are full of 'Silli fictions" and hence are of no historical value. They should be treated simply edifying romances.
-Smith, Ashoka, pp. 19-23. 2. Prof. DR. Bhandarkar supports him
that the Buddhist traditions contain such down-right absurdities and inconsistencies and disclose so much of dogmatical and sectarian tendency that very little that is contained in these traditions, may be accepted as historical truth.
- Bhandarkar, Ashoka p 96. 3. In the words of Prof RK. Mookerjee,
"These (Buddhist's) legends are themselves at conflict with one another in many places and thus betray themselves all the
more. -Mookerjee, Ashoka, p. 2 4. Prof. T.W. Rhys David remarks, 'The
pictursque accounts, written by well meaning members of the Buddhist order,
who were thinking the while not historical criticism, but of religious edification, seems of poor accounts."
-The Buddhist India, p. 274. 5. Dr. Kern says, “It is unsafe to draw inference from such narrations''.
---Manual of India, Buddhism, p 115. 6. Nothing of the Buddhist spirit can be discovered in his (Ashoka'a ) State Policy. - Prof. Kern, Journal ot Royal Asiatic
Society, 1887, P. 187. 7. Rev. Fr. H. Heras, S.J. declares, The
Buddhist Chronicles of 4th, 5th & 6th centuries have deceived many a scholar. To count so greal monarch as Ashoka among the disciple of Gautama was unquestionably a distioct advantage to the declining Buddhist monarchism. Hence their statement is not reliable at all. Quarterly Journal of Mythic Society
Vol XVII p. 225.
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३५, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
प्रशोक 'Heretics' सिद्धांत का अनुगामी था, Heretics इतिहास संग्रह के अनुसार) बौद्धों मे नही बल्कि जन धम (रायल एशियाटिक सोसाटी, बोम्बे ब्रान्च के जरनल, भाग में प्रयुक्त होता है। शिलालेख न० १३ में शब्द 'पाखण्ड' ४, जनवरी १८५५, पृ. ४०१ के अनुसार) अधिकतर जैन क लिए प्रो० एच० एच० विलसन जोरदार शब्दो में चर्मी को कहते है। कहाँ तक लिखें फ्लीट", विलसन", (रायल एशियाटिक सोसायटी के जरनल भाग १२ पृ. थोमस, मेकफैल", मोनाहन" आदि अनेक प्रचण्ड ऐति- २३६ मे) कहते है कि यह शब्द कदाचित बौद्ध धर्म का हामिक विद्वानो का अभिमत है कि अशोक बौद्ध धर्मी नहीं था।
नही है। प्रो० हल्टश ने इसकाशन कारपोरम ईडिवे स्म शिलालेखों के प्राधार पर
पुस्तक प्रथम मे धारणा प्रकट की, 'अशोक के स्तम्भ लेख कुछ विद्वान शिलालेखों के आधार पर अशोक को
न० ३ मे जी मलिन विकृति के स्वरूप और मनोविकार वौद्ध धर्मी मान बैठते है परन्तु ये शिलालेख तथा स्तम्भ
तथा प्रासिव की जो टिप्पणी दी है उसका और बौद्ध धर्म लेख अशोक ने जिस क्रम से लिखवाये है और जिस प्रकार
में वणित 'पासिव' एवं 'कलेश' का कोई मेल नही बैठता।' इनका प्रारभ किया गया, इन्डियन ऐन्टीक्वरी, १९१४ के
कुछ विद्वानो का कहना है कि जब अशोक जैन था तो तीनों भागों के अनुसार उनका लिम्ववाने वाला बौद्धधर्मी
उसने अपने अभिलेखो मे देवाना-प्रिय का उल्लेख क्यो नहीं, बल्कि जैन धर्मी ही होना चाहिए । प्रसिद्ध इतिहास
किया? यह शब्द तो बौद्ध साहित्य की देन है। ऐसे विद्वानों कार ज्ञान सुन्दर ने भी अपने 'प्राचीन जैन इतिहास संग्रह'
ने जैन साहित्य का भली प्रकार अध्ययन नहीं किया। भाग २ (फलौदी) पृ० २४ में बताया कि अशोक के
जैन साहित्य मे देवानां-प्रिय का प्रयोग साधारण जनता से शिलालेखों की लिपि तथा शब्दों से यह स्पष्ट है कि इन
लेकर राजाओं-महाराजानो तक ने किया है। भ० महावीर शिलालेखों को लिखवाने वाला बौद्ध धर्मी नहीं, बल्कि कट्टर
के पिता महाराजा सिद्धार्थ ने कल्पसूत्र पृ० १३५-१३६ के जैन धर्मी होना चाहिए । २२वें तीर्थड्रर श्री नेमिनाथ की
__अनुसार अपनी रानी त्रिशला देवी को देवाना-प्रिय कहकर
43 निर्वाण-भूमि गिरिनार जी के शिलालेख न०३ में शब्द सम्बोधित किया । वीर निर्वाण सं० १२०६ मे रचित पद्म 'स्वामिवात्सल्यता' का (प्राचीन जैन इतिहास सहभाग पुराण में प्राचार्य रविषेण ने गौतम गणधर द्वारा राजा ५ पृ० ७१ के अनुसार) बौद्ध धर्म मे कदाचित प्रयोग श्रेणिक को (देवाना-प्रिय) आदर सूचक शब्द से सम्बोधित नहीं होता, बल्कि जैन धर्म मे प्रयोग होता है। किया, इस प्रकार अति प्राचीन काल से विक्रमी पाठवी इन्डियन एन्टिक्वरी भाग ३७ पृ. २४ में भी शताब्दी सक जैन साहित्य में इस शब्द का प्रयोग मिलता गिरिनार पर्वत के अशोक स्तम्भ लेख न. ३ का कर्ता है। इसको केवल बौद्ध धर्म की देन कहना भ्रम है। अशोक जन धर्मी है, यह अनुमान मिलता है। शिलालेख का अपने लेखों में इस शब्द का प्रयोग जैन साहित्य के न०६ में 'मंगल' शब्द का उपयोग (प्राचीन जैन अनुकूल है, प्रतिकूल नही है ।
8. Even Buddhist literature -Samanta Pasa-
dika (1044-4 ) said clearly that Ashoka fllowed the doctrine of the heretics.
-Buddhist Studies pp. 49-492. 9. The hcretics (Tithyas) are mostly jains.
- Journal Bombay Branch of Royal Asia-
tic Society vol. IV, January 1855, p401 It is not a new idea that the religion of Astoka was not Buddhistic
10. Fleet - Journal, Royal Asiatic Society
Pp. 491-492. 11. Wilson-Journal, Royal Asiatic Society
1908 p. 238. 12. Thomas-Journal, Royal Asiatic Society
IX p. 181 13. Macphail - Ashoka, p. 48 14. Monohan-Early History of Bengal P 21 15. Others-Journal of Mythic Society XVII
pp. 271-273 & Hindi Vishwa Kosh vol. VII 4
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महाराज प्रशोक मोर जैनधर्म
प्राचीन जैन इतिहास संग्रह भाग ५ पृ० ४० के अनु- तथा भावों को तर्क रूपी कसौटी पर घिसकर जांच सार अशोक के स्तम्भ लेखो मे पशु-वध और जल-प्राणियों करने से उसका लिखवाने वाला जैनधर्मी स्पष्ट सिद्ध हो का शिकार मादि अनेक प्रकार की हिसा पर अष्टमी, चतु- जाता है। (विस्तार के लिये, प्राचीन जैन इतिहास संग्रह दशी, पर्युपण (दशलक्षण पर्व) तीनो ऋतुमो के (कार्तिक, भाग ५ पृ० ३४ से ४० तथा भारतीय इतिहास : एक फाल्गन, पाषाढ़के अन्तिम पाठ-पाठ दिन) पठाई-पर्व मादि दृष्टि) मि० एस० बैल भी एशिपाटिक सोसायटी के जिन ५६ दिनो मे पाबन्दी लगाई है, ये सब दिन जैन धर्म जरनल भाग ६ पृष्ट १६६ पर लिखते है कि अशोक के
पवित्र पर्व है। इनकी जैसी मान्यता जैनधर्म में है, बौद्ध स्तम्भ लेखों से उसका प्रम न केवल पशु पक्षियों से बल्कि धर्म मे नही। अनेक विद्वानो का विश्वास है कि जैन पर्व जलकाय, वायुकाय मादि सूक्ष्म जीव जन्त से भी प्रका के दिनो मे जीवहिंसा का रोकना अवश्य यह प्रकट करता होता है।" अशोक के स्तम्भ लेख यह प्रकट नही है कि इनको लिखवाने वाला महाराज अशोक जैन धर्मी करते कि वह बौद्ध धमौं था।" निःसन्देह प्रशोक था।
सिद्धान्तों से अत्यन्त प्रभावित था।" अशोक के प्राज्ञापत्र) ___ अशोक के स्तम्भ लेखो के ऊपरी सिरे पर बने हुए प्रो० विलसन के शब्दो में, बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म सिंह-चिह्न का महात्मा बुद्ध के सिद्धान्तो से कोई सम्बन्ध से अधिक मिलते है" और उसके शिलालेख उसको जैन नहीं। सिह भ० महावीर का सुप्रसिद्ध चिह्न हे जिनकी धर्मी सिद्ध करते है।" मेजर जनरल फरलाग के शन्नो स्मति मे अशोक ने सिहयक्त स्तम्भ स्थापित कराये। में अशोक के स्तम्भ लेख एक सच्चे जैनधर्मी सम्राट के इतिहास रत्न डा. ज्योति प्रसाद का कहना है कि अशोक खुदवाये हुए है" । रायल एशियाटिक सोसाइटी के जरनल के शिलालेखो में कोई ऐसी बात प्रकट नहीं होती जिससे भाग ६ पृ० १६१-१६८ के अनुसार अशोक ने स्तम्भ उसका बौद्धधर्मी होना सिद्ध होता हा। अनेक विद्वानो स्थापित करने के विचार जैन धर्म स ही लिया। प्रशोक का कथन है कि अशोक के स्तम्भ लेखो की लिपि, शब्दों ने अपने लेखों में जैन पारिभाषिक शब्दो और भाषा का
16. Pillar Edicts show Ashoka's love towards
the poor anafficted, towards the hip ds and quaerapede, towards the fouls of the air and beings that move in water. ---Rev. S Beal. Journal of Royal Asia
Society vol. IX p. 199. 17. Inscriptions do not say that Ashoka embraced the doctrine of Gautama Budba.
-Journal of mythic Society vol. XVII.
p. 276. 18. Ashoka was specially influenced by the
Jain doctrines as regard sacredness of in. violability of life.
-Rev. H. Heras. Journal of Mythic
Society XVII p. 271. 19. His (Ashoka's) Ordinance concerning
sparing of animal life agree much more closey with the dicos of the heretical Jain than those of the Buddhists. -Prof. Wilson. (a) Journal of Royal
Asiatic Society. 1883, p. 275.
(b) Indian Antiquary vol. V p. 205. 20. Inscriptions of Asnoka prove his faith in Jainism.
-- Jain Antiquary, vol. V p. 86. 21 His (Asoka's) Inscriptions are really those
of a Jaina Sovereign. -Major General Furlong, Short Studies
in Science of Comparative Religions. 22. Asoka graped the idea of building pillars
from Jainism. The animals and symbols, which he used, are also found in Jainism. -Journal of Royal Asiatic Society, Vol IX, PP. 161 to168.
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३६, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
प्रयोग किया है। पीर उनपर वृषभ, सिह, अश्व बना दिया कि न केवल नर नारियो, पशु-पक्षियो बल्कि
वाना जैन धर्म के प्रभाव का फल है। जलकाय, अग्निकाय और वायकाय के जीव-जन्तुषों की इस प्रकार सन्मति सन्देश मार्च १६६१ के अनुसार अशोक हत्या बन्द करने के आदेश अपने स्तम्भ लेखों में अंकित के शिलालेखो पर वास्तव में जैन धर्म की गहरी छाप है। कगये । ऐसी सूक्ष्म दया जैन धर्म के अतिरिक्त किसी अहिंसा प्रावि सिद्धान्तों के प्राधार पर :
अन्य धर्म या सम्प्रदाय में नहीं पायी जाती। कुछ विद्वान अशोक को दयालु होने के कारण बौद्ध- बौद्ध धर्म में मास-भक्षण का निषेध नही। स्वयं धर्मी बताते है परन्तु श्री राजमल मडवैया, (पुरातत्वा- महात्मा बुद्ध का शरीरान्त मांस-भक्षण के कारण हुमा न्वेषक, भूतमार्गदर्शक शासकीय जिला पुरातत्व संग्रहालय, था।" इसके विपरीत जैन धर्म मे मास-भक्षी को नरकगामी विदिशा म० प्र०) ने अपने विदिशा-वैभव के पृ० ६३४ की संज्ञा दी है। स्वयं बुद्ध के समय केवल जैनधर्मी ही पर कथन किया है कि अशोक बड़ा निर्दयी था। उसने मास के त्यागी थे। जैन अन्टीक्वरी भाग ५ के अनुसार वंश के वंश नष्ट कर दिय । लिग-विजय के नरसहार उस समय ब्राह्मण व बौद्ध प्रादि स्पष्ट रूप से मांस-भक्षण को सुनकर हृदय कॉप उठना है। अशोक ने राज्य-लिप्सा करते थे। अशोक ने जैन धर्म के प्रभाव से न केवल स्वय के पीछे अपने दसो बडे भाइयो का घात कर दिया। मास का त्याग किया बल्कि अपने परिवार तक को इस लाखों मनुष्यों को मौत के घाट उतार कर दिग्विजा की। महान पाप से रोकने के लिए राज्य भोजन शाला में भी हजारों बच्चों को अनाथ और हजारो स्त्रियो को विधवा मास भक्षण पर रोक लगा दी। बनाया । यह विदिशा के जैनधर्मी नगर सेट थेष्टि की अशोक ने मास-भक्षण, पशु-बध, पशुबलि तथा पशुप्रभावशाली जैन महिमा की प्रेरणा का ही फल है कि यज्ञ आदि धर्म के नाम पर होने वाली हर प्रकार की अशोक ने हिंसा न करने का प्रण किया और इस प्रकार हिसा पर राज्य-प्राज्ञा द्वारा प्रतिबन्ध लगाकर हर प्राणी जैन धर्म को ही यह श्रेय प्राप्त है कि उसने अशोक का को जियो और जीने दो (Live & Let Live) की हृदय पलट दिया और उसका जीवन इतना अहिमामयी गारन्टी दी।
22-A. Asoka used technical terms and lan- have died from the effect of eating bad
guage of Jains in composing of his cdicts. pork, with which he had been treated by a (1)-E. Senari Les Inscriptions Pıyasidsı, sweeper host",
PP.505-513. (11)-- Jai Antiquary, Vol. PP. 9-15.
--Traditional History of India p. 198. 22-B. The monuments of Asoka and their 25. In the Budhist period, it was only Jainism, symbols betray the influence of Jainism
who condenined meat dishes. Brahmans on Asoka and he closely followed and copied Jain ideas in his buildings.
and Buddhists and others freely partake -Jain Antiquary, Vol. VI, P.9.
them, hence the statement of Asoka that 23 Asoka gave practical example of his piety in the end, he abolished hinsa for his royal
towards living beings. Rogulations were kitchen altogether, betrays the influence of instituted for the protection of animals Jainism on him. Asoka's reign was and birds and forests were not to be burni.
TRUELY A JAIN RAJYA.J. Antiquary No animal food was served at the Imperial table :
vol. V PP. 53 to 60& 81to89. ---Dr. Zimmir : Philosophics of India, pp. 26. Asoka abolished killing of animals on all 497-498.
account. No body was allowed to kill any 24. Buddha does not appear to have been a living being even for sake of religious
vegetarian, if he were one. he would not belief or 10 santiate to sensual cravings.
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महाराज अशोक और जैनधर्म
३७
डा० कर्न के शब्दों में अशोक ने जिस अहिंसा को ३. असधिमित्रा-प्रशोक की रानी जैनधर्मी थी। अपनाया और जिम पहिसा का प्रचार किया, वह बौद्ध उसके पिता श्रेष्ठ विदिशा (म.प्र.) के नगर सेठ पौर सिद्धान्तो के नही बतिक जैन धर्म के अनुसार है । डा० सुदृढ़ जैनधर्मी थे । इतिहास-रत्न डा. ज्योतिप्रसाद बल्हर का भी कहना है कि जैनियों के समान हस्पताल (भारतीय इतिहास एक दृष्टि पृ० ६४) के शब्दो मे, इस खोल कर और हर प्रकार की जीव हत्या रोकने की जैन रानी से राजकुमार कुणाल पैदा हुआ । 'विदिशाघोषणा प्रादि करने से प्रशोक सुदृढ जैनधर्मी सिद्ध वैभव' में अशोक और उसकी रानी असघिमित्रा का वर होता है"।
और वधू के भेष मे इकट्टा एक चित्र भी दे रखा है। इस प्रकार शोक का राज्य वास्तव मे जैन राज्य था ४. पपक-अशोक के सगे भ्राता थे जो जैन मनि और वह अपने अन्तिम स्तम्भ लेख लिखवाने तक अवश्य हो गये थे । बौद्ध लेखक तारानाथ ने इन्डियन हिस्टोरिकल दिल से जैनधर्मी था।
क्वाटरली भाग ६ पृ० ३३५ के अनुसार पद्मक को निर्ग्रन्थ प्रशोक का कुल धर्म :
(जैन मुनि पिगल) का उपासक स्वीकार किया है। १. चन्द्रगुप्त (३१७-३६८ ई.) मौर्य वंश के ५. विशोक-प्रशोक का एक और भाई था। यह भी संस्थापक और अशोक के पितामह थे, जो स्मिथ के शब्दो जैनधर्मी था। यह जैन तीर्थों की यात्रा करने और उनकी मे जैन गुरु अन्तिम श्रुत केवली भद्रबाहु के शिष्य थे और उन्नति तथा जीर्णोद्धार के लिए दान देने मे इतना प्रसिद्ध जिसने जैन मुनि होकर जैनधर्म का प्रचार किया। अनेक था कि वीर (मेरठ, वर्ष पृ० २५७) के अनुसार सप्रसिद्ध और प्रामाणिक ऐतिहामिक ग्रन्थ इस सत्य की दिव्यावदान' नामक ग्रन्थ में उसे तीर्थ-भक्त लिखा है। पुष्टि करते है।
६. कुणाल-अशोक का पुत्र और उसके राज्य का २. बिनुसार (२९८-२७४)- अशोक के पिता थे अधिकारा जैनधर्मी था। जिनके जैनधर्मी होने में विद्वानो को न पहले कोई गका ७ सम्प्रति- प्रशोक का पौत्र और कृणाल का पुत्र थी और न अब है। इन्होने अनेक जैन मन्दिर बनवाये था। पिछले जन्म मे यह अत्यन्त निधन और रोगी था। तथा मिस्र, सीरिया, यूनान आदि विदेशों के गजदून एक जैन मुनि के उपदेश से वह जैन मनि हो गया था इनकी राजसभा में अनेक प्रकार की भेट लेकर पाते जिसके पुण्य फल से वह इस जन्म में इतना प्रसिद्ध और थे, जैनधर्म का प्रचार किया।
प्रतापी सम्राट हुया कि समूचे भारत का अधिकारी बना।
27. Asoka professed and preached Ahinsa for
the good of men and beasts alike. His Royal Instructions are a kin to the idea of Ahinsa in Jainism, nothing of Buddhist Spirit His Ordinances concerning the sparing of animal life agree much more closely with the ideas of the heretical Jain as than those of the Buddhists. -Dr. Kern, Manual of Indian Buddh
ists. 28. Dr. Bulber also remarked that like Jain,
Asoka opened Hospitals even for animal life" and proclaimed "Amari-Ghosh" (Not to Kill). In fact Asoka was an ideal Jaina King and an ardent follower of the faith like a IRUE JAINA -Indian antiquary. Vol 1111874) pp. 71-80.
29 Chandra Gupta was Jain and disciple of
Jain Acharya Bhadr a Bahu. He became
Jain monk under his influence : (a) Smith's Early History of India (Revised
Edn.) P. 154. (b) Epigraphia Indica, Vol. II Introd. PP.
36-40. (c) Journal of Royal Asiatic Sociely, Vol. I,
P.176. (d) Cambridge History of India, Vol. 1, P.
484. (e) Journal of Mythetic Society, Vol. XVII,
P 272. (1) Indian antiquary, Vol XVII, P.272. (8) Journal of Bihar & Orissa Research
Society Vol. XIII P. 24.
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३८, वर्ष २८, कि० १
भनेकान्त
भारतीय इतिहास : एक दृष्टि के पृ० १०० के अनुसार इस प्रकार प्रशोक का उससे पहले और उसखे बाद समस्त वह जैन प्राचार्य सम्प्रति का शिष्य था। इसने अपने परिवार तथा उसका मौर्य वश और कूल जैनधर्मी था तो राज्य में हजारों जैन मन्दिर और हीरे-पन्ने, रत्नो प्रादि ऐसी शक्ति के अभाव में जो उसके हृदय को बदल दे, बदमल्य जवाहरातों की हजारो मूर्तिया (२४ तीर्थङ्करो अशोक जैन धर्म से कैसे पछता रह सकता था ? की) बनवा कर स्थापित की। न केवल भारत में बल्कि प्रशोक द्वारा विदेशों में धर्म-प्रचार: विदेशों तक में जैनधर्म फैलाने के लिए चन्द्रगुप्त के समान
चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन काल में अशोक तक्षशिला प्रचारक भेजे । डा० विन्सेन्ट स्मिथ के अनुसार (अली (पाकिस्तान) का गवर्नर था, उसने वहाँ बुद्ध-धर्म का हिस्टरी आफ इण्डिया पृ०२०२-२०४) सम्प्रति ने अरब, नही, बल्कि जैनधर्म का प्रचार किया। उस समय सिकन्दर ईरान. अफगानिस्तान प्रादि अनेक देशो में जैन संस्कृति महान भारत में प्राया तो उसे तक्षशिला में बौद्ध भिक्षु स्थापित की।
नहीं बल्कि जैन नग्न साधु अधिक संख्या में मिले । रायल ८. शालिशक (१६०-१७० ई० पू०)- अशोक का एशियाटिक सोसायटी, बोम्बे ब्रान्च के जरनल भाग ४ पृ० प्रपौत्र और सम्प्रति का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी ४०१ के अनुसार सिकन्दर उन जैन मनियो के ज्ञान, तप था। यह भी सुदढ़ जैन श्रावक था। स्मिथ की अर्ली
तथा आचरण से प्रभावित होकर स्वयं उनके पास तत्त्वहिस्टरी आफ इन्डिया पृ० १६६ के अनुसार इसने भी
चर्चा के लिए गया और यूनान ले जाने का निमन्त्रण अपने पिता सम्प्रति के समान दूर-दूर तक विदेशों में जन- दिया। अशोक के स्तम्भ लेखो से सिद्ध है कि उसने धर्म का प्रचार किया।
सीरिया, मिश्र, यूनान, अरब, लंका, अफगानिस्तान आदि अशोक के दूसरे सम्बन्धी दशरथ और उसके देव- अनेक देशो मे अपने धर्म का प्रचार करने के लिए प्रचारक वर्मन, फिर सतधनुष और फिर बृहद्रथ मौर्य वश के राजा भेजे"। यदि अशोक बोद्ध धर्मी होता तो वह वहाँ वौद्धहा जो जनधर्मी थे और उन्होंने जैनधर्मका ही प्रचार किया। धर्म का प्रचार कराता और वहाँ कुछ न कुछ बौद्ध धर्म के भारतीय इतिहास : एक दृष्टि पृ० १००-१०२ के अनु- चिह्न निश्चित रूप से अवश्य मिलने चाहिए थे परन्तु मार उन्होने जैन धर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये। बौद्ध-धर्म के स्थान पर वहाँ, एशियाटिक रीसर्चेस भाग ३
30. Samprati was a great Jain Monarch and a
staunch supporter of the faith. He errected thousands Jaina temples throughout his Empire and constructed a large number of images. He sent Jain Missionaries and asects abroad to preach Jainism in the distant countries and spread the faith there. - Jain Siddhant Bhaskar, Vol. XVI PP.
114-117. 31. A nacked Sraman-Acharya (Jain Preacher)
went to Greece as his Samadhi spot was found marked at Athens. Indian Historical Quarterly vol. lI p. 293. The Gymnophists, whom Alexahder the great encountered near Taxilla were no doubt Jain sarmans. JBBRAS vol. IV p. 401. Likewise Ceylon was a great resort of Jains till the begining of chronicles. It
is evedent even from Buddhist Chronicles that Nirgranthas (Jain naked Saints) predominated at Anuradha-pur in Ceylon, and were influcntial enough to attract the attention of the ruling monarch; who built a vihar (Jain temple) and a monastry for them in 3rd century B.C.-The Indian Seat of the Jainas p. 15. These continued to flourish till 80 B.C. It means that Jainism remained in Ceylon long after Asoka. J.A. Vol. VII p. 22. The traces of existence of Jainism in the countries of
Arabia, Persia, and Afghanisthan, (Cunnig ham's Ancient Geography of India (New Edn) p. 674) are also available, which proves that Asoka formed his religion on the basis of Jainism and preached in as well. -Jain Antiquary vol VII PP. 23 to 25.
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महाराज प्रशोक और जनधर्म
१०६ के अनुसार, जैनधर्म के चिह्न प्राप्त हए", जिनसे (Modern Review मार्च १६४६ पृ० २२) के अनुसार सिद्ध है कि विदेशो में अशोक ने बौद्ध धर्म का नहीं, बल्कि मित्र से भारतीय शैली की मूर्तियां प्राप्त हुई। मिस्र। जैनधर्म का ही प्रचार कराया। बौद्ध-धर्म के विशेषज्ञ निवासी जैन धर्म के समान ईश्वर को जग का कर्ता नही एम० विल भी जनरल रायल एशियाटिक सोसायटी भाग मानते। मास मछली तो क्या, मूली प्रादि कन्द भी नहीं १६ के पृ० ४२० पर इस कथन की पुष्टि करते है। खाते । महावीर स्मृति ग्रंथ (अमरा) १६४८ भा० १ प्रसिद्ध विद्वान बैन के अनुसार यूनान से कोई बौद्ध चिह्न पृ० ११४ के अनुसार अशोक ने विदेशों में जैन धर्म का प्राप्त नहीं हुआ। मंथिक सोसायटी के जरनल भाग १७ प्रचार किया। पृ०२७२ पर अशोक के विदेशों में जैनधर्म के प्रचार का प्रशोक द्वारा जैन धर्म की प्रभावना: कथन है। 'राज तरगिणी' मे वर्णन है कि अशोक ने अशोक ने जैन धर्म की प्रभावना के इतने अधिक कश्मीर में जैन धर्म का प्रचार कराया। प्रबुल-फजल ने महत्वपूर्ण कार्य किये जो बौद्ध-धर्मी नही कर पाता। 'पाईन ए-अकबरी' में इस सत्य की पुष्टि की" । प्रशोक १. अशोक ने प्रसिद्ध जैन तीर्थ श्रवण बेन गोल के राज्य-समय में विदेशो में बौद्ध धर्म का पाया जाना (मैसूर) की यात्रा और वन्दना की और वहां विशाल जा किसी प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रन्थ से सिद्ध नहीं होता। मन्दिर बनवाये"। जैन धर्म और बौद्ध धर्म में अन्तर न जानने और प्राज- २. राज तरंगिणी पृ० ८ के अनुमार प्रशाक न कल बर्मा, लका, चीन, जापान, तिब्बत प्रादि में बौद्ध वितस्तापूर के विहार मे एक अत्यन्त श्राकर्षक और मिलने के कारण प्राधुनिक इतिहासकारो को यह भ्रम हो दर्शनीय जैन मन्दिर बनवाया। गया कि वहा प्रशोक ने बौद्ध धर्म फैलाया और इस भ्रम ३. अशोक ने श्रवण बेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर के कारण ही वे अशोक को बोद्ध-धर्मी कहनेलगे। एक मन्दिर बनवाया और उसका नाम अपने पितामह ___ अंग्रेजी मासिक (oriental) १८६२ ई० पृ० २३. चन्द्रगुप्त के नाम पर चन्द्रगुप्त बस्ती रखा जहाँ Rice ' २४ मे कथन है कि अशोक पर जैन धर्म का अधिक प्रभाव Archicological Survey Report १८८७ के अनुसार, होने के कारण उसने मिस्र, मैसेडोनिया और कोरिया मे चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के अन्तिम १२ वर्ष व्यतीत धर्म प्रचारक भेजे । वहा बौद्ध नही, जैन स्मारक मिले है। किये थे और जहाँ की ६० जालियो पर चन्द्रगुप्त के जीवन
32. Egypt, Macedonia, Cyrene, Carynth,
Ceylon and Afganisthan, are named in Asoka's edicts, where he sent preachers to propogate his religion (Jainism). If Asoka was follower of Buddhsim, he would have preached in these countries Buddhism, surely some evidence of it should have come from there, but it is a striking fact that, "No Buddhist records are kept in the History of Egypt, Mecedonia, Coryoth and Cyrene, which countries were supposed to be converted to Buddhism, by the zeal of Asoka; on the other hand it can be said about Jainism that the influence of the religion is traceable in the above countries, in one or the other form. The Egyptian and Greek Philosophy do betray Jain influence --Confluence of Opposites. Ancient Greek found the sromanas, who should be Jain, traveling the countries of
Eur hopes and Abiyssinia.
-Asiatic Reasearches vol 1]]p. 6. 33 I doubt very much whether there is any
reference to 11 Buddhists in the Greek account. ---Rev. S. Beal, Journal of Royal Asiatic
Society, vol. XIX P. 420. 34. Asoka supported Jainism in Kashmir as
his father Bindusar and grand father Chander Gupta throughout Magadha Empire.
-- Abulfazal, Aina-i-Akbari, p. 29 35. Rajvali-Katha indicates that Asoka having
visited Sravanbelgola, a Holi Jain Tirth in Mysore) built a lofty Jain Temple there. -- Jain Shilalekha Sangrah, vol. I Intro.
P.6.
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पर्व २८, कि० १
अनेकान्त
सन्बन्धी चित्र अंकित है।
जैनियों के चौबीस तीर्थडुरों के प्रतीक हैं। धर्म युग ४. अशोक ने भ० महावीर के जन्म स्थान वैशाली २४-१-७१ के अनुसार भारत सरकार ने २२-७-१९४७ से में महावीर-चिह्न-युक्त सिंह स्तम्भ बनवाया" । प्रो. डा० इस पारे युक्त धर्मचक्र को अपने राष्ट्रीय ध्वज मे पूष्पमित्र ने अनेकान्त वर्ष २५ पृ० १७६ पर कहा कि अपनाया। वैशाली का यह स्तम्भ महात्मा बुद्ध की स्मृति मे बन- ७. प्रसिद्ध हिन्दू प्रामाणिक मासिक कल्याण १९५० वाया, संगत नहीं है क्योंकि ऐसा होता तो वह वीर-चिह्न पृ० ७३६ मे कथन है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का सिंह के स्थान पर बुद्ध के प्रतीक ही स्थापित करता। भी अशोक उपासक था। उसने अपने रामपुरषा स्तम्भ में
५. डा० पृष्पमित्र ने अनेकान्त वर्ष २५ पृ० १७० ऋषभ-चिह्न वृषभ स्थापित किया। पर यह भी बताया कि केवल ज्ञान के पश्चात तीर्थङ्कर ८. इतिहास के खोजी विद्वान मुकर्जी के 'अशोक,' भगवान चतुर्म ग्वी प्रतीत होते है। अनेक अत्यन्त प्राचीन १०८८ के अनुसार अशोक ने जैन साधुनों के प्रयोग चौमुखी तीर्थदर मूर्तियों का पुरातत्व विभाग के अधि- के लिए बहत सी गुफाएं बनवाई। अशोक तथा इसके कारियों को कंकाली टीला मथरा आदि अनेक स्थानों से प्रपौत्र दशरथ ने भी बिहार प्रान्त के बरेबर तथा नागारप्राप्त होना और लखनऊ आदि अनेक राज्य-पुरातत्व संग्रहा- जनी की पहाड़ियो मे भी अनेक गुफायें बनवायी" और लयों में प्राज भी उनका सुरक्षित होना जैन-धर्म मे चोमुखी उनकी देखभाल के लिए विशिष्ट अधिकारी नियुक्त मूर्तियों की पुष्टि करता है। अशोक ने जैन धर्म की इस किये। प्रथा से प्रभावित होकर ११वें जैन तीर्थवर श्रेयास जी सांची के तोरण-द्वार पर प्रशोक ने बाईमवें की जन्म भूमि सिंहपुरी में (वाराणसी के निकट) अपने ,
तीर्थदर नेमिनाथ के समोशरण की रचना कराई। कुछ स्तम्भ में चौमखी सिंह स्थापित किये और अहिंसामयी
विद्वान इसको बौद्ध विहार समझते है किन्तु सुप्रसिद्ध
मान दमको बौट विहार समझते है भारत सरकार भी महावीर के इस चौमुखी सिंहचिह्न को विद्वान त्रिभवन दास लहेर चन्द शाह ने प्राचीन भारत राष्ट्रीय चिह्न बना कर सिक्कों और नोटो पर इसका (गजराती) में इस सांची स्तुप पर तर्क पूर्वक प्रकाश प्रयोग करती है।
डालते हुए स्वीकार किया कि ये बौद्ध विहार नही है और ६. तीर्थर जब विहार करते है तो धर्म चक्र मागे- न इसका बौद्ध धर्म से कोई सम्बन्ध है। यह सम्पूर्ण रूप प्रागे चलता है और यह धर्म चक्र समस्त तीर्थङ्करो का से जैन धर्म का स्मारक है। विशेष चिह्न है। अशोक तीर्थरों का परम भक्त था। १०. अशोक बौद्ध सम्वत का नही बल्कि वीर सम्बत तीर्थङ्कर हर युग में चौबीस होते है । अशोक ने अपने धर्म का प्रयोग करता था। अशोक के पाठवें स्तम्भ-मभिलेख चक्र में चौबीम पारे बनवाये । अहिंसा वाणी वर्ष १५ में सम्बत २५६ अंकित है। कुछ विद्वान इसे बुद्ध निर्वाण पृ० ३२१ के अनुसार, भूतपूर्व प्रधान मन्त्री, भारत पंडित सम्वत समझते है किन्तु ऐसा मामने से अशोक का समय जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में भी धर्म चक्र के चौबीस पारे ५४४ से २५६ घटा कर २८८ ई० पू० होता है जबकि
36 Asoka Pillar is surmounted by a lion,
which is the signifying emblem of the last Thirthankara, Lord Vardhamana Mahavira.
-Journal of Bihar & Orissa Research
Society, vol. III PP. 465-467. 37. Asoka also got excaved many a caves for the use of Sramans (Jain monks).
-Mookerjee's Asoka P. 88.
38. A group of caves in Bartara and Nagar
juni hills (Bihar) dedicated by Asoka and Dasarath for the use of Ajivika Sect. (Jain Ssints) -Kuraishi, List of Ancient Monuments Protected under Act VII of 1904 in the Bihar and Orissa Provinces (1938) p.
33.
39. The edicts of Asoka show that he appoin
ted special officers for looking into the affairs of Jainism. Prof. Keran's Asoka.
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महाराज प्रशोक और जनधर्म
अशोक का राज्याभिषेक २७२ ई० पू० में हुना था, इम धर्मी होला नीवर जैन धर्म की प्रभावना के इतने अधिक प्रकार प्रशोक और बौद्ध सम्बत की गगति ठीक नही कार्य न करता । बैटती । वीर निर्वाण ५२७ ६० पू० मा था, इसमे से अशोक को बौद्ध धर्मी समझने के कारण : २५६ कम करे ना २७१ ई० पू० गोय का राज्याभिषेक जैन इतिहास से भली प्रकार परिचित न होने के समय बिलकुल ठीक बैठता है। इमसे यह भी स्पष्ट हो कारण जिस प्रकार अशोक के पितामह चन्द्रगुप्त को कुछ जाता है कि इतने अत्यन्त प्राचीन समय में भी जनता तथा विद्वान ब्राह्मण और कुछ बौद्ध धर्मी समझ रहे थे, जिस नरेण वीर सम्वत का उपयोग करते थे।
प्रकार महाराजा श्रेणिक बिम्बसार को कुछ विद्वान भ्रम ११. राजतरगिणी पृ०६८ के आधार पर प्रो० थाम्स से बौद्ध धमी समझते थे और जिस प्रकार जैन धर्म को का कहना है कि अशोक ने कश्मीर में जैन धर्म का प्रचार बौद्ध-धर्म से बाद का प्रचलित तथा भ. महावीर को किया। अबुल ने प्राइन ए-अकबरी मे इस सत्य की जैन धर्म का संस्थापक मान बैठे थे; उसी प्रकार की भूल पृष्टि की।
से वे अशोक को बौद्ध-धमी समझ रहे है । १४. प्रसिद्ध इतिहासकार थी ज्ञान सुन्दर ने प्राचीन दक्कन कालिज रिसर्च इन्स्टीट्यूट के बुने टिन के जैन इतिहास संग्रह भा० ५ पृ० ४० पर बताया कि अनुसार बडौदा के पुरातत्व विभाग को विजयपुर की अष्टमी, चौदस, दशलक्षण पर्व आदि ५६ जैन पवित्र खदाई से चार प्राचीन घातु-मूर्तियां प्राप्त हुई तो वे पर्वो मे जीव हिंसा का सम्पूर्ण रूप से राजाज्ञा द्वारा रोकना बौद्ध धर्म की बताई गई। डा० संकलियाँ ने उन मुनिया भी अशोक की धार्मिक नीति जैन प्रकट करती है। का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके प्रकट किया कि ये बौद्ध धर्म
१३. अपने प्राध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिये की नहीं, अपितु जैन तीर्थङ्करों की है, तब से विद्वान उनको अशोक जैन सिद्धान्तो से अत्यन्त प्रभावित था"। मबद्ध के स्थान पर जैन तीर्थङ्करों की मूर्तियां मानने
१४. बाईमवें तीर्थ धर नेमिनाथ की निर्वाण-भमि लगे। गिरनार पर्वत की तलहटी में अशोक ने निर्वाण स्थान को जैन संस्कृति के विस्मृत प्रतीक पृ० ७८ के अनवन्दना करने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए सुदर्शन सार ३ अगस्त सन १९७२ को ५० बाबुलाल जमादार नाम की भील खुदवायी।
पश्चिमी बंगाल के जिला पुरलिया से १३ मील पर स्पिन १५. हिन्दू पत्रिका कल्याण १६५६ पृ० ७३६ मे पोलिया ग्राम गये तो उन्होंने वहाँ के एक मदिर में कथन है कि अशोक ने अपने राज्यकाल में तीसरे तीर्थदर जिसको वहां के लोग शिव मन्दिर कहते थे, दो बिहान सम्भवनाथ की स्मृति मे उनके चिह्न 'अश्व' युक्त सिक्के मूर्तियाँ देखी। एक पर बैल का चिह्न युक्त ऋपभदेव की प्रचलित किये जिनके चित्र प्राचीन जैन हतिहास संग्रह मे २४ तीर्थडुरो महित और दूसरी ग्यारहवें तीर्थ र श्रा छपे है।
श्रेयांसनाथ की उनके चिह्न 'गंडा'युक्त २४ तीर्यकर्ग महित । इन समस्त प्रमाणो से स्पष्ट है कि यदि अशोक बौद्ध इन दोनो मूर्तियों को वहां के लोग म० बुद्ध की मूर्ति
40. Thomas finds about preaching of Jainism
in Kashmir by Asoka. (1)-Journal of Royal Asiatic Society
vol. IX P. 155. (ii)-Bibloteea Indica, Aina-i-Akbari,
Vol. II. 2nd Epn. translated by Col. HS. Jarret. 41. There was nothing to show that he
(Asoka) was not a Jain and his desire for eternal happiness may have been ipfiun
ced by his Jain back ground.
-Traditional History of India p 198. 20 Archaeolopical Department of Baroda
State found four metal images from Mahudi in Vijapur and declared them as to those of Buddha, but Prof Dr. Sankalia proves them to the Jain ones. -Bulletin of Decan College Research Institute, vol. I March 1940, pp. 185 to188.
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४२, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
मानते थे। जमादार जी ने तीर्थङ्करों की महिमा और P. 222. डा०-स्मिथ का विश्वास है कि अनेक बार जैन उनके चिह्नों को दिखा कर समझाया कि ये जैन तीर्थङ्करों मूर्तियों को विद्वान भल से बौद्ध मान दैठे है"a | की मूर्तियां है, तब से उन लोगों ने उनको तीर्थरों की फ्लीट साहब इस सत्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि मूर्तियां स्वीकार की।
अनेक विद्वानों की यह धारणा-कि समस्त स्तूप और 'The Temples and Sculptures of South
मूर्तियाँ बौद्धों की है, जैन मूर्तियो की पहचान में बाधक
रही"bI East Asia' के चित्र नं० ३३, ३४, ३५ तथा ३७, में सप्त
Qev. Fr. Heras ने तो से स्पष्ट रूप से स्वीकार सर्पफन युक्त पूर्ण नग्न ध्यानमयो, नासादष्टि मूर्तियो के
किया है कि बौद्धों ने विद्वानो को भूल में रखा । चार अलग-अलग चित्र है जिनको पुस्तक के लेखक ने
आधुनिक विद्वान अशोक के अपने शिलालेखों के अतिरिक्त थाईलैंड के नेशनल म्यूजियम, बैंकाक मे सुरक्षित बताकर
और साक्षी को मानने के लिए तैयार नही और ये शिलालिखा है कि वे महात्मा बुद्ध की है । म० बुद्ध का सर्पफन
लेख किसी प्रकार भी अशोक को बौद्ध-धर्मी प्रकट नही युक्त कोई दृष्टान्त नहीं मिलता, हमने पंजाब युनिवर्सिटी
करते"। जैन समाज यदि इस प्रकार की ऐतिहासिक लायरी, चंडीगढ़ में इस पुस्तक और इन चित्रों का भली
भूलों के सुधार का यत्न करती तो अशोक को आज बौद्धभांति अध्ययन किया। वे स्पष्ट रूप से तेईसवें तीर्थङ्कर
धर्मी न कहा जाता। भ. पार्श्वनाथ की है। लेखक जैन धर्म से अनभिज्ञ है।
उपसंहार इन चित्रों में से एक खड्गासनस्थ नग्न होने के कारण लेखक
अशोक का प्रारम्भिक जीवन में जैन-धर्मी होना तो स्वयं १० २३६ पर लिखता है कि यह म० बुद्ध की प्रतीत बौद्ध विद्वान राईस (Mysore and Coorg पृ. नहीं होती. किसी अन्य धर्म के महात्मा की है। यदि वह १२.१५) और थामस (रायल एशियाटिक सोसायटी जैन धर्म से परिचित होता तो ऐसा कदाचित न लिखता। बोम्बे ब्रांच के जरनल भाग-४, जनवरी १८५५, पृ० प्रज्ञानता के कारण जिस प्रकार जैन मूर्तियो मे बुद्ध मूर्ति
प्रकार जन मानया म बुद्ध मूति १५०) स्वीकार करते है। प्रसिद्ध मासिक पत्रिका का म्रम हो जाता है, उसी प्रकार अशोक को जैन धर्मी
'कल्याण' १९५० पृ० ८६४ तथा ५७६ पर अशोक को जैन के स्थान पर बौद्ध धर्मी समझने का भ्रम हो गया।
धर्मी बताया गया है किन्तु अशोक का अपना अतिम स्तम्भ ___Conning him जैसे पुरातत्व अधिकारी ने खज- लेख सिद्ध करता है कि वह निश्चित रूप से उसके लिखराहो से प्राप्त जैन मूर्तियो को बौद्ध बताया । डा. वाने तक जैन धर्मी था"। (Fergusson) ने अनेक प्रभावशाली उद्धरणों से सिद्ध उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्य मन्त्री तथा राजस्थान के किया कि ये जैन मूर्तियां है तब उन्होने भी जैन मूर्तियाँ राज्यपाल डा० सम्पूर्णानन्द ने अपनी रचना 'सम्राट स्वीकार की-Immortal Khajuraho (Asia Press) अशोक' पृ. ३५-३६ पर बताया है कि राग-द्वेष एव वाम 42-A. In some cases, monuments, which are by Buddhist's Chronicles long ag. Moreally Jainas, have been erroneously dis- dern Criticisms can not accept other docu
ments referring to Asoka than HIS OWN carded as Buddhists.
INSCRIPTIONS and these do pot say -Dr. VA. Smith. Jain Shasan, p. 294.
that Asoka embraced the doctrincs of 42-B. The Prejudice that all stups and Stone Gautma Bhuddha."
railings must necessarily be Buddhists, has - Journal of Mytbic Society, vol. XIII probably prevented the recognizaticn of
p. 276. Jain Structures.
44. Asoka was Certainly a Jain layman. Even -~-Dr, Fleet : Imperial Gazette Vol II. his last of all pillars edict proves that Page 111.
his belief in Jainism remained till then. 43. Rev. Hears says, "We have been misleaded -Jain Antiquary, Vol. VII P. 25.
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महाराज प्रशोक मोर जैनधर्म
मादि महा पापों पर विजय करने वालों की चारों श्रेणियों कोई बात ऐसी नहीं मिली जिससे अशोक बुद्ध घी माना में सर्वश्रेष्ठ श्रमण परहन्त होते है। प्रशोक की दृष्टि मे जा सके। ऐसे प्ररहन्तों को सर्वोपरि स्थान प्राप्त है । 'सन्मति-संदेश' भनेक विद्वानों का विश्वास है कि वास्तव मे प्रशोक जनवरी १९६१ १०१५ पर वर्णन है कि जैन ग्रथो में जैन शिक्षा से प्रभावित था"। इन्डियन एन्टीक्वरी भाग अशोक के जैन धर्मी होने के अनेक प्रमाण मिलते है। पृ०२१ के अनुसार प्रशोक की धार्मिक नीति की नींव डा० कामता प्रसाद का कहना है कि कोई कारण नहीं कि प्रारम्भ से अन्त तक जैन सिद्धांतों पर स्थित थी और वह जैन ग्रन्थो को स्वीकार न किया जाए। दिल्ली जैन जैनधर्म का अनुयायी था" । ट्रेडिशनल हिस्ट्री आफ इंडिया डायरेक्टरी, (१६६१) पृ० १६ पर अशोक को जैन धर्मी पृ० १८८ के अनुसार अशोक का जैन कन्या से विवाह लिखा है। पं. प्रभुदयाल ने भी अपने जैन इतिहास और सम्पूर्ण रूप से मांस-त्याग प्रशोक को जैन धमी (१९०२) पृ० १८ पर प्रशोक को जैन धर्मी बताया। सिद्ध करता है। साऊथ इन्डियन इन्सक्रिप्शन भाग १ पृ० ८८ भी अशोक के हृदय में जैनत्व के लिए प्रेम समस्त प्रायु प्रशोक को जैन धर्मा बताता है। उत्तर प्रदेश के Direc• रहा । स्वय उमका अपना शिला लेख भी अशोक के जैन
Indology श्री जी० के० पिल्ले भी अशोक को घी होने का साक्षी है"। डा. वामता प्रसाद का कहना जैन धमी स्वीकार करते है।
है कि अशोक स्पष्ट रूप से जैन धर्म का पालन करता था डा. राधा कुमद मकजी के शब्दों में दो बौद्ध धर्मा इसीलिए डा० मुखी अशोक को जैन सम्राट और उसके चीनी, यात्री फाहियान एवं युवानचवांग, प्राचीन समय में धर्म को जैन बताते है"। वास्तव मे प्रशोक जैन और भारत पाये । उन्होने अपने वर्णनों में प्रशोक की चर्चा उसका राज्य जैन राज्य था।
Don जरूर की और उसके स्तम्भ लेख भी देखे, परन्तु उन्हें
गौरीशंकर बाजार, ससारनपुर।
45. Asoka was a Jain at First
-G.K. Pillai, Director, U.P. Central In
dology, Allahabad. 46. It should be noted that these Chinese
Pilgrims (Fe-hain and you an Chavan) Visited India and saw the inscriptions. Both inspite of being Buddhists, did not feel from them that Asoka was Buddh
ist.
49. His marriage with the daughter or a Sethi
of Beenagar and his endeavour to stop meat eating both inay indicate that he was a Jain.
-Traditional History of India p. 188. 50. At any rate the spirit of Jainism was near
and dear to the heart of Asoka through out his whole life. His last of all inscription proves his belief in Jainism.
-Jaina Antiquary, vol. VII p. 23. 51. According to Dr. Kamata Prasad Asoka
followed Jainism openly.
- Jain Antiquary, vol. Vp.59. 52. Asoka was an ideal of Jain Kings and
or dent afollower of the faith like a TRUE JAINA. --(i) Mookerji's Asoka, p. 22. -(ii) Indian Antiquary, vol. III pp. 77.
-Dr. Radha Kumood Mukerji. 47. In fact Asoka was greatly influnced by
the human teachings of the Jinas.
-(a) Indian Antiquary vol. xxp. 243. --(b) Journal of Royal Asiatic Society
IX p. 155. 48. It is obivious that Asoka certainly pro
fessed Jainism and composed his religious code mainly based on Jain dogmas from begining to end. No doubt he seems to b a in at heart when he got inscribed his last pillar edict.
-Indian Antiquery vol. VII p. 21.
___81,
53. And as such Asoka's rien was TRUELY
A JAIN RAJYA.
-Jain Antiquary vol. V.p. 86.
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श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
1] श्री चित्रेश गोस्वामी, दिल्ली
(प्रस्तुत लेख में विद्वान् लेखक ने ऐतिहासिक दृष्टि से श्रमण एव समाज के पारस्परिक सम्बन्धों का विशद विवेचन किया है । लेखक ने 'श्रमण' एव 'पुरोहित' शब्दो का संकुचित अर्थ न ले लेकर व्यापक अर्थ ग्रहण किया है तथा विश्व की अति प्राचीन सभ्यताओं-मिस्र, सुमेर, असुर, बाबुल, यूनान, रोम, चीन, मध्य एशिया, प्राचीन अमेरिका, सिन्ध-घाटी एवं वैदिक आदि--के इतिहासो मे श्रमण-तत्त्वों का अन्वेषण किया है । इस लेख में प्रस्तुत कुछ मान्यताए विवादास्पद हो सकती हैं। विस्तार-भय से इसमे उद्धरण एवं प्रमाण प्रस्तुत नही किए गए है, अतः जिन पाठकों के मन मे लेखक की मान्यताओं के सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंकाए उत्पन्न हों, वे 'अनेकान्त-कार्यालय को भेजे। हम लेखक से उनके समाधान का निवेदन करेंगे। -सम्पादक)
भमिका
प्रागैतिहासिक काल सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक, समार के प्रत्येक क्षेत्र वर्तमान इतिहास के दप्टिकोण से अगण्य ब्रह्माण्डो में दो विचार-धाराम्रो का प्राधान्य रहा है-निवृत्तिपरक में से हमारी इस धरती की ग्रायु इस समय पाच अरब नीर प्रवृत्तिपरक । इमी को यों भी कह सकते है कि वर्ष से एक अरब वर्ष के मध्य बूती गयी है। मानव का मग्कृति के दो रूप रहे, श्रमण और गृहस्थ । इन दोनो इतिहास भी एक लाख वर्ष से अधिक का है । परन्तु स्पो में टकराव भी रहा है, यह सत्य है, पर वास्तव मे विश्वसनीय इतिहास गुहावासी मानव से प्रारम्भ होता है, दोनो परस्पर पूरक है । जब भी दोनो में से एक भी अग जब से उसमे सामाजिकता का आभास होने लगा। निर्बल पड़ा, समाज का ह्रास हुआ है; इतिहास इसका एशिया और युगेप ने अनेक स्थानो पर गुहावासी
गृहस्थ क बिना श्रमण-पुसहित, नाव, प्रास्ट मानवों के स्मृति-चिह्न प्राप्त हुए है। स्पेन की अल्लामीरा, गगन कुछ भी कहो--शरीर-यापन ही नहीं कर पाएगा फास की लासोक्स प्रादि गुहायो में गृहा-मानव की चित्रऔर उमके बिना गहस्थ का मार्ग-दर्शन नहीं होगा, वह कला के जो नमुने प्राप्त हुए है, उनमें कई स्थानो पर
कागी होकर भटक जाएग।। श्रमण गृहस्थ का मार्ग- साम्प्रतिक मानव-समाज के अगुवा पुरोहित-वर्ग का भी निदेशक है, वह सदा उसे स्मरण दिलाता रहता है कि चित्रण है, जो उस समाज के कल्याण के लिए विविध केवल अपने ही प्रति नहीं, अपितु समाज के प्रति भी उस अनुष्ठान करते थे। समाज अपने मन्चय मे से अंशमाग का कर्तव्य है। दोनो ही विचार-धारामों के मध्य पवित्र- देकर उनके भरण-पोषण की व्यवस्था करता था। यही आज त्रिवेणी की गुप्त-सरस्वती है, लोक-हितपणा। लोक- की पुरोहित, संन्यासी या श्रमण-परम्परा का बीज है। हितपणा के विना श्रमण का त्याग और तप और गृहस्थ मिस्त्र, सुमेर, असुर, और बाबुल का मनय दोनो ही व्यर्थ है, इतना ही नहीं अपितु समाज प्राचीन सभ्यताओ मे, मिस्र की सभ्यता अत्यन्त के स्वस्थ विकाम के लिए घातक भी है।
प्राचीन है, जिराको परम्परा भारत की ही भाति सान
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श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
सहस्र से भी अधिक वर्षों से अक्षुण्ण चली आ रही है। का उपदेश देते थे। इसी समय वर्तमान तुर्की और उससे इसी की समकालीन सभ्यताएँ सुमेर, असुर और बाबुल दक्षिण मे लेबनान और सीरिया मे हत्ती और मित्तन्नी की हैं, जो मिटती और बनती रही है। इन सभी सभ्य- सभ्यताये विकसित हो रही थी। इन दोनो सभ्यतामो तानो मे पुरोहित-परम्परा का पूर्ण विकास हुआ है। ये की भारतीय सभ्यता से गहरी समानता थी, पूज्य देव तक पुरोहित प्राय. पूरे समाज के ही सचालक बन गए थे, दोनो के एक ही प्रतीत होते है। इसी प्रकार, दोनो ही मे साम्राज्यो के निर्माण-विनाश तक की सामर्थ्य उन्होने पुरोहितो मीर संन्यासियो की सुस्थापित परम्पराए थी। प्राप्त कर ली थी। इनमे अधिकाश पुरोहित श्रमण के इनका सीधा प्रभाव यूनान की सभ्यता और उसकी प्रर्थ में केवल लोक-हितपी तो अवश्य ही रहे होगे, किन्तु उत्तराधिकारी रोम की सभ्यता पर भी पड़ा । किन्तु सर्व-त्यागी सन्यासी की भाति जीवन-यापन करने की रोम की कर्म-काण्ड तथा इहलोक-प्रधान जीवन-शैली म परम्परा के अस दिग्ध प्रमाण इनमे नही प्राप्त होते। यह विचार धारा जमी न रह सकी । रोम मे सन्यास निःसन्देह तुर्की में अफगानिस्तान तक की मरुभूमि और का प्रवेश बाद मे यहदियो और ईसाइयो के माध्यम से निर्जन स्थलियों में उस समय भी स्थान-स्थान पर गह- हुआ सातवी छटी शताब्दी ईसवी पूर्व म ईरान के माध्यम त्यागी धमण घूमते थे। लेकिन समाज के कल्याण के से यूनान के साथ सास्कृतिक सम्बन्ध स्थापित होने के बाद लिए सर्वस्व त्याग कर निस्पृह घूमने वाले सन्यासी-वर्ग से, यूनान के दर्शन पर भारतीय दर्शन का प्रभाव स्पष्ट की अक्षुण्ण परम्पग यहूदी समाज ने ही स्थापित की। लक्षित होने लगा। साथ ही, सन्यास की परम्परा भी मूसा से ईसा तक यह परम्परा चली आई है। ये पैगम्बर वहाँ बल पकड़ती गई । प्रायः निजन-वास करते; अत्यन्त अल्प और मोटे वस्त्र, चीन और मध्य एशिया या वृक्षो की खाल पहनते; परिव्राजकों की भाति घूमते चीन का दर्शन इहलोक-प्रधान रहा । इस कारण और कठोर तप करते थे । स्वयं मूसा को परमात्मा की वहाँ के सतो मे, बौद्ध-धर्म से पूर्व, गहन्यागी मन्यासियो प्राप्ति के लिए च.नीय दिन तक सिनाई-पर्वत पर भूखे- या श्रमणो की प्रवृति का तो परिचय नही मिलता. प्यासे रह कर ना करना पड़ता था। धीरे-धीरे यह किन्तु पुरोहितो से पृथक ऐसे मनो की परम्पग अवश्य परम्परा अन्य साम्प्रतिक सभ्यताओं में भी फैली और थी, जो लोक-हितैषणा से ही कार्य करते थे, मन्यासी न परोहित नथा सर्वत्यागी संन्यासी का भेद स्पष्ट होने होते हुए भी, सादा जीवन बिताते थे। ईसवी पूर्व पहली
ईमा के जन्म से चार-सौ वर्ष से भी पहले से ऐसे शती में बौद्ध-धर्म के प्रवेश के पश्चात तो श्रमण शैली संन्यासियों के प्राथम और संघ विधिवत् स्थापित होने लगे समाज का प्रधान और पज्य अंग ही बन गई । चीन से थे। इतिहास साक्षी है कि इस जीवन-शैली पर भारतीय पश्चिम और उनर-पश्चिम के पठारो-खोतान, काशगर विचार-धारा का गहरा प्रभाव है। व्यापार के माध्यम से प्रादि क्षेत्रों के साथ भारत के सम्बन्ध और भी प्राचीन जो सास्कृतिक लेन-देन स्वाभाविक ही होता है, उसके है; बौद्ध-धर्म से पूर्व ही भारतीय सन्यासी वहाँ विचरण परिणाम-स्वरूप उत्तरी अफ्रीका के उत्तरी तट पर, लेब- करते थे । इस प्रकार, श्रमण-सघ वहां स्थापित हो चुके नान और सीरिया में भारतीय दर्शन और उसी के परि- थे। चीन मे बौद्ध-धर्म का प्रसार वास्तव में, णाम स्वरूप संन्यासी-मघ-शैली का प्रचार हुना होगा। परिव्राजको का प्रसाद है । अाज भी, बौद्धेतर अन्य यूनान और रोम
ममाज अपने पुराहितो को शमन ही कहता है। यूनान मे सभ्यता का विकास ईसा से लगभग १५०० प्राचीन अमरीका वर्ष पर्व प्रारम्भ हया है। वहा भी इस प्रकार के लोक- प्राचीन अमरीका मे ईमवी पर्व प्रथम शती सही
तो की परम्पराएँ अत्यन्त प्राचीन है, जो प्रचलित माया-सभ्यता उन्नति के शिखर पर पहुँच की थी। अब कर्मकाण्ड मे दर रहकर दसरो को भी सरल जीवन-यापन इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिल चुके है कि माया-मभ्यता
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४६ :वर्षकिरण १
अनेकांत पर भारतीय सभ्यता की पूरी छाप है। माया-सभ्यता में तो, सूफी, दरवेश, ख्वाजा, फकीर, पीर प्रादि अनेकों की अनुश्रुतियों के अनुसार उनके पूर्वज पूर्व से वहाँ गृह-त्यागी संन्यासियों के सम्प्रदाय इस्लाम का प्रधान अंग पहुंचे। माया-जन की सर्वाधिक पूज्या और इष्ट देवनाता बन गए । यह मानने में संकोच नही होना चाहिये कि माया है, जो भारतीय लक्ष्मी की भांति कमल धारण इस्लाम में संन्यास का प्रवेश ईसाई संन्यासी सम्प्रदायों, किए हैं और प्रधान देव 'हुइत्ज्लीपोख्तली' नागधारी ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एसिया के बौद्ध भोर शिव है, जो संन्यासियों के आदि गुरू है । मैक्सिको के बौद्धेतर श्रमण-सम्प्रदायों तथा काश्मीर, सिन्धु और इण्डियन एजटक वास्तव मे प्रास्तीक की सन्तान है। निकटवर्ती क्षेत्रो के हिन्दू संन्यासियों के साथ सम्पर्क का सम्भवतः जनमेजय से संधि के पश्चात् प्रास्तीक नागो, ही परिणाम है। नहपो, और मर्गो को पोलीनेशिया के मार्ग से वर्तमान भारत प्रमरीका मे ले गए थे। आज भी मैक्सिको के आदिवासी भारत में तो श्रमण और गहस्थ का सम्बन्ध और नाग की पजा करते है। भारत से दूर जा बसने पर भी, भी स्पष्ट है । भारत की ज्ञात सभ्यतामों में सर्वाधिक वे भारतीय परम्पराम्रो को नही भूले । अन्य परम्पराम्रो प्राचीन सभ्यता सिन्धु-सभ्यता मानी जाती है । उस काल के साथ. मारत में पूरी विकसित संन्यास पराम्परा भी की मुद्रामो पर उत्कीर्ण चित्रो से यह स्पष्ट है कि सब वहां पहुंची । प्राचीन इतिहासकारो और यात्रियों की कुछ त्याग कर वनों में निवास और कठोर तप करने साक्षी है कि पास्तीक अपने पुरोहितों को 'शमन' कहते वाले संन्यासियो, योगियों की परम्पराएँ तब तक समाज थे, जो स्पष्ट ही 'श्रमण का ही रूपान्तर है ।
मे सुस्थापित ही नही हो चुकी थी; अपितु समाज का ईसाइयत और इस्लाम
पूज्य अंग बन चुकी थी। एक मुद्रा पर एक योगी वृक्ष के पहले ही कहा जा चुका है कि ईसा से कई शताब्दी नीचे समाधिस्थ है और अन्य पशुओ से परिवत है। यद्यपि पूर्व संन्यास की परम्परा अरब, मिस्र, इजरायल और इस सभ्यता को पूर्व-वैदिक कहना तो भूल ही होगा, किन्तु यनान मे जड पकड़ चुकी थी। सीरिया में निर्जनवासी यह स्पष्ट है कि मुद्रानो से प्रकट होने वाला धर्म और संन्यासियो के सघ और प्राथम स्थापित थे ही। उनमें से जीवन-शैली वेदो से प्राप्त धर्म और दर्शन से भिन्न ही कुछ तो अत्यन्त कठोर तप करते थे । स्वयं ईसा के दीक्षा- प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इहलोक-परक गुरू यूहन्ना इसी सम्प्रदाय के थे । कुछ परम्परागों के होने के कारण, प्रवृति-परक वैदिक उपासना और जीवन अनुसार, ईसा ने भी भारत मे आकर, संन्यास और शैली तो अभिलिखित हो गई, किन्तु इहैषणा-रहित भारतीय दर्शन का अध्ययन किया था। आज भी भारत सर्वत्यागियो की जीवन-शैली का अभिलेखन, स्वभावतः में सबसे प्राचीत ईसाई सीरियाई-ईसाई हैं, जो एक प्रकार नहीं हो सका । तथाकथित पूर्व-वैदिक या वेदेतर जीवन से विश्व के प्राचीनतम ईसाई-मतावलम्बी है; क्योकि और उपासना शैली के अभिलेख-प्रमाणो का प्रभाव प्रन्थतियों के अनुसार, वे महात्मा ईसा के प्रत्यक्ष शिष्य सम्भवत. इसी कारण है । सिन्धु लिपि के उद्धार के बाद सत तामस की शिष्य परम्परा मे है। सीरियाई ईसाइयों इस प्रभाव की पूर्ति शायद हो सके। की जीवन-चर्या भारतीय संन्यासियों से अधिक भिन्न वेदो के अन्तिम अंशो, पारण्यकों और उपनिषदों में नही है। उनकी जीवन-चर्या का प्रभाव थोड़ा बहुत सभी अवश्य यह भेद उभर कर पाया है । श्रमण शब्द का ईसाई संप्रदायों पर पड़ा है।
उल्लेख भी पहले-पहल वृहदारण्यक उपनिषद् में ही है। इस्लाम का प्रवर्तन हजरत मुहम्मद से है। मुहम्मद वेदों के ऋषियो की परम्परा और श्रमणों की परम्परा साहब स्वयं तो प्रचलित अर्थों में संन्यासी नहीं थे, किन्तु में प्रधान भेद यही रहा है कि ऋषि अधिकांशतः गृहस्थ उनको देवी उपदेशो का दर्शन निर्जन मरुस्थलों में एकान्त रहे, जबकि श्रमण कठोर तप करने वाले परिव्राजक जीवन बिताने और तप करने के बाद ही हुमा था । बाद सर्वस्व त्यागी संन्यासी थे।
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श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
'श्रमण' शब्द की व्युत्पति ही 'श्रम' धातु मे युच् या तीर्थकर माना है। वास्तव में, अवधूतों या नाथों से पृथक् ल्युट् प्रत्यय के योग से होती है । यो श्रमण का अर्थ जैन धर्म का प्रारम्भ, ऐतिहासिक दृष्टि से, भगवान कठोर तपस्वी होता है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान महावीर से माना जाना चाहिए । बर्द्धमान संन्यासियों के विभिन्न भेद बहुत पहले ही हो चुके थे। महावीर को बुद्ध ने 'निगण्ठ' (निर्ग्रन्थ) कहा है । बाद में रामायण में (१. १.४ १२) में श्रमण और तापस शब्द उन्हें ही 'जिन' भी कहा गया । पर, स्वय बुद्ध को भी इकट्ठे आए है जिसमे स्पष्ट है कि श्रमण और कठोर अनेक स्थानो पर 'जिन' और 'ग्रहत्' कहा गया है और तपस्वी मे भी भेद है ।
यही विशेषण स्वयं महावीर के लिए भी प्रयुक्त हुए है । इनमें भी सबसे महान संवर्ग अवधतों का है। पुराणो इसी प्रकार दोनो सम्प्रदायो के संन्यामी भी आगे चल कर ने अवधूतों को परम्परा स्वयं शिव से स्थापित की है। श्रमण' कहलाए । खेद यही रहा है कि बौद्ध धर्म का किन्तु ऐतिहामिक दृष्टि से अवधत परम्परा के ग्रादि- स्थायी प्रभाव भारत की सीमा से बाहर भी रहा है, आचाय भगवान ऋषभदेव है। भगवान ऋपभदेव परम- किन्तु वर्द्धमान की श्रमण-परम्परा भारत से बाहर स्थायी अवधूत श्रेणी को प्राप्त संन्यासी थे । ये विष्णु के अवतार प्रसार न पा सकी।
और प्रादिनाथ नाम से जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर माने उपसंहार गए है। इन भगवान ऋषभदेव से ही दिगम्बर अवधतो यों मानव समाज में इतिहास काल के प्रारम्भ में की परम्परा का प्रारम्भ है। इतिहास-क्रम से यह घटना अब तक श्रमण या संन्यासी ने सम्मान पूर्ण स्थान पाया सिन्धु काल के प्रारम्भ की भी हो सकती है क्योंकि एक है। थमण समाज का गुरु है । श्रमण के पतन से सदा सिन्धु-मुद्रा पर योगी और वृषभ चिन्ह अंकित पाया गया समाज का पतन हुआ है, या समाज यदि सवल रहा है है । लेख तो अभी निर्धान्त रूप से पढा नहीं गया है, तो उसी ने पतित थमण का नाश करके अपने पापको किन्तु चिन्ह से वह योगी-मूर्ति ऋषभदेव की भी मानी पतन से बचाया है। भारत से बौद्ध धर्म का लोप कुछ जा सकती है, क्योकि जैन-परम्पग में वपभ भगवान बौद्ध भिक्षुओं की इसी प्रवृति का परिणाम है । यह हुग्रा ऋषभ देव का चिन्ह है।
है और होता रहेगा। समाज ने मदा से अब तक जिस ऋषभदेव के पुत्र भरत भी अवधूत थे, जिन्होंने भद्र
श्रमण का सम्मान किया है, वह मठों या सघारामो का काली के सम्मुख बलि-पशु के स्थान पर स्वय को उपस्थित
ऐश्वर्यशाली स्वामी श्रमण नही था; वह वही था, जो करके पशु-बलि के विरुद्ध मौन-सत्याग्रह किया। शायद
गीता की भाषा में स्थितप्रज, निस्पृह, निमग योगी था, वेदों के शुनःशेष के बाद पशु-बलि के विरुद्ध प्रथम सशक्त जिस बुद्ध न घ
जिसे बुद्ध ने धम्मपद मे 'बम्हन' कहा, जो निर्ग्रन्थ, स्वर भरत का ही है।
इन्द्रिय-जेता, जिन कहलाने का वास्तविक अधिकारी था. भगवान ऋषभदेव के बाद, अवधूत पराम्परा के जिसने लोक-कल्याण के लिये सदा अपना बलिदान दिया बाइस प्राचार्य और हुए, लेकिन तेईसवे प्राचार्य भगवान है। ऐसे 'थमण' जब तक रहेंगे, मानव समाज सदा पतन पार्श्वनाथ के समय से अवधुतो का एक सम्प्रदाय उनसे के गम्भीरतम गह्वरो से उभर कर कल्याण मार्ग पर पृथक हो गया और नाथ सम्प्रदाय कहाया । पार्श्वनाथ का आता रहेगा । मानव समाज भी जब तक ऐसे सच्चे मूल सम्प्रदाय इस युग से निग्रन्थ सम्प्रदाय कहा जाने संन्यासियो को वास्तविक हार्दिक सम्मान देता रहेगा, लगा। इसी निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय में चौबीसवें प्राचार्य वर्द्धमान जब तक उनके चरण-चिन्हो का अनुसरण करता रहेगा, थे, जिनको जैन मतावलम्बियों ने चौबीसवां प्रौर अन्तिम तब तक कोई भय नही है।
00 पता :- मकान नं० १८६७, गली नं० ४५,
नाईवाला, करौल कग, नई दिल्ली
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४६ वर्षकिरण १
अनेकांत पर भारतीय सभ्यता की पूरी छाप है। माया-सभ्यता में तो, सूफी, दरवेश, ख्वाजा, फकीर, पीर आदि अनेकों की अनथतियों के अनुसार उनके पूर्वज पूर्व से वहाँ गृह-त्यागी संन्यासियो के सम्प्रदाय इस्लाम का प्रधान अंग पहंचे । माया-जन की सर्वाधिक पूज्या और इष्ट देवनाता बन गए । यह मानने में संकोच नही होना चाहिये कि माया है, जो भारतीय लक्ष्मी की भांति कमल धारण इस्लाम में संन्यास का प्रवेश ईसाई संन्यासी सम्प्रदायों, किए हैं और प्रधान देव 'हुइत्ज्लीपोख्तली' नागधारी ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एसिया के बौद्ध पौर शिव है, जो संन्यासियों के आदि गुरू है । मैक्सिको के बौद्धेतर श्रमण-सम्प्रदायों तथा काश्मीर, सिन्धु मोर इण्डियन एजर्टक वास्तव में आस्तीक की सन्तान है। निकटवर्ती क्षेत्रों के हिन्दू संन्यासियों के साथ सम्पर्क का सम्भवतः जनमेजय से संधि के पश्चात् प्रास्तीक नागो, ही परिणाम है। नहषो, और मों को पोलीनेशिया के मार्ग से वर्तमान भारत अमरीका में ले गए थे। आज मी मक्सिको के आदिवासी भारत में तो श्रमण और गहस्थ का सम्बन्ध पोर नाग की पूजा करते है । भारत से दूर जा बसने पर भी, भी स्पष्ट है । भारत की ज्ञात सभ्यताओं में सर्वाधिक
भारतीय परम्पराओं को नही भूले । अन्य परम्पराम्रो प्राचीन सभ्यता सिन्धु-सभ्यता मानी जाती है। उस काल के साथ मारत में परी विकसित संन्यास पराम्परा भी की मुद्रामो पर उत्कीर्ण चित्रो से यह स्पष्ट है कि सब वहां पहुंची । प्राचीन इतिहासकारो और यात्रियों की कुछ त्याग कर वनों में निवास और कठोर तप करने साक्षी है कि प्रास्तीक अपने पुरोहितो को 'शमन' कहते वाले संन्यासियों, योगियों की परम्पराएँ तब तक समाज थे, जो स्पष्ट ही 'श्रमण का ही रूपान्तर है ।
मे सुस्थापित ही नही हो चुकी थी; अपितु समाज का ईसाइयत और इस्लाम
पूज्य अग बन चुकी थी। एक मुद्रा पर एक योगी वृक्ष के पहले ही कहा जा चुका है कि ईसा से कई शताब्दी नीचे समाधिस्थ है और अन्य पशुप्रो से परिवत है। यद्यपि पूर्व संन्यास की परम्परा अरब, मिस्र, इजरायल और इस सभ्यता को पूर्व-वैदिक कहना तो भूल ही होगा, किन्तु यनान मे जड़ पकड़ चुकी थी। सीरिया में निर्जनवासी यह स्पष्ट है कि मुद्राओं से प्रकट होने वाला धर्म और संन्यासियों के संघ और आश्रम स्थापित थे ही। उनमें से जीवन-शैली वेदो से प्राप्त धर्म और दर्शन से भिन्न हो कुछ तो अत्यन्त कठोर तप करते थे। स्वयं ईसा के दीक्षा- प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इहलोक-परक गुरू यहन्ना इसी सम्प्रदाय के थे । कुछ परम्परागों के होने के कारण, प्रवृति-परक वैदिक उपासना और जीवन अनुसार, ईसा ने भी भारत मे पाकर, संन्यास और शैली तो अभिलिखित हो गई, किन्तु इहैषणा-रहित भारतीय दर्शन का अध्ययन किया था। आज भी भारत सर्वत्यागियों को जीवन-शैली का अभिलेखन, स्वभावतः मे सबसे प्राचीत ईसाई सीरियाई-ईसाई है, जो एक प्रकार नहीं हो सका। तथाकथित पूर्व-वैदिक या वेदेतर जीवन से विश्व के प्राचीनतम ईसाई-मतावलम्बी है; क्योकि और उपासना शैली के अभिलेख-प्रमाणों का प्रभाव अनश्रतियों के अनुसार, वे महात्मा ईसा के प्रत्यक्ष शिष्य सम्भवत. इसी कारण है । सिन्धु लिपि के उद्धार के बाद सत तामस की शिष्य परम्परा में है। सीरियाई ईसाइयों इस अभाव की पूर्ति शायद हो सके। की जीवन-चर्या भारतीय संन्यासियों से अधिक भिन्न वेदो के अन्तिम अंशों, आरण्यकों और उपनिषदों में नहीं है। उनकी जीवन-चर्या का प्रभाव थोड़ा बहुत सभी अवश्य यह भेद उभर कर पाया है । श्रमण शब्द का ईसाई संप्रदायों पर पड़ा है।
उल्लेख भी पहले-पहल वृहदारण्यक उपनिषद् में ही है। इस्लाम का प्रवर्तन हजरत मुहम्मद से है । मुहम्मद वेदों के ऋषियों की परम्परा और श्रमणों की परम्परा साहब स्वयं तो प्रचलित अर्थों में संन्यासी नहीं थे, किन्तु मे प्रधान भेद यही रहा है कि ऋषि अधिकांशतः गृहस्थ उनको देवी उपदेशों का दर्शन निर्जन मरुस्थलों में एकान्त रहे, जबकि श्रमण कठोर तप करने वाले परिवाजक जीवन बिताने पोर तप करने के बाद ही हमा था। बाद सर्वस्व त्यागी संन्यासी थे।
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श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
'श्रमण' शब्द की व्युत्पति ही 'श्रम' धातु में युच या तीर्थकर माना है। वास्तव में, अवधूतों या नाथों से पृथक ल्युट् प्रत्यय के योग से होती है । यों श्रमण का अर्थ जैन धर्म का प्रारम्भ, ऐतिहासिक दृष्टि से, भगवान कठोर तपस्वी होता है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वर्द्धमान महावीर से माना जाना चाहिए । वर्द्धमान संन्यासियो के विभिन्न भेद बहत पहले ही हो चुके थे। महावीर को बुद्ध ने 'निगण्ट' (निर्ग्रन्थ) कहा है । बाद में रामायण मे (१. १.४ १२.) मे श्रमण और तापस शब्द उन्हें ही 'जिन' भी कहा गया । पर, रवयं बुद्ध को भी इकट्टे आए है जिसमे स्पष्ट है कि श्रमण और कठोर अनेक स्थानों पर 'जिन' और 'ग्रहत्' कहा गया है और तपस्वी में भी भेद है।
यही विशेषण स्वय महावीर के लिए भी प्रयुक्त हुए है। ___इनमे भी सबसे महान संवर्ग अवधतो का है। पूराणो इसी प्रकार दोनो सम्प्रदायो के मंन्यासी भी आगे चल कर ने प्रवधूनो को परम्पग स्वयं शिव से स्थापित की है। 'श्रमण' कहलाए । खेद यही रहा है कि बौद्ध धर्म का किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से अवधत परम्परा के प्रादि- स्थायी प्रभाव भारत की सीमा से बाहर भी रहा है, प्राचार्य भगवान ऋषभदेव है। भगवान ऋषभदेव परम- किन्तु वर्द्धमान की थमण-परम्परा भारत से बाहर स्थायी अवधूत श्रेणी को प्राप्त संन्यासी थे। ये विष्णु के अवतार प्रमार
प्रमार न पा सकी। और आदिनाथ नाम से जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर माने उपसंहार गए हैं । इन भगवान ऋषभदेव से ही दिगम्बर अवधूतो यो मानव समाज में इतिहास काल के प्रारम्भ से की परम्परा का प्रारम्भ है। इतिहास-क्रम से यह घटना अब तक श्रमण या संन्यासी ने सम्मान पूर्ण स्थान पाया सिन्धु काल के प्रारम्भ की भी हो सकती है क्योकि एक है। श्रमण समाज का गुरु है । श्रमण के पतन से सदा सिन्धु-मुद्रा पर योगी और वपभ चिन्ह प्रकित पाया गया समाज का पतन हना है; या समाज यदि सबल रहा है है । लेख तो अभी निर्धान्त रूप से पढा नही गया है, तो उमी ने पतित श्रमण का नाश करके अपने पापको किन्तु चिन्ह से वह योगी-मूर्ति ऋषभदेव की भी मानी पतन से बचाया है। भारत से बौद्ध धर्म का लोप कुछ जा सकती है, क्योकि जन-परम्पग में वृषभ भगवान बौद्ध भिक्षुओं की इसी प्रवृति का परिणाम है । यह हुआ ऋषभ देव का चिन्ह है।
है और होता रहेगा । समाज ने मदा से अब तक जिस ऋषभदेव के पुत्र भरत भी अवधत थे, जिन्होने भद- श्रमण का सम्मान किया है, वह मठों या सघागमो का काली के सम्मुख बलि-पशु के स्थान पर स्वय को उपस्थित
ऐश्वर्यशाली स्वामी श्रगण नहीं था, वह वही था, जो करके पशु-बलि के विरुद्ध मौन-सत्याग्रह किया। शायद
गीता की भाषा मे स्थितप्रज, निस्पह, निमग योगी था, वेदों के शुनःशेष के बाद पशु-बलि के विरुद्ध प्रथम मशक्त
जिसे बुद्ध ने धम्मपद मे 'बम्हन' कहा, जो निर्ग्रन्थ, स्वर भरत का ही है।
इन्द्रिय-जेता, जिन कहलाने का वास्तविक अधिकारी था . भगवान ऋषभदेव के बाद, अवधूत पराम्परा के जिसने लोक-कल्याण के लिये सदा अपना बलिदान दिया बाइस प्राचार्य और हुए, लेकिन तेईसवें प्राचार्य भगवान है। ऐसे 'थमण' जब तक रहेगे, मानव समाज सदा पतन पार्श्वनाथ के समय से अवधूतो का एक सम्प्रदाय उनसे के गम्भीरतम गह्वरो मे उभर कर कल्याण मार्ग पर पृथक हो गया और नाथ सम्प्रदाय कहाया। पार्श्वनाथ का प्राता रहेगा । मानव समाज भी जब तक ऐसे सच्चे मूल सम्प्रदाय इस युग से निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय कहा जाने संन्यासियो को वास्तविक हार्दिक सम्मान देता रहेगा, लगा। इसी निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय मे चौबीसवे प्राचार्य वर्द्धमान जब तक उनके चरण-चिन्हों का अनुसरण करता रहेगा, थे, जिनको जैन मताबलम्बियो ने चौबीसवां और अन्तिम तब तक कोई भय नहीं है।
पता :- मकान नं० १८६७, गली नं० ४५,
नाईवाला, करौल काग, नई दिल्ली
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जैन कवि कुशललाभ का हिन्दी साहित्य को योगदान
डा० मनमोहन स्वरूप माथुर, उदयपुर
अनेक जैन ग्राचायो ने हिन्दी साहित्य की सेवा विषय-वस्तु की दष्टि से इन चार भागों में विभक्त किया वी है । ऐसे ही एक जैन प्राचार्य है-कुशललाभ, जिन्होने जा सकता है-१. प्रेमाख्यानक रचनाएँ, २. जैन भक्ति हिन्दी भाषा और साहित्य की अपूर्व सेवा की। कुश- सम्बन्धी रचनायें, ३. पौराणिक साहित्य तथा ४. रीतिललाम धर्म से जन यति थे और जैसलमेर के रावल हर- सम्बन्धी रचनायें। गज के . पाश्रित थे। प्रारम्भ मे उन्होने हरराज के कुतूहलार्थ माधवानल कामकदला चौपाई, ढोला, माग्वणी
कवि की रीति-विवेचक रचना है-पिंगल-शिरोमणि' । चौपाई जैसी शृगार-परक कृतियों और शिक्षण के लिए
यह राजस्थानी भाषा का प्रथम छन्द-विवेचक ग्रन्थ है। पिंगल-शिरोमणि जैसे छंद-ग्रन्थ का निर्माण किया। रावल
इसमें कवि ने प्रलंकार, कोश और राजस्थानी भाषा के हरगज की मृत्यु के पश्चात प्राय परिवाजक बन कर
छन्द विशेष 'गीत' का भी विवेचन किया है। कुशललाभ उपाश्रयो मे ही आपने अपना शेष जीवन बिताया। इस
को यही परम्परा हरिपिंगल प्रबन्ध, रघुवरजस प्रकास, काल मे उन्होने जैन चरित-काव्यो का प्रणयन किया।
रघनाथ रूपक गीता रो, कवि कुलबोध, सज्जन चित्र
चुनाव ' इनमे से किसी भी ग्रन्थ में कविने अपने जीवन-वत्त संबधी
चन्द्रिका प्रादि राजस्थानी रीति-ग्रन्थो के रूप में विकसित
चा काई सकेत नहीं दिया है। किन्तु ग्रन्थो मे वणित कतिपय हुई । राजस्थानी मे प्रलंकार-विवेचन की दष्टि से यह घटनाओं के आधार पर कुशललाभ का अस्तित्व-काल ग्रन्थ अभी भी सर्व प्रथम एव मौलिक है। विक्रम सवत् १५६०-१५६५ से वि० सं० १६५५ तक
इन सभी कृतियों का प्रारम्भ मगलाचरण से किया माना जा सकता है । इमी भांति कुशललाभ की भाषा के
गया है। ये मगलाचरण गणपति, सरस्वती, शंकर, विष्णु, आधार पर यह सम्भावना की जा सकती है कि प्रापका
महामाई, कामदेव, जिनप्रभु जिनेश्वर, पार्श्वनाथ, गौतमजन्म गुजरात के निकटवती मारवाड़ प्रान्त मे ही हुआ
ऋषि की स्तुति से सम्बन्धित है । जैन भक्ति सम्बन्धी रच. होगा। कृतियो की पुष्पिकाओ से स्पष्ट होता है कि कुश
नायो मे जम्बूद्वीप, शत्रुजयगिरि आदि का भी परिचय ललाभ खरतरगच्छ सम्प्रदाय के अधिष्ठाता जिनचन्द्र के
दिया गया है । कवि की इन रचनाओं का अन्त पुष्पिका शिष्य जिनभद्र सूरि की शिष्य-परम्परा में उपाध्याय
द्वारा हुमा है, जिनमे कवि ने अपना और अपने गुरु खरअभयधर्म के शिष्य थे।
तरगच्छीय उपाध्याय अभयधर्म का नामोल्लेख किया है। कुशललाभ ने अपने जीवन-काल में जैन एवं जैनेतर स्तोत्र एवं देवी-भक्ति रचनाओं में यह अन्त कवि ने विषयो से सम्बन्धित १८ ग्रन्थो' की रचना की। इन्हें 'कलश' छन्द के माध्यम से किया है, यथा
१. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर।
२. माधवानल कामकन्दला चौपाई, ढोलामारवणी चौपाई,
जिनपालित जिनरक्षित सधि गाथा, पाश्वनाथ दशभव स्तवन, प्रगड़दत्त रास, तेजसार रास चौपाई, पिंगल-शिरोमणि, स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तवन, भीमसेन
हंसराज चौपाई, शत्रुञ्जय यात्रा स्तवन, श्रीपूज्य वाहण वाहण गीत, महामाई दुर्गा सातसी, जगदम्बा छन्द अथवा भवानी छन्द, स्फुट छद, कवित्त और गुण
सुन्दरी चौपाई (?)। ३. परम्परा, भाग १३.- राजस्थानी शोध संस्थान,
जोधपुर।
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जैन कवि कुशललाम का हिन्दी साहित्य को योगदान
४६
इन्द्रादिक सुर असुरः सदा तुझ सेवा सारः करती हैस्वर्ग मृत्यु पाताल प्रचल तुमचि भाषारः पुत्र उलयो प्रोहित जिसई. हरखई बूढा मांस तिसई । गिर गहर वर विवर नगर पुरवर त्रिक चाचर माधो ले प्रालिंगन बीयई पति प्रणव खोला लिया। प्राप छन्दि पाणंद शक्ति पोले सचराचर शिव संगति युगति बेलि सदा विविध रूप विश्वेश्वरी नगर साह सिणगारियो, सयल लोक प्राणंद कीघउ ॥" कवि कुशललाभ कल्याण करि जय जय जगदीश्वरी।'
जैन कथानक सम्बन्धी रचनाओं में नायक के स्वदेश कवि की अधिकांश प्रेमाख्यानक रचनाओं मे प्राधिका- लौटने पर कोई गुरु उसको धर्म में दीक्षित करता है। रिक कथा का प्रारम्भ प्राय: किसी नि सतान राजा अथवा तत्पश्चात् नायक अपने बड़े पुत्र को राज्यभार सभाल कर पुरोहित द्वारा सन्तान प्राप्ति के प्रयल के वरण से हुआ सन्यासी बनते चित्रित किया जाता है, जबकि जने तर है । देवी-देवता, ऋपि मनि के ग्रामत्रित फल अथवा रचनाओं में मुग्यमय पारिवारिक जीवन के साथ कथा का उनके बताये अनुसार पुष्कर या अन्य पवित्र स्थलो की अन्त है । इस प्रकार जहा जेनेतर रचनायो की कथा-वस्तु 'जात' देने पर उम राजा के यहां पुत्र अथवा पुत्री का सुखान्त है, वहाँ जैन चरित सम्बन्धी रचनायो बी प्रसाजन्म हुमा है। युवा होने पर किसी अपराध पर दान्त । पिता से कहा सुनी होने पर अथवा राजाज्ञा से नायक कुशललाभ ने शृङ्गार, भक्ति, काव्य-शास्त्र, चरित्रको घर छोड़ना पटा है। इसी निष्कासन से नायक के पाख्यान आदि विविध विषयो को लेकर प्रबन्ध, लघु-गीत वैशिष्ट्य के द्वारा इन रचनायो में कवि ने प्रेम-तत्व को छन्द, स्तोत्र प्रादि रचनायें लिखी। इनमें प्रधानता शृंगार उभारा है।
रस की ही है । शान्तरस तो सहायक है एव उद्देश्यपूर्ति के नायक-नायिकामों में प्रेम का आरम्भ प्रत्यक्ष-दर्शन निमित्त ही प्रयुक्त हुआ है। इस सदर्भ में श्री श्रीचन्द और रूप-गण-श्रवण द्वारा होता है। नायक-नायिका मे जैन का कथन है-"जैन काव्य में शाति या शम की प्रमोद्दीपन एव उसके संयोग में तोता, मंत्री-पुत्र, भाट प्रधानता है अवश्य, किन्तु वह प्रारम्भ नही, परिणति है खवास, सखियाँ आदि सहायक हए है । नायिका की प्राप्ति
....... नारी के शृगारी रूप, यौवन एवं तज्जन्य कामोत्ते. के पश्चात जब नायक पन: अपने निवास को लोटता है जना प्रादि का चित्रण इसी कारण जैन कवियो ने बहुत तो मार्ग मे उसका प्रतिनायक के साथ युद्ध दिखलाया सूक्ष्मता से किया है । गया है । नायक विजयी होकर जैसे ही आगे बढ़ता है, इन रसो के अतिरिक्त करुणा, वात्मल्य, वीर, रोड, नायिका की मृत्यु हो जाती है। इसके पश्चात् नायिका को भयानक रसो का भी यथा प्रसग प्रयोग हुआ है। पुनर्जीवन योगी-योगिनी अथवा विद्याधर'" द्वारा प्राप्त होता कवि ने अपनी कृतियो मे अनेक छन्दों का सुन्दर है। घर लौटने पर सभी प्रेमाख्यानक रचनाओ मे नायक प्रयोग किया है। "पिंगल शिरोमणि' नामक अपने रीति के माता-पिता एव उस नगर की प्रजा नायक का स्वागत
(शेष पृष्ठ ५४ पर) ४. राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, उदयपुर, ग्रं० २०६ ८. ढोला मारवणी चौपाई, प्रगड़दत्त रास, भीमसेन हंस छंद ४८. (जगदम्बा छद)।
राज चौपाई।
है. ढोला मारवणी चौपाई, भीमसेन हंसराज चौपाई। ५ माधवानल कामकदला चौपाई , ढोला मारवाणी चौपाई
१०. प्रगड़दत्त रास, माधवानल कामकन्दला, तेजबारतेजसार रास चौपाई इत्यादि रचनाएँ।
रास चौपाई। ६. तेजसार रास, पार्श्वनाथ दशभत्र स्तवन इत्यादि रच- ११. माधवानन काम-कंदला चौपाई-पानन्द काय महोनायें।
दधि, मौ० ७, पृ० १८०, चौपाई ६४४-६४७ । ४. माधवानल कामकन्दला चौपाई, स्थूलिभद्र छतीसी, १२.जैन कथापो का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ.१३२अगड़दत्त रास।
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महावीर की तपस्या और सिद्धि
- उपाध्याय मुनिश्री विद्यानन्द
महान कार्य-सिद्धि के लिए महान परिश्रम करना आते थे । उसके सिवाय अपना शेष समय एकान्त स्थान, पडता है। श्री वर्द्धमान तीर्थकर को अनादि समय का वन, पर्वत, गुफा, नदी के किनारे, श्मशान, बाग आदि कर्म-बन्धन, जिसने अनन्त शक्तिशाली प्रात्मानों को दीन, निर्जन स्थान में बिताते थे । वन के भयानक हिंसक पशु हीन बलहीन बनाकर संसार के बन्दीघर ( जेलखाने ) जब तीर्थकर महावीर के निकट पाते तो उन्हें देखते ही में डाल रखा है, नष्ट करने के लिए कठोर तपस्या करनी उनकी ऋर हिंसक भावना शान्त हो जाती थी, अतः पड़ी, तदर्थ- वह जब प्रात्म-साधना निमग्न हो जाते थे, उनके निकट सिंह, हरिण, सर्प, न्योला, बिल्ली, चहा तब कई दिन तक एक ही प्रासन में मचल बैठे या खड़े आदि जाति-विरोधी जीव भी द्वेष, वैर-भागना छोड़कर रहते थे। कभी-कभी एक मास तक लगातार आत्म-ध्यान प्रम शान्ति स काड़ा किया करत थ। करते रहते थे। उस समय भोजन-पान बन्द रहता ही
निःसंग वायु जिस प्रकार भ्रमण करती रहती है, एक था, किन्तु इसके साथ बाहरी वातावरण का भी अनुभव
ही स्थान पर नहीं रुकी रहती, इसी प्रकार प्रसंग निर्ग्रन्थ नहीं हो पाता था। शीत ऋतु में पर्वत पर या नदी के तीर्थंकर महावीर तपश्चरण करने के लिये भ्रमण करते सट पर अथवा किसी खुले मैदान में बैठे रहते थे, उन्हें
रहे । भ्रमण करते हुए जब वह उज्जयिनी नगरी के भयंकर शीत का भी अनुभव नहीं होता था। ग्रीष्म ऋतु
निकट पहुंचे तब वहां नगर के बाहर 'प्रतिमुक्तक' नामक में वह पर्वत पर बैठे ध्यान करते थे, ऊपर से दोपहर की
श्मशान को एकान्त-शान्त प्रदेश जानकर वहां प्रात्मध्यान धूप, नीचे से गरम पत्थर, चारों मोर से लू (गरम हवा) करने ठहर गये । जब रात्रि का समय हुआ तो वहां पर उनके नग्न शरीर को तपाती रहती थी, किन्तु तपस्वी 'स्थाणु' नामक एक रुद्र पाया। उस स्थाणु रुद्र ने ध्यानवर्धमान को उसका भान नहीं होता था। वर्षा ऋतु में मग्न तीर्थंकर महावीर को देखा। देखते ही उसने उन्हें नग्न शरीर पर मूसलाधार पानी गिरता था, तेज हवा
ध्यान से विचलित करने के लिये घोर उपसर्ग करने का
विचार किया। चलती थी, परन्तु महान योगी तीर्थंकर महावीर अचल आसन से प्रात्म चिंतन में रहते थे।
तदनुसार अपने सिद्घ विद्याबल से अपना भयानक __ जब वह मात्म-ध्यान से निवृत्त हुए और शरीर को विकराल रूप बनाया और कानों के पर्दे फाड़ देने वाला कुछ भोजन देने का विचार हा तो निकट के गांव या अट्टहास किया। अपने मुख से अग्नि-ज्वाला निकाल कर नगर में चले गये । वहाँ यदि विधि-प्रनुसार शुदध भोजन ध्यानारूढ़ तीर्थंकर महावीर की मोर झपटा। भूत-प्रेतों मिल गया तो नि:स्पृह भावना से थोड़ा-सा भोजन कर लिया ने भयानक नृत्य दिखलाये । सर्प, सिंह, हाथी, प्रादि ने भोर तपस्या करने वन, पर्वत पर चले गए। कही दो दिन भयानक शब्द किये। धूलि, अग्निवर्षा की । इस प्रकार ठहरे, कही चार दिन, कही एक सप्ताह, फिर विहार के अनेक उपद्रव तीर्थंकर को भयभीत करने तथा प्रात्मकरके किसी अन्य स्थान को चले गये। यदि सोना प्राव. ध्यान से चलायमान करने के लिये किये, परन्तु उसे कुछ श्यक समझते, तो रात को पिछले पहर कुछ देर के लिये भी सफलता न मिली । न तो परम तपस्वी वर्द्धमान रचकरवट से सो जाते। इस तरह से प्रात्म-साधन के लिये मात्र भयभीत हुए और न उनका चित्त ध्यान से चलायअधिक से अधिक और शरीर की स्थिति के लिए कम से मान हुआ । वह उसी प्रकार अपने प्रचल पासन से ठहरे कम समय लगाते थे।
रहे, जिस प्रकार मांधी के चलतं रहने पर भी पर्वत ज्यों ऐसी कठोर तपश्चर्या करते हुए वह देश-देशान्तर में का त्यों खड़ा रहता है। अन्त में अपना घोर उपसर्ग भ्रमण करते रहे, नगर या गांव में केवल भोजन के लिये विफल होते देख, स्थाणु रुद्र चुपचाप चला गया।
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महावीर को तपस्या और सिद्धि
जगत में कोई भी पदार्थ बहुमूल्य एवं पादरणीय के मूल कारण दुर्द्ध मोहनीय कर्म का शीघ्र क्षय करने बनता है तो वह बहुत परिश्रम तथा कष्ट सहन करने के के लिये क्षपक श्रेणी उपयोगी होती है। कर्म-क्षय के योग्य पश्चात ही बना करता है। गहरी खुदाई करने पर मिट्टी. आत्मा के परिणामों का प्रति क्षय असख्य गुणा उन्नत होना पत्थरों में मिला हमा भद्दा रत्न-पाषाण निकलता है, ही क्षपक श्रेणी है। क्षपक पाठवें, नौवें, दसवें और बारउसको छैनी, टाँकी, हथौड़ो की मार सहनी पड़ती है, हवें गुण स्थान मे होती है। इन गुण-स्थानों मे चारित्र्य शाण की तीक्ष्ण रगड़ खानी पडती है, तब कहीं झिल- मोहनीय को शेष २१ प्रकृतियो की शक्ति का क्रमशः ह्रास मिलाता हा बहमुल्य रत्न प्रकट होता। अग्नि के भारी होता है, क्षय बारहवें गुण-स्थान में हो जाता है : सन्ताप मे बार-बार पिघलकर सोना चमकीला बनता है,
उस समय प्रात्मा के समस्त क्रोध, मान काम, लोभ, तभी संसार उसका पादर करता है और पूर्णमूल्य देकर माया, द्वष आदि कषाय समूल नष्ट हो जाते है, प्रात्मा उत्कंठा से खरीदता है।
पूर्ण शुद्ध वीतराग इच्छा-विहीन हो जाता है, तदनुसार
दूसरा शुक्ल ध्यान (एकत्व वितर्क) होता है, जिससे ज्ञानपदार्थ ससार में एक भी नही है। रत्न की तरह उसका दर्शन के अविरक तथा बलहीन कारक (जानावरण, दर्शनावैभव भी अनादि कालीन कर्म के मैल से छिपा हुमा है। वरण और अन्तराय) कर्म क्षय हो जाते है, तब मात्मा उस गहन कर्म-मल में छिपे हुए वैभव को पूर्ण शुद्ध
मे पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन और पूर्ण बल का विकास हो प्रकट करने के लिये महान परिश्रम करना पड़ता है और
जाता है, जिनको दूसरे शब्दों में अनन्त ज्ञान, अनन्त महान कष्ट सहन करना पड़ता है, तब यह प्रात्मा परम
दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त बल कहते है। इन गुणों के शुद्ध विश्ववन्द्य परमात्मा वना करता है।
पूर्ण विकसित हो जाने से प्रात्मा पूर्णज्ञाता--द्रप्टा बन तीर्थकर महावीर को भी प्रात्मशुद्धि के लिए कठोर
जाता है । यह प्रात्मा का १३वा गुण-स्थान कहलाता है । तपस्या करनी पड़ी। तपश्चरण करते हुए उनकी पूर्व
क्षपक श्रेणी के गुण-स्थानो का समय अन्तर्मुहूर्त है, संचित कर्मराशि निर्जीर्ण (निर्जरा) हो रही थी, कर्म
उसी में योगी सर्वज्ञ हो जाता है। वीतराग सर्वज्ञ हो प्रागमन (प्रास्रव) तथा बन्ध कम होता जा रहा था। जाना हा मात्मा का जावन-मुक्त परमात्मा (महन्त) हा अर्थात् प्रात्मा का कर्म-मल कटता जा रहा था या घटता
जाना है। प्रात्मोन्नति या प्राःम-शुद्धि का इतना बड़ा जा रहा था । अतः प्रात्मा का प्रच्छन्न तेज क्रमशः उदीय
कार्य होने मे इतना थोड़ा समय लगता है. किन्तु यह मान हो रहा था, प्रात्मा कर्म-भार से हल्का हो रहा था,
महान कार्य होता तभी है, जबकि प्रात्मा तपश्चरण के
द्वारा शुक्ल ध्यान के योग्य बन चुका हो। मुक्ति निकट प्राप्ती जा रही थी।
तेरहवें गुण स्थान में तीसरा शुक्ल ध्यान ( सूक्ष्म विहार करते-करते तपस्वी योगी, तीथंकर महावीर क्रिया प्रतिपाती) होता है।। मगध (बिहार) प्रान्तीय 'जम्भिका' गांव के निकट बहने मात्मोन्नति या प्रात्मशुद्धि अथवा वीतराग, सर्वज्ञ वानी 'ऋजुकला' नदी के तट पर लाये। वहाँ पाकर महन्त, जीवन्मुक्त परमात्मा बनने का सही विधि-विधान उन्होने साल वृक्ष के नीचे प्रतिपायोग धारण किया। तीर्थकर महावीर को भी करना पड़ा। १२ वर्ष ५ मास स्थात्म-चिन्तन में निमग्न हो जाने पर उन्हें सातिशव १५ दिवस तक तपश्चर्या करने के अनन्तर उन्होंने प्रथम अप्रमत्तगुण स्थान प्राप्त हुमा । तदनन्तर चारित्र मोहनीव शक्न ध्यान की योग्यता प्राप्त की, तत्पश्चात् पहले लिखे कर्म की शष २१ कृतियों का क्षय करने के लिये क्षपक
लिय क्षपक अनुसार उन्होंने मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोर श्रेणी का प्राद्यस्थान पाठनों गुम स्थान हुमा। तवर्थ अन्तराय चार धातिया कर्मों का क्षय अन्तर्मुहूर्त मे करके प्रथम शुक्ल ध्याम (पृथकत्व वितर्फ विचार) हमा।
वचार हा सर्वज्ञ वीतराग या बर्हन्त जीव-मक्त परमात्म-पद प्राप्त जैसे ऊंचे भवन पर शीघ्र पहने के लिये सीढी उप किया। मत: वह पूर्ण शुद्ध एवं विकालमाता त्रिलोकस योपी होती है, उसी प्रकार संसार-भ्रमण एवं कर्म-बन्धन बन गये।
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भगवान महावीर की वाणी के स्फुलिंग
प्राचार्य श्री तुलसी
भगवान महावीर ने शाश्वत सत्य की खोज की और प्रचलित धारणामों में जहाँ-जहाँ विषमता दिखाई दी, उसी का प्रतिपादन किया। वे कोरे युगद्रष्टा नहीं थे। उसका प्रतिरोध किया। युगद्रष्टा केवल सामयिक सत्य को देखता है। जो शाश्वत
कुछ विद्वान कहते है कि वैदिक धर्म में प्रचलित दर्शी होता है, वह युगदर्शी होता ही है, किन्तु युगातीत- रूढियों का विरोध करने के लिये महावीर समाज के दर्शी भी होता है । शाश्वत सत्य का प्रस्फुटन युग के
सम्मुख एक सुधारक के रूप में प्रस्तुत हुए। उनकी प्रवृ. संदर्भ में भी होता है और उससे परे भी होता है। महा
त्तियों और धार्मिक प्रेरणामों के आधार पर यह निष्कर्ष वीर भारत की मिट्टी में जन्मे । भारतीय समाज उनका
निकाला जाता है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह यथार्थ नहीं पता समाज था । उनके पिता लिच्छविगण के एक है। उन्होंने अवश्य ही विषमतापूर्ण रूढ़ियों का प्रतिरोध सदस्य थे। वैशाली का विपुल वैभव और प्रभुत्व उनके
विया, पर वह प्रतिरोध करने के लिये एक सुधारक के भास पास परिक्रमा कर रहा था। वे जिस समाज में पले
रूप में प्रस्तुत नहीं हुए। वह समतामय धर्म की समग्र सब समाज उन दिनों भारतीय समाज कहलाता था धारणा को लेकर समाज के सामने प्रस्तुत हुए और प्रासंऔर माज वह हिन्दू समाज कहलाता है। उस समय में
गिक रूप में प्रतिरोध भी उनके लिये अनिवार्य हो गया। धर्म की दो धाराएं प्रवाहित हो रही थीं-वैदिक और
समाज का बहुत बड़ा भाग जन्मना जाति मे विश्वास
म श्रमण । महावीर ने दोनो धारामों का निकटता से परि
__ करता था । यह विषमतापूर्ण सिद्धान्त था। जाति से चय किया। तीस वर्ष की अवस्या में वह श्रमण बने। यदि प्रादमी ऊंचा और नीचा हो सकता है तो फिर पुरुमाले बारह वर्ष तक उन्होंने दीर्घ तपस्था और साधना षार्थ का कोई महत्व ही नही रहता। जाति से कोई की। उसके बाद उन्हें कैवल्य प्राप्त हुा । उन्होंने सत्य प्रारमीनीचा का साक्षात्कार किया । जनहित के लिये उन्होंने धर्म- भीनीचा
भी नीचा ही रहेगा और उच्चजाति वाला बुरा आचरण व्याख्या की। उन्होंने बताया-समता धर्म है । राग पार करने पर भी ऊंचा रहेगा । इस व्याख्या मे पुरुषार्थ और
नों विषमता के वीज है । अन्तर जगत की प्राचरण शून्य हो जाते है । जाति ही सब कुछ हो जाती जितनी समस्याएं है, उनका मूल हेतु राग-द्वष हा है। है। इस व्याख्या के पीछे छिपा हमा जो पक्षपात था वह सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर भी जो समस्याएं
समता-धर्म के अनुकूल नहीं हो सकता। धर्म से मनुष्य उभरती है, उनके पीछे भी राग-द्वेष का बहुत बड़ा हाथ तटस्थता की अपेक्षा रखता है। वही धर्म यदि पक्षपात होता है। राग-द्वेष पर विजय पाये बिना समता नहीं सघती और राग-द्वेष का पाठ पढ़ाये तो धर्म की प्रयोजनीयता और समता की सिदिध हए बिना धर्म प्राप्त नहीं हो ही समाप्त हो जाती है। महावीर ने प्रचलित जातियों को सकता । जहाँ जितनी और जो विषमता है, वह सब अस्वीकृत नहीं किया । जाति-व्यवस्था के पीछे रहे हुये अधर्म है। जहाँ जितनी और जो समता है, वह सब धर्म मनोवैज्ञानिक कारणों की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने केवल है। इस कसौटी पर उन्होंने धर्म को कसा भोर धर्म की जन्मना जाति के सूत्र को बदल कर कर्मणा जाति का
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भगवान महावीर की वाणी के स्फुलिंग
सूत्र प्रस्तुत किया। इसके अनुसार एक ही मनुष्य एकही पर प्रतिष्ठित किया। उन्हें सम्म क्मो की सचता का जन्म में ब्राह्मण भी हो सकता है, क्षत्रिय भी हो सकता समभागी बना मानबीय एकता की माधारभूमि प्रशस्त है, कुछ भी हो सकता है, पिता क्षत्रिय और पुत्र वैश्य हो की। सकता है। वैश्य पिता का पुत्र शुद्र भी हो सकता है।
उस समय वैचारिक हिंसा का भी दौर चल रहा था। कर्मणा जाति की इस परिवर्तनशील व्यवस्था में ऊँच,
अपने से भिन्न विचार रखने वालों पर प्रहार करना, नीच और छुपाछत का भेद नहीं पनप सकता।
उनके विचारों की प्रसत्यता प्रामाणिक करना धर्म-सम्प्र. समता के दो प्रमख प्रतिफल -अहिंसा एवं अपरि- दायों में भी मान्य था। एक धर्म के लोग दूसरे धर्म ग्रह । अहिंसा का सिद्धान्त अपनी प्रात्मा के प्रति जाग- वालों पर कटाक्ष करते थे । भगवान् महावीर ने अनेकान्त रूक रहने का सिद्धान्त है। अपनी आत्मा के प्रति जाग- का दर्शन प्रस्तुत कर जनता को समझाया। सत्य की रूक वही रह सकता है जो प्रात्मा के परमात्म स्वरूप को उपलब्धि समन्वय और सापेक्षता के द्वारा ही हो सकती जानता है । ऐसा व्यक्ति दूसरों के प्रति विषमतापूर्ण व्यव- है। एकांकी दृष्टि से प्रस्तुत किया जाने वाला कोई भी हार नहीं कर सकता। इस आधार पर भगवान महा- विचारपूर्ण सत्य से विच्छिन्न होने के कारण सत्य नहीं वीर ने पशु-बलि-अनौचित्य ठहराया। अनिवार्य हिंसा भी हो सकता। इस अनेकान्त की धारा ने साम्प्रदायिक हिंसा है। धर्म के नाम पर हिंसा विहित नहीं हो सकती। सकीर्णता के स्थान पर उदार विचार, सर्वग्राही दृष्टिकोण
भोर समन्वय की प्रतिष्ठा की। ___ वनस्पति का पाहार जीवन की अनिवार्यता है या हो सकती है, किन्तु मांस का भोजन जीवन की अनि
ढाई हजार वर्ष पहले समाज को पार्मिक स्वतंत्रता वार्यता नही है। उससे सात्विक वत्तियों का उपघात
अधिक प्राप्त थी। कोई व्यक्ति चाहे जितना धन अजित भी होता है। भगवान महावीर ने मांसाहार के प्रति
कर सकता था। राजकीय कर भी बहुत कम थे। कुछ जनता में प्रवांछनीयता की भावना पैदा की पौर भार
व्यक्ति धन कुबेर थे। कुछ बहत दरिद्र भी थे। पार्थिक तीय समाज में मांसाहार-विरोधी दष्टिकोण प्रभावशाली
विषमता के प्रति कोई सामाजिक चितन विकसित नहीं हो गया।
हुमा था। सामान्य जनता मे यह धारणा थी कि जो धनी भगवान महावीर ने कर्मकाण्डों को आध्यात्मिक रूप
बना है, उसने पूर्व जन्म मे अच्छे कर्म किए है । जो गरीब दिया। उस समय यज्ञसस्था बहुत प्रभावशाली थी। भग
है उसने पूर्व जन्म में बुरे कर्म किए है। अपने-अपने किए वान के यज्ञ के प्रति होने वाले जनता के आकर्षण को
हुए कर्मों का फल भुगतना पड़ता है। इस धारणा के समाप्त नही किया, किन्तु यज्ञ की आध्यात्मिक योजना
आधार पर गरीब के मन मे अमीर के प्रति माक्रोश नही कर उसे रूपान्तरित कर दिया।
था । सामाजिक स्तर पर भी वह विषमता-पूर्ण व्यवस्था हिंसा का विधान स्वर्ग के लिये किया गया था। भग- मान्य थी। किन्तु समता की कसौटी पर वह खरी नहीं वान महावीर ने निर्वाण के विचार को इतनी प्रखरता उतर रही थी। इस लिए भगवान महावीर ने अपरिसे प्रस्तुत किया कि स्वर्ग की आकांक्षा और स्वर्ग के लिये ग्रह का सिद्धात समझाया । उन्होने कहा-~-प्रत्येक गृहस्थ की जाने वाली हिंसा-दोनो के पासन हिल गये । हिंसा को व्रती बनना चाहिए और जो व्रती बने, उसे परिग्रह का अर्थ केवल प्राणहरण ही नहीं है । घुणा भी हिसा है। की सीमा अवश्य करनी चाहिए। अर्जन के साधनों की स्वतंत्रता का अपहरण भी हिंसा है। तत्कालीन समाज शुद्धि, परिग्रह की सीमा और उपभोग का सयम-इन व्यवस्था मे स्त्रियो और शूद्रों को अपेक्षित स्वतंत्रता तीनों को श्रृंखलित कर धर्म की एक ऐसी दशा का उदप्राप्त नहीं थी । भगवान् महावीर ने स्त्रियों और शूद्रों घाटन किया, जिसकी व्यावहारिक परिणति आर्थिक समाको अपने संघ में दीक्षित कर उन्हें समानता के प्रासन नता में होती है।
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५४, वर्ष २८, कि० १
निकान्त उस युग का समाज-व्यवस्था मेंशन कोऑति मनुष्य प्रयलों मे. खोजी जा सकती है। उन्होंने जनभाषा में • का भी परिग्रह होता था। स्त्री पुरुष बिकते थे। बिका अपनी बात कही और उनकी बात सीधी जनता तक हुआ आदमी दास होता था और उस पर मालिक का पहुची। जनता ने उसे अपनाया. पर कोई भी पुराना पूर्ण अधिकार रहता था । भगवान् महावीर ने इस संस्कार एक साथ नहीं टूट जाता । ढाई हजार वर्षों के प्रथा को हिंसा और परिग्रह दोनो दृष्टियों से अनुचित बाद हम अनुभव कर रहे है कि भगवान महावीर की बताया और जनता को इसे छोड़ने के लिए प्रेरित किया। वाणी के वे सारे स्फुलिंग पाज महाशिखा बनकर न केवल दास-प्रथा-उन्मूलन, परिग्रह, मानवीय एकता, स्वतंत्रता, भारतीय समाज को, किन्तु समूचे मानव-समाज को प्रकाश समानता, सापेक्षता, सहअस्तित्व, ग्रादि समता के विभिन्न दे रहे है। पहलुओं की मूलघारा भगवान् सहावीर के वचनो तथा
[पृ० ४६ का शेषांश] विवेचक ग्रन्थ में कुशल लाभ ने १०४ छन्दों का सोदाहरण अतः उसकी भाषा का जनता की भाषा होना अनिवार्य लाक्षणिक विवेचन किया है । उन्हीं में से कुछ छन्दों में भी था। कवि ने अपनी अनुभूति को विभिन्न कृतियों में वाणी दी साहित्य को समाज का सांस्कृतिक इतिहास कहा है । ये प्रमुख छन्द है-दूहा, चौपाई, गाहा, त्रोटक, हण- जाता है। कवि समाज में रहता है। अतः उसका समाज फाल, विपक्खरी, पद्घडी, मोतीदाम वस्तु, चावकी, रोम- की गतिविधियों से प्रभावित होना स्वाभाविक ही है। वती, हाटकी, कलश प्रादि। इन छन्दों की प्रधान विशे- सभी युगीन प्रवृत्तियों का चित्रण कुशल लाभ ने अपने षता यही है कि अनेक स्थलों पर ये छन्द लक्षण से मेल साहित्य मे किया है। ये वर्णन सामन्ती एवं जैन संस्कृति नहीं खाते। इसके अतिरिक्त तुक के प्राग्रह से छंदों के से सम्बद्ध है। कारण, कवि का साहित्य विशेष रूप से पदान्त हकार, इ-कार, प्रकार हो गये हैं । कवि ने छंदों हम दो समाजों से सम्बन्धित है । कवि ने अपने साहित्य को जनरुचि के अनुकूल बनाने के लिए तत्कालीन प्रचलित मे उस युग में प्रचलित अलौकिक शक्तियों में प्रास्था, शास्त्रीय एवं लौकिक राग-रागिनियों और बंधों को भी ज्योतिषियो की भविष्यवाणियों में श्रद्धा, स्वप्न-फल पौर ग्रहण किया है। इन रागों के प्रयोग से कवि के परिपक्व शक्नो में विश्वास रखने प्रादि का बड़ा सरल उल्लेख संगीत-ज्ञान का परिचय भी मिलता है।
किया है। पूर्व कर्म-फल के प्रति श्रद्धा का एक उदाहरण
प्रस्तुत है। कुशल लाभ के साहित्य का हिन्दी भाषा के विकास
पैले भव पाप में किया, तो तुझ विण इतरा दिन गया। की दृष्टि से विशेष महत्व है। कवि के साहित्य में मूलतः
Hd सैमष बात करे वाषाण, बीवन जन्म प्राण सुप्रमाण ॥ दो प्रकार की भाषा का प्रयोग हुमा है-प्रथम, शुद्ध हिंगल
00 पौर द्वितीय, मध्यकाल में प्रचलित लोक-भाषा राजस्थानी जिसे कुछ विद्वानों ने जूनी-गुजराती अथक प्राचीन राज- प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, स्थानी नाम भी दिए है। कवि की अधिकांश रचनामा भूपाल नोबल्स महाविद्यालय, की यही भाषा है । वस्तुत: कुशल लाभ लोक-कवि था। उदयपुर ( राज.)
१. ढोला मारवणी चौपाई, चौपाई स०५५७ ।
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भगवान महावीर की वैचारिक क्रान्ति
साहू श्रेयांस प्रसाद जैन, बम्बई कांति का सूत्रपात विचारों से होता है और विचार विशेष साधना की उच्च भूमिका में भले ही पूर्ण अहिंसक ही प्राचार और व्यवहार में परिवर्तन लाते है। विश्व हो सके किन्तु सबके लिए पूर्ण अहिंसा सम्भव नही है इतिहास इस बात का गवाह है कि दुनिया में जब भी इसीलिए भगवान महावीर ने मुनियों के लिए महावत कुछ परिवर्तन हुआ तो उसके पीछे चिन्तन और विचार और श्रावकों के लिए प्रणव्रतों का उपदेश दिया। 'जीयो की भूमिका अवश्य रही । समय समय पर संसार में और जीने दो' का सन्देश देने वाले भगवान महावीर ने अनेक महापुरुष हुए जिन्होंने अपने अनुभव, चिन्तन एवं जीने की कला सिखाई । जीवन एक दूसरे के सहयोग पर मनन से मानवजाति का मार्गदर्शन किया।
आधारित होता है । प्रत्येक व्यक्ति जीने और सुख से जीने आज से लगभग अढ़ाई हजार वर्ष पहले भारत की की कामना करता है। दुःख कोई नहीं चाहता, इसलिए पुण्य धरती पर भगवान महावीर ने जन्म लिया। २५०० महावीर ने सभी जीवों के प्रति समता का उपदेश दिया वर्ष पहले का वह युग संसार में वैचारिक क्रांति का युग और हिंसा का विरोध किया। था। दुनियां के और देशों में भी अनेक महापुरुष उस महावीर के युग मे धर्म के नाम पर अनेक क्रियाकाण्ड ममय मे हुए जिसमें सुकरात, कनफ्यूशियस, बुद्ध, जरथुन
यज्ञ एवं पाखण्ड प्रचलित थे और हिंसा को भी धार्मिक आदि उल्लेखनीय हैं । भगवान महावीर जिस युग में हुए
मान्यता देकर धर्म का एक अंग मान लिया गया था।
महावीर ने इस स्थिति में अपने क्रांतिकारी विचारों से उस समय की स्थिति में उन्होंने महान क्रांतिकारी चिंतन लोगों के सामने रखा। सचमुच महावीर क्रांतदृष्टा थे ।
धर्म के नाम पर चलने वाले पाखण्ड भोर हिंसा का प्रति
कार किया। ठीक उसी युग में भगवान बुद्ध ने भी ऐसी क्रांति का प्रथम चरण स्वयं जीवन से ही शुरू होता है।
ही धर्म-क्रांति की भोर महिसा की पावन धारा में सारा बंभव, विलास और भोगों को छोड़ कर त्याग एवं संयम
विश्व पवित्र हो उठा। की भोर उनका सहज झुकाव मानव जीवन के लक्ष्य के
सामाजिक क्षेत्र में जाति-पांति मोर छमाछत का प्रति एक क्रांति थी। संसार के सभी भौतिक सुखो को
बोलबाला था। भगवान महावीर ने कहा-'मनुष्य जन्म क्षणिक मानकर प्रात्मसुख के लिए महावीर ने घर-संसार छोड़कर साढ़े बारह वर्षों तक कठोरतम साधना की।
से नही, कर्म से महान बनता है । जाति से कोई उच्च कैवल्यज्ञान की प्राप्ति के बाद अपने चरम ज्ञान को प्राणी
अथवा नीच नहीं होता।' साधना के क्षेत्र में गरीब और मात्र के लिए पावन गंगा की तरह प्रवाहित किया।
अमीर, राजा या रंक, हरिजन या महाजन का भेद महा___महावीर की क्रांति, भाषा से शुरू होती है। विद्वानों
वीर ने नही स्वीकारा । उन्होंने मनुष्य मात्र को एक
जाति माना। खण्डवन की ओर जाते हए भगवान महाएवं बौद्धिकों के लिए वह युग संस्कृत भाषा एवं प्राकृत का पांडित्यपूर्ण युग था। किन्तु महावीर ने जनभाषा
वीर धीर-गंभीर मुद्रा में बढ़ रहे थे । सामने से एक वृद्ध अर्द्धमागधी को ही अपने उपदेशों के लिए चुना। क्रांति
व्यक्ति उनकी भोर तेजी से दौड़ता हुआ पाया और महा
बीर के पीछे चलने वाली भीड़ ने चिल्ला कर कहाके लिए यह जरूरी है कि जन-जन तक चिन्तन को पहुचाया जाय और इसीलिए विद्वानों की भाषा के स्था नपर
'उसे रोको, मागे मत प्राने दो। यह हरिकेशी चाण्डाल जनभाषा को भगवान महावीर ने अपनाया। महावीर ने
है, छू जायगा किसी कोचिन्तन के क्षेत्र में नई क्रांति दी, नया दृष्टिकोण प्रस्तुत
महावीर दो कदम आगे बढ़ते हुए धीर-गंभीर वाणी किया। उन्होंने सुख की प्राप्ति के लिए अहिंसा का मार्ग
में बोले-'उसे रोको मत, प्रागे पाने दो।' हरिकेशीबताया । अहिंसा का सूक्ष्म विवेचन करते हुए भी महावीर चाण्डाल महावीर के चरणो में झुकने लगा और महावीर ने उसे एकान्तिक या एकपक्षीय नहीं बनाया। व्यक्ति ने उसे गले से लगा लिया । सारे राजकुमार विस्मित हो
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५६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
उठे, किन्तु महावीर हरिकेशी की साधना से परिचित थे एक श्रावक के लिए उचित है। प्रतः मन्द मन्द मुस्करा रहे थे।
भगवान महावीर की चिन्तन के क्षेत्र में एक अभिनव महावीर की अहिंसा समता पर आधारित थी ।
देन यह भी है कि उन्होंने व्यक्ति के स्वतंत्र अस्तित्व को उसका वैचारिक पहलू अनेकान्त था। अनेकान्त अर्थात्
महत्व देते हुए पौरुप और प्रात्म-शक्ति का सन्देश दिया। सत्य के पूर्ण रूप को जानने के लिए उसे अनेक पहलुग्रो
श्रमण शब्द का अर्थ ही श्रम करने वाला पुरुषार्थी । से देखना । परसर विरोधी लगने वाले चिन्तन मे भी
महावीर ने कहा था-प्रत्येक प्राणी एक स्वतंत्र प्रात्मा कहीं साम्य का अंश हो सकता है अतः उसके लिए उदार
है जो अपने गुणों का विकास कर परमात्मा बन सकता मन एवं अनाग्रह भावना से सत्य की खोज में लगना
है। वह कभी भी किसी अन्य प्रात्मा मे विलय नही होता अनेकान्त है । महावीर की यही अहिंसा ढाई हजार वर्षों और न नष्ट ही होता है। महावीर ने मानव को अपने के बाद भी संसार के अनेक चिन्तकों द्वारा युग और
अस्तित्व के प्रति आस्था दी एवं व्यक्तित्व के चरम विकास परिस्थितियो के अनुसार आज भो विकसित होती रही
की ओर प्रयत्नशील बनाया। इसी प्रकार व्यक्ति अपने है। महावीर की अहिंसा का वह विस्फोट पाश्चात्य
को हीन अथवा तुच्छ मानकर किसी दूसरे के भरोसे विद्वान् टाल्स्टाय, रसल और स्वाइत्जर तथा राष्ट्रपिता
जीवन नही जीता बल्कि स्वयं अपने पुरुषार्थ से आगे महात्मा गांधी के चिन्तन में खरा उतरा है। महात्मा बढ़ता है। वर्तमान युग में महावीर का यह क्रांतिकारी गाधी ने महावीर की हिसा का प्रयोगात्मक रूप स्वा- चिन्तन जन जन को आकृष्ट कर रहा है। धीनता संग्राम में प्रस्तुत कर अहिंसा को व्यावहारिक
आज से पच्चीस सौ वर्षों पूर्व जिन सिद्धान्तो की प्रतिष्ठा पुनः दिलाई।
महावीर ने देन दी है, वे वर्तमान युग में भी उतने ही महावीर के सन्तुलित और सुखी जीवन जीने के। लिए चिन्तन मे अनेकान्त, भाषा में स्याद्वाद और प्राचार.
उपयोगी सिद्ध हो रहे है बल्कि आज तो उन सिद्धान्तों की
और भी ज्यादा आवश्यकता है । हिसा और भयसे पीड़ित व्यवहार के लिए अणुव्रत की कला सिखाई। दूसरे के विचारो के प्रति सहिष्णुता रखना और दूसरे सिद्धान्त के
प्राणियो के लिए अहिंसा के सिवाय कोई मार्ग नहीं।
अणु अस्त्रो की होड़ मे लगे देश भी विरोधों के बावजूद प्रति अनादर नहीं करना जब हम स्वीकार लेते है तो सहज ही संधर्ष, वैमनस्य और विवाद कम हो जाता है।
एक मंच पर बैठकर सह-अस्तित्व का चिन्तन करते है। आज के शब्दों में अनेकान्त का चिन्तन प्रजातात्रिक
वैज्ञानिक अपने द्वारा बनाये हुए विनाश के हथियारों से पद्धति और समाजवादी समाज-रचना की प्राधार-शिला
खुद परेशान है और बहुमत से स्वीकार करने लगे है कि है। इसीलिए राष्ट्रसन्त विनोबा भावे एवं काका कालेलकर
संयम और अहिंसा के बिना दुनिया में सुख-शांति सम्भव जैसे चिन्तक भी मानते है कि अनेकान्त दर्शन भगवान
नहीं, ऐसी स्थिति मे भगवान महावीर ने जो पहिसा महावीर की मौलिक देन है।
मोर सयम का मार्ग बताया, वही एकमात्र पौषधि है। समाज-रचना के लिए महावीर ने अपरिग्रह पर बल
___सत्य हमेशा सत्य रहता है। उसे काल अथवा परिदिया। सग्रह, शोषण के विरुद्ध मावाज उठाते हुए धन
स्थिति धूमिल नहीं कर सकती। वह अटल ध्र व की
तरह जगती को मालोकित करता रहता है। भगवाम उपार्जन में भी महावीर ने प्रामाणिकता और न्याय का
महावीर के क्रांतिकारी चिन्तन से वर्तमान युग की सन्देश दिया। एक मोर मुनियों के लिए जहां महावीर ने
समस्याओं का सहज समाधान मिल सकता है। पावश्यक पूर्णतः अपरिग्रह का व्रत बताया, वहां गृहस्थों के लिए परि
है कि उनके द्वारा चलाए गए अहिंसा, अनेकान्त और प्रह परिणाम का उपदेश दिया। मंग्रह की सीमा करने के लिए उपदेश दिया। अपार सम्पत्ति और अतुल वैभव से
अपरिग्रह को जीवन-व्यवहार मे उतारें। हमें माशा सम्पन्न प्रानन्द श्रावक परिग्रह परिमाण व्रतधारी थे।
करनी चाहिए कि महावीर के इस २५००वें निर्वाण सम्पत्ति मौर वैभव के सीमांकन के बाद धन का अपने महोत्सव वर्ष में सारा विश्व उनके जीवन एवं दर्शन को सिए ही नहीं बल्कि जन-कल्याण के लिए उपयोय करना समझकर व्यवहार में अपने जीवनमे उतारेगा। 00
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वैशाली-गणतन्त्र
0 श्री राजमत न दिल्ली वंशाली-गणतन्त्र के वर्णन के बिना जैन राजशास्त्र "हे भिक्षुषों ! देव-सभा के समान सुन्दर इस लिच्छविका इतिहास अपूर्ण ही रहेगा। वैशाली-गणतन्त्र के निर्वा- परिषद को देखो। चित राष्ट्रपति ('राजा' शब्द से प्रसिद्ध) चेटक की पुत्री महात्मा बुद्ध ने वैशाली-गणतन्त्र के मादर्श पर भिक्ष त्रिशला भगवान् महावीर की पूज्य माता थीं" । (श्वे- संघ की स्थापना की। भिक्षु संघ के छन्द (मत-दान) ताम्बर-परम्परा के अनुसार, त्रिशला चेटक की बहन थी) तथा दूसरे प्रबन्ध के ढंगों में लिच्छवि (वैशाली) गणतंत्र भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ वैशालीके एक उपनगर का अनुकरण किया गया है।"(राहल सांकृत्यायन पुरातत्व'कुण्डग्राम' के शासक थे । अत: महावीर भी 'वैशालिक' निबन्धावली-पृष्ठ १२) यद्यपि बुद्ध शाक्य-गणतन्त्र से अथवा 'वैशालीय' के नाम से प्रसिद्ध थे । भगवान महा- सम्बद्ध थे (जिसके अध्यक्ष बुद्ध के पिता शुद्धोदन थे). वीर ने संसार-त्याग के पश्चात् ४२ चातुर्मासो मे से छः तथापि उन्होंने वैशाली-गणतन्त्र की पद्धति को अपनाया। चातुर्मास वैशाली में किये थे। कल्प-सूत्र (१२२) के अनु- हिन्दू राजशास्त्र के विशेषज्ञ श्री काशीप्रसाद जायसवाल मार महावीर ने बारह चातुर्मास वैशाली में व्यतीत किये के शन्दों मे "बौद्ध संघ ने राजनैतिक संघों से अनेक बातें
प्रहण की। बुद्ध का जन्म गणतन्त्र में हमा था.। उनके महात्मा बुद्ध एवं शाली:
पड़ोसी गणतन्त्र-संघ ये मोर वे उन्हीं लोगों में बड़े हाम। ___ इसका यह तात्पर्य नहीं कि केवल महावीर को ही उन्होने अपने संघ का नामकरण 'भिक्षु-संघ' अर्थात् भिक्षुओं वैशाली प्रिय थी। इस गणतन्त्र तथा नगर के प्रति महात्मा का गणतन्त्र किया। अपने समकालीन गुरुमों का अनुकरण बद्ध का भी मधिक स्नेह था। उन्होंने कई बार वैशाली करके उन्होंने अपने धर्म-संघ की स्थापना में गणतंत्र में बिहार किया था तथा चातुर्मास बिताए । निर्वाण से संघों के नाम तथा संविधान को ग्रहण किया । पालि-मूत्रा पूर्व जब बुद्ध इस नगर में से गुजरे तो उन्होंने पीछे मुड़ में उपत, बुद्ध के शब्दों के द्वारा राजनैतिक तथा धार्मिक कर वैशाली पर दृष्टिपात किया और अपने शिष्य प्रानन्द संघ व्यवस्था का सम्बन्ध सिद्ध किया जा सकता है।" से कहा, "प्रानन्द ! इस नगर में यह मेरी अन्तिम यात्रा विद्वान लेखक ने उन सात नियमों का वर्णन किया है होगी।" यहीं पर उन्होने सर्वप्रथम भिक्षुणी-संघ की स्था- जिनका पूर्ण पालन होने पर वज्जि-गण (लिन्यवि एव पना की तथा प्रानन्द के अनुरोध पर गौतमी को अपने विदेह) निरन्तर उन्नति करता रहेगा । इन नियमों का संघ में प्रविष्ट किया। एक अवसर पर जब बुद्ध को वर्णन महात्मा बुद्ध ने मगघराज अजात शत्रु (जो जिलिच्छिवियों द्वारा निमन्त्रण दिया गया तो उन्होंने कहा- गण के विनाश का इच्छुक था) के मन्त्री के सम्मुख किया।
१. मुनि नथमल-श्रमण महावीर, पृ. ३०३ २. इदं पच्छिमकं आनन्द ! तथागतस्स बेमालिद
स्सनं भविम्यति । ३. उपाध्याय श्री मुनि विद्यानन्द कृत 'तीर्थकर वर्षमान
से उधत
यंस भिक्खवे ! भिवम्वनं देवा तावनिमा अदिट्टा, प्रलोकेथ भिक्खवे! लिच्छवनी परिसं. अपलोकेष । भिक्खये ! लिच्छवी परिसर! उपसंहरथ भिक्सवे।
लिच्छवे! लिच्छवी परिसर तावनिसा सदसति ॥ ४. श्री काशी प्रसाद जायसवाल-हिन्द योनिटी
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५८ वर्ष २८ कि..
अनेकान्त
था। बुद्ध ने भिक्ष-संघ को भी इन नियमो के पालन की शूरमेन १३ अस्सक (अश्मक) १४. अवन्ति १५. गन्धार प्रेरणा दी थी।
१६ कम्बोज ।" इनमे में 'वज्जि' का उदय विदेह साम्राज्य बीड य एवं वैशाली:
के पतन के बाद हुमा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैशाली-गणतन्त्र के इति- जैन ग्रंथ 'भगवती मूत्र' में इन जनपदों की सूची भिन्न हास तथा कार्य प्रणाली के ज्ञान के लिए हम बौद्ध ग्रन्थो के रूप में है जो निम्नलिखित है -- १. अंग २. वंग ३. मगह ऋणी है । विवरणों की उपलब्धि के विषय में ये विवरण (मगध) ४. मलय ५. मालव (क) ६. प्रच्छ ७. वच्छनिराले है। सम्भवत: इसी कारण श्री जायसवाल ने इस (वत्म) ८. कोच्छ (कन्छ ?)पाढ (पाण्ड्य या पौड़) गणतंत्र को "विवरणयुक्त गणराज्य' Recorded republic १०. लाढ (लाट या गट) ११. वज्जि (वज्जि) १२. शब्द से सम्बोधित किया है। क्योंकि अधिकांश गणराज्यो मोलि (मल्ल) १३ काशी १४. कोसल १५ प्रवाह १६. का अनुमान कुछ सिक्कों या मुद्राग्रो से या पाणिनीय व्या. सम्मत्तर (सम्भोत्तर ?)। अनेक विद्वान इस सूची को करण के कुछ सूत्रों में प्रथवा कुछ ग्रन्थो मे यत्र-तत्र उप- उत्तरकालीन मानते है परन्तु यह सत्य है कि उपर्युक्त लब्ध संकेतों से किया गया है। इसी कारण विद्वान लेखक सोलह जनपदो मे काशी, कोशल मगध, अवन्ति तथा ने इसे 'प्राचीनतम गणतन्त्र' घोषित किया है, जिसके वज्जि सर्वाधिक शक्तिशाली थे। लिखित साक्ष्य हमें प्राप्त है और जिसकी कार्य-प्रणाली की वंशाली गणतात्र की रचना : झांकी हमें महात्मा बुद्ध के अनेक सम्वादों में मिलती है। वज्जि' नाम है एक महासंघ का, जिसके मुख्य अग
वैशाली गणतन्त्र का अस्तित्व कम से कम २६०० थे-जातक. लिच्छवि एवं वजि । ज्ञातृकों से महावीर के वर्ष पूर्व रहा है । २५०० वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने ७२ पिता सिद्धार्थ का सम्बन्ध था (राजधानी-कुण्डग्राम) वर्ष की प्रायु में निर्वाण प्राप्त किया था। यह स्पष्ट ही लिच्छवियों की राजधानी वैशाली की पहचान बिहार के है कि महावीर वैशाली के अध्यक्ष चेटक के दौहित्र थे। मजप्फरपुर जिले में स्थित बमाढ़-ग्राम से की गई है। महात्मा बुद्ध महावीर के समकालीन थे। बुद्ध के निर्वाण वजि को एक कुल माना गया है जिसका सम्बन्ध वैशाली के शीघ्र पश्चात बद्ध के उपदेशों को लेन-बद्ध कर लिया मे था । इम महामंध की गजधानी भी वैशाली थी। गया था। वैशाली में ही बौद्ध भिक्षों की दूसरी संगीति लिच्छवियो के अधिक शक्तिशाली होने के कारण इस का प्रायोजन (बड के उपदेशों के संग्रह के लिए) हुमा महासंघ का नाम लिच्छवि-सघ' पड़ा। बाद में, राजधानी
बैशाली की लोकप्रियता से इसका भी नाम वैशाली-गणवैशाली गणतन्त्र से पूर्व (छठी शताब्दी ई० पू०) तन्य हो गया। क्या कोई गणराज्य था? वस्तुनः इस विषय में हम अंध- बज्जि एवं लिच्छवि : कार में है। विद्वानों ने ग्रंथों में यत्र-तत्र प्राप्त शब्दों से बौद्ध म.हित्य में यह भी ज्ञात होता है कि वज्जिइसका अनुमान लगाने का प्रयत्न किया है । वैशाली से महासंघ में अष्ट कुल (विदेह. ज्ञातृक, लिच्छवि, जि, पूर्व किसी अन्य गणतन्त्र का विस्तृत विवरण हमें उपलब्ध उग्र, भोग, कौरव तथा ऐक्ष्वाकु) थे । इनमे भी मुख्य थेनहीं है। बौद्ध ग्रंथ 'अंगुत्तर निकाय' मे हमें ज्ञात होता है वजि तथा लिच्छबि । बौदध-दर्शन तथा प्राचीन भारतीय कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से पहने निम्नलिखित मोलह भगोल के अधिकारी विमान श्री भरतसिंह उपाध्याय ने 'महाजन पद' थे----१. काशी २. कोसल ३ अंग ४. मगध छपने ग्रथ (बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ ३८३. ५. बज्जि (वजि) ६. मल्ल ७. चेतिय (चेदि) ८. वंस. ८४ (हिन्दी-माहित्य सम्मेलन प्रयाग संवत् २०१८) मे (बत्म कुरु १०. पंचाल ११. मच्छ (मत्स्य) १२. निम्नलिखित मत प्रगट विया है -"वस्तृतः मिच्छवियो ५. पुरातत्व-निवाधावली-२० ।
कलकत्ता विश्वविद्यालय, छठा संस्करण, १६५३। ६. रे चौधुरी, पोलिटिकल हिस्ट्रीशाफ ऐंशियेंट इण्डिया पृष्ठ ६५
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वैशालीतन्त्र
और बज्जियों में भेद करना कठिन है, क्योंकि बज्जिन यु०) के उल्लेखों से भी वजि (वैपाली, लिच्छवि) केवल एक अलग जाति के थे, बल्कि लिच्छवि मादि गण- गणतन्त्र की महत्ता तथा ख्याति का अनुमान लगाया जा तन्त्रों को मिला कर उनका सामान्य अभिधान वज्जि सकता है। पाणिनीय 'प्रष्टाध्यायी में एक सूत्र है-मा. (सं० वृजि) था और इसी प्रकार वैशाली न केवल वज्जि वज्जयो: कन ४।२।३१. इसी प्रकार, कौटिल्य ने 'मर्थसंघ की ही राजधानी थी बल्कि वज्जियो, लिच्छवियों तथा शास्त्र' मे दो प्रकार के संघों का अन्तर बताते हुए लिखा अन्य सदस्य गणतन्त्रों की सामान्य राजधानी भी थी। है-"काम्बोज, सुराष्ट्र मादि क्षत्रिय श्रेणियाँ कृषि, व्या. एक अलग जाति के रूप में वज्जियों का उन्लेख पाणिनि पार तथा शास्त्रो द्वारा जीवन-यापन करती है मौर लिच्छने किया है और कौटिल्य ने भी उन्हें लिच्छवियों से पृथक् विक, वृजिक, मल्लक, मद्रक, कुकुर, कुरु, पञ्चाल प्रादि बताया है। यूनान चाड ने भी वज्जि (फ-लि-चिह) श्रेणियां राजा के समान जीवन बिताती है।' देश और वंशाली (फी-शे-ली) के बीच भेद किया है। परन्तु पालि त्रिपिटक के ग्राधार पर ऐसा विभेद करना
रामायण तथा विष्णु पुराण के अनुसार, वंशालीसम्भव नही है। महापरिनिर्वाण सूत्र में भगवान् कहते
नगरी की स्थापना इक्ष्वाकु-पुत्र विशाल द्वारा की गई है। है, "जब तक बज्जि लोग सात अपरिहाणीय धर्मों का
विशाल नगरी होने के कारण यह 'विशाला' नाम से भी पालन करते रहेगे. उनका पतन नही होगा।" परन्त संयत्त प्रसिद्ध हुई। वृद्ध काल में इसका विस्तार नौ मील तक निकाय के कलिंगर सुत्त मे कहते है, "जब तक लिच्छवि
__था। इसके अतिरिक्त, 'वैशाली, धन-धान्य-समृद्ध तथा
था। लोग लकड़ी के बने तख्तो पर सोयेगे और उद्योगी बने जन-संकुल नगरी थी। इसमे बहुत से उच्च भवन, शिखर रहेगे; तब तक अजातशत्र उनका कुछ नही बिगाड़ सकता।' युक्त प्रासाद, उपवन तथा कमल-सगेवर थे । (विनयइससे प्रगट होता है कि भगवान बुद्ध वज्जि और लिच्छवि पिटक एवं लालत विस्तर) बौद्ध एवं जन-दोनो धमों के शब्दों का प्रयोग पर्यायवची प्रथं में ही करते थे। इसी प्रारम्भिक इतिहास से वैशाली का घनिष्ट सम्बन्ध रहा प्रकार विनय-पिटक के प्रथम पाराजिक में पहले तो वज्जि है। "ई० पू० पांच सौ वर्ष पूर्व भारत के उत्तर पूर्व भाग प्रदेश में दुभिक्ष पड़ने की बात कही गई है (पाराजिक मे दो महान् धमों के 'महापुरुषो' की पवित्र स्मृतियां पालि, पष्ठ १६, श्री नालन्दा-संस्करण) और ग्रागे चल वैशाली में निहित है।"". बनी हुई जनसंख्या के दबाव से कर वही (पृष्ठ २२ मे) एक पुत्रहीन व्यक्ति को यह चिता तीन बार इसका विस्तार या । तीन दीवारें इसे घर तो करते. दिखाया गया है कि कही लिच्छवि उनके धन को थी। "तिन्बती विवरण भी इसकी समृद्धि की पुष्टि करने न ले लें। इसमे जीपग्जिरों और लिच्छवियो की अभि- है। तिब्वती विवरण (सुल्य ३८0) के अनुसार, वैशाली जता प्रतीत होती है।"
में तीन जिले थे। पहले जिन में स्वर्ण-शिखरो से युक्त विद्वान् लेखक द्वारा प्रदर्शित इस अभिन्नता से मैं ... पर थे, दूसरे जिले में चांदी के शिखरो से युक्त. सहमत हूँ । इस प्रसंग में 'बज्जि' से बद्ध का तात्पर्य १४०००, घर थे तथा तीसरे जिले में तारे के शिखरो से लिच्छवियो से ही था और इमी प्राधार पर वज्जि सबधी युक्त २१००० घर थे। इन जिले में उत्तम, मध्यम तथा निम्न बुद्ध-वचनो की व्याख्या होनी चाहिए।
वर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार रहते थे। अन्य ग्रंथों में उल्लेख :
(रारुहिल लाइफ आफ बुद्ध-पृष्ठ ६२)". । प्राप्त विपाणिनि (५०० ई० पू०) और कौटिल्य (३०० ई. . रणो के अनुसार वैशाली की जनसंख्या १६००० ७. काम्बोज सुराष्ट्र क्षत्रिय श्रेण्यादयो वार्ता- ___ ऐण्ड इन्स्टीट्यूशंस, (१९६३) पृष्ट ५०६.
शस्त्रोपजीविनः लिच्छिविक वृजिक-मल्लक- ६. बी. सी ला-हिस्टोरिकल ज्योग्रफी आफ ऐंशियेंट. कूकर-पाञ्चालादयो राजशब्दोपजीविनः ।
इण्डिया, फाइनेंस' में प्रकाशित (१९५४) पृष्ठ २६६. ८. बी. ए. सालतोर-ऐशियेंट इण्डियन पोलिटिकल थौट ११. बही--पृष्ठ-२६६.६७. .
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६०, वर्ष २८, कि
अएवं निवासी:
कहा गया है। व्याकरण की दृष्टि से, 'लिच्छवि' शब्द जहाँ तक इसकी सीमा का सम्बन्ध है, गंगा नदी इसे की व्युत्पत्ति 'लिच्छु, शब्द से हुई है। यह किसी वंश का मगध साम्राज्य से पृथक् करती थी। धीरे चौधरी के नाम रहा होगा । बौद्ध ग्रंथ 'खुदकपाठ' ) षषोषशब्दों में, "उत्तर दिशा में लिच्छवि-प्रदेश नेपाल तक कृत) की अट्ठकथा में निम्नलिलित रोचक कथा है-काशी विस्तृत था।" श्री राहल सांकृत्यायन के अनुसार, वज्जि- को रानी ने दो जुड़े हुए मांस-पिण्डो को जन्म दिया और प्रदेश में माधुनिक चम्पारन तथा मजज्फरपुर जिलों के उनका गगा नदी में फिकवा दिया। किसी साध ने उनको कुछ भाग, दरभंगा जिले का अधिकांश भाग, छपरा जिल उठा लिया और उनका स्वयं पालन-पोषण किया। वे के मिर्जापुर एवं परसा, सोनपर पुलिस-क्षेत्र तथा कुछ निच्छवि (त्वचा-रहित) थे। काल-क्रम से उनके अंगों का अन्य स्थान सम्मिलित थे।
विकसित हुप्रा और वे बालक-वालिका बन गये। बड़े होने बसाढ में हए पुरातत्व विभाग के उत्खनन से इस
पर वे दूसरे बच्चों को पीड़ित करने लगे, अतः उन्हें दूसरे स्थानीय विश्वास की पुष्टि होती है कि वहा राजा विशाल
बालको से अलग कर दिया गया। (वज्जितन्व-जिका गढ़ था । एक मुद्रा पर अंकित था-'वेशालि इनु · ट
तब्य)। इस प्रकार ये 'वज्जि' नाम से प्रसिद्घ हुए। ..'कारे सयानक ।" जिसका अर्थ किया गया, "वैशाली साधु ने उन दोनों का परस्पर विवाह कर दिया और राजा का एक भ्रमणकारी अधिकारी।" इस खदाई में जैन तीर्थ से ३०० योजन भूमि उनके लिए प्राप्त की। इस प्रकार दूरों की मध्यकालीन मूर्तियां मी प्राप्त हुई है।
उनके द्वारा शासित प्रदेश 'वज्जि-प्रदेश' कहलाया।" वंशाली की जनसंख्या के मुख्य अंग थे-क्षत्रिय । श्रीर चौधरी के शब्दों में "कट्टर हिन्दू-धर्म के प्रति उनका सात धर्म: मैत्री भाव प्रकट नहीं होता। इसके विपरीत, ये क्षत्रिय
मगधराज अजात शत्रु साम्राज्य-विस्तार के लिए जैन, बौद्ध जैसे पब्राह्मण सम्प्रदायों के प्रबल पोषक थे।
। लिच्छवियो पर आक्रमण करना चाहता था। उसने अपन
म मनुस्मति के अनुसार, "झल्ल, मल्ल, द्रविड़, खस आदि के मन्त्री बसकार (वर्षकार) को बद्ध के पास भेजत हुए समान वे वात्य राजन्य थे।"१२ यह सुविदित है कि प्रात्य कहा- ब्राह्मण ! भगवान बद्ध के पास जाग्रो पौर का अर्थ यहां जैन है, क्योकि जैन साधु एवं धावक हिसा मेरी पोर से उनके चरणों में प्रणाम करो। मेरी ओर से पत्य, पौर्य, ब्रह्मचर्य पार परिपह इन पांच लोग उनके पारोग्य तथा कुशलता के विषय में पूछ कर उनसे
उपयुक्त श्लोका र लिच्छ- निवेदन करो कि वैदेही-पुत्र मगधराज प्रजातशत्रु ने वियों को निच्छवि' कहा गया है। कुछ विद्वानों ने लिच्छ- वज्जियों पर आक्रमण का निश्चय किया है और मेरे ये विकों की तिब्बती उदगम' सिंदद करने का प्रयत्न किया शब्य कहो--'वज्जि-गण चाहे कितने शक्तिशाली हो, मै हैं परन्तु यह मत स्वीकार्य नहीं है। अन्य विद्वान के अनु- उनका उन्मूलन करके पूर्ण विनाश कर दूंगा। इसके बाद सार लिच्छवि भारतीय क्षत्रिय है, यद्यपि यह एक तथ्य सावधान होकर भगवान तथागत के बचन सुनो।"" और है कि लिच्छवि-गणतन्त्र के पतन के बाद वे नेपाल चले पाकर मुझे बताभो । तथागत का वचन मिथ्या नहीं होता। गये और वहां उन्होंने राजवंश स्थापित किया ।"
मजात शत्रु के मन्त्री के वचन सुन करप ने मंत्री लिडर' शब्द की व्युत्पति :
को उत्तर नहीं दिया बल्कि अपने शिष्य प्रानन्द से कुट - जैन-ग्रंथों में लिच्छवियों को लिच्छई' अथवा 'लिच्छवि प्रश्न पूछे और तब निम्नलिखित सात अपरिहानीय धमों - १२: झल्लो मल्लाश्च राजन्या: प्रात्यालि लिच्छिविरेवधो १४. री डेबिड्स (अनुवाद) बुद्ध-सुस्त (सेक्रिड-बुक्स
... नटपच करणश्च खसो द्रविड एव च। १०२२. आफ ईस्ट-भाग ११-मोतीलाल बनारसीदास, देहली १३. भरतसिह उपाध्याय--वही-पुष्ट ३३१.
पृष्ठ २३-४,
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बंशाली-गणतन्त्र
(धम्म) का वर्णन किया
अनुष्ठानों की अवमानना न करेंगे; १. अभिण्ड मनिपाता सन्निपाता बहुला भविस्संति। ७. बज्जीन अरहतेसु धम्मिका रक्खावरण- गुत्ति सुसं
हे मानन्द ! जब तक बज्जि पूर्ण रूप से निरन्तर विहिता भवि सति । परिषदो क प्रायोजन करते रहेगे!
___ जब तक वज्जियों द्वारा प्ररहन्तो को रक्षा, सुरक्षा २. समग्गा सन्निपातिस्सति समग्गा वटु हिस्संति एव समर्थन प्रदान किया जायेगा; तब तक वज्जियो का समगा सघकरणीयानि करिस्सति ।
पतन नहीं होगा, अपितु उत्थान होता रहेगा।" जब तक वज्जि मंगठित होकर मिलते रहेग, सगठित प्रानन्द को इस प्रकार बताने के बाद बुद्ध ने वस्सहोकर उन्नति करते रहेंगे तथा समठित होकर कर्तव्य कर्म कार से कहा, "मैने ये कल्याणकारी सात धर्म वज्जियों को करते रहेगे:
वैशाली मे बताये थे।" इस पर वम्सकार ने बुद्ध से ३. अप्पअंत न पज्जापेस्संति, पञ्चतं न समुच्छिन्दि- कहा, 'हे गौतम ! इस प्रकार मगधराज वज्यिो को युद्ध स्संति यथा, पञतंषु सिक्खापदेसु समादाय व तस्सति । में तब तक नहीं जीत सकते, जब तक कि वह कुटनीति
जब तक वे अप्रज्ञप्त (अस्थापित) विधानो को स्था- द्वारा उनके संगठन को न तोड़ दें।" बुद्ध ने उत्तर दिया, पित न करेंगे स्थापित विधानों का उल्लंघन न करेंगे तथा "तुम्हारा विचार ठीक है।" इसके बाद वह मंत्री चला पूर्व काल में स्थापित प्राचीन वज्जि-विधानों का अनुसरण गया । करते रहेगे;
वस्सकार के जाने पर बुद्ध ने प्रानन्द से कहा४. ये त मपितरो संघपरिणायका ते सक्करिस्संति "राजगृह के निकट रहने वाले सब भिक्षनो को इकट्ठा गरु करिस्संति मानेस्संति पूजेस्संति तेसञ्च सोतन्नं मनि. करो।" तब उन्होंने भिक्षु सघ के लिए निम्नलिखित सात म्मति ।
धर्मों का विधान कियाजब तक वे जिज-पूर्वजो तथा नायको का सत्कार, १.हे भिक्षुओं ! जब तक भिक्षु-गण पूर्ण रूप से मम्मान, पूजा नथा ममर्थन करते रहेगे तथा उनके वचनो निरन्तर परिषदो मे मिलते रहेंगे: को ध्यान से सुन कर मानते रहेगे;
२. जब तक वे संगठित होकर मिलन रहेंगे, उन्नति ५. य ते धज्जीनं वज्जिमहल्लका ते सक्करिस्संति, करते रहेगे तथा संघ के कर्तव्यो का पालन करते रसँग: गुरु करिस्सन्ति मानस्संति, पूजेस्सति, या ता कुलिस्थियो ३. जब तक वे किसी ऐसे विधान को स्थापित नही कुलकुपारियो तान पाकस्स पसह्य वास्सेन्ति । करंगे जिसकी स्थापना पहले न हुई हो, स्थापित विधानो
जब तक व वज्जि-कुल की महिलाओं का सम्मान का उल्लंघन नही करेंगे तथा मत्र के विधानो का अनगकरते रहेगे और कोई भी कुलस्त्री या कुल-कुमारी उनके रण करेंगे। सारा बल पूर्वक अपहत या निरुद्ध नहीं की जायेंगी;
४. जब तक वे संघ के अनुभवी गुरुनों, पिता नया ६. वज्जि चेतियानि इन्मतरानि चेव बाहिरानि च नायको का सम्मान तथा समर्थन करते रहेगे तथा उनके तानि सक्करिस्संति, गरु करिस्संति, मानेस्सति, पूजेस्संति, वचनों को ध्यान से सुन कर मानते रहेगे: तसञ्च दिन्नपुब्बं कतपुब्वं धाम्मिकं बलि नो परिहास्सति ५. जब तक वे उस लोभ के वशीभत न होगा जो परिवारसति ।
उममे उत्पन्न होकर दुःख का कारण बनता है। जब तक देनगर या नगर से बाहर स्थित स्याँ६. जब तक वे सयमित जीवन में प्रानन्द का अनाव (पूजा-स्थानी) का अादर एवं सम्मान करते रहेगे और करेंग: पहले दी गई धार्मिक बलि तथा पहले किए गए धार्मिक ७. जब तक वे अपने मन का इस प्रकार मयमित
१५. पालि-पाठ राधाकुमुद मुखर्जी के ग्रन्थ 'हिन्दू सभ्यता'
(अनुवादक-डा. वासुदेव शरण अग्रवाल) द्वितीय
मस्करण १९५८- पृष्ठ १६६-२०० से उबुन । नियम संख्या मैन दी है। १६. वही-पृष्ठ ६७.
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६२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
करेंगे जिससे पवित्र एवं उत्तम पुरुष उनके पास आयें और ज्येष्ठ जनो के सम्मान के नियम का पालन नहीं होता। पाकर सुख-शान्ति प्राप्त करे;
प्रत्येक स्वय को 'राजा' समझता है । 'मैं राजा हूँ ! मैं तब तक भिक्षु-सघ का पतन नहीं होगा, उत्थान ही
थान हा राजा हूँ !' कोई किसी का अनुयायी नहीं बनता।". इस
राजा है। कोई किसी का नया होगा। जब तक भिक्षुग्रो मे ये सात धर्म विद्यमान है, जब
उद्धरण से स्पष्ट है कि कुछ महत्त्वाकाक्षी सदस्य गण
रण तक वे इन धर्मो मे भली-भाँति दीक्षित है, तब तक उनकी राजा (अध्यक्ष) बनने के इच्छुक थे। उन्नति होती रहेगी।
रांसत्सदस्यो की इतनी बड़ी संख्या से कुछ विद्वानी महापारानब्बान सुत्त क उपयुक्त उद्धरण से वशाला- का अनुमान है कि वैशाली की सत्ता कुछ कुलो (७७०७) गणतन्त्र की उत्तम व्यवस्था एवं अनुशासन की पुष्टि होती में निहित थी और इसे केवल 'कूल-तन्य' कहा जा सकता है। वैशाली के लिए विहित सात धर्मों को (कुछ परि- बाबा,
है। इस मान्यता का प्राधार यह तथ्य है कि ७७०७, वर्तित करके) बुद्ध ने अपने संघ के लिए भी अपनाया;
राजाग्रो का अभिषेक एक विशेषतया सुरक्षित सरोवर इससे स्पष्ट है कि २६०० वर्ष पूर्व के प्राचीन गणतन्त्रों में
(पुष्करिणी) में होता था।". स्वर्गीय प्रो. आर. डी.वैशाली गणतन्त्र श्रेष्ठ तथा योग्यतम था।
भण्डारकर का निष्कर्ष था . 'यह निश्चित है कि वैशाली लिच्छवियो के कुछ अन्य गुणा ने उन्हें महान् बनाया। संघ के अंगीभत कुछ कलों का महासंघ ही यह गणराज्य उनके जीवन में प्रात्म-सयम की भावना थी। वे लकड़ी था।" श्री जायसवाल तथा श्री अल्तेकर जैसे राजशास्त्र के तहत पर सोते थे, वे सदैव कर्तव्यनिष्ठ रहते थे। जब विद इस निष्कर्ष से सहमत नही है । श्री जायसवाल ने तक उनमे ये गुण रहे, प्रजातशत्रु उनका बाल बाँका भी हिन्दू राजशास्त्र' (पृष्ठ ४४) में लिखा है-"इस साक्ष्य न कर सका।"
से उन्हें 'कुल' शब्द से सम्बोधित करना आवश्यक नहीं। शासन-प्रणाली:
छठा-शताब्दी ई०पू० के भारतीय गणतन्त्र बहुत पहले लिच्छवियों के मुख्य अधिकारी थे-राजा, उपराजा,
समाज के जन-जातीय स्तर से गुजर चुके थे । ये राज्य, सेनापति तथा भाण्डागारिक । इनसे ही सभवत. मन्त्रि
गण और संघ थे, यद्यपि इनमे से कुछ का आधार राष्ट्र मंडल की रचना होती थी। केन्द्रीय ससद का अधिवेशन
या जनजाति था; जैसा कि प्रत्येक राज्य-प्राचीन या अाधुनगर के मध्य स्थित सन्थागार (सभा-भवन) म हाता था। निक का होता है।
ससद के १७०७ सदस्या (राजा' नाम स डा० ए० ऐम. अस्तकर का यह उद्धरण विशेषत. यक्त) में निहित थो।" सम्भवत: इनमें से कुछ 'राजा' द्रष्टव्य हे-यह स्वीकार्य है कि यौधेय, शाक्य, मालव तथा उग्र थे और एक दूसरे की बात नहीं सुनत थे। इसी कारण लिच्छवि गणराज्य प्राज के अर्थो में लोकतन्त्र नही थे। ललितविस्तर-काव्य मे ऐसे राजाग्यो की मानो भर्त्सना अधिकाश आधुनिक विमित लोकतन्यो के समान सर्वोच्च की गई है-"इन वैशालिको में उच्च, मध्य वदध एव एवं सार्वभौम शक्ति समस्त वयस्क नागरिकों की सस्था १७. देखिए श्री भरतसिंह उपाध्याय - कृत 'बद्ध कालीन मगधराज वैदेहि-पुत्र अजातशत्र को उनके दांव-पेंच भारतीय भूगोल' (पृष्ठ ३८५-८६) का निम्नलिखित
मिल जायेगा।" उद्धरण ("संयुक्त निकाय पृष्ठ ३०८ से उद्धृन. १८. तस्य निचकालं रज्जं कारेत्वा वसंमानं येव राजन "भिक्षुत्रों ! लिच्छवि लकड़ी के बने तस्ते पर सोते
सतसहस्सानि सतसतानि तत्र च । राजानो होति तत्त है। अप्रमत्त हो, उत्साह के साथ अपने कर्तव्य को पूरा
का, ये व उपराजायो तत्तका, सेनापतिनो नत्तका, करते है। मगधराज वैदेही पुत्र अजातशत्रु उनके तत्तका भंडागारिका। J. I. S. 0. 4. विरुद्ध कोई दाव-पेंच नही पा रहा है । भिक्षुओं ! १६. नोच्च-मध्य-वृध्ध ज्येष्ठानपालिता, एकक एव मन्यते भविष्य मे लिच्छदि लोग बड़े सुकूमार और कोमल अहं राजा, अहं राजेति, न च कस्यच्छिष्यत्वमुपगच्छति। हाथ-पैर वाले हो जायेगे । वे गद्देदार विछावन पर २०. वैशाली-नगरे गणराजकुलाना अभिषेकमंगलपोखरिणी गुलगुले तकिए लगाकर दिन-चढ़े तक सोये रहेंगे । तब -जातक ४११४८.
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वैशाली-गणतन्त्र
में निहित नहीं थी। फिर भी इन राज्यो को हम गण- उन्होंने अपने संदेश भेजने के लिए दूत नियुक्त किए (वेशाराज्य कह सकते हैं। पार्टी म, गेम, मध्य-युगीन लिकाना लिच्छिविनां वचनेन) वेनिम, संयुक्त नीदरलण्ड और पोनर को गणराज्य' कहा न्याय व्यवस्था-न्याय-व्यवस्था प्रष्ट कुल सभा के जाता है; यद्यपि उन में किगी मे पूर्ण लोकतन्त्र नही हाथ मे थी। श्री जायसवाल ने 'हिन्दू राजशास्त्र' (पृष्ठथा । इग मद्धान्तिक प्रचमि नया तिहागिक माक्ष्य
४३.४७) मे इनको न्याय प्रक्रिया का निम्नलिखित वर्णन के आधार पर निश्चय ही प्राचीन भारतीय गणराज्यों
किया है -"विभिन्न प्रकरणो (पवे-पटुकान) पर गणको उ ही अर्थों में गणराज्य कहा जा सकता है जिस अर्थ ।
राजा के निर्णयो का विवरण सावधानी पूर्वक रखा जाता मे यूनान तथा रोम के प्राचीन राज्यों को गणराज्य कहा था जिनम अपराधी नागरिका क अपराधा
था जिनमे अपराधी नागरिको के अपराधो तथा उनके जाता है। इन राज्यों में सार्वभौम मना विमी एक व्यक्ति दिए गए दण्डो का विवरण अकित होता था । विनिश्चय या अल्पसंख्यक वर्ग को न मिल कर बह-सम्यक वर्ग को महामात्र (न्यायालयो) द्वारा प्रारम्भिक जांच की जाती प्राप्त थी।"५१.
थी । (ये साधारण अपराधो तथा दीवानी प्रकरणों के महाभारत में भी 'प्रत्येक घर मे राजा' होने का वर्णन लिए नियमित न्यायालय थे) । अपोल-न्यायालयों के है।" उपर्युक्त विद्वान के मतानुसार, "इम वर्णन मे छोटे अध्यक्ष थे -- वोहारिक (व्यवहारिक) । उच्च न्यायालय गणराज्यों की तथा उन क्षत्रिय कुलो की चर्चा है जिन्होने के न्यायाधीश गधार' कहलाते है। अन्तिम अपील के उपनिवेश स्थापित करके राजपद प्राप्त किया था। मयुक्त लिए प्रप्ट-कलक' होते थे। इनमें से किसी भी न्यायालय गज्य अमरीका में मूल उपनिवेश स्थापको को नवागन्तुको द्वारा नागरिक को निरपराध घोषित कर के मुक्त किया की अपेक्षा कुछ विशेषाधिकार प्राप्त किए।
जा सकता था। यदि सभी न्यायालय किसी को अपराधी 'मलाबार गजटियर' के आधार पर श्री अम्बिका- राते तो मन्त्रिमण्डल का निर्णय अन्तिम होता था। प्रसाद वाजपेयी ने 'नय्यरो के एक राघ' की ओर ध्यान विधायिका प्राकर्षित किया है जिसमें ६०००, प्रतिनिधि थे । वे केरल लिच्छवियो के ससदीय विचार-विमर्श का कोई प्रत्यक्ष की मसद के समान थे।". बोद्ध-साहित्य से ज्ञात होता प्रमाण प्राप्त नही होता, परन्तु विद्वानो ने चुल्लवग एवं है कि राजा विम्बिमार श्रेणिक के अम्मी हनगर गामिक विनय पिटक के विवरणो से इस विषय में अनमान लगाए (ग्रामिक) थे। इमी गाश्य पर अनुमान किया जा सका है। जब कोगन ने शाक्य- राजधानी पर अाक्रमण किया है कि ७७०७, राजा विभिन्न क्षेत्रों (या निवाचन-क्षेत्रा) और उनमे ग्रात्म समर्पण के लिए कहा तो शाक्यो द्वारा के उसी रूप मे स्वतन्त्र सचालक थे जिस प्रकार देशी इस विषय पर मन-दान किया गया । मन-पत्र को 'छन्दम्' रिय सतो के जागीरदार राजा के प्राधीन होकर भी अपनी एव कोरम को 'गण-पूरक' तथा प्रासनी के व्यवस्थापक निजी पुलिग यी तथा अन्य व्यवस्थाएँ करते थे।
वो 'ग्रामन-प्रजापक' कहा जाता था। गण-पूरक के प्रभाव वैदेशिक सम्बन्ध-लिच्छवियों के वैदेशिक सम्बन्धो में अधिवेशन अनियमित ममभा जाता था। विचारार्थ का नियन्त्रण नो गदस्यो की परिषद द्वाग होना था । प्रस्ताव की प्रस्तुति को 'जप्ति' क । जाता था। मंघ से इनका वर्णन बौद्ध एव जैन साहित्य मे 'नव लिच्छवि' के तीन-चार बार पूछा जाना था i क्या संघ प्रस्ताव से रूप मे किया गया है । प्रजात गत्र के ग्राऋगण के मुका- महमत है । मघके मौन का अर्थ सहारिया स्वीकृति गमझा बले के लिए एक पडोसी राज्यां नवमल नथा अप्टाया जाना था । बहमत द्वारा रवीकृत निर्णय को 'ये भय्यसिकाशी-काल के माथ मिल कर महासघ बनाना पडा । कम' (बहमत की इच्छानगार) कहा जाता था। मत२१. डा एम अलकर ---प्राचीन भारत में राज्य एव २४. "तेन रो पन ममयेन राम मागधो गनियो बिम्ब शासन (१९५८) पृठ ११२-११३
मागे प्रतीनिया नाम सहमप इसराधिगच्च गज २२. गृहे-गहे तु राजान, - महाभारत २।१५।२.
करोनि ।" २३. वाजपेयी, अम्बिका प्रमाद, हिन्दू राज्यशास्त्र-पृष्ठ- श्री भरतसिंह उपाध्याय द्वारा उद्धृत- वही--पृष्ठ१०४.
१६६.
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६४, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
पत्रों को 'शलाका' तथा मत-पत्र-गणक को 'शलाका-प्राहक' सीमा गंगा-तट पर चुंगी के विभाजन के प्रश्न पर झगड़ा कहा जाता था। अप्रासगिक तथा अनर्थक भाषणों की भी हो गया। प्रस्तु, जो भी कारण हो; इतना निश्चित है शिकायत की जाती थी। श्री जायसवाल के मतानुसार, "सुदूर प्रतीत (छठी
कि अजातशत्रु ने इसके लिए बहत समय से बड़ी तैया शताब्दी ई.पू.) से गृहीत इस विचारधारा से 'एक उच्चतः रिया का था। सवप्रथम उसन गगा-तट पर पाटलिपुत्र विकसित अवस्था की विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। (माधुनिक पटना) की स्थापना की । जैन विवरणों के इममें भाषा की पारिभाषिकता एवं प्रौपचारिकता विधि अनुसार, यह युद्ध सोलह वर्षों तक चला, अन्त में वैशाली एवं मविधान की प्रतिनिहित धारणाएँ उच्च स्तर की गणतन्त्र मगध साम्राज्य का अंग बन गया। प्रनीत होती है। इसमें शताब्दियों से प्राप्त पूर्व अनुभव क्या वंशाली-गणराज्य के पतन के बाद लिच्छवियों भी सिदध होता है। ज्ञप्ति, प्रतिज्ञा, गण-पूरक, शलाका, का प्रभाव समाप्त हो गया? इस प्रश्न का उत्तर नका. बहमत-प्रणाली प्रादि शब्दों का उल्लेख, किमी प्रकार की
की रास्मक हो सकता है परन्तु श्री सालेतोर (वही पृष्ठपरिभाषा के बिना किया गया है, जिससे इनका पूर्व प्रच- ५०८) के अनुसार, "बौद्ध साहित्य में इनका सबसे लन सिद्ध होता है।
अधिक उल्लेख हुआ है क्योंकि इतिहास में एक हजार वर्षों वैशाली गणतन्त्र का अन्त
से अधिक समय तक इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही।" वैशाली-गणतन्त्र पर मगधराज प्रजात शत्र का प्राक्र- चौधरी नमार वालवी हाताब्दी में मण इस पर घातक प्रहार था। अजातशत्र की माता चेलना वैशाली के गणराजा चेटक की पुत्री थी, तथापि साम्राज्य
क्रियाशील रहे । गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त लिच्छवि-दौहित्र'
. कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे।" विस्तार की उमकी आकांक्षा ने बंगाली का अन्त कर
२५०० वर्ष पूर्व महावीर-निर्वाण के अनन्तर, नवदिया । बदध से भेंट के बाद मन्त्री वम्मकार को प्रजातशत्र द्वारा वंशाली मे भेजा गया। वह मन्त्री वंशाली के मल्लो एवं लिच्छवियों ने प्रकाशोत्सव तथा दीपमालिका लोगों मे मिल कर रहा और उसने उसमे फुट के बीज का प्रायोजन किया और तभी से शताब्दियों से जैन इस वो दिए । व्यक्तिगत महत्त्वाकाक्षामों तथा फूट से इतने पुनीत पर्व को 'दीपावली' के रूप में मनाते हैं। कल्प सूत्र महान गणराज्य का विनाश हुआ। 'महाभारत' मे भी के शब्दों में, "जिस रात भगवान महावीर ने मोक्ष प्राप्त गणतन्त्रो के विनाश के लिए ऐसे ही कारण बताए हैं। किया, सभी प्राणी दुखों से मुक्त हो गए । काशी-कौशल भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा, 'हे राजन् ! हे के अठारह संघीय राजाओं, नव मल्लो तथा नव लिच्छभरतर्षभ ! गणो एव राजकुलो मे शत्रुता की उत्पत्ति के वियों ने चन्द्रोदय (द्वितीया) के दिन प्रकाशोत्सव प्रायोमूल कारण है- लोभ एवं ईर्ष्या द्वेष ! कोई (गण या जित किया; क्योकि उन्होंने कहा -- 'ज्ञान की ज्योति बुझ कुल) लोभ के वशीभूत होता है, तब ईर्ष्या का जन्म होता गई है. हम भौतिक संमार को पालोकित करें। है और दोनो के मेल से पारस्परिक विनाश होता है।" २५०० वें महावीर-निर्वाणोत्सव के सन्दर्भ में प्राधुवैशाली पर माक्रमण के अनेक कारण बताए गए है।
निक भारत वैशाली से प्रेरणा प्राप्त कर सकता है । अनेक
सांस्कृतिक कार्य-कलाप बंगाली पर केन्द्रित है। इसी को एक जैन कथानक के अनुसार, सेयागम (सेचानक) नामक
दृष्टिगत करके राष्ट्र कवि स्व. श्री रामधारी सिंह दिनकर हाथी द्वारा पहना गया १८ शृंखलामों का हार इसका
ने वैशाली के प्रति श्रद्धांजलि निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत मूल कारण था । बिम्बसार ने इसे अपने एक पुत्र वेहल्ल
की हैको दिया था परन्तु अजातशत्रु इसे हड़पना चाहता था। वैशाली जन का प्रतिपालक, गण का मादि विधाता। वेहल्ल हाथी और हार के साथ अपने नाना चेटक के पास जिसे ढूंढता देश प्राज, उस प्रजातन्त्र की माता ।।
रुको एक क्षण, पथिक ! यहाँ मिट्टी को सीस नवामो। भाग गया। कुछ लोगों के अनुसार, रत्नों की एक खान ने
राज-सिदिधयों की सम्पत्ति पर, फन चढ़ाते जात्रो॥OD अजातशत्रु को आक्रमण के लिए ललचाया। यह भी कहा केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, जाता है कि मगध साम्राज्य तथा वैशाली-गणराज्य की वैस्ट ब्लाक. रामकृष्णपुरम-७, नई दिल्ली-२२ २५. वही -पृष्ठ ६५-६६.
२६. वही-पृष्ठ १०६ पर उद्धृत ।
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भारतीय वाङमय को प्राकृत कथा-काव्यों की देन
डा० कुसुम जैन, गुना
प्राकृत कथा-साहित्य में विविध कोटि की कथामो- देता है जो चरित-काव्य के नायक या नायिका के चरित जन्तुकथा, लोककथा, प्रेमकथा, नीतिकथा प्रादि का प्रणयन के उदघाटन और विकास में सहयोगी होते है। इनमें हुमा है। यह साहित्य संस्कृत तथा पालि की अपेक्षा कथाप्रवाह की अक्षुण्णता पर कवि का ध्यान नहीं रहता, विपुल एव विविध है। प्राकृत कथा साहित्य का प्रारम्भिक इसीलिये इनमें कथा के प्रधान गुण कुतूहल तत्त्व का रूप हमें प्रागम और उसके टीका साहित्य में मिलता है। प्रभाव रहता है। इन चरित-प्रथो के नायक शलाकापुरुष नायाधम्मकहायो इस दृष्टि में विशेष उल्लेख्य है। टीका है। साहित्य में कथानों का विकसित और परिमाजित रूप
इतिवृत्तात्मक धर्मकथानो मे उन कथाग्रन्थो का परि. प्राप्त होता है।
गणन किया गया है जिनमे रसात्मक चित्रणों का प्रायः प्राकृत-कथाकारो ने कथानों का वर्गीकरण कथा के
प्रभाव है अथवा रसात्मक स्थल अत्यल्प है। इनमे घटउद्देश्य के आधार पर किया है। सामान्यतः कथा के तीन नामों के इतिवत दिये गये है, अतः इन्हे इतिवृत्तात्मक भेद किये गये है-अकथा, विकथा और सत्कथा । सत्कथा धर्मकथाए कहा गया है। कालकाचार्य कथा, नर्मदासुन्दरीधर्म मे प्रेरित करने वाली तथा मुनिप्रणीत होने से उपादेय कथा. जिनदत्ताख्यान, श्रीपालकथा, महीपालकथा इसी है। काम और अर्थ का वर्णन होने से ससार का कारण कोटि के कथाकाव्य है। बनने वाली विकथा गहणीय है। इन कथानों के कामकथा,
धर्म, अर्थ तथा काम से संकीर्ण कथा को संकीर्ण या प्रर्थकथा, धर्मकथा तथा मिश्रकथा इस प्रकार के भी भेद मिथकथा कहा गया है। प्राकृत मे इस कोटि की प्रनेक किये गये है । विकथा-स्त्रीकथा, भर्तृकथा, जनपदकथा, कथायें है। पादलिप्त की तरगवती ऐसी ही सरस तथा राजकथा, चौरकथा प्रादि कई प्रकार की होती है । सकीर्ण- उत्कृष्ट रचना थी, जिसकी परवर्ती कवियों ने पर्याप्त कथा मूलत. धामिक उद्देश्य को लेकर चलने वाली कि तु प्रशंसा की है। यह कृति अनुपलब्ध है। इसके गुजराती मर्थ पौर काम के तत्त्वों से मिश्रित होती है। यही कथा व जर्मन अनुवाद हो चुके है। वसुदेवहिण्डी गुणाढ्य की सरस और मनोहारी है। कथा के कल्पित और चरित बहत्कथा की भांति एक विशालकाय रचना है. जो नाम से दो भेद और किये गये हैं। कथा के सकलकथा, १०. लम्भको में विभक्त है तथा अनेक वृत्तान्तों से परिखण्डकथा, उल्लापकथा, संकीर्णकथा, तथा परिहासकथा-ये पर्ण है। इसकी रचना बहत्कथा को प्राधार बनाकर हुई पांच भेद भी किये गये है। सकल कथा चरितात्मक होती होगी। समराइच्चकहा एक धर्मकथा है, इसमे नायकहै। हेमचन्द्र ने कथा के १० भेद किये है, सकलकथा, प्रतिनायक की मनोभावनाओं के मुन्दर चित्रण है। कथा खण्डकथा, उल्लापकथा, पाख्यान, निदर्शन, मणिकुल्या, नौ जन्मों तक चलती है। मत्तहसित, उपकथा, बृहत्कथा पौर प्रवह्निक । पात्रों के समराइच्चकहा के प्रणेता हरिभद्रसरि के शिष्य माधार पर दिव्य और दिव्य मानुषी ये दो भेद किये गये उद्योतनसूरि ने कुबलयमाला नामक उत्कृष्ट चम्पूकोटि के
कथाकाव्य की सर्जना की है। इस ग्रन्थ का, भाषा, छन्द, चरित-काव्य कथा से पृथक् कोटि के ग्रन्थ है। चरित- विषय-विविधता प्रादि दृष्टियों से बहुत महत्त्व है। कथाकाव्यों में कवि उन स्थलों और घटनाओं पर विशेष ध्यान कोश प्रकरण के रचयिता जिनेश्वरमूरि ने निर्वाणलीला.
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६६, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
वती नामक कथाग्रन्थ की रचना की थी । सूरसुन्दरी रिक्त उपदेशपद, उपदेशमाला, भवभावना, संवेगरंगशाला, चरिय के रचयिता धनेश्वरसूरि ने इसका प्रशंमात्मक उपदेशरत्नाकर, सीलोबएस माला, उपदेशकदलि, विवेकउल्लेख किया है। यह कथा भी हमारे दुर्भाग्य से मंजरी प्रादि अनेकानेक कथाओं का प्रणयन हुमा है, जो अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है। इसका इलोक- इतिवृत्तात्मक एव उपदेशात्मक कोटि में अन्तर्भावित हो बद्ध संस्कृत सक्षिप्त रूपान्तर जिनरत्नसरि ने किया है। सकती है। इसकी कथावस्तु की योजना कुवलयमाला के माधार पर परिहासकथा की दृष्टि से धूर्ताख्यान एकमात्र उपकी गई है।
लब्ध कृति है । इस कथाग्रन्थ में हरिभद्रसूरि ने महाभारत, तरंगवती, वसुदेवहिण्डी, समरा इच्चकहा, कुबलयमाला
रामायण और पुराणों में वर्णित हास्यास्पद और असम्भव तथा निर्वाणलीलावती पाचो ही थाग्रन्थ उत्कृष्ट एवं
घटनामों पर तीव्र-प्रहार किया है। प्रारम्भिक भारतीय अद्वितीय है। एक एक ग्रन्थ का पृथक् पृथक् परिशीलन
साहित्य मे हस्य-व्यंग्यात्मक साहित्य का प्रभाव है। प्रावश्यक है। इसके अतिरिक्त रयणसेहरनिवकहा, सुर
हरिभद्रसूरि, इसके प्रतिकल, जन्म से प्रतिभासम्पन्न तथा सुन्दरीचरिय और रत्नचड़कथा काव्यसौष्ठव की दृष्टि से
स्वभाव से विनोदी कवि है। अपने धूर्ताख्यान के माध्यम उल्लेखनीय है। इन कथाग्रन्थों में साहित्यिकता के साथ
से उन्होने भारतीय साहित्य को अमूल्य देन दी है, जो कई साथ प्रचुर सांस्कृतिक निर्देश प्राप्त होते हैं। तत्कालीन
दष्टियो से अद्वितीय है। संक्षेप में प्राकृत साहित्य की धार्मिक, माथिक. सामाजिक व राजनीतिकवान अमूल्य मणियों में गाथासप्तशती, समराइच्चकहा कुवलयभी इनसे प्रकाश पड़ता है। इन ग्रन्थों का महत्व इस दष्टि माला एवं पउमचरिय के समान ही इस कृति का महत्त्वमे द्विगुणित हो जाता है।
पूर्ण स्थान है।
प्राकृत के प्रायः समस्त कथाकाव्य जैनमुनियों द्वारा प्राकृत कथाकाव्यों की एक कोटि लघुकथानो की है। रचित है। वसूदेवहिण्डी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला इनमें एक ही गाथा मे कोई उपदेशात्मक बात कहकर और लीलावती (जिनेश्वर सूरिकृत) आदि महाकथा-कोटि फिर उस नियम को चरितार्थ करने वाले व्यक्ति का की कथानो मे भी कथाकोशों की भाति अनेकानेक लघुजीवन-वृतान्त गद्य या पद्य मे दिया जाता है। पालिजातको कथायें अवान्तर-कथानों के रूप में भरी पड़ी है । ये प्रवातथा पंचतन्त्र, हितोपदेश प्रादि संस्कृत ग्रन्थों मे भी यही तर कथायें मलकथा से पूर्णतः सम्बद्ध तथा उसके विकास प्रणाली अपनाई गई है। इस प्रकार के लघुकथात्मक गन्थों में सहायिका है। कथा-काव्यों मे मुनियों के जीवन और का प्राकृत में भी पर्याप्त मात्रा में प्रणयन हुया है। उप. उपदेशों को प्रस्तुत करते हुए जनदर्शन का व्यापक निरूपण देशों की भरमार तथा संयम, शील, दान, तप, त्याग और है। इनके साथ ही कथाकाव्यों में विविध शास्त्री-प्रथवैराग्य की प्रबलता होने पर भी इनका काव्यत्व दबा नहीं शास्त्र, राजनीति, कामशास्त्र, ज्योतिष, धनुर्वेद, प्रायुर्वेद, है। रसों, भावों, विविधवर्णनो तथा मनोभावो के सुन्दर गारूड, तन्त्र विद्या, शकुन-अपशकुन, धातुवाद, रसवाद, चित्रण इन कथाग्रथो के गौरव मे वृद्धि करते है। इन खन्यविद्या, रत्नपरीक्षा, अश्वशिक्षा, संगीतशास्त्र, छन्द, कथाग्रंथों के अन्तर्गत अनेक कथाए ऐसी भी है, जिन्हें हम प्रहेलिका, वेश्या-जीवन, अनुरक्त-विरक्त, नारी के लक्षण इतिवृत्तात्मक या विवरणात्मक कह सकते है। कथाकोश- आदि के वर्णन हैं, जिनसे इन कवियों की बहुश्रुतता का प्रकरण, पास्यानकर्माणकोश, धर्मोपदेश मालाविवरण, बोध होता है। कथारनकोश, पाइयकहासंगहो, कूमारवालपडिबोह, जनजीवन का चित्रण होने से ये यथार्थवादी है, यथार्थमिरिविजयचंद केवलिचरिय, कथाग्रन्थों का परिगणन वादिताके दोषोंसे मुक्त तथा प्रादर्शोन्मुख है । कथाके प्रारम्भ संकीर्ण कथा में किया गया है, यद्यपि इनमें भी अनेक में पात्रों की स्वाभाविक शिथिलतामों का वर्णन है। अन्त में कथायें इतिवृत्तात्मक कोटि की हो सकती है। इनके मति- वे पात्र किसी मनिके सम्पर्क से अपने अपराधों के परिमार्जन
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भारतीय वाङ्मय को प्राकृत कथा-काव्यों की देन
तथा प्रात्मोन्नति के लिये धर्म की ओर उन्मुख होते है। छन्द की दृष्टि से इनमें प्राय: गाथा छन्द का प्रयोग इस प्रकार ये कथायें यथार्थपरक तथा मादर्शोन्मुख धर्म- है, जिसमे यतिभंग का दोष बहुलता से प्राप्त होता है। कथायें हैं।
वसुदेवहिण्डी, कुवलयमाला, जिनदत्तारुयान, नर्मदासुन्दरीधार्मिक तत्व प्राणो की तरह अनुस्यूत होने पर भी कथा, पाख्यानकमणिकोश, सुरसुन्दरीचरिय, कथाकोशइनका साहित्यिक सौन्दर्य कम माकर्षक नही है। समस्त प्रकरण, कुमारपाल प्रतिबोध मादि में गाथा छन्द के प्रतिरसों का चित्रण होने पर भी शान्त, शृंगार, वीर तथा रिक्त मंस्कृत और अपभ्रंश छन्दों के प्रयोग हुए है। रौद्ररस के प्रचर वर्णन है । शान्त रस के सुन्दर चित्रण ये ग्रन्थ पद्यात्मक तथा गद्यपद्यमिथ दोनों ही शैलियों सर्वत्र व्याप्त है।
__ में रचित है । प्राकृत कथा-काव्यो का अधिकांश भाग इसी पाख्यानकमणिकोश, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, मिश्रकोटि का है। पटकथानों मे धूर्ताख्यान, निर्वाणधर्मोपदेशमाला-विवरण, नर्मदासुन्दरीकथा मादि मे लीलावती तथा श्रीपालकथा मुख्य है। गद्यप्रधान-काव्यों भावट्रिया, रुक्मिणी, विलासवती, प्रियंगुश्यामा, राजीमती, में वसुदेवहिण्डी, समराइचकहा, कुवलयमाला, रयणनर्मदासुन्दरी आदि के नख-शिख वर्णन प्राप्त होते है। चुड़रायचरिय, जिनदत्ताख्यान, रयणसेहर निवकहा, नर्मदानख-शिख वर्णन काव्य में प्राचीनकाल से होता रहा है। सुन्दरीकहा मादि उल्लेखनीय है। तरंगवती कथा को भी रीतिकाल में यह अधिक व्यापक रूप से प्रचलित हुआ।
तरंगलोला चम्पू कहा गया है, अत: यह रचना भी गद्यइन कथाकाव्यों में मार्मिक और हृदयाकर्षक सुभाषितों पद्यमिश्रित शैली में लिखित रही होगी, यद्यपि वर्तमान के प्रयोग हुए हैं । महेश्वरसूरि को ज्ञानपचमकिया इस उपलब्ध संक्खित्ततरंगवईकहा पद्यमय ही है। ततीय कथा. दृष्टि से अद्वितीय है। इसमे स्त्री-विषयक सुभाषित
कोश कोटि के ग्रन्थों में कुछ गद्यप्रधान पद्यमित्र है। गद्य मनोहारी हैं।
की चारों शैलियो मुक्तक, वृत्तगन्धि, उत्कलिकाप्राय और अलंकारों की दृष्टि से शब्दालंकारों मे यमक, अनुप्रास
चर्णक का उपयोग किया गया है । यद्यपि समासरहित, व सरल श्लेष के साथ-साथ शृखलायमक का प्रभूत
सुबोध, प्रसादगुणयुक्त गद्य का ही अधिक प्रयोग हुमा है, प्रयोग हुआ है । प्रचलित अर्थालकारो का सहज, स्वाभा
तथापि कही कही दीर्घ समासाढ्य पदावली का भी रुचिपूर्वक विक और सुरुचिपूर्ण ढग से प्रयोग किया गया है।
प्रयोग हमा है। इन स्थलों पर यह गद्य अलंकृत और ग्रन्थों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है, जिसे अपभ्रंश
जटिलता के वैभव से मण्डित है तथा कादम्बरी की और अर्द्धमागधी से प्रभावित होने के कारण जैन महाराष्ट्री
गद्यच्छटा का स्मरण दिलाता है। जहाँ किसी वस्तु अथवा कहा गया है । काव्यो में बीच-बीच मे संस्कृत और अप
दृश्य का चित्रण करना होता है, कवि इसी समारबहुला भ्रंश के पद्य भी हैं । संस्कृत के पद्य प्रायः उद्धरण के रूप शैली को अपनाते है। सरलगद्य कथावस्तु के प्रवाह को में है। जनरुचि के अनुकूल देश्य शब्दों का प्रभूत प्रयोग आगे बढ़ाता है। संवादों में इसी सरल गद्य का प्रयोग इनकी महती विशेषता है। वास्तव में यही शब्द मन्त- है। निहित प्राशय को अभिव्यक्त करते है। भाषा-प्रयोग की तरंगवतीकथा, समराइच्चकहा, कुवलयमाला, दष्टि से कुवलयमाला दर्शनीय है। इसमें पैशाची प्राकृत आख्यानकमणिकोश, कुमारपालप्रतिबोध, धर्मोपदेशमालातथा तत्कालीम देशी बोलियों के प्रयोग है, साथ ही १८ विवरण प्रादि में सुन्दर प्रकृति-चित्रण प्राप्त होते है। देशों की भाषाओं की विशेषताओं को निदर्शित किया गया जिनदत्ताख्यान, नर्मदासुन्दरीकथा, श्रीपालकथा, धूर्ताख्यान, है। प्रायः सभी ग्रन्थों में अपभ्रंश और संस्कृत के उद्धरण रत्नशेखरनुपकथा, ज्ञानपंचमीकया, कथाकोशप्रकरण प्रादि हैं । कुमारवालपडिवोह तथा रयणसेहरमिवकहा में प्राचीन प्रकृति-चित्रण की दृष्टि से सामान्य हैं। इन ग्रन्थों में गजराती भाषा का प्रयोग है। भाषा में नादसौन्दर्य तथा चन्द्रोदय. चन्द्रास्त. सर्योदय. सर्यास्त के साथ पहनतयों लयात्मकता के साथ-साथ प्रथंगाम्भीर्य है।
के चित्रण अत्यन्त रमणीय हैं। इन वर्णनों में प्रकृति का
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६८, वर्ष २८, कि. १
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प्रायः मानवीकरण के रूप में ही चित्रण है। रात्रि, पूर्व प्रतीत होता है, जिसमें राष्ट्रकट के शासक गोविन्द ने दिशा प्रादि कही अभिसारिका के रूप में, कहीं ईर्ष्या कलु. वेंगी के विष्णुवर्धन चतुर्थ चालुक्य को परास्त किया। पित नायिका के रूप मे चित्रित है। सूर्य एवं चन्द्र कही प्रेमी यदि कवि इस घटना से प्रभावित है तो वह वेंगी के निकनायक, कही राजा, कहीं भ्रमणप्रेमी, कहीं पक्षी, कही। टस्थ दोनों का निवासी होना चाहिए, किन्तु इसके काव्य योद्धा प्रादि के रूप में वर्णित है। नदी, श्मशान, समुद्र, में द्राविड़ भाषामों का प्रभाव न होने के कारण कह सकते मटवी, पर्वत, तपोवन, सरोवर, प्रासाद, उपवन, नगर हैं कि यह बेंगी या भीमेश्वर तीर्थ के निकटस्थ क्षेत्रों का आदि के भी भव्य चित्र प्राप्त होते हैं।
निवासी नही है। वह महाराष्ट्री प्राकृत तथा महाराष्ट्र 17 पारित होने में ये देश की बोली से केवल परिचित ही नहीं, अपित उसके कथाये अधिक मर्मस्पशिनी एवं हृदयहारिणी है। व्यक्ति प्रति प्रात्मीयता प्रदर्शित करता है यह भाषात्मक प्राधार की स्वाभाविक दुर्बलताओं का यथार्थ निदर्शन होने से बहुत प्रबल प्राधार है, जिसके कारण हम उसे महाराष्ट इनमे सुन्दर मनोवैज्ञानिक चित्रण प्राप्त होते हैं। देश का निवासी मान सकते है। लीला-वई-कहा के प्रणेता कोऊहल बहलादित नामक
____ध्वन्यालोक में प्राप्त लीलावई-कहा के वस्तुतत्व की
ओर संकेत इसकी अपर सीमा निर्धारण करने में सहायक तीनों वेदो के ज्ञाता याज्ञिक ब्राह्मण के पौत्र तथा भूषण भट्ट
है। इसकी प्रपरसीमा (पानन्दवर्द्धन का काल) ८६०के पुत्र थे । ग्रंथ की एक गाथा 'कोऊहलेण-विरइया'
८९० ई० है। इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन राजउल्लेख है, कोऊहल का अर्थ औत्सुक्य भी हो सकता है,
वंश की सत्ता का अवसान ३०० ई. से पहले हो चुका क्योंकि परवर्ती ग्रंथो में ऐसे उल्लेख नही है, जिनमे कौतु
है। लीलावई-कहा के वस्तुतत्व को देखते हुए प्रतीत होता हल, कुतूहल अथवा कोऊहल को कविरूप मे स्मरण किया
है कि यह रामायण, महाभारत, वृहत्कथा, अभिज्ञानगया हो। लीलावई-कहा की एकमात्र उपलब्थ संस्कृत
शाकुन्तल, विक्रमोर्वशीयं, कुमार संभव, कादम्बरी, सुबन्धुटीका मे कुतूहल शब्द को कवि के नाम के रूप में ग्रहण
कृत वासवदत्ता, रत्नावली आदि ग्रथो से प्रभावित है। ये किया गया है। उक्त संस्कृत टीकाकार परम्परा के प्राधार
समस्त ग्रथ सातवी शती तक रचे जा चुके थे । समराइच्चपर ही कुतूहल को विप्र और लीलावई-कहा का कर्ता
कहा और कुवलयमाला (७७६ ई.) से भी यह परिचित बतला रहा है। इतना ही नही, टीकाकार कवि की पत्नी
हो सकता है। प्रस्तावना श्लोकों मे गउडवहो (६६६. का नाम भी असन्दिग्ध रूप से सावित्री लिखता है,
७३५ ई.) का प्रभाव परिलक्षित होता है। इसमें राष्ट्र'जबकि गाथाम्रो मे यह नाम कही नहीं है। प्राफे की सूची
कूट और चालुक्यो के संन्य सचरण का उल्लेख है। प्रथम मे कुतूहल पण्डित का उल्लेख होने से डा. उपाध्ये ने तात्का
राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग में ही है और उसका सैन्य सचरण ७४० लिक रूप से लीलावई के कर्ता को कुतूहल माना है। हम
ई० के निकट प्रभावी रूप में हुअा, प्रतः कोऊहल ने जो उस परम्परा पर अधिक बल देना चाहते है, जिसका
उल्लेख किया, उसका सम्बन्ध उन घटनाओं से नहीं हो प्राधार सस्कृत टीकाकार ने ग्रहण किया है। हमे इस में
सकता, जो ७४० ई० के पूर्व की होगी। कोऊहल का सन्देह नहीं है कि कोऊहल या कुतूहल वास्तव में कवि के
स्थितिकाल इससे पीछे ही मानना होगा। यदि कोऊहल नाम है।
के मन में बादामी के चालुक्यो के अभियानों का प्रभाव है कोहल कवि के निवास का प्रश्न केवल अनुमान का
तो वे ७५३ ई. के पश्चात् निःसत्व हो चुके थे। इस विषय है। इसने एक गाथा में राष्ट्र कट तथा चालुक्य
स्थिति को स्वीकार करने पर मानना होगा कि इसे ७४० सेनापो का उल्लेख किया है। श्री उपाध्ये के अनुसार
से ७५३ ई. के निकट रखा जा सकता है। इस उल्लेख मे राष्ट्रकूट और चालुक्यों के उन संघर्षों का निम्न है. जो उत्तरपूर्वीय क्षेत्रो में प्राठवीं शती के मध्य मे कोऊहल का युग (८वीं-हवी शती ई०) प्राचीन भारत पहंचे। श्री उपाध्ये का संकेत ७७२ ई. के उस युद्ध की भोर की समाप्ति का तथा कान्यकुब्ज साम्राज्य का युग है। इस
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भारतीय वाङ्मय को प्राकृत कथा-काव्यों की देन
अवधि में नवोदित राष्ट्रकुट सत्ता से सम्पूर्ण महाराष्ट्र, इसी वंश के वत्सराज ने कन्नौज पर अधिकार किया था, सम्पूर्ण मध्य देश तथा कान्यकुब्ज रहते है। दक्षिण के पर वह ध्रुव से हार गया। बत्सराज के पुत्र नागभट राष्ट्रकट, पश्चिम के प्रतिहार तथा पूर्वीय भारत के पाल द्वितीय ने प्रान्ध्र, सैन्धव, विदर्भ और कलिंग जीता, किन्तु नरेश तीनो सत्ताये कान्यकुब्ज को प्रात्मसात् करना चाहती वह राष्ट्रकट गोविन्द तृतीय से हार गया । ८३३ ई. में थी। ८१५ ई० के पश्चात इसका निर्णय प्रतिहारों के पक्ष नागभट का पुत्र रामभद्र पूर्व में ग्वालियर तक का क्षेत्र में हो जाता है। इस कालखण्ड की सर्वोत्कृष्ट नगरी अधिकृत किये हुए था। रामभद्र के पुत्र भोज द्वारा ३६ कान्यकुब्ज को राजधानी होने का गौरव हर्षवर्द्धन (६०६. ई० मे प्रसारित वाराह-ताम्रपत्र से सूचित होता है कि ६४० ई.) ने प्रदान किया तथा ८वी शती के पूर्वाद्ध मे कान्यकुब्ज, कालिंजर, मण्डल, मध्य एव पूर्वीय राजपूताना यशोवर्मन ने इसकी श्रीवृद्धि की थी।
तथा सम्पूर्ण काठिणवाड इसके राज्य क्षेत्र में थे। शौर्य अरबों का मिन्ध से मध्यदेश तक आक्रमण इस युग में ध्रुव और धर्मपाल के समान इसका नाम लिया जाता की प्रमुख घटना है। इस समय नागभट प्रथम (गुर्जर- है। भाज के पुत्र महेन्द्रपाल (प्रपर नाम निर्भयराज) का प्रतिहार) के ध्वज के नीचे प्रर्बद क्षेत्र से उद्भत वंशों साम्राज्य (८८५-६१० ई०) हिमालय से विन्ध्याचल तक वाले क्षत्रिय-प्रतिहार, चाहमान, गुहिल, चालुक्य भोर सुदृढ़ रूप से अवस्थित था । परमार एकत्रित हुए । अरब आक्रान्ता हटा दिये गये। ७५० ईके निकट दयितविष्णु के पौत्र और वप्यट
राष्ट्रकूटों का मूल स्थान वर्तमान हैदराबाद के अन्त- के पुत्र गोपाल ने पाल राजवश की स्थापना की। इसके र्गत उस्मानाबाद के जिले में अवस्थित लट्रलर गाँव माना विजेता पुत्र धर्मपाल (७७० ई०.८१० ई०) को उत्तराजाता है। इनकी अनेक पीढ़ियाँ बरार के एलिचपूर में पथ का स्वामी कहा गया है। बगाल और बिहार उसके चालूक्यो के सामन्द के रूप में थी। सर्व प्रथम इन्द्र ने शासित क्षेत्र तथा नेपाल और कान्यकुब्ज इसके प्रभाव में चालुक्य राज कन्या का अपहरण किया। इसके पश्चात थे। धर्मपाल का पुत्र देवपाल (८१०.८५० ई.) एक उसका पुत्र दन्तिदुर्ग या दन्तिवर्मन (७७३ ई० मे) उत्तरा- महान विजेता था । देवपाल का उत्तराधिकारी विग्रहपाल धिकारी हया। कृष्ण के पश्चात् उसका पुत्र गोविन्द था, जिसके समय से यह राजवश पतनोन्मुख हो गया। द्वितीय और उसके पश्चात् उसका अनुज ध्रुव उत्तरा- इस समय पुराणों को मान्यता प्राप्त थी। ब्राह्मण धर्म धिकारी हा । ध्रुव के समय राष्ट्रकूट सत्ता का सामना का उत्कर्ष तथा बौद्ध धर्म का ह्रास हो रहा था। इन्ही करने वाली अन्य शक्ति भारत में नहीं थी। ध्रुव का शतियो मे भारतीयो ने वृहत्तर भारत का निर्माण किया। उत्तराधिकारी उसका तृतीय पुत्र गोविन्द तृतीय ७६३ ई० । मनुस्मृति पर मेघातिथि की टीका को विशेष सम्मान में सिंहासन पर आसीन हुअा। इसने राज्य का और मिला । स्त्रियों की स्थिति सम्मानपूर्ण थी। शकराचार्य विस्तार किया।
इसी युग में हुए । तान्त्रिक विधियो ने बौद्ध और ब्राह्मण इसके उपरान्त रवि अमोघवर्ष (८१६ ई० में) राज- धर्म में अनाचार का प्रवेश कराया। साहित्य मे सस्कृत को सिंहासन पर आरूढ़ हुआ । इसका महत्व मान्यखेट (माधु- उच्च स्थान प्राप्त था । इस युग मे साहित्यसर्जना प्रचुर निक मलखेड) को राजधानी बनाने में है। वह स्वय मात्रा में हई । सस्कृत में दृश्य-काव्य तथा साहित्य-शास्त्रो विद्वानो और कवियो का प्राश्रयदाता था। ८६० ई. के का निर्माण अधिक हमा। विशेष रूप से कश्मीर में पश्चात १८ वर्षों तक इसने शान्तिमय जीवन व्यतीन मानिध्य-शास्त्रीय मिटाती पर पथमर्जना की मार किया। इसका राज्यकाल दीर्घ था। इसके पुत्र कृष्ण प्रा गई थी। लोल्लट, वामन, उद्भट तथा शंकुक इसी युग द्वितीय का राज्यकाल ८८० ई० से ६१५ ई० तक है। की देन है।
गुर्जर प्रतिहारो में से नागभट प्रथम ने अरबो को प्राकृत बोली का स्तर पार कर चुकी थी। उसकी परास्त कर पर्याप्त प्रसिद्घि एवं प्रभाव पजित किया। सरलता अन्तर्धान हो गई थी। वह अलकृत तथा कृत्रिम
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हो गई थी, अत: जैन कवि भी संस्कृत की ओर उन्मुख इसमे है। कवि का उद्देश्य इसे कथा बनाने का है, उसने हो रहे थे, तथापि प्राकृत भाषाओं के प्रति जैन विद्वानों में इसे कथा कहा है । अन्य प्राचार्यों ने भी इसे कथा के रूप रुचि एवं श्रद्धा बनी रही। प्राकृत ग्रंथों में लीलावई-कहा मे ही उल्लिखित किया है। इसकी शैली संवादात्मक है। के प्रतिरिक्त वाक्पतिराज का गउडवहो, हरिभद्रसूरि की अन्तः कथाएं मूल कथा के विकास में सहायक हैं। कथा समराइच्च-कहा और धूर्ताख्यान तथा उद्योतन सूरि की का नामकरण नायिका के नाम पर है। ऐसी स्थिति में कुवलयमाला विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
यह प्रयास उपयोगी और अपेक्षित प्रतीत नहीं होता कि
हम लीलावई में जिसकी सर्जना और विकास कवि ने लीलावई-कहा की तीन पांडुलिपियां क्रमश: पट्टन,
सम्पूर्ण चेतना के साथ एक कथा के रूप में किया, जैसलमेर और बीकानेर से मिली है, जिसका प्रकाशन डा०
महाकाव्य के कतिपय तत्व दृढकर उसे महाकाव्य सिद्ध ए० एन० उपाध्ये के सम्पादकत्व मे सिंधी जैन ग्रंथमाला
करने का प्रयत्न करे। ग्रन्थ में रसात्मकता होना, शैली से सन् १९४६ तथा १९६६ मे दो बार हुआ है। लीलावई.
का उदात्त होना चरित्र और उद्देश्य का महत् होना ये कहा पर एक ही किसी अज्ञातनामा संस्कृत टीकाकार की
महाकाव्य के लिए पृथग्रुप से निश्चित तत्व नहीं हो संस्कृत-कथा-वृत्ति मिलती है, जो बीकानेर वाली पाण्डु.
सकते । मेघदूत और गीतगोविन्द रसात्मक, उदात्त शैली लिपि के साथ प्राप्त हुई है । लीलावई-कहा के दोनों प्रका
से युक्त, भावसम्पन्न एवं गरिमामय है, पर वे महाकाव्य शित संस्करणो के साथ इसका प्रकाशन हुपा है।
नही । दूतवाक्य एकांकी रूपक है, जिसमें पाडवों के दौत्य ग्रन्थकार के अनुसार यह ग्रंथ १८०० छंदों में रचित में संलग्न नायक कृष्ण उत्तम चरित्र वाले और महान था। इसमे १३३० उपलब्ध है। (बीच-बीच में गद्य निर्देश उद्देश्य के सिए प्रयत्नशील व्यक्ति है, तथापि एक लघुरूपक है तथा एक स्थल पर प्रतिष्ठान का सक्षिप्त वर्णन भी मात्र है। गद्यमय है।) यह एक पद्य-काव्य है। इसमें समस्त रसो सामान्यतः महाकाव्य के क्षेत्र में स्वाभाविक रूप से पौर चारों वर्गों का अभिधान है । यह कृति वहदाकार है, लीलावई-कहा मे अनेक त्रुटियाँ प्रत्यक्ष है। भले ही हेमचंद्र लघु काव्यों में परिगणित नहीं की जा सकती, क्योकि ने रावण विजय और हरि विजय को उद्धृत कर स्वच्छंदाग्रन्थ का वस्तुतत्व किसी लधु घटना पर आधारित या त्मक रचना को महाकाव्य के रूप में परिगणित किया हो, किसी प्रसिद्ध इतिवृत का अश नहीं है । इसमे कथा नायक किन्तु सुदृढ़ परम्परा के अनुसार महाकाव्य का सर्गवन्धत्व के व्यापक जीवन का विवरण प्रस्तुत है। प्रतः लीलावई- (प्राकृत मे पाश्वासबन्धत्व) एक अपरिहार्य तत्व है। कहा पद्यात्मक महाप्रबन्ध, महाकाव्य या बृहत्काय कथा इसी प्रकार धीरोदात्त गुणान्वित कथानायक को स्थापित (सकलकथा, परिकथा) हो सकती है। धीरशान्त नायक करना दूसरी प्रधान प्रावश्यकता है। शेष तत्व इन्ही के तथा एक विजेता द्वारा सुनाई गई अनेक प्रतियोगियों की चतुर्दिक एकत्र हो जाते है और वे अन्यत्र भी समान होते है। कथा न होने से यह सकलकथा के लक्षणों के अनुरूप भी लीलावई मे उक्त दोनों प्रमुख तत्वों का अभाव है। ऐसी नहीं है। समस्त फलान्त प्राकृत-पद्य-प्रबन्ध होने से यह स्थिति में उसे महाकाव्य नहीं, कथा माना जायगा। रुद्रट प्रानन्दवर्द्धन और अभिनवगुप्त के लक्षणों के अनुसार के अनुसार उसे महाकथा और प्रानन्दवर्द्धन के अनुसार सकलकथा हो सकती है। डा० नेमिचन्द शास्त्री ने इसे सकल कथा कहा जा सकता है। हमारी दृष्टि से लीलावईमहाकाव्य कहा है। इसमें एक महाकाव्य की भांति प्रारम्भ कहा एक कथात्मक महाकाव्य है । में सन्नगरीवर्णन, ऐतिहासिक कथानायक, वसन्तवर्णन, युद्ध जैन कथाकारो के वर्गीकरण के अनुसार यह कामकथा योजना, प्रतिनायक-योजना, सभी तत्व इस रूप में है कि या विकथा के अन्तर्गत स्त्रीकथा या राजकया कही इसे रुद्रट की परिभाषा के अनुसार महाकाव्य भी कह जायगी। दिव्यादिव्य पात्रों की मिश्रित कथा होने से यह सकते हैं। साथ ही रुद्रटोक्त महाकाव्य के भी सभी लक्षण दिव्यमानुषी कथा भी है।
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भारतीय वाङमय को प्राकृत कपा-काव्यों की देन
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नीलावई-कहा में वृहत्कथा, कादम्बरी, सुबन्धुकृत जा सकते है। कुवलयमालाकार (७७६ ई.) अभिनन्द वासवदत्ता, रत्नावली, रघवश, कुमार संभव, विक्रमोर्वशीय, (नौवीं शताब्दी का प्रारम्भ) ने पादलिप्तसरि और उनकी सेतुबन्ध, ममराइच्चकहा, गउडवही प्रादि से बस्तुगत तथा तरंगवती कथा की प्रशंसा की। कल्प प्रदीप के अनुसार भागवत साम्य है।
पादलिन ने भनेक ग्रन्थों की रचना की, जिसमें शत्रुजयशिलालेखों के अनुसार सातवाहन या सातवाहन वंश कल्प भी है । प्रभावकचरित्र के अनुसार उन्होने इस समय का अस्तित्व प्रमाणित है। मद्रामों में साद तथा राजा वीर स्तुति की। पादलिप्त नागहस्तसूरि के शिष्य थे। सातवाहन के उल्लेख उपलब्ध हैं। पुराणों में इस वंश की प्राकृत पादलिप्त प्रबन्ध के अनुसार प्रतिष्ठानपुर के सातमूची दी गई है । गाहासतसई के अन्तः साक्ष्य के अनुसार कर्णी ने भृगुकच्छ के राजा नरवाहन पर माक्रमण किया। गाथा सप्तशती का कर्ता हाल सालाहण ही कयानायक भद्रबाहु ने भी इस घटना का उल्लेख किया है। पट्टावलियों हाल, सालाहण या सालवाहन है। सम्भवत: यह कुन्तल के अनुसार यह घटना वीरसंवत् ४५३ (१७ ई० पू०) में जनपद का अधिपति था। बाणभट्ट अभिनन्द, राजशेखर, समाप्त हुई। गुणाढ्य सातवाहन के प्राथित कवि के रूप सोड्ढल ने हाल-कृत कोश का उल्लेख किया है. मेरुतुंग, में तथा नागार्जुन प्रभावकचरित्र में उल्लिवित है, यह राजशेखरसूरि, जिनप्रभसूरि ने भी गाथाकोश का उल्लेख पादलिप्त के शिष्य थे। बोदित, बोडिस, कुमारिल हाल किया है। इन उल्लेखों से एक सामान्य परम्परा का बोध के सहयोगी कवि है। कर्पूरमजरी में यह कोट्टिस है। होता है, जिसके अनुसार राजा हाल सातवाहन कवि संभव है ऐतिहासिक पादलिप्तमूरि, को वोदित, बोडिस, गाथा सप्तशती या गाथाकोश का निर्माता अथवा संकलन- कोट्टिस या पोट्रिस प्रादि विकृत रूप में स्मरण किया गया कर्ता माना गया है।
हो । एक सिंहल नरेश शिलामेध (८वी शताब्दी) ने
सियवसलकर की रचना की थी। सातवाहन शब्द किसी सातवाहन नामक राजा से प्रवर्तित होने वाले राजवंश का सूचक है। परवर्ती लेखकों कोऊहल के अनुसार ग्रन्थ की भाषा महाराष्ट्र देश की ने इसे इस वंशके अन्य शासकों के लिए भी ग्रहण किया है। प्राकृत भाषा है तथा कतिपय देशी शब्दों से सवलित है । अतः गाथाकोश का कर्ता कौन सातवाहन है यह निश्चित इस पर अपभ्रंश का प्रभाव है तथा यश्रुति प्राप्त होती है । करना कठिन है। भद्रबाहुमूरि ने हाल का उल्लेख कुछ शब्दों की तुलना प्राधुनिक मराठी से की जा किया है। उद्योतनमूरि, अभिनन्द, प्रभाचन्द्र, मेरुतुग मकती है। और राजशेखर ने हाल को पादलिप्तसूरि से सम्बद्ध किया लीलावई-कहा का प्रडीरस शृङ्गार है। इसमें है। अन्यत्र भी हाल का नाम एक राजा, एक व्यक्ति के
त्रमा हाल का नाम एक राजा, एक व्यक्ति के शृंगार के दोनो पक्षो का चित्रण है। इसके अतिरिक्त रूप में परिवर्ती काल में उपलब्ध है। पुराणो के अनुसार वीर. रौद्र तथा करुण के अच्छे चित्रण है। वैसे समस्त सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि हाल का स्थिति- रसो का इसमे सन्निवेश है पात्रो की मनोदशामो के श्रेष्ठ काल प्रथम शती मे ६६ ई० पूर्व है। श्री हरप्रसाद शास्त्री बर्णन है। इसमें प्रमुखतया माधुर्य और प्रसाद गुण का तथा गौरीशंकर मोझा के अनुसार गाथासप्तशती का प्रयोग है, पर यथावसर प्रोज तथा दीर्घसघटना वाली गोड़ी लेखक हाल सातवाहन ईसा की प्रथम शती में राज्य रीति का भी प्रयोग है। करता था।
अलकारों की दृष्टि से लीलीवई-कहा मे उपमा, पादलिप्तकृत निर्वाण-कलिकाका प्रकाशन मोहनलाल उत्प्रेक्षा दृष्टान्त, रूपक, यथासंख्य, मालादीपक, कारकदीभगवानदास झवेरी ने किया है। इसकी भूमिका के अनु- पक, समोसोक्ति, भ्रान्तिमान्, उदात्त, अतिशयोक्ति, ब्याजसार भद्रबाहु स्वामी जैन परम्परानुसार १४ पूर्वो के स्तुति, विरोधाभास, व्यतिरेक, कायलिंग, समुच्चय, प्राक्षेप, ज्ञातानों में अन्तिम थे। पादलिप्त इनके समकालिक कहे सन्देह, विभावना, विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, मोलित मोर
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७२, पर्ष २८, कि० १
भनेकान्त
प्रतद्गुण प्रादि विविध प्रलंकारों के प्रयोग है। इनके स्वयंभ, कवि मादि ने लीलावई-कहा की गाथानों को माध्यम से कवि ने कही प्रकृति का सुन्दर चित्रण किया है, उद्धृत किया है अथवा उसके वस्तुतत्त्व की भोर संकेत तो कहीं मनोदशाओं की सफल अभिव्यक्ति की है। कवि किया है। कविराज कंजर नेमिचन्द्र के कन्नड़ चम्पू लीलाकी दष्टि शब्दालंकारों की अपेक्षा अर्थालकारी पर ही वती, क्षेमेन्द्र की बहत्वथामंजरी, जयवल्लभ के बज्जालग्ग, अधिक है। शब्दालकारो मे श्लेष, अनुप्रास, यमक और घनेश्वरसूरि के सुरसुन्दरिय चरिय, सोमप्रभसूरि के कुमारशृंखला-यमक अलकारों के प्रयोग सहज ही सुलभ है। पालप्रतिबोध, सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू, सुभाषिता
वली, अगडदन की कथा, धाहिल के पउममिरिचरिउ लीलावई एक प्रत्यन्त उत्कृष्ट कोटि का काव्य है।
आदि मे लीलावई से भाषा और भावगत साम्य है । नदी, पर्वत, वृक्ष, पुष्प, लता, कुज, फल, भ्रमर, कोकिल चन्द्रमा, सूर्य, ऋतु, समुद्र, अरण्य, सरोवर, उद्यान प्रादि प्राकृत कथा-साहित्य में लोकजीवन प्रचुर रूप में प्रकृति के समस्त उपकरणो का चित्रण यहाँ बहुलता से प्रतिबिम्बित हया है। संस्कृत साहित्य में उच्चवर्ग के प्राप्त होता है। कवि का प्रकृति-निरीक्षण सूक्ष्म एवं जीवन का ही चित्रण अधिक है, जब कि प्राकृत साहित्य मद्वितीय है। इस ग्रन्थ में अनेकों अछुती उपमायें तथा में जनसाधारण के जीवन का, उनकी परिस्थितियों और उर्वर कल्पनायें देखने को मिलती है। सामान्यतः प्रकृति- विवशताओं का अंकन है । भारतवर्ष के विगत ढाई हजार वर्णन की चार विधायें पालम्बन, उद्दीपन, अलकरण तथा वर्षों के सांस्कृतिक इतिहास का सुरेख चित्रपट खींचने में मानवीकरण यहाँ उपलब्ध होती है। प्रकृति के कलात्मक जितनी विश्वस्त और विस्तृत उपादान सामग्री इन वर्णन सूर्योदय, सूर्यास्त, चन्द्रोदय और चन्द्रास्त के प्रसंग कथाग्रन्थों मे मिलती है, उतनी अन्य किसी प्रकार के में देखे जा सकते है। यद्यपि प्रकृति के रमणीय रूप का साहित्य में नहीं मिल सकती। इन कथाओं में भारत के वर्णन ही कवि को प्रिय है, तथापि प्रकृति के भीषण स्वरूप भिन्न-भिन्न धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्र, समाज, वर्ण प्रादि के का भी यत्किञ्चित् चित्रण उपलब्ध होता है।
विविध कोटि के मनुष्यों के नाना प्रकार के प्राचार
विचार, व्यवहार, सिद्धान्त, आदर्श, शिक्षण, संस्कार, लीलाबई-कहा का कथानायक हाल एक राजा है।
रोति-नीति, जीवन-पद्धति, राजतन्त्र, वाणिज्य-व्यवसाय, विजयानन्द, पोट्रिस, माधवानिल, चित्रांगद, नागार्जुन,
अर्थोपार्जन, समाजसगठन, धर्मानुष्ठान, एवं प्रात्मसाधन भट्ट कुमारिल, पाशुपत, शिलामेघ, विपुलाशय, नलकूबर
आदि के निदर्शक बहुविध वर्णन प्राप्त होते है, जिनके हंस तथा मलयानिल इस कथाकृति के पुरुष पात्र तथा
आधार से हम प्राचीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास का लीलावती, महानुमति, कुवलयावली, चन्द्रलेखा, माधवीलता, विचित्रलेखा, शारदश्री, वसन्तश्री, पद्मा, कमला
सर्वांगीण एवं सर्वतोमुखी मानचित्र तैयार कर सकते है। और रंभा स्त्री पात्र हैं। इनके अतिरिक्त द्वारपाल, पुरो- इन ग्रन्थों में विविध सामाजिक उत्सवो-जन्मोत्सव, हित, मन्त्रिपुत्र, वीरवाहन, सालाहण का पुत्र प्रादि पात्रो नामकरण, वरणय, स्वयंवर, विवाह, मल्ल-महोत्सव प्रादि के उल्लेख हैं। चरित्र चित्रण की दृष्टि से कथा में किसी के वर्णन है। धार्मिक उत्सवों मे पर्यपण-पर्व, अष्टाह्निकापात्र के चरित्र का क्रमिक विकास प्रदर्शित नही किया पर्व, सिद्धचक्रविधान प्रादि की चर्चा है । विविध कलानों गया है, और न ही ऐसे स्थलों की योजना की गई है, तथा विद्याओं की सूचियां दी गई है। शिक्षा प्राप्त करने जिनसे पात्रों के चरित्र स्पष्ट हों। स्त्री पात्रों में उनके की मायु तथा शिक्षागृहों के उल्लेख है। कुवलयमाला में शारीरिक सौन्दर्य और प्रणयी स्वरूप का ही चित्रण है, विजयापुरी के छात्रमठ का वहाँ के छात्रो और उपाध्यायों यही बात माधवानिल और चित्रांगद के विषय में कही जा का वर्णन है। भोजन तथा मनोरजन के साधनो, धूतक्रीड़ा, सकती है।
प्रहेलिका, गोष्ठियों मादि के उल्लेख है। वस्त्र, प्राभूषण मानन्दवर्धन, भोज, हेमचन्द्र, वाग्भट, त्रिविक्रम, तथा तत्कालीन रीति-रिवाजो का भी इनसे पता लगता
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भारतीय वाङ्मय को प्राकृत कथा-काव्यों की देन
है। इस युग के साहित्य में तान्त्रिक विद्या सिद्ध किये गया है। कुवलयमाला में दिशागमन, मित्र बनाना, नर. जाने के प्रचर वर्णन मिलते है। कापालिक और सिद्धपुरुषों पतिसेवा, मान-प्रमाणो में कुशलता, धातुवाद, मन्त्र देवताके वर्णन प्राय: सभी कथा-ग्रन्थो में मिलते है । देवताओ राधन, सागरतरण, रोहण, ग्वनन, वाणिज्य, नाना प्रकार के समक्ष नरबलि दी जाती थी और मनोकामना की सिद्धि के कर्म, विविध विधाये एव जिल्प प्रर्थ प्राप्ति के उपाय के लिए कुलदेवता के अतिरिक्त नदी, समुद्र प्रादि प्राकृतिक बताये गये है। प्राकृत कथापो में म्यन यात्राग्री और उपादानों की पूजा की जाती थी। नारायण, चडिका, हर, जल-यात्रामों के रोचक वर्णन उपलब्ध होते है। प्रायः रवि, विनायक प्रादि इम युग के प्रमुख उपास्य देवता थे। वणिक ही ऐसी यात्राये किया करते थे। इन वर्णनो में कामदेव और गौरी की पूजा भी प्रचलित थी।
मानव-स्वभावो और परम्पराग्रो के विस्तृत वर्णन प्रस्तुत
किये गये है। इनमे जग, पवहण, बेडिय, दोष, वेगड, इस कथा साहित्य से स्त्री जीवन का भी अच्छा परि.
सिन, भावन, खुरप बोहित्थ इत्यादि विभिन्न जलयानो चय मिलता है। उच्चकूल की बालिकायें भी बालको की सजा
का के वर्णन है। इन यात्रामों के पूर्व समुद्र, कुलदेवता, ब्राह्मण भाति प्राचायों के पास जाकर शिक्षा प्राप्त करता था। प्रादि की पूजा की जाती थी तथा अन्य साथियो को भी सहशिक्षा भी प्रचलित थी। विवाह माता-पिता को अनु. साध ले जाया जाता था। चीन, सुवर्णभूमि, यवनद्वीप, मति से होते थे, यद्यपि कन्याओ की स्वीकृति भी ली
सिंहलद्वीप, बब्बरकूल, टंकण देश आदि प्रमुख व्यापारिक जाती थी। स्वयंवर और गान्धर्व विवाह भी होते थे। इसी
था केन्द्र थे। गाड़ियों द्वारा स्थल-यात्रायें की जाती थी। सपिण्ड विवाह होते थे। विवाह अन्तरधर्मीय होते थे,
वर्षा-ऋतु में इन यात्रामो में अनेक कठिनाइयां पाती थी। किन्तु समियो मे विवाह प्रशस्त समझे जाते थे। उच्च
मार्गों मे भीलो के और चोरो के पात्रमण हो जाते थे । वर्ग मे बहुविवाह प्रचलित था। विवाह छोटी आयु मे
| था। विवाह छाटा प्रायु म राजपुत्र भी इन यात्रामो में सम्मिलित होते थे । व्यापारी किये जाने का उल्लेख है। प्रायः परिपक्व पायु मे ही।
लोग शुल्क (चगी) की चोरी भी किया करते थे । धातुविवाह होते रहे होगे क्योंकि कन्यानों के शिक्षित होने वाद भी इस युग मे धनप्राप्ति का सुखद माधन था। ये तथा उनकी सम्मति लिए जाने के अनेक प्रसंग है।
लोग नरेन्द्र कहलाते थे। धातूवादी पौषधियो से स्वर्ण विवाह में मनोभावनामो को जानने के लिए चित्र बनाते थे। पृथ्वी को खोद कर गड़ा हा धन निकालना भेजे जाते थे। विवाह के अवसर पर श्वेत रग शुभ भी धन प्राप्ति का साधन था। माना जाता था।
प्राकृत के इस विशाल कथा-साहित्य में विविध प्रकार कन्यायों का जन्म दुःखद माना जाता था। स्त्रियों की
की कथा वस्तुयें है तथा तदनुरूप ही विविध प्रकार के दशा दयनीय ही थी। सन्देह होने पर पति पत्नी का परि
पात्रों के वर्णन प्राप्त होते हैं। राज्यतन्त्र तथा राजा के त्याग कर देते थे। पिता रुष्ट होने पर अपनी कन्या का विवाह अयोग्य वर से कर देते थे। अनेक पतिव्रता और
__ जीवन की भनक भी यत्र-तत्र प्राप्त होती है। साध्वी स्त्रियों के इनमें वर्णन है, जिन्होंने अपने साथ-साथ
राज्य ज्येष्ठ पुत्र को मिलता था। राजा को अपनी अपने सम्पर्क में प्राने वाले व्यक्तियों के चरित्र को भी
पत्नी, पुत्र, मन्त्री तथा सामन्ती की भी परीक्षा उन्नत किया है। धार्मिक प्रेरणा से लिखित होने के कारण
करनी पड़ती है। सामन्तों की दशा दयनीय होती थी। इन ग्रन्थों में स्त्री-निन्दा-सूचक वर्णन मिलना स्वाभाविक
राजा के राज्य की ओर से विरक्त होने पर मन्त्री उन्हें है। वेश्यामों, दुश्चरित्र तथा कलहप्रिय नारियों के वर्णन
हटाकर उनके पुत्रों को राज्य दे देते थे। राजा प्रजा से भी यहां मिलते हैं।
माय का छठा भाग कर के रूप मे वसूल करते थे। युद्ध इन ग्रन्थों में अर्थोपार्जन के साधनों का निरूपण करने से पूर्व राजा मन्त्रियो से मन्त्रणा करते थे। गुप्तचरो करते हुए प्राचीन ऋषियों के वचनों को उद्धृत किया की नियुक्ति की जाती थी। राज्याधिकारियों की भी राजा
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७४, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
समय समय पर परीक्षा निया करते थे। सेना में सर्वप्रथम के काव्यमय वर्णनो में प्राकार, अट्टालिका, गोपुर, देवकुल, पदाति, उसके पश्चात् क्रमशः अश्व, हस्ति तथा रथसेना धवलप्रामादो, पारामो, उद्यानो, विहारो आदि के वर्णन होती थी। शुभ मुहूर्त मे युद्ध के हेतु प्रस्थान किया जाता है। नगर के चारों और परिखा से घिरा हुमा सुधाधवल था। शत्रुसेना के पाने पर मार्ग में जो गाँव पड़ते थे, प्राकार होता था। नगर त्रिक, चतुष्क, चर्चर, चतुर्मुख, उन्हें खाली कर दिया जाता था, कुएँ ढक दिए जाते थे, महापथ, पथ आदि भागो द्वारा सुविभक्त रहता था। परिखायें जल से परिपूर्ण कर ली जाती थी। विविध भवन मे शालभनिकाये होती थी। इनके छज्जो को शस्त्र तीक्ष्ण कर लिए जाते थे। योद्धानों का सम्मान मत्तवारण कहा जाता था। तलघर को भूमिगृह कहा किया जाता था। दुर्गों को खाद्य पदार्थ तथा ईधन से परिपूर्ण जाता था। प्रासाद गप्नभूमिक भी हुया करते थे। कर लिया जाता था। समुद्र तटों को विषम (दु सचरणीय) मक्ता-निर्मित जिन-प्रतिमाओं के उल्लेख है । पाषाण, किया जाता था। सरोवरों का पानी अपेय कर दिया मालिका बोर काट को मतियां बनाई जाती जाता था। राजा स्वयं भी युद्ध करने जाते थे, पर शक्ति- वाद्यो के तथा संगीतकला के वर्णन मिलते है। मदनशाली राजा अपने सेनापतियो को ही भेजते थे। यद्ध में। महोत्सव या शारदीय पूणिमा के अवसर पर चर्चरी गीत विजय प्राप्त होने पर जयस्तम्भ गाडे जाते थे तथा जय- या रासक नत्य होने थे। डंका बजाये जाते थे। राजा का श्वेत हाथी जयवारण, विविध रंगी से कागज, वस्त्र, काष्ठ तथा भित्तियों जयकुंजर या पट्टहस्ति कहलाता था। सन्धि होने पर शस्त्र पर चित्र बनाये जाते थे । चित्रकला में रेखा की विशुद्धता, लौटा दिये जाते थे। राज्याधिकारियों में अमात्य, मन्त्री, वर्णो का सन्दर सामजस्य तथा प्रमाणों की यूक्तता का दण्डाधिप, सामन्त, अक्वदलियो, निउत्तपुरिस, चारपुरिस, ध्यान रखा जाता था। मणियो के चूर्ण का प्रयोग चित्र कटकपाल, पारखियपुरिस, कोतवाल, पुग्थेष्ठि, मुकियालोय, की रचना में किया जाता था। पातार, महाश्वपति, पदातिसेनाका अधिपति, स्यन्दनाधिपति
इस युग में काव्यकला के प्रति भी लोगो का आदरप्रायुधशालापालक, कारणिक, सेनाधिप प्रादि होते थे। भाव था। श्रेष्ठ सभापित पर थेप्ठि एक लाख मुद्रा भी राजा के पांच सौ तक मन्त्री होने का उल्लेख है। विविध प्रदान कर देते थे। विद्वत्ता की परीक्षा समस्यापूर्ति द्वारा प्रायुधों के उल्लेख मिलते है। चोरी के अपराध मे प्राण- की जाती थी। दण्ड दिया जाता था। अपराधी को यमगण्डिका पर बैठा.
इस प्रकार हम देखते है कि प्राकृत कथा-काव्यों ने कर नगर मे घुमाया जाता था। प्रसन्नता के अवसरो पर साहित्यिक, सामाजिक और सास्कृतिक क्षेत्र मे एक अविबन्दियो को छोड़ दिया जाता था।
स्मरणीघ निधि देश को सौप दी है। इनमे देश का सहस्रों ललितकलायें इस समय उन्नत अवस्था मे थी। नगर वों का जीवन विशद् रूप में उपलब्ध होता है। श्री कस्तूरबा कन्या महाविद्यालय, गुना ।
उदभावना किसी ने कहा- मच्छर बहुत हो गए हैं, बड़ा दुःखी करते हैं। इनको नष्ट करने की कोई बवा बतायो । मनुष्य भी बहुत हो गए हैं। इन्होंने जानवरों को और नन्हें जन्तुषों को बड़ा दु खो कर रखा है। उनके जंगल-घोंसले-जाले साफ करवा दिये, उन्हें मरवा डाला, उनके छेदन भेदन किए, उनको पीटा, कैद किया, परन्तु जानवरों ने कभी नहीं सोचा कि ये मनुष्य बहत हो गये हैं। इनको नष्ट करने की कोई योजना बनाएं। क्या मानव जीव-जन्तुओं से भी अधिक क्रूर है ?
X प्रकाश से कोई भी प्रकाश ले ले -प्रकाश बढ़ जाता है। दीपक से दीपक जला लो प्रकाश बढ़ जाता है। दर्पण दीपक के प्रकाश से हिस्सा बटा लेता है तो प्रकाश बढ़ जाता है। ज्ञान भी बंटाने से बढ़ता है।
- श्री महेन्द्र सेन जैन
X
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स्याद्वाद और अनेकान्त : एक सही विवेचन
श्री बाबू लाल जैन [अनेकान्त का यह अर्थ नहीं कि यह भी सच है, वह भी सच है। अनेक न्त का सही
अर्थ समझना आवश्यक है, अन्यथा अनेक भ्रान्तियों का जन्म हो जाता है। वस्तु मे अनन्त धर्म है। उसका कथन अस्ति नास्ति दृष्टि होनी ही चाहिए। ये दृष्टिया कोई वस्तु मे हेरफेर रूप से, (positive और negative) रूप से, किया जाना नहीं करती, यह तो जैसी वस्तु है, उसका उस रूप से है । अस्ति (positive) धर्म में एक की प्रधानता रहती प्रतिपादन करती है। नयो से वस्तु बदली नहीं जाती है नास्ति, (negative) धर्म बाकी के अप्रधान धर्मों को है, नय तो जो चीज वस्तु में है, उसका प्रतिपादन जिन्दा रखता है। इसलिए अस्ति व नास्ति (positive करते है। and neagtive) दोनो मिल कर पूरी वस्तु बनती है। इसी प्रकार वस्तु में उसका एक अकेला स्वरूप है जसे प्रात्मा में ज्ञान है, दर्शन है, सुख प्रादि धर्म है। और एकः संयोगी अवस्था है । एक दृष्टि अकेले स्वरूप को प्रात्मा का ज्ञानगुण ही ज्ञान रूप है। दर्शनगुण ज्ञानरूप बता रही है, दूसरी उसी समय जो सयोग है, उसको बता नही, सुखगुण ज्ञानरूप नहीं। याने दर्शन गुण और सुख गुण रही है। अगर सयोग मे एकपना मा जाएगा तब वस्तु ज्ञानरूप नहीं है, अथवा अज्ञानरूप है। जब यह हमा कि जैमी है, वैसी मगझ में नहीं आने से एकान्त हो जाएगा। पात्मा ज्ञानरूप है। इसमें ज्ञान धर्म की प्रधानता है और वस्तु का विपर्यय हो जाएगा। प्रात्मा प्रज्ञान स्वरूप है, इसमें ज्ञान के अलावा बाकी सब अनेकात वही बनता है जहाँ वस्तु स्वरूप को दिखाने धर्म मा गये। इमी प्रकार से अगर यह कहा जाये कि वाले दो विरोधी धर्मों का प्रतिपादन किया जाता है। मात्मा दर्शन स्वरूप है तब बाकी धर्म प्रदर्शन स्वरूप
अथवा यह कहना चाहिए कि सत्य का प्रतिपादन करना ठहरेगे : दर्शन स्वरूप कहने में दर्शन की प्रधानता
है और उस सत्य को बतलाने वाले अनेक दृष्टिकोणो रही पौर प्रदर्शन स्वरूप कहने में दर्शन के अलावा (view points) से उसका प्रतिपादन करना है। वे बाकी सारे धर्म आ गए और पूरी वस्तु का कथन सभी दष्टिकोण जो मत्य को बताने वाले हैं, हमें मजूर हो गया। इसलिए वस्तु कथचित ज्ञान स्वरूप है होते है। परन्तु जो मत्य को बताने वाले नहीं है, वे दृष्टिऔर कथचित अज्ञान स्वरूप है। मस्ति (positive) कोण स्यादवाद के नाम पर मंजूर नहीं हो सकते। सत्य रूप धर्मों के अलावा बाकी धर्मों का नास्ति स्वरूप एक प्रकार का है और एक ही है। अस्तित्व दिखाया गया है।
___मामान्य वस्तु स्वरूप से विशेष वस्तु का स्वरूप दूसरी प्रकार, वस्तु द्रव्य स्वरूप याने सामान्य स्वरूप विरोधी है। एक अकेले स्वरूप से सयोगी स्वरूप विरोधी है और पर्याय रूप याने विशेष स्वरूप भी है । क्योकि पूरी है। ज्ञान गुण से दर्शन गुण विरोधी है। इसी प्रकार वस्तु सामान्य विशेषात्मक है इसलिए पूरी वस्तु का कथन ध्रौव्य से उत्पाद-व्यय विरोधी है और क्योकि वस्तु करने के लिए द्रव्यदृष्टि से अगर नित्य रूप कहते हैं तो सामान्य विशेषात्मक, द्रव्य-पर्याय रूप है और अनंत गुणा. पर्याय दृष्टि से अनित्य रूप देखना जरूरी है और प्रमाण त्मक है इसलिए एक दृष्टि से पूरी वस्तु की जानकारी दृष्टि से एक ही समय में नित्य अनित्यात्मक देखना नहीं हो सकती जब तक दूसरी दृष्टि को जिन्दा नहीं रखा जरूरी है। इसलिए पूरी वस्तु का प्रतिपादन मात्र एक दृष्टि जाय, चाहे गौण रूप से ही क्यो न रखा जाय । नय से से नही हुआ, उस एक दृष्टि को पूरक दूसरी उसकी विरोधी वर्णन करना उसी को कहा जाता है जब वह पूरी वस्तु को
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७६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
पहले जाने और फिर एक-एक दृष्टि से कथन करते हुए वस्तुओं के एक क्षेत्र में रहते हुए भी उनमें संयोग भी दूसरी दष्टि की अपेक्षा रखे । अाजकल जो अनेकांत का नही मानता। म्वरूप बताया जाता है : ऐसा भी है. वैसा भी है, हमें तो जैसा सम्बन्ध प्रात्मा का ज्ञान के साथ है. सब मंजर है, हम तो अनेकांती है, यह तो अनेकांत धर्म वैसा राग के साथ नही है। ज्ञान का मजाक उडाना है । अनेकांत धर्म जैसी वस्तु है उसको व्याप्त-व्यापक रूप है। जहाँ-जहाँ ज्ञान है, वहाँ वहाँ उसी रूप में देखता है, अन्यथा नहीं। इसलिए अनेकात प्रात्मा है और जहाँ-जहाँ प्रात्मा, वहां-वहां ज्ञान ही सत्य स्वरूप है । जो अनेकांत से रहित है, वह मिथ्या है। जहाँ ज्ञान नहीं, वहाँ प्रात्मा नही, जहां प्रात्मा नहीं रूप है : हाथी को खम्भा देखने वाला गलत है, पखा वहाँ ज्ञान नहीं। परन्तु ऐसा सम्बन्ध राग के साथ नहीं। देखने वाला भी गलत है। पहले हाथी को, पूरे को जाने, जहाँ-जहाँ राग है, वहाँ-वहाँ प्रात्मा है परन्तु जहाँ प्रात्मा फिर पैर को खम्भे रूप देखता हुमा हाथी के बाकी बचे है, वहां राग हो भी या न भी हो। इसलिए ज्ञान का मात्मा शरीर के साथ में सापेक्षता रखे तब यह कह सकता है कि के साथ कथन एवं राग और आत्मा का कथन अलग-अलग पैरों की अपेक्षा वह खम्भे जैसा है। हाथी खम्भे रूप है, रूप से करना जरूरी है। अन्यथा दोनों में एक प्रकार का ऐसा नही है। क्योकि पर हाथी से अभेद रूप है, इसलिए ही सम्बन्ध समझ में आने से वस्तु का कथन विपर्यय को पैरो की अपेक्षा हाथी खम्भे रूप है परन्तु उतना ही हाथी प्राप्त हो जाएगा। नही है। पूरे हाथी के लिए बाकी हाथी के स्वरूप की वस्तु का कथन एक उसकी अपेक्षा से होता है, एक अपेक्षा करना जरूरी है। यह तभी हो सकता है जब पूरे संयोगी वस्तु की अपेक्षा से कथन होता है। एक अभेद हाथी का ज्ञान हो।
रूप से होता है, एक भेद दृष्टि से होता है। एक गुणों का इसी प्रकार से प्रात्मा नामक वस्तु है। उसमें- भेद करके कथन होता है, एक 'पर' को भिन्न करके कथन (१) ज्ञानादि गुणो का पिण्ड अभेद है,
होता है । परन्तु नय की सार्थकता तभी है, जब जैसी वस्तु (२) रागादि भाव हो रहे है,
है उसको उसी रूप दिखावे । संयोग को संयोग रूप, एक (३) ज्ञान-दर्शनादि अनेक गुण है,
को एक रूप । हमे एक सयोग मे पडे व्यक्ति का कथन (४) ज्ञानादि गुण की अनेक अवस्था हो रही है, इस प्रकार करना है कि सयोग जिसका जिस प्रकार का (५) कर्मों का सम्बन्ध है,
है, वह वैसा ही समझ में आ जाय तब उसका जो कथन (६) शरीर का सम्बन्ध है,
होगा वह इस तरह से और इस दृष्टि से होगा :(७) बाहर मे स्त्री-पुत्रादिक का, धन-वस्त्रादि का, (१) एक निश्चय-परमार्थ दृष्टि है वह प्रात्मा को सम्बन्ध है।
सारे सयोगों से अलग, एक अकेली दिखाती है। अपने अब इसका प्रतिपादन इस प्रकार से करना है कि गुणों से भिन्न है, जैसे - चैतन्य । हरेक सम्बन्ध की तारतम्यता में फरक न पड़े और 'पर'
और (२) अशुद्ध निश्चय दृष्टि-यह परिणमन है तो के साथ एकत्व बद्धि न हो जाये। क्योकि एक वस्तु कभी पात्मा में, परन्तु अशुद्ध परिणमन है, जैसे रागादि. क्रोधादि
परिणमन । भी अन्य वस्तु रूप नही हो सकती। वस्तु का एक अकेला
(३) अनुपचरित सद्भूत व्यबहार नय बताता है-यह पन कायम रहना ही चाहिए । दो द्रव्यो मे एकपना होता
प्रात्मा के गुण है इसलिए सद्भूत है। कही बाहर से भाई नही और दो द्रव्यो में एकपने की मान्यता ही मिथ्यात्व
हुई बात नही है, जैसा है वैसा ही है । इसलिए अनुपचरित है। दो द्रव्यो की पर्यायो का एक-दूसरे के साथ संयोग
और व्यवहार, है तो प्रात्मा के साथ प्रभेदरूप, परन्तु होता है, उसको देख कर अज्ञानी उसमें एकपना मान लेता
अलग-अलग वस्तुतः नहीं किए जा सकते, समझाने को है। व्यवहार भी दो वस्तुमों में एकपना नहीं बताता परन्तु
अलग-अलग कयन किया गया है, इसलिए व्यवहार है, दो वस्तुप्रो के सयोग को मंजूर करता है। परमार्थ दो जैसे प्रात्मा के ज्ञान-दर्शन गुण प्रादि ।
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स्थायवाद और अनेकान्त : एक सही विवेचन
(४) उपचरित सद्भुत व्यवहार नय बताता है कि बस्तु को जानना और पर्यायदष्टि के विषय भूत वस्तु को यह बात है तो प्रात्मा के अस्तित्व में इसलिए सदभत है जानना दोनो बातो को एक साथ जानना जरूरी है परन्तु परन्तु बाहर से, 'पर' के सम्बन्ध से हुई है, इसलिए उप- कथन एक साथ नही कर सकते-एक को पहले कहना चरित है और अभेद में भेद करके कही गई है, इसलिए पडेगा, दूसरी बात उसके बाद कही जाएगी। वहाँ ऐसा व्यवहार है। जैसे प्रात्मा के मतिज्ञानादि । ये ज्ञान के भेद समझना चाहिए कि अगर एक बात भी कही गई है तो कर्म जनित है। प्रात्मा के ज्ञान गुण की अपूर्ण, अविकसित दूसरी बात भी जरूर जिदा है, उसका निषेध नही है. अवस्था हैं।
पहली बात दूसरी की अपेक्षा रखे हुए है, वस्तु का पूरा (५) अनुपचरित असद्भुत व्यवहार नय बताता है स्वरूप दोनो बात कहने पर ही होगा। अगर हम कहते कि यह प्रात्मा के अस्तित्व में नहीं है। इसलिए अमद्भुत है है कि यह प्रात्मा मनुष्य है और यह कथन उपचरित परन्तु आत्मा के साथ निमित्त नमित्तिक सम्बन्ध है; इस- असद्भूत व्यवहार नय से है तो इसका अर्थ यह हा कि लिए अनुपचरित है। प्रात्मा के न होने पर भी प्रात्मा के यह मनुष्य का शरीर प्रात्मा से भिन्न है। फिर भी दोनों
स लादार से समाज को मिलाकर यह बात कही गई है। तब दो द्रव्यों मे से बंधी है।
एकत्व बुद्धि होने का सवाल नहीं रहता। लोक व्यवहार (६) उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार नय बताता है
जो चलता है वह सयोग को ही लेकर चलता है। मटर कि यह प्रात्मा के अस्तित्व मे नहीं है, इसलिए अमद्भत है
की खिचडी कहने से केवल मटर नही परन्तु साथ मे और इनका सम्बन्ध प्रात्मा के साथ कर्म के समान नही
चावल होने से ही बनेगी। परन्तु कहलावेगी मटर की है, बाहरी है, इसलिए उपचरित है। फिर भी प्रात्मा की खिचडी। पूरी वस्तु का ज्ञान करके फिर जो कथन किसी कही जा रही है इसलिए व्यवहार है। जैसे-आत्मा दृष्टि से किया जाता है, वह बाकी बची वस्तु के कथन को शरीर धारी है, मनुष्य है।
साथ रखने पर ही पूरा कथन होता है। (७) उपनय बताता है यह प्रात्मा से सम्बन्धित भी जैसे दूध का उदाहरण देकर समझाया गया है कि नही है परन्तु उपचरित असद्भुत व्यवहार नय के विषय दूध का कथन किस प्रकार से 'पर' सयोग की अपेक्षा के साथ सम्बन्धित है इसलिए नय में शामिल नहीं होने
मित मलिन में शामिल नहीं होने किया जाता है, यह कथन उसी पर लागू पड़ता है जो पर भी नय की तरह है। जैसे-मकान, कपड़ा, स्त्री आदि असली दूध के निज स्वरूप को जानता है, उसी का केसको आत्मा की कहना।
रिया दूध, गर्म दूध, मीठा दूध, कहना सही है। वही इन सातों बातो से यही साबित होता है कि किसी असली दूध का स्वरूप जानता है। इसलिए केसरिया, गर्म प्रात्मा के एक अकेले स्वरूप को समझ कर यह समझना कहते हुए भी यह समझेगा कि यह संयोग की अपेक्षा है। है कि अन्य का सम्बन्ध प्रात्मा के साथ किस प्रकार का परन्तु जिसने जीवन मे हमेशा मीठा डाला हुमा दूध पिया है। अन्य के सम्बन्ध को बताने वाला अमद्भुत व्यवहार हो और कभी एक अकेले दूध का स्वभाव नही जाना, वह नय है, एक अभेद प्रात्मा में भेद करके कथन करने वाला तो यही समझेगा कि दूध का अकेले का स्वाद मीठा होता सदभत व्यवहार नय है और जो आदमी की अवस्था वर्त- है। वह यह नहीं मानेगा कि मीठापन ऊपर से पाया हमा मान में हो रही है, उसको बताने वाला अशुद्ध नय है। है। इस कारण उसकी दूध सम्बन्धी मान्यता मिथ्या हो इन पाठो को दो भागो में विभाजित किया जा सकता है। जाएगी। इसी प्रकार प्रात्मा का कथन करने में और निश्चय नय याने द्रव्याथिक नय और बाकी सब पर्याया- समझने मे पहले प्रात्मा के एक अकेले स्वभाव को जानना थिक नय। इस प्रकार जो पहले का विषय था कि वस्तु जरूरी है। फिर यह समझे कि इसके साथ इन-इन चीजों द्रव्य-पर्यायरूप अथवा सामान्य विशेषात्मक है, इसलिए पूरी का संयोग इस-इस प्रकार का है, तब तो सयोग मे एकपमा वस्तु का ज्ञान करने के लिए द्रव्य दृष्टि के विषयभूत नहीं बनेगा और जैसी वस्तु है वसी जानकारी हो जाती।
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७८, वर्ष २८, कि० १
प्रनेकान्त
घर में बड़े बड़े लोग बच्चे को कहते है मा को बुला ला। अवस्था बदली हुई है। प्रमाण दृष्टि एक समय में यह इसका मतलब उनकी अपनी मां मे नही परन्तु बच्चे की देखती है कि वस्तु अनन्य होते हुए भी अन्य रूप है । मां से है। परन्तु कहा यही जाता है क्योंकि बच्चा उसी प्रमाण दृष्टि वह है जहाँ पर दोनों दृष्टि रूप वस्तु को भाषा में बात को समझता है। इसी प्रकार वहने वाले को एक साथ देखा जाता है। परन्तु कथन एक साथ नहीं वही भाषा बोलनी पडती है परन्तु यह समझ कर बोलता होकर प्रागे पीछे ही होगा। इसलिए तराज की डंडी को है कि यह सुनने वाले को समझाने के लिए बोली जा प्रमाण कहा जाता है और दोनों पलडों को दो दष्टियाँ रही है।
कहा जाता है अथवा ऐसा भी कह सकते है कि न्याय करने ____ समयसार मे उन्होने इसी विषय का खुलासा करते वाला जब प्रमाण रूप होता है, वह किसी दृष्टि का पक्ष. हए लिखा है कि आत्मा अवद्ध-अस्पर्श अनन्त-प्रनित्य- पात नहीं करता और दोनो पक्षो के दो वकील दो नय प्रस युक्त और प्रविशेष है। जो ऐसी आत्मा को देखता है, कहलाते है। वे अपने-अपने पक्ष का प्रतिपादन करते है । वह परे अागम को देखने वाला है। वहा लिखा है कि ज्ञान है, वह प्रमाणरूप है और शब्दो से जो कथन किया अगर परमार्थ दृष्टि के विषयभूत आत्मा को देखे तो वह जाता है, वह नयरूप होता है। न कर्मों से बंधा है, न कर्मो से स्पर्शित है। परन्तु उसी वक्त पर्यायरूप से प्रात्मा को देखे तो कमों से बधा भी है।
तीसरी बात है कि आत्मा को जब द्रव्य दृष्टि से
देखते है तो वह नित्य द्रव्य रूप दिखता है और उसी वक्त पौर स्पर्शित भी है। उदाहरणार्थ-एक पादमी रस्सी से
अगर पर्याय दृष्टि से देखा जाता है तो समय-समय में बंधा हुआ है, उसको अगर परमार्थ दृष्टि से देखें तो,
पर्याय याने अवस्था बदली हो रही है, उत्पाद-व्ययपने को क्योंकि परमार्थ दृष्टि 'पर' को ग्रहण नहीं करती, एक
प्राप्त हो रही है। उत्पाद-व्यय क्या है ? एक ही बात को अकेली वस्तु को ग्रहण करती है, इसलिए वह प्रादमी अपने । में है, रस्सी का अस्तित्व रस्मी मे है रस्मी अादमीरूप
दो प्रकार से रखना है-एक घड़ा फूट गया और दूसरे
उसके कपाल बन गये। जब व्यय की दृष्टि से देखें तो नही हो गई, अादमी रस्सीरूप नही हो गया । इसलिए वहाँ मात्र वह आदमी ही दृष्टिगोचर होगा। परन्तु पर्या
कहते है घड़ा फूट गया और उत्पाद दृष्टि से देखते है तो यरूप से देखे तो वह बंधा हुमा दिखाई देगा। इस प्रकार
कहते है कपाल बन गया। परन्तु असल में देखा जाय तो इन दोनो दृष्टियो से देखने से फायदा यह हुआ कि यह
घड़े का फूटना, कपाल का होना, एक ही बात है। इसबात समझ में आ गयी कि बन्धन बाहर से आया हा
लिए घड़े का फटने रूप व्यय और कपाल की उत्पत्ति है । वस्तु का अपना रूप नहीं। अलग हो सकता है, वस्त रूप उत्पाद एक समय मे हुआ है और मट्टी-मट्री रूप से के साथ एकपने को प्राप्त नही है ।
दोनो अवस्थाओं में एक रूप ध्रुव है।
दूसरी बात यह है कि जब द्रव्य रूप से देखते है तो चौथी बात है, असंयुक्त प्रात्मा की द्रव्य दष्टि से देखें मात्मा प्रनेको अवस्थानो मे जाते हए भी अपने एकपने तो प्रात्मा एक अकेला चैतन्य है। परन्तु पर्याय रूप से को नही छोड़ता, अपने एक चैतन्य स्वभाव को नही देख ता रागा-द्वपा हा रहा है । जस घा है, वह भाग पर छोडता। परन्तु उसी समय पर्याय रूप से देखें तो हर रख कर गर्म कर दिया जावे तो पहले ठडा था, अब गर्म वस्था अलग-अलग है। जैसे मट्टी का घड़ा, मटकना हो गया । गम होने हर में
हो गया। गर्म होने हर भी घी अपने चिकनेपन स्वभाव आदि बने है, उस घड़े और मटकने को न देखकर मात्र को नहीं छोड़ रहा है। चिकनेपने को दृष्टि में लेकर मट्टी को देखें तो घड़ा और मटकने में बड़ा अन्तर है। इस विचार करें तो वह एकरूप है और ठंडे-गर्मपने को लेकर बात को दोनों दृष्टियो से समझने पर एक अवस्था के विचार करें तो पहले ठंडा था, अब गर्म है। बदली होने पर वह यह नहीं समझेगा कि वस्तु का सर्वथा अविशेष याने प्रात्मा को प्रभेद रूप से देखें तो प्रात्मा नाश हो गया। वह यही समझेगा कि वस्तु की मात्र एक अखण्ड रूप दृष्टिगोचर होती है। परन्तु गुणो के भेदो
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स्यावाद और अनेकान्त : एक सही विवेचन
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को लेकर मोचें तो ज्ञान गुण अलग है, उसका कृत्य अलग इससे मालूम होता है कि वस्तु में दो धर्म है । जहाँ अपने है और दर्शन आदि गुण अलग-अलग है। प्रमाण दृष्टि से अस्तित्वपने का धर्म है वहाँ 'पर' के नास्तिकपने का भी देखें तो जिस समय अभेद रूप है, उसी समय भेद रूप भी धर्म है। जैसे कोर्ट में कहा जाता है कि मैं सत्य कहूँगा, सत्य है। इमलिए वस्तु को निश्चय व्यवहार प, सामान्य- के अलावा अन्य कुछ नही कहूँगा । आप अगर केवल विशेषात्मक जैसी की तमी देखनही वास्तविकता है। इतना ही कहे कि मत्य कहगा तो वात पूरी नही होती, उदाहरण के रूप में तीन यादमी है, वे एक सर्राफ की साथ मे यह भी कहना पड़ता है कि सत्य के अलावा अन्य दूकान पर जाते है। एक को सोना लेना है एक को सोने
कुछ नहीं कहूँगा। अगर हम कहे, यह मात्मा, है इससे
: का बना घडा लेना है, एक को घड़े के टुकडे लेने है। इतनी बात तो बनी, यह आत्मा है परन्तु यह प्रात्मा होने सर्राफ की दूकान पर मोने का घड़ा पड़ा है। तीनो पादमी के साथ अन्य भी कुछ हो सकती है यह बात अभी बनी
वाहिए था, वह खुश होता है। रह गई । तब यह पहना जरूरी हो गया कि यह प्रात्मा उसकी चीज मिल रही है। एक को घडे के टुकड़े लेने थे, है और प्रात्मा के अलावा अन्य कुछ नहीं । इस प्रकार वह दुःखी होता है। मोना लेने वाले को न सुख होता है।
सुख होता है जहाँ प्रात्मा का अस्तित्व बताया है, वहाँ उसमे 'पर' का न दुख है। सर्राफ दिगाने को घड़ा ले कर पाता है। नास्तित्व भी बताया गया है, तब प्रात्मा प्रात्मा रूप से उसके हाथ मे घडा छूट जाता है और टुकड़े हो जाते है।
कायम होती है। जिसको टुकड़े लेने थे, वह हपित हो जाता है। जिसको
मामान्य-विशेष दोनों परम्पर विरुद्ध है। अत एव जब घड़ा लेना था, वह विपाद को प्राप्त होता है और जिसकी
सामान्य की प्रधानता होती है उस समय सामान्य के विधिदृष्टि सोने पर है, वह बैमा हो है। इससे यह साबित हुमा
रूप होने से विशेष निषेध रूप कहा जाता है और जब कि पर्याय तो नाशवान है, अनित्य है और द्रव्य रवभाव
विशेष की प्रधानता होती है उस समय विशेष के विधिरूप पर जिसकी दृष्टि है उसे पर्याय के बदलने पर दुख नही
होने से सामान्य निषेध रूप कहा जाता है। इस अपेक्षा होता । जो द्रव्य स्वभाव को नहीं जानता, जिमकी दृष्टि ।
6 से सामान्य और विशेष मे विधि-निषेध धर्मों की कल्पना मात्र पर्याय पर है यह दुखी-मुम्बी होता रहेगा।
की जा सकती है । यही बात स्थाद्वाद के सा भगो के द्वारा इसी प्रकार अन्य लोग कहते है नेति-नेति, याने नहीं दिखाई गई है। जैसे--- एक घडा है उसका कथन करना है, नही है। वे लोग तो समार को माया कहने को एसा है-(१) यह घडा है -यह अस्ति रूप कथन है। (२) कहते है परन्तु इसका अमली अर्थ है कि 'पर' है तो सही यह अन्य नहीं-- यह नास्तिक रूप कथन है । सवाल यह परन्तु मेरे में नहीं है । उससे मेरा अपना क्या वास्ता है। पैदा होता है कि दोनो बानो में से कौन सी है । तो वह 'पर' भी है और मैं भी हूँ परन्तु 'पर' मेरे में नहीं है। कहता है-(३) म्याद अस्ति, स्याद नास्ति । फिर सवाल यह अर्थ असल में नेति का होता है। इसी प्रकार जो लोग
पंदा होता है-क्या यह जो अस्तिपना और नारितपना दोनो कहते है कि शून्य है, कुछ नही है, वहाँ पर भी यही अर्थ
स्प है, वह ग्राम पीछे है कि एक साथ है ? तब है तो है कि प्रात्मा शून्य नहीं परन्तु प्रात्मा 'पर' से शून्य है,
एक माथ, परन्तु एक साथ कथन नहीं कर सकते इसलिए मात्मा मे 'पर" नही है।
चौथा भंग बनता है, (४) स्याद प्रवक्तव्य अर्थात् एक अनेकान्त का विचार तो कर लिया। अब स्याद्वाद साथ नही कहा जा सकता। इस प्रकार इम स्याद्वाद के पर विचार करते है। वस्तु द्रव्य पर्याय रूप से है और द्वारा वस्तु की सत्यता में कही सन्देह ही नहीं रहने दिया। हरेक वस्तु दूसरे से भिन्न है। जहां एक वस्तु में अपना इसको लेकर कुछ लोग कहते है कि हमें तो सबकी बात अस्तित्व है, वहां पर उसी वस्तु में दूसरी वस्तु का प्रभाव मन्जूर है क्योकि हम तो स्याद्वाद को मानने वाले है।मा भी है । जहाँ वस्तु कह रही है कि मैं मेज हूँ, वहां वह यह स्याद्वाद का अर्थ नहीं । स्याद्वाद का अर्थ है कि हमें जैसी भी ज्ञान करा रही है कि वह कुर्सी प्रादि अन्य नहीं है। वस्तु है, वसी मन्जूर है, वस्तु से अन्यथापना मन्जर नहीं
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५०, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
है। चाहे कथन करने वाला विशेष दृष्टि से कहें, चाहे पूर्व सिद्धों को हो चुकी है । इस प्रकार चारों अनुयोगों की सामान्य दृष्टि से, चाहे अस्ति रूप से कथन करें, चाहे एकता होती है। नास्ति रूप से, जो कुछ धर्म वस्तु में है और जो वस्तु रूप । के कहने वाले हैं, वो हमें मन्जूर हैं । परन्तु जो धर्म वस्तु
हमें आँख मीच कर भी नहीं चलना चाहिए कि शास्त्र में नहीं, वह कैसे मन्जूर हो सकता है । इसलिए स्थाद्वाद
में ऐसा उदाहरण दिया है, हम उसी को पकड़े बैठे हैं । और अनेकान्त का अर्थ समझने से वस्तु का असली रूप हम शास्त्र की प्राज्ञा भी माननी है परन्तु आँख खोल कर जैसी वस्तु है, वैसी समझने में आता है।
माननी है। जैसे किसी ने कहा, इस बच्चे को टट्टी
करवा लो, वह लड़का पेशाब करने लगे तो कहे, यह प्राज्ञा भिन्न अनुयोगों का अध्ययन भी अनेकान्त दष्टि को नहीं । हमें शास्त्र का अभिप्राय समझना जरूरी है। उदाकायम रख कर ही किया जाना चाहिए। सबसे पहले यह हरण को उदाहरण ही रहने दें, उसको दृष्टान्त न बना समझना जरूरी है कि जो कथन है, वह किसके लिए है। लेवें । कथन शास्त्र में अनेक प्रकार के है । हमें देखना है अगर यह कहा है कि यह पाषाण है, इसको पूजने से क्या ।
कि हमारे किस जाति का रोग है और हमारे लिए कौन होगा तो वहां समझना चाहिए, यह उपदेश उसको नहीं सा कथन हितकारी है। बुखार तो जाडे से भी होता है, दिया जो मूर्ति पूजने को जाता ही नहीं, परन्तु उसको
गर्मी से भी होता है। दोनों की दवाई अलग-अलग है और दिया जो जिन-दर्शन से प्रात्मदर्शन नहीं कर रहा है ।
हमने सर्दी के बुखार में गर्मी के बखार का उपचार किया उसको जिन-दर्शन को गौणता दिखा कर प्रात्मदर्शन के
न तो नुकसान ही होगा। भगवान कुन्दकुन्द ने कहा है कि सम्मुख किया जा रहा है। इसी प्रकार हरेक कथन में सम
मैं जो कहूंगा, उसको अपने निज अनुभव से, युक्ति से, न्याय झना चाहिए । कथन तो कार चढ़ने को किया है, यह
से, समझ कर वस्तु वैमी हो तो मन्जूर करना; मात्र मेरे अपनी कषाय अनुसार नीचे-नीचे जाने का साधन बना लेता
कहने से मान लेने से तत्व ज्ञान नहीं होगा। है। चार अनुयोग है । हमारे विचार करने में, बोलने में,
बाहरी पकड़ तब तक रहती है जब तक वस्तु पकड़ चारों अनुयोगों की सापेक्षता रहनी चाहिए। अगर एक
मे नहीं पाती। जहाँ वस्तु पकड़ मे आ जाती है, वहाँ शब्दों का भी खण्डन होता है तो समझना चाहिए, हमारे कथन
की पकड़ छूट जाती है, पक्षपात छूट जाता है, खंचतान में कहीं गलती है । चार सुई है । हमारा धागा चारों में
खत्म हो जाती है। जैसे लाल मन्दिर है, उसको तो देखा से निकलना चाहिए तब तो ठीक है, अन्यथा मिथ्या है।
नहीं, उसके कथन को पढ़ कर पक्षपात को प्राप्त हो जाते अगर कोई चरणानुयोग से पूछता है कि मोक्ष-प्राप्ति का परन्तु जब लाल मन्दिर को देख लिया तो अब कोई क्या उपाय है तो वह बताता है कि मुनिव्रत धारण कर लो,
उसे जैन मन्दिर कहे चाहे लाल मन्दिर, चाहे मारवल का मोक्ष हो जाएगी क्योकि उसका विषय बाहरी पाचरण ।
मन्दिर, चाहे उर्दवाला मन्दिर, कोई पक्षपात रहता नहीं। मात्र है। अगर यही बात करणानुयोग से पूछी जाय तो
इसी प्रकार वस्तु पकड़ मे पाने पर न बाहर की क्रिया की यह कहेगा, कर्मों का नाश कर दो, मोक्ष हो जायेगी। पकड रहती है, न कोई पक्षपात रहता है। इसलिए शास्त्र अध्यात्म से पूछा जाय तो कहेगा प्रात्मा मे लीन हो जाओ, के शब्दों को न पकड कर वस्तू पकड़ने की चेष्टा करनी मोक्ष हो जायेगी। प्रथमानुयोग कहता है- जो पहले सिद्धो चाहिए । शास्त्र तो वस्तु को दिलाने का मात्र इशारा है। ने किया, वही करो मोक्ष हो जायेगी। बाहर से समझने ।
वस्तु को देखने की जरूरत है, इशारे को पकड़ने की नहीं। वाला समझता है कि चार तरह का जवाब है। असल मे
वस्तु जिनके पकड़ मे नहीं पाती, वे इशारे को पकड़े रहते जबाब एक ही है। इन चारों की एकता कैसे हो ? अगर
है और पक्षपात बना रहता है। यही प्रज्ञानता है। प्रात्मस्वभाव का माश्रय लेकर बाहर में मनिपना धारण करे, तो कर्मों का नाश होकर मोक्ष हो जायेगी, जैसे इससे
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छुनकलाल कृत नेमि-ब्याह
प्रिसिपल श्री कुन्दनलाल जैन, दिल्ली
सुविसाल।
नेमिनाथ और राजुल जैन साहित्य में ऐसे तपः पूत की छवि । (४) पद । (५) लावनी। (६) विवाहएवं उदात्त चरित-नायक नायिका है कि विश्व के किसी विधि । इस गुटके की लम्बाई १७ से० मी० और चौड़ाई भी साहित्य में ऐसे पात्र नही दिखाई देते हैं। यथार्थ मे १३ से. मी. है। लिपिकार ने इसमें पत्र संख्या नहीं इनका जीवन इतना श्रेष्ठ और प्रादर्शमय रहा है कि प्राज डाली है पर स्वयं गणना करने पर तीस पत्र प्राप्त होते हजारों वर्ष बाद भी लोग उनका पुण्य स्मरण करते है। हैं। हर पत्र पर पंक्तिया है तथा हर पक्ति में २५-२५ नैमि प्रभु और राजुल इतिहास-प्रसिद्ध है। श्रीकृष्ण की प्रक्षर है। लिपि अति सुवाच्य और सुन्दर है । लाल और ऐतिहासिकता के साथ नेमि प्रभु का भी सम्बन्ध जुड़ा काली स्याही का प्रयोग किया गया है। जहाँ लिपि सुन्दर है हुआ है।
वहाँ लेखन की अशुद्धियाँ बहुलता से पाई जाती है। इसमें नेमि प्रभु के गौरवपूर्ण चरित्र एवं जीवन दर्शन ने ही लिपि-काल नहीं है। लेखकों, कवियों एव कलाकारों को उनके विषय में प्रात्मा
श्री छुनकलाल जी ने प्रस्तुत कृति की रचना मगसिर भिव्यक्ति के लिए बाध्य किया, मैं समझता हूं कि नेमि नदी १४१ में की थी जैसा कि निम्न छन्द से प्रभु और राजल के विषय में जितना साहित्य रचा गया स्पष्ट ज्ञात होता है :है, उतना राम और कृष्ण को छोड़ कर किसी के विषय में
कृष्ण पच्छि सप्तमी दिन जानो सोमवार मारग सर न रचा गया होगा। लोक-कवियो ने तो लोक नायक के रूप में नेमि प्रभु के जीवन के विभिन्न पक्षों पर बड़े विशद
चिनिचारि वसुचंद अंक सव संवत् के जाने हलसार ॥ और विशाल साहित्य की सृष्टि कर भारतीय वाङ्मय को गौरवान्वित किया है। नेमि प्रभु सम्बन्धी विभिन्न
कवि महोदय ने रचना के अंतिम दस छन्दों में रचनाएं जहा भारत की विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध
प्रात्म-परिचय भी दिया है जो बहुत ही संक्षिप्त है । कृपालु होती है, वहां हिन्दी मे भी रासो, धूलि, घोडी, व्याहलों,
पाठक उसे पढ़ें और जानें। बन्ना आदि विभिन्न विधाओं में नेमि प्रभु संबधी साहित्य
प्रस्तुत रचना को पढ़कर ऐसा लगता है कि कवि को प्राप्त होता है।
भाषा पर तो अधिकार था ही, साहित्यिक विधियों एवं नाम प्रभु संबंधी बहुत सा साहित्य अप्राप्य एवं अप्र- छन्द अलंकार आदि का भी ज्ञान बड़े विशाल स्तर पर काशित है, यहां हम एक ऐसी ही छोटी सी रचना जो था। मनुप्रास अलंकार की छटा का द्योतक निम्न छन्द बड़ी सरस और मधुर है, कृपालु पाठकों के समक्ष प्रस्तुत निश्चय ही पठनीय एवं अत्यधिक रोचक है। कर रहे है। यह सर्वथा अप्राप्य और अप्रकाशित है। चंचलि बकसा सी चन्द्र कला सी' इसके लिए हम करेरा के सेठ मिश्रीलाल जी के प्रति कृतज्ञ
चलि चकला-सी चलति चले। हैं जिनकी कृपा से यह कृति हमें प्राप्त हो सकी।
चंचलता भासी बलि चपला सी, यह कृति एक तीस पत्रीय छोटे से गुटके में संग्रहीत
चलि चपला सो चलति हर्म है। इसमें निम्न रचनाए संकलित है। (१) क्रिया कोष चंचल गति जो है, चलति जु मोहै, का अन्तिम भाग। (२) नेमिनाथ व्याहलो। (३) ऐरावत
चंचल सोहै, धमकि चले।
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५२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
चंचल गति घरती चलि मन हरती,
कईक गोद घर पर बालक रोवति ताहि सुणावति है। चंचलती चलति भले ।। कईक चाव भरी अति चंचल अंचल पट दै झांकति है। इसके अतिरिक्त कवि ऋतु-वर्णन, नायिका-वर्णन,
तजि तजि कुल को कानि सब भई सुबुधि-बलहीन । माभूषण-वर्णन, महलों का वर्णन, घोड़ों का वर्णन, फूलों का
दोन भई पूछन लगी सखियन से जु प्रवीन 1६६ चित्रण, रथ-वर्णन, प्रभुको तेल चढ़ाना, वधू-गृहकी सजावट,
कईक सार सिंगार को केई काहू टेरि बुलावति है। बरात देखना, नृत्य, बाजो का वर्णन, पशुग्री का विलाप, केई मारग में सुकहै यह बात बरात इतही प्रावति है। राजुल का वियोग मावि को बड़े ही मार्मिक दृश्य छन्दो मे सुकटि के भूषन गलि में सुधरै पग पंजनि सीस चढ़ावति है अंकित कर सका है।
इस तरह कवि छुनकलाल जी ने 'नेमि व्याहलो' एक नेमि प्रभु की बारात देखने के लिए आतुर नारियो अति ही आकर्षक रचना रची जिसे हम अविरल रूप से की मनोदशा का चित्रण कवि ने निम्न छन्दो में बड़े ही पाठकों के मनोरंजनार्थ एवं ज्ञान वर्धन हेतु यहाँ प्रस्तुत कर आकर्षक ढंग से किया है।
रहे है । कृपालु पाठको से निवेदन है कि कवि और उसकी बौरी सौ दौरी फिरै सुभरी सुन्दर गात,
कृति के सम्बन्ध मे किसी को कुछ और अधिक जानकारी गोरी मनमोहन अधिक सुचंचल चालि सुहाति । ६२॥ प्राप्त हो तो लेखक को सूचित कर अनुगृहीत करें।
६८, कुन्तो मार्ग, विश्वास नगर,
शाहदरा, दिल्ली-३२
उभावनाएं _ विनोदप्रियता, क्षमाशीलता तथा सहनशीलता की जननी होनी चाहिए। इनके बिना विनोदप्रियता निरर्थक हो जायेगी।
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सांसारिक दृष्टि से धनिक होना एक बहुत बड़ा गुण है । परन्तु यदि किसी से पूछा जाये तो यही कहेगा कि मात्र धनिक व्यक्ति से, जिसके पास और कोई गुण नही ; वह व्यक्ति अच्छा है जो निर्धन होते हुए भी अन्य गुणों से सम्पन्न है। लोक व्यवहार में फिर भी मान्यता मात्र धन होने से ही मिलती है । कहने और करने में यह कितना बड़ा अन्तर है ?
xxx
लगता है ये मन्दिर नहीं, कब्रिस्तान हैं। वहां भी हर कब्र पर किसी मुर्दे का नाम लिखा होता है। यहाँ भी हर दीवार पर किसी का नाम लिखा जाने लगा है।
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मन की दृढ़ता ही सब शक्तियों का स्रोत मालूम होती है । मन की दृढ़ता के बिना कोई भा पौरुष दृढता से प्रगति नहीं कर सकता, और शक्ति का संचय भी नहीं हो सकता। मन की दृढ़ता वाला व्यक्ति चाहे डाक की शक्ति का संचय करे या तपस्वी की शक्ति का । कमजोर मन का व्यक्ति सब तरफ ही कमजोर रहेगा।
-श्रो महेन्द्रसेन जैन,
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अथ श्री नेमिनाथ ब्याह
श्री छुनक लाल कृत
अथ छंद लिख्यते :दोहरा
मुख पर अंचल डारि हंसी जहां कृष्न तनी गोपति सारी। प्रथम नमो अरहंत को दूजे सरसुति माइ। तव नारायन विलख बदन है मन में करो गिलफ्तारी।
तीज गुरु परनाम कर छन्द रचौ हरपाइ । तास भ्रात बलभद्र कहीये इम सुनी भ्रात गिरवरपारी। छन्द
इंद्र चंद्र नागिन्द्र खगादिक नर सुर सेवा कर सारी॥ जम्बू दीप सुहावनी जोजन लख विस्तार ।
करना सागर जगत उजागर है नर सागर नर भारी। भरत क्षेत्र दछिण दिसा सोरठ देस मझार।
करुना पाइ धरंगे दीक्ष्या सो उपाउ को भारी। नगर द्वारका तह बस लसं सु सुरग समान ।
इमि बलभद्र भ्राता कहिए अब सुनिहै विरदं धारी। नव बारह जोजन तनी विस्तर ताकी जान ।
रित बसंत ततकाल ततछिन पाई है तहाँ सुखकारी। छप्पन कोट जादौ जहाँ बस महा बलवंत ।
वन उपवन फलफूल फलादिक फूल फले सु फुलवारी। ताही वंस विष भए बल नारायन मान।
तिनपर षटपद गुंज करत है तिनको धुनि निकमत प्यारी। छन्द त्रिभंगी
गलिनि गलिनि घरघर मंदिर मधि नटति नटतिसो नटवारी वसूदेव के नारायन हुमा नाम कृष्न जन सुखकारी। कान दन बजावत गावत गावत गंध्रप गनधारी। तास भ्रात बलभद्र कहिए बल कर मूसर के धारी। बाग बगीचन के वृच्छन पर कोकिल शब्द कर न्यारी। अदभत चक्ररतन हरि पायौ ताकी छबि प्रांतस न्यारी तव मनमोहन मतो सुकरिके धरै हिये कपट भारी। प्रभु नाम सार मनमें विचार कविलाल सुजिन पर बलिहारी॥ रुकमिनी जामवंती सतभामा गवरी और सुतनधारी। एक समै सब बैठे सभा बनी मानवकारी।
लछिमी पदमा सों इमि बोले तुम हो सबही सुखकारी। मापस में मिलि मंत्र विचार बल की बात वली सारी।।
रूप सील गुन लावणजुत हो और तुम मो अज्ञाकारी। हक पंडव बलमा बतावे कंइम बता गिरधारी।
नेम प्रभुपे ब्याह रचाऊं जो तुम चतुर कला पारी। तब बलभद्र जवै उठि बोले तुम हो बालक अविचारी।
हम मध के वचन जु सुन करि नम्रीभूत भई सारी। नेमि प्रभु सों तिहूं लोक में कोऊ नहीं है बलधारी।। पाइन बिछुमा पाइजेब धुंघुरू मेखल पं पगधारी। सुनत बात तब छोह भयो है तब हम बोले बनवारी।
हिये हार मोतिन की माला गरे पचलरी रतनारी। तास भ्रात बल हमें बतावह कैसे हैं वे बलधारी।
करनफल कानन में चमक, नमकं सीसफल भारी। कृडन तात नै तवी बुलाये माये श्री जिन जनतारी।
चाली चमकति केई झमकति झमकारी। सभा सिंघासन बैठे प्रभु जी टेढ़ी कर अंगुरी धारी। दामिनी सी बमकं चम चम चम छम छम छम छमकारी अंगरि मधि वारि करि संकरि संकर सो है प्रति भारी। मापुस में बोले होले होले पोले पोले पगपारी। पांडव और सकल है जोषा हत है चतुर कसा पारी। कंदी कदन की विमल बदन की रसना रवन की रसधारी। नक न अंगुरी सषी होई, खेचि रहे जोषा भारी। मदी मदन को सबक सदन को जदुनंदन की है नारी। वंचि पेचि सबही पच हारे, देखत हैं तहां नरधारी । सिर धो सारी, सै पिचकारी, रंग की झारी कर धारी। श्रो जिनवर कर ऊंचो कोनी तहाँ झुलाए गिरधारी। बने तलाब बाग के अंदर तातडफूल फुलवारी।
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८४, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
गरा।
उचित धाम वन कोडति तिनमें झझरी है न्यारी। सिंघासन चल बैठे प्रभ जो हमही प्रादि प्रज्ञाकारी। सीचे झाव विवव अनार जहां तहां नास लटकत भारी॥ श्री जिन दीन दयाल भए तव लीने सँग धनुषधारी। २८ नेमिनाथ के हाथ पकरि कर खड़ी भई भावज सारी। सभा सथानक प्राइ विराजे राज दियौ प्रानन्दकारी। प्रोढ़े चोर तीर सरवर के जहाँ खड़ी है जदुनारी। १७ ।। लछिमी पति को राज वियो कधकीयो निसंक सुभयटारी ।
जबही हरि इक विप्र बुलाया महा प्रबीन कलाधारी। सतिभामा प्रभु को गहि जामा कर सों कर गहि गनधारी उग्रसेन तुरत पठायो चलो तहाँ तें ततकारी। तेल फुलेल सुचोवा चंदन प्रतर गुलाब सुफुल नारी। १८ लिखौ लेख ले गयो ततछिन दीनो जाहस सुखकारी। कईक हास विलास करत कई कटाक्ष करति प्यारी। तुम पुत्री वित सभद विज सत तिन सो करिय हितकारी उड़त गुलाल परस्पर ऊपर नेवर बाजे झनकारी। मुदित मन्द प्रमोद भए चित वाचत हरष नर-नारी। कईक प्रभु को मुख चुम्बन कर हसि हसि करती किलकारी कर सनमान पान बह देकर लिखो साचो पाइ सुधारी। कयक प्रभु मंग सुपरस कईक कर सों कर धारी।
तुम लाइक हम जोग नहीं हैं पकरी बांह सु हम तुम्हारी। रंग रंग सुहोरो खेले हिय हुलास भयो भारी ।
मैं अति दीन कीन बहु पासा तुम लिखी वरज बह लचारी रुकमनि जामवंती सतभामा करती मरज सबै हारी।
टोका और सभ लगुन पठाई सांवन षष्ठी उजियारी ।३२॥ अब वे पीर भए प्रभु कवते तुम तो हो करुनापारी।
कियो विदा नाम दाहै कदि प्रायो नगर द्वारकारी। हम प्राधीन भई कर जोरे कर-कर भरज सब हारी।
प्रथम प्रणाम कियो सुदीयो तिन लीयो लेख मुरलीधारी ब्याह कबूल करो यह अवसर नातर प्रब करिहै स्यारी ।२१
व कारहत्यारा २१ देख लेख ले गए जहां तहाँ सभद विज महाराजी री ।३३ जब प्रभु मंद-मंद मसुक्याने सो मुसुक्यान लगी प्यारी। हाथ जोरि करि विनो पारि करि जोरि करी बिनती सारी हकमनि जामवंती सतभामा तिन यह निहर्च करि धारी। गढ़ गिर नेरी पास झनागढ़ उग्रसैनि है वुधिधारी। ब्याह कबूल कियौ प्रभु जी ने तब हरषी है जदुनारी २२ तिनके टीका लगन पठाई और लिखी बड़ी मनहारी ।३४॥ करि प्रसनान पहिरि पाटम्बर अम्बर पहरे सुखकारी। टीका और शुभ लगन जु पाई भई सगाई हितकारी। जामवंती सों हँसि कर बोले धोवती निचोरो तुम म्हारी। सब जन को सख चन भयो तब लियो बुलाइ कुटुम सारी प्रबला वषि विचार मन में हों विषंडपति की नारी । २३ सभ स्याति सभ परी महरति सुभ दिन सैनों टीका री। है त्रिषंड पति नायक मेरो ना यह हुकम कियो भारी। तब बह दाम दमोदर खरच तुरत बुलायो भण्डारी। कहा कहों मैं तुम सों देवर राखी कान सु भै थारी। कनिक रतन बहु बासन भषन हय गय सहित सुअंभारी। कौन कहै हरि सों वचन ए प्रबनातर जान पर सारी। ग्राम नगर पुर पटन बहु विधि सिक्के सूनी सुखलारी। सुनत बात सतभामा बाई चलि पाई रुकमिनि प्यारी।
दीया दान सनमान ज करिक विदा कियो जु विप्र चारी। कर गहि बोवती उठाइ लई तिन पैसे वचन सु उचारी। इत वित दोइ घर होत बधाए गावत गीत जु नर-नारी। रहित विवेक वधि करही निते यह कानत मैं धारी । २५ नर-नारी तब तिलक संजोयो करी तेल की तैयारी। इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र खगादिक नर सुर सेव कर सारी। मतिमन चौक पराइ सवा सीन धरी तहाँ सो पनवारी। हे त्रिलोक नाइक पति जे प्रब ना पाए हरि बलकारी। श्री जिन तन दुति सीसह सोहै उडगन सी जु खड़ी नारी। करनि में तूं कर बड़ी है, तोको सम जयरं नारी। २६ । केयक हरदी तेल चढ़ावति कोई न्हावति भरि भारी। को हथियार तहा प्रब बसाला पाए तहाँ जन सुखकारी। कैयक सार सुगग्ष लगावति कैई लगावति सरझारी। षनष चढाइ करी शंख पनि सुनि में उपजी प्रति भारी। कैयक पान विरी कर धरती कई संभारति वागौरी ।। गरज घन, वन सिंह बहारो, सुनो शबद गिरवरधारी। २७ मारतंड मनि ससि प्रचण्ड ति घरे श्रवन कुणाल भारी। प्रभुत सुनि धनि वीरति ततछिन मार गए तहाँ बलबारी
भुजदण्ड वाजुनि करि मडित सहित मुद्रिका नगजारी। कोप कियो प्रभु काके ऊपर सबही सेव कर थारी। जगमग-जगमग जगमगाति धुकि-बुकि माकंठ सो कंठारी ॥
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अथ धी नेमिनाथ व्याह
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नब रतननि नवाग्रह सी चमकति रुकति सीस सेहरा री। कई झालर माल लाल बह लटक बंधी सुतोरन मालनिसों कर कंकन प्राभूषन सोहत मोहत माल रतनारी। छंद बोहरा-रतन जटित मंदिर जहाँ बने सुबहुत असेल, झिलिमिलि झिलिमिलि झिलमिलाति सिर पेंच तुरारी।
धुजा कलसिन से सोहये चौखूटे ग्रह गोल ५८ सुन्दर सार सुभग प्रति सोहति नाना विधि सों रगधारी। छंव-प्रासाद विराज दुति प्रति लाज सोभ समाज सोहतिह प्रति चंचल सो चलति-चलति गति स्वर मदंग रवि उनहारी तिन में चित्राम खच्च अभिराम लखे नर वाम सुकोहत है मनौप रवि को सिंधन तजि करि महा विप्तन दुतिधारी। मन जटि कवि लागे बहु द्वार सु देखत ही मन मोहत है। कर सिंगार तयार भए तव निरखत छवि कोऊ पटनारी। बोहरा छंद-महलनि में गोखें बनी सु सुन्वरि बहुत सुहात माता सिवदेवी करत वधाए वारति रतन सुभरि थारी।
तिन मे महलनि करि देखन चढ़ी बरात ।६० माह सपाइ सुअस वारिन द्वारनि प्रानि करि घोरी ठाढ़ी।
ठाढ़ा। कैइक महल महल चढ़ि सुकढे बहु मंगल भाषत हैं।
सरल.मरल जड़त जड़ाव रतन मनि मानिक झल झूलत पाखर भारी। कई केसर सिंगार कर कई सखियन के कछु नाखति है। जिन लगाम जति हरि निकरि कलगी सोहति है न्यारी। कंडक गोद घर पर बालक रोवति ताहि सु राखति है। असे अस्व महा प्रति सोहति नेम कुंवर करि प्रसवारी। कईक चाव भरी प्रति चंचल अंचल पट वै झांकति हैं ।६१ छत्र सई जड़वा जई मानो रवि ते सोभा अति भारी। दोहरा-चौरासी दौरति फिरै, सभरी सुन्दर गात । हरिहल इत उत चंवर कर वर उजलि ससि सम उनहारी
गोरी मन-मोहन अधिक, सूचंचल चालि सुहाति ॥ सभद विजै प्रादिक सब भ्राता चले सुभूप मुकुटधारी।४५ छंद-चंचल चकला-सी चन्द्रकला-सी बलि चकला-सी तव वसुदेव वरात बनाई महा उछाह कियो भारी।
चलति चलै १६२ नाना विधि सौं तखत संभारे लिए अखारे वरु लारी। चंचलता भासी चल चपला-सी चलि चपला-सी चलत हले। छप्पन कोटि चले जादौवंसी ऐक-ऐक ते अधिकारी।४६। चंचल गति जोहै चलति जु मोहै चंचल सोहै चमकि चले। केयक तरवत रमा चढ़ि चाल केयक चड़े मुहाकारी। चंचल गति धरती चलि मनहरती चंचलती चलति भले। चंचल चपल तुरंगनि चादत कई चढ़े गज अम्भारी। दोहरा छंद-करि-करिक सिंगार वह पहिरे वसन सुलाल । कहक बैठि सुखासन चाले सिंगनि कोर खड़ी न्यारी ।४६ कईक मारग के विष खड़ी खिलावे बाल ६४ मातसबाजी चली खाइसि कोतिल हय ही से भारी।
छंद-चली जाति गलिन में कोऊ मगन में मापुस में बतमन मतंग बदन के हलके मन पाई स्यार घटा कारी।
रावति है। लाल निसान वनि यो एमक दमकति बाजू छटाकारी। सखी भूल गई कछु सुधि न रही मोहि, असे कहति सहा. चलति वरात बाबह बाजति नौवति बाजे धंधकारी।
वति है। अखी सुतर की छव छाजत करत सधनि रन धारी।
अब खड़ी रहै मम हाथ गहै हमहू तं चलि पावति है। तुरही सुरही शब्द कर बहु बाजत सुर सोहै सो नारी।
कई साज सभ रति चीर सुघारति इस विधि नारि. नेम कुवर को चली बरात जु पहुंचो भुनागढ़ सारी।
सुहावति है ।६५॥ वने सुमंदिर अम्बर के जहं उतरी जाह सु सुखकारी।
दोहरा छव-सजि-तजि कुल को कानि सब भई सुधि-बुधिउततें उग्रसेन चलि पाए भेंट सुघरि फिरि गृहगारी।
बलिहीन । दो० उग्रसेन जब जाइ करि, रचौ नगर सुभसार
दोन भई पूछन लगी सखियन से जु प्रवीर ।६६। सोवरनन कवि को कर, सुभहि भा अगर अपार। छंद-कदक सार-सिंगार कर कई काहू टेरि बुलाबति है। छंद-सभसार बजार अपार छाए मखमल और लाल- कई मारग में सु-कहें यह बात बराय इतंही प्रावत है।
___ बनातिन सौ। सकटि के भुषन गल में सुघर पग-पेजन सीस चढ़ावति है। कहूँ किरखाव के बंधे चंदोए रेशम डोरी लालनि सों।
तसव बलेकी बांधी चादर झलकत मुतियन झालरसों दोहरा छंद-प्रब सजि के सबही जहां वाहन च मनोज ।
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१६, वर्ष २८, कि०१
भनेकान्त
पुर प्रवेश कीनं सही देखें सबही लोग ।६ बनी रिनिक झालर की जहां तहाँ ताकी झलक छंद-प्रथम जलेव दिखेह बाजे नौवति परवी सुतरी जानि।
महा दुतिवान। भपति सान दुइ विसि तिन के दिग्गज-गज परचंड महान । ऐसे कमल प्रमल प्रति अनुपम ता ऊपरि है नेम सुजान । चंचल चपल तुरंगनि ऊपर लाल धुजा लहक प्रमोलन । दोहरा छंद-लाल स्याम अरु स्वेत बह हरित प्रोत जड़ित जड़ाव जीव और पाखर अंसे हयगय कोतल जान ।
रंग पाहि। दोहरा छंद-कति वष दोहू विसा चलति खई संसार। वरन वरन के रतन सुभ लगे सरथ के माहिं ।८।।
लग सु सबको मोहनी देखत सब नर-नार ७० छन-कहुं मरकति मनि को है प्राभा कहुं प्रभावि ईद-गुल जुमुक गेंदा गुलाब तुरंग प्ररु गुल खैरा जाति ।
दम है लाल । गुल मखमल गुल चीनी कही ऐ गल सबो गइह प्रानि कहुं चमकि मनि पा राग को कहुं दमक बड़ो जी विसाल
बखानि इन्द्रनील मानिकहि धिराज निकसिर हैं किरन को जाल । गुलमेंहदी गुलासकरि लाही और गुल नारंग सदवदी समानि सिंघनि सोभा कहं लगि बरनौ मानो मेरु सिपिर सदा गुलाब बन गुलाल इत्यादि फुलवारी जु वखानि ।
गिरि भाल । बोहरा छंद-रतन जटित हटिक तनौ वाजिन सहित सुमाई
दोहरा छंद-तामै नेमीसुर है ऊपर चंवर ढुरंत । असे तखत सुहावनो चलत अखारिनि माहि।
ही रसमि सहित मानो सही ससि दुति प्रति सोभंत ।२।
छंद-नेमीसर के मस्तक ऊपर रतन जटित सो छत्र फिरत । छंद-मृदंग सुतार सितार बजे सु साज विना धुनि गर्जत है। गावत रंग कंनून तमूरे चंग उपम सो साजत है।
भुक · · मुकेस की झालर तामें लगि है दुति वनंत ।
मुख मयंक अवलोकि प्रभू को महिमा हीय कहै इम संत । बजत खावसु प्रभ्रत कुण्डल प्ररदुत्तर छवि छाजत है।
घन्नि भाग है राजमती को तिनि पायो अब ऐसो कंत । मोही चंग मराज मुरली अवाज इन आदिक बाजे बाजत है
दोहरा छंद-करि करि के सिंगार बहु पहिरै बसन अनुप । दोहरा छंद-यह प्रकार बाजे बजे सुर अरु ताल मिलाइ।
समद विज के प्रादि दै मुकुट बंध सब भूप ॥२४॥ नृत्य करे तहं नृत्य की षट् विधि राग सुगाय 1७४।
छंद-मदमत्त गयंद सुगर्ज कर बहुगजित सोभा सोभ थए। छंद-कइक साजि संहारि कहें मुख केइक तार मिलावति है कंडक पनि संगीत सनं सुबज गति भीव बतावति है।
हिननाटहिननहींन शब्द कर सुभदेव विमान सुसोभ मए।
श्री नेमनाथ के संग ज सबही सोभा सहित सुहार गए । कडक तंडव नृत्य कर सुधर बहु माव सुगावति है।
__ दोहरा छंद-दरवाजे गए नेमि जी जहां लगहि मरजाद । कैइक नारि करै झनकारि सुदै झुमरी धावति है।
तब पसुवनि मिलि देखिकर प्रभु सौं करी फिराद ।६। बोहरा छंद-ता पार्छ अब नेमि के प्राव रथ अववात ।
छंद-हम दोन सुदीनानाथ बिना सुभए बहु दीन पुकारत है मन मोहन सोहन अधिक देखत नैन सिरात ७६।
हमरे सिसु लाल चिकार करे सो तुम बिन कौन छड़ावत है छंद-दोय चोय पाहरे दुह विस मैं तगेमः सिलगे उनमान । ऐदीन सूर्यन सुनं जबही तब स्वारथि सौं बतरावत है। पप राग मनि कसी प्राभा अधिक विराज चन्द्र समान। दोहरा छन्द-तब स्वारथ कर जोरि कर परज करी गत ऊपर अवधार सामग्री मा महल तस ऊपर जान ।
सिर नाह। हाय सात सम भू तें उन्नत ऊपरि प्रमरि प्रमलान ७७ ऐघेरे इस कारन भीलादिक सब राय ।। बोहरा छंद-स्वेत बरन अति सोहने मांझ महल सुविसाल छन्द-ऐ बीन सुवैन सुवे सुन जवही तबही ततकाल झलकति झलक सुहावनी लरकत मुतियन माल ७८॥
सुबंदि छुड़ाई। छंब-रवि सम सेत बनौ माझ महल ता ऊपर है काज प्रकाज समाज सबै जहं जानि न जीम जावबराई।
कमल महान । भयभीत भये भव तें जवहीं तबही प्रभु द्वादस भावना भाई प्रीत बरन रंग सुवन मह है कई रंग मन पप समान । देव ऋषीसुर माइ गए पनि धनि सुधनि कह सीसुनवाई।
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प्रय श्री नेमिनाथ व्याह
दोहरा छन्द-तुम बिन को ऐसी करे ग्रहो जगत के नाथ। क्या गाली मुझ देत हैं भये सु कहा प्रग्यान ॥१०. बहु सम्बोधन वचन कह सुन्यो सु नमि नमिनाथ । छन्द-जा जग में प्रीतम नम विना और तो सब तो सम छन्द-माथ नवाइ गए जब ही तब ही हरि सिविका ल धाए
जानति हों। सुर चारि प्रकार महामुख कार सुज जिनिन्द्र
तातें मात सुतात छिमा सबसौं प्रबनाहि कही अवमान ति हो
कहक सिर नाए । एवन सुकही उठि ठाढ़ी भई गिरि जाइ सुप्रजित कंकन डारि सुमेर उतार हुए सुसवार सुसामन भाए।
सुठानति हो। हरि हल दोऊ भ्राता जिनि के तात कहां तुम जात नवभव की भो सो प्रीत पिया इसमें क्या चूक वखानति हों।
कहत पाए।६१ वोहराछन्द-नवभव को तुमसौं लगी प्रीति महारसलीन । बोहरा छन्द-राज सम्पदा छोडि कर चले कहां परवीन । चक कहा प्रबके प्रभु सुदास पो भव तजि बीन ॥१०२ समद विज के प्रादि दे बिलखत वदन मबीन ।१२।
छन्द-हम दीन भई विललात अब तुम हो प्रयाल जुनाथ छन्द-तिनिको बहु संबोधन करिके सिविका हरि
हमारे। बल कंध लीन । मौन तजो मुख वैन भजो कर जोरि के पाय परों जु तुम्हारे सात पंड "लकरि चाले बहरि सुविद्याधर परवीन। जगजीवन जाव सु पालत हा मा जावा फिरि सुरिन्द्र ततकाय ततछिन लकरि गिरनारी घरि दीन ।
संभारो। सहां सिंघासन प्रासन ऊपर बैठे जय सुख प्रातमलोन ॥६३ मोह विना निरमोह भयो हमहू तो पिया अब साथ तुम्हारे ।। चाहराछद-तव सुरिन्द्र मानन्द करि प्रस्तुति पढ़ गन गाह। बोहराछन्द-राजलि ने बीच्छा लई भई जिका ताम। छोरोदधि जल लाइ करि प्रभु प्रसनान कराइ ॥६४ दुधर तप तपती भये करम खिपाये वाम ॥१०४ छन्द-तहां बहू भूषन वसन उतारे नगन दिगंबर भए प्रवीन छन्द-करम कलंक खिपाई विए सुकिए तप दुर्घर देह खई। भवभयभीत भए भवतें जब सहसभूप संग दिच्छा लीन । तव हरि जल चंदन अछित लेकरि दीपभूप सम पूजा कोन। प्रस्त्रीलिंग सुछेवि महा ललितंग सुनामा देव भई । अरघ बनाइ गाइ गन प्रभु के फेरि कीये जा नत्य प्रवीन ॥ या भव के अंतर ली रहे फिरि पीय पं जा मिलगे सही। दोहरा छन्द-तव कल्यानक करि जहां इन्द्र गये निज गेह। दोहरा छन्द-या सिसार प्रसार लख भये जतीसुर प्राय । राजुलि करत सिंगार जहां बात कही कई ऐह ||९६ पच महावत धारि के जपं सु प्रातम जाप ।।१०६ छन्द-काहे को सार सिंगार कर
छद-जब नेमोसुर जोग लीयो है घरौ महावत प्रति सुखकार सुनि तेरो पिया गिरनेर गयो री। दिन छप्पन लौं छपस्थ रहै फिर केवल उपजो प्रतिही सार मूछित है घरनी पंपरी मनो वीरज छटका मान परोरी। समोसरन जब रच्यो इन्द्र ने ताकी उपमा को नहिं पार । सुधिबुधि बिसरि गई सभई हम तन त चेतनि दरि भयोरी। सातसौ बरस संबोध कियो जिन परि पाये सो गद सीतल पवन सुचेत कोई मो पीब कहाँ जहाँ नाम लीयो रो।
गिरिनारि ॥१०७ दोहराछन्द-उग्रसैनि पर जाहक राजुलि नायो माथ। दोहरा छंद-प्राउ मास बाकी रही जोग निरोषौ जान । हम गिरि जाइगें जहाँ हमारी नाथ ॥६८
सम्व सूकला षष्टि में पोहो चे पोछि सुथान ॥१०८ छन्द-गयो नर हौ सुकहाजु भयो अब तेरो विवाह सुफेरि छंद-मुक्ति गए न रहे जग न मुनि पंचसो छतीस संग जए
करेंगे। कहे सूदहे वसूकम जवै सुसवै सिवतिय के कत भए। पुर पट्टन दीप समुद्र सबै ले प्रोहित संग सुप्राप फिरेंगे। खिरयो वपु अंग सरीर जहां सुतहां नख केस परे ज रहे। वर श्रेष्ट सुधीइम चन्द्रकला संपूरन छबि वर ल्याइघरोग। हरि हिय में धारि सुचारि प्रकार सुजय जय करत सु घर बैठि सुधीय यिररालि सुऐह उछाह सुफेरि करेंगे IIRE
प्राइ गए ॥१०॥ बोहराछन्द-ग्रहो तात वह नाय विन जगत भ्रात सम मान । दोहरा छंद-चंबन अगर इत्यादि ल सुकीने तन तयार ।
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५८ वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
नख पर केस तहां धरे कोनो तव कीनौ तव संसकार।११० छिमा सबद जग में प्रसाद यह तात नाम कुसल है चंद। छंद-सुर सक्र सची सुरची बहु भांति रचौ तन ताहि परम नाम सुख ही के जानौ भयो परमसुख चौथे नंद ॥११७
प्रनाम चए। दोहरा छंद-छिमाचंद के नंद को नाम स्वाद अनुसार। फिरि अग्निकुमार करी नुत सार सु प्रस्तुति पट करि अ लपमति बहु तुच्छ बुधि कोनो यह विस्तार ॥११८
सोस नए। छंद-करम जोगई करुना कारन प्राये नगर सकूराबाद । तबहिं मुकुट ते प्रगिनि झरी सुजरघो तन तातें भस्म भए। तह कारन सुभ सफल सुकरि के भयो नहीं तहां हरष विषान सुर हरषित चित्त सुभस्म पवित्र लगाइ सुमाथन थान गए॥ श्रावग सेवा दस तनवर जी तिनिसौ मिलि पायो प्रहलाद ॥ दोहरा छंद-समदविज को नंबवर भयो सुसिवमय सिद्ध। दोहरा छंद-भई मित्रताई मिलतहिं मनमें हरष उपाइ । तिनके गत बरननि करी सुपाचे बह विधि रिखि ॥११२ लघ नंदन के नम वार जनै प्रति सुखराइ ॥१२० छंद-रिधि सिघि सुबहु विधि पाव गाव गन जिनके छंद-तिनि असो उपदेस दियो हम कोई बनावै मंगल माल ।
अमलीन । तिनिको मन उपदेस लगे सभ तिनको हेत रच्यो वह लाल । मन वच काय सुध मन करिक पढे पढ़ावै सो बधिवान। क्रस्न पच्छि सप्तमी दिन जानौ सोमवार मारगतर पुत्र पौत्र प्रताप बढ़ जस नरभव सुखतं सुरग निदान ।
सुविसाल। धुनकलाल जन कहै कहां लग प्रनक्रम ते प्रविचल निखान। चिति चारि वस चंद अंक सव संवत के जाने हलसार ॥१२१ दोहरा छंद-ग्रंख तंडग नगर में श्रावक बसौ सुजान। दोहरा छंद-भलचक अछिर प्रमिल कोज सुद्ध प्रवान ।
देव धरम गुरु ग्रंथ की ये तिनिको सरधान ॥११४ महाविजछिन चतुर सौं कवि यह विनती कौन ॥१२२ छंद-कर सरपान सुजिन पहिचान सुमन में प्रान यही माने छंद-कवि करि विनती महादीनता सुनो विजछिन परम देव परम अरु ग्रंय विना अरु दूजो देव नहीं जाने ।
प्रवीन । समकित की परतीति घर मन मोर कु कोया नहीं ठाने । लघदीरघ मैं कछ अनजानौ तां ऐसी है मो मति हान। सापरमी जिन सासन वरती तिनि सौं प्रीति अधिक प्रान। सो बधि प्रायनि नहीं सयानी तातै घरज सहज हम कान। दोहरा छंद-तिनि मैं श्रावसिंधमनि जिनमारगमहिलीन। जिनि के गत को घर को नहीं पारत र कहाँ बुधिबल ह पुत्र चारि तिनिक भए साधरमी परवीन ॥११६
मति छीन ॥१२३ छंद-प्रथमपुत्र को नाम रतन सम तात कहिए मानिकचंद इति श्री नेमिनाथ जी के विवाह को वरननु बुध अनुसार हरि उपोत घरै प्रति उजिल ऐसे गुन धार हरिचंद ।
समापतं ।
उदभावना संयम, व्रत और तप, शक्ति के अनुसार ही धारण करने चाहिए । शक्ति से अधिक नियम लेने से वे भंग होंगे ही, और उनमें अवश्य दोष पायेगा। परन्त इसका यह अर्थ नहीं कि अपने को शक्तिहीन मान कर, स्वच्छन्दी हो जायँ । वर्तमान शक्ति के पर्याय योग्यता के अनुसार चारित्र-धारण करके, अपनी शक्ति का उत्तरोत्तर विकास करने का पुरुषार्थ निरन्तर करे, और इस प्रकार क्रम से वीतरागता को सीढ़ियाँ चढ़ता जाए।
किया है।
वह बड़ा नहीं है कि जिसने ज्ञानोपार्जन किया है-बड़ा वह है कि जिसने चारित्र धारण
-महेन्द्रसेन जैन
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भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण
0 श्री बाबूलाल जैन, दिल्ली
भगवान महावीर की साधना शेर की पर्याय से प्रारंभ दिया । प्राज मुझे यह ज्ञान-ज्योति प्रगट हुई है । इस होती है । जब भगवान महावीर होने वाला वह जीव शेर प्रकार जब शेर विचार करने लगा तो उसके नेत्रो से अश्रुकी एर्याय मे भूख से व्याकुल होकर एक मृग का शिकार धारा बहने लगी। साधु सम्बोधन करके चले गए। कर रहा था; उसी समय दो साधु जो सयम और तप की प्रब वह शेर की पर्याय मे था परन्तु उसने अतुलमूर्ति थे, पात्मज्ञान का साकार रूप थे, वहाँ पाते है और निधि को, स्व निधि को प्राप्त कर लिया था। तब अपने उस शेर को सम्बोधन करते है । वे यह नहीं कहते है कि स्वरूप का मालिक था, शरीर में रहते हुए भी शरीर में तुने मग को मारा है, तू हिंसक है, तू नरक मे जायेगा। अपनापना नहीं था। जिस प्रकार एक धोबी ने किसी को परन्तु उसे प्रात्म-तत्व के सम्मुख करने का उपदेश देते
कपड़ा लाकर दिया, उसने उसको अपना कपड़ा समझ है । वे कहते है-हे पात्मा! अनतकाल से तू संसार मे चक्कर
कर पहन लिया । फिर धोबी ने पाकर यह बताया कि लगा रहा है, कोई ऐसा स्थान नही जहाँ तू पैदा नही इसमें तो दसरे का चिह्न लगा है । यह पापका नहीं है। हुमा, कोई ऐसी अवस्था नही जिसको तूने प्राप्त नहीं जब उसने चिह्न को मिलाया तो मालूम हुमा इसमे हमारा किया । अपने आत्मस्वरूप के ज्ञान के बिना इस कर्म सयोग चिद्ध नही है। यद्यपि अभी वह कपड़ा पहने था, उतारा से प्राप्त हुई अवस्था को ही अपना जान कर राग-द्वेष को नही था, परन्तु अपनापना तो तुरन्त छूट गया था, स्वाप्राप्त होकर तूने कर्मों का बन्ध किया और उस कर्म-फल मे मित्वपना, मालिकपना छुट गया था। इसी प्रकार शेर को फिर अपनापना मान कर फिर राग-द्वेष किया। इस निज स्वभाव की पकड़ पाते ही 'पर' होते हुए, शरीर प्रकार कभी अच्छे कर्म करके देव हुआ, कभी खोटे कर्म होते हुए, उसमे मै पना नही रहा । यह अन्तर क्रान्ति थी करके नरक को प्राप्त हमा, कभी मिश्रित कर्म करके जो किसी क्रिया से धटित नही होती है परन्तु निज के मनुष्य और पशुपने को प्राप्त हुमा परन्तु कर्म के फल से जानने से घटित होती है। भिन्न, निज स्वभाव मे अपनापना नहीं माना । अपने स्व- इस पर्याय की प्राय पूरी करके वह शेर का जीव, भाव को नही जानने की अज्ञानता से राग-द्वेष हुमा, राग- और दो चार पर्याय धारण करके, अपनी साधना को द्वेष से कर्म-बन्ध हुआ, कर्म के उदय से शरीर मिला, बढाता हमा, भगव न महावीर बनने की पात्रता को प्राप्त शरीर से इन्द्रियां मिली और फिर उनमें इसने अपनापना करने लगा और एक पर्याय पहले वह जीव उसी प्रात्ममानकर राग-द्वेष किया। हे जीव ! जरा समझ, तू कौन ज्ञान के बल पर, निज 'पर' की पहनान करता हुआ अपनी है, तेरा अपना क्या है। वारम्बार जब उस शेर को उन एक अकेली मात्मा मे, अपनेपन का अनुभव करता है। करुणासागर साघुरो ने सम्बोधित किया तब उस शेर की वह सात प्रकार के भय से रहित हो जाता है क्योंकि चेतन दृष्टि बाहर से हटकर अपने चेतन स्वभाव को ढढने लगी प्रात्मा का तो मरण होता नही और जिसका मरण होता
और उसने जाना कि माज तक जिसको मैं मान रहा था, है, वह अपना है नही, इस लिए मरण का भय नही रहा। 'वह तो मैं नहीं, वह तो कर्म संयोग से मिली हुई अवस्था यहाँ भय करने, नही करने का, सवाल नही, भय रहा ही हैं, मेरा अपनापना तो अपने निज स्वभाव में है। पोहो, नहीं । जब मरण का भय नहीं रहा ती जन्म का भय भी मैंने अनन्त काल इस 'पर' को निज रूप जान कर बिता नही रहा । पहले सुख-दुःख का कारण 'पर' को जानता
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९., वर्ष २८, कि०१
अनेकारत
था तब पर की वांछा थी। जब जान लिया कि सुख तो परन्तु किसी चीज में अपनापना नहीं । जब अपने उतरने 'स्व' में रमण करने से होता है. 'पर' से नहीं, नब वांछा का स्टेशन प्राता है तो कहता है कि फिर कभी मिलेंगे। का कोई प्रयोजन नहीं रहा । वस्तु स्वभाव जब उनके स्त्री, पुत्रादि का सम्बन्ध ऐसा ही समझता है जैसे मुसासमझ में प्रा गया तो 'पर' से ग्लानि का भी कोई प्रयो- फिरखाने में ठहरे हुए मुसाफिर हों। जैसे रोग होने पर जन रहा नहीं । पहले भगवान के प्रति मूढ बुद्धि थी, कोई दवाई लेनी पड़ती है, उसी प्रकार से भोगों का सेवन शासन के प्रति मूढ बुद्धि थी, गुरु के प्रति मूढ़ बुद्धि थी, करना पड़ता है, इसलिए कर रहा है परन्तु अन्तर से हटना तस्व के प्रति मूढ बुद्धि थी कि वह भला करने वाले हैं। चाहता है। कषाय की बरजोरी से हट नहीं सकता। धन जब मूढपना छुट कर, जैसा उनका स्वरूप था, वह समझ के प्रति प्रासक्ति का प्रभाव हो गया, इसलिए पात्र को देख में पा गया तब सब जीवों के प्रति वात्सल्य भाव पैदा हो कर यह चेष्टा करता है कि यह किसी के सत्कार्य में लग गया अब वह किसी का प्रहित नहीं चाहता । जो जीव सके, इसलिए पात्रा दागदि में प्रति उत्साहवान होता है। धर्म से च्यूत होता है, उसे सहारा देकर फिर धर्म में स्थापित अपनी शक्ति के अनुसार तप की भावना लाता है कि वह करता है, अन्य के दोषो को नही देखता और जहाँ तक दिन कब आवे जब मैं एकाकी समस्त परिग्रह से हट कर बने प्रात्मधर्म की बढवारी करना चाहता है । इस प्रकार अपनी आत्मा मे ठहर कर, प्रात्म-स्वभाव का मानंद लुटूं। दर्शन विशुद्धता को प्राप्त होता है । विनय गुण विकास प्रात्मा के प्रानन्द में ऐसा भान होता है कि बाहर में खाने को प्राप्त होता है, विनम्र भाव को प्राप्त होता है, कठो- पीने की फिकर से रहित हो जाता है। इस प्रकार भगरता परिणामों से हट जाती है। जब 'पर' में अपनापना वान महावीर के जीव ने सहज शरीर को कष्ट दिए बिना नहीं रहा तो पर का अहंकार भी नहीं रहा, धन-वैभव- अनेक प्रकार तप को धारण किया और निरन्तर यह शरीर और पुण्य के उदय का कोई मद नही रहा । जब भावना की कि मैं सहज समाधि को प्राप्त हो जाऊँ। मद नही रहा तो सहज स्वाभाविक बिनम्रता प्रगट
जो कोई साधक रोगी हो, कोई तकलीफ में हो, उसके होती है । हम बड़ों की विनय करें, यह स्वाभाविक विनय गुण नहीं, यह तो कन्डीशनल बात है कि कोई ऐसा हो
प्रति यह भावना होती है कि किस प्रकार उसके रोगादि
को मेटने में सहायक बन । प्ररहंतादि जो शिखर है, प्रात्म तो मैं विनय करूं। परन्तु जो प्रात्मा का गुण होता है
कल्याण की मंजिल हैं, उस मंजिल के प्रति अत्यन्त अनुवहाँ बड़े-छोटे का, धर्मात्मा अधर्मात्मा का, सवाल नहीं .
राग को प्राप्त होता है। उन शास्त्र के प्रति जो प्रात्मरहता, कहाँ तो मात्र इतनी ही बात है कि कोई भी हो मैं तो अपने विनयपने में निरहंकारता में, निर्मदपने में ।
कल्याण में साधन है उनके प्रति विनय को, बहुमान को, प्राप्त होता है। कभी स्तोत्र पढता है. कभी ध्यान करता
है, कभी भगवान को वंदना करता है, कभी पापों का प्रायजब परिणामों में सरलता पाई तो परिणाम शील के श्चित करता है और निरन्तर धर्म की प्रभावना करता पालन करने की तरफ सहज झुके, शील की महिमा अंतर है। इस प्रकार की भावना भाता हमा अन्तर निज मात्मा में पाई, विषय भोगों को महिमा हटी। निरन्तर ज्ञान का के रस में डबकी लगता रहता है। इन भावों से वह अगले पभय-सा रहता है, अन्तर में मिज ज्ञान स्वभाव के सम्मुख भव में भगवान महावीर बनने लायक पात्रता को प्राप्त होता है, बाहर में पागम शास्त्र अध्ययन के द्वारा अपने होता है। भगवान महावीर होने के लिए पहले भव में इस को बढ़ाने का उपाय करता है। फिर संसार शरीर भोगों प्रकार की स्थिति को प्राप्त होना जरूरी है। वही जीव से उदासीनता को प्राप्त होता है । भेद ज्ञान के बल पर भगवान महावीर के रूप में जन्म लेता है । उस व्यक्ति को समझ में पाता कि जैसे कोई रेलगाड़ी में बैठा हो और बड़े-बड़े वैभव के धारी इन्द्रादिक देव चक्रवर्ती राजा महा
उस सीट को, डब्बे को भी अपना कहता हो, दूसरे मुसा- राजा सेठों को देख कर संसार में अन्य दु.खी प्राणियों को ..फिर बैठे हैं उनसे प्रेम से बात करता हो, साथ रहता हो, देख कर, प्रत्यन्त करुणा पैदा होती है। जैसे किसी प्रत्यात
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भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण
दुःखी को देख कर हमारे परिणामों मैं अत्यन्त दुख व्या- से रहित हैं जो यह बालक प्राप्त करेगा। जैसे कोई गरीब प्त होता है परन्तु उस पात्म-ज्ञानी को, जो लोग पुण्य के पैसे वाले को देख कर, कोई पुत्रहीना पुत्रवती स्त्री को फल को भोग रहे है, संसारिक दृष्टि से सुखी है, ऐसे व्य- देख कर, कोई भूखा भोजन के थाल को देख कर, जैसा क्तियों को देख कर वैसा दुःख व्याप्त हो जाता है। महो! तृषित हो जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र उस पात्मज्ञानी यह संसारी प्राणी 'पर' वस्तु मे, शरीरादि मे अपनापना को देख कर भाव विभोर होकर उसके चरणों में झुक गया मान कर किस प्रकार से तृष्णा की आग में झन्झापात ले और अपने जन्म को सफल मानने लगा। रहा है, किस प्रकार से 'पर' पदार्थ को ग्रहण करने को स्वयं बुद्ध बालक बड़ा होने लगा। जैसे-जैसे उसकी हाप्टा मार रहा है। इसे यह भी नहीं मालूम है कि उम्र बढ़ती थी वैसे-वैसे धन और वैभव भी बढ़ता जाता जिसको प्राप्त कर मैं सुखी होना चाहता हूं वह मृग-मरी- था। प्रजा सुखी थी। परन्तु बालक की दृष्टि तो अपने चिका है। इन जीवों का दुःख कैसे दूर हो? जब इस निज वैभव पर लगी हुई थी। वह घर में रहता हुमा भी प्रकार के अत्यन्त दु.खरूप परिणाम हुए, उस समय उस घर में नही था, राज्य वैमव मे रहता हुमा सबसे उदासीन मात्मा में कुछ ऐसे ही कर्मों का सम्बन्ध हुमा जिससे वह था। कभी निज स्वभाव का अवलोकन करता था, तब अगले भव में लाखों जीवों के कल्याण का कारण बना, पाता था, मैं तो ज्ञान-दर्शन का पिण्ड, एक अकेला चैतन्य लाखों जीव उसके उपदेश से प्रात्म-कल्याण में लगे। , मेरा अपना तो कुछ नही, जो कुछ है, वह तो संयोगी
इस प्रकार वह अत्यन्त पुण्यात्मा जीव माज से २५०० है। कभी जब निज स्वभाव के अनुभव से हटता पाता तो साल पहले बिहार की वैशाली नगरी में राजा सिद्धार्थ की पाता कि यह प्रात्मा विकार में पड़ी है, पर-वश होकर रानी त्रिशला के गर्भ मे स्वर्ग से पाता है। जब ऐसा यह प्रात्मा राग-द्वेषादि को प्राप्त हो रही है। ज्यादातर पुण्यात्मा जीव गर्भ मे आता है तो सारे देश में, सब जीवों जो विशिष्ट पुरुष होते है उनके बचपन मे खास घटना को, स्वतः निराकुलता प्राप्त होती है, दुर्भिक्ष दूर हो जाते नहीं होती। वे उस क्षण की प्रतीक्षा करते रहते है जब वे हैं, जमीन धन-धान्य से पूरित हो जाती है, सारा देश सुखी उसे देने में समर्थ हो जाते है जिसे देने को उनका जन्म हो जाता है, शत्रुओं का भय दूर हो जाता है । जब वह हा है। इसलिए महावीर के बचपन का जीवन घटनामों बालक उत्पन्न होता है तो उस पुण्यात्मा का दर्शन से शन्य है। करने, राजा सिद्धार्थ को बधाई देने, राजा सिद्धार्थ के कोई पूछ सकता है कि महावीर का जन्म क्षत्रिय के भाग्य की सराहना करने, देश-देश के राजा और ज्ञानीजन, घर क्यों हुमा और किसी गरीब के घर क्यों नहीं हया। यहां तक कि देवता गण भी, पाते है । उनके जन्म का इसका उत्तर है कि क्षत्रिय जीतने वाला होता है, विजेता प्रति उत्सव करते हैं। परम प्रारम-ज्ञानी देवताओं का होता है। इसलिए जीतने वाले के भीतर लत्रियत्व होना राजा इन्द्र अपने अवधि ज्ञान के द्वारा जानता है कि यही ही चाहिए और राजा के घर इसलिए हुप्रा कि जो इस बालक थोड़े ही काल में संयम का सम्राट बन कर, अपनी संसार को नही जीते, वह उस संसार को क्या जीतेगा। आत्मा की मलिनता तथा रूप राग-द्वेष मोह का नाश कर पहले इस लोक को जीतेगा तब उस लोक को जीतने पर परम मानन्द को, परम ज्ञान को प्राप्त होकर परमात्म-पद दष्टि जाएगी। को प्राप्त होगा जहाँ से फिर जन्म-मरण नहीं धारण होता। महावीर ने विवाह किया कि नहीं, इस पर तत्व रूप से ऐसा जान कर वह प्रति तृषित नेत्रो के द्वारा, अनिमेष तो विचार करने की जरूरत ही नहीं है। भगवान महावीर नेत्रो से, उस बालक को देखता है और देखता-देखता नहीं जैसा व्यक्ति जो किसी जड़ पदार्थ पर भी प्रभुत्व स्थापित अपाता। वह ज्ञानी इन्द्र विचार करता है कि उस परम नही करना चाहते थे, वे शादी करके स्त्री पर प्रभुत्व क्यों पात्मिक मानन्द का मैं प्यासा हूं, मुझमें ऐसा पुरुषार्थ स्थापित करते । ३६ वर्ष की अवस्था मे वह इतने प्रात्ममहीं कि उस मानन्द को प्राप्त कर सकूँ। मैं विस्तृत वैभव विभोर हो चुके थे कि अब उनके लिए घर में रहना
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१२, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
मश्किल हो गया। घर और बाहर का भेद खत्म हो गया। है, यही तेरे करने योग्य है, यही धर्म है. यही कल्याण है । उस समय उन्होने वस्तु-तत्व का विचार किया है कि हे आज तक तूने 'पर' मे, ससार शरीर भोगों में, अपनाआत्मा, ये ससार, शरीर भोग, स्त्री, धन, वैभव, राजपाट, पना माना, जिससे अनन्त काल से तू जन्म मरण कर रहा मां-बाप, पंसा, सब संयोगी पदार्थ है। जिनका सयोग होता है, कर्मों का पास्तव बंध हो रहा है और यह जीव मनुष्यहै उनका वियोग निश्चित है। यह शरीर प्रायु के अधीन देव-नारकी-पशु, योनियों को धारण करके अनन्त दुःखों है। प्रायु के अन्त में यह नहीं रह सकता। कोई बचाना को भोग रहा है। कभी इस जन्म को धारण करता है, चाहे तो बच नहीं सकता। मैं चैतन्य प्रात्मा, मेरा इनसे कभी अन्य जन्म को धारण करता है, कही सुख की प्राप्ति क्या वास्ता? यह मेरी चैतन्य जाति के नहीं, मैं इनकी नहीं होती। अपनी अज्ञानता से पाप कर्म बाँध रहा है जाति का नही। इनकी सत्ता, मेरी सत्ता, मेरा अस्तित्व, और उसके फल को अज्ञानी हया आप ही भोग रहा है हुनका अस्तित्त्व. भिन्न-भिन्न है। यह चाहे अनुकल हा, चाहे और द खी हो रहा है। जब यह शरीर प्रात्मा के भेद को विपरीत हों परन्तु मेरे अपने नहीं है। हे प्रात्मा । तू इनमें जाने, अपने मे अपनत्व बुद्धि को प्राप्त हो, बाहर से हट क्यों रुका हा है। प्रायु के अन्त मे इस शरीर को कोई कर भीतर मे पाए, 'स्व' की महिमा ग्रावे, तब कर्मों का रख नहीं सकता। इस जीव का पर्याय-अपेक्षा मरण प्रास्रव रुके और निज में रमणता को प्राप्त करे तो कर्मों निश्चित है। फिर वह मौका तुझे मिला है उस मौके मे का नाश कर पराधीनता को मेटे । हे प्रात्मा, तू पूर्ण स्वातू अपना आत्म-हित कर ले अन्यथा प्रायु का अत हो धीनता को प्राप्त हो । यह समूचा संसार अनेक प्रकार के जाएगा। यह मौका निकल जाएगा। यह शरीर तो पौद- जीवों से भरा है । उनमे से अनन्तो जीव तो ऐसे है जिनको गलिक है, माँ बाप के सम्बन्ध से उत्पन्न हया है, कर्म के ऐसे पुरुषार्थ का मौका ही नहीं । तुझे, प्रात्मत्व की जागृति अधीन तु उसमे रुका है। अब ऐसा पुरुषार्थ कर कि फिर हुई है। संसार में सब कुछ जीव को प्राप्त हो सकता है ऐसे कर्म का सम्बन्ध ही न हो कि प्रात्मा को शरीर प्राप्त परन्तु यह प्रात्म जागृति अत्यन्त दुर्लभ है । हे प्रात्मा, हो। यह घृणित है तब भी मेरा नही है, यह मुन्दर है, अब तू ऐसा पुरुषार्थ करे कि समस्त राग-द्वेष का नाश कर परम प्रौदारिक है तब भी, हे प्रात्मा ! तेरा नही। इन के पूर्ण ज्ञान और प्रानन्द को प्राप्त हो। 'पर' पदार्थों के संयोग से तो तेरे स्वभाव का तिरस्कार
जब इस प्रकार की भावना भा रहे थे उस समय बड़ेहमा है । इनके संयोग में तेरी महिमा नहीं। इनके संयोग बडे प्रागम ज्ञानियों, देवो ने प्राकर उनके विचारों की से तेरी निंदा है । इनके संयोग के कारण तेरे अनेक नाम
सराहना की और कहा, धन्य है आप जिन्होंने प्रात्मधरे गये, कोई राजा कहता है, कोई बेटा कहता है, कोई कल्याण का विचार किया । उन भावों की सराहना करने कुछ कहता है। कोई कुछ कहता है । यह नाम मेरे नहीं। से वे देव भी धन्य हो गए और भगवान महावीर तब परम मै तो चैतन्य हूं, मैग अपना कुछ नहीं । हे प्रात्मा, अब तू साधना को प्राप्त करने के लिए साधु अवस्था को प्राप्त पुरुषार्थ को प्राप्त हो । देख रणभेरी बज चुकी है, गुलामी । को छोड़ कर विजेता बने । प्रात्मा का एकत्वपना भी बाहर से देखने वाले समझते थे कि महावीर ने राज सर्वलोक मे सुन्दर है । एक अकेली वस्तु अपने में होती है छोडा, पाट छोडा, ऐस-पाराम छोडा, परन्तु बात ऐसी • 'पर' के संयोग से उसका एकत्वपना नष्ट हो जाता है। नही थी । महावीर ने सबको छोड दिया, ऐसा नहीं। इसलिए 'पर'का संयोग प्रसुन्दर है । हे प्रात्मा, तूने काम, उन्होंने कछ छोडा नहीं परन्तु वहाँ पर पकड़ने योग्य कुछ भोग, बन्ध, का परिचय तो अनन्त बार किया, हर जन्म नही था। भगवान ने तो कंकड़-पत्थरों के अलावा कुछ में किया, पूण्य की कथा भी सूनी, पुण्य कार्य भी किया, भी नही छोडा। जब हम अपनी दष्टि से देखते हैं तो हमें परन्तु यह मौका मिला है जब तू अपने आप से परिचय लगता है सारा सुख छोड़ दिया, हीरे जवाहरात छोड़े, कर, 'पर' से हट कर अपने में ठहर जा, यही तेरा कर्तव्य राज-पाट छोड़ा और हमारे भीतर उनके उस छोड़ने की
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भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण
महिमा प्रातो है । क्योकि जो छूट गया, वह हमारे लिए लब्धि थी। वह आत्मिक आनन्द था । उस मानन्द के बहुत कुछ था । परन्तु महावीर के लिए वह कीमत रहित सामने जो दो कौड़ी का था, वह छूट गया था। बाहर से था, अर्थ रहित था, कंकड़-पत्थर से भी तुच्छ था। एक देखने वाले को लगा, इतना त्याग करने से महावीर हो बच्चा कंकड़-पत्थर का संग्रह करता है और कोई उससे ले गए। परन्तु भगवान ने जो उपलब्ध किया, वह अन्तर में लेता है तो वह रोता है कि मेरा चला गया। उसके लिए किया था। वह अन्तर-उपलब्धि होने पर, बाहर छट वह कंकड़-पत्थर सब कुछ है। परन्तु जब वही समझता है गया। उस अन्तर उपलब्धि का ज्ञान बाहर से देखने वाले कि जिनको मैने पकड़ रखा है वह ककड़ पत्थर है तो सब को नही हो सकता : छुट जाते है । वहाँ वह यह नहीं कहता कि मैने कुछ त्याग जब नया पत्ता पाने के सम्मुख होता है तो बाहरी किया है, न हम बच्चे के जीवन मे लिखते है कि उसने पत्ता गिर जाता है । बाहर से देखने वाला समझता है इतने ककड़ पत्थर छोड़े। जिस रोज हम जानेगे कि महा- कि बाहरी पत्ता गिरने से नया पत्ता आया है परन्तु वस्तुवीर ने कंकड़-पत्थर छोड़े, उस रोज हम कहेगे कि उन्होने स्थिति ऐसी नही होती। इसी प्रकार जब अकुर उगने के कुछ त्याग किया । महावीर से पूछा जाता कि पाप ने सम्मुख होता है तो जमीन फट जाती है, परन्तु जमीन इतना त्याग किया तो शायद वह कहते, मैंने तो कुछ त्याग फाडने से अकुर नही निकलता । अज्ञानी समझता है जमीन नहीं किया क्योकि त्यागी तो वह चीज जाती है जिसका फाडने से अकुर निकल जाएगा इसलिए उसका पुरुषार्थ कछ मल्य हो । प्राप रोज अपने घर के बाहर कचरा फेंकते बाहर में होता है परन्तु भगवान महावीर का पुरुषार्थ है। अखबार मे नही छपता कि आपने कुछ त्यागा है। अंतर मे था, अपने में था। जो हमारे लिए धन-दौलत है, वह महावीर के लिए कचरा
महावीर ने अन्तरात्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के हो गया है। हमें वह कचरा नहीं दिखाई पड़ता। असल
लिए बाहरी पराधीनता को छोड दिया। बाहर में किसी
र में जितना फर्क बच्चे व हमारी चेतना के तल मे है, उतना
पदार्थ की अपेक्षा नही रखा, यहाँ तक कि बाल बनाने का ही फर्क हमारी और भगवान महावीर की चेतना के तल
उस्तरा भी कौन रखे । बाल बढ जाते है तो उनको उखाड़ मे है। यहाँ इस जगत मे हमे जो भी दिखाई पड़ता है
देते है । कोई खाने के बर्तन का उपद्रव नहीं है, पहनने को • महावीर के लिए उसका सारा मूल्य खो गया है, वह निर्मूल
कपड़े का झमेला नहीं है। महावीर नग्न हो गये है क्योंकि हो गई है। महावीर छोड़ते नही, चीजें छूट जाती है। जो
वह अन्तर से इतने सरल हो गए है, इतने निर्दोष हो गए व्यर्थ हो गई, उसे ढोना असम्भव है। महावीर छोड़ कर
है कि उन्हे नग्नता का बगेध ही नहीं कुछ लोग अपने को नहीं जाते, वे जाते है, चीजे छूट जाती है। महावीर दुःख
नग्न दिखाना चाहते है। यहाँ पर वह नग्नता नहीं थी। उठाने नहीं जा रहे है, महावीर तो इतने आनन्द से भर ।
एक आदमी इसलिए नग्न हो जाता है कि उसके मन में गए है कि अब दु ख का कोई उपाय ही नही रहा । कोई
जब नग्नता छिपाने का, ढाँकने का, देखने का कोई भाव र महलों में नही हो सकता था । परन्तु महल नही रहा । बालक की तरह निर्दोप हो गया। दूसरा बह सन होकर रहने का अपना प्रानन्द है । महल है जो दिखाना चाहता है कि लोग मुझे नग्न देख। यह बाहर वक्ष के नीचे रहने का अपना ग्रानन्द है । दाना दोनो बाते एक जगह नही हो सकती है। दोनों को अलग' में कोई तुलना नही है।
अलग समझने में बड़ा अन्तर है और कठिन भी है। जो महावीर ने जो कुछ प्राप्त किया वह इतना कीमती व्यक्ति सरलता की वजह से नग्न हा है, वह जीवन के था कि उसके सामने जो छोड़ा, वह दो कौड़ी का था। पोर हिस्सो में भी सरल होगा, सारे जीवन मे मिली महावीर की महत्ता तो उस उपलब्धि से है जो उन्होंने होगा । ऐसी नग्नता थी भगवान महावीर की। प्राप्त की थी । वह चेतन प्रात्मस्वरूप, ज्ञातादृष्टापना, भगवान महावीर शरीर को कष्ट नहीं देते। किसी • एक अकेले चैतन्य में जो ठहरना था, वह बड़ी भारी उप- दूसरे को भी कष्ट नही देते । जिसको दसरे को
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१४, वर्ष २८, क. १
कर देने में माता है, वही अपने को कष्ट देने में आहार मिलता है कि नहीं मिलता, कोई गाली निकालता प्रानन्द समझता है । कष्ट देना, दुःख सहना , धर्म नहीं है कि सम्मान करता है, कोई राजा नमस्कार करता है
तो परम प्रानन्द को प्राप्त होना है। इसलिए जब कि गरीब करता है. क्योंकि यह कोई दायित्व अब उनका भगवान महावीर परम प्रानन्द को प्राप्त होते हैं तो उन्हें नहीं रहा । मैं अपने में हूं, बाहर से जो हो रहा है, वह शरीर की स्थिति का बोध नहीं रहता। लोक मे देखा हो। कोई उपसर्ग कर रहा है तब भी मैं अपने में है, कोई जाता है कि जब कोई प्रानन्द में मग्न होता है तो पूजा कर रहा है तब भी मैं अपने में हं । कर्मों में बहता भख नहीं रहती। यही हाल भगवान महावीर का था और जा रहा हूं, अब तैरने की बात नही रही। महीनों-महीनों महावीर ध्यान में खड़े रहते, उन्हें भुख
भीतर में भगवान महावीर अनन्त प्रेम से भर जाते का अनुभव ही नहीं रहता। यहां पर भी वही बात है।
है, बाहर में हिंसा का विलय हो जाता है, निज त्रिकाल बाहर से देखने वाला समझता है कि भगवान महावीर की साधना शरीर को कष्ट देने की सावना है। परन्तु भगवान
सत्य स्वभाव को प्राप्त करते है तो बाहर में असत्य का महावीर को साधना शरीर को कष्ट देने की नहीं, परंत परम
विलय हो जाता है । भीतर निज वस्तु को ग्रहण करते मानंद की साधना है। वे प्रानन्द में, मात्मिक प्रानंद में मग्न
है तो बाहर 'पर' वस्तु का ग्रहण नहीं रहता । अंतर में
निज ब्रह्म की चर्या में लगते है तो बाहर में प्रब्रह्म विसथे, अपने में मग्न थे। इससे 'पर' की फिक्र छुट गयी थी।
जित हो जाता है । अन्तर में निज स्वभाव की निष्ठा को माज उनकी नकल करने वाले शरीर को कष्ट देने की।
प्राप्त होते है तो परनिष्ठा विसजित हो जाती है। अनन्त चेष्टा करते है परन्तु आत्मिक आनन्द को प्राप्त करने का पुरुषार्थ नहीं करते क्योंकि वे बाहर से देखते है। नाद को सुन रहे है इसलिए बाहर मे कुछ सुनने का नहीं
रहा । अनन्तरस का पान करा रहे है इसलिए बाहरी स्पर्श जोबानी व्यक्ति होता है, जिसने यह निर्णय किया की जरूरत नहीं रही। निज वैभव का अवलोकन करा रहे है, अनुभव किया है कि मैं एक अकेला चैतन्य हं, वह बाहर है इसलिए बाहर मे कुछ देखने को नहीं रहा। निज गंध
के सामने 'पर' गंध नहीं रही । इस प्रकार कषाय पोर में जो जो कुछ होता है, उसका मालिक नहीं बनता। 'उसके प्रति अत्यन्त उदासीन वृत्ति की प्राप्ति को जाता इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते है। सहज व्रतों का पालन है। वह मैं नहीं हूँ, उस ज्ञान सापेक्ष उस दूसरे पक्ष को होता है । वीतराग भाव उत्पन्न हुआ है इसलिए बाहर चाहे कर्म कृत कह कर उससे प्रपना दायित्व छोड़े, चाहे में मन, वचन, कार्य की चेष्टा से रहित हो गये हैं ऐसी केवल ज्ञान में झलका है वैसा हो रहा है, यह कहकर अपना गुप्ति का पालन करते है । इसी प्रकार वीतराग भाव के दायित्व छोड़े, बात है उससे अपना दायित्व को छोड़ने हान से सहज समितियों का पालन हो रहा है। वह भग.
वान महावीर मात्र वर्तमान में है, न भूतकाल का विचार की। यह वही छोड़ सकता है जो ज्ञान का मालिक बनता है जो अन्तर में ज्ञान का मालिक तो बना नहीं, बाहर में है, न भविष्य की चिन्ता है । इस प्रकार कितने साल
ध्यान, तपादि करते हुए, अनेक जगह विहार करके, बारह उत्तरदायित्व छोड़ देता है तो यह एकान्त पक्ष बन जाता
वर्ष के बाद अपने निज स्वभाव की साधना से, दर्शन-ज्ञान है । दायित्व छोड़ना उसका सही है जिसने ज्ञान को
चारित्र की एकता को प्राप्त होकर, शुक्ल ध्यान को प्राप्त 'पकड़ा । पर्याय का दयित्व छोड़ना उसका मिथ्या है जिसने अभी ज्ञान को नहीं पकड़ा । वह बचने के लिए, दायित्व
होते हैं और रागादि दोषों का सर्वथा प्रभाव करके, ज्ञान से घबरा कर छोड़ रहा है। पहले वाले के पास दायित्व
और आनन्द की पूर्णता को प्राप्त होते हैं । रहा ही नहीं। यही बात भगवान महावीर की थी। उन्होंने उस ज्ञान रूपी दीपक से लोक-प्रलोक प्रकाशित होता बाहर का, पर्याय का दायित्व छोड़ दिया। मव क्या होता है । वहाँ ज्ञान के प्याले को ज्ञान रूपी जल का पान है, इसकी चिन्ता नहीं। गर्मी पड़ती है कि सर्दी पड़ती है, कराया जाता है और देव-दानव, मनुष्य, पशु तक सभी
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भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण
उस ज्ञान दीप से पालोकित होते है । जो भावना पूर्व जन्म सर्व प्रकार से रहित होकर, अपने मनन्त ज्ञान-दर्शन मानंद में प्राई थी कि मैं संसार के प्राणी 'पर' में सुख मान कर वीर्य की परिपूर्णता को लिए अनन्त-मनन्त काल तक अपने 'पर' में अपनापन मान कर विषय-भोगों में लग कर, निज स्वरूप में लीन रहेगी । सर्व कर्मों का प्रभाव होने अपनी आत्मा का कल्याण कर रहे है, उनका भला कैसे से फिर संसार में प्राकर न जन्म का सवाल है, न मरण हो, उस भावना को साकारता होती है । आत्म तत्व के का, जहां प्रानन्द ही भानन्द है। उपदेश द्वारा अनन्त जीवों का हित होता है । जीव अपनी महावीर से भगवान महावीर बन कर, मानव से गलती समझ कर निज मानन्द को प्राप्त करने का पुरु- महामानव बन कर, प्रात्मा से परमात्मा बन कर, उनक षार्थ करते हैं । अनन्तानन्त काल से जिस 'पर' को अपना
द्वारा जो प्रात्म-कल्याण का मार्ग दिखया गया वह भाज समझ कर पकड़ रखा था और प्राकुलता को प्राप्त हो
भी उपलब्ध है और उसी मार्ग का अवलम्बन लेकर माज रहे थे, अब जब समझ में पाया कि जिसको पकड़ रखा
भी यह व्यक्ति अपने आपको परमात्मा बनने का, अनन्तहै वह तो 'पर' है उसमें मेरा अपना कुछ नहीं, मैंने इतना
मानन्दमयी बनाने का, पुरुषार्थ कर सकता है । हरेक प्राणी लम्बा काल इस 'पर' के पीछे यों ही गवाया, तब यह
अपने सच्चे पुरुषार्थ के द्वारा क्रम से अपनी आत्मा को अत्यन्त खेद को प्राप्त होते हैं । अाज भी भगवान महावीर
शुद्ध बना कर मुझ जैसा परमात्मा बन सकता है यह भगके उस पात्मतत्व को पढ़ कर, उनके जीवन को समझ वान महावीर की ससार के प्राणी मात्र के लिए महान कर, समय-समय में जीव अपना कल्याण कर रहें हैं, और स्वतन्त्रता की घोषणा है। चुनाव तेरा है, चाहे संसार का करते रहेंगे।
कर ले चाहे मोक्ष का । पुरुषार्थ तेरा है। कार्तिक कृष्ण अमावस्या के रोज सवेरे उस महान मात्मा से प्रायु के अंत में पावापुर स्थान से इस नश्वर सन्मति विहार, शरीर का सम्बन्ध छूट जाता है और वह प्रात्मा यहां से २१०, दरियागंज, सात राजू ऊपर, जहाँ लोक का शिखर है, वहाँ 'पर' से दिल्ली-६;
उदभावनाएं प्रायश्चित् तभी अर्थपूर्ण होगा कि जब तत्संबंधी दोष के लिए वास्तविक खेद हो और भविष्य में उससे बचने की सावधानी की प्रतिज्ञा हो। यह नहीं कि दोष लगने दो, फिर प्रायश्चित करके उससे निवृत्त हो जायेंगे अथवा जान-बूझ कर दोष मे प्रवृत्त हुए और फिर प्रायश्चित् करके समझ लिया कि उसके फल से मुक्त हो गए।
X
विज्ञान कहता है कि प्रात्महत्या बिना पागलपन के नहीं हो सकती। अध्यात्म कहता है कि प्रात्महत्या अतितीव्र कषाय की दशा में होती है। प्रतः कषाय-पागलपन इस प्रकार जितने अंश में कषाय रहेगा, पागलपन (बेहोशी) उतने अंश में रहेगी, स्वभाव का उतना हो पात रहेगा।
X
X लगता है जीवन में तो थकान का स्थल प्रा गया है । परन्तु अनादिकाल के भ्रमण से थकान कब महसूस होगी?
-श्री महेन्द्रसेन जन
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हरिवंशपुराण में शरीर-लक्षण : एक अध्ययन
श्री राजमल जैन, नई दिल्ली
प्राचार्य जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण में कुछ उसकी माता दिति ने स्वयंवर से पहले उससे यह कहा विस्तार से हस्तरेखा विज्ञान का वर्णन प्रशगवश किया है। कि वह उसके बड़े भाई तृणबिन्दु के पुत्र मधुपिगल का (यहाँ हस्तरेखा मे शरीर-लक्षणो का भी समावेश अभीष्ट वरण करे। यह बात राजा सगर की प्रतिहारी मन्दोदरी ने है।) सन् ७८३ ई० में समाप्त इस रचना में इन लक्षणो सुन ली, और राजा सगर को सब कुछ बता दिया। राजाका वर्णन, अध्ययन एवं कौतुक का विषय है। प्रस्तुत लेख सगर मुलसा से ब्याह करना चाहता था, इसलिए उसने में जिनसेन द्वारा वर्णित रेखाओं आदि की तुलना प्रसिद्ध एक पुरोहित से सामद्रिक-शास्त्र के सिद्धान्त लिखवाए प्रार पाश्चात्य हस्तरेखा विशेषज्ञ कीरो (cherro) की पुस्तक उन्हे एक लोहे के संदूक मे बन्द करवा कर स्वयवर-भूमि 'पामिस्ट्री फोर पाल' तथा बोनहम को 'लाज आफ साइं. मे गड़वा दिया । और जब स्वयवर का दिन आया तब टिफिक हैड रीडिग' से पंडित गोपी कुमार प्रोझा की एक वह शास्त्र उसने सब राजापो के सामने पढ़वाया। उसे अन्य पुस्तक 'हस्तरेखा का विज्ञान' से उदधरण देकर की सन मधुपिगल ने मोचा कि उसकी प्रॉनो मे दोप है । जाएगी । प० अोझा ने अपनी उक्त कृति मे भारतीय इसलिए सुलसा उसका वरण नहीं करेगी। अतः वह स्वएवं पाश्चात्य दोनों ही सिद्धान्तो को सम्मिलित किया है। यंवर मइप से ही उठ कर चला गया । इस प्रकार सुलसा प्रतः सार रूप मे अन्य भारतीय एव पाश्चात्य हस्तरेखा का विवाह राजा सगर से हुया । बाद में जब मधुपिगल विशेषज्ञों का मत भी यथासम्भव समाविष्ट किया जा को यह ज्ञात हया कि उसमे दोष नहीं है, पीर उसे व्यर्थ सकेगा। भारतीय ज्ञानपीठ से एक जैन कृति 'करलक्खण' में ही दोपयुक्त घोपित किया गया था, तो उसने प्रतिशोध प्रकाशित हुई है, किन्तु उसके कर्ता और काल का ज्ञान लिया, इत्यादि। नहीं है। उसका भी प्रयोग तुलना के लिए किया जाएगा। बर:-(जि.) राजा के पैर मछली, शंख तथा इस प्रकार यह तुलना सीमित ही रहेगी। लेखक यह भी मात विद्रों से यक्त होते हैं, कमल के भीतरी भाग स्पष्ट कर देना चाहता है कि वह हस्तरेखा का पण्डित मान उनका मध्य भाग होता है । एड़ियों की उत्तम नहीं है। उसने केवल शौक के बतौर हस्तरेखा पर भी
शोभा से सहित होते है, उनकी अगुलियों के पौर एक कुछ पढ़ा है, और इस प्राचीन सामग्री पर निगाह पड़ने
दूसरे से सटे रहते है, उनके नख चिकने एवं लाल होते पर उसने उसे यहाँ देने की धृष्टता की है। हरिवंश पुराण उनकी गाठे छिपी रहती हैं, वे नसों से रहित होते है, संस्कृत मे है । यहाँ पंडित पन्नालाल जैन साहित्याचार्य
कुछ-कुछ उष्ण होते है, कछुए के समान उठे होते है और द्वारा किए गए हिन्दी अनुवाद का प्रयोग किया गया है। पसीने से मक्त होते है। इसके विपरीत पापी मनुष्य के माधुनिक युग में राजा तो रहे नही, इसलिए अब राजा से रसप के ग्राकार के, फैले हए, नसों से व्याप्त, टेढ़े, रूखे महापुरुष या प्रसिद्ध पुरुष का अर्थ ग्रहण करना उचित नखों से युक्त, सूखे एवं विरल, अगुलियों वाले होते है। होगा।
जो पैर छिद्र रहित एवं कषले रग के होते है वे वश का हरिवंश पुराण के तेईसवें सर्ग में हस्तरेखा सम्बन्धी नाश करने वाले होते है। (सच्छिद्रौ सकषायो च वंशप्रसंग इस प्रकार है-“धारणयुग्म नगर के राजा अयोधन च्छेदकरो तु तौ) । हिंसक मनुष्य (हिंस्रस्य) के पैर जली तथा रानी दिति की सुलसा नामक एक सुन्दर कन्या थी। हुई मिट्टी के समान और क्रोधी मनुष्य के पैर पीले रंग के
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हरिवंशपुराण में शरीर लक्षण : एक अध्ययन
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जानना चाहिए।
सामुद्र तिलक के अनुसार मोझा जी ने लिखा है कि श्री प्रोझा ने प्राचीन भारतीय ग्रन्थों के उद्धरण हाथी के समान घुटने वाला भोगी होता है मोर मोटे देते हुए लिखा है "जिनके पैर में शख, छेत्र, वन, घुटनो वाला पृथ्वी का स्वामी होता है। घुटनों पर प्रसतलवार, ध्वजा, कमल, धनुष, बाण, शक्ति, सर्प, मान मांस जिसके हो, वह कभी धनी नहीं होता। व्यजन, चामर प्रादि चिह्न हैं, वे भाग्यशाली होते है । रोम और केश:-प्राचार्य के मतानुसार राजामों वराह मिहर का मत है कि राजा के पैर कछुए की तरह के एक रोम-कप में एक रोम होता है। यदि दो या तीन उन्नत होते है। भाग्यवानों के पैरों की उंगलियां मिली हो तो मनुष्य निर्धन या मुर्ख होता है। यही बात का हुई होती हैं तथा नाखून लाल होते हैं । इसी प्रकार सफेद पर भी लाग होती है। और रूखे नाखून जीवन में कष्ट भोगने वालों की सूचना
गने वाला का सूचना समुद्र ऋषि के मतानुसार एक रोम-रूप में से एक ही देते हैं। जिनके पर कषाय वर्ण के हों, उनका वंश मागे
रोम या केश का निकलना बहुत शुभ है। दो निकलें तो
माही का निकलन नहीं चलता और जली हुई मिट्टी की तरह जिनके पैर का व्यक्ति बतिमान होगा। मगर तीन निकले तो दरिद्री रंग हो, वे पापी और हिंसक होते हैं । पैरों में नसों का एवंदखी। दिखाई देना भी "अच्छा लक्षण नहीं।"
अण्डकोष, नितम्ब प्रादि:-जिनसेन का मत है कि 'कर लक्खण' का प्रमुख उद्देश्य व्रत लेने के इच्छुक यदि किसी बालक का शिश्न छोटा, दाहिनी ओर स्थूल व्यक्तियों को केवल तब ही व्रत देना उचित बनाना है जब तथा प्रन्थियुक्त हो तो वह शुभ होता है। इसरो विपरीत कि हाथ की रेखाओं आदि को देख कर उसकी पात्रता या अशुभ होता है। छोटे अंडकोष वाले शीघ्र ही मृत्यु को अपात्रता का निर्णय कर लिया गया हो। इसलिए उसके प्राप्त होते हैं, किन्तु विषम अंडकोष वाले स्त्रियों को वश 'पैरों में शंख प्रादि चिह्नों का फल नही कहा गया है। में करते हैं । जो राजा होता है, उसके अण्डकोष सम होते (जब कि हाथ में इन चिह्नों का फल बताया गया है।) है और नीचे की पोर लटकते रहते हैं, वे दीर्घजीवी होते सम्भवतः ये लक्षण यतियों को बताए जाते थे। इस प्रन्थ हैं। इसी प्रकार जिसका मूत्र सशब्द निकलता है, वे सुखी में लिखा है
होते हैं और इसके विपरीत वाले दु.खी । जिनके मूत्र की इय कर लक्खणमेयं समासपो छंसिझं जइजणस्स । पहली और दूसरी धारा दाहिनी ओर पड़ती है, वे लक्ष्मी पुवायरिएहिं गरं परिक्खि उणं वयं दिज्जा।
के स्वामी होते है तथा इससे उलटी धारा वाले निर्धन (इस प्रकार पूर्वाचार्यों ने यतियों के कर लक्षण,
होते है । पुष्ट नितम्ब वाला व्यक्ति सखी होता है, स्थल संक्षेप में बताए हैं। इनके द्वारा मनुष्य की परीक्षा करके
वाला दरिद्र और ऊँचा उठे नितम्ब वाला व्याघ्र से मारा प्रत देना चाहिए।
जाता है।
कमर और पेट :-सिंह के समान पतली कमर वाला कीरो और बेनहम ने भी अपनी उक्त पुस्तकों में पैरों व्यक्ति राजा होता है, जब कि ऊँट या बन्दर के समान के उक्त लक्षणों का कोई उल्लेख नहीं किया है। कमर वाला धनी। जिसका पेट न छोटा, न बड़ा हो, वह
घुटने और पिंडलिया-जिनसेन का मत है कि जिन सुखी और घड़े के समान पेट वाला दुःखी होता है । सांप मनुष्यों की पिंडलियों में थोड़े बाल होते हैं और यदि वे की तरह लम्बे पेट वाला दरिद्र एवं बहुत भोजन करने गोल-गोल हों तो वे मनुष्य भाग्यशाली होते हैं और वाला होता है। दुबली-पतली पिंडलियों या जॉर्घ प्रशुभ होती हैं। इसी श्री प्रोझा ने बृहत्संहिता के माधार पर शेर की सी प्रकार भाचार्य ने स्थल घुटने वाले को धनी, ऊँचे उठे कमर वाले को उच्चाधिकारी तथा बन्दर या हाथी के वाले को भोगी, गहरे वाले को निधन एवं विषम वाले को बच्चे के समान जिसकी कमर हो, उसे धनहीन बताया है। विषम ही कहा है।
इसी प्रकार उन्होंने समुद्र ऋषि के अनुसार बन्दर, हाथी
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अनेकान्त
या सियार प्रादि की तरह कमर वाले को निर्धन बताया अग्रभाग छोटे और स्थूल होते है, वे उत्तम, भाग्यशाली
होते हैं । जिनके दीर्घ या विषम होते है, वे निर्धन । __ भविष्य पुराण के अनुसार श्री प्रोझा ने सम उदर हृदय एवं वक्ष-उक्त प्राचार्य का मत है कि राजानों वाले को धन-ऐश्वर्य-सम्पन्न बताया है. और घड़े की तरह का हृदय पुष्ट, चौडा, ऊचा प्रौर कपन से रहित होता है। पेट वाले को दरिद्र । पेट आगे नहीं निकला होना शुभ पुण्य हीनों का, तीक्ष्ण रोगो से व्याप्त रहता है। सम लक्षण माना गया है । 'सामुद्र तिलक' प्रादि ग्रन्थो मे मेढक वक्षस्थल वाले संपत्ति-शाली, स्थूल वाले शूर वीर किन्तु हिरन मादि जानवरों के पेट से पेट की तुलना कर शुभा- निर्धन, और कृश तथा विषम वाले निर्धन एवं शस्त्र से शुभ फल कहा गया है। सामद्र तिलक मे साप की तरह मारे जाने वाले होते है। पेट वाले को जोकर होना बताया गया है।
श्री प्रोझा के अनुसार चौड़ा, स्थिर, उन्मत्त और पसलियां और कूक्षि:-प्राचार्य का कथन है कि कठिन वक्षस्थल शुभ लक्षण है। पतले वक्ष वाला व्यक्ति जिनकी पसलियाँ भरी होती है, वे सखी होते है, ऊंची- निर्धन होता है, तथा पुष्ट वाला बहादुर । इसी प्रकार नीची, टेढ़ी पसलियों वाले भोग रहित बताए गये है । सम समतल याला धनी कहा गया है। कुक्षि वाले भोगी, असम वाले भोग रहित, विषम वाले
बगल, गरदन, पीठ, स्कन्ध :-जिनसेन के अनुसार निर्धन और उठी हुई कुक्षि वाले निर्धन होते है।
धनी मनुष्यों की बगल पसीने से रहित, पृष्ट और समान
रोममें से युक्त होती है । निर्घन की गरदन नमों से युक्त, भविष्य पुराण का संदर्भ देते हुए श्री प्रोझा ने लिखा
चपटी होती है, जब कि शंख जैसी गरदन वाला राजा है कि सम कुक्षि वाले भोगी होते है, किन्तु नीची कुक्षि
होता है और भैस जैमी गरदन से युक्त व्यक्ति शूरवीर । वाले धनहीन । हाथी जैसी कुक्षि जिनकी होती है, वे कपटी
जो पीठ रोम से रहित और सीधी हो, वह शुभ होती है। या मायावी कहे गये हैं।
झुकी हुई और रोमों से भरी पीठ प्रशुभ कही गई है। नाभि पोर बलि :-चौड़ी, ऊँची और गहरी गोल निर्धन के कन्धे छोटे, प्रपृष्ट एव रोमो से व्याप्त होते है, नाभि को प्राचार्य जिनसेन ने सुखी मनुष्य का लक्षण जब कि पराक्रमी और धनवान के कन्धे सटे हुए एवं पुष्ट बताया है। जिसकी नाभि छोटी दिखाई देने वाली हो, वह होते है। दुःखी होता है । कमल कणिका जैसी नाभि मनुष्य को श्री मोझा के अनुसार भविष्य पुराण में भी पुष्ट, राजा बनाती है, विस्तृत नाभि दीर्घायु और धनवान होने बिना पसीने की बगल राजा की होती है, ऐसा कहा गया की सूचना देती है। इसी प्रकार जिसके एक वलि होती है। गरुड पराए
+ वाल हाता है। गरुड़ पुराण के अनुसार पीपल के पत्ते के प्राकार की है, वह शास्त्रार्थी होता है, दो वलि से युक्त व्यक्ति स्त्री- सगन्धयुक्त, मृद् रोमों से युक्त बगल राजा की होती है। प्रेमी तीन वाला प्राचार्य और चार वाला अधिक सन्तान विषम होने पर कि बेईमात्र लोधी
विषम होने पर व्यक्ति बेईमान, लोभी होने पर निर्धन वाला तथा जिसके एक भी वलि नही हो, वह राजा होता इत्यादि होता है। है। स्वदार-संतोषी व्यक्ति की वलि सीधी होती है, जब गरदन के जो लक्षण प्राचार्य जिनसेन ने कहे है, वे कि प्रगम्यगामी एवं पापी लोगों की विषम ।
भविष्य पुराण में भी आये हैं। केवल मृग के समान गरभविष्य पुराण सीधी वलि वाले को सदाचारी और दन वाले व्यक्ति को डरपोक कहा गया है। ऊंची-नीची या टेढी बलि से युक्त व्यक्ति को व्यभिचारी भविष्य पराण और मामटिक नास्त्र में पीट के जि घोषित करता है । एक भी वलि का न होना उत्तम, एक व्याघ्र, सिंह, कछुए आदि से समानता कर शुभाशुम लक्षण से विद्वान, दो से भोगी, तीन से अनेक शास्त्रों का विद्वान् कहे गए है । पीठ पर रोयें न होना धनी व्यक्ति का चिह्न पौर चार के कारण बहुत पुत्रवान् होता है।
बताया गया है, जब कि पीठ पर रोयें वाले को निर्धन हरिवंश पुराण के अनुसार जिन मनुष्यों के स्तनों के कहा गया है।
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हरिवंशपुराण में शरीर-लक्षण : एक अध्ययन
इसी प्रकार हाथी, बैल या सुपर की तरह ऊंचे कन्धे को तपस्वी मानता है। वहत्संहिता के ही अनुसार नाक वाले को महाभोगी. महाधनी या उच्च पदाधिकारी बताया के छिद्रो का छोटा होना शुभ लक्षण है। किन्तु समुद्र गया है। रोमो का होना मी निर्धनता की निशानी कहा तिलक की यह मान्यता है कि यदि नाक बहुत बड़ी या गया है। इनकी तुलना के लिए भी पशुपो से साम्यता का बहुत छोटी हो और मागे से दो भागों में विभक्त हो सहारा लिया गया है।
तो व्यक्ति निर्धन होता है । इसी प्रकार एक बार छोकने बाढ़ी, दाँत, गोठ प्रादि:-जिनसेनाचार्य के मता- वाले को धनी, दो-तीन बार छीकने वाला दीर्घायु तथा नुसार जिनकी दाढ़ी पतली और लम्बी होती है, वे निर्धन जो चार बार छीके, उसके भोग का नाश होता है । अधिक और जिनकी पुष्ट होती है, वे धनी होते हैं। बिम्बफल के बार छींकना अशुभ है । गर्ग ऋषि ने नेत्र के ललाई लिए समान लाल पीठ मनुष्य को राजा बनाते हैं । वे कटे-फटे हए किनारे को शुभ बताया है। गरुड़ पुराण हाथी जैसे न हो और सीधे भी हो । सम और स्निग्ध दाढ तथा नेत्र वाले को सेना नायक बनाता है। महाभारत में पिमल सफेद एव सघन दांत, लम्बी और कोमल जीभ वाले भोगी (बिल्ली जैसे) नेत्र वाले को प्रशभ बनाया गया है। इस होते है। कानो पर रोम बाले दीर्घायु, सीधी और समान, प्रकार के नेत्र दुर्योधन के बताये गये थे । भविष्य पुराण छोटे छिद्रों वाली नाक वाले भोगी होते हैं । जिसे एक ने बिल्ली के समान नेत्र वाले को हिंसक माना है। गर्मछीक पाए, वह घनी, दो-तीन वाला विद्वान, लगातार छोक ऋषि ने यह मत व्यक्त किया है कि आँखों के लक्षणों को वाले दीर्घायु होते है । गजेन्द्र एवं बल को प्रांखे राजा के प्रधानता दी जानी चाहिए। अन्य सौ लक्षण एक तरफ लक्षण है जब कि अतिम भाग मे लाल अाँखे धनिकों की और प्राख सम्बन्धी लक्षण एक तरफ रखना चाहिये । होती है, किन्तु पीली आँखों वाले प्रमागलिक एवं पापी विभिन्न प्राचार्यों ने नेत्र के लक्षणों में विभिन्न जीव-जतुषों होते है। उनसे न मित्रता करनी चाहिए और न ही उनकी की प्रॉखो से मनुष्य की प्रॉखो के लक्षणो की तुलना की योर देखना चाहिए । बिल्ली के समान जिनकी अखि है। (इन पशुमो में गाय, खरगोश, सर्प प्रादि प्रमुख हैं। होती है, वे मन, वचन, कर्म से पाप पूर्ण होते है एव यहॉ केवल जिनसेन के मत में समानता वाले लक्षणोपर अभागे और निर्दयी होते है।
ही विचार किया गया है।) श्री प्रोझा ने मामुद्र तिलक नामक ग्रन्थ का संदर्भ मख लक्षण :--जिनसेनाचार्य का मत है कि जिनका देकर लिखा है कि दाढ़ी-मूछ के केश सघन, सूक्ष्म और मख भरा हमा, सौम्य, सम और कुटिलता रहित होता मृदु हों तो यह उत्तम लक्षण है। उनके अनुसार गरुड़- है, वे राजा होते है। बड़े मुख वाल प्रभागे मोर गोल मह पुराण भी लाल और चिकने प्रोठ वाले व्यक्ति को राजा वाले मूर्व होते है । स्त्री के समान मुख वाले सम्मानहीन, बनाता है और फटे ओंठ वाले को निधन । वराह मिहिर छोटे मव वाले कंजूस तथा लम्बे मुह वाले निर्धन होते राजा के लक्षणो में पतले और सीधे प्रोठ भी शामिल है। करते है । भविष्य पुराण हाथी या गधे के समान चिकने मख सम्बन्धी उक्त लक्षण (राजा से सम्बन्धित) दांत वाले को धनी और गुणी मानता है। इसी प्रकार भविष्य पुराण के लक्षणो से मिलते है। किन्तु स्त्री जैसे ३२ दांतों का होना उत्तम लक्षण है। समुद्र ऋषि ऊँचे मख वाले के लिये यह कहा गया है कि उसका पुत्र नहीं दाँत वाले को बलवान और भोगी मानते है।
होता । इसी प्रकार बड़े मुंह वालों को भय उत्पन्न करने लाल, चिकनी और दीर्घ जीभ वाले को भविष्य- वाला एवं पापी कहा गया है, और छोटे चेहरे वालों को पराण मे ऊँची पदवी प्राप्त करने वाला कहा गया है। अल्पायु या धन-नाश से दु.खी होने वाला बताया है। श्रीप्रोभा ने बहत्संहिता का यह मत उद्धृत किया है कि समुद्र ऋपि छोटे चेहरे वाले को कस कहते है । भविष्य जिनके कानों में रोम हों, वे दीर्घायु होते हैं, किन्तु भविष्य- पुराण ने गोलाई वाले मह के व्यक्ति को धामिक घोषित पराण बडे कान बालों को दीर्घायु तथा लम्बे कान वालो किया है । गर्ग ऋपि ने चेहरे को सबसे अधिक महत्व
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१००, वर्ष २८, कि० १
प्रनेकान्त
दिया है और लिखा है कि "मुख ही वास्तव में मनुष्य the key to a knowledge of your client's natur
ral refinement." जिनसेनाचार्य ने लिखा है कि फल-प्रतिपादन के लिये श्री प्रोझा ने भविष्यपुराण का यह मत उद्धृत किया मनष्य के मान. जन्मान शरीर की ऊँचाई) स्वर हेद है कि छीदी अंगुलियों वाले दरिद्री होते है तथा सघन गति, वंश, उत्तम वर्ण और प्रकृति पर अवश्य विचार अगुलियों वाले संपन्न । करना चाहिए। अन्य ग्रन्थों में भी शरीर की ऊंचाई,
कलापूर्ण हथेली और नख-जिनसेनाचार्य के मता. 'चाल और हसित प्रादि पर विचार किया गया है।
नुसार जिनकी कलाई अत्यन्त गढ़ एवं सुश्लिष्ट संधियों से ' हाथ-हाथों की बनावट के अनुसार भी हस्तरेखा युक्त हाता है, वे राजा हात है किन्तु ढौली मार सशब्द विशारद फल-प्रतिपादन करते हैं। जिनसेनाचार्य के अनु
कलाई वाले दरिद्री होते है। गहरी तथा भीतर को दबी 'सार "राजाओं के हाथ स्थल, सम, लम्बे और हाथी की
हथेली वाले नपुसक तथा पिता के धन से रहित तथा सूड के समान होते हैं। परन्तु निर्धन मनुष्यों के हाथ
गहरी व भरी हथेली वाले धनी होते है। घनी लोगों की 'छोटे और रोमों से युक्त रहते है। दीर्घायु मनुष्यों की
हथेली लाख के समान लाल होती है। इसके विपरीत 'अंगुलियां लम्बी तथा अत्यन्त कोमल होती हैं। निर्घन
पीली हथेली वालं अगम्यगामी और रुक्ष हथेली से युक्त मनुष्यों की बलरहित और बुद्धिमान मनुष्यों की छोटी
व्यक्ति सौन्दर्यरहित होता है। उठी हुई हथेली वाला छोटी होती हैं। निर्धन मनुष्यों के हाथ स्थूल रहते है,
दानी होता है। जिसके नाखून तुष के समान हो, वे नपुसक, 'सेवकों के हाथ चिपटे होते हैं वानरों के समान हाथ वाले फटे नाखून वाला निर्धन, लाल नाखून वाले सेनापति मनुष्य धनाढ्य होते हैं और व्याघ्र के समान हाथ वाले और भद्दे नाखून वाले व्यर्थ का तर्क-वितर्क करते हैं। मनुष्य शूरवीर होते है ।"
इसी प्रकार कलाई से लेकर हाथ तक तीन रेखामों वाले करलक्षण' के अनुसार जिस व्यक्ति की अंगलियों के राजा हात है। पर्व मांसल हों, वह धनवान और सदा सुखी होता है।
'करलक्खण' मे भी लिखा है किइसके विपरीत अंगुलियों वाला दरिद्री होता है।
तिप्प रिरिक्ता पयडा जवमाला होइ जस्स मणिबंधो। हस्तरेखा विशेषज्ञों ने हाथों को वर्गाकार (सर्वप्रथम
सो होइ घणाहण्णो खत्तिय पुण पत्थिवो होई॥ कोटि का) फैला हुआ हाथ (क्रियाशील व्यक्तित्व) नुकीला
(जिसके मणिबंध में यवमाला की तीन धाराएं हों,
. वह धन से परिपूर्ण होता है और यदि वह क्षत्रिय हो तो हाथ (कलाकार), लंबा, पतला हाथ (शातिप्रिय) तथा १९ मोटी त्वचा छोटी अंगुलियों वाला हाथ (सबसे निकृष्ट
राजा बनता है।) ' हाथ) प्रादि सात वर्गों में हाथ को बांटा है।
श्री ओझा ने 'विवेकविलास' का संदर्भ देते हुए लिखा
है कि जिसकी हथेली का मध्य भाग नीचा होता है, वह ' कीरो (Chiero) का दावा है, "The difference
धनी होता है और ऊंचा-नीचा होने से निधन होता है। in the shape of the hands of the French and
मणिबंध की तीन रेखायों के विषय में श्री ओझा ने German or the French and English races would
सामुद्र तिलक का यह मत व्यक्त किया है कि जिसकी तीन convince any thinking person that temperament
प्रखडित रेखाए हों, वह धन, सुवर्ण एवं रत्न का स्वामी and disposition are indeed largely indicated
होता है। by the shape of the hand itseif."
कीरो ने लबे, छोटे तथा चपटे नाखूनों के अनुसार बेन्हम का मत है, "This quality of texture क्रमशः फेफड़ों और छाती, हृदय की बीमारी तथा लकवे की will aid you in estimating character, for it iभावना जताई sa postening influence on all the coarser बीमारी की अवस्था बताया है। qualities seen in any subject." Texture is
[शेष पृ० १०३ पर]
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शिल्पकला एवं प्रकृति-वैभव का प्रतीक : अमरसागर (जैसलमेर)
श्री भूरचन्द जैन, बाड़मेर
राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त-क्षेत्र में स्थित जैसल- में ही बनकर पूर्ण हो गया था। सरोवर के मख्य बांध पर मेर जिला रेगिस्तान के ऊँचे ऊंचे टीबों के लिए ख्याति निर्मित महारावल अमरसिंह की छतरी पौर वि० सं० प्राप्त किये हुए है। प्राकृतिक विपदानों से पीड़ित रहने १७१७ में निर्मित अमरेश्वर महादेव का मन्दिर प्रकृतिवाला यह जिला शिल्पकला के लिए जगत-विख्यात है। सौदर्य एवं धार्मिक वातावरण पैदा करने के लिए प्रार जैसलमेर का दुर्ग, दुर्ग पर स्थित जैन मन्दिर, पटवों की भी विद्यमान हैं । सागर का मजबूत बांध, बांध पर निर्मित हवेलियां, सेठ नथमल की हवेली, जवाहर-विलास, प्रादल- छतरी-महादेव का मन्दिर, ऊँचे महल, महलों के अग्निम विलास, लक्ष्मीनाथ का मन्दिर, माताजी का दर्शनीय भाग में सुन्दर फव्वारे, क्रीड़ा स्थली प्रादि अब भी इस स्थल, सालमसिंह की हवेली शिल्पकलातियों के लिए रमणीय स्थल की शान बने हुए है। सागर के चारों तरफ माज भी प्राचीन शिल्पकला की रुचि का परिचायक बनी प्राम्रवृक्षों की कतारें, चमेली की सुगन्ध, मोगरे की महक, हुई है। वैसे सम्पूर्ण जैसलमेर में शिल्पकला के रूप में रेगिस्तान में मन लुभावना वातावरण पैदा कर देती है। बने जाली और झरोखों की प्रत्येक घर के अग्रिम भाग में
अमर सागर पांच सौ फीट लम्बा और चार सौ फीट भरमार है। पीले पाषाणों पर बने जाली और झरोखों
चौड़ा है जिसके तल पर जल की कई पगबाव और की सुन्दरता न केवल जैसलमेर नगर तक ही सीमित रही और
बेरियां निर्मित की हुई है । इन पगबाबो और बेरियो है अपितु इसका विस्तार सम्पूर्ण जिले मे रहा है । जन की बस्ती मे प्रमर सागर का मुख्य प्राकर्षण का केन्द्र, धर्मावलब्जियों का प्रसिद्ध जैन तीर्थ लोदवा की शिल्पकला जैन धर्मावलम्बियों का श्री मादीश्वर प्रभु का बारीक इतनी ही ख्याति प्राप्त है जितनी अमर सागर स्थित जैन-शिल्पकला का अनोखा जिन.मटिा है।
शिल्पकला का अनोखा जिन-मन्दिर है । इस मन्दिर जगत के श्री मादीश्वर प्रभु के जिन मन्दिर की। अमर का निर्माण वि. स १९२८ मे बाफणा-गोत्रीय सागर जैसलमेर से तीन मील दूर लोदवा जाने वाली सेठ श्री हिम्मत लाल जी ने करवाया और प्रतिष्ठा खतरसड़क पर आया हुमा है। यहां सेठ हिम्मतमल जी का गच्छीय श्री जिन महेन्द्र सूरि जी ने करवाई थी। मंदिर बनाया शिल्पकला का खजाना लिए जिन-मन्दिर, महा- मे प्रतिष्ठित मूलनायक श्री प्रादीश्वर भगवान की लगभग रावल श्री अमरसिंह द्वारा निर्मित, प्रकृति की सुन्दरता को १५०० वर्षों से प्राचीन प्रतिमा विराजमान है जिसे विक्रम खान, अमर सागर, महारानी अनुपकवर के नाम से निर्मित
पुर कोट से लाया गया था। मन्दिर का बाहरी भाग शीतल एवं शुद्ध जल की मनप वाव प्राज भी दर्शकों के
मुख्य द्वार छोटे-छोटे तोरणों, झरोखों, जालियों से सजाया लिए आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु बनी हुई है।
गया है । लटकते कगूरों की सुन्दरता, बारीक शिल्पकला सैलानियों का सौदर्य-स्थल, भ्रमणकारियो की रम की प्राचीनता, पीले पाषाणों की चमक और बीच में बने णीय भमि, यात्रियों का दर्शनीय नगर, भक्तो का श्रद्धा- सफेद संगमरमर के गवाक्ष गोख ने तो इसके कलाकेन्द्र, अमर सागर का निर्माण जैसलमेर के महारावल श्री सौन्दर्य मे अनोखी शान पैदा कर दी है। दो मंजिले अमरसिंह ने वि० सं० १७१७ से प्रारम्भ कर १७५८ तक इस भव्य देवप्रासाद का शिखर-भाग दूर-दूर से दिखाई पर्ण किया था। प्रमर सागर का सरोवर वि० सं० १७५६ देता है । शिखर के पिछले भाग मे पीले पत्थर का बना
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१०२, वर्ष २०, कि०१
अनेकान्त
द्वार दर्शकों के लिए विशेष प्राकर्षण का केन्द्र बना हुआ आदीश्वर भगवान के मंदिर की प्रतिष्ठा महारावल रणहै। यह मंदिर तालाब की तलहटी मे आने के कारण जीत सिंह के समय मे सम्पन्न हई थी। इन मन्दिरो के जब अमरसागर पानी से भर जाता है तो मंदिर का निर्मातामो ने भी सुन्दर छोटे-छोटे बगीचे भी बनाये है । निचला भाग पानी में डूब जाता है। उस समय पाषाण जहाँ माज भी यात्री ठहर कर प्रानन्द लाभ लेते है। कला कृतियों और इस शिखरघारी मंदिर की परछाई और पानी से भरे अमरसागर की बनावट और उसमे श्री टाप की भांति देवस्थान की स्थिति अत्यंत ही सुन्दर आदीश्वर भगवान का मन्दिर प्रकृति-छटा की अनोखी लगती है। पानी की लहरो के साथ झूलती तस्वीर बताता ही है। दूसरी ओर जब रेगिस्तान में मन्दिर के शिखर की परछाई, बारीक शिल्पकला से प्रकाल की भीषणता रहती है तो सम्पूर्ण अमरसागर सूख निमित झरोखों और जालियों की बनावट अत्यन्त ही जाता है । उस समय इसकी गोद में पगबावे और बेरियां आनन्दित करती है।
ही एकमात्र इसका परिधान बन कर रह जाती है । अनेकों श्री प्रादीश्वर प्रभु के इस देरासर का शिल्पकला से पगबातों सजा जितना सुन्दर बाह्य पोर शिखर का भाग है, उतना की बनावट और उसकी साज-सज्जा का प्रानन्द लेने के ही सुन्दर अन्दर का हिस्सा पाषाण कलाकृतियों से लिए ग्रीष्म काल में प्राचीन जैसलमेर क्षेत्र का जनसमुदाय सजाया गया है। सभा मडप, रंग-मडप, मूल गम्भारा बराबर उपयोग करता रहता है। अमरसागर में बनी को पाषाण कलाकार ने अपनी छेनी और हथौड़ी से पगबावड़ियों को राजा महाराजाओं, सेठ साहकारों और सजाने का सफलीभूत प्रयत्न किया है। प्राचीन मत्र-पट्ट वेश्यामों ने बनाया हैं। यहां सखे सागर की पग बावड़ियों की सुन्दर पाषाण बनावट, प्राचीन ऐतिहासिक महत्ता, के प्रांतरिक स्थलों में निर्मित भवनों में संगीत की लय मत्रो की छिपी जानकारी प्रागन्तुकों को स्वतः ही अपनी जान
नाच के साथ गूगरों की झनझनाहट, साजों की सुरीली ओर प्राकर्पित किए रहती है । चिताकर्षक मूल प्रतिमा की प्रावाज तथा भत्तिगान के गीतों की धुन सुनाई देती है। बनावट और सजावट नयनाभिराम है। इस मन्दिर के
जब वर्षा के पानी से सागर लबालब भर जाता था, तब प्रांतरिक और बाहरी भाग को सजाने सवारने से अछूता
किनारों पर बनी हवेलियों, मदिरों, धर्मशालाओं, राजनहीं छोड़ा गया है। कलाकारो ने यहाँ पाषाणों पर कला
प्रासादों की जालियो और झरोखों में झांकती रमणियों कृतियों को गहरा और ऊंचा उभारने का अनोखा प्रयत्न
की सुन्दरता, भवनों की परछाइयों डबकी लगाते तैराकों किया है। मन्दिर के पास बनी पगवाव और दादा श्री
की कलावाजियों, चाँदनी रात मे नौका-विहार का दृश्य जिनकूशलसूरिजी के चरण-मन्दिर को बनावट भी देखने ।
मन-मयूर को आनन्दित किए बिना नही रहता। लायक बनो हुई है। मन्दिर के सामने सेठ श्री हिम्मतमल
अमर सागर का निर्मल जल, श्री आदीश्वर प्रभ की जी के बिश्राम-गृह की बनावट और उसमे की गई सफेद
भक्ति और सूखी पगबावड़ियों के वैभव की गौरव-गाथामों पालिश प्राचीन वैभव का परिचय देती है । इस विश्राम
पर बने गीत आज भी गुनगुनाए जाते है। इस वैभव के स्थली के पास सुन्दर बगीचा, अंगूर की बेलों के लिए
अतिरिक्त महारावल अमरसिंह का बनाया बगीचा और पीले पाषाण के तोरण आज भी प्राचीन एवं शान शौकत उसमें बनी विश्राम चौकियों के गुम्बज उनकी पाषाणकला की प्रदा बता रहे है।
प्रियता, प्रकृति-प्रेम तथा वैभव की गरिमा का परिचय इस मुख्य मन्दिर के अतिरिक्त अमरसागर क्षेत्र में दो देते हैं। इस बाग में अनार, अमरूद, नींबू, प्राम, इलाअन्य मन्दिर-श्री प्रादीश्वर प्रभ के मन्दिर विद्यमान है। यची, अगर आदि फल पैदा किये जाते थे जिसके पेड़एक सेठ श्री सवाईराम जी ने वि० सं० १८६७ में और पौधों के अवशेष इस समय भी दृष्टिगोचर होते हैं। दसरा पोसवाल पंचायत की तरफ से वि० सं० १९०३ में मोगरा, चमेली भादि फूलों की सुगध से यह बाग बनाया गया है। प्रोसवाल पंचायत की ओर से निर्मित हमेशा महकता रहा है। माज बाग की स्थिति बदल
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शिल्पकला एवं प्रकृति वैभव का प्रतीक : अमरसागर (जैसलमेर)
चुकी है। फल फूलों मे झूमने वाला दृश्य यद्यपि नहीं है, मूल सागर, मूल तालाब, किशनघाट, गजरूपसागर, ईस फिर भी साग-सब्जी की हरियाली अब भी विद्यमान है। तालाब, गुलाउ सागर, गड़सी-सर प्रादि सरोवरों की लोक
अमर बाग के पास ही महारावल श्री अमरसिंह ने प्रियता, वैभव, सुन्दर शिल्पकला, धार्मिक भावनामों, प्रकृति अपनी धर्मपत्नी अनपकंवर के नाम से अनुप बाव-मातुबाव के नयनाभिराम दश्यो के साथ महारावल श्री अमरसिह का निर्माण भी करवाया। यह पगबाव काफी बड़ी है। द्वारा निर्मित अमरसागर की पवित्रता माज भी लोकप्रिय जिसके पश्चिमी किनारे पर बनी पीले पाषाणों की छतरी बनी हुई हैं। अमरसागर प्रकृति-सौन्दर्य की स्थली है, प्रकृति-सौन्दर्य का प्रतीक है। इस पगबाव का निर्मल, धार्मिक पुण्यभमि है, वैभव का प्रतीक है, शिल्पकलाकृतियों शान्त और स्वच्छ जल अत्यन्त ही स्वादिष्ट है । जैसलमेर का अनोखा खजाना है और पुरातत्त्व को ऐतिहासिक और प्रासपास का जनसमदाय प्रकृति-वैभव का प्रानन्द खोज का केन्द्र भी बना हुआ है। जैन धर्मावलम्बियो का लेने के लिए बराबर यहां पाता रहता है और गोठ गूगरी यह तीर्थस्थान होने के कारण प्रति वर्ष हजारो यात्री तथा पिकनिक के साथ-साथ इस बाव में डुबकियां लगाकर दर्शक इसकी यात्रा का प्रानन्द उठाते है। जैसलमेर स्नान का आनन्द लेते है।
के ख्याति-प्राप्त जैन तीर्थ लोदवा की यात्रा के समय जैसलमेर के चारो ओर लगभग एक से चार मील इसकी यात्रा की जाती है। जैसलमेर जैन पंचतीर्थी का के दायरे में फैले रत्नसार, जेतसार, रामनाथ, गंगासागर, यह मख्य दर्शनीय अंग भी हैं।
जूनी चौकी का वास, बाड़मेर (राजस्थान)
[पृ० १०० का शेषाश] इसी प्रकार मणिबंध पर तीन रेखाओं से पाश्चात्य जिनसेनाचार्य ने प्रायु संबंधी जिस रेखा का ऊपर हस्तरेखा विशारद दीर्घायु होने का फल बताते है। उल्लेख किया है, वह अन्य भारतीय हस्तरेखा-ग्रन्थों में कुल
हाथ की रेखाएं-जिनसेनाचार्य के अनुसार जिसकी रेखा या गोत्र रेखा कहा गया है। किन्तु भारतीय पौर रेखा कनिष्ठा से लेकर प्रदेशिनी तक लबी चली जाती है. पाश्चात्य मत में बड़ा अंतर है। इसे भारतीय प्रायु-रेखा वह दीर्घाय होता है। जिसकी रेखाएं कटी-फटी या छोटी कहते है तो पाश्चात्य विद्वान हृदय-रेखा। पाश्चात्य मत के हों, वह अल्प प्राय का धारक होता है। यदि किसी व्यक्ति
अनुसार यह रेखा करतल के दाहिनी ओर से निकल कर
गुरु क्षेत्र के नीचे गोलाई लिए हुए मणिबध की ओर चली के हाथ में तलवार, गदा, भाला, चक्र आदि हों तो वह
जाती है (श्री प्रोझा) सेनापति होता है।
उक्त स्वयंवर के बाद जब मधुपिंगल को एक अन्य 'करलक्खण' में प्रायु-रेखा का फल इस प्रकार कहा
सामुद्रिक ने यह बताया कि उसके नेत्रो का पीलापन तो कहा गया है।
अन्य लक्षणो से मिलकर उसके राज्य और सौभाग्य को बीस तीस चत्ता पण्णास सट्रि सरि प्रसिध।
सूचित करते है । इस पर जिनसेनाचार्य ने यह मत व्यक्त णउयं कणदियाऊ पएसिणं जाव जाणिना॥
किया है कि जो लोग स्वयं शास्त्रों को देखते समझते नहीं, लगाकर प्रदेशिनी तक रेखा के अनुमागिल के समान दसरे लोगों द्वारा ठगे जाते हैं। सार बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी और नब्बे वर्ष की आयु जानना चाहिए।)
सहायक निदेशक, उक्त अथ में ही हाथ में सिंह, बैल, चक्र, असि, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, परशु. तोमर, शक्ति, धनुष और कुन्त के प्राकार वाली पश्चिमी ब्लाक, ७, रामाकृष्णापुरम्, रेखामों का फल सेनापति होना बतलाया गया है।
नई दिल्ली-२२
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उड़ीसा में जैन धर्म एवं कला
D श्री मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय उड़ीसा में जैन धर्म की प्राचीनता पार्श्वनाथ के काल परम्परा से स्पष्ट है कि पार्श्वनाथ के समय में ही जैनधर्म तक स्वीकार को जाती है। जैन परम्परा मे १८वें तीर्थ- कलिग (उड़ीसा) में प्रविष्ट हो चुका था, और तब से कर अरनाथ के सम्बन्ध मे उल्लेख है कि उनको रायपूर चेदि शासक खारवेल (लगभग प्रथम शती ई०पू०) के मे पहली भिक्षा मिली । रायपुर की पहचान महाभारत समय तक निरन्तर लोकप्रिय रहा । यह ज्ञातव्य है कि में वणित कलिंग की राजधानी रामपुर से की जाती है। उडीसा में जैन धर्म के पुरातात्विक प्रमाण लगभग द्वितीय भवदेव सरि कृत पार्श्वनाथ चरित्र (१४वीं शती) मे शती ई० पू० से ही प्राप्त पार्श्वनाथ और प्रभावती के विवाह की कथा और साथ
मौर्य साम्राज्य के अन्त और शुगो के प्रारम्भ के साथ
ही कलिंग एक प्रमुख राजनीतिक क्षेत्र हो जाता है। ही पाश्र्वनाथ द्वारा कलिंग-शासक यवन के पंजे से प्रभावती को मुक्त कराने के उल्लेख प्राप्त होते है। इनके
दूसरी पहली शती ई० पू० शुंग कालीन जैन गुफाएँ उड़ीसा अतिरिक्त भी जैन साहित्य मे विभिन्न सन्दर्भो मे कलिंग
की उदयगिरि-खण्डगिरि पहाड़ियों पर उत्कीर्ण हैं। उदय
गिरि पहाड़ी पर स्थित हाथी गुम्फा मे चेदि शासक खारराज्य का उल्लेख प्राप्त होता है । कुछ स्पष्ट उल्लेख महाभारत में भी प्राप्त होता है, जिसमे उल्लेख है कि कलिंग
वेल का लेख अभिलिखित है, जिसका काल लिपि के के प्रधार्मिक लोगो को त्यागना चाहिए, जो बिना वेदों
आधार पर दूसरी शती ई०पू० का उत्तरार्ध या पहली एवं यज्ञ के रहते हैं । स्वय देवता भी उनके हाथो की
शती ई० पू० निर्धारित किया जाता है । इस लेख में स्पष्ट पूजन सामग्री नही स्वीकार करते है। बोधायन सूत्र भी
उल्लेख है कि कलिंग की जिस जिन प्रतिमा को नन्दराज कलिंग को अशुद्ध देश बतलाता है।
'तिवससत' वर्ष पूर्व कलिंग से मगध ले पाये थे, उसे खारसाहित्यिक साक्ष्यों से महावीर के भी कलिंग से सब- वेल पुनः अपने देश वापस ले पाये । 'तिवससत' शब्द का न्धित होने की पुष्टि होती है। हरिभद्रीय वत्ति एव अर्थ विवादास्पद है। सम्प्रति लगभग समस्त विद्वान इसे हरिवंश पुराण से महावीर के कलिंग-प्रागमन की पुष्टि ३०० वर्ष का सूचक मानते है। यह लेख प्ररहतों एवं होती है । अावश्यक सूत्र में तीसलि एवं मौसलि में महा. सिद्धों को नमस्कार से प्रारम्भ होता है और साथ ही प्ररवीर के उपदेश देने का उल्लेख है। प्राचीनकाल में तोसलि हतों (अहंतों) के स्मारक अवशेषो का उल्लेख करता है। महत्वपूर्ण जैन केन्द्र रहा है। ववहारभाष्य (६-११५) में इस लेख के आधार पर जिन-मूर्ति की सम्भावित प्राचीशासक तीस लिक द्वारा सुरक्षित जिन मूर्ति का उल्लेख नता लगभग चौथी शती ई० पू० तक स्वीकार की जाती प्राप्त होता है । विद्वानों ने तौसलि को उडीसा में कटक है। यह अभिलेखिकी प्रमाण जहाँ एक मोर लोहानीपुर के समीप स्थित स्वीकार किया है। उत्तराध्ययन सूत्र में (पटना के समीप) से प्राप्त मौर्य युगीन मूर्ति के तीथंकर चंपा के एक व्यापारी का उल्लेख पाया है, जो महावीर मूर्ति होने को प्रमाणित करता है, वही चौथी-तीसरी शती का शिष्य था। इस व्यापारी के व्यापार के सिलसिले मे ई०पू० में जिन-मूर्ति निर्माण की परम्परा के प्रचलन का पिथुण्ड जाने का उल्लेख है। पिथण्ड निश्चित रूप से भी समर्थन करता है । यद्यपि खारवेल के लेख से स्पष्ट कलिग का प्रमुख नगर था, जिसका उल्लेख खारवेल के है कि उसने जैन धर्म को विशेष समर्थन दिया, तथापि हाथी गुम्फा लेख मे भी प्राप्त होता है । डा० के० पी० जन कला की दृष्टि से उसका योगदान नगण्य रहा है । जायसवाल खारवेल के लेख की १४वी पंक्ति के माधार पर स्वयं लेख में वणित जिन-मूर्ति भी सम्प्रति प्राप्त नहीं महावीर द्वारा स्वय कलिंग के कूमारी पहाड़ी पर उपदेश होती है। केवल लेख के प्रारम्भ एवं अन्त में जैन धर्म में दिए जाने की धारणा व्यक्त करते हैं । इस प्रकार जैन प्रचलित कुछ प्रतीकों को उत्कीर्ण किया गया है ।ज्ञातम्य
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उड़ीसा में जैन धर्म एवं कला
१०५
है कि त्रिशूल (त्रिरत्न का सूचक) वर्धमानक, स्वस्तिक, साथ ही इस क्षेत्र मे शंव और वैष्णव धर्मों के बढ़ते हुए नन्दिपद मोर वेदिका के अन्दर वृक्ष जैसे प्रतीक अन्य धर्मों प्रभाव के फलस्वरूप भी जैन धर्म का प्रभाव क्रमशः क्षोण में भी समान रूप से प्रचलित थे। खारवेल के अभिलेख हो रहा था। का विशेष योगदान केवल तीर्थकर मूर्ति की प्राचीनता से
ह्वेनसांग ने सातवीं शती में कलिंग में जैन धर्म के सम्बन्धित उल्लेख के सन्दर्भ में है।
विद्यमान होने का उल्लेख किया है । पुरिय या पुरी इनके अतिरिक्त इन्हीं पहाडियों पर स्थित अनन्तगुम्फा
का भी जैन ग्रन्थों मे जैन धर्म के केन्द्र के रूप में उल्लेख रानीगुम्फा एवं गणेश गुम्फा भी लगभग ई० पू० १५० से
प्राप्त होता है। पुरी जिले में स्थित यह क्षेत्र जीवित५०ई० पू० के मध्य उत्कीर्ण की गई। अनन्त गुम्फा के
स्वामी (जीवंत स्वामी) प्रतिमा के लिए ज्ञात था पौर प्रत्येक प्रवेश द्वार पर तीन फणो से युक्त दो सौ का
यहाँ अनेक श्रावक रहते थे। पावश्यक नियुक्ति एवं चूर्णि चित्रण सम्भवतः उसके पार्श्वनाथ से सम्बन्धित होने का
के अनुसार जब वरस्वामी पुरी पधारे थे, तब यहाँ का सूचक है, जिनका कलिंग से सम्बन्धित होना विभिन्न ग्रंथो
शासक बौद्ध धर्म का अनुयायी था और बौद्धों एवं जैनों के से प्रमाणित है। साथ ही रानी एवं गणेश गुफाओं मे
सम्बन्ध अच्छे नहीं थे । शलोद्भव शासक धर्मराज (लगउत्कीर्ण विस्तृत दृश्यावली को भी सामान्यत: पाश्र्वनाथ
भग छठी-सातवीं शती) के बाणपुर लेख में उल्लेख है कि के जीवन दृश्य से सम्बन्धित किया जाता है. पर डा.
उसकी रानी कल्याण देवी ने धार्मिक कृत्य के लिए जैन वासुदेव शरण अग्रवाल द्वारा सुझाया वासवदत्ता एवं शकु
साधु को भूमि दान दिया। न्तला के जीवन दृश्यों से पहचान ज्यादा मान्य है, क्योकि उपलब्ध ग्रन्थों में उस काल तक पार्श्वनाथ के जीवन-काल
उपनग्ध पुरातात्विक एवं प्रभिलेखिकी प्रमाणों से की घटनाओं की धारणा विकसित नही हो पाई थी।
यह सर्वथा निश्चित है कि उद्योतकेसरी (११वीं शती) साथ ही सम्पूर्ण दृश्यावली में कही भी पार्श्वनाथ या उनसे
के अतिरिक्त शासकों से स्पष्ट संरक्षण या समर्थन न प्राप्त सम्बद्ध सर्प-फणों का उत्कीर्णन नही किया गया है । इस
होने की स्थिति में भी जैन धर्म अपनी दृढ़ पृष्ठभूमि के प्रकार स्पष्ट है कि समुचित राजनैतिक एवं धार्मिक पृष्ठ
फलस्वरूप लगभग स्वीं-१०वीं शती से १२वीं शती भूमि के बावजूद उदयगिरि-खण्डगिरि की ई० पू० की
तक उडीसा में, विशेषकर उदयगिरि-खण्डगिरि गुफामो गुफापों का जैन प्रतिमा-विज्ञान की दृष्टि से विशेष महत्त्व
(पुरी जिला) में, निरंतर लोकप्रिय था। इसकी पुष्टि नहीं रहा है।
उदयगिरि-खण्डगिरि गुफानों के अतिरिक्त अन्य स्थलों से खारवेल के उपरान्त उड़ीसा में जैन धर्म का इतिहास प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियों से होती है । नवमुनि गुम्फा काफी समय तक अज्ञात है। बिहार, उत्तर प्रदेश एवं के उद्योतकेसरी के लेख में कुलचन्द्र के शिष्य के रूप मे मध्य प्रदेश के समान ही इस क्षेत्र में जैन धर्म की स्थिति खल्लसूमचन्द्र का उल्लेख प्राप्त होता है। इसी शासक के पर प्रकाश डालने वाले जैन ग्रन्थों का भी सर्वथा प्रभाव ललाटेन्दू या सिंघराजा गुफालेख में उल्लेख है कि उद्योतहै। साथ ही दूसरी प्रथम शती ई०पू० की उदयगिरि-खण्ड- केसरी ने अपने राज्य के वें वर्ष में प्रसिद्ध कुमार पर्वत गिरि बन गुफामो के बाद हवीं-१०वी शती के पूर्व की कोई पर नष्ट तालाबों एवं मन्दिरों का पुननिर्माण करवा कर भी जैन पुरातात्विक सामग्री इस क्षेत्र में नहीं प्राप्त होती २४ तीर्थंकरों की मूर्तियों प्रतिष्ठित करवाई। इस उल्लेख है, जिसका कारण इस क्षेत्र में क्रमशः बौद्ध धर्म का बढ़ता से उद्योत केसरी का जैन धर्म को समर्थन स्पष्ट है। यह हुआ प्रभाव था। दाथावंश से ज्ञात होता है कि कलिंग उल्लेखनीय है कि उदयगिरि-खण्डगिरि की नवनि एवं के शासक गुहाशिव (लगभग चौथी शती) ने जैन धर्म को बारभुजी गुंफाओं में प्राप्त स्वतन्त्र यक्षियो, २४ यक्षियों छोड़ कर बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था, और साथ ही एवं महत्वपूर्ण सामूहिक चित्रण भी इसी काल (११वी. सभी निर्ग्रन्थ जनों को कलिंग से बाहर निकाल दिया था, १२वीं शती) की कृतियां हैं । उदार सोम-स्वामी शासकों जन्होंने पाटलिपुत्र के पाण्ड राजा के यहां शरण ली। के काल में भी मुक्तेश्वर मन्दिर की चहारदीवारी की
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१०६, बर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
बाहरी रथिकामों में तीर्थकर मूर्तियां उत्कीर्ण की गयीं। मन्दिर (मन्दिर नं० १२, ८६२) के मण्डोवर पर उत्कीर्ण उड़ीसा के जैन धर्म के महान संरक्षक राष्ट्रकूट शासकों के है। खण्डगिरि की ही विशल या हनुमान गुफा में भी २४ प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत पाने के फलस्वरूप भी सम्भवतः तीर्थंकरों की लांछनयुक्त मूर्तियाँ अंकित है। ललाटेन्दुजैन-मूर्ति-निर्माण को प्रोत्साहन मिला था। राष्ट्रकूट- केसरी एवं हनुमान गुफामों में भी लगभग ८वी हवींशासक गोविन्द ततीय कौशल, कलिंग, वंग और प्रौद्रक की शती को जैन मतियां उत्कीर्ण है। इस प्रकार शिल्पगत विजय का उल्लेख करता है।
साक्ष्य मे यह सर्वथा स्पष्ट है कि लगभग ८वी-6वींअन्य साक्ष्यों के प्रभाव भी उडीसा के विभिन्न क्षेत्रो शती से १२वीं शती तक निरन्तर जैन धर्म उदयगिरिसे प्राप्त होने वाली जैन मूर्तियां उन स्थलों पर किसी न खण्डगिरि मे प्रभावशाली रहा था। किसी रूप में जन धर्म के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं । उदयगिरि-खण्डगिरि की गुफापो के अतिरिक्त जयपुर
२४ तीर्थकरो एवं यक्षियो के सामूहिक चित्रण इस
बात के सूचक हैं कि जैन प्रतिमा-विधान के सन्दर्भ में हो मन्दनपुर और कोरपुत जिले के भैरवसिंह पुर जैसे स्थलो से भी जैन मूर्तियां प्राप्त होती है। साथ ही कियौंज्झर,
रहे विकास से इस क्षेत्र के कलाकार अवगत थे। फिर भी मयूरभंज, वलसोर (चरंपा), और कटक (जजपुर) जिलों
किसी निश्चित प्रतिमा लाक्षणिक ग्रन्थ के प्रभाव में कुछ के विभिन्न स्थलों से भी जैन मतियों के उदाहरण प्राप्त
यक्षियों के निरूपण में ब्राह्मण एव बौद्ध धर्मों की देवियों होते है । कटक जिले के जजपूर स्थित अखण्डलेश्वर मंदिर
के लाक्षणिक स्वरूपों के स्पष्ट अनुकरण किए गए हैं। एवं मंत्रक मन्दिर के समूहों में भी जैन मूर्तियाँ सुरक्षित
ये अनुकरण इन धर्मों के प्रपेक्षाकृत विकसित एवं प्रभावहैं। ये जैन मूर्तियां प्रमाणित करती हैं कि शाक्त क्षेत्र
शाली रहे होने के भी सूचक हैं । शांतिनाथ, अग्नाथ एवं होने के बाद भी जैन धर्म यहाँ लोकप्रिय था।
नमिनाथ की यक्षियों के निरूपण मे क्रमश: गजलक्ष्मी,
तारा (बौद्ध देवी) एवं ब्रह्माणी के प्रभाव स्पष्ट है। उडीसा में दिगम्बर सम्प्रदाय ही लोकप्रिय था, इसकी पुष्टि तीर्थंकरों की निर्वस्त्र प्रतिमाओं से होती है। उड़ीसा सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि लगभग ८वी शती के विभिन्न स्थलों से प्राप्त जिन-मृतियों में लोकप्रियता ई० पू० में पार्श्वनाथ के समय में जैन धर्म के उड़ीसा में की दृष्टि से क्रमशः पार्श्वनाथ, आदिनाथ एवं महावीर प्रवेश के पश्चात् से लगभग प्रथम शती ई० पू० तक यह प्रमुख है। मूर्तियों में पार्श्वनाथ का सर्वाधिक लोकप्रिय निरन्तर इस क्षेत्र में लोकप्रिय रहा । साथ ही प्रथम शती होना, उनके इस क्षेत्र से सम्बन्ध रहे होने का सूचक हो ई० पू० के बाद भी जैन धर्म के इस क्षेत्र में किसी न सकता है। स्वतन्त्र तीर्थकर मूर्तियों के अतिरिक्त द्वितीर्थी किसी रूप में अस्तित्व की पुष्टि दाथावंश एवं ह्वेनसांग जिन मूर्ति (ब्रिटिश संग्रहालय), अम्बिका, सरस्वती एवं के उल्लेखों से होती है । पर जैन मूर्ति-विधान की दृष्टि यक्षियाँ अन्य लोकप्रिय विषय-वस्तु रही हैं। जन प्रतिमा- से ८वी शती के उपरान्त ही इस क्षेत्र का महत्व स्थाविज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण खंड- पित हो सका था, जहाँ छोटे केन्द्रों के अतिरिक्त उदयगिरि पहाड़ी पर स्थित नवमुनि (लगभग ११वी शती) गिरि खण्डगिरि पहाडियों की गुफानों में बहुलता से जैन एवं बारभुजी (लगभग ११वीं-१२वीं शती) गुंफानों की मूर्तियों का निर्माण किया गया। मूर्तियाँ हैं । नवमुनि गुफा मे १० तीर्थंकरों के साथ उनसे सम्बद्ध यक्षियों को उत्कीर्ण किया गया है। और बारभुजी गुफा में २४ तीर्थंकरों के साथ उनसे सम्बद्ध यक्षियों को
जनियर रिसर्च फैलो, मूर्तिगत किया गया है। ज्ञातव्य है कि २४ यक्षियों के
पार्श्वनाथ विद्याश्रम) सामूहिक चित्रण का यह एकमात्र दूसरा ज्ञात उदाहरण
डी- ५१११६४-बी, सूरजकुण्ड, है । पहला प्रारम्भिक उदाहरण देवगढ़ के शान्तिनाथ
वाराणसी-२२१००१ (उ० प्र०)
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भगवान महावीर का जीवन-दर्शन : आधुनिक सन्दर्भ में
प्रो० श्री रंजन सूरिदेव, पटना मानवता के विकास की दृष्टि से भारतीय संस्कृति सन्दर्भ मे, राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति निष्ठा तथा व्यापक मख्यतः दो घारामो मे विभक्त होकर कार्यशील रहती मानवीय मूल्यो के आधार पर अभिनव समाज की संरचना पाई है। एक है वैदिक परम्परा, जिसे 'ब्राह्मण-संस्कृति' से उक्तविध देश व अवधारणाओं का पुनमत्यांकन केवल के नाम से अभिहित किया जाता है और दूसरी है अवैदिक बौद्धिक चर्चा के लिए ही नहीं, अपितु जन-जागरण के परम्परा, जो 'श्रमण-संस्कृति' की संज्ञा धारण करती है। लिए भी नितान्त आवश्यक है। इसी परिप्रेक्ष्य मे, माज ये दोनों संस्कृतियां परस्पर एक-दूसरे पर हावी होने की भगवान् महावीर के २५०० वे निर्वाण-महोत्सव के अबहोड़ के साथ सतत प्रवहमाण है। कहना न होगा कि ये सर पर, उनके जीवन-दर्शन का मूल्याकन अपेक्षित है। दोनो ही सस्कृतियाँ प्राचीन और ऐश्वर्यवान् है। किन्तु.
भगवान महावीर का जीवन-दर्शन मुख्यतया अहिंसा, भारतीय संस्कृति की अब तक जो व्याख्या की गई है,
अपरिग्रह और अनेकान्त की त्रयी पर प्राधत है। दृष्टिउसमें सिर्फ ब्राह्मण-संस्कृति की विशेषता पर ही अधिक
निपुणता तथा सभी प्राणियो के प्रति सयम ही अहिंसा है। प्रकाश डाला गया है, जिसकी व्यापकता निर्विवाद है।
दृष्टि निपुणता का प्रर्थ है सतत जागरूकता तथा संयम का किन्तु, ब्राह्मणेतर सस्कृतियो के परिवेश से हटकर की
प्रर्थ है मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं का नियमन । जाने वाली, भारतीय संस्कृति की व्याख्या एकागी है।
जीवन के स्तर पर जागरूकता का अर्थ तभी साकार होता समाज-विज्ञान के चिन्तकों का विचार है कि ब्राह्मण होता है, जब उसकी परिणति संयम मे हो । संयम का संस्कृति पर देववाद, सुख-दुःख के चक्रवत् परिवर्तन के लक्ष्य तभी सिद्ध हो सकता है, जब उसका जागरूकता से प्रति नितान्त भाग्यवादी सम्मान, एकमात्र ईश्वर के सतत दिशा-निर्देश होता रहे। लक्ष्यहीन और दिग्म्रष्ट कतत्व में विश्वास और वर्णवाद जैसी, मानव को अपने संयम अर्थहीन कायक्लेश-मात्र बनकर रह जाता है। पुरुषार्थ से विरत करने वाली अवधारणाओं या जड़ीभत समाजगत शुचि और अशुचि की अवधारणा के मूल में संस्कारों का व्यापक प्रभाव है। फलस्वरूप, हमारा देश यही संयम या नियम भ्रान्त अर्य मे समाविष्ट है। किन्तु, वैचारिक परिवर्तन और सामाजिक प्रगति के लिए प्रांत- यहां स्मरणीय है कि ब्राह्मण-सस्कृति के संयम-नियम या रिक रूप से अक्षम है। इस प्रकार के द्वन्द्विल विचारो के 'नेम-घरम' से श्रमण-सस्कृति का संयम भिन्न अर्थ रखता समर्थन और विरोध में प्रायः ब्राह्मण-ग्रन्थों या वैदिक है। ब्राह्मण-संस्कृति का संयम आजकल प्राय: विलास-वैभव शास्त्रो को ही प्राधार मानकर पक्ष और विपक्ष के विद्वान् या व्यक्तिगत प्राभिजात्य के अभिमान की भावना से चिन्तन करते रहे हैं । यद्यपि जैन और बौद्ध जैसी श्रमण- उत्पन्न शुचि और प्रशुचि की अवधारणा में बदल गया संस्कृतियों के शास्त्रों में जड़ संस्कारों के परिवर्तन और है। इससे समाज मे अमीर-गरीब, ऊँच-नीच और स्पृश्याक्रान्तिकारी प्रगति की ओर प्रेरित या दिनिर्देश करने स्पृश्य. यानी छूत-प्रछूत, जैसे वर्गभेद को परिपोषण मिल वाली प्रचर प्रवधारणाएं निहित है। परन्तु, दुर्भाग्यवश रहा है। किन्तु, भगवान् महावीर की श्रमण सस्कृति के अधिकांश समाजचिन्तक श्रमण-संस्कृति की उक्त अवधार- सन्दर्भ में ज्ञानदृष्टि के प्राधार पर जीवन-चर्या का सयणामों से अपरिचित रहे हैं। प्रथ च, दार्शनिक विद्वान् मन ही तात्विक संयम है। जीवन-चर्या के संयमन के इन्हें केवल शुष्क नर्क का विषय बनाए हुए हैं। प्राधुनिक बिना मानव-जाति में एकता की प्रतिष्ठा तथा विलास
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१०८, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
वैभव का नियन्त्रण सम्भव नही है। एकता और समता भोग या विलास-वैभव के स्थान पर संयम या ब्रह्मचर्य संयम और नियन्त्रण के प्रभाव की स्थिति में हिंसा की रखने का क्रान्तिकारी सन्देश दिया। प्रवति को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे जनता का दुःख भगवान महावीर के अपरिग्रह तथा महिंसा के सिद्धांत बढता है । इसलिए दूसरे के दु.ख को दूर करने की धर्म- अार्थिक विकास तथा वर्तमान समाज की आकांक्षाओं वत्ति को ही अहिंसा कहा गया है । 'परस्स अदुक्खकरण को ऊपर उठाने में अधिकाधिक साधक सिद्ध हो सकते धम्मो ति। ( वसुदेव हिण्डी )
है। किसी के जीवनाधिकार का प्रतिक्रमण न करना . भगवान महावीर ने सम्पूर्ण मानव-जाति को एकता अहिंसा है। जीवन का अधिकार जीवन के प्रमुख तीन का सन्देश दिया। उन्होने कहा-- जन्म से कोई किसी साधनो-भोजन, वस्त्र और आवास की समस्याओं से जाति का मही होता, कर्म से उसकी जाति का निर्धारण संपृक्त है। इन साधनों के बिना जीवन की सत्ता टिक ही होता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये सब जन्मना नही सकती। तात्कालिक आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं, कर्मणा होते है । अर्थात्, कर्म की शुचिता और अशु. करना सर्वथा अनुचित है। क्योकि इससे दूसरे लोग वंचित चिता के आधार पर ही किसी मनुष्य की उच्चता या होते है । आवश्यकता की पत्ति मे भी स्वामित्व का भाव नीचता निर्भर करती है। उसमे जन्म से हीन या उच्च वजित है। परिग्रह स्वामित्व का रूपान्तरण तो है ही, जैसा भाव कुछ नही है। प्रत्येक प्राणी, चाहे वह एक प्रतिगत और सार्वजनिक जीवन के साधनों पर व्यक्तिगत छोटा-सा कीड़ा हो या प्रादमी, अात्मसत्ता के स्तर पर
सत्ता का प्रारोपण भी है। शोषण और संग्रह इसी परिसमान है। उसमें अन्तनिहित सम्भावनाए समान है ।
ग्रह के क्रियात्मक रूप है । और, इसी के निमित्त जाति या वर्ण से कोई श्रेष्ठ या प्रश्रेष्ठ, स्पृश्य या अस्पृश्य कालाबाजारी, करों की चोरी, राज्यविरुद्ध तस्कर-व्यापार नही होता। विकासक्रम से गुजर कर एक कीट भी कभी मिलावट, अप्रामाणिक माप-तौल प्रादि जघन्य कृत्य किये सिद्धात्मा होकर लोकाग्र पर अवस्थित हो सका है। इस जाते है। इसीलिए, भगवान् महावीर ने त्याग और संयम, प्रकार, भगवान् महावीर ने जाति को महत्व न देकर अपरिग्रह पीर प्रचौर्य-पूर्वक भोजन, वस्त्र और प्रावास के मानवता को ही सर्वोपरि स्थान दिया है।
अधिग्रहण का आदेश दिया है । प्राधुनिक परिग्रहवाद पर मानवता की प्रतिष्ठा के लिए ही भगवान महावीर इशापानषद् के
ईशोपनिषद् के रचयिता ने भी कशाघात किया है : 'तेन ने ईश्वरवाद की अवहेलना करके पुरुषार्थ को महत्त्व त्यक्तेन भुंजीथा, मा गृधः कस्यस्विद् धनम् ।' निष्कर्ष यह दिया । सामान्यतया ईश्वरवाद और भाग्यवाद के व्यापक कि अपने लिए कम से कम उपभोग करना और दूसरों के सिद्धान्त से पुरुषार्थ की अवधारणा शिथिल पड जाती है। लिए अधिक-से-अधिक छोड़ना तथा स्वामित्व का सर्वथा इसीलिए, भगवान महावीर के मनीश्वरवाद मे मानव- परित्याग ही अपरिग्रह है। सत्ता की महत्ता को ही स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया भगवान् महावीर ने अपरिग्रह के व्रत पर इसलिए गया है। उनके मतानुसार, ईश्वर नामक कोई सृष्टिकर्ता बल दिया है कि वे जानते थे-आर्थिक असमानता और पौर सृष्टिनियामक सत्ता नही है । प्रात्मा या जीव की प्रावश्यक वस्तुमो का अनुचित सग्रह सामाजिक जीवन शुद्ध, बुद्ध और मुक्त अवस्था ही ईश्वर है। जीव का को विघटित कर देने वाला है। धन का सीमाकन स्वस्थ सिद्धत्व ही अपने आप मे ईश्वरत्व की अवस्थिति है। समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य है। धन सामाजिक प्रत्येक पुरुषार्थी मनुष्य मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। व्यवस्था का आधार होता है और उसके कुछ हाथों मे इसीलिए. भगवान महावीर ने भाग्यवाद के स्थान पर सीमित होने से समाज का सम्पूर्ण विकास नही हो पाता पुरुषार्थ, कर्मकाण्ड के स्थान पर सापना, वैषभ्य के स्थान है। जीवनोपयोगी वस्तुप्रो का संग्रह समाज में कृत्रिम पर समता, हिंसा के स्थान पर अहिंसा, युद्ध के स्थान पर प्रभाव की कष्टकर स्थिति पैदा करता है । महावीर ने नि:शस्त्रीकरण, परिग्रह के स्थान पर त्याग और विषय- ऐसे समाज-चातक परिग्रहवाद के विरोध में मावाज
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भगवान महावीर का जीवन-र्शन : प्राथनिक सन्दर्भ में
उमई और अपरिग्रह के सामाजिक मूल्य की स्थापना कि सापेक्ष स्तर पर सत्य को उसके सन्दर्भो में देखा जाय की। 'परोस्परोपग्रहो जीवानाम' अर्थात जीवो के प्रति और उसे उन सन्दर्भो में अंतर्निहित रूपों के द्वारा सम्मापरस्पर उपकार की भावना ही उनकी साधना का लक्ष्य वित किया जाय । सत्य के सन्दर्भ में 'स्व' और 'पर' की था।
भावना व्यर्थ है । सत्य चंकि नियक्तिक सत्ता है, इसलिए जीवन का मजिक्रमस अर्थ के स्तर पर ही नही,
उसका साक्षात्कार निर्वैयक्तिक स्तर पर ही सम्भव है। सबनम मौर विचार के स्तर पर भी होता है । अपने यही कारण है कि महावीर की भाषा स्याद्वादी है। यह विचारो को दूसरों पर बाद कर उन्हें तदनुकल चलने के 'स्यात्' शब्द जागतिक स्तर पर सापेक्षता की सूचना देता लिए बाध्य करना भयावह हिंसा है। है तो यह भाव- है। इस सापेक्षता को समझने की अनाग्रह-वत्ति को ही हिंसा, किन्तु इसका दुष्प्रभाव द्रव्य-हिंसा से भी अधिक 'भनेकान्त' कहते है। तीव्र होता है । भावहिसा ही अन्ततोगत्वा द्रव्याहिसा उपरिविवेचित अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त की में बदल जाती है। विशेषतया धर्म के नाम पर इस प्रकार त्रयी में अहिंसा सुमेरु की तरह प्रतिष्ठित है । कहना यह की हिंसा बहुत होती रहती है । मध्यकालीन यूरोप के कि महावीर का सम्पूर्ण जीवन-चक्र अहिंसा की धुरी पर धर्मयुद्ध इसके साक्षी हैं । मनुष्य ने धर्म के नाम पर मनुष्य ही धमता है। अहिंसा की साधना के लिए हिंसा का परिको जिन्दा जलाया, उसका रक्त बहाया और उसकी इज्जत- ज्ञान परमावश्यक है। क्योंकि हिंसा के अनेक प्रायाम है, घाबरू के साथ खिलवाड़ किया । आज भी देश में साम्प्र- जिनके समानान्तर ही अहिंसा के पायाम स्थित है । शरीर बायिक उन्माद यदा-कदा फूट पड़ता है। धर्म के नाम पर के स्तर पर हिंसा प्राणातिपात है, जीवन-साधनों के स्तर ही यह देश सण्डित हुमा और घोर लज्जाजनक संहार- पर होने वाली हिंसा परिग्रह है और विचारों के स्तर पर लीलाएं हुई। कहना न होगा कि साम्प्रदायिक संकीर्णता को जाने वाली हिंसा एकान्तवादी प्राग्रह है। इसलिए, बैचारिक सहिष्णता को उमारती है । इस संदर्भ में भग- अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के बीच कोई विभाजक वान महावीर का अनेकान्तवाद, प्राधुनिक समाजवादी- रेखा नही खीची जा सकती । तीनो अहिंसा की ही धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा से अतिशय निकट होने के मूलभूत प्राण सत्ता की अभिव्यक्तियां है। अहिंसा की साथ ही वैयक्तिक तथा सामाजिक विचारों को स्वस्थ समग्र साधना के रूप में ही अपरिग्रह पोर अनेकान्त समाबनाने में ततोऽधिक प्रभावकारी है।
हित हैं। इन्हे ही हम 'रत्नत्रय' भी कह सकते है : अनेमहावीर का कथन है-सत्य अनन्तमल है। अपने को कान्त सम्यग्ज्ञान है, अपरिग्रह सम्यग्दर्शन है और अहिंसा ऐकान्तिक रूप से सही मानना और दूसरे को गलत सम- सम्यक्चारित्र है। अहिंसा ही जीवन की सही दष्टि भना सत्य का अपलाप करना है। किसी को सर्वथा गलत वही जी पायेगा, जो जीने देगा। किसी की भी जीवन मानना वैचारिक स्तर पर हिंसा है, उसकी जीवन-सत्ता सत्ता का अतिक्रमण हमारी अपनी ही जीवन सत्ता की कों अस्वीकार करना है। इससे स्वयं सत्य की हत्या होती अतिक्रमण है। है। एक दसरे का सत्य परस्पर सण्डित होने पर दोमो कुल मिला कर, भगवान महावीर के जैन धर्मजन सम्म स्तर पर समान प्रतिष्ठा के योग्य है। किसी का का सीधा उद्देश्य सामाजिक आन्दोलन से मaz पत्र उसे पिता कहता है, तो बहन उसे भाई कह कर पुका- के तीन मुख्य भग होते है : दर्शन, कर्मकाण्ड और समाज.
तो इसलिए वह न केवल पिता है, न भाई ही है, नीति । आधुनिक सन्दर्भ मे किसी भी धर्म की उपयोगिता प्रतिमापेक्ष स्तर पर वह पिता और भाई दोनो ही है। का मूल्यांकन उसकी समाजनीति से किया जाता है। महाप्रत एव. किसी बात पर एकान्त भामह हिसा है, जोबम बोर के प्रवचनों से स्पष्ट है कि जैनधर्म की उत्पत्ति तत्का
THI किन्त. अनेकान्तिक मामह महिला है, लीन भाडम्बर पूर्ण, समाज-व्यवस्था के विरोध में एक जीवन का सम्मान है। अनेकान्त दर्शन का सार यही है सशक्त क्रान्ति के रूप में हुई थी। महावीर ने वर्ग-वषय
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अनेकान्त
मिटा कर समता की स्थापना, दार्शनिक मतवादों में को भी विस्तृत पृष्ठभूमि प्रदान की। अहिंसा, अपरिग्रह समन्वय, धामिक प्राडम्बरों का बहिष्कार, पशुबलि का और अनेकान्त निश्चय ही महावीर के सामाजिक तथ्याहरा अनावश्यक धन-संचय की वर्जना, नारी-समाज का न्वेषण के परिणाम है। कोई भी मात्म-साधक महापुरुष
नादि कार्य-प्रक्रियाओं द्वारा सामाजिक आन्दोलन लौकिक या सामाजिक व्यवस्था के माधार भूत तत्वों की की गति को तीव्रता और क्षिप्रता प्रदान की थी। पूर्वोक्त उपेक्षा नहीं कर सकता । महावीर ने पद-दलित लोगों को
मा. अपरिग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्त निश्चय ही सामाजिक सम्मान देकर उनमें प्रात्माभिमान की भावना जनिक समाज की समस्याओं के समाधान के लिए प्रति- को उबुद्ध किया। उन्होंने हरिकेशी जैसे चाण्डाल को शय उपयोगी है।
गले लगाया, तो स्त्रियों को पुरुषों के समकक्ष प्रतिष्ठा की निर्धनता, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जैसी विषम अधिकारिणी घोषित किया। और व्यापक समस्याओं के अतिरिक्त व्यक्तिगत माचारविचार की समस्याओं के भी व्यावहारिक समाधान जैन- महावीर ने अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए धर्म-दर्शन में प्रत्यक्षरूपेण उपलब्ध हैं । महावीर की दृष्टि तत्कालीन जनभाषा प्राकृत का माध्यम स्वीकार किया। में मतभेद संघर्ष का कारण नही, अपितु उन्मुक्त मस्तिष्क यह उनकी जनतान्त्रिक दृष्टि के विकास का परिचायक की प्रावाज है। इसी तथ्य को प्रकट करने के लिए उन्होंने पक्ष है । भाषा का जीवन के साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध है, कहा कि वस्तु एकपक्षीय नहीं, अपितु अनेकपक्षीय है। इस तथ्य को वे जानते थे; इसलिए अपने समाजोद्धारक प्रत्येक व्यक्ति सत्य के नये पक्ष की खोज कर समाज की विचारों के प्रचार के लिए जनता की भाषा का प्रयोग समस्याओं का समाधान कर सकता है। निस्सन्देह, 'भनेका- करते थे। उन्होंने महर्निश जनभाषा में जन-जीवन के न्त' समाज का गत्यात्मक सिद्धान्त है, जो जीवन मे वैचारिक उन्नायक मूल्यवान तत्त्वों का ही वैज्ञानिक विवेचन किया प्रगति का माहान करता है। अपने को पहचाने बिना है, जो समसामयिक भारतीय समाज को सही दिशा दे समाज की नाड़ी को पकड़ पाना अशक्य है। प्रत एम. सकते है। महावीर का सम्पूर्ण जीवन प्रात्म-साधन के पश्चात् सामा- सम्पादक, जिक मूल्यो का प्रतिष्ठापना में ही व्यतीत हुआ । उन्होने परिषद, पत्रिका, व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए एक ओर आत्मविकास का
बिहार राष्ट्रभाषा-परिषद, पथ प्रशस्त किया तो दूसरी ओर लोक-कल्याण की भावना
पटना-४,
सत्य की खोज समिक्ख पंडिए तम्हा पास जाइपहे बह।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्ति भूस्स कप्पए ॥ अर्थ-विद्वान पुरुष संसार-परिभ्रमण के कारणों को भली-भांति समझकर अपने पाप सत्य को खोज करे मोर सब जीवों पर मंत्री-भाव रखे।
विगिय च कम्मणो हेडं, जसं संचिणु खंतिए।
सरीरं पाढवं हिच्चा, उड्ढं पक्कमई विसं॥
कर्मबन्ध के कारणों को ढूंढो, उनका छेदन करो और फिर क्षमा प्रादि के द्वारा प्रक्षय यश का संचय करो। साधक पार्थिव शरीर को छोड़कर, उध्वं गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
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श्रमण-परम्परा को प्राचीनता
पं० कलाशचन्द्र शास्त्री, वाराणसी
माज सर्वत्र भगवान महावीर के निर्वाण के पच्चीसवीं समय तक यह नदी पार्यों के संसार की सीमा मानी जाती शती महोत्सव के रूप में मनाई जा रही है। भगवान थी। इसके भागे यथेच्छ उनका माना-जाना नहीं था। महावीर का जन्म विहार प्रदेश में हुआ था। इसी प्रदेश
बृहदारण्यक उपनिशद शतपथ ब्राह्मण का अन्तिम में कठोर तपस्या के द्वारा उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया भाग माना जाता है। इसी से विद्वान् उसका रचना-काल था। इसी प्रदेश के विपुलाचल पर उनकी प्रथम धर्मदेशना पाठवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व मानते हैं। यही समय भगवान हुई थी और जिस लोक-भाषा में हुई थी, उसका नाम भी
महावीर के पूर्वज तीर्थकर पाश्वनाथ का है जो काशी इसी प्रदेश के नाम पर अर्धमागधी है। इसी प्रदेश से नगरी में जन्मे थे। उनके जीवन की घटना है कि एक उन्होंने निर्वाण-लाम किया। इस तरह यह प्रदेश भगवान
या । इस तरह यह प्रदश भगवान दिन वह गंगा के तट पर गये। वहां कुछ तापस पंचाग्नि महावीर के जीवन के साथ इतना सुसम्बद्ध है कि न तो तप करते थे। बृहदारण्यक उपनिषद् (४-३-१२) में हा इस प्रदेश के विना भगवान महावीर को रखा जा सकता हम तापसी और श्रमणों का निर्देश मात्र पाते हैं। याशहै और न महावीर के विना इस प्रदेश की ही गरिमा का
वाल्क्य जनक से प्रात्मा का स्वरूप बतलाते हुए कहते है बखान किया जा सकता है।
कि "इस सुषुप्त अवस्था में श्रमण प्रश्रमण और तापस तीर्थङ्कर तो अनेकों हुए किन्तु जिनके पांचों कल्याणक प्रतापस हो जाता है।" अपने जन्म-प्रदेश में ही हुए, ऐसे एकाकी तीर्थकर महा
यश-प्रधान ब्राह्मण-संस्कृति वीर हैं। सर्वस्व त्याग देने पर भी मानो वह अपनी इस
शतपथ ब्राह्मण में तप से विश्व की उत्पत्ति बतजन्म भूमि का मोह नहीं त्याग सके थे। मातृ भूमि और .
लाई है। प्रतिदिन अग्निहोत्र करना एक प्रधान कर्म था। मातृभाषा सचमुच में माता से भी बढ़कर है।
इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार बतलाई है-"प्रारम्भ पूर्वी भारत में वैदिक सभ्यता का प्रवेश-मनीषियो
में प्रजापति एकाकी था। उसकी अनेक होने की इच्छा का विचार है कि अंग, मगध, काशी, कोसल और विदेह हुई। उसने तपस्या की। उसके मुख से अग्नि उत्पन्न में वैदिक सभ्यता का प्रवेश बहुत काल पश्चात् हुआ था। हई। चंकि सब देवताओं में अग्नि प्रथम उत्पन्न हुई; शत० ब्रा० (१-४-१) में लिखा है कि 'सरस्वती नदी से इसी से उसे पग्नि कहते हैं। उसका यथार्थ नाम अग्नि अग्नि ने पूर्व की भोर प्रयाण किया। उसके पीछे विदेष, ।
पछि विदधा है। मुख से उत्पन्न होने के कारण अग्नि का भक्षक होना माधव और गौतम राहगण थे। सबको जलाती और मार्ग
स्वाभाविक था। किन्तु उस समय पृथ्वी पर कुछ भी नहीं की नदियों को सुखाती हुई वह अग्नि सदानीरा के तट पर था। अतः प्रजापति को चिन्ता हुई, तब उसने अपनी पहुंची। उसे वह नहीं जला सकी। तब माधव ने अग्नि
वाणी को माहति देकर अपनी रक्षा की। जब वह मरा से पूछा-'मैं कहां रहूं?" उसने उत्तर दिया-- "तेरा
"तरा तो उसे अग्नि पर रखा गया; किन्तु अग्नि ने उमके शरीर
हो निवास इस नदी के पूरब में हो। अब तक भी यह नदी पर
नदा को ही जलाया।" प्रतः प्रत्येक व्यक्ति को अग्निहोत्र का कोसलों पौर विदेहों की सीमा है।"
चाहिए। यदि नया जीवन प्राप्त करना चाहते इसे वैदिक आयों के सरस्वती नदी के तट से सदा- अग्निहोत्र करो। नीरा के तट तक बढ़ने के रूप में लिया जाता है। बहुत ऋग्वेद का पहला मंत्र है 'पग्निम या पार योगी
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११२, वर्ष २८, कि०१
प्रनेकान्त
यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतार रत्नधातमम् । अग्नि देवों के अर्थात् शिवकाल मे विद्याभ्यास करते है, यौवन में पुरोहित है। पुरोहित का अर्थ है, आगे रखा हुमा। विषयभोग करते है, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति अर्थात् वानअग्नि में आहुति देकर ही देवों को तुष्ट किया जा सकता प्रस्थाश्रम में रहते हैं और अन्त में योग के द्वारा शरीर
त्याग करते हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के काल में यज्ञो का प्राधान्य रहा । गौतम धर्मसूत्र में (410) मे एक प्राचीन भार्य का उनके पश्चात् प्रारण्यकों का समय प्राता है। देवताविशेष मत है कि वेदों को तो एक गहस्थाश्रम ही मान्य है। के उद्देश्य से उनका त्याग ही यज्ञ है । यह मारण्यकों अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मचर्याश्रम का, विशेषतः को मान्य नहीं है । ब्राह्मणग्रन्थों का सर्वोच्च लक्ष्य स्वर्ग
क्ष्य स्वग उपनयन का, विधान है किन्तु चार पाश्रमों का उल्लेख था और उसकी प्रगति का मार्ग या यज्ञ । किन्तु मारण्यकों छा. उप. में है। वाल्मीकि रामायण में किसी संन्यासी के में यह बात नही है । तैत्तिरीय भारण्यक में ही प्रथम दर्शन नही होते, सर्वत्र वानप्रस्थ मिलते है, बार श्रमण शब्द तपस्वी के अर्थ में पाया है।
लोकमान्य तिलक ने अपने गीता रहस्य में लिखा है-- ऋग्वेद के संकलयिता ऋषि अरण्यवासी ऋषियों से
वेदसंहिता और ब्राह्मणों में संन्यास को प्रावश्यक नही भिन्न थे। वे अरण्य में नहीं रहते थे। वैदिक साहित्य में
कहा। उल्टे जैमिनि ने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया 'अरण्य' शब्द के जो अर्थ पाये जाते है, उनसे इस पर प्रकाश पड़ता है। ऋग्वेद में गांव के बाहर की बिना जुती
है कि गृहस्थाश्रम में रहने से ही मोक्ष मिलता है। जमीन के अर्थ में 'अरण्य' शब्द का प्रयोग हमा है। शत
(वेदान्तसूत्र ३, ४, १७, २०,) उनका यह कथन कुछ
निराधार भी नहीं है क्योंकि कर्मकाण्ड के इस प्राचीन मार्ग पथ ब्राह्मण (५।३।३५) में लिखा है-अरण्य में चोर बसते
को गौण मानने का प्रारम्भ उपनिषदों में ही पहले पहल है। बृहदा० उप. (५।११) मे लिखा है-'मुर्दे को भरण्य
देखा जाता है। उपनिषत्काल में ही यह मत अमल मे मे ले जाते है किन्तु छा० उप० (१४३) में लिखा है
माने लगा कि मोक्ष पाने के लिए ज्ञान के पश्चात् वैराग्य कि अरण्य मे तपस्वी जन निवास करते है। विद्वानों का मत है-जब वैदिक आर्य पूरब की पोर
से कर्म-संन्यास करना चाहिये।' इत्यादि । बढ़े तो यज्ञ पीछे रह गये और यज्ञ का स्थान त ल किन्तु प्राचीन उपनिषदों में वही पुरानी कनि मिलती लिया, किन्तु तप को स्वीकार करने पर भी मर्य देवतामों है-शतपथ ब्रा. (१३, ४-१-१) म लिखा है-'एतद् व के पुरोहित अग्नि को नहीं छोड़ सके; अतः पञ्चाग्नितप
जरामर्य सत्रं यद् अग्नि होत्रम्' अर्थात् जब तक जियो, प्रवर्तित हुआ । भगवान् पार्श्वनाथ को गंगा के तट पर
अग्निहोत्र करो । ईशा० उप० में कहा है--'कुर्वन्नेवेह पञ्चाग्नि तप तपने वाले ऐसे ही तपस्वी मिले थे।
कर्माणि जिजीवेषेत् शतं समा' अर्थात् एक मनुष्य को माधम-पतुष्टय
अपने जीवन भर कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की चार आश्रमों की व्यवस्था भी चिन्त्य है। बादाण को इच्छा करनी चाहिये । बोधायन और आपस्तम्ब सूत्रों में ब्रह्मचारी और गृहस्थ के रूप में जीवन बिताने के बाद
भी गृहस्थाश्रम को ही मुख्य कहा है। स्मृतियों को भी संन्यासी हो जाना चाहिये, यह नियम वैदिक साहित्य में कुछ ऐसी ही स्थिति है। मनुस्मृति में संन्यास पाश्रम का
कथन करके भी अन्य प्राश्रमों की अपेक्षा गहस्थाश्रम को नहीं मिलता। पौराणिक परम्परा के अनुसार राज्य त्याग कर बन में चले जाने की प्रथा क्षत्रियों में प्रचलित थी।
ही श्रेष्ठ कहा है। कवि कुलगुरु कालिदास ने रघुवंश मे रघुनों का
बमण-धर्म का महत्व वर्णन करते हुए कहा है
इसके विपरीत जैन धर्म के अनुसार पसण धर्म को शैशवेऽभ्यस्त विद्यानां यौवने विषय॑षिणाम् । अपनाये बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। गृहस्थवार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् । धर्म मुवि-धर्म का लघु रूप है और जो मुनि-धर्म का
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श्रमण-परम्परा को प्राचीनता
पालन करने में असमर्थ होता है, वह गहस्थ धर्म का गम्भट्रियस्स जस्स उ हिरणवट्ठी सकंचणा पडियो। पालन करता है।
तेणं हिरण्णगम्भो जयम्मि उगिज्जए उसभो । त्याज्या नजनविषयान् पश्यनोऽपि जिनाज्ञया ।
अर्थात जिमके गर्भ मे याने पर मुवर्ण को वृष्टि हुई, मोहात्त्यनुमशक्तस्य गृहिधर्मोऽनुमन्यते ।। इसी से ऋषभ जगत् मे हिरण्यगर्भ कहलाये।
जो जिनदेव के उपदेशानुमार, संसार के विषयो को ऋग्वेद म. १०, सूक्त १२१ की पहली ऋचा इस त्याज्य जानते हए भी मोहवश छोड़ने में असमर्थ है, उसे प्रकार हैगहस्थ-धर्म का पालन करने की अनुमति दी जाती है। हिरण्यगर्भ समवर्तता भतस्य जातः पतिरेक मासीत् ।
जैन धर्म के पाँच व्रत प्रसिद्ध है - अहिंसा, सत्य, स दाधार पृथिवी द्यांमुतेमा कस्म देवाय हविषा विधेम ॥ प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इनका सर्व देश-पालन
इसमें कहा गया है कि पहले हिरण्यगर्भ हुए। वह प्राणीथमण करते है और एकदेश को गृहस्थ पालता है । अतः
मात्र के एक स्वामी थे। उन्होंने प्राकाश सहित पृथ्वी को श्रमणों के व्रतों को महाव्रत और गृहस्थों के व्रतों को
धारण किया। अणुव्रत कहते है। भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीसों तीर्थकरो ने गहवास छोड़ कर श्रमण
उघर महाभारत शान्तिपर्व अ. ३४६ मे हिरण्यगर्भ धर्म को अगीकार किया था।
को योग का वक्ता कहा है----
'हिरण्यगर्भः योगस्य वक्ता नाग्यः पुरातनः।' वैदिक साहित्य में श्रमण तत्त्व __ श्रीमद्भागवत मे ऋषभदेव का जो चित्रण है, वह प्रर्थात् हिरण्यगर्भ योगमार्ग के प्रवर्तक है, अन्य कोई भी जैन मान्यता का ही समर्थन करता है। उसमे उनकी उनसे प्राचीन नही है। तो क्या ऋषभ ही तो हिरण्यगर्भ तपस्या का वर्णन करते हुए कहा गया है-उस समय केवल नहीं हैं ? शरीर मात्र उसके पास था और वे दिगम्बर-वेष में भगवान् ऋषभ इक्ष्वाकुवंशी थे। इक्ष्वाकु मूलतः पुरु नग्न विचरण करते थे । मौन से रहते थे। कोई डराये, राजामों की एक परम्परा थी। यद्यपि ऋग्वेद में पुरुषों मारे, ऊपर थके, पत्थर फेंके, मुत्र विष्ठा फेके तो इन को सरस्वती के तट पर बतलाया गया है। किन्तु उत्तर सबकी ओर ध्यान नहीं देते थे। यह शरीर असत पदाथों इक्ष्वाकुत्रों का सम्वन्ध अयोध्या से था। जैन शास्त्रों में का घर है, ऐसा समझ कर अहंकार मम-कार का त्याग
अयोध्या को ही ऋषभदेव का जन्म स्थान माना है। करकं अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेव के समान
उघर सांख्यायन श्रौत्र सूत्र मे हिरण्यगर्भ को कौसल्य कहा
गया है। अयोध्या को कोसल देश में कहा गया है। प्रतः सुन्दर शरीर मलिन हो गया था, आदि ।
कोसल देश में जन्म लेने से ऋषभदेव को कौसल्य कहा इसी में यह भी कहा है कि वातरशन श्रमणो के धर्म
जा सकता है । इस तरह योग के वक्ता हिरण्यगर्भ के साथ का उपदेश देने के लिए उनका अवतार हा । जन्महीन
योगी ऋषभ की एकरूपता अन्वेषणीय है। ऋषभदेव जी का अनुकरण करना तो दूर, अनुकरण करने का मनोरथ भी कोई अन्य योगी नहीं कर सकता क्योकि
श्रमण-परम्परा और पुरातत्त्व जिस योगबल को ऋषभ जी ने प्रसार समझकर ग्रहण सिन्धु-घाटी के उत्खनन के सहयोगी श्री राम प्रसाद नहीं किया, अन्य योगी उसी को पाने पाने की चेष्टाए चन्दा ने अपने एक लेख में लिखा है--'मोहेजोदड़ो से प्राप्त करते हैं।
लाल पाषाण की मूर्ति, जिसे पुजारी की मूर्ति समझ लिया । जैन ग्रन्थों में ऋषभ को हिरण्यगर्भ भी कहा है गया है, मुझे एक योगी की मूर्ति प्रतीत होती है। वह क्योकि उनके गर्भ में माने पर प्रकाश से स्वर्ण की वर्षा मुझे इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए प्रेरित करती है कि हुई थी। यथा
सिन्धुघाटी में उस समय योगाभ्यास होता था पोर योगी
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११४, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
की मुद्रा में मूर्तियां पूजी जाती थीं। मोहेंजोदड़ो और णानामृषीणाम्' आदि लिखा है, ये शब्द अनुमन्धान की हरप्पा से प्राप्त मोहरें जिन पर मनुष्य रूप में देवों की दृष्टि से महत्व के है। पाकृति अंकित है, मेरे इस निष्कर्ष को प्रमाणित करती तैत्तिरीय पार० में भी इसी प्रकार कहा है-'वात
शना ह ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वपन्थिनो बभूवुः (२-७)। 'सिन्धुपाटी से प्राप्त मोहरों पर बैठो अवस्था मे ऋग्वेद (१०-१३६-२) मे भी मुनियो के लिये वातअंकित मतियां ही योग की मुद्रा में नहीं है किन्तु राड़ी रशना कहा है। अवस्था में अंकित मूर्तियां भी योग की कायोत्सर्ग मुद्रा को अथर्ववेद (२२५४३) मे इन्द्र के द्वारा यतियों का बतलाती है। मथुरा म्यूजियम में दूसरी शती की कायो- वय किये जाने को कथा आती है। स्सर्ग में स्थित ऋषभदेव जिन की एक मूर्ति है । इस मूर्ति यह कथा एतरेय ब्रा. (७-२%) और पञ्चविंश की शेली सिन्धु से प्राप्त मोहगे पर अकित खड़ी हुई ब्राह्मण (१३।४।७, ८।१४) में भी पाई है । देव-मतियों की शैली से बिल्कुल मिलती है । ऋषभ या सायण ने अपने भाष्य मे लिखा हैवृषभ का अर्थ बंल होता है और ऋषभदेव तीर्थकर का 'यतिन-पतयो नाम नियमशीला प्रासुर्या प्रजा: चिद्ध बल है। मोहर न. ३ से ५ तक के ऊपर अकित यद्वाऽत्र यतिगब्देन वेदान्तार्थविचारशन्या परिव्राजका देवमतियों के साथ बैल भी अकित है जो ऋपभ का पूर्व- विवक्षिता.। (अथर्व) रूप हो सकता है।
अर्थात् यति का अर्थ है व्रत-नियम का पालन करने वाले इसी पर डा. राधाकुमद मुकर्जी ने अपनी हिन्दु असुर लोग । अथवा यहाँ यति शब्द वेदान्त के विचार से सभ्यता नामक पुस्तक मे लिखा है : श्री चन्दा ने ६ अन्य शून्य परिव्राजक लेना चाहिए।' मोहरों पर खडी हई मूर्तियों की ओर भी ध्यान दिलाया पञ्चविंश ब्राह्मण की व्याख्या में सायण ने एक है । फलक १२ और ११८ प्राकृति ७ (मार्शल कृति मोहे स्थान पर यति का अर्थ 'यजन विरोधी जना.' किया है। जोदडो) कायोत्सर्ग नामक योगासन में खडे हुए देवतायो अर्थात इन्द्र ने यतियो को मारा, वे सब यज्ञयागादि विरोधी को सचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या और वेदविरुद्ध व्रतनियमादि का पालन करने वाले थे। में विशेष रूप से मिलती है; जैसे मथरा पंग्रहालय मे
ऋग्वेद के वातरशन मुनि, ते. प्रा. के वातरशन श्रमण स्थापित तीर्थकर श्री ऋषभदेव की मूर्तियां । ऋषभ दा
भिन्न प्रतीत नही होते । वे ही सम्भवतः यति भी हों। भर्य है बैल जो प्रादिनाथ का लक्षण है। मुहर संख्या
श्री मद्भागवत् में उन्ही वातरशन श्रमणो के धर्म के साथ F.G. H. फलक दो पर अकित देवमूति में एक बैल ही
ऋषभावतार को जोड़ा गया है । यह आकस्मिक प्रतीत बना है । संभव है यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो। यदि
नहीं होता। इन सबके प्रकाश मे श्रमण परम्परा की ऐसा हो तो शेव-धर्म की तरह जैन-धर्म का मूल भी ताम्र
प्राचीनता का दर्शन होता है। उमी परम्परा को भगवान युगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है।
महावीर ने अपना कर ग्राज से २५०० वर्ष पहले पावा (हि. सं. २३-२४)
से निर्वाण लाभ किया था। हम उनकी उस शुद्ध-बुद्ध उक्त तथ्यों के प्रकाश में जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर प्रात्मा को नमन करके अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते योगी ऋषभदेव की स्थिति पुरातत्त्वज्ञो के लिए अन्वेषण है। का रुचिकर विषय हो सकती है और उनकी स्थिति
10 स्पष्ट होने पर श्रमण परम्परा के उद्गम पर भी प्रकाश
अधिष्ठाता-स्याद्वाद महाविद्यालय, पड़ सकता है। श्री मद्भागवत् में जो 'वासरगनानांपा.
बी-३१८०, भदैनी, वाराणसी
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मध्य प्रदेश की प्राचीन जैन कला
0प्रो० कृष्ण दत्त वाजपेयी, सागर
ललित कलाप्रो के विकास को दष्टि से भारत के में देश के विभिन्न भागो मे जैन धर्म का जो इतना मध्यवर्ती क्षेत्र का विशेष महत्व है। प्रागैतिहासिक युग से अधिक प्रसार हुम्रा, उसका एक मुख्य कारण व्यापारियों लेकर उत्तर-मध्यकाल तक इस भू भाग मे ललित कलाये द्वारा बहुत बड़ी संख्या मे जैन मन्दिरों, मठों, अनेक रूपो में संवित होती रही। नर्मदा के उत्तर मे विध्य मूर्तियो आदि का निर्माण कराना तथा विद्वानों को की उपत्यकामो में आदिम जन एक दीर्घकाल तक शिला- प्रोत्साहन प्रदान करना था। श्रयों में निवास करते थे। वे अपनी गृहाम्रो की दीवालो मध्यप्रदेश क्षेत्र में भरहुत तथा साची बौद्ध कला के और छतो पर चित्रकारी करते थे। अधिकाश प्राचीन प्रारम्भिक केन्द्रों के रूप मे प्रख्यात है। विदिशा, एरन, चित्र अाज भी इन गुहायो में सुरक्षित है पीर तत्कालीन मुमरा, नचना आदि अनेक स्थलो पर वैष्णव तथा शवधर्मों जन-जीवन पर रोचक प्रकाश डालते है ।
का विकाम मौर्य युग मे लेकर गुप्त युग तक बड़े रूप में
हमा। जहा तक जैन धर्म का सम्बन्ध है, अन्धति द्वारा इस क्षेत्र में से होकर अनेक बडे मार्ग जाते थे। ये इस क्षेत्र में इस धर्म के उदभव तथा प्रारम्भिक विकास मार्ग मुख्यत. व्यापारिक सुविधा हेतु बनाये गये थे। धर्म- पर रोचक प्रकाश पडता है। जैन साहित्य में विदिशा प्रचार तथा साधारण आवागमन के लिए भी उनका उप- नगरी का उल्नव बड़े सम्मान के साथ किया गया है और योग होता था। एक बड़ा मार्ग इलाहाबाद जिले के प्राचीन यह कहा गया है कि इम नगरी में भगवान् महावीर की कौशाम्बी नगर से भरहुन (जि० मतना), एरन (प्राचीन
पूजा प्रारम्भ में 'जीवन्त म्वामी' के रूप मे होती थी। ऐरिकिण, जि. सागर), ग्यारसपुर तथा विदिशा होते अनति के अाधार पर, अवन्ति के गामक प्रद्योत ने इस हए उज्जन को जाता था। उज्जैन से गोदावरी तट पर
प्रतिमा को गेरुवा (सिधु-सौवीर राज्य) मे लाकर विदिशा स्थित प्रतिष्ठान (अाधुनिक पठन) नगर तक मार्ग जाता
में प्रतिष्ठापित किया था। इस प्रतिमा के सम्मान मे रथथा। अन्य बडा मार्ग मथुरा से पद्मावती (ग्वालियर के यात्रामो के उत्मव बड़े समारोह के माथ निकलते थे। पास पवाया), कान्तिपुरी (मुरेना जिले का कुतवार), विदिना के अतिरिक्त उज्जयिनी (उज्जैन) में भी तुम्बवन (तुमैन, जिला गुना), देवगढ (जि. झासी) जैन धर्म के प्रारम्भिक प्रचार का उल्लेख 'कालकाचार्यहोता हा विदिशा को जाता था। तुम्बवन से एक मार्ग कथानक' प्रादि ग्रन्थों में उपलब्ध है। कौशाबी को जोड़ता था। इन मागों पर अनेक नगरी के ग मातवाहन काल (ई० पूर्व दूसरी शती से लगभग अतिरिक्त छोटे गाँव भी थे। व्यापारी तथा अन्य लोग जो २०० ई. तक) मे विदिशा में यक्ष-पूजा का प्रचलन था। इन मार्गों में यात्रा करते थे, इन मार्गों के उपयुक्त स्थानो यक्षों तथा यक्षियों की अनेक महत्त्वपूर्ण मूतिया विदिशा से पर मन्दिरी, स्तुपों, धर्मशालायो ग्रादि का निर्माण कराने मिली है। कुछ वर्ष पूर्व बेतवा नदी रो यक्ष यक्षी की थे। बड़े नगरो, गावो तथा वन्यस्थलो मे अनेक मन्दिरो विशाल प्रतिमायें प्राप्त हुई, जो अब विदिशा के संग्रहालय प्रादि के अवशेष मिले है। इन जैन स्मारको तथा कला- में सुरक्षित है । नाग-पूजा का भी प्रचार विदिशा, पनाकृतियो की संख्या बहुत बड़ी है। तुमन, देवगढ, चंदेरी, वती, कान्तिपुरी ग्रादि स्थानो में बड़े रूप मे हुमा । नागबोन, प्रहार, विदिशा, खजुराहो आदि स्थान जैन वास्तु नागियो की प्रतिमायें सर्पाकार तथा मानवाकार दोनों तथा मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र बने । मध्यकाल रूपो में बनाई जाती थी।
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११६, वर्ष २८, कि० १
भनेकान्त
शक-कषाण-युग (ई० पूर्व प्रथम शती से द्वितीय शती विक्रमादित्य का बड़ा भाई था। उक्त लेखो तथा रामगृप्त ई. के अन्त तक) मे कलाकेन्द्र के रूप में मथुरा की बड़ी नाम वाले बहुसस्यक सिक्को से रामगुप्त की ऐतिहासिकता उन्नति हुई। वहा जैन तथा बौद्ध धर्मों का असाधारण सिद्ध हो गई है। विकास हमा। मूर्ति-शास्त्र के महत्व की दृष्टि से मथुरा इन तीनों मूर्तियो की कला निस्सदेह मथुरा शैली से मे निमित प्रारम्भिक जैन एवं बौद्ध कलाकृतियां तथा प्रभावित है। ध्यानमुद्रा में पद्मासन पर स्थिति, अंगों का वैदिक-पौराणिक देवों की अनेक प्रतिमायें उल्लेखनीय है। विन्यास, सादा प्रभामंडल आदि से इस बात की पुष्टि विविध भारतीय धर्म पूर्ण स्वातंत्र्य तथा सहिष्णुता के होती है। मथुरा की प्रारम्भिक मूर्तियों की तरह ये तीनों वातावरण मे साथ-साथ, बिना ईया-द्वेष के मथुरा, प्रतिमाये भी चारों ओर से कोर कर बनाई गई है। विदिशा, उज्जयिनी प्रादि अनेक नगरी मे शताब्दियो तक प्रत्येक तीर्थङ्कर मूर्ति के दोनो ओर चँवर लिए हए देवपल्लवित-पुष्पित होते रहे। यह धर्म-सहिष्णुता प्राचीन तानों को प्रदर्शित किया गया है। मूर्तियों की चौकी पर भारतीय इतिहास की एक बहुत बड़ी विशेषता मानी चक्र बना हुमा है। विदिशा से प्राप्त ये तीनो नबीन मूर्तिया जाती है।
स्थानीय मटमैले पत्थर की बनी है। उनके लेख साँची शक कुषाण काल में मथुरा के साथ विदिशा का तथा उदयगिरि के गुप्तकालीन ब्राह्मी-लेखों जैसे है। संपर्क बहुत बढ़ा। इन वशो के शासको के बाद विदिशा मे नाग राजाम्रो का शासन स्थापित हुप्रा। उनके समय
गुप्तयुग में जैन कलाकृतियों का निर्माण विवेच्य क्षेत्र
के विविध भागों में जारी रहा। विदिशा के पास उदयमे मथुरा कला का स्पष्ट प्रभाव मध्यभारत के पद्मावती,
गिरि की गुफा सख्या २० मे गुप्त-सम्राट् कुमार गुप्त प्रथम विदिशा प्रादि नगरो की कला-कृतियों में देखने को।
के शासन काल में तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की अत्यन्त कलापूर्ण मिलता है। कला में बाह्य रूप तथा आध्यात्मिक सौदर्य
मूर्ति का निर्माण हुआ। पन्ना जिले में सलेह के समीप के साथ रसदृष्टि का समावेश इस काल से मिलने लगता
सीरा पहारी से एक तीर्थङ्कर प्रतिमा मिली है, जिमका है, जिसका उन्मेष गुप्तकाल (चौथी से छठी शती ई०) मे
निर्माण-काल लगभग ५०० ई० है। विशेष रूप से हुआ।
झॉसी जिल की ललितपुर तहसील में स्थित देवगढ़ मुख्यत: मथुरा मे जैन तीर्थङ्कर प्रतिमानों को विशिष्ट
में गुप्तकाल मे तथा पूर्व मध्यकाल (लगभग ६५० से लाछन या प्रतीक प्रदान करने की बात प्रारम्भ हुई।
१२०० ई.) में कला का प्रचर उन्मेष हा। गुप्त काल श्री वत्स चिह्न के अतिरिक्त विविध मगल चिह्न तथा
मे वहां विष्णु के प्रसिद्ध दशावतार मन्दिर का निर्माण तीर्थड्रो से सम्बन्धित उनके विशेष प्रतीको का विधान
हमा । अगले काल में यहाँ वेतवा नदी के तट पर अत्यन्त उनकी प्रतिमानों मे मथरा की प्राचीन कला मे देखने को
मनोरम स्थल पर जैन मन्दिरो का निर्माण हुआ। यह मिलता है। जन सर्वतोभद्र (चौमुखी) प्रतिमायें भी
निर्माण कार्य सातवी से बारहवी शती तक होता रहा । मथुरा में कुषाण-काल से बनने लगी। इसका अनुकरण
इस कार्य में शासकीय प्रोत्साहन के अतिरिक्त व्यवसायी अन्य कला केन्द्रो में किया गया।
वर्ग तथा जनसाधारण का सहयोग प्राप्त हुमा । फलस्वरूप कुछ वर्ष पूर्व विदिशा से तीन दुर्लभ तीर्थङ्कर मूतियो
यहां बहुसख्यक कलाकृतिया निर्मित हुई। देवगढ़ मे जैन की प्राप्ति हुई। इन तीनो पर ब्राह्मी लिपि तथा संस्कृत
धर्म के भट्टारक संप्रदाय के प्राचार्यों ने समीपवर्ती क्षेत्र में भाषा में लेख खुदे है। दो प्रतिमानो पर तीर्थङ्कर चद्रप्रभ
जैन धर्म के प्रसार में बड़ा कार्य किया। का नाम तथा तीसरी पर तीर्थङ्कर पुष्पदत का उत्काण चंदेरी, थूबोन, दुधई, चाँदपुर आदि अनेक स्थलो से है। लेखो से ज्ञात हुआ है कि तीनों मूर्तियों का निर्माण जैन धर्म सम्बन्धी बहुसख्यक स्मारक तथा मूर्तिया मिली गप्तवंश के शासक 'महाराजाधिराज' रामगुप्त के द्वारा है। ये इस बात की द्योतक है कि पूर्व मध्यकाल में जनकराया गया। यह रामगुप्त गुप्तसम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय
[शेष पृ० १२० पर]
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इसि-भासियाई-सूत्र का जापानी अनुवाद
श्री चन्द्र शेखर प्रसाद
जापान में जैन धर्म का अध्ययन :
इसका लेखा-जोखा अभी तक नहीं लिया गया है। इस एम० मात्सुनामी का इसिभासियाई सत्र का जापानी उपेक्षा का कारण बौद्ध धर्म एवं भारतीय संस्कृति की अनुवाद जापान के क्यूस विश्वविद्यालय से १९६७ में प्रादान में जापान का भारत से संधि सम्बन्ध का प्रभाव प्रकाशित हया। मात्मनामी जी का जापानी अनवाद मात्र हो रहा है। इसके अतिरिक्त एक और सबल कारण है। संयोग नहीं है । धर्म एव दर्शन के अध्ययन मे लगे जापानी थियेन थाई नामक चीनी बौद्ध सम्प्रदाय के तीसरे सघविद्वानों ने जैन धर्म के अध्ययन की एक विशेष अावश्यकता नायक, जो बड़ी विचक्षण बुद्धि के थे, बौद्ध सूत्रो का का अनुभव किया है। उनके इस विशेष आवश्यकता के मूल्याकित विभाजन किण और बद्ध द्वारा उपदेशित अनुभव का एक इतिहास भी है। जापान के अधिकतर अागमों (पालो निकायो) को सबसे निम्न कोटि मे रखकर लोग बौद्ध है एवं वहां की सभ्यता एव सस्कृति के विकास साधारण बुद्धि वालों के लिए उपदेशित सूत्र बतलाया। मे बौद्ध धर्म की प्राधारमूलक भूमिका है। वहां बौद्ध धर्म इस विभाजन का दुष्प्रभाव यह हुआ कि पागम सूत्रों की का प्रचार सीधे भारत से नहीं, बल्कि कोरिया और चीन केवल उपेक्षा ही नहीं हुई, बल्कि उनके पठन-पाठन का से हरा एव उसके विकास मे भी चीन में विकसित बौद्ध मिलमिला भी चीन एव जापान मे अवछिन्न हो गया। धर्म स्रोत का काम करता रहा । परन्तु बौद्ध धर्म के साथ वर्तमान युग मे इन मूत्रो में जापान के विद्वानों की अभिरुचि भारतीय सभ्यता और सस्कृति भी वहाँ पहुची। भारतीय पुन. बढी है जिसे प्रो० मस्तानी के शब्दो मे इन सूत्रों का सभ्यता और सस्कृति की छाप वहा की भाषा, रीति- भाग्योदय कहेंगे । रिवाज, दैनिक जीवन प्रादि सभी क्षेत्रो में प्राज भी अभिरुचि के बढ़ने का भी कारण है। पश्चिमी देशो स्पष्ट दिखती है । उदाहरण के रूप में जापानी वर्णमाला के सम्पर्क में प्राने पर पश्चिमी देशों की तकनीक से प्रभाकोले सरकत वर्णमाला मे अक्षर जिम ध्वनिक्रम मे है, म नीगोमखी जापान तिमी Ratni मम्मति उसी ध्वनिक्रम में जापानी वर्णमाला में प्रक्षरो को सजाया की उन्नत चीजो को अपने देश में लाने और अपनाने मे गया है। सम्पूर्ण जापान में मनाया जाने वाला उत्सव
एजुट हो गया। धर्म एव दर्शन के अध्ययन-अध्यापन का 'बोन' भारतीयो का पितृपक्ष ही है जिसमे पूर्वजो की याद
क्षेत्र भी अछता न रहा। शोधकार्य एव पर्यालोचनात्मक एव सम्मान में उत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव
तुलनात्मक अध्ययन का पश्चिमी ढग अपनाया गया। इस उलम्बन सूत्र के नाम पर जापानी उच्चारण में बदलकर
क्रम में बौद्ध विद्वानों की दृष्टि चीनी वौद्ध धर्म की पोर उराबोन कहलाया जिसे सक्षेप में लोग साधारणत. बोन
से हटाकर, बौद्ध धर्म की भारत में उत्पत्ति और विकास कहते है। इस सूत्र में मौद्गलायन के, अपनी माता की
तथा उसकी पृष्ठभूमि की ओर जा लगी। भारतीय धर्मसद्गति के लिए किये प्रयत्नो का वर्णन है। ऐसे अनेक
दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान यानेजाकी ने लिखा है कि अगर उदाहरण है जिनको गिनाने की तीव्र इच्छा का सवरण
पूर्वी देशो में विकसित बौद्ध धर्म फूल और पराग हैं तो कर रहा हूँ।
दक्षिणी देशों का बौद्ध धर्म शाखायें और पत्तियाँ। फूल जापान में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की उस छाप और पराग की चमक में हम मूल को भला नही सकते। में कितना अंश जैन धर्म और जैन धर्मावलम्बियों का है जापान में पुनः बौद्ध बचनो का मूल स्रोत प्रागमों, सस्कृत -
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११८, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
सत्रों एवं तिब्बती मे पनदिन मूत्र का अध्ययन एक ओर जैन मूत्रो एव शास्त्रों में तीर्थधर की बातें ठीक-ठीक उसी हा तो दूसरी ओर सम्पूर्ण भारतीय धर्म एव दर्शन का रूप में पूरी की पूरी सुरक्षित हैं, ऐसी बात नहीं है। फिर भी गम्भीर अध्ययन हुआ। भारतीय प्राच्य विद्या एव भी बौद्ध धर्म के पूर्व अथवा शाक्यमुनि के युग की चीजों बौद्ध दर्शन के ख्यातनामा विद्वान एक पर एक इस क्षेत्र मे को प्रस्तुत करने के अतिरिक्त शाक्यमुनि के सुधार के प्राये। इन विद्वानो में प्रो० ऊइ अग्रगण्य है। अभी जीवित, सम्बन्ध मे परिचय रखने वाली महत्वपूर्ण सामग्री है।" काम मे लगे विद्वानों में प्रो० हाजिमे नाकामरा का नाम
इसिभासियाई में वौद्ध पात्र : सबसे ऊपर है।
जैन धर्म एवं दर्शन का अध्ययन जापानी विद्वानों के भारतीय धर्म एवं दर्शन के अध्ययन में जैन धर्म एव
लिए एक विशेष का महत्व का है। यह शिक्षा की दृष्टि दर्शन का भी अध्ययन हुग्रा । जापान के विश्वविद्यालयों
से मात्र विषय को जानने के लिए ही नहीं, बल्कि उसके में बौद्ध धर्म के साथ जैन धर्म के अध्ययन की भी व्यवस्था
अपने बौद्ध धर्म, दर्शन एवं सस्कृति के स्रोत को अच्छी है। जैन धर्म का अध्ययन जापानी विद्वानो के लिए एक
तरह समझने, उसके इतिहास की टी शृखला को जोड़ने विशेष महत्त्व रखता है। भगवान महावीर भगवान बुद्ध
एव अस्पष्ट स्थलो के स्पष्टीकरण में उपयोगी है। मात्सुके समकालीन एवं एक ही कार्यक्षेत्र के होने के कारण जैन
नामी जी ने इसिभासियाइं को अनुवाद के लिए चुना, धर्म और बौद्ध धर्म का उद्भव और विकास परस्पर के
कारण इसमे हिन्दू और जैन ऋषियो के साथ वौद्ध भिक्षुमो संदर्भ में पादान-प्रदान, खण्डन-मण्डन से हुप्रा । जैन
एवं बौद्ध साहित्य में पाये देवों की सूक्तियों भी है। ये शास्त्रों में बौद्ध धर्म के सम्बन्ध में वैमी सामग्रिया है जो
सूक्तियाँ बौद्धो के लिए विशेष सामग्री है जो बौद्ध साहित्य स्वयं बौद्धो के बीच लुप्त हो गई है। उदाहरण के लिए
में नही है। अनुवाद के क्रम में कुछेक ऋषियो का साम्य पुद्गलबादी (प्रात्मवादी) बौद्ध सम्प्रदायो के शास्त्र प्राज
बौद्ध भिक्षुषों एव बौद्ध साहित्य में वणित देवों के साथ उपलब्ध नहीं है, पर तत्त्वार्थसंग्रह भाष्य में पुदगलवाद की
उन्होने बैठाया है। ये ऋषि इस प्रकार है-महत ऋषि सूत्रों एवं शास्त्रों के उद्धरण सहित च र्वा है । स्वयं पुद्गल
नारद (१)-बौद्ध परम्परा में भी कई नारद हैं । लेकिन शब्द जो बौद्ध-धर्म में सम्पूर्ण व्यक्ति का बोध कराता है, जैन धर्म में मात्र भौतिक तत्त्व के लिए प्रयुक्त है। पुद्गल
इस नारद की मूक्तियो की विपय वस्तु का मेल वहाँ नहीं शब्द दोनों धर्मो मे एक ही स्रोत से प्राता है, पर उनके
बैठता है। भिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों के सदर्भ मे इसका अर्थ एव
अर्हत, ऋषि वज्जियपुत्त (२) पालि त्रिपिटक के पर्याय भिन्न हो गई है। इस प्रकार परस्पर सम्बन्धित
थेरी गाथा में सम्मिलित भिक्षु वज्जिपुन (वृजिपुत्र) है होने के कारण ये दोनों धर्म शिक्षा की दृष्टि से जानने
जो वत्मिपुत्र से भिन्न है । प्रो० सुवरिंग ने वत्सीपुत्र किया और समझने में एक-दूसरे के पूरक है। इस तथ्य को
है। महंत मुनि असितदेविल (३) बौद्ध परम्परा के असित जापानी विद्वानों ने अच्छी तरह पहचाना है एव इसी को
देवल है जो ब्राह्मण मुनि थे। अहंत ऋषि अंगरिसि मात्मनामी जी ने अपने शब्दों में इस प्रकार रखा है
भारहाइ (४) बौद्ध परम्परा के अगणिक भारद्वाज है जो "जैन धर्म से सम्बद्ध शोधकार्य में जिन पहलमो पर सबसे
ब्राह्मण थे, पर बौद्ध धर्म में प्रवजित हो गये। थेर गाथा अधिक अभिरुचि है, उनमे एक है सहचर बौद्ध धर्म के
में इनका भी नाम है। अर्हत ऋषि वगलचीरी (६) बौद्ध साथ तुलना । वर्तमान में सुरक्षित बौद्ध धर्म के मूल सूत्री, परम्परा के बखली है। ये भी थेर गाथा के भिक्षणों में उत्तरी परम्परा का प्रागम और दक्षिणी परम्परा का एक ह। निकाय से बद्ध के जो वचन थे, उन्हे विश्वसनीय रूप से अहंत ऋपि महाकासाव (8) बौद्धो के महाकस्सप बाहर निकालना संभव नही है, यह निश्चित हो चुका है। थेर है जो धर्म सेनापति सारिपुत्त, जिसका नाम पीछे '. इसलिए जनो के सूत्रो के अध्ययन की - अावश्यकता-है। • पाया है और मोग्गल्लान की मृत्यु के बाद संथ के अग्रणी ।
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इसि-भासियाई-सूत्र का जापानी अनवाद
११६
भिक्षु बने और जिन्होंने बल के महापरिनिर्वाण के बाद मिला है, उसे पाद-टिप्पणियो में दिया है और जहां-तहाँ प्रथम धर्म संगीनि का प्राया जन नारवा कर बद्ध के उप- शब्दो की बनावट पर भी प्रकाश डाला है। अपने बौद्ध देशो का धम्म-विनय के रूप में मालन करवाया। धर्म की शिक्षा और अनुभव का भी उपयोग उन्होंने अनुइनके अतिरिक्त जिन; ममता बैठायी है, वे है -
वाद में किया है। अंबडा अध्ययन के प्रारम्भ में पाये महंत ऋपि बारका (१४) वाहिक, उक्कल (२०)
'देवाणुपिया' की समता बद्धानुशासन से बैठायी है। उक्कल, रामपुत्त (१३) उद्दकरामपुत, मावग (२६)
बुद्धानुशासन बद्ध और अनुशासन को सधि से नहीं, बल्कि
सात मातकपुत्त, पिंग (३२) पिगिय, सातिपुत्त (३८) सारि
बद्धानाम के नाम का न होकर बना लगता है। बुद्धानाम पुत, संजय (३६) सनय एव मजय वेलस्थिपुन, दीवारण
शासन की तरह देवानामप्रिय शब्द वना है जो प्रशोक के (४०) कण्हदीपायण, सोम (४२) सुत्त सोमा, जम
शिलालेखों में प्रयुक्त है। पर वहा यह श्रेष्ठ के अर्थ में (४३) यमक, वरुण (४४) वरुण, वेसमण (४५) वेस्स
पाया है जबकि यहा हेय अर्थ लिए है। मात्सुनामी जी ने मन । इनमें से कई थेग्गाथा में भी पाये है।
कही कही शब्दो के भिन्न अर्थ को लेकर गाथानों का
तर्कसंगत अर्थ लगाया है, जो स्पष्टीकरण के स्वरूप में है। वे अर्हत ऋपि, जिनकी समता बौद्ध परमरा मे नही
दविलभायण की प्राठवी गाथा का अर्थ श्री मनोहर मुनि है. वे है - ग्रहत ऋपि पुफ्फसालपुत्त (५), कुम्मापुत्त जी म. शास्त्री करते है.-"जैसे श्रेष्ठ दूध भी दही के (७), केतलीपुत्त (८) मखलिपुत्त (११), मधुरायण
मसर्ग से दुग्धत्व पर्याय को छोड़कर दही बन जाता है। (१५), विदु (१७) वरिसव कण्ह (१८) आरियायण
वैसे गृहस्थो के समर्ग दोष मे मनि भी पाप कर्म मे लिप्त (१६), गाहावतिपुत्त (२१), दगमाल (२२), हरिगिरि
हो जाते है।" मात्सुनामी जी अन्तिम पक्ति का “गृद्धि (२४) प्रबड (२५), तारायण (२६) इन्दानाग (४१)।
णा के टो मे कारण से | पाप कर्म बढ़ता जिन अर्हन ऋपियो के मम्बन्ध में मात्सुनामी जी ने ऐमा अर्थ करते है। उन्होंने गेहिप्पदोपण के 'गेहि' का कुछ नहीं कहा है वे है--ग्रहंत तेतलीप्त (१०), जण्ण. अथं गृह थ नहीं करके गति अर्थात् तृष्णा करते है । टीका बक्क (१२), मेतेज्ज भयाली (१३), सोग्यिायण (१६), में 'गंहि' का अर्थ 'गद्धि' ही है। मात्सुनामी जी का अर्थ वारत्तइ (२७), ग्रहह (२८), बद्धमान (२६), वम् । अधिक तर्कसगत है, कारण गहम्थो के ससर्ग को सर्वथा (३०), पास (३१), अरुण महासालपुत्त (३३), इसिगिरि पापकर्म में गिरना मान लेने में गायों को ऐसे निम्नस्तर (३४), अद्दालक (३५) सिरिगिरि (३७) ।
पर कर दिया जाता है कि गो एवं शास्त्रों में वर्णित
उज्ज्वल चरित्र के गहस्थो की कथा अमगन हो जाती है। मात्सुनामी जी ने अहंत ऋपियों का जो माम्य बौद्ध
प्राध्यात्मिक विकास का मार्ग गहम्थों के लिए भी है। परम्परा में पाया है अावश्यकता है उसे और विस्तृत रूप देने की । इसमे इन पत्रों के सम्बन्ध में विशेष जानवारी माईपुन अझपण (३भ) की गाथा--१४ का अर्थ मिलेगी एव पनकी गूक्तियो वं. तुलनात्मक अध्ययन में श्री मनोहर मनि जी म माथी मारा --"इन्द्रिय-जेत्ता अनेक अस्पष्ट स्थलो पर प्रकाश मिलेगा।
के लिए जंगल क्या और दान्त (दमनशील) व्यक्ति के
लिए पाश्रम पा ? अर्थात् उसके लिए वन-पाथम दोनों अनुवाद की कुछ विशेषताए :
सम है। गेग से अतिक्रान्त मक्त व्यक्ति के लिए पौषध की मात्सुनामी जी ने अपने अनुवाद में मुख्य रूप से प्रो० आवश्यकता नहीं है और शास्त्र के लिए अभेद्यता नहीं है। सुरिंग की पुस्तक Isibhasaiyaim, Ein Jaina-Text वह मवको भेद सकता है ।" इसकी अन्तिम पक्ति (णातिder Frithheit की सहायता ली है। पिसेल की भी कं तस्स भेसज्ज ण वा मत्थस्स भेज्जता ।) का मात्सुसहायता ली गई है। अनुवाद के क्रम में मात्सुनामी जी नामी जी के शब्दों में व्याधि से मुक्ति प्राप्त व्यक्ति के ने टीका प्रादि में जहां कही भी सूत्र का भिन्न पाठान्तर लिए प्रौषध नहीं अथवा शल्य शस्त्र से चीरने-फाड़ने की
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१२०, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
स्थिति नही (के जैसे)" ऐसा अर्थ है। यह अर्थ अधिक वाद संयोग नहीं, बल्कि जापान में जैन धर्म के अध्ययन तर्कसंगत है, कारण शस्त्र के लिए भी प्रभेद्यता है। 'फिर की अावश्यकता का जो अनुभव किया गया है, वह व्यक्ति रोग से मुक्ति के लिए पौषध की अनावश्यकता' और 'शस्त्र विशेष के प्रयास में पूर्तिलाभ कर रहा है। यह जापानी के लिए अभेद्यता नहीं' के बीच वैसी संगति नहीं जो दोनों विद्वानों के लिए उपयोगी है, कारण इसमें उनके अपने एक साथ उपमा का काम करें। वस्तुत: इस गाथा में बौद्ध-धर्म के सम्बन्ध में सामग्री है। साथ ही जैन धर्म के उपयोगिता खतम होने की बात पर बल है-दान्त इन्द्रिय- जिज्ञासुनो, उसके अनुयायियो एवं विद्वानों को भी इसमें जेता के लिए बन और आश्रम की जैसे कि व्याधिमुक्ति लाभ हो सकता है, कारण बौद्ध धर्म की शिक्षा और के लिए प्रौषध की। इस संदर्भ मे शस्त्र के लिए प्रभेद्यता संस्कार में पले होने के कारण मात्सुनामी जी का अनुवाद नही' अर्थ करने से गाथा के अर्थ में असंगति मा जाती है। कही-कही परम्परा के अधिक संनिकट और तर्क पगत है। मात्सुनामी जी का इसिभासियाइ का जापानी अनु
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[पृ० ११७ का शेषांश] धर्म का अत्यधिक विकास हुया। पूर्व में खजुराहो (जिला हा। मूतियों में प्रतिमा लक्षणों की ओर विशेष ध्यान (छतहपुर) इस क्षेत्र का एक केन्द्र बना, जहा मन्दिरो के दिया गया है। अतिरिक्त अनेक कलात्मक मूर्तियां दर्शनीय है। पूर्व तथा पूर्व युगो के अनुरूप बहुसंख्यक मध्यकालीन जैन उत्तर मध्यकाल (१२०० से १८०० ई०) में मध्यप्रदेश ....
कलाका
कलाकृतियां अभिलिखित मिली हैं। उन पर अकित लेखो के भनेक क्षेत्रों में कला का प्रचर विकास हमा। अहार,
से न केवल धार्मिक इतिहास के सम्बन्ध में जानकारी वीना-बारहा, अजयगढ, बानपुरा, मोहेन्द्रा, तेरही, दमोह,
प्राप्त हुई है, अपितु राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा गंधरावल, ग्वालियर, ग्यारसपुर, भानपुरा, बड़ोह-पठारी
भाषात्मक विषयो पर रोचक प्रकाश पड़ा है। मध्यप्रदेश
के विभिन्न सार्वजनिक सगहालयो तथा निजी संग्रहां के प्रादि कितने ही स्थलो से जैन कला की प्रभूत सामग्री
अतिरिक्त कला की विशाल सामग्री आज भी विभिन्न उपलब्ध हुई है। इसे देखने पर पता चलता है कि वास्तु
प्राचीन स्थलों पर बिखरी पड़ी है, जिसकी समुचित सुरक्षा कला तथा मूर्तिकला अनेक रूपों में यहाँ विकसित होती मातकला अनक रूपा म यहा विकसित होता की ओर अब तुरंत ध्यान देना आवश्यक है।
है रही। अधिकांश मन्दिरों का निर्माण नागर शैली पर
विशाल हृदय पाण्डवों को वनवास देकर कौरव खुशियाँ मना रहे थे । कौरव लोग खुशियाँ मनाने गन्धर्वबाग को उपयुक्त समझ कर वहाँ पहुँचे। गन्धर्वो ने बाग में हानि होने की सम्भावना से उन्हें बाग में उत्सव मनाने को मना किया । किन्तु कौरव नहीं माने । तब गन्धर्व उन्हे रोकने को कटिबद्ध हो गए । यह सब देख अन्य कौरव तो भाग गये किन्तु उन्होंने दुर्योधन को पकड़ लिया। जब युधिष्ठिर को यह सूचना मिली तो उन्होंने कहा-हम घर में १०० और ५ हैं किन्तु दूसरों को १०५ हैं। उन्होंने अर्जुन को भेज कर दुर्योधन को छुड़ा लिया।
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मगध और जैन संस्कृति
7 विद्यावारिधि डा. ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
वर्तमान भारतीय संघ के बिहार राज्य की पटना कर इस प्रदेश पर अपना राज्य स्थापित किया था। उसके कमिश्नरी (डिवीजन), विशेषकर उसके पटना एव गय' बहुत समय पश्चात् कुरु की पांचवी पीढी मे उत्पन्न वसु जिलों तथा हजारीबाग एवं शाहाबाद (पारा) जिलों के नामक राजा ने यदु के वंशजो की चेदि शाखा को विजित बहभाग में व्याप्त क्षेत्र, इतिहास में मगध नाम से प्रसिद्धा करके 'चंद्योपरिचर" उपाधि धारण की और विशा हना था। भारतवर्ष के प्राचीन इतिहास में मगध देशक साम्राज्य स्थापित किया जिसका विस्तार मत्स्यदेश पर्यन्त नाम स्वर्ण अक्षरो में अंकित है। जैन पुराणों में वर्णित पूरे मध्य देश पर रहा बताया जाता है। उसकी मृत्यु के ५३ देशों अथवा २५३प्रार्य देशों, महाभारत में उल्लि. उपरांत राज्य उसके पांच पुत्रों में विभक्त हो गया, जिनमें खित १८ महाराज्यों, जैन भगवती सूत्र के १६ जनपदों बहद्रथ ममध के बाहद्रथ वंश का संस्थापक हुमा । संभ
और महावीर-बुद्ध-कालीन षोडश महाजनपदों में मगध वत्तया इसी के समय से देश का मगध नाम भी प्रसिद्ध परिगणित है । स्थानांग एवं निशीथ सूत्रों में उल्लिखित हना। ऐसा भी संकेत मिलता है कि मग नामक राजा ने भारत की दशा महाराजधानियों और बौद्ध 'दीर्घनिकाय' उस स्थान पर, जो कालान्तर में कुण्डलपुर, नालन्दा और के 'महासुदरसन सुत्त' में वणित छ: महानगरियों में मगध बड़ागांव कहलाया, अपनी राजधानी बनाई थी जिसका की प्रसिद्ध राजधानी राजगृह सम्मिलित है।
नाम उसने सम्भवतः मगधपुर रखा । तदनन्तर उससे सीमा एवं विस्तार :
नातिदूर पंच पहाड़ियों से घिर सुरम्य एवं सुरक्षित भू-भाग सामान्यतया मगध जनपद की उत्तरी सीमा
में उसने अपना दुर्ग एवं राजमहल बनाये और वह स्थान गंगानदी बनाती थी, जिसके पार (उत्तरी बिहार में)
राजगह कहलाया तथा शनैः शनैः वही देश की राजधानी विदेह जनपद अवस्थित था। मिथिला और वैशाली
बन गया। इसी मग के नाम पर देश की संज्ञा मगध हुई । उसकी प्रसिद्ध नगरियां थीं। मगध के पूर्व मे अंग देश
यह सम्भव है कि उपरोक्त बृहद्रय या उसके पुत्र का था जिसकी राजधानी चम्पापूरी थी। चम्पा प्रपरनाम
अथवा जरासंध का ही मूल या तत: प्रसिद्ध नाम मग रही चंदना नदी इन दोनों जनपदों को पृथक करती थी।
हो । राजधानी तो सम्भवतया वसु-चैद्योपरिचर के समय पड़ोसी अंग देश के साथ मगध के कुछ ऐसे घनिष्ठ सम्बन्ध
से ही राजगृह हो गयी थी। विभिन्न जनाजन अनुश्रुतियों
में पांच पहाड़ियों से घिरी इस महानगरी के अपरनाम रहे कि बहुधा अंग मगध का एक युगल के रूप में भी उल्लेख हा है। मगध के दक्षिण में मणि और मलय नाम
गिरिव्रज, पंचशैलपुर, मगधपुर, चणकपुर, ऋषभपुर, क्षितिके दो छोटे-छोटे जनपद थे और पश्चिम में काशी जनपद,
प्रतिष्ठित और कुशाग्रपुर प्राप्त होते है । उक्त पहाड़ियों उत्तर-पश्चिम में कोशल अपर नाम कुणाल देश (राज
के नाम विपुलगिरि (विपुलाचल), रत्नगिरि, उदयगिरि, घानी श्रावस्ती) और दक्षिण-पश्चिम में वत्सदेश (राज
स्वर्णगिरि एवं वैभारगिरि थे। कहीं-कही इनके नामांतर घानी कौशाम्बी) अवस्थित थे।
भी मिलते हैं। महाभारत-काल में उपरोक्त बृहद्रथ का
वंशज, जिसे कही-कही वसु का पौत्र, प्रत: बृहद्रथ का पुत्र इतिहास :
कहा है, प्रबल प्रतापी राजगृह नरेश जरासंध था। ___ इस प्रदेश की सर्व-प्राचीन नगरी मंभवतया गया इस प्रकार मगधराज्य और राजधानी राजगृह का थी, जिसे ब्राह्मणीय पुराणों के अनुसार, जन्तु की पांचवीं अभ्युदय पुराणकाल में ही निष्पन्न हो चुका था, परन्तु या छठी पीढ़ी में उत्पन्न गय नामक राजा ने बसा- शुद्ध इतिहास काल में भी मगध साम्राज्य को ही भारत
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भनेकान्त
वर्ष का प्रथम साम्राज्य और महानगरी राजगृह को उसका तक कह दिया गया कि काशी मे कोई कौवा भी मरे तो केन्द्र बनने का श्रेय प्राप्त हुमा। पांचवीं शती ईसा पूर्व के सीधा बैकुण्ठ जाय और मगध मे मनुष्य भी मरे तो गर्दभप्रारम्भ में ही राजधानी राजगृह से नवीन नगर पाटलि. योनि में जन्म ले । मगधवासियों को अयज्वयन, अकर्म, पुत्र (पटना), अपरनाम कुसुमपुर, पुष्पपुर या पुष्पभद्र में अन्य व्रत, देवपीयु आदि अपशब्दो से सम्बोधित किया जाता स्थानान्तरित हो गयी थी और अगले एक सहस्राब्द था। उनके क्षत्रियों को घृणापूर्वक व्रात्य-क्षत्रिय, क्षात्रपर्यन्त-बीच के तीन-चार शतियों के अन्तराल को बंधु, वृषल आदि संज्ञाएं दी जाती थीं। उन्हे मध्यदेशीय छोड़ कर-वही भारतवर्ष की सर्वोपरि राज्य-सत्ता का वैदिक आर्य क्षत्रियो से बहुत नीचा समझा जाता था। केन्द्र रही। शिशुनाग, शैशुनाक, नन्द, मौर्य, शुग और गुप्त इतना ही नही, मगध के ब्राह्मणो को भी पश्चिमी ब्राह्मणों सम्राटों की प्रधान राजधानी मगध की महानगरी ही रही। की अपेक्षा अति निम्न कोटि का समझा जाता था। उनके वैदिक साहित्य और मगध :
विषय मे धारणा थी कि वे वेद और वेदानुमोदित यज्ञयाग ऐसे विलक्षण ऐतिहा सिक महत्व के होते एवं कर्मकाण्ड को सहज ही छोड़ देते है । हुए भी प्राचीन ब्राह्मणीय साहित्य एवं अनुश्रुतियों में मगध और मगधवासियों की निन्दा भर्त्सना, श्रमण-संस्कृति का केन्द्र-मगध : तिरस्कार एवं उपेक्षा ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद कारण स्पष्ट है कि भारतवर्ष के प्राचीन सप्तखण्डों में मगध नाम का उल्लेख नहीं मिलता किन्तु एक में से प्राच्य खण्ड से मूचित भू-भाग, जिसमे मगध और मंत्र (३१५३११४) में कहा गया है कि "कीकटों के देश में उसके पडोसी विदेह, अंग, बंग, कलिंग आदि जनपद विद्यवे क्या करते है ? जहाँ गउएं सोमयाग के लिए भी पर्याप्त मान थे, वैदिक आर्यों की सभ्यता, संस्कृति और धर्म से दूध नहीं देतीं। अत: हे मघवन प्रमंगद (अवैदिक) नैचा- बहुत पीछे के समय तक अछता रहता पाया था । न केवल शाख (नीच, अनार्य) लोगों के (मध्यदेश वैदिक आर्यों वहाँ के निवासी वैदिक प्रार्य ब्राह्मणो एवं क्षत्रियों की की निवास भूमि के) पूर्व दिशा में स्थित उस प्रदेश को सन्तति में नहीं थे, वे वातराना, अर्हत, व्रात्य, निर्ग्रन्थ, अपने हुंकार से भर दे।" स्पष्ट ही है कि कीकट, प्रमंगद श्रमण तीर्थकरों की परम्परा के उपासक तथा अनुयायी, और नचाशाख शब्दों से मगध और मगधवासियों की ओर इतिहासातीत ही नही, अनुमानातीत काल से रहते आये संकेत है। अथर्व वेद में एक स्थान (५:२३११४) मे तो थे । उनकी सभ्यता भी नाग, यक्ष, वज्जि, लिच्छवि, ज्वरनाशनदेव से यह प्रार्थना की गयी है कि वह मगध के ज्ञातक, झल्ल, मल्ल, मोरिय, कोलिय, भंगि प्रादि अनार्य निवासियों को (मगधेभ्यः) ज्वर से पीडित कर दे । अन्यत्र प्रवैदिक तत्वों द्वारा संपोषित एवं पल्लवित हुई थी और (१५।२।४५) "प्रात्य" का प्रिय धाम प्राची दिशा, उसकी ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, शिल्प प्रादि की दृष्टि से वैदिक पुंश्चली (रखैल) श्रद्धा और मित्र मागध (मगधवासी) प्रार्य सभ्यता की अपेक्षा श्रेष्ठतर एवं नागरिक सभ्यता बताए गये हैं। शतपथ ब्राह्मण (१४,१०) में मागधों को थी। चिरकाल तक नाग जाति का प्राधान्य रहने के कारण ब्राह्मण या वैदिक धर्म के बाहर बताया गया है। कात्या- यह नाग सभ्यता भी कहलाई । नगर, नागर, नागरी, नागपन (२२१४१२२) पौर लाट्यायन (१६।२८) के श्रीत रिक प्रादि शब्द, स्थापत्य की नागर शैली, भाषा की नागरी सूत्रों में कहा गया है कि व्रात्य धन या तो पतित ब्राह्मण लिपि उसी सभ्यता की देन हैं। स्वयं प्राचीन युग की को दिया जाय या मगध के ब्राह्मणों को दिया जाय । मनु- भारतीय जनभाषा प्राकृत और नागभाषा शब्द पर्यायस्मृति प्रादि अन्य अनेक ब्राह्मणीय ग्रन्थों से स्पष्ट है कि वाची रहे हैं । यही भाषा चिरकाल तक मागधी या अर्घमध्यदेश (प्राय: वर्तमान उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, मागधी कहलाई। मागष या नाग सभ्यता का प्रसार होने पंजाब) के वैदिक आर्य मगध को पाप भूमि कहते थे और और प्रभावक्षेत्र बढ़ने पर यह अर्धमागधी प्राकृत प्रायः उस प्रदेश में 'गमनागमन करने का निषेध करते थे; यहाँ पूरे भारत की लोक-भाषा वन गई थी। श्रमण तीथंकरों
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मग मोर जैन संस्कृति
१३६ का उपदेश उसी लोक भाषा मे होता था।
उनका विहार इस प्राच्यखंड में भी हुमा था। वह चौहोस श्रमण संस्कृति की विशेषताएँ :
तीर्थकरों में प्रथम थे। बाइसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि का
निर्वाण सौराष्ट्र के उज्जयन्त (गिरनार) पर्वत पर हमा इस धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा के प्रस्तोता जितेन्द्रिय होने के कारण जिन या जिनेन्द्र, समस्त पूज्य
था। शेष वाइस तीर्थंकरो की निर्वाण-भूमियां विहार प्रांत गुणों से युक्त होने के कारण अर्हत्, दिगम्बर या दिग्वास
में ही है, जिनमे से १३वें तीर्थकर वासुपूज्य का निर्वाणरहने के कारण बातरशन मुनि, व्रतपूर्वक सदाचरण के
स्थल भागलपुर जिले का मन्दारगिरि (चम्पापुर) है और मार्ग पर ग्रारूढ होने के कारण व्रात्य, समस्त अन्तरग एवं
मन्तिम तीर्थकर वर्धमान महावीर का पटना जिले का बहिरंग से मुक्त होने के कारण निर्ग्रन्थ, पूर्ण समत्व के
पावापुर (मध्यमा पावा या अपावापुरी) है। शेष बोस साधक एवं उद्घोषक होने के कारण समण, स्वेच्छा एवं
तीर्थकरों का निर्वाण इसी प्रदेश के हजारीबाग जिले में श्रमपूर्वक तप, त्याग, सयम का मार्ग अपनाने के कारण
स्थित समेदाचल (समेद शिखर या पारसनाथ पर्वत) पर श्रमण, संसार को दु.खरूप जान कर और मान कर उससे
हुमा था। नौवे तीर्थकर पुष्पदन्त की जन्मभूमि काकन्दी
थी। कुछ विद्वान मगेर जिले के काकन नामक स्थान से पार होने के लिए धर्म रूपी तीर्थ का उद्घाटन करने के
उसका समीकरण करते है। दसवें तीर्थकर शीतलनाथ की कारण तीर्थकर कहलाते थे । अहिंसा पर आधारित यह परम्परा निवृति-प्रधान थी। मनुष्य-मनुष्य के बीच किसी
जन्मभूमि भदिलपुर या भद्रिकावती थी-कुछ विद्वान प्रकार का ऊंच-नीच मादि भेद-भाव इसे प्रभीष्ट नही था।
भद्दिय की पहिचान मुंगेर (मुद्गलगिरि) से करते हैं, सभी प्राणियो का हित सपादन इस सर्वोदय मार्ग का प्रयो.
और कुछ मद्रिलपुर की पहिचान हजारीबाग जिले के जन था । इसकी दृष्टि उदार, सहिष्णु और अनेकान्तिक ।
मदिया नामक ग्राम से करते है जो किसी समय मलय थी, कदाग्रह उससे दूर था। प्राज्ञा-प्रधानता की अपेक्षा
जनपद की राजधानी थी। काकन्दी पोर मदिलपुर की परीक्षा-प्रधानता पर वह बल देती थी। स्वपुरुषार्थ द्वारा
पहचान मिहार के बाहर अन्य प्रदेशों में भी की गयी है। परम प्राप्तव्य की प्राप्ति उसका लक्ष्य था। वह वेदो. बारहवं तीर्थकर वासुपूज्य की जन्मभूमि भागलपुर जिसे याज्ञिक हिसा और वैदिक कर्म-काण्ड की विरोधी थी। का चम्पापुर था । उन्नीसवें तीर्थकर मल्लिनाथ की तथा महाभारतोत्तर काल के श्रमण-धर्म-पुनरुत्थान मान्दोलन का २१व ताथकर नामनाथ का जन्म भूमि उत्तरी बिहार की प्रधान केन्द्र मगध रहा और तदनन्तर लगभग दो सहस्र मिथिला नगरी थी। बीसवें तीर्थकर मनिसुव्रत की जन्मवर्ष पर्यन्त इस प्रदेश को उसका प्रमुख गढ़ रहने का भूमि स्वय राजगृह नगरी थी और अन्तिम तीर्थकर महा. सौभाग्य प्राप्त रहा। अतएव कतिपय आधुनिक विद्वानों वीर का जन्म तो उत्तरी बिहार मे, विदेह देश एवं शक्ति ने उक्त श्रमण या जैन सस्कृति और उसके धर्म को मगध शाली वज्जि गणतन्त्र की राजधानी महानगरी वैशाली के संस्कृति और मागध धर्म नाम भी दिए है।
एक उपनगर (कुण्डलपुर, कुण्डग्राम, बसुकुण्ड या क्षत्रिय
कुण्ड) में हुआ था, किन्तु उन्हे केवलज्ञान की संप्राप्ति श्रमण परम्परा एवं मगध :
दक्षिणी बिहार मे ही ऋजुकूला नदी के तटवर्ती जम्भिकइस परम्परा के प्रथम प्रस्तोता प्रादिदेव ऋषभ थे, ग्राम के बाहर हई थी। उनकी प्रथम देशना और धर्मचक्र जो स्वयम्भू महादेव, ब्रह्मा और प्रजापति भी कहलाए। प्रवर्तन मगध की राजधानी राजगृह के विपुलाचल पर ऋग्वेद के कई मंत्रों में उनके प्रत्यक्ष एवं परोक्ष उल्लेख हना था और निर्वाण पटना जिले में स्थित पावापुर में है और प्रागेतिहासिक सिंधुघाटी सभ्यता के अवशेषो में हुआ माना जाता है। उनके इन्द्रभूति गौतम प्रावि ग्यारह उस युग में उनकी पूजा के प्रचलन के संकेत पाये जाते गणधर भी परम विद्वान एवं तेजस्वी ब्राह्मण ही थे। मगध है। उनका जन्म अयोध्या मे, केवलज्ञान प्रयाग मे अक्षय- नरेश बिम्बिसार श्रेणिक उनके श्रावक संघ का मुखिया वट के नीचे, और निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुए थे, किंतु था, उसकी पट्टराणी चेलना उनके श्राविका संघ की
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अनेकान्त
मुखिया थी, और उसके अभयकुमार, वारिपेण, मेघकुमार नैतिक प्रतिद्वन्द्वी था और अन्तत. कृष्ण के छल-बल का प्रादि दस पुत्र उनके परम शिष्य थे और दीक्षित होकर उसे शिकार होना पड़ा। महाभारतोत्तर काल में वैदिक मुनि बने थे । प्रधान गणधर गौतम की निर्वाण भूमि धर्म एव संस्कृति का तथा वैदिक प्रार्य क्षत्रियो की राज्यगुणावा (मतान्तर से विपूलगिरि) भी मगध में ही थी। सत्ता एव संख्या में द्रत वेग से हास हा, तो श्रमण धर्म उनकी शिष्य परम्परा में लगभग दो सौ वर्ष पर्यन्त जितने पुनरुत्थान-पान्दोलन ने अभतपूर्व बल पकड़ा और नाग संघाचार्य हुए, वे प्राय सभी मगध निवासी थे । भगवान प्रभति अनेक प्रागार्य एवं अनार्य किन्तु देशज सत्ताएं पूरे की द्वादशागवासी (जैन श्रुतागम) की वांचना के लिए देश में यत्र-तत्र उभर उठी । अन्तिम पौराणिक चक्रवर्ती प्रथम सगीति भी मगध की राजधानी पाटलिपुत्र मे ही ब्रह्मदत्त भी इसी जाति का था, और तेइसवें तीर्थकर हुई थी। ऋषभादि महावीर पर्यन्त प्रायः चौबीसों ही पार्श्व का जन्म भी काशी के एक नाग क्षत्रिय या उरग तीर्थकरो का तथा उपरातकाल मे भी चिरकाल पर्यन्त वश मे हुआ था। उनके समय में उक्त आन्दोलन अपने जैन श्रमणो का इस प्रदेश में सतत बिहार होते रहने से चरम शिखर पर था और मगध देश उनका प्रिय बिहार ही वह बिहार नाम से प्रसिद्ध हुआ।
क्षेत्र था। उनके निर्वाण (ईसा पूर्व ७७७) के लगभग डेढ़
सौ वर्ष उपरात श्रमण परम्परा में यह विश्वास वल पकड़ मगध में श्रमण-वैदिक-संघर्ष :
रहा था कि अन्तिम तीर्थकर का उदय होने वाला है। पूर्व काल के प्रसिद्ध नरेश वसु और जरासघ के जैनसाहित्य मे विस्तृत विवरण प्राप्त होते है जिनका ब्रह्मणीय विविध श्रमण-सम्प्रदायों का उदय : विवरणो के साथ स्थूलतः अद्भुत सादृश्य है । वसु मूलतः फलस्वरूप ईसा पूर्व छठी शती में श्रमण परम्परा में अहिंसा धर्म का अनुयायी था, परन्तु अपने सहाध्यायी उत्पन्न अनेक चिन्तको ने उक्त प्रतिम तीर्थकर होने का नारद के विपक्ष मे दूसरे सहाध्यायपर्वत का पक्ष लेकर दावा किया। उनमे मक्खलिगोसाल, पूरणकास्सप, पकुभ याज्ञिक हिसा का समर्थन करने के कारण पतन को प्राप्त कच्चायन, अजित केशकम्बलिन, संजय बेलट्ठि पुत्र, शाक्य हा था । यह इस प्रान्त मे वैदिक प्रभाव के प्रथम प्रवेश पुत्र गौतम गुद्ध पोर निग्रंथ ज्ञातपुर (निगट नातपुत्त) का सकेत था । इस घटना के समय मगध के तीर्थकर वर्द्धमान महावीर के नाम तो प्राप्त ही होते है। ये सब मुनिसुव्रत के निर्वाण को पर्याप्त समय बीत चुका था । मगध अथवा उसके निकटवर्ती प्रदेशों के निवासी थे और अगले तीर्थकर मिथिला के नमिनाथ विदेह के जनकों के यह प्राचीन देश ही उनका प्रधान कार्यक्षेत्र था। इतना ही पूर्वज थे । उनके अहिसा प्रधान आध्यात्मिक उपदेशों के नही स्वय ब्राह्मण परपरा के सांख्य-दर्शन प्रणेता कपिलप्रभाव के फलस्वरूप इस प्रान्त मे वैदिक धर्म के प्रभाव मे मुनि और योगदर्शन के पुरस्कर्ता पतजलि ऋषि भी मगधप्राये क्षत्रिय मनीषियो ने याज्ञिक हिसा एवं वैदिक कर्म- वासी ही रहे बताए जाते है-ये दोनों दर्शन श्रमणकाण्ड का विरोध किया तथा प्रौपनिषदिक प्रात्मविद्या का विचारधारा से प्रभावित भी रहे प्रतीत होते है । मक्खलिविकास एवं प्रचार किया । अगले तीर्थकर अरिष्टनेमि गोसाल का प्राजीविक सम्प्रदाय लगभग डेढ़ सहस्र वर्ष महाभारत काल में हुए और नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई पर्यन्त जीवित रहकर जैन-परम्परा में ही समाविष्ट हो थे । श्रमण धर्म पुनरुत्थान-पान्दोलन के वह प्रस्तोता थे। गया । बौद्ध धर्म के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदाय अल्प-स्थायी इसी समय मगध का प्रबल प्रतापी नरेश प्रतिनारायण रहे । वौद्धधर्म ने भारत देश की सीमाओं के बाहर पहुंचजरासंध हुआ, जिसके पातक से त्रस्त होकर भी यादवगण कर अद्भुत विस्तार प्राप्त किया । बुद्ध का जन्म मगध अपने शरसेन देश का परित्याग करके पश्चिम तटवर्ती के बाहर शाक्य देश मे हुआ था किन्तु उन्होंने सत्यान्वेषण द्वारकापुरी में जा बसे थे। था तो जरासंध भी श्रमणों के के अपने प्रयोग और साधना मगध में ही किए, यही गया अहिसा धर्म का ही अनुयायी, इसलिए ब्राह्मणीय साहित्य में उन्होंने बोधि प्राप्त की और मगध विदेह प्रादि जनमे उसकी निन्दा हुई, साथ ही वह कृष्ण का प्रबल राज- पदों को अपने कार्य-क्षेत्र के भीतर भी रखा, तथापि
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मगध और जैन संस्कृति
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उन्होंने अपना धर्म-चक्र प्रवर्तन गया से चलकर वाराणसी के प्रारमण ने (१२वी शती ई० के लगभग) इस प्रदेश के निकट सारनाथ में किया। उन्होने अपने उपदेशो की में बौद्धो को नामशेष कर दिया। भाषा प्राकृत का पानि रूप रखा जिसे श्रावस्त भाषा परन्तु जैनो ने, अपनी पुण्यभमि मगध को कभी (उत्तरी कोसल की राजधानी श्रावस्ती की भाषा ) भा विस्मत नही किया । उसका चप्पा-चप्पा जैनों के सांस्कृकहा जाता है। उनका स्वय का प्रभाव-क्षेत्र भी मगध तिक इतिहास से रगा है। राजगह, पंच पहाड़ी, पावापुर, विदेह मादि प्राच्य देशो की अपेक्षा मध्यदेश अधिक रहा। ...
नालन्दा (बड़ागाव), गया, गोरथगिरि, (चराचर पर्वत) वही मल्ल भूमि के कुशिनगर मे इनका परिनिर्वाण हुआ। जभिकग्राम, काकदी, भद्दिव, गुणावा, नवादा, बिहार इसके विपरीत. तीर्थकर महावीर की द्वादशवीय साधना शरीफ). सम्मेदशिखर. पाटलिपत्र (पटना) मरमार. का अधिकांश मगध मे ही व्यतीत हुआ । यही उन्हें केवल- नगर (मसाद), पचार पहाड़, श्रावक पर्वत, चौसा, आरा ज्ञान की सम्प्राप्ति हुई। यहो उनका धर्मचक्र प्रवर्तन
प्रादि अनेकों स्थानों में प्राचीन एवं मध्यकालीन जैन पुराहया। इसी प्रदेश में तीस वर्षीय तीर्थकरत्व काल का तत्त्वावशेष, जिन मूर्तियों, पवित्र स्मारक प्रादि प्राप्त है। बहु भाग बीता और यही उन्होंने निर्वाण लाभ किया।
इनमे अधिकांश स्थल तीर्थक्षेत्रों के रूप में पूज्यनीय है। उनके उपदेशो की भाषा भी मागधी का वह अर्धमागधी
भारतवर्ष के कोने कोने से प्रतिवर्ष सहस्रो जैन यात्री रूप था जिसे अन्य पास-पास के प्रदेश की बोलियो के
मगध के इन पवित्र तीर्थ-स्थानो की यात्रा के लिए चिरसमचित मिश्रण के कारण एक अति विस्तृत भूभाग एव
काल से आते रहे है। जन समुदाय को लोकभाषा का स्थान प्राप्त हुआ।
सक्षेप मे, मगध देश का जैन धर्म और जैन संस्कृति जैन धर्म एवं मगध .
के साथ अत्यन्त चिरकालीन, अटुट एवं घनिष्ट सम्बन्ध मगध के शिशनागवंशी ( बिबिसार, अजातशत्रु, रहता आया है। एक से पृथक् करके दूसरे के विषय में उदायी आदि) शिशुनाग नदिवर्द्धन, महानन्दी आदि, नंद- सोचा-समझा ही नही जा सकता। वशी और मौर्यवनी सम्राट जी सभी व्रात्य क्षत्रिय थे, मगध का अस्तित्व और इतिहास उसकी मागध महावीर के धर्म के अनुयायी एव प्रबल पोषक रहे । उनके संस्कृति, श्रमण परम्परा और जैनधर्म के अस्तित्व एव अभयकुमार, वर्धकार, शकटार, राक्षस और चाणक्य आदि इतिहास के अभिन्न अंग है; उन दोनों के प्रभ्युदय अथवा महामन्त्री भी मगध निवासी तथा जैन धर्म के अनुयायी उत्थान और पतन भी अन्योन्याश्रय रहे है। मगध ने थे। अशोक मौर्य के समय में श्रमण परम्परा के ही बौद्ध यदि जैनधर्म को पोषण दिया और उसे उसका वर्तमान सम्प्रदाय का प्रचार बढ़ा तो मगध के सिंहासन पर अशोक ऐतिहासिक रूप दिया तो जैनधर्म ने भी मगध का सर्वतो. के उत्तराधिकारी दशरथ से आजीविक सम्प्रदाय का मखी उत्कर्ष-साधन किया और उसे विश्व-विश्रत बना विशेष प्रश्रय मिला। सेनापति पुष्पमित्र शंग ने अपने दिया। स्वामी अंतिम मौर्य नरेश का वध करके मगध का सिहा
सहायक संदर्भ सूची सन हस्तगत करके ब्राह्मण धर्म के पुनरुद्धार का प्रयत्न (प्रयोजन भूत प्राचीन जैन, ब्राह्मणीय एव बौद्ध ग्रंथों किया और श्रमणों पर अत्याचार किया, तो जैन सम्राट् अतिरिक्त) कलिग-चक्रवर्ती महामेघवाहन खारवेल का उसे कोपभाजन कामता प्रसाद जैन-दी रिलीजन प्राव तीर्थराज बनना पड़ा। इसके पश्चात् मगध में सामान्यतया सभी
(एटा, १९६४) श्रमण सम्प्रदायों को और विशेषकर जैनधर्म को फिर कृष्ण दत्त वाजपेयी---दी ज्योमिटिकल इनसाइक्लोपीडिया कभी राज्याश्रय प्राप्त नही हुमा । पूर्वमध्य काल में पाल
प्राव एशेंट ऐंड मेडिवल इंडिया, वंशी नरेशो के समय में बौद्धधर्म को पुन: प्रभूत प्रोत्सा
(वाराणसी, १६५२ ) हन मिला, किन्तु उनके उपरान्त ही, विशेषकर मुसलमानो
(शेष पृ० १३२ पर
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महावीर स्वामी : स्मृति के झरोखे मे
श्री शिवकुमार नामदेव, डिण्डोरी (म० प्र०) सम्पूर्ण विश्व को त्याग, अहिमा और सत्य की राह विचार था कि धार्मिक उपदेशकों या संतों की मूर्तियाँ मानव दिखाने वाले कुण्डलपूर के राजकुमार भगवान् महावीर को सत्कार्य की ओर प्रेरित करती है, अतएव उनकी चौबीसवें तीर्थकर के रूप में अवतरित हुए थे। उनकी मूर्तियों को ऐसे धार्मिक स्थान पर स्थापित किया गया, पुण्य जीवनगाथा दीन-हीनों में नवजीवन, असंयमी एव जिस स्थान से महान पुरुषों का सम्बन्ध रहा हो। जैनकामक जीवों मे संयम और निष्ठा पैदा कर देती है। प्रतिमानों में तीर्थकर के अतिरिक्त सभी मूर्तियां गौण जीवन-मरण मुख्य नहीं है । मुख्य है-पावागमन से मुक्ति। समझी जाती है। प्राज जो कुछ हम भोग रहे हैं, वह आज की कमाई नही,
___ भारतीय शिल्पकला मे पात्मजयी भगवान महावीर पूर्व कर्मों का प्रतिफल है, लेकिन भविष्य में क्या होगा वह आज पर निर्भर है। भगवान महावीर की ये शिक्षायें का प्रतिमाय सर्वत्र उपलब्ध होती है। महावीर प्रतिमायें आज मानव को अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने हेतु पूर्णतः नग्न, नासाग्र दृष्टि और कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी प्रेरित कर रही है।
(खड्गासन) या ध्यान मुद्रा में पासीन (पद्मासनस्थ)
होती थी। महावीर बिंबों में यदा-कदा वस्त्रों का कुछ शिल्प दृष्टि
अंश भी प्रदर्शित किया जाता था, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की बताई गई है-कृत्रिम एवं
से सम्बन्धित होने का सूचक था। अधिकाश प्रतिमाओं अकृत्रिम । प्रकृत्रिम प्रतिमायें सम्पूर्ण लोकों में फैली हुई
के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिह्नाकित होने के साथ ही साथ है एव कृत्रिम प्रतिमायें मानव निर्मित है। इस कल्प काल में सबसे पहले ऋषभदेव के पुत्र प्रथम सार्वभौम सम्राट
हस्त-तल एवं सिंहासन पर धर्मचक और उष्णीष तथा भरत चक्रवर्ती ने जिन प्रतिमानों की स्थापना की थी।
ऊर्णा के चिह्न भी प्राप्त होते है । साथ ही प्रभावली एवं
दोनो पावों में शासन देवताओं के अतिरिक्त अन्य कई सहाजिस समय ऋषभदेव सर्वज्ञ होकर इस धरातल को पवित्र
यक प्राकृतियाँ भी उत्कीर्ण की जाने लगीं। सिहासन के दोनों करने लगे, उस समय भरत चक्रवर्ती ने तोरणों और
पावों पर सिंह एवं उसके मध्य में उनका विशिष्ट लांछन घंटानों पर जिन प्रतिमायें बनवा कर भगवान का स्मारक
सिंह उत्कीर्ण होता था। उनके कान स्कंधों तक लम्बे और कायम किया था। तत्पश्चात् उन्होंने ही भगवान के
भुजायें घुटनों तक प्रसारित होती थीं। निर्वाण घाम कैलाश पर्वत पर तीथंकरों की चौबीस स्वर्णमयी प्रतिमायें निर्मित कराई थीं।
भगवान महावीर का विशिष्ट लांछन सिंह और जिस भारतीय कला के आधार पर वह निश्चित रूप से कहा वृक्ष के नीचे उन्होंने कैवल्य प्राप्त किया था, वह शाल जा सकता है कि जैन मत में पूजा निमित्त प्रतिमायें प्रत्यंत का वृक्ष है। इनके यक्ष-यक्षिणी क्रमशः मातंग एवं अपरा प्राचीन काल में निर्मित हई।'जैन मतानुयायियो का या सिद्धायिका है । अपराजितपृच्छा एवं वास्तसार में यक्षों १. प्रादिपुराण १-८, जैन सिद्धांत भास्कर, भाग २, किरण ३. जैन मत में मूर्तिपूजा की प्राचीनता एवं विकास : १, सन १९३२, पृ०८।
शिवकुमार नामदेव, भनेकात, मई १९७४ । २. कामता प्रसाद जैन : जैन सिद्धांत भास्कर, भाग २, ४. 'तीर्थङ्कर प्रतिमामों की विशेषतायें' : शिवकुमार किरण १, सन १८३२, पृ०८।
नामदेव, 'श्रमण', फरवरी १६७४, पृ० २४.२६ ।
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महावीर स्वामी-स्मृति के झरोखे में
१२७
एवं यक्षिणियों के वाहन एवं लांछन के विषय मे मतैक्य त्मक दष्टि से प्रति सुन्दर है। जैन धर्म में प्रतीकोपासना नहीं है । अपर जितपृच्छा के अनुसार महावीर का वर्ण की सतत प्रवाही धारा इनसे सिद्ध होती है पौर किस कांचन है।
प्रकार मूर्ति-पूजन का समन्वय उम धारा के साथ हुआ है कुण्डलपुर के गजकुमार, समूचे विश्व को त्याग, यह भी विदित होता है। मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त अहिसा एव सत्य की राह दिखाने वाले, जैन धर्म के प्राण, अमोहिन द्वारा प्रदत्त मायागपट्ट की तिथि कला-समीक्षकों प्रातः स्मरणीय, चौबीसवें तीर्थकर प्रात्मवशी महावीर की ने ई० पू० में स्थिर की है । उक्त प्रायागपट्ट वर्तुलाकार प्रतिमा भारतीय शिल्पकला मे ईस्वी सन पूर्व मे निमित अर्थार्थ शिलापट्ट है जिसके मध्य भाग में भगवान महावीर प्राप्त नही होती है। इसका एकमात्र उदाहरण पायाग- की ध्यान मुद्रा मे लघु प्रतिमा दृष्टिगोचर होती है। उसके पट्ट के मध्य उत्कीर्ण प्राकृति में पाया जाता है। उत्कीर्ण चतुर्दिक जनमत के निम्नाकित प्रष्ट मागलिक चिह्न प्राकृति में भगवान महावीर ध्यानमद्रा में अकित किये उत्कीर्ण है : (१) स्वस्तिक, (२) दर्पण, (३) भष्म पात्र, गए है।
(४) बेत की तिपाई (भद्रासन), (५-६) दो मछलियाँ, भगवान मावीर का समकालीन उज्जयिनी नरेश (७) पुष्प माला, (८) पुस्तक । चण्डप्रद्योत था। चण्डप्रद्योत जैन मतानुयायी था। ऐसा प्रोपपातिक सूत्र (म० ३१) मे अष्टमांगलिक चिह्नों उल्लेख प्राप्त होता है कि प्रद्योत ने महावीर की एक के नाम इस प्रकार हैप्रतिमा दशपुर (अाधुनिक मंदसौर, म० प्र०) में प्रति
स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्द्धमानक, भद्रासन, प्ठित करने के लिए एव उसकी सेवा प्रादि के लिए बारह
कलश, दर्पण तथा मत्स्य-युग्म । सौ ग्राम दान में दिए थे। चण्डप्रद्योत ने ऐसी ही एक डा. स्मिथ ने मथुरा से प्राप्त कुछ जैन मूर्तियो की और जीवन्त स्वामी की प्रतिमा बनवायी थी तथा उसने पादपीठ पर अकित सिंह को भगवान महावीर का लाछन उसकी प्रतिष्ठा उज्जैन में करवायी थी। सम्राट अशोक के मान कर उनका समीकरण महावीर से किया है। परन्तु वशज मौर्य नरेश सम्प्रति का जैन माहित्य मे वही स्थान डा. स्मिथ का यह समीकरण उचित प्रतीत नहीं होता है जो स्थान सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म में है। परि- है। इसका कारण यह है कि पादपीठ पर अकित सिह, शिष्ट पर्व के वर्णन से ज्ञात होता है कि सम्प्रति के समय मिहामन के प्रतीक है न कि महावीर के प्रतीक सिह के। उज्जयिनी मे जीवत स्वामी की प्रतिमा की रथयात्रा यदि वे महावीर के लाछन होते तो उन्हे मूर्तितल के मध्य निकली थी। यद्यपि उक्त काल की महावीर प्रतिमायें प्राज भाग मे उत्कीर्ण किया जाता, जैसा कि हम परवर्तीयुगीन तक उपलब्ध नही हुई है किन्तु साहित्यिक वर्णन से उक्त प्रतिमानो मे पाते है। विषय पर प्रकाश पड़ता है।
कृषाणकालीन मथुग की कला में तीर्थंकरों के कुषाणयुगीन जैन प्रतिमाये बौद्ध मूर्तियो के ही सदश लांछन नहीं पाये जाते, जिनसे कानातर में उनकी पहचान है। मथरा के कंकाली टीले के उत्खनन से उपलब्ध अमो. की जाती थी। केवल ऋषभनाथ के स्कन्धों पर खुले हुए हिन द्वारा प्रदत्त पायागपट्र तथा तीर्थंकर प्रतिमाएँ उल्ले- केशो की लटें और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्पफणों खनीय हैं। प्रायागपट पूजा-शिलायें थी जिनकी परम्परा का प्राटोप बनाया गया है । इस प्रकार, कुषाण युग में अति प्राच्य है। ये शिलायें प्रतीकात्मक और तीर्थकर. तीर्थकरों के विभिन्न प्रतीको का परिज्ञान न हो सका था। प्रतिमा-संयुक्त दोनों प्रकार की है। जैन मायाग-पट्ट कला- विभिन्न तीर्थंकरो को पहचानने के लिए चौकियों पर ५. प्राचीन भारतीय मूर्ति विज्ञान : वासुदेव उपाध्याय, ७. परिशिष्ट पर्व, १११२३ ६४। चित्रफलक ८१।
5. free: Jain Stupa and other Antiquities of
Mathura, reprint Varanasi 1969 PIS ६. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, पर्व १०, सर्ग २ ।
XCIII, XCIV.
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१२८, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
अकित लेखों में नाम का उल्लंख ही पर्याप्त था। कालांतर तुल्य मूर्तियों को स्थान दिया गया था। गुप्त-युग की में प्रतिमा की चौकी पर उनका लांछन उत्कीर्ण किया प्रतिमाओं के प्राभामण्डल पर दो मालाधारी विद्याधर जाने लगा।
दिखलाई पड़ते हैं। प्रभाचक्र का अंकन भी प्रतिमानों को कुषाणकालीन भगवान महावीर की एक अन्य प्रतिमा
गुप्त-कालीन घोपित करता है। महावीर की प्रतिमायें
गुप्त कालान जो मथुरा संग्रहालय (मथुरा संग्रहालय-जी १) में सुर- आसन-मुद्रा में मध्य प्रदेश एवं बिहार आदि से उपलब्ध क्षित है, उत्थित पद्मासन मे बैठी है। मस्तक के पीछे पद- हुई हैं । महावीर की प्रतिमायें प्रायः कमलासन या सिंहासन माव-पत्र और ऊपर छल्लेदार केश है इसमे अंगों का पर बैठी मिलती है । उनके दोनों हाथ ध्यान-मुद्रा में विन्यास ठस न होकर लोच भरा है और मुख पर दिव्य
दृष्टिगोचर होते है। छवि है। तीर्थकरों की मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स एवं मथरा के कंकाली टीले से उपलब्ध एक मस्तक रहित मस्तक के पीछे प्रभामण्डल पाया जाता है। फणाटोप जिन-मति लखनऊ संग्रहालय में सरक्षित है । प्रतिमा पर वाली मूर्तियों में प्रभामण्डल नहीं रहता । किन्हीं मूर्तियों गुप्त सवत ११३ (४३२ ई०) अकित है । पुरातात्विकों ने में तीर्थङ्कर का नाम भी मिलता है।
इस प्रतिमा का समीकरण महावीर से किया है।" सम्भमहावीर की " ऊँची, यमुना नदी से उपलब्ध, वतः विद्वानो के समीकरण का प्राधार प्रतिमा-पीठ पर प्रतिमा पद्मासन में है। यह प्रतिमा मथरा संग्रहालय उत्कीर्ण सिंह है जो महावीर जी का लांछन है। परन्तु हम (क्रमांक २१२६) में संरक्षित है। मूर्तितल पर उत्कीर्ण प्रतिमा-पीठ पर उत्कीर्ण सिहो को सिहासन के प्रतीक अधूरे लेख में बर्धमाम का स्पष्ट नामोल्लेख होने के बाव- के द्योतक मान सकते है, न कि प्रतिमा के लांछन के रूप जूद इस प्रतिमा में तिथि अंकित नहीं है। कंकाली टोले में। से महावीर की १ फुट ४ इंच ऊँची प्रतिमा प्राप्त हुई है जो महावीर का चित्रण करने वाली एक गुप्तयुगीन मूर्ति ध्यान-मुद्रा में प्रासीन है। मथुरा संग्रहालय में संरक्षित भारत-कला-भवन, वाराणसी में सगहीत है । वाराणसी से यह प्रतिमा भग्न है । लेखयुक्त पादपीठ पर चित्रित अर्ध उपलब्ध इस मूर्ति में देवता को उच्च पीठिका पर ध्यानास्तम्भों पर धर्मचक्र स्थित है, जो पाठ पूजकों द्वारा वंदित वस्था मे प्रदर्शित किया गया है। पीठिका के मध्य भाग हो रहा है । ये सम्भवतः मूर्ति के दान-दाताओं की प्राकृ• मे उत्कीर्ण धर्मचक्र के दोनों पार्श्व में सिहों का अंकन है तियों का अंकन करती हैं। मथुरा सग्रहालय (क्रमांक- जो इस प्रतिमा की महावीर के अंकन से पहचान कराती ५३६) में संकलित मथुरा के ही गूजरघाटी स्थान से है। पीठिका के दोनों पार्श्व मे उत्कीर्ण दो तीर्थकर इस प्राप्त एक मध्ययुगीन चित्रण का श्रेष्ठ उदाहरण २४ अंकन की अपनी विशेषता है। इस मनोरम चित्रण में तीर्थङ्करों की मूर्तियां हैं जिनका वर्णन यथा-स्थान किया महावीर के दोनों पाश्च मे दो प्राकृतियो को उत्कीर्ण किया जायेगा।
गया है जो सम्भवत. शासन-देवता हैं। महावीर के पृष्ठ भाग ___गुप्त-कालीन जैन प्रतिमायें सुन्दरता तथा कलात्मक मे प्रदर्शित अलंकरणरहित प्रभाचक्र के दोनो पार्श्व में दो दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट हैं। गुप्त-युग में जैन प्रतिमानों में हमें उड़ते हए गंधों का चित्रण है। महावीर के केश रचना दो विशेषतायें-अधोवस्त्र तथा श्रीवत्स-परिलक्षित होती गुच्छकों के रूप में निर्मित है। गुप्तकालीन सम्पूर्ण विशेषहैं। जैन मूर्तियों की बनावट उत्तम है। इसी काल में जन तामों से भषित इस मूर्ति के मुख पर प्रदर्शित म प्रतिमाओं में यक्ष-यक्षिणी, मालावाही गन्धर्व प्रादि देव- शान्ति व विरक्ति का भाव प्रशंसनीय है। ९. भारतीय कला : वासुदेव शरण अग्रवाल, पृ० २८४, Jaya Golden Jublles vol 1, Pt. Page 153, चित्र ३१६।
Figure 8. R. D. Banerjee : Age of Impe.
rial Guptas Pt. XVIII; U.P. Shah : Akota १०. Dr. R.C. Sharma : Mahavira Jain Vidya. Bronzes, P. 15.
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महावीर स्वामी : स्मृति के झरोखे में
१२९
वर्धमान महावीर को दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व जीवंत मध्य प्रदेश के लखनादौन (सिवनी जिला) से उपस्वामी के नाम से जाना जाता था। उक्तावधि में चूकि वे लब्ध महावीर की एक अद्वितीय कलात्मक प्रतिमा अभी राजकीय वेशभूषा से सुसज्जित थे, अत शिल्पियो में उन्हें हाल ही में प्राप्त हुई है। भगवान महावीर की प्रतिमा उसी वेशभूषा मे प्रदर्शित किया है। जीवत स्वामी की वे गन्छको के रूप में प्रदर्शित केश-विन्यास उष्णीषबड गुप्त-युगीन दो प्रतिमायें बड़ौदा संग्रहालय मे सुरक्षित है। दष्टि नासिका के अग्रभाग पर स्थित है। प्रशांत नयन, है।" राजकीय परिधान में होने से उनकी पहचान सुगमता मन्दर भवे, नासिका के नीचे मदस्मित मोठ, ऐसा प्रतीत से हो जाती है।
होता है कि मानो भगवान् महावीर की अमृतवाणी जैसे उत्तर गुप्तकाल मे जैन कला से सबंधित अनेक केन्द्र प्रस्फुटित होना ही चाहती है । सुगठित विबुक, चेहरे की थे। इस काल में कला तांत्रिक भावना से प्रोत प्रोत थी भव्यता एवं गरिमापूर्ण रचना शिल्पियों की श्रेष्ठता के जिसका स्पष्ट प्रभाव तत्कालीन प्रतिमानो के अवलोकन परिचायक है । कर्ण लम्बे है जिन पर कर्णफुल शोभित हो से स्पष्ट परिलक्षित होता है । यद्यपि इस युग में कलाकारों रहे हैं । उर्ध्व भाग में विक्षत्र है जिसमें मोतियों की पांच का कार्य-क्षेत्र विस्तृत हो गया था, परन्तु वे प्रतिमा-निर्माण लटकने है । त्रिछत्र के नीचे तीन पदमों से गुम्फित त्रिछत्र में स्वच्छंद नहीं थे अपितु वे अपनी रचनाओं को प्रतिमा- है। मस्तक के पृष्ठ भाग में प्राभामण्डल है। उक्त प्रतिमा शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर ही रूप प्रदत्त करते थे। उक्त सौम्यमुद्रा में ध्यानमग्न चार-चार स्तम्भों से निर्मित सिंह बंधन के फलस्वरूप मध्ययुगीन जैनकला निष्प्राण-सी हो पीठिका पर पद्मासनारूढ़ है। प्रतिमा का प्राकार ४' गई थी । उत्तर गुप्तयुगीन जैन कला की एक प्रमुख विशे- २" है। विवेच्य प्रतिमा प्रतिमाशास्त्रीय अध्ययन के षता जो हमें परिलक्षित होती है, वह है कला मे चौबीस दृष्टिकोण से ८वीं सदी की ज्ञात होती है। नीडरों की यक्ष-यक्षिणी को स्थान प्रदत्त किया जाना। मध्य प्रदेश के यशस्वी राजवंश कलचुरियों के काल मध्यकालीन जैन प्रतिमानो में चौकी पर पाठ ग्रहो में उनकी धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप अन्य मतों के की प्राकृति का अंकन हिन्दुओं के नवग्रहों का अनु- साथ ही जनधर्म भी फला-फुला । उनके समय में जैनधर्म करण ही है। इस युग में मध्य भारत, बिहार, उड़ीसा एवं कला का अधिक प्रसार हुआ। तथा दक्षिण में दिगम्बर मत का प्राधान्य हो गया था।
कलचुरिकालीन कारीतलाई से प्राप्त एवं सम्प्रति पाषाण के अतिरिक्त घातु प्रतिमायें भी निमित की जाने
रायपुर संग्रहालय में संरक्षित, तीन फुट पांच इंच ऊँची लगी थीं।
महावीर की प्रतिमा कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है। मथुरा संग्रहालय (क्रमाक ५३६) मे संरक्षित मथुरा भगवान महावीर ऊँचे सिंहासन पर उत्थित पद्मासन में के ही गूजर घाटी से उपलब्ध एक मध्ययुगीन चित्रण में ध्यानस्थ बैठे हुए है। केश धुंघराले एव उष्णीषबद्ध तथा कायोत्सर्ग मद्रा में खड़ी मुख्य प्राकृति को अन्य २३ तीर्थ- हृदय पर धीवक्ष चिह्नाकित है। प्रभाचक्र की दक्षिण हुर प्राकृतियों से वेष्ठित प्रदर्शित किया गया है । बहुत पाच पट्टी पर उनके परिचारक सौधर्मेन्द्र खड़े है । अन्य संभव है कि मध्य में अवस्थित मूलनायक की प्राकृति तीर्थङ्कर की चार पद्मासन स्थित प्रतिमायें भी हैं । धर्मचक्र महावीर का अंकन करती हो।
उच्च चौकी के मध्य भाग में स्थित है जिसके ऊपर उनका
११. U. P. Shah : Akota Bronzes, P. 26-28. १२. Haihyas of Tripuri and their Monuments:
R. D. Banerji%; कलचुरि नरेश और उनका काल : डा. मिराशी; धुबेला संग्रहालय की जैन प्रतिमायें : शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त १९७२
कलचुरि-कला में शासन देवियाँ : शिवकुमार नामदेव अनेकांत, मई-जून १६७२; कलचुरिकाल में जैनधर्म-शिवकुमार नामदेव, भनेकांत, जुलाई-अगस्त १९७२
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१३०, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
लांछन सिंह है। धर्मचक्र के नीचे एक स्त्री लेटी है। राजस्थान से महावीर की अनेक प्रतिमायें एवं देवालय महावीर का यक्ष मातंग अंजलिबद्ध एवं यक्षी सिद्धायिका प्रकाश में आये है। प्रोसिया में भगवान महावीर का चंबरी लिये हुए है।"
एक प्राचीन मन्दिर है जिसमें विशालकाय महावीर स्वामी श्याम बलुपा पाषाण से निर्मित ४' ४" '" की मूर्ति है । यह मदिर परिहार नरेश वत्सराज के समय प्राकार की जबलपुर से प्राप्त महावीर की एक सुन्दर ।
टर का है। जैनतीर्थ सवंसंग्रह में प्रोसियां का विवरण देते हुए प्रतिमा फिल्डेलफिया म्यूजियम प्राफ पार्ट में सुरक्षित
लिखा है कि यहाँ सोयशिखरी विशाल मदिर बड़ा रमणीक है। भगवान महावीर की यह नग्न प्रतिमा कायोत्सर्ग है। मूलनायक प्रतिमा महावीर जी की है जो ढाई फुट मुद्रा में खड़ी है। हृदय पर श्रीवत्स चिहांकित है। हस्त ऊंची है । देवालय भव्य परकोटे से घिरा हुअा है, तोरण घुटने तक लबे है। शीर्ष के ऊपर विळत्र तथा उसके दर्शनीय एव स्तभों पर तीर्थदूरों की प्रतिमायें उत्तीर्ण है। किनारे दो हस्ती अंकित है।
बंगाल के बॉकूडां जिले के पाक बेडरा नामक स्थल विश्वविख्यात कलातीर्थ इलोरा की गफायें (नवीं पर जैनकला के अनेक अवशेष उपलब्ध हुए है जिन में शती) तीर्थङ्कर प्रतिमानों से परिपूर्ण है । गुहा संख्या ३०
भगवान महावीर की भी प्रतिमाये है। उा में से एक में, जो छोटा कैलाश के नाम से जानी जाती है, महावीर
पंचतीर्थी परिवर तोरण भाभण्डलादि प्रतिहार्य युक्त है। की बैठी हुई पाषाण मूर्तियाँ पदमासन एवं ध्यानमुद्रा में
। दूसरी प्रतिमा के परिकर मे अष्टग्रह प्रतिमायें विद्यमान उत्कीर्ण हैं। पार्श्व में चावरयुक्त यक्ष-गंधर्व आदि की आकृतियां हैं। सिंहासनारूढ़ बैठे महावीर की मूर्ति के ऊर्ध्व भाग
मैसूर के होयलेश्वर देवालय से दो फाग की दूरी में क्षत्र है।
पर जैनों के तीन देवालय है, जिन में चौबीस तीर्थड्रो की
प्रतिमायें भी अंकित है। प्राब स्टेशन से एक मील की दूरी __दूसरी गुफा में पद्मासनारूढ़ ध्यानमुद्रा में महावीर
पर देलवाड़ा में पाँच जैन मन्दिर है जिनमे तीर्थङ्करों की की भनेक प्रतिमायें है ।। इन्द्रसभा नामक गुहा में सिंहा
प्रतिमायें विद्यमान है । कुभारिया तीर्थ का कलापूर्ण महासनारूढ़ महावीर की बैठी मूर्तियाँ ध्यानावस्था में है।
वीर मदिर कलात्मक दृष्टि से सुन्दर है।" इस मंदिर के जगन्नाथ नामक गुहा के दालान में महावीर की मूर्तियाँ
छठे खण्ड में भगवान महावीर के जीवन का भाव उत्कीर्ण
है जिस में महावीर के पिछले २७ भव, ५ कल्याणक और सातवीं-पाठवी-शती में निर्मित ऐहोल की एक गुहा मे जीवन की विशिष्ट घटनायें-जैसे चंदनबाला का प्रसंग, महावीर की प्राकृति भी दृष्टिगोचर होती है। सिह, कान में कीलें ठोकने और चण्डकौशिक सर्प के उपसर्ग मकर एवं द्वारपालो का खुदाव, उनका परिधान एलीफेंटा प्रादि की घटनायें-खदी है। एक छत के सातवे भाग में के समान उच्चकोटि का है। उड़ीसा के निकट उदयगिरि- भगवान महावीर देशना दे रहे है, गणधर बैठे हुए हैं, संघ खण्डगिरि की एक गृहा में चौबीस तीर्थङ्करों की प्रतिमायें के मनुष्य अलग-अलग वाहनों पर सवारी करके देशना उत्कीर्ण है।
सुनने को पा रहे है, इस तरह का भाव उत्कीर्ण है।
१३. महंत घासीराम स्मारक संग्रहालय, रायपुर, सूचीपत्र, १६. बंगाल के जैन पुरातत्व की शोध में पाँच दिन : श्री चित्रफलक क।
भंवरलाल नाहटा, अनेकांत, जलाई-अगस्त १९७३ ।। १४. स्टेला केमरिच - इण्डियन स्कल्पचर इन दि फिल्डेल- १७. 'कुभारिया का महावीर मन्दिर : श्री हरिहर सिंह - - फिया म्यूजियम आफ आर्ट, पृ० १२।
श्रमण, नव-दिसम्बर १६७४; कुभारिया तीर्थ का १५. मोसियां का प्राचीन महावीर मंदिर : श्री अगरचन्द । कलापूर्ण महावीर मंदिर : श्री अगरचन्द नाहटा श्रमण नाहटा, अनेकांत, मई १९७४ ।
अप्रैल १९७४ ।
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महावीर स्वामी : स्मृति के झरोखे में
१३१
मालव भूमि ने भारतीय कला को विशेष योग प्रदत्त पार्श्व मे विद्याधर युगल पूजा सामग्री लिए हये है। देवता किया है। विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन का पुरातत्व- के स्कंधों के समीप दोनो पावों में दो सिहों का उत्कृष्ट संग्रहालय मालवा व उज्जयिनी के अवशेषों से सम्पन्न है। चित्रण है। डा. कुमारस्वामी ने इसे हवी शती की प्रतिमा संग्रहालय में लगभग दस प्रतिमायें सर्वतोभद्र महावीर माना है । सम्भवतः यह प्रतिमा बुन्देलखण्ड में उपलब्ध की है जिन पर पारदर्शी वस्त्र है। सभी में महाबीर पद्मा- हुई थी। सन मे ध्यानावस्था में अंकित है । यहाँ की एक अन्य
केन्द्रीय संग्रहालय, इन्दौर" में सगृहीत महावीर की प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में खड्गासन अवस्था में है। मूर्ति का आकार ७२ X ६६४३० से. मी. है।
प्रतिमाये लेखयुक्त है । डा. वासुदेव उपाध्याय के 'प्राचीन
भारतीय मूर्ति विज्ञान' नामक ग्रथ के चित्रफलक ८२ में मध्य-प्रदेश के प्रसिद्ध कला-केन्द्र खजुराहो" के एक
आदिनाथ एवं महावीर की युग्म मूर्ति का चित्र है । महाजैन मन्दिर में महावीर का एक मनोज्ञ बिम्ब कायोत्सर्ग
वीर की प्रतिमा के पीठ पर उनका वाहन सिह है। मुद्रा में उत्कीर्ण है, जिसमें पूर्णत. नग्न महावीर को उनके विशिष्ट लांछन सिंह से सम्बद्ध रूप मे चित्रित किया गया शिल्प शास्त्र में महावीर है। देव की मुखाकृति पर शान्ति और सौम्यता का भाव
जन प्रतिमा-समूह में तीर्थड्रर प्रतिमा का ही प्राधान्य सुस्पष्ट है । मस्तक पर सर्पफणों के घटाटोपो से युक्त देव
है। जिनों के चित्रण में तीर्थट्टरो का सर्वश्रेष्ठ पद प्रकपार्श्व में खड़े उपासक देवों से आवेष्ठित है। महावीर की
ल्पित होता है । ऋषभनाथ, नेमिनाथ एवं महावीर की एक अन्य पद्मासनस्थ प्रतिमा देवगढ़ के मन्दिर में है। पद्म
मुद्रा कमलासन है जो इनके इसी प्रासन मुद्रा में कैवल्य मय अलंकरणों के प्रभाचक्र से युक्त मूलनायक को प्राकृति प्राप्ति की सूचक है । महावीर के यक्ष-यक्षिणी, केवल वक्ष के दोनों पार्श्व में उनके शासन देवता त्रिभंग मुद्रा में खड़े एव चामरघारी या धारिणी के विषय में प्रतिमा-विज्ञान के
देवता के शीर्ष-भाग से पुन: दो पासीन तीर्थङ्करों का ग्रन्थों में मतैक्य नही है । वह सर्वमान्य है कि उनका ध्वज बिम्ब उत्कीर्ण है। प्रभामण्डल के ऊपर तीन श्रेणियों मे
या वाहन सिह है । अपराजित एव वास्तुमार के अनुसार विभक्त त्रिछत्र के दोनो मोर हाथों में पुष्पमाल लिये हुए
उनका शासन देव मातंग है । शासन-देवी सिद्धायिका, विद्याधर है। पादपीठ के नीचे दो सिंह आकृतियों का
केवल वृक्ष शाल एवं चामरधारी या धारिणी श्रेणिक है। अंकन है।
महावीर के यक्ष का वाहन या लांछन अपराजित के मनुमहावीर की बलूये पाषाण से निर्मित एक विशिष्ट सार हस्ती एवं वास्तुसार के अनुसार गज है। इसी प्रकार प्रतिमा जिसका ऊर्व भाग मात्र ही शेष बचा है, अाजकल यक्षी का वाहन या लाछन अपराजित के अनुसार भद्रासन बोस्टन संग्रहालय मे सरक्षित है । यह ऊवकाय प्रतिमा एवं वास्तुसार के अनुसार सिंह तथा प्रतिष्ठा सारोवार, सक्ष्म निरीक्षण से नग्न रही प्रतीत होती है । प्रतिमा की अभिज्ञान चिन्तामणि, अमरकोष, दिगम्बर जैन प्राइकनोऊँची केश रचना वास्तव में इसकी साधु प्रकृति की सूचक ग्राफी एवं हरिवंश पुराण के अनुसार कमल है। है। महावीर के केश गुच्छक उनके स्कंधों पर लटक रहे है । वक्षस्थल पर तीर्थडुरों का विशिष्ट चिह्न श्रीवत्स प्रतीक शास्त्रीय प्रध्ययन : उत्कीर्ण है। मस्तक के ऊपर प्रदर्शित त्रिछत्र, अशोक वक्ष तीर्थङ्कर ब्रह्मभूत महापुरुष हैं। तीर्थङ्करों के हृदय एवं कछ प्राकृतियों से वेष्टित है। मूर्ति के बाम एवं दक्षिण पर श्रीवत्स का अर्थात् चक्र-चिह्न रहता है। यह धर्मचक्र
विवविद्यालय, उज्जैन के पुरातत्व संग्रहालय की अप्रकाशित जैन प्रतिमायें : डा. सुरेन्द्र कुमार प्रार्य, अनेकान्त, जुलाई-अगस्त १९७२ ।
१६. खजुराहो की अद्वितीय जैन प्रतिमायें : श्री शिवकमार
नामदेव, अनेकान्त, फरवरी १९७४ । २० केन्द्रीय संग्रहालय, इंदौर की संक्षिप्त मार्गदर्शिका ।
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१३२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
है। इनके पासन के नीचे अंकित प्रतीक धारण-धर्म के वे सोलह स्वप्न देखे थे जिनमें एक प्राकाश की ओर उछलता प्रतीक हैं । त्रिछत्र, त्रिशक्ति (ज्ञान-इच्छा-क्रिया) के हुमा सिंह भी था। स्वयं राजा सिद्धार्थ ने इसका फल यह सिद्धान्त हैं जो सभी भारतीय सम्प्रदायो में समान श्रद्धा बताया था कि होने वाला बालक अतुल वीर एवं पराक्रमी के साथ माने जाते है । मस्तक के पीछे लगा हुआ प्रभा- होगा। मण्डल धर्म-चक्र का रूप है। यह काल चक्र है जो काल
उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय और धर्म-चक्र के रूप में विष्णु और शक्ति के हाथों में है
कला आत्मवशी भगवान महावीर के जीवन चरित्र से प्रोत. और जिन तथा बुद्ध से सम्बद्ध है । मस्तक पर तीन छत्रों
प्रोत है। प्रात. स्मरणीय महावीर स्वामी-- भगवान वर्धवाला छत्र है। यह त्रिशक्ति का प्रतीक है। यह शिव पौर
मान का जीवन चरित्र भक्तो के लिए अमत है, भारतीय बुद्ध का प्रिशूल तथा दुर्गा का त्रिकोण है । भगवान् महा
जनता के लिये संजीवन है और विश्व की भटकती जनता वीर पद्मासन पर आरूढ़ दिखाये जाते हैं। पद्म सृष्टि का
के लिए जगमगाता प्रकाश-स्तम्भ है। प्रतीक है।
00 भगवान महावीर का वाहन सिंह है। हिन्दू, बौद्ध एवं जैन मतावलम्बियों ने सिंह को उच्च स्थान प्रदत्त किया व्याख्याता, प्राचीन भारतीय इतिहास, है। शतपथ ब्राह्मण में सिंह शक्ति का प्रतीक माना गया शासकीय महाविद्यालय, है । भगवान महावीर के जन्म के पूर्व उनकी माता ने डिन्डौरी (मडला) मध्य प्रदेश
[पृ० ११५ का शेषांश ज्योति प्रसाद जैन--
पी० सी० राय चौधुरी जैनिज्म इन बिहार ( पटना, १. जैनिज्म दी मोल्डेस्ट लिविग रिलीजिन
१९५६) (बनारस, १९५१)
विमला चरण साहा -महावीर : हिज लाइफ एण्ड टीचिग्स २. तीर्थङ्करों का सर्वोदय मार्ग (दिल्ली, १९७४)
(लन्दन, १६३७) ३. दी जन सोर्सेज मार दी हिस्टरी माव एन्सेट
बैजनाथ सिह विनोद-मगध, इतिहास और संस्कृति इडिया (दिल्ली, १९६४)
,(बनारस १६५४) ४. प्रमुख ऐतिहासिक जैन (दिल्ली, १९७५)
शशिकान्त जैन-खारवेल एण्ड अशोक (दिल्ली, १६७३) ५. भारतीय इतिहास - एक दृष्टि (दि० सं० वाराणसी, १९६६)
हीरालाल जैन एवं प्रा० न० उपाध्ये-महावीर : युग और ६. रिलीजन एंड कल्चर प्राव दी जेन्स (दिल्ली
जीवन-दर्शन (दिल्ली १९७४) १९७५) ७. श्री वीर शासन (लखनऊ, १९७४) नन्दलाल -ज्योग्रफीकल डिक्शनरी भाव एसेन्ट एण्ड मेडि- ज्योतिनिकुंज, वल इडिया।
चारबाग, लखनऊ-१
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'दर्शन सार' का हिन्दी पद्यानुवाद
0 श्री कुन्दन लाल जैन, दिल्ली
देवसेनकृत 'दर्शनसार' जैन वाङ्गमय में बहत ही कुछ दिनों तक दर्शनसार और उसके कर्ता देवसेन पर प्रसिद्ध और अपनी प्राचीनता के लिए विख्यात भी है। विद्वानों में बड़ी चर्चा एवं ऊहापोह हुआ था जो तत्कालीन मूलतः यह प्राकृत में है पर इसकी ऐतिहासिकता ने अनेकों शोध पत्रों में देखा जा सकता है। प्राचार्य देवसेन गणी विद्वानों को अपनी पोर आकर्षित किया है । फलतः इसके के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए स्व० डा० नेमीसंस्कृत, हिन्दी, गद्य, पद्य मे अनेकों अनुवाद हुए है। चन्द्र जी ज्योतिषाचार्य लिखित बृहद्ग्रंथ "तीर्थंकर महा'दर्शनसार' की सर्वप्रथम खोज डा० पीटर्सन ने सन १८८४ वीर और उनकी प्राचार्य परम्परा", भाग २, पृ० ३७० पर मे की थी। वे उस समय जैनाचार्य पूज्यपाद स्वामी के काल देखा जा सकता है। यहां हमारा उद्देश्य उपर्युक्त विस्तार निर्णय के सम्बन्ध में खोज-शोध कर रहे थे। पूज्यपाद का मे जाने का नहीं है। अपितु हमे दिल्ली के जैन भण्डारों में उल्लेख दर्शन सार की २४वी गाथा में है। अतः डा० स्थित पांडुलिपियों की विवरणात्मक सूची तैयार करते पीटर्सन ने भाण्डारकर प्रोरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना, हुए दर्शनसार का हिन्दी पद्यानुवाद देखने को मिला था, में क्रमांक ५०७ पर स्थित 'दर्शनसार' की प्रति देखी और हम उसी की चर्चा करना चाहते हैं। इसे प्रकाशित भी कराया, पर यह प्रकाशन पूर्णतया शुद्ध और अधिकृत न था। इसके बाद और भी प्रकाशन हुए, पर
दर्शनसार भाषा (पद्य) दि. जैन खडेलवाल मन्दिर,
वैद वाडा, दिल्ली के शास्त्र भंडार मे क्रमांक १६२ बी वे कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण सिद्ध न हुए।
से सुशोभित है। इसकी लम्बाई ११३ इंच तथा चौड़ाई पं० नाथराम जी प्रेमी ने जैन हितपी' के १३३ ४ इंच है । इसमे केवल ३ ही पत्र है। प्रत्येक पत्र मे E-६ भाग मे दर्शन सार की चर्चा निबंध रूप में की, तथा बाद मे पक्तियां है तथा हर एक पक्ति मे ६०-६० अक्षर है। इस सन् १९१७ में 'दर्शन सार' शीर्षक से ग्रन्थरूप मे हिन्दी
प्रति को मगसिर सुदी २, सं० १६७६ में श्री राजुलाल जी प्रन्थ रत्नाकर कार्यालय से प्रकाशित कराया। इसमे मूल
बडजात्या ने जयपुर मे लिखा था। इसकी रचना किसी पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अर्थ तथा समीक्षात्मक विवेचन
अध्यात्म प्रेमी ने भादो वदी १६, स. १७७२ मे की थी भी था । सन् १९३४ के आसपास डा० आदिनाथ नेमिनाथ
जो निम्न छन्द से स्पष्ट है। उपाध्ये ने 'यापनीय संघ : एक संप्रदाय' शीर्षक लेख
सत्तरह से वहरि अधिक भावौं तेरसि स्याम । लिखा तो उस समय उन्हे 'दर्शन सार' की उपयोगिता
प्रलपमति नु कहत यह भाष रचो अभिराम ॥ अनुभव हुई, क्योकि इसकी २९वी गाथा मे यापनीय संघ का उल्लेख है। अतः उन्होने भाण्डारकर प्रोरिएन्टल उपयुक्त अनुवाद मेरे ख्याल से सर्वथा अप्रकाशित इस्टीट्यूट, पूना में स्थित लगभग आधी दर्जन पांडुलिपियो एव अज्ञात है जिसे हम यहां अविकल रूप से प्रस्तुत कर के आधार पर एक सर्वशुद्ध अधिकृत पाठ तैयार किया और रहे है । प्राशा है कि प्राकृत से अनभिज्ञ हिन्दी प्रेमी इसका Annals of the Bhandarkar Oriental Research रसास्वादन कर सकेंगे। इस प्रति मे ३६वी गाथा का Institute, Poona, Vol. XV, Part III-IV, 1934 अनुवाद नहीं है। इसका क्या कारण है, कुछ भी कहना AD में पृ. १९८ पर प्रकाशित कराया था। उस समय कठिन है । अनुसधाता विद्वान् इससे लाभ उठावें।
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१३४, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
दर्शनसार : हिन्दी पद्यानुवाद
विपरीत मिथ्यात दोहा
सुव्रत तीरथ समय सुष समकित खीर कदंब ।
शिष्य तासु दुठ वसु नपति पर सुत परवत तंब ॥१६॥ नमित वीर जिण यंद सुरसे णि नम सुध ग्यानि ।।
मत विपरीत कियो सबै संजम लोक विनासि । पूरव सूरिहि कहिउ जिम बरसन सार वखानि ॥१॥
तातें स सब भये घोर महा नरक सातवें वासि ॥१७॥ सोरठा-खेत्र भरत तीर्थेस नाक श्रेष्ठ देवेन्द्र नत । समय होत जिके सुजीव मिथ्यात प्रवर्त जे ॥२॥
विनय मिथ्यात वर्णन दोहा-रिषभ जिनेसुर पुत्र सुत कलंकित मोह मिथ्यात। मौकर के समय उतपति विनय मिथ्यात ।
महा सर्व विष्टनु धुरी पूरब सूरि विख्यात ॥३॥ सजय मंडित सिर सिखा नगन केय विख्यात ॥१८॥ दोहा-तिहि विचित्र दरसन किए रूप सुमिरत व्याप। दुष्ट जिके गुणवंतहू सब दिन भक्ति समान ।
तैसें इतरनि फुनि समिक व्रत सुहानि व्रत माप ॥४॥ नांहि बंड मन फुनि जनन मढ नकल पितु ज्ञान ॥१६॥ दोहा-यक एकांत संसय दुतिय विपरित विनय विख्यात ।
अज्ञान मिथ्यात वर्णन महामोह अग्यान ए कहे पंच मिथ्यात ॥५॥
वीर तीर्थकर बहु श्रुती पास संघ गणि सिक्ष । दोहा ---एकांत मिथ्यात वर्णन
मरकट पूरण साधु कथ लोक अग्यान अपिक्ष ||२०| वारे पास जिनंद के सज् तीर पलाप्त ।
प्रज्ञानिन के मुख कहै मुकति जीव नहिं ग्यान । नगर, शिष्य पिहितावह बुद्धि कीरति मुणी भास ॥६ बहुरि प्रागमन भमण नहीं भव भव जीवनु जानि ॥२१॥ मछि प्रासन पूरन उदर अगनित भ्रष्ट प्रव्रज्य। एक सुद्ध करता सबनु जे जिय सरवस लोक । प्रवति कियो एकांत तिन वस्तर रक्त घरज्य ॥७॥ सूनि ध्यान बरनावरन तिहिं पर सिक्षत कोक ॥२२॥ तातें तिहि बांछन ते भवत पाप प्रबुद्ध । जिन मग वाहिज तत्व जे दरसाये मन पाप । मास मोहिनहि जीव जिय फल सक्कर दधि दध्या सप्तम नरक निगोद जायक विविध कष्ट दुख प्राप ॥२३॥ वरजनीक मदहू नहीं जल जिम द्रव द्रव्य एह।
द्राविड संघ उत्पत्ति वर्णन इम लोकन मह घोषि के प्रति पाप किय जेह ।। कर्म कर प्रवर प्रवर भुगते इह सिद्धान्त ।
पूज्यपाद श्री सिक्ष दुष्ट संघ द्राविड करन । परकलपित किरव ग्यान यह उपज्यो नरक महंत ॥१०
वज्रनंदि परतक्ष पाहुड वेदी महत श्रुत ॥२४॥
प्रापने श्रुत वचनेहि भरवन दोष नहि मुनिन कहं। संसय मिथ्यात वर्णन
विपरीत रचिउ तेहि इम विशेष विसतारयऊ ॥२५॥ इकसत प्रवर छत्तीस विक्रम राजा मरन गत ।
बीज मांहि नहीं जीवउभ प्रसन नहीं फासु नहि। सोरठपुर बलभी ससंघ सेत पढऊ सुपनौ ॥११॥
साववि मनइन कीन गिणइन कलपित ग्रंथ किय ॥२६॥ भद्रबाहु श्री मुनि गणी सत्याचारज सिक्ष ।
कछखेत वासत वणिज करि के जीवन कीन । तास सिक्ष जिणचंद दुठ चारित मंद ध्रविक्ष ॥१२॥ न्हावत सीतल नीर सौं प्रवर पापमय लीन ॥२७॥ तिनहि इहै मत प्रगटि किय त्रिया तिहि भव मोक्ष।
विक्रम राय मुए पर्छ बरस पांच से छत्तीस । केवल ज्ञानी फुनि कमल भक्ष रोग तन पोख ॥१३॥ दक्षिण मथरा ते भयो द्वाविर संघ मनीस ॥२८॥ सीझय अंबर जुत जती वीर गरभ चारित्र । परलिंगी हुइ मुकत हुइ फासु भक्ष सरवत्र ॥१४॥
यापनीय संघ की उत्पत्ति इनहिं प्रावि मागम अवर दुष्ट मिध्या सासत्र । बरस सात से पांच गत नगर कल्याण सुजात । रचे प्रापकों थापियो प्रथम नरक वृख तत्र॥१५॥ संघ जापनीय जानियो श्री कलस त विख्यात ॥२६॥
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'दर्शनसार' का हिन्दी पद्यानुवाद
१३५
काष्ठा संघ उत्पत्ति
पदमनंदी जतिनाथ श्रीमंधर जिन झलक । श्री मुनि वीर सुसेनि सिक्ष श्रुत ज्ञाता जिनसेनि ।
नव विबोधय सिव पाय मुनि किम पावइ शुद्ध यग ।।४३।। पदमनंदि श्री पछइ चउसंघउ धारिउ तेन ॥३०॥
पुहुपवंत बलिभूत देख दखिन मनुक्रम धरम । तास सिक्ष गुणवंत गुणभा ज्ञान परिपूर ।
जे भासित मुनि सूत निरविकलप जे तत्ववित् ॥४४॥
दक्षिण विज्झि सुदेस पुहकलपुर मनि वीरचंद । पक्ष सुबुद्धि विवेक जन भाव लिंगी तप सूर ॥३१
बीत अठारह सेसु भिल्लय संघ प्ररूपये ॥४५।। फुनि तिनि पीछे तत्ववित विनय सेन मुनि सार । तिन सिद्धान्त श्रत घोषि निज सुरग लोक गति धार ॥३२
सो निज गच्छकराफ भिन्त पडिकवण और क्रिया। विनयसेन दिक्षत प्रगट भयो कुमार सुसेनि ।
ग्यानावरण विपाक सुष्ट हम जिन मार गहं ॥४६॥ प्रगृहीत दिक्षा बहुरि जिहि सन्यास भजेन || ३||
बहुरि न कहियो कोय गुण गणधर पुंगमिछत । परिवजित पीछी चमर गही मोह कलितेन ।
दुखम प्रति यक होय मिथ्या दरशन नाश कर ॥४७॥ उन्मारग प्रगटित सबन वागड देश सुजेन ॥३४॥
धार मूल गुणेहि वीर मुनि नाम हुए। त्रिय को दीक्षा फुनि खुलिक लोक सुचर्या वीर ।
प्रातम श्रुत धारेह जन प्रबोध दे वीर वतु ॥४८॥ कर्कस गाहन केस अरु छहउ गुण व्रत धीर ॥३५।।
पूरब प्राचारिज कहेउ गाथा तिहि अनुसारि । सोरठा-पागम शास्त्र पुराण प्रायश्चित कछु अन्यथा ।
देवसेन श्री मुनि गणी धारा नगर मंझार ॥४६॥ रचित मिथ्यात वखाण मढ़ जननि परवति किय ॥३६॥ सोरठा ----रचिय दरसन सार हार भविय नव से निवेनहे पद्धड़ी-सो श्रवण संघ वाहिकुमार श्रेणी सो समय
पास जिन धार। मिथ्यात धार ।
माह सुकुल दशमी पवित ॥५०॥ छाडिउ जिहि उपसम रुद्र लोन पर रुपिउ कासट संघ हीन रूटउ तूठऊ लोक सत्य कथक तहि जीव के । सात सै तरेपण वर्ष वीत विक्रम राजा मरणे प्रतीत। अथवा नृपति जू कोकु अभय साटिका रहन हुई ॥५१॥ नादयवर ग्राम सुथान जानि काष्ठा संघ उत्पति तहां मानिसत्रह से वहत्तरि प्रधिक भादों तेरसि स्याम ।
अलपमतिनु कहत यह भाष रच्यो अभिराम ॥५२॥ निपिछ संघ उत्पत्ति
इति दर्शन सार भाषा सम्पूर्ण गिति मगसिर सुदी २ पीछे सत वरष गत मथुरा माथुर नाथ ।
स० १६७६ हस्ताक्षर गनु नाल बडजात्या रामसेणि तिहि नाम कह वरणि निपिच्छ सुपाठ ॥४०॥
जैपुर निवासी। सोरठा-समकित प्रकृति मिथ्यात कहो तिनिहि बिंबजिन । प्राप परस्थित जात भमत बुद्धि के वसन तं ।।४१।।
६८ कुन्ती मार्ग, सोई गुरु मम जान अपर नास्ति चित परि रमण ।
विश्वास नगर, शाहदरा स्वगुरु कुल अभिमान इतर विभंगैह करन फुनि ॥४२।। दिल्ली ३२
अहिंसा "मारने की सजा देने वाला, प्राणियों के शरीर को काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, व खाने वाला सभी पापो और दुष्ट है। जिसका मांस मैं यहाँ खाता हूँ (मां), मुझको वह भी दूसरे जन्म में अवश्य हो खाएगा।" ---मनुस्मृतिः ५।५५ "जो लोग अण्डे और मांस खाते हैं, मैं उन दुष्टों का नाश करता हैं।"
- अथर्ववेद, काण्ड ६, वर्ग ६, मन्त्र १३. "हे अग्नि ! मांस खाने वालों को अपने मुंह में रख ।” । --ऋग्वेद १०६७-२.
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तीर्थंकरों के शासन-देव और देवियां
पं० बलभद्र जैन, दिल्ली
पहन्त प्रतिमा और शासन देवता : जैन प्रतिमा- के साथ यक्ष-यक्षी की स्थापना का विधान पूर्वागत परम्परा शिल्प में तीर्थङ्कर-प्रतिमानों के साथ यक्ष और के अनुसार निम्न प्रकार किया हैयक्षी की मूर्ति बनाने का विधान है। ये यक्ष-यक्षी इन्द्रो जिनेन्द्रोत्तमशासनस्य त्राणे प्रवीणं प्रतिशासनाहम् । ही शासन देवता अथवा शासन देव और देवियाँ न्ययंक्त सत्कृत्य यमादरातं न्यसामि यक्षं जिनसध्यभागे। कहलाती है। अनेक प्राचार्यों ने और प्रतिष्ठा पाठ के रच- लम्याधिकारी जिनशासनस्य त्राणेततः शासनदेवतेति । यिता विद्वानों ने तीर्थडर प्रतिमाओं के साथ यक्ष-यक्षियों रूढां भवि प्रौढतरप्रभावां न्यसामि यक्षी जिनवामभागे । की संरचना का विधान किया है। प्राचार्य वसुनन्दि ने, जो अर्थात इन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान के उत्तम शासन की ११-१२वी शताब्दी के विद्वान् है: प्रतिष्ठा सार संग्रह रक्षा में प्रवीण और प्रतिशासन में सक्षम जिस यक्ष को नामक प्रतिष्ठा-ग्रंथ में तीर्थंकर प्रतिमा के साथ यक्ष-यक्षी सत्कार करके नियुक्त किया था, उसको मैं पादरपूर्वक को अनिवार्य बताते हए बहुत ही स्पष्ट शब्दों में उल्लेख जिनेन्द्रदेव के दक्षिण पार्श्व में स्थापित करता हूं। जिनेन्द्र किया है, जो इस प्रकार है
के शासन की रक्षा करने का जिसे अधिकार प्राप्त है और 'यसं च दक्षिणे पार्वे वामे शासन देवताम् ।
लोक में जो शासनदेवता के रूप में प्रसिद्ध है और जो लांछनं पादपीठाधः स्थापयेद् यस्य यद्भवेत् ॥५॥१२॥
अत्यन्त प्रभावयुक्त है, ऐसी यक्षी की स्थापना मैं जिनेन्द्रयक्षाणां देवतानाञ्च सर्वालङ्कारभूषितम् ।
के वाम पार्श्व में करता है। स्ववाहानयुधोपेतं कुर्यात्सर्वाङ्गसुन्दरम् ॥४॥७॥
इन उपयुक्त उल्लेखो से सहज ही यह निष्कर्ष निकअर्थात् दक्षिण पार्श्व में यक्ष और वाम पार्श्व में शासन
लता है कि जिनेन्द्र प्रतिमा के दक्षिण पार्श्व में यक्ष देवता की स्थापना करे तथा पादपीठ के नीचे जिस तीर्थ
और वाम पार्श्व में यक्षी को संयोजना करने का कर का जो लांछन (चिह्न) हो, वह उत्कीर्ण करावे ।
विधान है । यक्ष-यक्षी की मूर्ति-संरचना में उन्हे यक्षों और शासन देवियों की मूर्ति सम्पूर्ण अलंकारों से
सर्वालंकार विभूषित, तथा उनके वाहन एवं आयुधों विभूषित, उनके वाहनों और प्रायुधो से युक्त तथा सर्वाङ्ग
से युक्त ही निर्मित करने की आवश्यकता पर विशेष सुन्दर बनावे। इसी प्रकार, पं० प्राशाधर ने-जो १३वीं शताब्दी के बल दिया गया है तथा उन्हें जिन शासन के रक्षक
शासन देवता के रूप में स्वीकार किया गया है। विद्वान हैं-भी इसका स्पष्ट उल्लेख किया है । यथा"रोबाविदोषनिर्मक्तं प्रातिहायोकयक्षयत ।
तिलोयपण्णत्ती और यक्ष-यक्षी : प्रतिष्ठा ग्रंथों से -प्रतिष्ठासारोद्धार। लगभग ६.७ शताब्दी पूर्व रचित 'तिलोयपण्णत्ती' नामक अर्थात प्रहन्त प्रतिमा रोद्र आदि बारह दोषों से रहित आर्ष ग्रन्थ में प्रत्येक तीर्थकर के साथ एक यक्ष और एक यक्षी हो अशोक वक्षादि प्रष्ट प्रातिहार्यों से युक्त हो तथा उसके का विधान किया गया है। यह विधान तीर्थंकर के महनीय दोनो पावों में यक्ष-यक्षी हों।
और दिव्य प्रभाव को प्रगट करते हुए किया गया हैप्राचार्य नेमिचन्द-जो १५वी शताब्दी के विद्वान् हैं- 'गुज्झको इदि एदे जक्खा चउवीस उसह पहीणं । ने अपने प्रतिष्ठा ग्रन्थ 'प्रतिष्ठातिलक" में जिनेन्द्र प्रतिमा तित्थयराणं पासे चे,ते भत्तिसंजुत्ता ॥४९३६॥
१. प्रकाशक : दोशी सखाराम नेमचन्द्र, सोलापुर, वीर संवत् २४५१.
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तीर्थकरों शासन-देव पोर देवियां
प्रर्थात् ये भक्ति से मंयुक्त चौबीस यक्ष ऋषिमादक करने में परम्परागत मान्यता का भाषार प्राप्त हुआ तीर्थकरों के निकट रहते हैं।
होगा। ___ यह विधान जिस परिप्रेक्ष्य में किया गया है. वह जैन शास्त्रों में शासन देवताओं के मूति-निर्माण का विशेष ध्यान देने योग्य है। तीर्थकरो के समवसरण का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होने और ईसा की प्रारम्भिक शताविस्तृत वर्णन करने के बाद ग्रन्थकार ने बताया है कि २४ ब्दियों की यक्ष-यक्षी मूर्तिया उपलब्ध होने पर भी यक्षयक्ष और २४ यक्षियां भक्तिसंयुक्त हो तीर्थक्री के यक्षियों की जैन मान्यता के सम्बन्ध में कुछ विद्वानों को निकट रहते है । जिनालय समवसरण के प्रतीक होते है। भ्रम है, ऐसा प्रतीत होता है । सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री यू. पी. जब समवसरण में प्रत्येक तीर्थकर के निकट एक यक्ष और शाह का अभिमत है कि ईसा की नौवीं शताब्दी में जैनएक यक्षी रहते है तो जिनालय में तीर्थकर मति के साथ प्रतिमा शिल्प में शामन देवताओं का प्रवेश हुमा । इससे भी यक्ष-यक्षी रहे यह तर्कसगत बात है। इसी को प्राधार एक शताब्दी पूर्व, पर्थात् पाठवीं शताब्दी में जैन साहित्य मानकर प्रतिष्ठापाठों के रचयिता प्राचार्यों और विद्वानो में शासन देवतानों का समुल्लेख प्रारम्भ हुमा । "तिलोय. ने तीर्थकर-मति के साथ यक्ष-यक्षी की मति बनाना प्राव. पण्णत्ती" में दी गई यक्ष-यक्षियों की सूची के सम्बन्ध में श्यक बताया, ऐसा प्रतीत होता है।
श्री शाह का मत है कि वह अंश पश्चात्काल में जोड़ा गया शासन देवता-मति मां और उनका निर्माण-काल : जन है। प्रतिमा-शिल्प में शासन देवताओं का प्रवेश किस काल में श्री शाह ने 'तिलोयपण्णत्तो' के यक्ष यक्षी सम्बन्धी हुअा, यह एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न है। हमारे उल्लेख को प्रक्षिप्त अंश माना है। उसका क्या प्राधार है, विनम्र मत में शासन देवतामों के रूप में यक्ष-यक्षियों ने यह हम नही समझ सके। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी अथवा ईसा की प्रथम शताब्दी में श्री शाह का यह मत भी कि नौवी शताब्दी में जैन ही जैन प्रतिमा-शिल्प में अपना उचित स्थान बना लिया प्रतिमा शिल्प में शासन देवतापों का प्रवेश हुमा, अधिक था। इससे पूर्ववर्ती काल में उन्हें तीर्थडगें के सेवक के तर्क संगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि शासन देवतामों की रूप में तो मान्यता प्राप्त रही, किन्तु शासन देवताओं के अनेक मूर्तियाँ इससे पूर्व काल की प्राप्त होती हैं। रूप में उन्होंने ईसा की प्रथम शताब्दी के पास-पास ही उदयगिरि (उड़ीसा) की नवमुनि गुम्फा और बारह स्थान ग्रहण किया। साहित्य में तो उन्हें पांचवीं शताब्दी भजी गम्फा में भित्तियों पर तीर्थकर मूर्तियाँ, उनके चिह्न में सर्व प्रथम स्थान मिला। प्राचार्य यतिवृषभ ने 'तिलो. और उनके अधोभाग में उनकी शासन देवियों बनी हुई यपण्णत्ती' में तीर्थडुरों के निकट यक्ष-यक्षी के रहने का है। बारहभुजी गुम्फा में महावीर की यक्षा सिद्धाय विधान करके यक्ष-यक्षी की परम्परागत मान्यता को साहि- षोडशभुजी है तथा इसी गुम्फा में चक्रश्वरा दवा का त्यिक समर्थन प्रदान किया । इसके पश्चात् तो अनेक मूर्तियां बारहमुजी हैं । उनके ऊपर प्रादिनाथ तीर्थङ्कर प्राचार्यों ने इस बात की पुष्टि की तथा यक्ष-यक्षियों का की मूर्तियाँ हैं । पार्वनाथ मूर्ति के नीचे पद्मावती की जो सविस्तार रूप-निर्धारण किया। इस रूप-निर्धारण में मति है, उसके सिर पर सप्तफण-मण्डप बना हुआ है । उनका रूप, प्रायुध, वाहन, मुद्रा, प्रासन, प्रलंकार मादि खण्डगिरि के ऊपर बने हुये माधुनिक मन्दिर में कुछ सम्मिलत हैं । लोक-व्यवहार में भी परम्परा-प्रचलन के प्राचीन मूर्तियां रखी हुई हैं। कहा जाता है कि ये मूर्तियाँ पश्चात् ही नियम और विधान निर्मित किये जाते हैं, देवसमा (उपर्युक्त मन्दिर के पीछे भग्न जिनालय) से जिससे परम्परा में एकरूपता और अनुशासन रखा जा लाकर यहां विराजमान की गई थीं। यह ध्वस्त जिनालय सके । किन्तु इन नियम-विधानों मे परम्परा प्राचीन होती सम्राट खारवेल द्वारा निर्मित बताया जाता है । सम्भवतः है । परम्परा का भी कोई प्राधार होता है । लगता है कि यह वही मन्दिर है जिसका उल्लेख हाथी-गुम्फा शिलाशासन-देवताओं को तीर्थर-मतियों के साथ स्थान प्राप्त मेख में हुमा है, जिसका निर्माण बारवेल ने अपनी दिग्वि
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जय के बाद किया था मौर जिसमें "कलिंग जिन" को समारोह पूर्वक विराजमान किया था। यदि इस अनुभूति में कुछ तथ्य है तो देवसभा से प्राप्त मूर्तियां खारवेल काल की, अर्थात् ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी की माननी होंगी। इन मूर्तियों में एक मूर्ति १४" की अम्बिका की है। देवी ललितासन में श्रासीन है । उसके दायें हाथ में ग्राम गुच्छक है, बायीं गोद में बालक है। यही एक मूर्ति गोमेद पक्ष और अम्बिका यक्षी की है। दोनों ललितासन से बैठे हुए हैं। अम्बिका की बायीं गोद में एक बालक बैठा हुआ है । दूसरा बालक दोनों के बीच में खड़ा है। देवी के ऊपर घास्तवक है । उसके ऊपर तीर्थङ्कर नेमिनाथ की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। दोनों पाइयों में चमरेन्द्र बड़े है।
मेकाना
समय पाठवीं शताब्दी माना गया है। इसी मन्दिर में एक मीटर ऊंचे शिला-फलक में अम्बिका की एक स्वतन्त्र मूर्ति है उसमें दोनों बालक है, माम्रगुच्छक है। इसके ऊपर । सिहासन का दस इंच ऊंचा शीर्षफलक है। देवी के भयोभाग में उसका वाहन सिंह बैठा हुआ है।
अपनी शोधयात्रा में मुझे अम्बिका और गोमेव की एक सुन्दर मूर्ति खुखुन्दू ( जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश ) मे देखने का अवसर प्राप्त हुआ । यह मूर्ति गुप्त काल की मानी जाती है और उत्खनन में प्राप्त हुई है। इसमे
विका के साथ केवल एक बालक है । इसमे यक्ष मूर्ति का भीकन है । खुखुन्दू के निकट कहाऊ ग्राम में पाषाणनिर्मित एक मानस्तम्भ है । यह स्तम्भ उसके शिलालेख के अनुसार समुद्रगुप्त काल का है । खुखुन्दू और कहाऊ | सुमुन्द्र और कहाऊ का सम्पूर्ण पुरातत्व गुप्तकालीन है। इसलिए अम्बिका और गोमेद की उक्त मूर्ति को गुप्तकालीन मानने में कोई बाबा नही है।
राजगृही के वंभारगिरि पर उत्खनन में प्राप्त भन जिनालय में अनेक मूर्तियाँ रखी हुई है। यहाँ की कुछ मूर्तियां नालन्दा संग्रहालय में तथा कुछ मूर्तियां राजगृही नगर के बाल मन्दिर में पहुंचा दी गयी है। वैभारगिरि के इस मन्दिर में सवा दो फुट के एक शिलाफलक में अम्बिका प्रोर गोमेद की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । प्राम्रगुच्छक, बालक, नेमिनाथ- प्रतिमा सव पूर्व की भांति है। विशेषता यह है कि देवी के चरणों के नीचे पांच भक्त बैठे हुए हैं। देवी का एक हाथ भूमि स्पर्श करता हुधा रखा है तथा दूसरा हाथ छाती पर रखा है। तीर्थङ्कर प्रतिमा का मुख कित है शासन देवता की इस मूर्ति का सर्वसम्मत
१. Ay/13 भुवनेश्वर से प्राप्त ।
एक अन्य मूर्ति है जो बड़ी श्रद्भुत है। एक शिलाफलक में तीन पंक्तियों में २३ तीर्थर मूर्ति बनी हुई है। चौथी पंक्ति में तीर्थङ्कर माता लेटी हुई है। उनके बगल में बालक तीर्थदूर लेटे हुए है। इनके मध्य में भग वान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमा बनी हुई है। इसके बाद अम्बिका देवी अपने दोनो बालकों- शुभकर मौर प्रियंकर को लेकर बैठी हुई है। सबसे धन्त में चमरवाहिनी - है । इस मूर्ति के पतिरिक्त अन्य कई मूर्तियाँ हैं, जो नवग्रह नव देवता, नव देवियों की है। इन सबका धनुमा निक काल पाठवीं शताब्दी प्रतीत होता है ।
भुवनेश्वर के राजकीय संग्रहालय में गोमुख यक्ष' की माठ इंच ऊंची मूर्ति सुरक्षित है, जिसका स्वीकृत समय सातवी शताब्दी है।
उपर्युक्त विवरण से यह सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि न तो यक्ष-यक्षियों का प्रचलन नौवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुमा धौरन 'तिलोयपण्णत्ती' नामक प्रार्थग्रन्थ का यक्ष-पक्षी से सम्बन्धित भश प्रक्षिप्त है । अपितु प्राचार्य यतिवृषभ द्वारा यक्ष-यक्षियों का उल्लेख करने के पूर्व ही तीर्थंकरों के साथ और स्वतन्त्र रूप से भी यक्ष-यक्षियों की मूर्तियों का निर्माण प्रचलित हो गया था।
शासन देवताओं के मूर्तिशिल्प का क्रमिक विकास शासन देवताओ के मूर्तिशिल्प का किस प्रकार क्रमिक विकास हुआ, इसका कोई इतिहास नहीं मिलता है। वर्त मान में उनका जो विकसित रूप हमे उपलब्ध होता है, इतिहास के विभिन्न युगों में सदा ही यह रूप नहीं रहा । कला कभी स्थिर नही रही उसकी माना विधाओं ने विभिन्न देश-कालो की धाराम्रो मे विभिन्न प्राकार ग्रहण किये। किन्तु किसी भी काल की विधा के लिए कोई एक निश्चित सिद्धान्त स्थिर नहीं किया जा सकता । अनुमान के माधार पर केवल कल्पना ही की जा सकती है।
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तोपंधरों के शासनकर देवियां हमारी विनम्र मान्यता है कि यक्ष-यक्षी की कल्पना यक्ष-यक्षियो के कमिक विकास की इस शृंखला में को मौर्यकाल में ही प्राकार प्राप्त होने लगा था। दो बातें विशेष विचारणीय है। प्रथम तो यह कि प्रारम्भिक अवस्था में यक्ष-यक्षी को संभवत: चमर-वाहक यक्ष-यक्षियो मे प्रथम प्राकार किसे मिला, निश्चयाके रूप में साकार किया गया था। दीदारगंज (पटना) से त्मक रूप मे यह कहना कठिन है। दूसरे यह कि प्राप्त चमर-धारिणी यक्षी-मूर्ति इसी काल की है। यह यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां पहले स्वतन्त्र बनी अथवा पहले पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। कुषाण-कालीन मथरा तीर्थधर मूर्तियों के साथ उनका निर्माण प्रारम्भ हमा, यह शैली में यक्ष-यक्षियों के मूर्ति शिल्प की प्राय: उपेक्षा की। freो पोखी कहना कठिन है, क्योंकि प्रारम्भ से ही दोनों प्रकार की
मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। गई है। किन्तु प्रायः इसी काल में उदयगिरि-खण्डगिरि की
शासन देवता और तन्त्रवाद : कुछ विद्वानों की रानी गुम्फा, अलकापुरी प्रादि में यक्ष यक्षी को द्वार पर
मान्यता है कि जैन धर्म के शासन देवता तन्त्रवाद की देन स्थान दिया गया। जिन्हे हम द्वारपाल और द्वाररक्षिका कहते
हैं। हम उनकी इस मान्यता से प्रसहमत है, क्योकि पार्षहै, वे यक्ष-यक्षी के अतिरिक्त अन्य कोई नही है। इससे
ग्रन्थो में समवसरण की जो सरचना बताई गई है, उसमें लगता है कि जैन मूर्ति शिल्प मे यक्ष-यक्षियों का प्रवेश तो
यक्ष-यमियों का भी विशिष्ट स्थान माना गया है। इसलिए उस समय हो गया था, किन्तु उन्हें तब तक जिनालय के
यक्ष-यक्षियों की मान्यता किसी प्रभाव का परिणाम महीं बाहर रह कर ही सन्तोष करना पड़ा। दक्षिण और
मानी जा सकती। किन्तु यह स्वीकार करने में कोई दक्षिण-पूर्व में कई स्थानों पर जिनालयों के द्वार पर द्वार
संकोच नही हो सकता कि एक समय ऐसा भी माया, जब पाल के रूप में यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ मिलती है। उन्हे
यक्ष-यक्षियों के कार्यों को कुछ विद्वानों, भट्टारकों मोर जिनालयों के अन्दर प्रवेश पाने और तीर्थङ्कर-मूर्तियों के
यतियों ने तन्त्रवाद के साथ सम्बद्ध करने का प्रयल किया। साथ स्थान ग्रहण करने में कुछ शताब्दियों का समय लगा
भारत मे जब तन्त्रवाद का बहुत जोर था और बौद्ध एवं होगा।
वैदिक धर्म उसकी लपेट में आ गये थे, उस समय प्रध्यात्महमें लगता है कि सर्व प्रथम बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ
प्रधान जैन धर्म के विशाल वृक्ष को भी तन्त्रवाद की इस के शासन देवता गोमेद और अम्बिका ने मूर्ति रूप धारण
पाँधी ने कुछ झकझोर दिया था। उस काल मे तन्त्रवाद किया। इसके पश्चात् पद्मावती, चक्रेश्वरी, सिद्धायिका
ने जैन धर्म की पूजा पद्धति मे प्रवेश पाने का कुछ प्रयत्न और बाद में शेष शासन देवताओं की मूर्तियां निर्मित होने
किया था। इसी के फलस्वरूप कुछ विद्वान लेखकों ने यक्षलगीं। ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी तक शासम देव.
यक्षियों का दर्गा उपासक से उठाकर आस्य तक पहुंचाने ताओं की मूर्तियों का पर्याप्त विकास हो गया। इतना ही का भगीरथे प्रयत्न किया। इस कार्य मे भट्टारकों का नहीं, नवग्रह, क्षेत्रपाल, सरस्वती प्रादि देव-देवियो ने एवं योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होने ज्वालामालिनी कल्प, प्रतीकात्मक रूप से गंगा-यमुना मादि ने भी इस काल में पद्मावती कल्प प्रादि कला ग्रयों की रचना की; अनेक मन्त्र. अपना उचित स्थान बना लिया। नौवीं-दसवीं शताब्दी मे शास्व रचे गये जिनमें देवतामों को प्रसन्न करने के बहविष तो तीर्थर मूर्तियों के साथ अन्य देव-देवियों को भी विधान बताये गये, ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए स्थान प्राप्त होने लगा। शासन देवताओं के मूर्ति-शिल्प के अनेक तान्त्रिक प्रयोगों का सृजन किया गया। जैन पूजाइस क्रमिक विकास का समुचित मूल्यांकन और अध्ययन विधि मे पचाङ्ग पूजा (माह्वानन, स्थापन, सन्निषीकरण, नहीं हो पाया है। यदि इसका व्यवस्थित अध्ययन हो पूजन और विसर्जन) का प्रचलन इसी काल मे हुमा। तो अनेक रोचक रहस्यों का उद्घाटन होने की सम्भा- प्रतिष्ठापाठों में यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, नवग्रहों, वना है।
दिग्पालों प्रादि देवताओं का प्रष्टद्रव्य से पचांग पूजन का यह एक रोचक तथ्य है कि यक्षों की अपेक्षा यक्षी- विधान निश्चय ही तन्त्रवाद से प्रभावित रहा है। किन्त मूर्तियो का सदा ही बाहुल्य रहा है।
यक्ष-यक्षियों की मान्यता पर तन्त्रवाद का प्रभाव नहीं है,
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१४० वर्ष २८, कि० ।
उनके कार्यों को तन्त्रवाद के प्राग्रही कुछ विद्वानों ने तन्त्र- 'सम्यकप्रभावितजिमेश्वर शासन श्री पश्वरी प्रभूतिवाद से प्रभावित करने का अवश्य कुछ प्रयत्न किया।
शासन देवतायाः।' यक्ष-यक्षियों की मान्यता प्राय: जैन प्रतिमा-शिल्प के साथ इसी प्रकार, भाचार्य सोमदेव ने यक्ष-यक्षियों को. ही प्रचलित हो गई थी और यह वह समय था जब तन्त्र. शासन रक्षक स्वीकार किया है और पं० माशाधर ने वाद को समाज में विशेष महत्व प्राप्त नही हमा था। उन्हे शामन देवता माना है। दूसरी ओर, यक्ष-यक्षियों के कार्यों को तन्त्रवाद ने मध्यो. प्रतीत होता है कि उत्तर मध्यकाल में तीर्थङ्करों के तर काल मे कुछ प्रभावित किया था।
उपासक शासन देवताओं को ऐहिक कामना-पूर्ति के नाम जैन धर्म में शासन देवताओं का स्थान : प्रतिष्ठा पर उपास्य का पद प्रदान करने का प्रयत्न प्रारम्भ होने शास्त्रों में यक्ष-यक्षियो को शासन देवता अथवा शासन लगा था। किन्तु तभी इस परम्परा के विरुद्ध प्रवृत्ति का रक्षक देवता स्वीकार किया गया है। प्रत्येक तीर्थङ्कर जोरदार विरोध भी हया । प्राचार्य सोमदेव' ने इस प्रवृत्ति के निकट समवसरण में एक यक्ष और एक यक्षी की जोरदार शब्दो में भर्त्सना करते हुए कहा कि तीनों रहते है। उनके मन में अपने तीर्थङ्कर के प्रति बडी भक्ति लोकों के दष्टा जिनेन्द्रदेव और व्यन्तरादिक देवतानो को रहती है। वे समवसरण में तीर्थङ्कर की प्रथवा उनके पूजा विधान में जो समान समझता है, वह नरक में जाता शासन की सेवा या रक्षा किस प्रकार करते हैं अथवा है। उन्होंने यह तो स्वीकार किया है कि परमागम में इन उनका कार्य क्या है, यह किसी ग्रंथ में देखने में नहीं आया। शासन देवतानों की कल्पना शासन की रक्षा के लिए की किसी प्रतिष्ठा ग्रन्थ अथवा पुराण में भी इस सम्बन्ध मे गई है। अतः सभ्यग्दष्टियों को यज्ञ का कुछ भाग देकर कोई प्रकाश नही डाला गया। किन्तु उन्हे शासन देवता उनका सम्मान करना उचित है। किन्तु उन्होने इस प्रवृत्ति अथवा शासन रक्षक देवता के रूप मे जैन धर्म में मान्यता का कड़ा विरोध किया कि अपनी मनोकामनायों की पूर्ति प्राप्त है, इसमें कोई सन्देह नही है।
के लिए अथवा आपदाओं के निवारण के लिये शासन देव- प्राचार्य नेमिचन्द्र कृत प्रतिष्ठा तिलक में यक्ष पूजा के ताओं की पूजा उपास्य के रूप में की जाय । उन्होने कहा प्रसंग मे यक्षों की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि जैन धर्म के भक्त सम्यग्दृष्टि व्रती पुरुषो के ऊपर तो गया है:
वे शासन देवता और उनके इन्द्र स्वय ही प्रसन्न रहते . 'यमं यजामो जिनमार्गरक्षादक्षं सदा भव्यजनक पक्षम्। है।
निर्वग्बनिःशेषविपक्षकलं प्रतीक्ष्यमत्यक्षसुखे विलक्षम् ॥ इसी प्रकार, पं० प्राश धर ने अपना विरोध का स्वर 5. इसमे यक्षो को जिन शासन में रक्षा-परायण और मुखर करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा-मापदामो से माकुसंदा भव्यजनों का पक्ष लेने वाला बताया गया है। लित होकर भी दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक उनकी निवृत्ति - " इसी प्रकार, यक्षी-पूजा के प्रसंग में उन्हें शासनदेवता के लिये कभी भी शासम देवताओं की सेवा नहीं करता, बताया गया है। सन्दर्भ इस प्रकार है :
पाक्षिक श्रावक ऐसा करता है।
५. तच्छासनकभक्ताना सुदशा सुव्रतात्मनाम् । स्वयमेव प्रसीदन्ति ता: पुसां सपुरन्दराः ।
-----उपासकाध्ययन, ३६६६९ ।
- १. उपासकाध्ययन ३६०६६। .२. सागारधर्मामृत ३७ । .३. देवं जगत्त्रयीनेत्र व्यन्तराद्याश्च देवताः । • सम पूजाविधानेषु पश्यन् दूरं बजेदधः ॥
--उपासकाध्ययन, ३६६६६७ । ४. ताः शासनाधिरक्षार्थ कल्पिता: परमागमे । प्रतो यज्ञांशदातेन माननीया: सुदृष्टिभिः ॥
-उपासकाध्ययन, ३९६९८ ।
प्रापदाकुलितोऽपि दार्शनिकस्तन्निवृत्यर्थ शासनदेवता• दीन कदाचिदपि न भजते, पाक्षिकस्तु भजत्यपीत्येवमर्थ मेंकग्रहणम् -सागारधर्मामत, ३१७.८। ।
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तीपरों के शासन-वेव और देवियाँ
इन विरोधी स्वरों में शासन देवताओं को उपास्य के इनमें यक्ष व्यन्तर देवों की एक जाति मानी गई है। ये रूप में मानने और उनकी पूजा करने की परम्पराविरुद्ध भी बारह' प्रकार के होते हैं-माणिभद्र, पूर्णभद्र, शलभद्र, मान्यता के विरोध में असह्य क्षोभ की ध्वनि है जो तत्का- मनोभद्र, भद्रक, सुभद्र, सर्वभद्र मानुष, धनपाल, स्वरूप लीन लोक मानस को प्रतिबिम्बित करती है। यद्यपि उग्र यक्ष, यक्षोत्तम और मनोहरण । इनके माणिभद्र और पूर्णभद्र विरोध होने के बावजूद दिगम्बर परम्परा के कुछ भट्टारकों ये दो इन्द्र होते हैं।
और श्वेताम्बर परम्परा के कुछ प्राचार्यों की रुचि मंत्र- पिशाच जाति के व्यन्तरों में भी यक्ष नामक देव होते तंत्र की ओर विशेष रूप से रही, उनके कारण शासन
है। पिशाच देवों के १४ भेद' बतलाये गए हैं-कूष्माण्ड, देवताओं को विशेष महत्व प्राप्त हो गया। विभिन्न कल्पों
यक्ष, राक्षस, संमोह, तारक, अशुचि काल, महाकाल, शुचि, और विधानो की रचनाएँ इसी का परिणाम है। इस
सतालक, देह महा देह, तूष्णीक और प्रवचन । प्रवृत्ति का एक क्लेशकारी परिणाम यह भी निकला कि
छह दिशाओं के छह रक्षक' देव होते है-विजय, देवियों के शीर्ष पर वीतराग तीर्थकरों की मूर्तियाँ बनने
वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, अनावर्त और पावतं । ये भी लगी। यह सब होने पर भी शासन देवताओं को तीर्थंकरों
यक्ष कहे जाते है। के समकक्ष दर्जा कभी नहीं मिल सका, उन्हे तीर्थंकरों के
२४ यक्षो के नामो मे किन्नर, गन्धर्व, कुबेर भोर उपासक के रूप मे ही मान्यता प्राप्त हुई।
वरुण ये नाम भी सम्मिलित है। किन्नर और गन्धर्व ये यक्ष यक्षियों का पारस्परिक संबन्ध और उनकी जाति: .
व्यन्तर निकाय के देवों के भेद है । अतः ये दोनों व्यस्तर तीर्थकरों के इन २४ यक्षों और २४ यक्षियों के सबध
देव होने चाहिये । कुबेर और वरुण ये दोनों लोकपाल देव में कुछ जिज्ञासाए मन में जागृत होती है और अपेक्षा
है। चारों दिशाओं की रक्षा करने वाले देवों को लोकपाल की जाती है कि इनका कुछ साधार समाधान प्राप्त हो।
कहते है । चारों दिशामों की रक्षा करने वाले चार लोकउदाहरणत:
पाल होते है -सोम, यम, वरुण और कुबेर । ऐसे लोकये यक्ष यक्षी किस देव निकाय या देवों की पाल भवनवासियों और कल्पवासियों मे अर्थात दोनों किस जाति के होते हे ?
निकायों में होते हैं । भवनवासियो मे प्रत्येक इन्द्र के पूर्वा(२) इन यक्ष-यक्षियों का परस्पर में क्या सम्बन्ध दिक दिशामों के रक्षक क्रम से सोम, यम, वरुण और धनद. होता है, अर्थात ये युगल पति-पत्नी होते है अथवा नही? (कुबेर) नामक चार-चार लोकपाल होते है। इस प्रकार
यहाँ यक्ष शब्द से किसी एक ही जाति के देवों का भवनवासियों में ४० लोकपाल होते है। इसी प्रकार. वैमा. ग्रहण नही होता । यक्ष शब्द तीर्थंकरो के सेवक या शासन निक'देवों में भी चार-चार लोकपाल होते है। ये लोकरक्षक के अर्थ में लिया गया है, ऐसा देवता देवो के किसी पाल सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतव. निकाय का हो, उसकी किसी भी जाति का हो । यक्ष देवों मह शुक्र, सहस्रार और मानतादि चार इन सब इन्द्रों के की एक जाति होती है और यक्ष जाति ज्योतिष्क निकाय चार-चार होते है - सोम, यम, वरुण और कुवेर । सौधर्म को छोड कर शेष सभी निकायों में प्राप्त होती है। इन्द्र के लोकपाल नियम से द्विचरमशरीरी होने
व्यन्तर देवों में साठ जातियाँ होती है-'किन्नर, उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कबेर किम्परुष. महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भत पौर पिशाच। और वरुण नामक यक्ष लोकपाल थे। वे या तो भवनबासी
१. तत्वार्थ सूत्र, ४।११। २. तिलोयपण्णत्ती, ६।४२; त्रिलोकमार, २६५-२६६। ३ तिलोयपण्णत्ती, ६।४८-४९ त्रिलोकसार २७१-२७२ । ४., प्रतिष्ठासारोद्धार, ३॥१९६-२०१ ।
५. पत्तेक इंदयणं सोमो यम वरुण धणद णामा य । पुवादि लोयपाला हवंति चत्तारि-चत्तारि।
-तिलोयपण्णती, ३३७१। ६. तिलोयपणती, ८२८७-२६६ ।
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iyR, वर्ष २८, कि० १
अनेकात
थे अथवा कल्पवासी। धरणेन्द्र और पद्मावती भवनवासी यक्षो के नाम इस प्रकार हैं : तिलोयपण्णत्तीदेवों की नागकुमार जाति के उत्तरक्षेत्रीय इन्द्र-इन्द्राणी (१) गोवदन, (२) महायक्ष, (३) त्रिमुख, (४)
___ यक्षेश्वर, (५) तुम्वख, (६) मातग, (७) विजय, पुराणों आदि में विभिन्न स्थनों पर यक्षों के भिन्न- (८) अजित, (६) ब्रह्म, (१०) ब्रह्मेश्वर, (११) भिन्न कार्यों का उल्लेख मिलता है, जैसे यक्षेन्द्र चार धर्म- कुमार, (१२) पण्मुख, (१३) पाताल, (१४) किन्नर, चक्रों को समवसरण मे धारण करते है । यक्ष तीर्थकरों को (१५) किंपुरुष, (१६) गरुड़, (१७) गन्धर्व, (१८) कुबेर, ६४ चमर दलाते है । समवसरण में यक्ष और यक्षी भग
ता भग- (१६) वरुण, (२०) भृकुटि, (२१) गोमेघ, (२२) वान के निकट रहते हैं । सर्वाह्न' यक्ष गज पर प्रारूढ़ हो पाल, (२३) मातंग और (२४) गुह्यक। कर मस्तक पर धर्मचक्र रख कर दोनों हाथों से उसे पकड़ वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासार, संग्रह -(१) गोमुख, रखता है और दो हाथ जोड़े हुए बिहार के समय भगवान् (२) महायक्ष, (३) त्रिमुख, (४) यक्षेश्वर, (५) तुंवर, के प्रागे चलता है। सर्वाह्न यक्ष किस जाति का देव है,
जाति का दव । (६) पुष्प,(७) मातग,(८) श्याम, (६) अजित, (१०) यह ज्ञात नही हो पाया। सम्भवतः वह व्यन्तर जाति का ब्रह्म, (११) ईश्वर, (१२) कुमार, (१३) चतुर्मुख, (१४) होगा। धर्मचक्र को धारण करने वाले यक्षेन्द्र भी व्यन्तर पाताल, (१५) किन्नर, (१६) गरुड़.(१७) गन्धर्व, (१८) जाति के होते है।
रवेन्द्र, (१६) कुबेर, (२०) वरुण, (२१) भृकुटि, ६४ चमर व्यन्तर जाति के यक्ष ढुलाते है । शेष यक्ष- (२२) गोमेद (२३) धरण और (२४) मातंग। यक्षी किस निकाय या जाति के देव है, इस प्रश्न का आशाधरकृत प्रतिष्ठासारोद्धार-सभी नाम वसुनन्दि उत्तर दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
के अनुसार है। इसी प्रकार, दूसरा प्रश्न कि प्रत्येक यक्ष-यक्षी युगल नेमिचन्द्रकृत प्रतिष्ठातिलक-सभी नाम वसुनन्दि का पारस्परिक सम्बन्ध क्या था, यह भी अनसुलझा ही के अनुसार है । केवल १३वें यक्ष का नाम षण्मुख है। रख जाता है। किसी प्रतिष्ठा शास्त्र में प्रथवा दिगम्बर- हेमचन्द्रकृत अभिधानचिन्तामणि-चौथा यक्ष यक्षइवेताम्बर ग्रन्थ मे इस सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं मिलता। नायक, छटवां सूमुख, पाठवा विजय, ग्यारहवां यक्षेश्वर, केवल धरणेन्द्र और पद्मावती के सबन्ध में उत्तरपुराण तेरहवों षण्मुख, अठारहवां यक्षेन्द्र, तेईसवाँ पाश्वं । शेष मादि शास्त्रों में यह उल्लेख प्राप्त होता है कि वे भवन- नाम वसुनन्दि के समान है। वासी निकाय की नागकुमार जाति के इन्द्र-इन्द्राणी थे। वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर-चोया यक्षेश्वर इनके अतिरिक्त, शेष २३ यक्ष-यक्षी भी क्या इसी प्रकार छटवां कुसुम ; शेष नाम साधारण परिवर्तन के साथ अभिपति-पत्नी थे अथवा नहीं, इस संबन्ध मे कोई सूचना प्राप्त धानचिन्तामणि के समान हैं। नहीं होती।
ठक्कुरफेरुकृतवास्तुसार प्रकरण-चौथा ईश्वर, मठायक्ष यक्षियों के नामों में वैषम्य : तीर्थकरो के रहवां यक्षेन्द्र । शेष हेमचन्द्र के अनुसार है। २४ यक्षो और यक्षियो के नामो के संबन्ध मे पादलिप्तसूरिकृत निर्वाणकलिका-ठक्कूरफेरु के शास्त्रो में बहुत मतभेद या वैषम्य है। दिगम्बर और समान हैं। म्वेताम्बर शास्त्रो में इनके जो नाम उपलब्ध होते है, अपराजितपृच्छ।-पहला वृषमुख, चोथा चतुरानन, वे यहाँ दिये जा रहे है। इससे उनमें कहाँ एकरूपता और नौवां जय, ग्यारहवाँ किन्नरेश। शेष नाम प्राचारदिनकर कहाँ वैषम्य है, यह समझने में सुविधा होगी।
के समान है।
१. उत्तुंगं शरदभ्रशुभ्रमुचित सविभ्रमं विभ्रतं,
यो दिव्य द्विपमारुरोह शिरसि श्री धर्मचक्र दो।
हस्ताभ्यामासितद्युति करयुगेनान्येन बद्धांजलि, तं जैनाध्वररक्षणक्षममिमं सर्वाह्नयक्षं यजे ॥
-प्रतिष्ठातिलक, पृ०६६।
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तीर्थरों के शासन-वेव और रेवियां
यक्षों के जो नाम विभिन्न दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थों जिता (२०) बहुरूपिणी (२१) चामुण्डा (कुसुममालिनी) में दिये गए है, उनमें विशेष अन्तर नहीं है, किन्तु इन (२२) प्राम्रा (कूष्माण्डी) (२३) पद्मावती (२४) शास्त्रों मे दिये गए नामों से तिलोयपण्णत्ती में दिये गए सिद्धायिका (सिद्धायिनी) । प्रतिष्ठासारोद्धार भोर प्रतिनामों में भारी अन्तर है। क्रम संख्या की दृष्टि से उसके ष्ठातिलक में शेष नाम समान हैं। प्रारम्भिक पांच नाम ही अन्य ग्रन्थों से मिलते है। शेष
प्राचारदिनकर - (१) चक्रेश्वरी (निर्वाणकलिक) नामों में क्रम भग है। तिलोयपण्णत्ती में जो नाम छटवें
और वास्तुसारप्रकरण मे अप्रतिचक्रा (२) अजितबला स्थान पर है, वह अन्य ग्रन्थो में सातवें स्थान पर है।
(नि० क. और वा० सा० प्र० में अजिता) (३) दुरियह अन्तर अन्त तक है। तिलोयपण्णत्ती में चौबीसवें यक्ष
तारि (४) काली (नि० क. और वा० सा०प्र० मे का नाम गुह्यक दिया है, किन्तु इस नाम का कोई यक्ष
कालिका) (५) महाकाली (६) अच्युता (अभिधानअन्य ग्रन्थों में नहीं मिलता। इस प्रसंगति का कारण यह
चिन्तामणि मे श्यामा) (७) शान्ता (८) भृकुटि (६) है कि तिलोयपण्णत्ती में छटवे नम्बर के यक्ष का नाम
सुतारा (अ० चि० में सुतारका) (१०) अशोका (११) छूट गया, जिससे क्रम भंग हो गया और अन्त में चौबीस
मानवी (१२) चण्डा (नि० क. और वा० सा०प्र० में संख्या पूरी करने के लिए गुह्यक नामक एक यक्ष की
प्रचण्डा) (१३) विदिता (१४) अकुशा (१५) कंदर्पा कल्पना करनी पड़ी। यह भूल मूल ग्रन्थ की है अथवा
(१६) निर्वाणा (अन्य ग्रन्थों में निर्वाणी) (१७) बला प्रतिलिपिकारों और सम्पादकों की, इस सम्बन्ध में कुछ (१८) धारिणी (१९) नागाधिपा (म० चि० में घरणभी नहीं कहा जा सकता।
प्रिया, नि० क. और वा० सा० प्र० में वैरोट्या) (२०) यक्षों की अपेक्षा पक्षियों के नामों के सम्बन्ध मे जैन
अच्छुप्तिका (नदत्ता) (२१) गान्धारिका (अन्य ग्रन्थों में शास्त्रों में नाम-भेद अधिक है। यहां विभिन्न ग्रन्थों के
गान्धारी या गान्धारा) (२२) अम्बा (अ० चि० में नाम साम्य और वैषम्य पर प्रकाश डाला जा रहा है :
अम्बिका, नि० क. और वा० सा० प्र० मे कूष्माण्डी) तिलोयपण्णत्ती-(१) चक्रेश्वरी (२) रोहिणी (३)
(२३) पद्यावती। अभिघानचिन्तामणि, निर्वाणकलिका प्रज्ञप्ति (४) बज्रशृंखला (५) बज्रांकुशा (६) अप्रति
और वास्तुसारप्रकरण में शेष नाम प्राचारदिनकर के चक्रेश्वरी (७) पुरुषदत्ता (4) मनोवेगा (8) काली
र समान हैं। (१०) ज्वालामालिनी (११) महाकाली (१२) गौरी । (१३) गान्धारी (१४) वैरोटी (१५) अनन्तमती (१६) अपराजितपृच्छा मे अन्य ग्रन्थो से नाम वैषम्य है। मानसी (१७) महामानसी (१८) जया (१६) विजया प्रत. उसके नामों की तालिका पृथक् से दी जा रही है जो (२०) अपराजिता (२१) बहुरूपिणी (२२) कृष्माण्डी इस प्रकार है : (२३) पद्मा (२४) सिद्धायिनी।
(१)चक्रेश्वरी (२) रोहिणी (३) प्रज्ञा (४) बजप्रतिष्ठासार सग्रह-(१)चक्रेश्वरी (२)रोहिणी(३) शंखला (५) नरदत्ता (६) मनोवेगा (७) कालिका प्रज्ञप्ति (नम्रा) (४) बजशृखला (प्रतिष्ठासारोद्धार () ज्वालामालिनी (8) महाकाली (१०) मानवी पौर प्रतिष्ठातिलक में पविशृंखला) (५) पुरुषदत्ता (११) गौरी (१२) गान्धारिका (१३) विराटा (१४) मथवा संसारी (प्र० सा० में खड्गवरा) (६) मनोवेगा तारिका (१५) अनन्तागति (१६) मानसी (१७) महा(७) काली (मानवी) (८) ज्वालिनी (ज्वालामालिनी) मानसी (१८) जया (१६) विजया (२०) अपराजिता (६) महाकाली (१०) मानवी (११) गौरी (गोमेधका) (२१) बहरूपा (२२) अम्बिका (२३) पदमावती (१२) गान्धारी (१३) रोटी (प्र. ति० मे वरोटिका) (२४) सिद्धायिका। अपराजितपृच्छा की यह नाम-सची (१४) अनन्तमती (१५) मानसी (१६) महामानसी श्वेताम्बर ग्रन्थो की अपेक्षा दिगम्बर ग्रन्थों की सूची के (१७) जयदेवी (जया) (१०) तारावती (१९) अपरा- अधिक निकट है।
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१४,
२८, कि.१
तिलोयपण्णत्ती में यक्षो के नामो के समान यक्षियों के निश्चित रूप से यह तो नहीं कहा जा सकता । किन्तु नामों में भी क्रम-विपर्यय हैं और नामों में कुछ अन्तर भी कुषाण काल की सरस्वती प्रतिमा मिलने से यह कल्पना है। इस ग्रन्थ में पांचवें नाम से ही क्रम-भंग हो गया है कम से कम २००० वर्ष प्राचीन तो है ही। इसके पश्चात् तथा ५ नामों में अन्तर भी है।
सरस्वती की परिकल्पना में क्रमिक विकास हुप्रा; उसके इस प्रकार, हम देखते हैं कि यक्षियों के नामों में बड़ा वाहन, प्रायूध, रूप प्रादि की कल्पना की गई। इसके अन्तर मिलता है । खण्डगिरि की बाराभुजी एवं नवनि पश्चात् सरस्वती के षोडश रूपो की कल्पना का विकास गुम्फामों में तीर्थंकरों के साथ उनकी यक्षियां भी उत्कीर्ण हुमा, जिन्हें षोडस विद्यादेविया कहा जाता है । अभियान हैं । देवगढ़ और चातियानदाई (वर्तमान में प्रयाग संग्र- चिन्तामणि (देवकाण्ड, द्वितीय) मे इन षोडश देवियो का हालय में ) चौबीस यक्षियों की मूर्तियां तीर्थंकरों के बिना नामोल्लेख करते हुए इस कल्पना को इस प्रकार व्यक्त बनी हुई है । इनमें उनके नाम भी लिखे हुए हैं । देवगढ़ किया गया है : की यक्षियों के नाम किसी भी अन्य में दिये गए उनके ___ "वाग् ब्राह्मो भारती गोर्गीर्वागी भाषा सरस्वती। नामों से नहीं मिलते हैं। जिस प्रकार साहित्य में यक्षियों
मलत ह । जिस प्रकार साहित्य में यक्षियों भूतदेवी वचनं तु व्याहारो भाषितं वचः ॥ के नामों के सम्बन्ध में परस्पर ऐकमत्य नही है, उसी प्रकार वाग. ब्राझी. भारती, गो., गीर्वाणी, भाषा, सरस्वता, साहित्य और शिल्प के नामों में भी साम्य दिखाई नही तदेवी. बचन, व्याहार, भाषित और वचस् ये सब एकापड़ता।
र्थक है। विद्यादेवियों की मान्यता : जैन परम्परा
इसका आशय यह है कि सरस्वती श्रुतदेवता से भिन्न में सरस्वती-पूजा प्रति प्राचीन काल से प्रचलित नहीं है और ये विद्यादेवियाँ श्रुतदेवता के हो विभिन्न रही है। मथुरा के जैन शिल्प मे कुषाण काल की मतं रूप है । 'निर्वाणकलिका' नामक ग्रन्थ में सरस्वता सरस्वती प्रतिमा मिली है। सम्भवतः सरस्वती प्रति- को द्वादशांग श्रतदेव की अधिदेवता बताया है। षोडश मानों में यह सबसे प्राचीन है। सरस्वती नामक कोई स्व. विद्यादेवियाँ विद्या या ज्ञान की देवियाँ है, ऐसी मान्यता तन्त्र व्यक्तित्व हो, ऐसा नहीं लगता, बल्कि समस्त द्वाद- है। शानश्रुत को देवता के रूप में माना है। श्रत की
ना है। श्रुत की हरिवंशपुराण (५६।२७) में सरस्वती देवी का नामोमान्यता भी देव और गुरु के समान है। इसलिए ही श्रुत- लेख हा है । उसमें बताया है कि जब तीर्थङ्कर नेमिभक्ति में "भक्त्या नित्यं प्रवन्दे श्रुतमहमखिलं सर्वलोकक- नाथ का विहार हो रहा था, उस समय लोकान्तिक दव सारं" कह कर श्रुत की बन्दना की गई है। श्रत के भगवान के प्रागे पागे चल रहे थे, पदमा और सरस्वतीसम्बन्ध में बताया गया है :
देविया अपने हाथो मे कमल लेकर तथा उनके परिवार परहंतभासियत्थं गणपरदेवेहि गंपियं सम्म। की देवियां हाथो में मंगल-द्रव्य धारण करके भगवान के पणमामि भतिजुत्तो सुदणाण महोवहि सिरसा ॥ प्रागे-मागे चल रही थीं।
अर्थात् प्ररहंतों द्वारा भाषित पौर गण वर देवों द्वारा ये पदमा और सरस्वती देवियाँ सम्भवत: लक्ष्मी और अथित श्रुतज्ञानसागर को मैं भक्ति पूर्वक प्रणाम करता सरस्वती देवियां है। लक्ष्मी नामक एक देवी शिखरी
पर्वत के पुण्डरीक सरोवर में पद्म-प्रासाद में सामानिक श्रुत जिनेन्द्र की वाणी है। इसलिए वह जिनेन्द्र के और पारिषद देवों के परिवार सहित निवास करती है। समान ही मान्य प्रौर पूज्य माना गया है । इतनी मान्यता छह कुलाचलों के मध्य भाग में पूर्व से पश्चिम तक लम्बे होने के कारण उसे श्रुत देवता मान लिया गया और श्रुत छह विशाल सरोवर हैं । उनमें महापुण्डरीक सरोवर मे देवता के प्रतीक रूप में सरस्वती की कल्पना की गई। निवास करने वाली बुद्धि नाम की एक देवी है । सम्भवत: सरस्वती की कल्पना सर्वप्रथम किस काल में की गई, यह देवी ही सरस्वती देवी है। लगता है कि भगवान नेमि
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तीर्थडुर के शासन-देव और देविगा
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नाथ के आगे पदमा और सरस्वती नामक जो देविया चल देवियो के रूप, वाहन और प्रायूध प्रादि को व्यवस्थित रही थी ये कलाचलो के सरोवर में रहने वाली बुद्धि पौर रूप प्रदान किया गया । दिगम्बर परम्परा में प्रायः विद्यालक्ष्मी देवियों थी । ये ऐशानेन्द्र की ग्राज्ञाकारिणी है। देवियो के पूजा-विधान के रूप में उनका रूप-वर्णन किया रुचकर द्वीप के कटो पर दिवकुमारिकायें निवास करती गया है । श्वेताम्बर परम्परा में उनके मूर्ति-शिल्प का है। उनमे लक्ष्मीमती और पद्मा नामक देवियो के नाम वर्णन मिलता है । दिगम्बर परम्परा में नीर्थकर मूर्तियों तो है किन्त सरस्वती नामक पिसी देवी का नाम नहीं के अतिरिक्त, गर्वतोभद्रिका प्रतिमाये, सहस्रकट जिनालय, है । ये दिक्कूमारियाँ तीर्थदुर माता की सेवा करती है। नन्दीश्वर जिनालय, ममवसरण जिनालय आदि की परदेवियों के इस विस्तृत विवरण मे भी हमे सरस्वती देवी म्परा प्रचलित है, विद्यादेवियो, अष्टमातृकाओं, क्षेत्रपाल, का नाम नहीं मिलता, केवल एक बार भगवान ननिनाथ सरस्वनी, नपग्रह प्रादि की मान्यता है और उनमे से कई के बिहार के प्रसग मे उसका नाम प्राया है । उससे यह भी की मूर्तियां भी मिलती है । किन्तु पाश्चयं है कि प्रतिष्ठाज्ञात नही होता कि वह देवो की किस जाति से सबन्धित ग्रथो, मिद्धान्त प्रयो और पुराण ग्रंथो में इनके सम्बन्ध मे थी। सम्भावना यही लगती है कि विद्या की अधिष्ठात्री अधिकृत विवरण नहीं मिलता। इसलिए कुछ लोगो की और श्रत की अधिदेवता सरस्वती द्वादशांग श्रुतज्ञान का ऐसी धारणा बन गई है कि दिगम्बर परम्परा में इनमें से काल्पनिक मतरूप है। ऐसा लगता है कि इस कल्पना को बरती दा fern zaREAT IT शिल्प मे पहले आकार दिया गया, साहित्य में बाद में है, यद्यपि अभी हम इस धारणा से महमत नहीं है और स्थान मिला, क्योकि साहित्य में स्थान मिलने से पूर्व हा हम जैन शिल्प के इस वैविध्य के आधारो की शोध कर सरस्वती की प्रतिमाये बननी प्रारम्भ हो गई थी। द्वादशांग श्रुत के अधिदेवता के रूप में इस देवी को साहित्य में
विद्यादेवियों के नाम : १६ विद्यादेवियों के नाम स्थान पाने में पर्याप्त समय लगा। तिलोयपण्णत्ती
इस प्रकार है ...१. रोहिणी, २. प्रज्ञप्ति, ३. बजशृंखला, (४११८८१) मे पाण्डकपन की जिन प्रतिमानो के साथ
४. बज्राकृशा, ५ जाम्बूनदा', ६. पुरुषदत्ता, ७. काली, रत्नादिको की श्रतदेवी, मर्वा और मनत्कुमार यक्षो की : महाकाली, गौरी १. गाभारी तियाँ रहने का उलख लेता है। इसमे जिस श्रुतदवी मालिनी', १२ मानवी, १३. वैरोटी', १४. अच्युता', १५. का उल्लेख किया गया है, वह वास्तव में क्या सरस्वती- मानसी. और १६. महाभानसी। देवी कही जा सकती है?
तीर्थकरी की २४ यक्षियो और १६ विद्यादेवियो के सरस्वती देवी का वृाण, गुप्त, प्रतिहार, कलचुरि नामो का मिलान करने से ऐसा लगता है कि इन १६ आदि विभिन्न कालो मे प्रति माये बनी । कई स्थानो पर देवियो का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नही है। इनमें से २-३ व मिलती है । किन्तु साहित्य में ६-१०वी शताब्दी मे को छोडकर प्राय. मभी नाम यक्षियो में है। समीकरण उसको व्यवस्थित रूप मिला । दिगम्बर और श्वेताम्बर करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहचते है कि सरस्वती के दोनो ही परम्परामो मे इन्ही या पश्चाद्वर्ती शताब्दियो में विभिन्न रूपो का लेकर १६ विद्यादेवियो की कल्पना की शिल्प शास्त्रों और प्रतिष्ठा शास्त्रो की रचनायें हुई। गई, किन्तु उनका स्वतन्त्र व्यक्तित्व प्रदान नही किया गया, उनमे तथा प्रासंगिक रूप में अन्य माहित्यिक ग्रन्थो मे सर- बल्कि यक्षियों के बहुभाग को विद्यादेवी का भी नाम स्वती और उसके विभिन्न रूपो की अनुकृति पर विद्या- प्रदान किया गया । इन देवियों के यक्षी या विद्यादेवी के १. अभिधानचिन्तामणि (देव काण्द्र द्वितीय) चक्रेश्वगे। ३ निर्वाणकलिका - ज्वाला। पदमानन्द १८३८४ प्रतिचक्रा ।
४. , बैरोट्या । २. अभिधानचिन्तामणि, देवकाण्ड -महापरा । प्राचार- ५. , प्रच्छ प्ता।
दिनकर (उदय ३३) में भी महापरा नाम दिया है।
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१४६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
रूपों की पृथक् पहचान के लिए उनके रूप, वाहन और है । वाहनों के नाम है -वृषभ, कमल, गज, लोहासन, या युधो में अन्तर डाल दिया गया। विद्यादेवियों को स्वतन्त्र मयुर, हम, गरुड, मृग, तुरग, सिंह, कमोन, पाडा, कच्छा, व्यक्तित्व न देने का एकमात्र कारण हम यही ममझो है शूकर, मकर, सर्प, मत्स्य, व्याघ्र, शव, अष्टापद, पुष्प, कि ये यक्षियो मे भिन्न कोई अलग देवी नहीं है । इन शरभ, पुरुष, गोधा, अजगर । विद्यादेवी का रूप तो कल्पित है। सम्भवन इसीलिए मख : साधारणतः सभी देव देविया प्रपने मौम्य रूप दिगम्बर जैन शिल्प में इन देवियों का प्रकन देने में नही मे ही शिल्प मे प्राप्त होते है। किन्तु कुछ देवों के मुख एक प्राया। प्राबू की विमलवसही में इनका अकन प्राप्त होता में अधिक बताये गये है, देवियो में किसी का मुख एक में
अधिक नहीं होता । यक्षो मे तीन, चार, छह और पाठ हिन्दू और बौद्ध परम्पग में भी सरस्वती की मान्यता मब तक माने गये है। त्रिमख, कुमार, पाताल, किन्नर है। उनमे सरस्वती के षोडश पो या पाइश देवि की ग्रोर गोमेद यक्षो के ३ ; महायक्ष, ब्रह्म, पमुख कुवेर, मान्यता नही है। किन्तु षोडश विद्यादेवियों में से अधि- पोर भृकुटि यो के ४; रबेन्द्र यक्ष के ६ और वरुण यक्ष काश देवियो की मान्यता हिन्द और बौद्ध परम्पग मे भी के मन मान गये है। इनके अतिरिक्त, गोमव यक्ष का रही है । देवियों के रूप जैन, किन्द प्रौर बोट परम्पगमा मुख गौ जैसा है तथा मातग और गम्ड यक्षी के मुख बक्र में प्रायः मिलते-जलते रहे है। जैनो के विभिन्न लिखक या कुटिल मान है। भी इन देवियों के रूप के सम्बन्ध में एकमत नही रहे। भुजा : यो मे येवल २, यक्षियो म २, और विद्याइसलिए किमी देवी-मूर्ति को देख कर कि.मी पुरातत्व- देवियो मे २ के हो दो भजायें बताई है। चार भुजा वाले विशेषज्ञ के लिए यह निर्णय करना ग्रति माहमार्ण कार्य देव-देबियो मे १२ यक्षो, १८ यक्षियो प्रौर १३ विद्याही कहा जायेगा कि प्रस्तुत मूति किम परम्पग विशेप से देवियो के नाम है। पड़भजी देव-देवियों में ५ यक्ष और सम्बन्धित है।
२ यक्षी है । अष्टभूजी ३ यक्ष, १ यक्षी और १ विद्यादेवी शासन देवों का रूप · शासनदेव या शामन देवता है। २ यक्ष और १ यक्षी द्वादशभूजी माने है। कहने से शासन रक्षक यक्ष और यक्षी एव विद्यादेवी का प्रायष : शामन देव देवियो में १६ यक्ष प्रोर २० प्राशय लिया जाना है। इनका रूप, वाहन, प्रायुध, मद्रा, यक्षी एक-एक हाथ अभय या वरद मदा म उठाये हुए है। भजायें प्रोर उनमे लिए हए विविध प्रायधी के मम्बन्ध में विद्यादेवियो में दिगम्बर परम्परा के अनुसार एक भी दवी विभिन्न जैन शास्त्री मे ऐकमत्य नहीं मिलता । स्थान के वरद मुद्रा मे नही है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार सकोच के कारण इस मबको जानकारी विस्तार से न दे कई देवियां वरद मुद्रा मे हाथ उठाए हुए है। इन देवियो के कर यहाँ केवल उमका सकेत मात्र दिया जा रहा है। शेष हाथो में निम्नलिखित प्रायुध या उपकरण है-- माला,
प्रासन-ये सभी देव-देवियां या तो ललितामन मे परश, विजौरा, बज्र, चक्र, फल, त्रिशूल, कमल, अकुश, बैठते हैं अथवा बीरासन मे । ललितामन मे दाया पर तलवार दण्ड, शख कनिका चन्द्र, कमण्डलु, धनुष, दान, पीठासन पर रहता है और वायां पर दायी जघा पर। बाण. नागपाश, सर्प, भाला, घण्टा, मत्स्य, अक्षमाला, वीरासन मे दोनो जघानो के ऊपर दोनो पैरो को रखा। शक्ति, मद्गर, कलश, गदा, मूमल, चाबुक हल, हरिण, जाता है । प्राय: कमल, कूर्म, मकर और पीठामन पर ये पाश, पान पानगुच्छक, पुस्तक, ब ग्वला, वीणा, कुन्त, देव-देवियाँ वीरासन मे मिलते है, शेष वाहनों पर ललिता- खेट और नमस्कार मुद्रा। सन में प्राप्त होते है । ललितासन मे वाहन के एक पार्श्व वर्ण : शासन देव देवियों का वर्ण इस प्रकार है --- की ओर ही दोनो पैर रहते है।
यक्षो मे ३ सुवर्ण, ५ वेत, ११ श्यान २ रक्त, १ वाहन : इन देव-देवियो के वाहन अनेक प्रकार के हरित.१ इन्द्रधनुष पोर १ मदग वण के यक्ष है। १ अनगारधर्मामृत ८.३|| प्रभाचन्द्र कृत क्रियाकलाप ।
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विज्ञान और महावीर की अहिंसा
श्री शम्सुद्दीन, रायपुर
एक बार एक वैज्ञानिक बहुत बड़ी भभा में विज्ञान तैरना सिखाया, किन्तु एक इन्गान की तरह पृथ्वी पर कैसे की उपलब्धियों पर प्रकाश डाल रहा था। उसने बताया रहना यह विज्ञान ने हमे नही सिखाया; और क्षण भर कि माज विज्ञान ने इतनी उन्नति कर ली है कि हम के लिये पूरी सभा में सन्नाटा छा गया तथा वैज्ञानिक अपने कमरे में बैठे-बैठे हजागे लाखों मील दूर की अावाज निरुत्तर हो गया। मन मकते है. यही नहीं बहा होने वाली घटनायो को भी बात भी सच है। आज के वैज्ञानिक युग मे ससार ने पालो मे देख सकते है, मिनटों में संकटो मील की यात्रा जितनी उन्नति की है, मानवता का उतना ही अधिक कर सकते है, तेज गरमी में कमरे के भीतर शीतल हवा पतन होता दिखाई दे रहा है । अाज इन्सान, इन्सान न का आनन्द ले सकते है, तथा ठड में गरमी पैदा कर सकते रहकर मशीन का पूर्जा-मात्र रह गया है तथा उसके भीतर है। श्राज हमारा जीवन इतना आगम और मुखमय हो निहित दया, क्षमा, प्रेम, महानुभूति आदि गायब-सी हो गया है कि हम कह मकते है कि हमने स्वर्ग को पृथ्वी पर रही है। मनुष्य भौतिक सुग्व-साधनो की अधिकता के बीच उतार लिया है । इमी समय एक व्यक्ति ने बड़े होकर भी एक अजीब-सी अशाति प्रौर बेचैनी का अनुभव कर वहा-हम मानते है कि विज्ञान ने हम पक्षी की तरह रहा है। उसकी इच्छाग्रो का कोई अन्त नही दिखाई देता। अाकाश में उडना सिखाया, मछली की तरह समद्र पर एक झठी मृग-तृष्णा के पीछे वह निरंतर भटक रहा है।
यही नही, प्राज इस विज्ञान ने ऐसे-ऐसे खतरनाक औजारो यक्षी ११ सुवर्ण, ३ श्वेत, १ रक्त, ६ हरित, १ पीत, का निर्माण कर दिया है जिनसे मिनटो में सारी दुनिया १ कृष्ण और १ प्रवाल वर्ण की है।
का ही विनाश हो मकता है। ऐसे समय बरबस हमे विद्यादेवियो में ७ मुवर्ण, ३, मीन, २ श्वेत, २ श्याम, भगवान महावीर सरीखे महामानव का स्मरण हो पाता १ रवत और १ विद्रम वर्ण की देवी है।
है जिनके उपदेश न केवल कुठित एव कराहती हुई मानवता विशेष : कृर यक्ष-यक्षियो के विशेष चिह्न होते है के लिये जीवनदान दे सकते है, वरन् विश्व को विनाश के जिनसे उनकी पहचान होती है; जैसे प्रथम गोमव यक्ष गर्न मे गिरने से भी बचा सकते है। के मस्तक पर घमंचक्र होता है। तीसरे त्रिमुख यक्ष के तीन नेत्र होते है। पांचवा तम्बरु यक्ष सप का यज्ञोपवीत अाधुनिक युग विज्ञान का युग है। इसमे भौतिक धारण करता है । तेईसवे धरणेन्द्र यक्ष के सिर पर सर्प
. दृष्टि से मनुष्य अपने चरम उत्कर्ष पर पहुच चुका है।
दृष्टि फण रहता है। चौबीसवे मातग यक्ष के सिर पर धर्मचक्र
उसने प्रकृति पर विजय पा ली है, अनेक शारीरिक रोगो
उमन प्र रहता है।
पर नियत्रण कर लिया है, तथा भौतिक सुख-सम्पन्नता में इसी प्रकार, बाइसवी यक्षी पाम्रा प्राम्रवक्ष की
स्वगं को भी मात दे दी है। किन्तु इतना सब होने के बाद
भी आज विश्व मे शाति नही है। सर्वत्र भय, प्राशका छाया में दो पुत्रो के साथ होती है । प्रायः एक पुत्र उसकी गोद में रहता है और दूसरा बगल में खड़ा रहता है। एक
एव खतरे का वातावरण बना हुआ है। आज अणुतेईसवीं यक्षी पदमावती के सिर पर विसर्पफणावली रहती शक्ति के निर्माण में होड़ लग गई है तथा प्रत्येक
राष्ट्र अपने पापको दूसरो से अधिक शक्तिशाली DD बनाकर रखना चाहता है। स्वार्थ एवं महंकार से प्रेरित
है ।
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१४८, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
शक्ति की इस होड ने संसार को विनाश के कगार अपने स्वार्थ साधन में लिप्त रहते है वे वास्तव में समाज पर ला कर बडा कर दिया है। इसके एक विस्फोट मात्र और मानवता की हिंसा के भागीदार है। से न केवल समूचे विश्व में ताडव फैल सकता है, वरन वैज्ञानिक यंत्रीकरण के परिणाम-स्वरूप कृषि एव मानवता के अस्तित्व को भी खतग पैदा हो सकता है। उद्योगों के उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि अवश्य हुई, किन्तु ऐमी स्थिति में भगवान महावीर के महिमा का मदेश ही इसका दुष्परिणाम यह भी हुप्रा कि बड़े कृपको और वह पतवार है जो विश्व की डूबती हुई नौका को पार उद्योगपतियों में संग्रह-वत्ति बढ़ गई। अमीर और भी लगा सकती है।
अमीर होकर पूजीपति बनने लगे तथा गरीब मजदर और विज्ञान के परिणाम स्वरूप आज जितनी सम्पन्नता भी गरीब होकर मारे-मारे फिरने लगे। अभीर पीर बढ़ रही है, लोगो मे उतना ही अधिक असतोष बढ रहा
गरीब का यह वर्ग-भेद अाज इतना अधिक बढ़ गया है कि है। इसका कारण लोगो में बढता हा लोभ और मोह
अनेक प्रयत्नों के बावजद भी हम देश में समाजवाद की है। ज्यों-ज्यो लाभ बढ़ता है, न्यो-त्यों लोभ भी बढता
स्थापना करने में असफल रहे हैं। मग्रहवृति का ही जाता है, और जब लोभ बढ़ता है तो मोह बढ़ता है और दुरिणाम है कि अधिक उत्पादन होने अथवा पर्याप्त इसका अंत होना है दुख और असंतोष में । यही कारण है मात्रा में वस्तुएँ उपलब्ध होने के बावजूद भी कृषिम कि आज सम्पन्न देशों और वर्गों में मुख-संतोष नही प्रभाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा वस्तुपों की दिखाई देता । भगवान महावीर का उपदेश है कि संतोष कीमतें पासमान छूने लगती है। से लोभ पर विजत प्राप्त करो। अपनी प्रावश्यकता से ऐसे लोगों के लिए महावीर ने अपरिग्रह का उपदेश अधिक का लोभ करना किसी अन्य को उसकी दिया है जिसका तात्पर्य है मग्रवृत्ति से दूर रहना । अावश्यकता से वचित करना है। दूसरे शब्दो में, यह उनका कहना था कि जितनी हमारी आवश्यकता है. उसकी हिंसा है।
उससे अधिक अपने पास मंग्रह कन्ने का हम कोई अधिविज्ञान ने प्राज मनुष्य को इतना भौतिकवादी बना कार नही है । यदि घर में केवल दो प्राणी रहने को है तो दिया है कि वह हर वस्तु को, यहाँ तक कि मानवता को बहुत बडी कोठी बना कर अपने कब्जे में रखना उचित भी, अर्थ की तुला पर तौलने लगा है। पैसा ही पाज नही। इसी प्रकार, अधिक धन अपने पास संग्रह करके उसका भगवान है तथा उसके सामने नैतिक मूल्यो का भी रखने का अर्थ है दूसरे जरूरतमद को उससे वचित रखना। कोई महत्व नही। यही कारण है कि जल की कमी होने दूसरे शब्दों में, यह उनकी प्रायिक हिसा है। पर लोग पानी को भी बेचते है, गरीब का बच्चा तड़प- माज के वैज्ञानिक युग में बिजली की जगमगाती तडप कर मर जाता है लेकिन फीस के अभाव मे डाक्टर रोशनी तथा गगनचम्बी प्रालिकामो को देख हम भले उसके घर नहीं जाता; अकाल से पीडित निघन भूखो मर ही अपनी तरक्की का दम भरे, किन्तु यह भी हमे मानना ज.ते है किन्तु अमीर अनाज को कं ठिो मे छिपाकर होगा कि आज व्यक्ति अपने ऊंचे आदर्शो से नीचे गिर रखे रहते है । भगवान महावीर का उपदेश है कि समाज गया है। उसका व्यक्तित्व दूषित हो गया है । हर आदमी के व्यापक हित में अपने सकुचित स्वार्थों का त्याग करो। सोचता है कि मैं ही सब कुछ हू और दूसरे कुछ नहीं । मैं किसी भूखे को यदि भोजन की जरुरत है तो अपनी रोटी जो कहता है, वही उचित है और बाकी सब अनुचित । का प्राधा हिस्सा उसे दे दो। अपना प्राधा वस्त्र देकर इससे अहं की भावना बढ़ती है और मनुष्य का दृष्टिकोण किसी नगे का तन ढांक सकते हो तो उसे सहर्ष दे दो। संचित होता है। इसी के बाद उसमे अन्य दुर्गण ग्रा इस प्रकार, अपने संकुचित स्वार्थ का त्याग कर मानव- जाते है और वह पतन की ओर बढ़ने लगता है । भगवान मात्र की भलाई करना महावीर के अनमार सच्ची महावीर ने कहा कि नम्रता से ग्रहकार को तो। इससे पहिसा है। जो दूसरों को दुग्वी और पीड़ित देकर भी
[शेष पृ० १५१ पर]
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महावीर : कुछ तथ्य
श्री शोभनाथ पाठक, मेघनगर (झबुमा)
तथा
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की चैत्रे जिनं सिततृतीयजयानिशान्ते, वरीयता से युग को अवगत कराने वाले, २४वे तीर्थकर सोभाह्निचन्द्रमसि चोत्तर फाल्गुनिस्थे ।' महावीर की महत्ता को प्रकिना मुगम नही है, जिनके ।
चत्रमितपक्षफल्गनि शशकियोगे विने त्रयोदश्याम् । म्यादाद व अनेकान्त का सम्बल ममार को मवार, पाकुल
जज्ञे स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषु सौम्येषु शुभलग्ने ।' अन्तस को उबारने मे पूर्ण सक्षम है। सह-अस्तित्व, सहि
इन उद्धरणो से यह स्पष्ट हो जाता है कि वर्द्धमान ठणुता व ममन्वय के समवेत स्वर ने उनकी वरवाणी मे
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को शुभ लग्न में पैदा हुए थे। जबकि उद्भत हो, भूले-भटके जनो के हृदय को मम्बल दिया,
अन्य पदो में और भी उल्लेख मिलता है, यथा:मानव को मानवता की तुला पर ऊपर उठाया, तथा ज्ञान
सिद्धार्थनपतितनयो भारतवर्षविदेहकुण्डपुरे । की थाती का अपूर्व कोप धरती पर लुटाया । अाज प्रणु में
देव्या प्रियकारिण्यो सुस्वप्नान्संप्रदय विभ॥' भयभीत मानवता के उद्धार के लिए महावीर का हिमा
अर्थात मिद्धार्थ राजा की प्रियकारिणी (त्रिशला) रूपी अस्त्र वरदान स्वरूप है। ऐसी महान विभूति के
धर्मपन्नी की पवित्र कोग्य से विदेह जनपद के कुण्डपुर ग्राम विषय में कुछ विशिष्ट बातें जानकर हम उनके गिद्धान्तो
मे महावीर का जन्म हमा था। यही बात 'काव्य-शिक्षा' को अपने जीवन में उतारे, इमी अपेक्षा से ज्ञान दवि का में भी की गई है, यथा:-- अतल मे पंठ आनन्दानुभूति से निहाल होने का माहान भातिकालिमाणिक्यं सिद्धार्थो नाम भूपति ।
कुण्डग्रामपुरस्वामी तस्य पुत्रो जिनोऽवतु ।' महावीर का जन्म-स्थान तथा काल
इन नथ्यो में स्पष्ट हो जाता है कि महावीर राजा पाश्र्वेशतीर्थसताने पञ्चाशदद्विशतात्मके ।
मिद्धार्थ की पत्नी विशला की कोख से विदेह जनपद के तब अन्तरवत्यिमहावीरोऽत्र जातवान ।।
का डग्राम मे पंदा हये थे। विदेह-जनपद के अन्तर्गत ही अर्थात पार्श्वनाथ तीर्थकर की तीर्थ-परमाग के ५०
वैशाली था जिमके ममीप ही कुण्डग्राम था जिसे माजकल वर्गाऽभ्यन्तर काल मे तीर्थकर वर्द्धमान महावीर उत्पन्न
वामुण्ड कहते है। यही कारण है कि महावीर का वध
वैशाली व निदेह मे विशेष रूप से ज्ञात होता है जो निम्न हुए । यह शुभ अवसर ५९६ ई० पूर्व का है, जब माना
उद्धरण से उजागर होना है, यथात्रिशला की कुक्षि से मास ७ दिन १२ घटे व्यतीत कर
विशाला जननी यस्य, विशाल कुलमेव च। वईमान चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को प्रर्यमा योग में उत्पन्न
विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः॥ हुए । यही बात विविध ग्रन्थों से भी पुष्ट होती है, यथा---
विदेह-जनपद से भी महावीर की घनिष्ठता व्यक्त की दष्टेग्रह रथ निजीविगत समलंग्ने,
गई है, यथा : "नाए नायपुत्ते नायकुलचन्दे विदेहदिन्ने, यथा पतितकालमसूत राजी। विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीस बासाई विदेहसि कह।" १ बर्द्धगनचरित (प्रमग कवि), १७१८
३ निर्वाणभक्ति,४. २. निर्माण भक्ति, ५; तथा
४. काव्यशिक्षा, ३१. 'प्रच्छिना पावमासे अट्रय दिवमे बहन मियपक्खें ५. सूत्रकृतांग, २१३.
(जपघवला, भाग १, पृ. ७८) ६. कल्पमूत्र-सूत्र ११
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१५०, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
विदेह-जनपद का कुण्डग्राम महावीर के प्राविर्भाव से इतना
लोक-कल्याण के लिए सर्वस्व-त्याग पावन एवं गरिमामयी हो गया कि मनीषी उमकी वरीयता जैसे-जैसे अवस्था बढ़ती गई, महावीर की सांसा. का वर्णन करते नहीं अघाते। हरिवशपुराण मे तो म्वर्ग से रिक वैभव विलाग की पोर अरुचि परिलक्षित होती रही। इसकी तुलना की गई है, यथा
त्याग का अकर उनके अतस् में उभरने लगा । माताअथ देशोस्ति विस्तारी जम्बूद्वीपस्य भारते। पिता तथा भाई नन्दिवर्द्धन इसे भांप कर उन्हे सांसारिविदेह इति विख्यातः स्वर्गखण्डसमः श्रिय ।
कता में रिझाना चाहते थे, किन्तु उनके सारे प्रयास विफल तत्राखण्डनेत्राली पद्मिनी खण्डमण्डनम् । रहे। महाबीर तो मानवता के कल्याण के लिए आये थे. सुखाम्भकुण्ड माभाति नाम्ना कुण्डपुर पुरम् ॥ प्रत ३० वर्ष की भरी जवानी में उन्होंने अपने अपर मुख,
अर्थात स्वगिक समृद्धि को भी मात देने वाला विदेह धन-दौलत और राज-पाट की ठोकर मार कर श्रमण दीक्षा जनपद का कुण्डग्राम कितना गौरवशाली है जहाँ २४वें को ग्रहण कर लिया। उन्होंने स्पष्ट कहातीर्थकर वर्द्धमान महावीर का शुभ प्राविर्भाव हुआ।
"सव्वं में प्रकरणिज्ज पाप कम्म" ये उद्धरण विशेष रूप से इसलिए देने पड़े है कि कुछ
अर्थात् प्राज से सभी पाप कर्म प्रकरणीय होगे।
तथालोगों के उलट-फेर से महावीर का जन्मस्थान कुण्डपुर
"करेमि सामाइयं सव्व सावज्ज जोगं पच्चक्खामि" (लिछपाड़), अंग जनपद मे दीर्घकाल तक माना जाता रहा
समस्त सावदाकर्मों का तीन करण और तोन योग में है। प्राज की ऐतिहासिक कसौटी पर यह गलत सिद्ध
त्याग करता हूं। महावीर ने अत्यधिक साधनामय जीवन हमा है। अब निर्विवाद रूप से वैशाली के पास वासुकुण्ड
बिताना प्रारम्भ कर दिया । ही उनका जन्म-स्थान माना जाता है, जहाँ डा. राजेन्द्र
साधनामय जीवन प्रसाद द्वारा एक शिलालेख लगाया हुआ है। इस स्थान
न प्रीतिमदगदेवासः स्थंय प्रति मया सह । को स्वयं मैंने देखा है। इन समस्त स्थानों की परख के
न गहिविनय कार्यों, मौन पाणौ च भोजनम् ।' बाद भी शोध अपेक्षित है।
अर्थात् अप्रीतिकारक स्थानो पर कभी नहीं रहूगा । बाल्यकाल की उपलब्धियाँ
सदा ध्यानस्थ रहकर मौन रहँगा। हाथ में ही भोजन राजा सिद्धार्थ की धर्म-पत्नी त्रिशला की कोख मे करूँगा तथा गहस्थों का विनय नही कहोगा । 'प्राचाराङ्ग पाते ही असीम समृद्धि उमड़ने लगी। अतः राजा ने पंदा सूत्र' के अनुसार उन्होने कभी भी पर-पात्र मे भोजन नह। होते ही तदनुरूप उस बालक का नाम समृद्धि सूचक वर्द्ध- किया। महावीर ने कठोरतम साधना की। उनके कानों मान रख दिया, यथा
मे कास ठमी गई, कुत्तों से कटवाया गया, गावों मे धूल तदूगर्भतः प्रतिदिनं स्वकुलस्य लकमी। फेकी गई, अनेक देवों ने प्रसहनीय वेदनाएँ दी, किन्तु दृष्ट्वा मुदा विषुकलामिव बर्द्धमानम् ॥
महावीर विचलित नही हुए। महीनों-महीनो वे बिना साधं सुरभंगवतो दशमेहि तस्य । खाये रह जाते. यहाँ तक कि पानी का भी त्याग कर देते, श्रीवर्द्धमान् इति नाम चकार राजा।।' पर ध्यानस्थ वे कंटकाकीर्ण पथ से विचलित नही हुए।
असाधारण प्रतिमा-सम्पन्न वर्द्धमान की बौद्धिक वरी- पूरे १२ वर्ष ६ मास १५ दिन की तपस्या में महावीर यता जहाँ सब को मोह लेती, वहीं कोड़ा में रत, संगम- ने केवल ३५० दिन (पारणा के) भोजन किया तथा देव द्वारा परीक्षा ली जाने पर उनके साहस, वीरता, प्रादि शेप दिन निर्जल उपवास में व्यतीत किये। धनघोर के कारण उन्हें 'वीर' और 'महावीर' की महत्ता से सम. साधना मे उन्होंने शरीर को तपा डाला। अन्ततः वैशाख लंकृत किया गया। अब वे वर्द्धमान से महावीर हो गये। शुक्ला दशमी के दिन जम्भिका ग्राम में ऋजुवालुका नदी १. हरिवंशपुराण, सर्ग २.
१ कल्पसूत्र सुवो. पृ० २८८. १. बर्द्धमानचरित, १७।६१.
२. प्राचाराङ्ग १६१, गाथा १६.
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मह और: कुछ तथ्य
के किनारे जीर्ण उद्यान के पास श्यामाक नामक गाथापति ३६००० माध्वियां, १,५६,००० श्रावक व ३,१८,००० के क्षेत्र में शालवृक्ष के नीचे, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के श्राविका भी। योग में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। अब वे 'अर्हत', इसके बाद महावीर घम-धम कर सदुपदेशों से लोगों 'जिन', 'सर्वदर्शी' व 'केवली' हुए।
को लाभान्वित करने लगे। जनभाषा अर्द्धमागधी में
वे अपना प्रवचन देते जिमसे जन-मन मुग्ध हो उनकी चतुर्विध संघ की स्थापना
पोर गिना पाता । राजा श्रेणिक, कणिक प्रादि तक जहाँ इसके बाद ही मध्यम पावा में भव्य समवशरण का उनके भक्त थे, वही हरिकेशी जैसे अछून भी। महावीर प्रायोजन हुआ, जिसकी व्यवस्था देवलानी ने की। की दष्टि में गभी ममान थे। बट्टी मज-धज के साथ यह हुना, यथा
निर्वाण प्रशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि:,
अंततः ७२ वर्ष की आयु में प्रर्थात् ५२७ ई० पू० में विध्यध्वनिश्चामरमासन च । पावा में दीपावली की रात उनको निर्वाण प्राप्त हमा। भामण्डलं दुण्दुभिरातपत्रां,
इम निषय में थोड़ा मतभेद है कि वह पावानगरी कौनसतप्रातिहार्याणि जिनेश्वरस्य ।। भी है, जो उन्हें निर्वाण प्राप्त हुग्रा । वैसे तो मैंने पावा
पूरीव पायानगरी दोनो को देखा है व बहत कुछ तव्य इसी ममवशरण में महावीर ने गौतम आदि ११
एकत्रित फिर है। किन्तु लेख बहुत बढ़ रहा है, अतः यह गणधरों को श्रमण दीक्षा देकर चतुर्विध संघ की स्थापना
फिर कभी देंगे। यहाँ बस इतना ही कहकर समाप्त की, जिसमें श्रमण, श्रमणा, थावक एवं श्राविकाएँ
करना है कि २५०० वाँ निर्वाणोत्सव विश्वस्तर पर मना थी। उनके इस पूरे धर्म-परिवार में गण, ११ गणधर, कामगध हिमा, अस्तेय, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य के
मम्बन मे प्टि को सबारें म्याद्वाद व अनेकात से यूग को ६०० चौदहपूर्वधारी, ४०० वादी, ७०० वैत्रियल ब्धि- निखरे धारी, ८०० अनुत्तरोपपातिक मनि, १४००० साधू,
00 [पृ० १४. का शेपाय दया, क्षमा, प्रेम प्रादि सदगुण अपने आप मनुष्य मे पायेगे दिया कि यरिया, दया क्षमा एक प्रेम में बड़ी अपूर्व शक्ति और वह 'अहिसा परमो धर्म' का पालन कर सकेगा। होती है तथा यह शक्ति उसे मच्चे सुख एवं शाति की प्राज विज्ञान के भोतिकवादी युग में लोगो की
भगकार हावीर ढाई हजार वर्ष पूर्व समाज की इच्छाम्रो का कोई प्रत नही और जब मनुष्य की इच्छा
जिम स्थिति को दबकर दृग्वी और विचलित हुए थे, की प्रति नहीं होती तो उसे क्रोध पा जाता है। यह क्रोध नाज उसमें कही अधिक बी स्थिति हमारे समाज की भी मनुष्य के लिए बड़ा अहितकर है। यह न केवल मनुष्य है। ग्राज का मानब भौतिक प्रगति की चकाचौंध में पथकी शक्ति को क्षीण करता है, वरन दूसरों के प्रति प्रेम की भ्रष्ट हो, दिग्भ्रमित-सा इधर-उधर भटक रहा है। धर्म भावना को भी नष्ट करता है। तप के समय भगवान् में उसकी ग्राम्था नहीं; सदाचरण का उमकी दृष्टि में महावीर को लोगों ने तरह-तरह से यातनायें दी, उन पर कोई मल्प नहीं: नीति और प्रादर्श उसे कोरे उपदेश पत्थर फेके, उन्हे बेकसूर मारा-पीटा, किन्तु उन्होंने किमी प्रतीत होते है। ऐसी स्थिति में, ससार-सागर में डगमगाती पर क्रोध नही किया। हिंसा का उत्तर कोंने अहिसा में मानवता की इस नैया को भगवान महावीर की अहिंसा दिया। नतीजा यह हुआ कि आगे चलकर लोगों को । ही किनारे लगा सकती है। पश्चात्ताप हा और वे उनके चरणो पर प्रा गिरे। इस प्रकार, महावीर ने अपने जीवन के कार्यों से सिद्ध कर रायपुर, (मध्य प्रदेश)
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उपाध्याय यशोविजय : व्यक्तित्व और कृतित्व
श्री गोकुल प्रसाद जन, नई दिल्ली
प्राचार्य हेमचन्द्रा के पश्चात उपाध्याय यशोविजय विद्वान थे। उनके सान्निध्य मे यशोविजय का विद्या ययन जैसा सर्वशास्त्र-पारंगत और उद्भट दूसरा विद्वान प्रारम्भ हुअा और शीघ्र ही यशोविजय भी सस्कृत, प्राकृत. दृष्टिगोचर नही होता। दर्शन शास्त्र के तो वे असाधारण गुजराती और हिन्दी में पारगत हो गये और काव्य रचना मनीषी थे। तर्क-शास्त्र में इनकी विशेष गति थी। ये करने लने। एक बार अहमदाबाद में उनकी अद्भुत स्मरणवि. स. १६८० से १७४३ तक वर्तमान रहे।
शक्ति और प्रखर बद्धि से प्रभावित होकर सेठ धन जी यद्यपि यशोविजय ने स्वयं अपने व्यापक साहित्य में सूरा ने दो हजार चाँदी की दीनारें, उनके उच्च अध्ययन कहीं पर भी अपने विषय में कुछ नही लिखा तो भी के लिए भेंट की। वे वाराणसी चले गये और वहाँ के 'सुजसवेलीभास' के आधार पर उनका थोडा-बहुत परिचय सर्वोत्कृष्ट विद्वान् भट्टाचार्य जी से षड्दर्शन का पारायण प्राप्त हो जाता है। 'सुजसवेलीभास' के रचयिता मनिवर
किया। वहाँ वे 'न्याय विशारद' और 'न्यायाचार्य' से विभकान्तिविजय उनके समकालीन थे। प्रत. यह कृति इस
षित हुए। तीन वर्ष के उपरान्त वहाँ से आकर उन्होंने दष्टि से सर्वथा प्रामाणिक मानी जानी चाहिए।
वि० स० १७०३-१७०७ तक चार पर्यन्त तक आगरा में
कर्कश तक शास्त्र का अध्ययन किया। उपर्युक्त रचना मे भी यशोविजय के जन्मस्थान के । विषय मे कुछ नही लिखा है। इसी कारण अभी तक इस वे नव्य न्याय के बड़े भारी विद्वान थे और उन्होने विषय पर मतभेद था, किन्तु अब महाराजा कर्ण देव के उसी शैली में कई ग्रन्थ भी रचे । उनके जैन तर्क भाषा, ताम्रपत्र से सिद्ध हो गया है कि उनका जन्म गुजरात के ज्ञान बिन्द, नय रहस्य, नय प्रदीप यादि ग्रन्थ उत्कृष्ट 'कनोडा" गांव मे हया था। यशोविजय का जन्म कोटि के है। उनकी विचार सारणि बहन ही परिष्कृत और सं० १६८० के लगभग हुआ था।
सतुलित थी। यशोविजय के पिता का नाम नारायण और माता यशोविजय जैन न्याय के भी प्रकाण्ड पडित थे। का नाम सौभाग्य देवी था। दोनों ही धर्मपरायण, दान- उनमे प्रभावित होकर ही पं० बनारसीदास दिगम्बर बन शील और उदार वृत्ति के व्यक्ति थे। उनका प्रभाव यशो- सके थे। ये जन्म से गुजराती थे किन्तु अनेक वर्ष तक विजय पर भी पड़ा। इनका बचपन का नाम जसवन्त हिन्दी क्षेत्र मे रहने के कारण हिन्दी पर भी इनका पूर्ण अथवा यशवन्त था। उनका एक छोटा भाई पद्मसिंह भी अधिकार हो गया था। अगाघ विद्वता अजित करके लौटने था । प्रहमदाबाद में प्रसिद्ध हीरीश्वर जी के चतुर्थ पदवर पर यशोविजय का अहमदाबाद के सूबेदार महावत खा पं.नयबिजय जी ने वि० सं० १६८८ में यशवन्त को, उसके ने अपने दरबार में बड़ा शानदार सम्मान किया। वहा मां-बाप की स्वीकृति के साथ दीक्षा दी। तत्पश्चात् ये उन्हें ने अपनी विद्वत्ता और स्मरण शक्ति के परिचायक यशोविजय कहलाये।
अठारह प्रवधान प्रस्तुत किये और सब को अत्यन्त प्रभा. पं० नय विजय जी स्वयं प्राकृत, संस्कृत, गुजराती, वित किया। अहमदाबाद मे ही उन्हें वि० स० १७१८ में व्याकरण, कोश, ज्योतिष आदि विद्याओं के उद्भट 'उयाध्यय' पदवी से विभूषित किया गया।
महेसाणा से पाटण जाने वाली रेलवे लाइन पर दूसरा स्टेशन धीणोज है। इससे चार मील पश्चिम में कनोडा गांव है।
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उपाध्याय यशोविजय : व्यक्तित्व और कृतित्व
यशोविजय ने वि.सं. १७१९ से १०४३ तक साहित्य यशोविजय ने गुजराती भाषा में अनेक स्तवनों, सजन किया। उन्होंने संस्कृत में ही लगभग ५०० छोटे-बड़े गीतों और वन्दनामों की रचना की है जो सब "गुर्जर प्रन्थों की रचना की । संस्कृत, प्राकृत, गुजराती और हिन्दी साहित्य संग्रह" के दो भागों में प्रकाशित हो चुका पर उनका समान अधिकार था और उन्होने इन्ही चार है। इनका लिखा 'जस विलास' हिंदी का प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ भाषाओं में लिखा है।
है । यह प्रकाशित हो चुका है और इसमें इनके ७५ पदों वि० स० १७४३ मे डभोई नगर में उपाध्याय यशो- का संग्रह है। इसके अतिरिक्त उनकी हिन्दी की कृतियां विजय का स्वर्गवास हुआ। यहाँ वि० सं० १७४५ मे 'मानन्दघन प्रष्टपदी', "दिग्पट ८४ बोल', 'साम्य शतक', प्रतिष्ठित यशोविजय जी की पादुका अब भी विद्यमान 'दूहा', 'नव निधान स्तवन', तथा अध्यात्म और भक्तिपद
भी है। पं० नाथ राम जी प्रेमी ने डभोई नगर को यशोविजय का जन्मस्थान माना है। अब यह बात मान्य नहीं
इन्होने अपने प्रानन्दघन अष्टपटी' नामक ग्रंथ में रही है। यशोविजय ने पूर्ण ब्रह्मचर्य और सच्ची
हिन्दी के जैन सन्त आनन्दधन की स्तुति में जो पाठ पद साधुता पूर्वक जीवन यापन किया और वे गौरव के साथ
बनाए थे, उन्ही का सग्रह है। कहा जाता है कि उपालगभग ६५ वर्ष जीवित रहे। श्रीमद् हेमचन्द्राचार्य के
ध्याय यशोविजय और प्रानन्दधन जी की भेंट भी हुई पश्चात् उन जैसे प्रकाण्ड विद्वान् वस्तुत: यशोविजय
थी। प्रानन्दघन सदैव अध्यात्म रस मे मग्न रहते थे। ही थे।
जब जन सम्पर्क मे पाते तो सुबोध और सुरुचिपूर्ण शैली में
उपदेश देते थे। यशोविजय जी उनसे मिलना चाहते थे। यशोविजय ने मुख्य रूप से तर्क और पागम पर
यशोविजय जैसा विद्वान उन्हे देख भाव विमुग्ध हुए बिना लिखा है। किन्तु व्याकरण, छन्द, अलकार और काव्य के
न रह सका। प्रानन्दघन की प्रशसा मे यशोविजय द्वारा क्षेत्र में भी उनकी गति अद्भुत थी। उन्होंने टीकाए और
लिखा एक पद इस प्रकार है : । भाष्य लिखे है तथा अनेक मौलिक कृतियो की रचना की है। 'खण्डन खण्ड-खाद्य' जैसे ग्रंथ की रचना उनकी
"पानन्द की गत पानन्दघन जाणे । अलौकिक प्रतिभा और अगाध पाण्डित्य की परिचायक
वाइ सुख सहज अचल अलख पद, है। उन्होंने जैन परम्परा के चारों अनुयोगो पर महत्वपूर्ण
वा सुख सुजस बखाने ॥१॥ रचनाए की है। वे जीवन भर शास्त्रो का चिन्तन करते सुजस विलास जब प्रगटे प्रानन्दरस, रहे और नव्य शास्त्रो का निर्माण कराते रहे। उनकी प्रानन्द अखय खजाने । कृतियाँ तीन प्रकार की है-खण्डनात्मक, प्रतिपादनात्मक
ऐसी दशा जब प्रगटे चित अन्तर, और समन्वयात्मक । खण्डन में वे पूर्ण गहराई तक पहुंचे है।
सोहि अानन्दघन पिछानें ॥२॥ प्रतिपादन उनका सूक्ष्म और विशद है। यद्यपि उनकी इस पद मे, योगीराज मानन्दघन से मिलने तथा सभी कृतिया अभी तक उपलब्ध नही हई है तो भी जितनी प्राध्यात्मिक अध्ययन और मनन से प्राप्त प्रात्मानुभव के कृतियां मिली है। उनमे उपाध्याय जी के अगाध पांडित्य आनन्द और प्राकर्षण की झलक मिलती है। ज्ञान के और अलौकिक प्रतिभा और सुजन शक्ति का ज्ञान प्राप्त हो साथ चरित्र का मेल और पाण्डित्य के साथ प्रात्म-साक्षाजाता है।
स्कार की आकांक्षा मणि-कांचन का सुयोग है। १. यह दक्षिण पूर्व रेलवे लाइन पर, बडौदा से १६ मील हास, बम्बई, सन् १९१७ ई०, पृथ्ठ ६२ ।
दूर स्थित एक रेलवे स्टेशन है। इसकी जन संख्या ३. मानन्दघन पद संग्रह में पृष्ठ १६४ पर छप चुकी है। लगभग ४० हजार है।
यह संग्रह अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, बम्बई से २. पं. नाथूराम प्रेमी : हिन्दी जैन साहित्य का इति- वि० सं० १९६६ में प्रकाशित हुमा था।
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१५४ वर्ष २० कि० १
यशोविजयजी ने दिक्पट चौरासी बोल' पं० हेमराजजी के 'सितपट चौरासी बोल' का खण्डन करने के लिए लिखी थी। इनके विषय में प० सुखलाल जी का यह अभिमत है कि उपाध्याय जी पक्के जंन और धुरंधर पडित थे । यह ठीक ही प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने 'अध्यात्म मत खण्डन' मे तार्किक खण्डन- मण्डन का श्राश्रय लिया है ।
'दिवपट चौरासी बोल' की उन्नीसवी शताब्दी की लिखी हुई एक हस्तलिखित प्रति अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर में उपलब्ध है। इसमे १६१ पद्म है ।
इनकी 'साम्य शतक" नामक रचना में १०५ पद्य है । यह ग्रन्थ श्री विजयसिंह सूरि के 'साम्य शतक' के आधार पर मुनि हेम विजय के लिए लिखा गया था। कविवर के दूहा नामक ग्रन्थ में १०४ दोहों मे समाधितन्त्र का पद्यानु वाद है तथा 'नवनिधान स्तवन' मे नो स्तवन है ।
यशोविजय की रचना 'जसविलास', 'सज्झाय पद घने स्तवन सग्रह' नाम के पद-संग्रह में छपी है। इसमें ७५ मुक्तक पद है जो सभी जिनेन्द्र की भक्ति से सम्बन्धित हैं। इनके अतिरिक्त भी कविवर के अनेक पद विभिन्न शास्त्र भंडारों में उपलब्ध होते है यशोविजय के पदो मे भावनाएं तीव्र और प्रावेशमयी हैं भोर सगीतात्मक प्रवाह के साथ अवतरित हुई है । भाषा में लाक्षणिक वैचित्र्य न हो कर सरसता और सरलता है। पदो में प्रधानतया आध्यात्मिक भावों की अभिव्यंजना है। अपने धाराध्य के प्रति प्रगाढ़ बढ़ा मौर भक्ति की भावना यशोविजय में तीव्र रूप में पाई जाती है। इनके अनेक पदो मे बौद्धिक शान्ति के स्थान पर प्राध्यात्मिक शान्ति की भावना दृष्टिगोचर होती है । प्राध्यात्मिक विश्वासों और प्रास्थानों की भाव भूमि पर मानव आत्मानन्द मे कितना विभोर हो जाता है, यह इस पद मे दर्शनीय है :--
अनेकान्त
प्रभु गुन अनुभव चन्द्रहास ज्यों, सो तो न रहे म्यान में । चम्पक 'जस' कहे मोह महा हरि, जीत लियो मैदान में ||हम० ॥६॥ यशोविजय जी के पदो की भाषा अत्यन्त सरल है। इनके पदों में सारमनिष्ठा और वैयक्तिक भावना भी विद्य मान है। इनके पदो मे भक्ति और अध्यात्म का स्रोत बड़े निर्मल रूप में प्रवाहित हुआ है। इसी प्राशय का इनका एक पद इस प्रकार है---
हम मगन भये प्रभू ध्यान में || टेक ||
बिसर गई दुविधा तन मन की प्रचिरा-सुत-गुनगान में ॥० ॥२॥ हरि-हर-ब्रह्म- पुरन्दर को रिषि, भावत नहिं कोउ भान में । चिदानंद की मौज मची है. समता रस के पान में
X
X
X
।।म० ॥२॥ X १. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग ४, उदयपुर, सन् १९५४, पृष्ठ १३६ ।
परम प्रभु सब जन सबदं घ्यावं ।
जब लग अन्तर भरम न भाजै, तब लग कोउ न पायें ||परम० ॥१॥ सकल अंस देखें जग जोगो, जो खिनु समता प्राये । ममता अंध न देखें याको, चित चहूँ पोरं ध्यावे
|परम० ॥२॥
पढ़त पुराण वेद र गीता, मूरख अर्थ न पर्व इत उत फिरत गहत रस नाहीं, ज्यों पशु चरवित चार्व
|| परम० ||३|| 1
पुद्गल धापू छिपाये भ्रम कहाँ भागी जाये
|| परम० ॥४॥
पुद्गल से न्यारो प्रभु मेरो उनसे अन्तर नाहि हमारे
यशोविजय के सभी पदों में ग्रात्मानन्द की मस्ती झलकती है तथा सभी में भक्ति, ज्ञान और अध्यात्म की पुट दृष्टिगोचर होती है, जो कि इन पदो से स्पष्ट हैचिदानन्द अविनासी हो, मेरो चिदानन्द अविनासी हो । कोरि मरोरि करम की मेट, सुजस सुभाव विलासी हो ॥ X X X X
तथा
चेतन जो तूं ज्ञान अभ्यासी 1 श्रापही बांधे प्रापही छोड़े, निजमति शक्ति विकासी || १ ||
X
X
X
X
एव
चेतन अव मोहि दर्शन दीजं ।
तुम दर्शनं शिव सुख पाइ तुम दर्शने भव छीजे ||१||
X
―
X
X X इनके पद सोरठा, धनाधी (आशावरी), काफी, जगलो आदि रागों में मिलते है। पद पूर्णतया गेय है। भाषा पर कहीं कही गुजराती एवं राजस्थानी का प्रभाव परिलक्षित होता है । OO
३, राम नगर, नई दिल्ली-५५
,
२. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित प्रथो की खोज, भाग ४, उदयपुर, सन् १९५४ ।
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भागवतपुराण और जैनधर्म
श्री त्रिवेणीप्रसाद शर्मा, जबलपुर
हमारा भारत देश प्रारम्भ से ही सदैव धर्म परायण गये कि धर्म में भ्रष्ट तरीकों एवं माडम्बर के समावेश का रहा है। धर्मपरायणता अपनी पराकाष्ठा पर पहुच कर धर्म- कोई सम्भावना नहीं रह गई। भीरुता में भी परिणत होती देखी गई; यहाँ तक कि युद्ध जैन धर्म के प्रायः सभी प्रमख सिद्धान्त वैदिक धर्म के में भी धर्म की प्रधानता रही और धर्मयुद्ध में अपनी अटूट ग्रन्थों मे मिलते है, यद्यपि यह सच है कि उनके साथ ही आस्था के कारण ही एक नहीं कई बार भारतीयो को ।
साथ उत्तर वैदिक काल में धर्म के अन्दर विरोधाभास विदेशी प्राक्रमणकारियो से पराजित होना पड़ा । इस बात
तथा प्राडम्बरों की बहुलता के कारण सूक्ष्म अध्ययन से का भारतीय इतिहास साक्षी है।
ही यह समानता स्पष्ट होती है । इस कथन के प्रतिपादन
हेतु श्रीमद्भागवत पुराण में वर्णित कतिपय धार्मिक मान्यसभवत: २५०० ई० पू० एवं २००० ई० पू० के
ताप्रो की पोर यहाँ पर संक्षेप में संकेत किया जाता है। बीच पार्यों का भारत प्रवेश पश्चिमोत्तर प्रदेश की भोर से हुआ। भारत मे पाकर बसने व पूर्ण शान्ति स्थापित जन धर्म शास्त्रो के अनुसार भगवान ऋषभदेव इस होने के पश्चात् आर्यों ने वेदो का सृजन किया और चारो युग में धर्म के प्रथम प्रवर्तक थे । वह भगवान् के अवतार वेद उस काल की सभ्यता व धार्मिक अवस्था के परिचा- व प्रथम तीर्थकर थे । इनके उपरांत तेईस और तीर्थकर यक है। वैदिक काल को पूर्व वैदिक व उत्तर वैदिक काल में अवतरित हए जिनमे भगवान महावीर अन्तिम व चौबीसवें विभाजित किया जाता है। पूर्व वैदिक काल मे धर्म का रूप तीर्थकर माने जाते है। इनका जन्म प्राज से लगभग २५अत्यन्त सरल था; और वैदिक धर्म वड़ा ही उदार, व्यापक ७२ वर्ष पूर्व बिहार में हुआ था। श्रीमद्भागवत पुराण एव स्पृहणीय था परन्तु उत्तर वैदिक काल में उसमे अनेक (१-३ प्र. एवं २-७ प्र.) मे भी भगवान् के चौबीस जटिलताओं का समावेश हो गया और कुछ परस्पर विरोधी अवतारों का उल्लेख है जिनमे से श्री ऋषभदेव के रूप में एवं असगत मान्यतायें भी दिखलाई पड़ने लगी। ईसा के भगवान का पाठवा अवतार माना गया है जो जैन धर्म के पूर्व सातवीं सह तक वैदिक धर्म में प्राडम्बर का बाहुल्य प्रवर्तक थे । स्पष्ट परिलक्षित होने लगा।
जैन धर्म के निम्नलिखित प्रमुख सिद्धान्तों का दर्शन
भी श्रीमद्भागवत पुराण मे कई स्थलों पर होता है :इस सबके परिणाम स्वरूप, प्रबुद्ध धर्मोपदेशकों ने धर्म
मात्मा का अस्तित्व : मे पाई हुई जटिलतानों एवं प्राडम्बरो को हटाने तथा उसे पुनः सरल करने की ओर अपना ध्यान लगाया। जैन धर्म मात्म-प्रधान जैन धर्म के अनुसार सभी प्राणियों में, ऐसे प्रयत्नों में अग्रणीय था। जैन धर्म के सिद्धान्तो में. यहां तक कि पेड़-पौधों में भी पृथक मात्मा का अस्तित्व उत्तर वैदिक काल के अन्त के समय तक धर्म में घुसी है। श्रीमद्भागवत (२-६०) के अनुसार स्वयं भगवान हई कुरीतियों व असंगतियों को त्यामने के साथ ही अहिंसा, ने सृष्टि-रचयिता ब्रह्म को श्रीमद्भागवत के मूल चार सत्य, मचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसी सदाचार सम्बधी श्लोकों को सुनाया तथा इस सिद्धान्त की पुष्टि की कि पुरानी धार्मिक मान्यतामों के नियम इतने कठोर कर दिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र इन चारों वर्षों में श्री
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१५६, बर्ष २८, कि.१
भनेकान्त
नारायण का एक-सा प्रकाश विद्यमान है। विवेक-दृष्टि संसार से छटने का उपाय : द्वारा उनके कुछ भी भेद न जानकर सभी जीवों में भगवान सांसारिक कष्टों से छटकारा पाने के लिए जैन धर्म का एक-सा स्वरूप समझना चाहिए । जिस प्रकार सूर्य का मनुष्य को अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह प्रकाश सोना, चांदी, लोहा एवं मिट्टी प्रादि के बर्तनों पर महावों
पर महाव्रतों के पूर्ण पालन की प्रावश्यकता बतलाता है । श्रीएक जैसा पड़ता है, उसी तरह सभी जीवों में भगवान का
मद्भागवत में भी इन सभी गुणों की महिमा के बखान एक-सा प्रकाश समझना चाहिए। इसी सिद्धान्त का प्रति
है । इनके विपरीत कार्य करने वाले को जीते जी अनेक पादन एकादश व द्वादश स्कंध में भी हुआ है।
कष्ट व मृत्यु उपरान्त नरक होने की बात कही गई है। मात्मा की पूर्णता :
प्रथम स्कंध, सप्तम अध्याय में प्राततायी के छः लक्षण जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक मनुष्य त्याग और शुद्ध
बताये गए है-प्राग लगाना, विष देना, गुरु की प्राज्ञा न भाव से कार्य करके कष्टों से स्थायी छुटकारा पा सकता मानना, ब्राह्मण होकर अधर्म करना, द्विजाति में जन्म ले है, पात्म साक्षात्कार द्वारा पूर्ण बन सकता है तथा परमा- कर मदिरा पान करना, और अन्य प्राणियों को मार कर स्मपद भी प्राप्त कर सकता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार, खाना। वहाँ हिंसा को बुरा माना गया है । हिंसा करने जो ज्ञानी मनुष्य सब प्राणियों में एक मात्र भगवान
वाला अज्ञानी बन कर अन्य अपराध भी करता है। राजा त्रिलोकीनाथ को ही प्रकाशित देखता है, उसे ब्रह्मज्ञानी
परीक्षित ने अपने द्वारा समीक ऋषि के गले में मृत सर्प एवं भावागमन से मुक्त जानना चाहिए (२-७ अ.) ।
डालने का कारण यही माना था कि "वन में शिकार खेलते जप, तप एवं ईश्वर का पूजन करने से मनुष्य अनेक हुए जीव हिंसा करने से वह प्रज्ञानी बन गए थे और इसी प्रकार के सुखों को भोगने के पश्चात् मोक्ष-पद को प्राप्त कारण उनसे वह अपराध हुआ।" (१-१८)। जो मनुष्य होता है (१-१७ म०) । योगी सब प्राणियो में ईश्वर का सांसारिक सुख में लिप्त नहीं होते तथा किसी को कष्ट एक बराबर चमत्कार देखता है । श्रीमद्भागवत में अनेक
नहीं पहुंचाते, उन्हें कभी दण्ड नही भोगना पड़ता (३राजामों की कथा वर्णित है, जिन्होंने बद्धावस्था में राज्य- २७) । मनुष्य स्वभाव में काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भार उत्तराधिकारी को सौंप कर सांसारिक लोभ, मोह व दुर्गुण समय-समय पर अवश्य ही प्रवेश कर जाते है, इसीऐश्वर्य त्याग कर, तपस्या व सत्संग करते हुए निर्वाण पद
लिए इन सबसे मोह त्याग कर केवल हरि-स्मरण करना प्राप्त किया। भगवान् ऋषभदेव जी ने भी ऐसा ही किया । सर्वोत्तम है। (४-११ म०)। साधु-सन्तों की सेवा करना १५-६ प्र०)।
एवं संगति करना मोक्ष का द्वार है और परस्त्री गमन कर्म की प्रधानता :
करना, चोरी, जुआ खेलना, विषयी होना व मदिरा पान
करना नरक का द्वार है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं (५-- जैन धर्म के अनुसार जो मनुष्य जैसा आचरण करेगा
४ अ०)। उसे वैसा ही परिणाम भुगतना होगा । कर्मों से छुटकारा पाने पर स्थायी शांति व सुख प्राप्त होता है। श्रीमद्भा- महिंसा महाव्रत : गवत में भी इसी बात का प्रतिपादन है कि जो प्राणी जैन धर्म में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ स्थान है । किसी भी दुष्कर्म करता है उसे नरक की यातना भुगतनी पड़ती है प्राणी को मारना तो दूर, उसे दुःख पहुँचाने के लिए और जो सदाचारी होता है वह मोक्ष प्राप्त करता है । सोचना या सलाह देना भी पाप है । श्रीमद्भागवत में भी नरकों का वर्णन विस्तार से (५-६ ५० व १-१७ अ०) में अहिंसा की महिमा बताई गई है । एक भीलों के राजा किया गया है कि संसार मे समस्त जीव अपने-अपने पापों ने जब भद्रकाली के समक्ष अपनी पूर्व मनौती के अनुसार (दुष्कमों) के कारण दुःख पाते हैं। जब तक प्राणी इस एक ब्राह्मण की बलि चढ़ानी चाही तो भद्रकाली ने राजा संसार से विरक्त नहीं होता, तब तक वह जन्म-मरण से की तलवार छुड़ा कर उसी से राजा व उसके पुरोहित का मुक्त नहीं हो पाता (८-२४ म०)।
सिर काट लिया (५-६ प्र०) । जो कोई किसी मनुष्य
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भागवतपुराण और जैन धर्म
१५७
व पशु-पक्षी को अपने भोजन के लिये या शत्रता से मारता श्रीमदभागवत में भी इसे बड़ा महत्व दिया गया है। परहै, उसे यमदूत महारौरव नरक में डाल देते है। जो कोई स्त्रीगमन या पराये पुरुष से अनैतिक सम्बन्ध बड़ा पाप हिरण व पक्षी आदि को बांध रखता है, उसे कुम्भी पाक है। ब्रह्मचर्य की महिमा पापों को नष्ट करने के लिए एक नरक होता है (५-२६ अ.)। देवी-देवताओं के नाम अावश्यक गुण के रूप में मानी गई है । व्रत के समय ब्रह्मसे अपने भोजन के लिए जीव हिंसा करने वाला भी नरक- चर्य का विशेष महत्व दर्शाया गया है। गामी होता है। सब धर्मो से उत्तम धर्म यह है कि मन, अपरिग्रह महावत: वचन, कर्म से किसी का अनिष्ट न करे (७-१५ प्र०) धन का परित्याग सांसारिक झगडों से मुक्ति पाने के जो मनुष्य अपने शरीर को पुष्ट करने के लिए जीव हिंसा लिए आवश्यक है। तृष्णा रखने से धर्म नहीं रहता और करते है, वे अवश्य ही नरक के भागी होते है (११- लज्जा छुट जाती है। धर्मात्मा व्यक्ति के लक्षणों में बताया २१ अ०)।
गया है कि वह सत्यवादी हो, हृदय में दया रखे व दीनसत्य महावत :
दुखियों का दुख हरण करने का यथाशस्ति प्रयत्न करे, दान हित, मित और प्रिय वचन बोलना ही सत्य बोलना दे और लालच का त्याग करे तथा जीव हिंसा न करे। है, जिसका जैन धर्म में विशेष महत्व है। श्रीमद्भागवत धन प्राप्त होने पर दान एवं पुण्य करना ही उत्तम है। के अनुसार, जो कोई किसी से द्रव्य लेकर झूठा न्याय जो लोभी मनुष्य धन संचय करके मर जाते है, उनको करता है, अथवा झूठी गवाही देता है, वह "विश्वासन" यमपुरी में चोरों में समान दंड भोगना पड़ता है। इन्द्रनामक नरक का भागी होता है (५-२६ अ.)। पापों पुरी "अमरावती" का वर्णन करते हुए कहा गया है कि को नष्ट करने के लिए ब्रह्मचर्य व्रत रख कर श्रेष्ठ धर्म वहां कामी, क्रोधी, लोभी तथा अहंकारी और केवल अपने तथा तपस्या करना, इन्द्रियों को अपने वशीभत रखना. शरीर का पालन करने की इच्छा रखने वाले प्राणी नहीं मन को सांसारिक मायाजाल से विरक्त रखना, सत्य पहुंच सकते । लालच करके अधिक दान लेना उचित नहीं बोलना, मन, वचन व कर्म से किसी का अनिष्ट न करना, होता । संतोष ही परम घन है । त्याग की महिमा का परोपकार में तत्पर रहना तथा किसी भी प्राणी को कष्ट वर्णन एकादश स्कंध के पाठवें मोर नौवें अध्याय में भी न पहुँचाना, ये सभी प्रयत्न आवश्यक है (६-१२ प्र.)। मिलता है। तृष्णा और क्रोष ही समस्त जीवों से प्रशुभ भगवान् ने अपने अनेक रूपों का वर्णन करते हए उद्धव कार्य कराते है । धन एकत्रित करने से दुःख के अतिरिक्त से कहा था कि सत्य वक्तायों में सत्य वही है।
मुख नहीं मिलता। प्रचौर्य महावत:
अनेकान्तवाद: चोरी करने से मनुष्य का व्यक्तिगत एवं सामाजिक धामिक विचारधारा को निश्चय तथा व्यवहार दोनों जीवन कलुषित हो जाता है, ऐसा जैन धर्म का मत है। दष्टियों से परिष्कृत करने में जैन धर्म विशेष सफल रहा। श्रीमद्भागवत में भी चोरी अत्यन्त बुरा कुकर्म माना सदाचार केवल बातोंही भरसे नहीं बल्कि मनसा, वाचा और गया है। स्वामी से बिना पूछे किसी भी वस्तु का लेना कर्मणा तीनों प्रकार से प्रतिपादित होने पर ही वास्तविक चोरी है। जो मनुष्य दूसरे का धन एवं स्त्री छल-बल कर कहा जा सकता है। जैन धर्म में मांसाहार. मदिरापान. ले लेता है वह "तामिस्र" नरक को जाता है । जो कोई व्यभिचार, शिकार, चोरी, धूतकर्म, प्रशुद्ध भोजन व पान किसी ब्राह्मण का धन ब खेत चोरी से या जबरदस्ती ले इत्यादि त्याज्य व्यसन माने गये हैं और इन्हें त्यागे बिना लेता है वह "सन्देदशन" नामक नरक का भागी होता
कोई सच्चा जैन नहीं हो सकता । इन सभी व्यसनों को है (५-२६ म०)।
श्रीमद्भागवत पुराण में भी निषिद्ध करार दिया गया है। ब्रह्मचर्य महाव्रत :
अनेक कथानक ऐसे हैं जिनमें इन व्यसनों के वशीभूत हो जैन धर्म में ब्रह्मचर्य महाव्रत का बड़ा महत्व है।
(शेष पृष्ठ १६२ पर)
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जैन संस्कृति और मौर्यकालीन अभिलेख
स्व० डा. पुष्यमित्र जैन, प्रागरा
मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त भारत के सर्व- पर वृषभ-चतुष्टय पौर सिंह-चतुष्टय भी क्रमश: भगवान प्रथम सम्राट् थे, वे जैन धर्म के अनुयायी थे। यह बात ऋषभदेव और भगवान् महावीर के द्योतक है। अतः भगअब ऐतिहासिक तथ्यो के आधार पर भी सिद्ध हो चुकी वान् महावीर के सम्बन्ध में होने के कारण सारनाथ स्तम्भ है । इनके पश्चात् इस वंश में बिन्दुसार, अशोक, सम्प्रति जैन संस्कृति का प्रतीक है। आदि प्रतापी सम्राट हुए। इनमे बिन्दुसार और सम्प्रति तो
इस स्तम्भ के सम्बन्ध में इतिहासकारों का अभिमत प्रारम्भ से अन्त तक जैन धर्म के अनुयायी रहे। परन्तु है कि यहाँ (सारनाथ) पर भगवान बुद्ध ने अपना सर्वकलिंग युद्ध तक जैन धर्म मे प्रास्था रखने के पश्चात्
प्रथम धर्मोपदेश देकर पांच व्यक्तियों को अपना शिष्य अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। राजतरंगिणी में भी
बनाया और इस प्रकार धर्मचक्र प्रवर्तन का कार्य प्रारम्भ इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि अशोक जैन धर्मानुयायी किया।' इस स्मृति को चिरस्थायी बनाने हेतु ही अशोक था, वह बड़ा धर्मात्मा था, उसने अनेक स्तपों का निर्माण ने इस स्तम्भ का निर्माण कराया और सिहचतुष्टय पर कराया तथा विस्तारपूर के धर्मारण्य बिहार में एक बहुत धर्मचक्र की स्थापना की । परन्तु यह तर्क युक्तिसंगत नही ऊँचा जिन मन्दिर बनवाया।' मौर्य सम्राटो ने शिला- है, क्योंकि गिरनार त्रयोदश अभिलेख में अशोक ने भगखण्डों पर अनेक अभिलेखो को उत्कीर्ण कराया। इनका वान् बुद्ध को हस्ति के रूप में स्मरण किया है । यदि धर्मऐतिहासिक तथा सास्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व है ।
चक्र प्रवर्तन की स्मृति में इसका निर्माण कराया जाता तो
धर्मचक्र भगवान् बुद्ध के प्रतीक हस्ति अथवा हस्तिसारनाथ स्तम्भ
चतुष्टय पर स्थापित होता, न कि सिंह-चतुष्टय पर । जैन मान्यताओं के अनुसार भगवान महावीर का
अतः इस स्तम्भ का निर्माण भगवान् महावीर के बिहार चिह्न सिंह है और केवल ज्ञान के पश्चात् तीर्थकर चतुर्मुख गमन को स्मृति मे ही हुमा है। प्रतीत होते है। इसके अतिरिक्त जब वे विहार करते हैं ग्यारह लघ अभिलेख तो धर्मचक्र उनके आगे-आगे चलता है। अतः सारनाथ गुर्जरा, मास्की, रूपनाथ, सहसराम, ब्रह्मगिरि, सिद्धस्तम्भ का धर्म चक्र और सिंहचतुष्टय भगवान महावीर के पूर, एरडि, गोविमठ, प्रहरीर, वैराठ तथा जटिंग रामेधर्म प्रचारार्थ विहार का स्मरण दिलाते है । सांची के सिंह- रबर इन ग्यारह लघु अभिलेखों का प्रमुख विषय यह है चतुष्टय पर धर्मचक्र नही है, वह उनके समवशरण में ढाई वर्ष और कुछ अधिक समय हमा, मै प्रकाश रूप में विराजमान होने का प्रतीक है । पाटलिपुत्र के खनन कार्य उपासक था, परन्तु मैंने अधिक पराक्रम नहीं किया । एक में मौर्यकालीन स्तम्भ शीष में बृषभ चतुष्टय प्राप्त हुप्रा वर्ष मौर कुछ अधिक समय हुमा, जब मैने संघ' की शरण है। यह भगवान ऋषभदेव की स्मृति में निर्मित प्रतीत ली, तब से अधिक पराक्रम करता हूं । इस काल मे जम्बू होता है। गिरनार के प्रयोदश प्रभिलेख मे भगवान बुद्ध द्वीप में जो देवता प्रमिथ थे, वे इस समय मिश्र किये गए, का स्मरप्प हस्ति के रूप में किया गया है। इसी प्राधार पराक्रम का यही फल है। इनमें से गुर्जरा भौर मास्को १. राजतरंगिणी, पृष्ठ ८ ।
३. डा. रजबली पांडे कृत अशोक अभिलेख, पृष्ठ १३ । २. सर्व श्वेत हस्ति विश्व का कल्याण करें; श्वेत हस्ति ४. संघ का अर्थ जैन संघ और बौद्ध सब दोनों है।
भगवान् बुद्ध का प्रतीक है।
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जन संस्कृति और मौर्यकालीन प्रभिलेख
१५६
अभिलेखों में प्रशोक का तथा शेष मे प्रियदर्शी का उल्लेख रत रहना पड़ा था। भाइयों को पराजित करने के पश्चात् है। इससे विदित होता है कि अशोक के लिए भी प्रिय- अशोक २७२ ई०पू० मे सिंहासनारूढ़ हुमा और अगले वर्ष दर्शी का प्रयोग होता था और ये समस्त अभिलेख उसी ही इन अभिलेखों को उत्कीर्ण कराया। के द्वारा उत्कीर्ण कराये गये है क्योकि इन समस्त अभि
जम्बूद्वीप मे जो देवता अमिश्र थे, उन्हें मिश्र बनाया लेखों के विषय मे समानता है।
गया इसकी व्याख्या के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद ___ इन अभिलेखों में से वैराट, मास्को तथा जटिंग रामे
है। कुछ विद्वानो के अनुसार, जम्बूद्वीप में जो देवता अमृषा श्वर को छोड कर शेष पाठ में २५६ अंकित है । व्यूलर
a (सत्य) थे, वे मृषा किये गये। इसके विपरीत अन्य का कथन है कि यह बुद्ध निर्वाण सम्वत है, परन्तु ऐसा विद्वानो का मत है कि प्रशोकने अपने धर्माचरण से जम्बुद्वीप मानने से अशोक का समय ५४४-२५६-२८८ ई० पू० को ऐसा पवित्र बना दिया कि यह देवलोक सदृश हो गया प्राता है, जव कि अशोक के राज्याभिषेक का समय २७२
और देव तथा मानव का अन्तर मिट गया।" परन्तु ये ई० पू० है। इससे अशोक और बद्ध निर्वाण की सगति
दोनों ही व्याख्यायें युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि पाली या ठीक नही बैठती है । अत: २५६ बुद्ध निर्वाण सम्वत नहीं प्राकृतमें सस्कृत मषा का रूप 'मुसा' होता है 'मिसा' नहीं। हो सकता । अाजकल इतिहासकारो का अभिमत है कि इसी प्रकार डेढ वर्ष के पराक्रम में अशोक ने जम्बूद्वीप इसका (२५६ का) अर्थ २५६वां पड़ाव है।'
को देवलोक सदश बना कर देव और मानव का अन्तर परन्तु यह भी यक्तिसंगत नही है क्योंकि एक के समाप्त कर दिया, यह बात भी हृदयग्राही नही है। अतिरिक्त शेष सात मे पडाव की क्रम सं० २५६ से कम जान सकता है कि इस उपर्यस्त वाक्य का वास्तअथवा अधिक होगी। पाठो मे ही पड़ाव क्रम सं० २५६ विक तात्पर्य क्या है। पामिश्र को प्रामिष पढ़ने पर प्रर्थ नही हो सकती। अत: २५६ का तात्पर्य २५६वा पड़ाव बिल्कल स्पष्ट हो जाता है, अर्थात् जम्बूद्वीप में जिन देवभी नहीं है।
तामों पर पशुबलि दी जाती थी, प्रशोक द्वारा अहिंसा अशोक राज्याभिषेक के प्रारम्भिक पाठ वर्षों में जैन
प्रचार से वह बन्द हो गई और उसके स्थान पर देवतामों धर्म का अनुयायी था, जैसा कि पहले वर्णन किया जा को मिष्ठान्न, अन्न, घृत, नारियल, फल, फूल आदि की चुका है । अतः २५६ वीर निर्वाण सम्वत है जो अभिलेखों बलि दी जाने लगी। वास्तव में, धर्म के नाम पर पशुपर उत्कीर्ण है । इस प्रकार इन अभिलेखो का निर्माण- बलि उस युग की सबसे बड़ी समस्या थी । अशोक ने काल ५२७-२५६-२७१ ई०पू० है, अर्थात् राज्याभि- अहिंसा प्रचार से इस समस्या का समाधान किया । इसी षेक के दूसरे वर्ष ही प्रशोक ने इन्हे उत्कीर्ण कराया था। तथ्य की प्रोर इन अभिलेखों में सकेत किया गया है । इस २५६ वीर निर्वाण सम्बत मानने से इसकी अशोक के कार्य में अशोक को जो सफलता मिली वह कोई पाश्चर्य शासनकाल तथा अभिलेखो मे वर्णित एक वर्ष और कुछ की अथवा अनहोनी बात नही है। भारतीय वाङ्मय में अधिक समय के पराक्रम से संगति टीक बैठती है। ढाई इस प्रकार के और भी उदाहरण मिलते है । काश्मीर के वर्ष के कम पराक्रम का समय राज्याभिषेक से पूर्व का जान राजा मेघवाहन द्वारा अहिंसा धर्म प्रचार का यह परिणाम पड़ता है जिसमें अशोक को अपने भाइयों के साथ संघर्प- निकला कि पशुबलि के स्थान पर मिष्ट अर्थात् माटे के ५. प्रियदर्शी का प्रयोग समस्त मौर्य सम्राटों के
. अशोक अभिलेख, पृष्ठ ११२ । लिए होता था, इसका विवरण प्रागे दिखाया गया ६. ५२७ ई० पू० भगवान महावीर का निर्वाण हुमा है।
१०. डा० राजबली पाण्डे कृत अशोक अभिलेख, पृ. ११२ ६. अशोक अभिलेख, पृष्ठ ११२ ।
११. वही ७. बुद्ध निर्वाण सम्वत ५४४ है।
१२. बलि का अर्थ भेंट है।
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१६०, वर्ष २८, कि० १
पशु तथा घृत पशु से काम लिया जाने लगा।" दशवीं सूचक शब्द से सम्बोधित कराया है। इस प्रकार, पति शताब्दी में विरचित यशस्तिलकचम्मू से भी विदित होता प्राचीन काल से विक्रम की पाठवी शताब्दी तक प्रयोग है कि महाराज यशोधर ने अपनी माता के प्राग्रह से प्राटे मिलता है। अतः इसे केवल बौद्ध साहित्य की ही देन के मुर्ग की बलि दी थी।
कहना भ्रम है। प्रशोक द्वारा अभिलेखों में इसका प्रयोग इतिहासकारों का अभिमत है कि अशोक ने इन अभि- जैन संस्कृति के अनुकूल ही है। लेखों को राज्याभिषेक के बारहवें वर्ष अर्थात २७२-१२ चतुर्दश प्रभिलेख -२६० ई०प्र० में उत्कीर्ण कराया था, क्योकि वे ढाई वर्ष गिरनार, कालसी, शहवाज गढ़ी, मानसेहरा, धोली मौर डेढ वर्ष की गणना कलिंग विजय से करते है । परन्तु तथा जौगाड़ा में से प्रत्येक जगह एक-एक शिलाखंड पर ऐसा करना युक्तिसंगत नही है, क्योंकि अभिलेखो में चतुर्दश अभिलेख उत्कीर्ण है। घोली और जोगाड़ा के १२, १३३, १९वें, २६वें वर्ष आदि का उल्लेख है। यह
नख है । यह शिलाखंड पर एकादश, द्वादश तथा त्रयोदश अभिलेख नहीं गणना राज्याभिषेक से की जाती है। कलिंग विजय से
हैं। इनके स्थान पर दो पृथक्-पृथक् अभिलेख है। परन्तु इसकी गणना करने का कोई औचित्य ही नहीं है । राज्या- इन छहों शिलाखंडों के अभिलेखो में विषय की दष्टि से भिषेक से गणना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रशोक समानता है, अर्थात गिरनार के प्रथम अभिलेख का जो ने इन अभिलेखों को उस समय उत्कीर्ण कराया जब कि विषय है, शेष पांचों शिलाखंडों के प्रथम अभिलेख का वह जैन धर्म का अनुयायी था, अतः वे अभिलेख जैन भी यही विषय है। यही बात अन्य अभिलेखो के सम्बन्ध संस्कृति के प्रतीक है।
में भी चरितार्थ होती है। इनमे से प्रथम चार मभिलेख देवानां प्रिय
राज्याभिषेक के १२वें वर्ष में उत्कीर्ण कराये गये है। कलिंग शडा-इन सभी प्रभिलेखों में देवानां प्रिय का विजय से सम्बन्धित अभिलेख १३वां है । यदि इन समस्त उल्लेख है" और यह बौद्ध साहित्य की देन है, क्योंकि भलेखों का निर्माता अशोक होता. तो महत्त्व तथा समय वैदिक साहित्य में इसका अर्थ "मूर्ख" है । अतः यह बात चक्र की दष्टि से कलिंग अभिलेख को प्रथम स्थान मिलता। समझ मे नही पाती कि जैन होकर भी अशोक ने बौद्ध
अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रथम बारह अभिलेखो साहित्य के इस शब्द का प्रयोग इन अभिलेखो में क्यों
के निर्माता अशोक के पूर्वज है। इनमें से प्रथम, चतुर्थ किया ?१५
तथा पंचम अभिलेखों का मूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने समाधान-'देवाना प्रिय' यह शब्द केवल बौद्ध .
पर भी यही निष्कर्ष निकलता है कि इनका प्रशोक की साहित्य की ही देन नही है। जैन साहित्य में भी इस मेला सके पर्वजो से कहीं अधिक सम्बन्ध है। पादरसूचक शब्द का प्रयोग साधारण जनता से लेकर राजा प्रथम अभिलेख में यज्ञों में पशुबलि, हिसात्मक उत्सव महाराजाओं तक के लिए मिलता है। उदाहरणार्थ महा- तथा मांस भक्षण का निषेध है। यज्ञो मे पशुबलि तथा हिंसाराज सिद्धार्थ अपनी रानी त्रिशला को "देवाणुप्पिया" त्मक कार्यों की तो जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मों में समान तथा सभासदों को 'देवाणुप्पिए' कह कर सम्बोधित करते रूप से निन्दा की गई। परन्तु बौद्ध धर्म में मांस भक्षण है । ऋषभ ब्राह्मण भी अपनी पत्नी देवानन्दा के लिए का निषेध नही है। स्वय भगवान बुद्ध का शरीरान्त भी देवाणुप्पिया का प्रयोग करता है। वीर निर्वाण सम्वत् मास भक्षण के निमित्त ही हुपा था। इसके विपरीत १२०६ मे विरचित पद्मपुराण में भी रविषेणाचार्य ने गौतम जैन धर्म में मांस भक्षण की घोर निन्दा करते हुए मांसगषधर द्वारा राजा श्रेणिक को "देवानां प्रिय' इस प्रादर भक्षी को नरकगामी की संज्ञा दी गई है। अशोक के पूर्वज १३. राजतरंगिणी, पृष्ठ ३९
१५. कहा जाता है कि भगवान बुद्ध ने सुपर के मांस का १४. कलिंग विजय राज्याभिषेक के माठवें वर्ष की भक्षण किया था, उन्हें अतिसार का रोग हुप्रा और घटना है।
परिणाम स्वरूप उनका शरीरान्त हुमा ।
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जैन संस्कृति और मौर्यकालीन अभिलेख
चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार जैन धर्म के अनुयायी होने से प्रशोक के पूर्वज जैन धर्मानुयायी थे । प्रतः उनके मांस-भक्षण के विरोधी थे । इसकी पुष्टि अरेभाई अभि- राज्य मे श्रमणों और ब्राह्मणों के प्रति अनुचित व्यवहार लेखों से होती है । इसमे लिखा है : राजा जीवधारियों को का प्रश्न ही नही उठता। इसके विपरीत चन्द्रगुप्त मौर्य से मार कर खाने से परहेज करता है। विद्वान पुरालिपि पूर्व मगध मे १५० वर्ष तक नन्दों का राज्य रहा । ये शूद्र शास्त्र के आधार पर इस अभिलेख को तृतीय शती ई० और अत्याचारी थे, जैसा कि इतिहास से विदित होता पू० के पूर्वार्द्ध प्रर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य अथवा बिन्दुसार के है। प्रतः इनके राज्य मे श्रमणों और ब्राह्मणों के प्रति समय का मानते है ।१६
प्रत्याचार होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी। महाचाणक्य चन्द्रगुप्त का गुरु तथा साम्राज्य का महामंत्री पद्यनन्द ने तो चाणक्य का अपमान भी किया था। चन्द्रथा, वह भी अहिंसा" धर्म में आस्था रखता था तथा
गुप्त के सम्राट होते ही स्थिति में परिवर्तन हुप्रा तथा मांस-भक्षण" और मृगया का विरोधी था । अतः सम्राट
श्रमणों और ब्राह्मणों के प्रति उचित व्यवहार में वृद्धि हुई। और महामन्त्री द्वारा पारस्परिक विचार-विनिमय के
इस अभिलेख में इसी मोर संकेत किया गया है। अत: पश्चात् हिंसात्मक उत्सवों पर प्रतिबन्ध लगाना तथा राज. इस प्रभिलेख की संगति अशोक के पूर्वजों के साथ ही ठीक कीय पाकशाला के निमित्त पशुओं के वध को रोक दना प्रतीत होती है। स्वाभाविक ही है । इसके विपरीत बौद्ध धर्म के अनुयायी
वपरात बाद्ध धम के अनुयाया पंचम अभिलेख में धर्म-वृद्धि हेतु भाई-बहिनों तथा अशोक द्वारा मांस-भक्षण का निषेध अस्वाभाविक-सा
सम्बन्धियों के अन्त.पुर में राज कर्मचारियों के बीच तथा प्रतीत होता है, क्योंकि स्वय भगवान बुद्ध भी मांस-भक्षण
प्रजाजनों में धर्म महामात्र नियुक्त करने का उल्लेख है। करते हैं। प्रतः यह अभिलेख अशोक की अपेक्षा उसके पूर्वजों से कहीं अधिक सम्बन्धित है।
बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार, राज्याभिषेक से पूर्व ही प्रशोक ने
अपने समस्त भाई-बहिनों का वध करवा डाला था । अतः चतुर्थ अभिलेख: इसका प्रमुख विषय हस्ति-दर्शन, विमान-दर्शन,
भाई-बहिनों के यहां महामात्र नियुक्त करने वाला अभिअग्नि स्कंध दर्शन तथा दिव्य प्रदर्शनों द्वारा जनता
लेख प्रशोक का नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यह भी मे धर्म के प्रति रुचि उत्पन्न करना है। इसके
विचारणीय है कि प्रशोक ने अपने पुत्र और पुत्री को अतिरिक्त इसमें इस बात का भी उल्लेख है कि सैकड़ों
भिक्षुक तथा भिक्षुणी बना कर लंका में तथा अन्य भिक्षुमों
को तिब्बत प्रादि देशों में धर्म प्रचारार्थ भेजा था। भारत वर्षों से श्रमण और ब्राह्मणों के प्रति अनुचित व्यवहार हो।
में भी यह कार्य भिक्षुत्रों से न करा कर धर्म महामात्रों से रहा था, परन्तु देवानां प्रियदर्शी के धर्मानुशासन में उनके
क्यों कराया गया, जबकि गहत्यागी मोर निलिप्त भिक्षयों प्रति उचित व्यवहार में वृद्धि हुई है। इस अभिलेख को
का जनता पर जितना प्रभाव पड़ता है, उसका शतांश भी भी अशोक के साथ संगति ठीक नहीं बैठती। प्रब क्योंकि
वेतनभोगी धर्म महामात्रों का नही पड़ सकता। वास्तहस्ति दर्शन के अतिरिक्त अन्य दिव्य दर्शनों का बौद्ध धर्म
विकता यह है कि ये धर्म महामात्र और कोई नहीं, वरन् से कोई सम्बन्ध नहीं है, इसके विपरीत इन सबका जैनधर्म में उल्लेख है। तीर्थङ्कर की माता को १६ स्वप्न पाते
गुप्तचर थे जिन्हें चाणक्य के परामर्श से नियुक्त किया
गया था। कौटिल्य अर्थशास्त्र" में इस प्रकार महामात्र हैं । इनमें हस्ति, विमान तथा अग्नि स्कंध भी है। श्वेता. " म्बर जैन मन्दिर में धातुओं के बने हुए इन स्वप्नों का
नियुक्त करने का उल्लेख भी है। पर्युषण पर्व तथा अन्य धार्मिक उत्सवों पर प्रदर्शन भी द्वितीय, तृतीय तथा ६वें से १२वें अभिलेखों का विषय किया जाता है।
लोकोपयोगी कार्य, प्रतिवेदन, दान तथा धर्म महिमा मादि से १६. डा० राजबलीकृत अशोक अभिलेख, पृष्ठ १९२ १८. मांस भक्षणम् प्रयुक्तं सर्वेषाम्, वही १७. 'अहिंसा-लक्षणो धर्मः' चाणक्य प्रणीत सूत्र ५६१, ११.अर्थशास्त्र, पृष्ठ ३९, ४०
कौटिल्य अर्थशास्त्र ६८२
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१६२. वर्ष २८, कि.१
सम्बन्धित है। उनकी संगति किसी के साथ भी बैठाई जा उल्लेख है। इन दोनों अभिलेखों (सुदर्शन झील, परे भाई) सकती है। परन्तु प्रयोदश अभिलेख प्रशोक का है, और के आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है कि प्रशो महत्व तथा समयचक्र की दृष्टि से यह उसका प्रथम अभि- उत्तराधिकारी तथा पूर्वज सभी प्रियदर्शी कहलाते थे। लेख ही हो सकता है। प्रत: यह निष्कर्ष निकलता है कि संक्षेप में, सभी मौर्य सम्राटों के लिए प्रियदर्शी का प्रयोग इससे पहले के बारह अभिलेख अशोक के पूर्वजों के ही है। होता था।
भातीय वाङ्मय का अध्ययन करने से ज्ञात होता है प्रियदर्शी
कि अशोक वाटिका में रावण सीता को 'प्रियदर्शने' तथा शङ्का-रूपनाथ प्रादि ग्यारह अभिलेखों के प्राधार
मथुरा में काली कृष्ण और बलदेव को "प्रियदर्शी' पर प्रियदर्शी अशोक का उपनाम है । उपर्युक्त वणित
कह कर सम्बोधित करते है। निमित्त ज्ञानी भी महाराज बारह अभिलेखो में भी प्रियदर्शी का उल्लेख है। अतः ये
सिद्धार्थ से कहते है कि तुम्हारा पुत्र प्रियदर्शी होगा। सभी चतुर्दश अभिलेख अशोक के ही होने चाहिए।
इससे स्पष्ट है कि जिन व्यक्तियों के दर्शन से सुखानुसमाधान - प्रियदर्शी अशोक का उपनाम नहीं है।
भूति होती थी, उन्हे प्रियदर्शी कह कर सम्बोधित किया यदि ऐसा हो तो मास्को और गुर्जरा अभिलेखों में अशोक
जाता था। सम्भव है इसी आधार पर जनता मौर्य सम्राटों के साथ प्रियदर्शी का भी उल्लेख होता । सुदर्शन झील के ।
को प्रियदर्शी कह कर सम्बोधित करती हो । मभिलेख से विदित होता है कि प्रशोक के समय में तुष्प नामक राज कर्मचारी ने इसका जीर्णोद्धार कराया। तत्प- इनके अतिरिक्त और भी बहुत से मौर्यकालीन अभिश्चात यह कार्य प्रियदर्शी द्वारा कराया गया । भाषा- लेख है। इनमें से कुछ अशोक के तथा शेष सम्प्रति विशेषज्ञों के अनुसार अरे भाई अभिलेख चन्द्रगुप्त अथवा के है।
03 विन्दुसार के समय का है और उसमें भी प्रियदर्शी का
(पृष्ठ ५७ का शेष)
कर शक्तिशाली व्यक्ति भी दुःख व संताप के भागी हए। सिद्धान्त का प्रतिपादन हुमा है कि संसार के सभी प्राणियों इस प्रकार के अवगुणों वाले व्यक्तियों के लिए नरक में एक समान ही परमात्मा का चमत्कार है। ज्ञानी मनुष्य निश्चित है। (पृ. २६ प्र.)। जैसा लोग दूसरे की भमि, को किसी की निन्दा अथवा स्तुति नही करनी चाहिए, घन और स्त्री को लेने के लिए परिश्रम करते हैं और उसे सब जीवों में परमेश्वर का एक-सा चमत्कार जानना अपने पराये को मार डालते हैं, वैसा परिश्रम यदि काम, चाहिए (११-२७ प्र०)। किसी को दुःख न दे मोर । कोध, लोभ प्रादि बलवान शत्रु षों को जीतने में करें तो मन, कर्म, बचन से जहां तक बन पड़े परोपकार करता रहे इनका परलोक सुधर जाए । जो मनुष्य सम्पूर्ण जीवों में तथा जब तक प्राणी ब्राह्मण और चाण्डाल के शरीर में श्री नारायण की शक्ति को एक समान देखता है तथा एक ही ईश्वर का प्रकाश नहीं देखता, तब तक वह मज्ञानी काम, क्रोध, लोभ, मोह मादि के वशीभूत होकर किसी बना रहता है । से शत्रुता अथवा मित्रता नहीं रखता, वही मुक्ति पद को प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवत में भनेक प्रसंगों में इस . १५६०, नेपियर टाउन, जबलपुर
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तीर्थकर महावीर तथा महात्मा बुद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क
डा० भागचन्द्र जैन
भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध ई० पू० पांचवीं- ने लोकधर्म का रूप ले लिया था। छठी शताब्दी के उत्क्रान्तिकारी व्यक्तित्व थे। उन्होंने जैसा हम जानते है, पावनाय का धर्म चातुर्माम था। तत्कालीन सामाजिक तत्त्वों की प्रसुप्त चेतना को जागृत इसका उल्लेख जैन और बौद्ध दोनों प्रागम साहित्य में करने का और सर्वसाधारण व्यक्ति की समस्याओं का मौलिक पर्याप्त हया है। जैन आगमों में पार्श्वनाथ परम्परानुपाकर उनका अपने-अपने ढंग से समाधान प्रस्तत यागियों को पासस्य Tar पाsala Fटा या मोर
यायियों को पासत्य अथवा पाश्र्वापत्य कहा गया हैं और करने का यथाशक्य प्रयत्न किया था। अमीर-गरीब और बताया
वहां यह निर्देश है कि साधुनों को इनका सहवास नहीं ऊँच-नीच के बीच की खाई को पाटने में सर्वाधिक प्रयत्न
करना चाहिएकरने वाले ये दोनों ही महापुरुष थे। सर्वोदय को अनुपम
पासत्यो सपण कुशील संथवो ण किर वट्टती काऊं। अजस्र धारा में समाजवाद का शुद्ध और सही चिन्तन
साधुगणानां पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्था: तथा संयमा. इन्हीं की मानसिक चेतना का परिणाम है ।
नुष्ठानेऽवसीदन्ति इत्यवसन्नाः तथा कुत्सितं शील येषां ते दोनों ही महापुरुष एक ही क्षेत्र और एक ही काल कुशीलाः एतैः पावस्थादिभिः सह संस्तवः परिचयः सहमें समान रूप से विहार करते रहे। कुछ समय समान संवासरूपो म किल यतीनां वर्तते कर्तृ मिति । परम्परा का अनुगमन भी किया। परन्तु उनका व्यक्तिगत पाश्र्वापत्यों के प्रति ऐसी धारणा शायद इसलिए रही सम्पर्क कहाँ तक हुमा; यह अभी स्पष्ट नहीं हो सका। होगी कि उस समय तक उनमें शिथिलाचार बढ़ने लगा
करने के लिए आवश्यक है कि हम "व्यक्तिगत था, और इसे दूर करने के लिए ही महावीर ने पञ्च. सम्पर्क" को कुछ विस्तृत अर्थ मे ग्रहण करें। साथ ही
महाव्रतो की स्थापना की। पालि त्रिपिटक इस विकास का उनकी परम्पराओं और विहार-स्थलियों पर काल की
उल्लेख करता है। उदाहरणतः दीर्घनिकाय के सामञ्जदृष्टि से विचार करें।
फल सुत्त में निगण्ठ नातपुत्त को “चातुर्यामसंवर युत्तो" पाश्र्वनाथ-परम्परा:
कहा गया है। याम का तात्पर्य है महाव्रत । यहां तीर्थकर भ. पार्श्वनाथ भ० महावीर से ३५० वर्ष पूर्व काशी महावीर ने प्रथमतः अपनी पूर्व परम्परा का ही अनुगमन के उरगवंशीय नरेश अश्वसेन और वामा के घर अवतरित किया होगा और उसी का ध्यान महात्मा बुद्ध को रहा हुए थे। बालब्रह्मचारी के रूप में समूचा जीवन व्यतीत होगा । इसीलिए चातुर्यामसंवर का सम्बन्ध निगष्ठ नात. कर सौ वर्ष बाद सम्मेदशिखर से उन्होंने निर्वाण प्राप्त पुत्त से रखा गया है। वस्तुतः यह सम्बन्ध पार्श्वनाथ किया। इसी वंश में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती हुए जिनका उल्लेख परम्परा से होना चाहिए था। एक और भूल यहां हुई। पालि साहित्य में बहुत अधिक प्राता है। इस समय सव्ववारिवारितो, सव्ववारियुतो, सम्ववारिघुतो और सव्वलिच्छवि मोर वज्जिगणों में पार्श्वनाथ द्वारा प्रवेदित धर्म वारिफुटो इन चारों महावतों की परम्परा सही नही है। १. सूत्र कृताङ्ग वृ. १०२ पृ. १७७
थे। इनको जैनागमों मे "पासावञ्चिज्ज" कहा गया उत्तराध्ययन सूत्र के २३वें अध्ययन का केशी है। प्राचारांग में भ. महावीर के माता-पिता को भी गौतम संवाद भी इस बात का निदर्शक है कि महा- पाश्र्वापत्यीय कहा गया है (२१५.१५) । वीर के संघ में पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी भी २. ठाणांग, पृ.१ टीका
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१६४, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त कुछ भी हो, इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है ५. सुरामेरयमज्जप्पमादट्ठायी होति । कि महात्मा बुद्ध पार्श्वनाथ परम्परा से भलीभांति परि- यहाँ भी पांच पापों का उल्लेख क्रमशः नहीं हुआ चित रहे होंगे । जहाँ तक महावतों के परिगणन की बात और परिग्रह के स्थान पर सुरामेरयमज्जप्पमाटान का है, उसे हम जैन प्रागमों में देख सकते है। ठाणांग' में यह उल्लेख किया गया। इन उद्धरणों से तीन निष्कर्ष निकाले परम्परा इस प्रकार है
जा सकते है। १. सर्वपाणातिपातवेरमण,
१. पार्श्वनाथ की परम्परा चातुर्यामसंवर की थी। २. सर्वमृषावादवेरमण,
२. निगण्ठ नातपुत्त ने चातुर्यामसंबर की जगह पांच ३. सर्वादत्तादानवेरमण मौर
महाव्रतों का उपदेश दिया। ४. सर्वबहिद्धादानवेरमण। यहां मथुन और परिग्रह ३. महात्मा बुद्ध दोनों परम्परामों से परिचित थे । दोनों का अन्तर्भाव है।
___ इन उद्धरणों मे ये दो मुख्य दोष प्रतीत होते हैंप्रसिवन्धकपुत्त गामिणि निगण्ठनातपुत्त का शिष्य था। १. जैन परम्परा का उल्लेख यथाक्रम न होना। भ० बुद्ध ने उससे पूछा--निगण्ठनातपुत्त अपने श्रावकों २. परिग्रह जो पापाश्रव के कारणों में अन्तिम था, को कैसी शिक्षा देते है ? उत्तर मे गामिणि ने कहा-नि. का उल्लेख न होना। नातपत्त निम्नलिखित पापों से दूर रहने का प्राग्रह करते है want
भगवान महावीर : १. पाणं प्रतिपातेति,
लगभग ६९६ ई०पू० बिहार की पुण्यस्थली वैशा२. अदिन्नं प्रतिपातेति,
लीय क्षत्रिय कुण्डग्राम में ज्ञातृकुलीय काश्यप गोत्रीय महा३. कामेसु मिच्छा चरति और
राज सिद्धार्थ और वासिष्ठ गोत्रीय त्रिशला के घर चैत्र४. मुसा भणति ।
शुक्ला त्रयोदशी के दिन महावीर का जन्म हुमा था । यहाँ भी चार प्रकार के पापों का ही उल्लेख है, पांच
कल्पसूत्र में इनके और दूसरे नाम श्रमण और वर्धमान का नही । दूसरी बात उल्लेखनीय यह है कि नि० नातपुत्त
दिये है। पालि साहित्य महावीर का निगण्ठ नातपुत्त के ने परिग्रह से कुशील को पृथक कर उसे जो स्वतन्त्र रूप
नाम से उल्लेख करता है। सूत्रकृताङ्ग' और भगवती सूत्र दिया था, उसका तो पालि त्रिपिटक में उल्लेख है परन्तु
इमको वैशालिक कहते है। परिग्रह का नहीं। इसका तात्पर्य है -महात्मा बुद्ध उक्त
संसार का उपभोग किये बिना ही तीस वर्ष की सुधार से परिचित थे। भले ही उसका प्रचार न होने के
प्रवस्था में महावीर स्वामी ने महाभिनिष्क्रमण किया। कारण पाँचों का यथाक्रम उल्लेख नहीं किया जा सकता
लगभग बारह वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उनको केवल
ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद धर्मोपदेश करते हुए ७२ वर्ष अंगुत्तर निकाय मे निगण्ठ नातपुत्त के अनुसार पापाश्रव के पांच कारण दिये गये है
की अवस्था में कार्तिकी अमावस्या को रात्रि के अन्तिम
प्रहर में उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। १. पाणातिपाति होति, २. आदिनादायि होति,
महात्मा बुद्ध ३. अब्रह्मचारि होति,
शाक्य पुत्र महात्मा बुद्ध का जन्म ५६३ ई.पू. ४. मुसावादि होति और
प्रथधा परम्परा के अनुसार ६२४ ई. पू. ६ में कपिलवस्तु के ३. संयुत्त निकाय भाग ४, पृ. ३१७ ।
५. भ. सू. १. २. १. पृ. २४६ ४. विशाला जननी यस्य विशालकुलदेवता।
६. मैं परम्परासम्मत जन्मतिथि को ही मानने के पक्ष विशालं प्रवचनं चास्य तेन वैशालिको जिनः॥
२२ २.३ पृ. मं. ७१
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तीर्थङ्कर महावीर तथा महात्मा बुद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क
१६५ 'राजा शुद्धोदन और महिषी महामाया के घर लुम्बिनीवन है कि बुद्ध और उनका कुल जैन धर्म में दीक्षित रहा है। में हुआ था। बाल्यावस्था का नाम सिद्धार्थ था। सोलह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में भगवान महावीर और बुद्ध के वर्ष की अवस्था में सिद्धार्थ का यशोधरा के साथ वैवाहिक व्यक्तिगत सम्पर्क जानने के लिए यह एक मूल कड़ी है। सम्बन्ध हो गया। यशोधरा पुत्रवती भी हो गई परन्तु आचार्य देवसेन के कथन से यह बात और भी स्पष्ट हो सिद्धार्थ का मानसिक संघर्ष रोका नही जा सका । फलतः जाती है। उन्होंने लिखा है कि बुद्ध पिहिताश्रव नामक उन्होंने २० वर्ष की अवस्था मे प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। जैन मुनि के शिष्य थे जिन्होंने उन्हे पार्श्वनाथ परम्परा लगभग छह वर्षों तक उस समय प्रचलित सभी धर्मों में मे दीक्षित किया और बुद्धकीर्ति नाम रखा । परन्तु कुछ दीक्षित होकर सिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न किया समय बाद मत्स्य, मासादि का भक्षण कर लेने से उन्हें संघ किन्तु असफल होने पर मध्यम मार्ग की कल्पनापूर्वक से निष्कासित होना पड़ा और लाल कपड़े पहिन कर आचार-विचार के माध्यम से सिद्धि-प्राप्ति मे सफलता
उन्होंने अपना पृथक रूप से संघ स्थापित किया। इसे ही प्राप्त की। तभी से धर्म प्रचार-प्रसार करते हुए भगवान बुद्ध ८० वर्ष की आयु मे परिनिवृत्त हुए।
बौद्ध धर्म का नाम कालान्तर में दे दिया गया। महात्मा बुद्ध का परम्परा गत धर्म क्या था, यह कहना
उभय महापुरुषों का काल :
म. महावीर और म० बुद्ध दोनों महापुरुपो का काल कठिन है। लेकिन अनुमानत: ऐसा लगता है कि वे पार्श्व
अभी तक विवादास्पद बना हुआ है। विद्वान् महावीर नाथ परम्परा के अनुयायी रहे होंगे । नामों के आधार पर
का परिनिर्वाण ४६८ ई. पू. से लेकर ५४६ ई. पू. तक संस्कृति विशेष का ज्ञान हो सकता है। शुद्धोदन (शुद्ध
रखते है और बुद्ध का परिनिर्वाण ४८७ ई. पू. से लेकर प्रोदन - शुद्धभात) अर्थात शुद्ध भोजन करने वाले, सिद्धार्थ
५४४ ई.पू तक सोचते है। अधिकांश विद्वान् महावीर (सिद्ध हो गया है प्रर्थ-प्रयोजन-मुक्ति-प्राप्ति जिसका),
का परिनिर्वाण ५२७ ई. पू. और बुद्ध का परिनिर्वाण महामाया (संसार-भ्रमण में महिलाओं को कारण मान
४८३ ई. पू. मानते है। इस विषय में यहाँ विस्तार से कर उनके लिए माया आदि शब्दों का प्रयोग किया गया
नही कहा जा सकता, परन्तु इतना तो अवश्य है कि यह है।) आदि नाम है जिनसे प्राभासित होता है कि वे जैन
काल यदि स्वीकार किया गया तो मानना होगा कि पालि धर्म के पालक रहे होगे। लिच्छवि और वज्जिगणो में
त्रिपिटक में पाये प्रायः सभी उल्लेख उत्तरकालीन है और पार्श्वनाथ का धर्म पर्याप्त रूप से लोकप्रिय हो गया था।
गढ़े हुए प्रतीत होते है । इस सन्दर्भ मे यह भी उल्लेखनीय बद्ध का भी उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध था। पालि त्रिपिटक
है कि जैन पागम मूलत: बुद्ध के विषय में कोई विशेष में बद्ध ने सभी सम्प्रदायों की कड़ी पालोचना की परन्तु
सूचनायें नहीं देता। उत्तरकालीन वृत्ति. नियूक्ति आदि निगण्ठ नातपुत्त के प्रति उन्होंने प्रादर प्रदर्शित किया।
मे अवश्य उल्लेख मिलते है।" जैनागम और बौद्धागम के दीघनिकाय में अचेल कस्सप के नाम पर कुछ ऐसी तप
उल्लेख परस्पर कालक्रम की दृष्टि से उक्त कालगणना में स्थानों के रूपों का उल्लेख मिलता है जिनको श्रमण
विपरीत सिद्ध होते है । इसलिए यदि महावीर का परिब्राह्मण अपनाये हुए थे । मज्ज्ञिम निकाय' में कहा
निर्वाण ५४५ ई. पू. और बुद्ध का परिनिर्वाण ५४३ ई. गया है कि इन सभी तपस्याओं का भगवान बद्ध ने बोधि
प. स्वीकार किया जाय तो बहुत कुछ गुत्थियाँ सुलझ प्राप्त करने के पूर्व अभ्यास प्राप्त किया था। बाईस प्रकार जाती है। के उन विभिन्न तप-रूपों को मूलाचार आदि ग्रन्थो में महावीर के वर्षावास और विहार-स्थल : विधि-निषेध आदि के रूप में देखा जा सकता है। इसके ठाणांग सूत्र में महापद्मचरित्र के प्रसंग में महावीर के विस्तार में जाना यहाँ उचित नहीं। परन्तु इतना निश्चित विषय में लिखा है कि मैने तीस वर्ष यता ७. तं च पनम्हाक रुच्चति चेव खमति च तेन चाम्ह १. मज्झिम निक
प्रत्तमना ति, मज्झिम निकाय, प्रथम भाग पृ. ६३ । १०. दर्शनसार ८-६ । ८. दीघनिकाय, प्रथम भाग, पृ. १६६ ।
११. सूत्रकृताग नियुक्ति, श्रुतस्कंध द्वितीय, पत्र नं. १३४-१३६
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१६६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त वर्ष १३ पक्ष केवलज्ञान प्राप्ति में और तेरह पा कम २१. मिथिला, काकन्दी, पोलासपुर, वाणिज्यग्राम, वैशाली तीस वर्ष धर्म प्रचार में बिताये। इसके अनुसार महा- (वर्षावास), वीर ने ४२ वर्ष निम्न स्थलों में बिताये ।
२२. राजगृह, (वर्षावास), १.कुण्डग्राम, कर्मारग्राम, मोराक सन्निवेश, ज्ञात वण्ड. २३. कृतंगला, श्रावस्ती, बाणिज्यग्राम (वर्षावास),
वन, कोल्लाग-सन्निवेश, दूइज्जंतग, अस्थिकग्राम २४. ब्राह्मणकुण्ड, कौशाम्बी, राजगृह (वर्षावास), (वर्षावास).
२५. चम्पा (वर्षावास), २. मोराक, दक्षिग-उतर वाचाल, सरमिपुर, श्वेताम्बी, २६. काकन्दी, मिथिला (वर्षावास), राजगृह, नालन्दा (वर्षावास),
२७. श्रावस्ती, मिथिला (वर्षावास), ३. कोल्लाग, ब्राह्मणग्राम, सुवर्णखल, चम्पा (वर्षावास), २८, हस्तिनापुर, मोकानगरी वाणिज्यग्राम (यर्षावास), ४. कालाप, कुमाराक, पत्त, चोलाक, पृष्ठ चम्पा २६. राजगृह (बर्षावास), (वर्षावास),
३०. चम्पा, दशार्णपुर, वाणिज्यग्राम (वर्षावास), ५. कयंगला, पावत्ता, कलंकबुका, पूर्णकलश, श्रावस्ती, ३१. काम्पिल्यपुर, वैशाली (वर्षावास),
नंगला, राडदेश, मलय, भहिल (वर्षावास), ३२. वैशाली (वर्षावास), ६. कमली, तंवाय, वैशाली, जम्बुसंड, कुपिय, प्रामाक,
३३. राजगृह, चम्पा, राजगृह (वर्षावास), भदिया (वर्षावास),
३४. राजगृह, नालन्दा (वर्षावास), ७. मगध, प्रालंभिया, (वर्षावास),
३५. वाणिज्यग्राम, वैशाली (वर्षावास), ८. कुण्डाक, बहुसालग, लोहार्गला, गोभूमि, मर्दन, ३६. साकेत, वैशाली (वर्षावास),
पुरिमताल, उन्नाग, राजगृह (वर्षावास), ३७. राजगृह (वर्षावास), ९. लाढ-वजभूमि भोर सुम्हभूमि,
३८. नालन्दा (वर्षावास), १०. सिद्धार्थपुर, कूर्मग्रा, वैशाली, वाणिज्यग्राम, श्रावस्ती ३६. मिथिला (वर्षावास), (वर्षावास),
४०. मिथिला (वर्षावास), ११. सानुलट्टिय, मोसलि, सिद्धार्थपुर पालंया, श्रावस्ती, ४१. राजगृह (वर्षावास) और
वाराणसी, मिथिला, मलय, कौशाम्बी, राजगह, ४२. अपापापुरी (वर्षावास) यहीं निर्वाण प्रा। वैशाली (वर्षावास),
महात्मा बुद्ध के वर्षावास और विहार-स्थल : ११. संसमारपूर, नन्दिग्राम, कौशाम्बी, मेढियग्राम, महात्मा बुद्ध २६ वर्ष की अवस्था में संन्यासी हुए सुमंगल, एम्पा (वर्षाबास),
पौर लगभग ६ वर्ष के बाद बोधि प्राप्त की और ८० वर्ष अभियग्राम, में ढिय, पावा, राजगृह (वर्षावास), की अवस्था में उनका परिनिर्वाण हया। इस बीच उनके १४. ब्राह्मणकूण्ड, क्षत्रियकुण्डग्राम, वैशाली (वर्षावास), वर्षावास और विहार-स्थल निम्न प्रकार से रहे
५. कौशाम्बी, श्रावस्ती, वाणिज्य ग्राम (वर्षावास), १. वाराणसी, ऋषिपतन (वर्षावास), १६. राजगृह, (वर्षावास),
२. गया, राजगृह (वर्षावास), १७. चम्पा, वीतभय, वाणिज्यग्राम (वर्षावास),
३. राजगृह (वर्षावास), १८. वाराणसी, पालंभिया, राजगृह (वर्षावास)
४. कपिलवस्तु, राजगृह (वर्षावास), १६. राजगृह (वर्षावास),
५. वैशाली, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, वैशाली (वर्षावास), २०. कौशाम्बी, पालभिया, वैशाली (वर्षावास),
६. राजगृह, मंकुलपर्वत (वर्षावास), १२. ठाणांगसत्र, ठाणा, उद्देश्य ३, सूत्र ६६३ की वृत्ति, पृ. ५६१/१ धवला में महावीर का केवलिकाल २९ वर्ष
५ माह २०दिन लिखा है।
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तीर्थकर महावीर तथा महारमा बुद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क ७. त्रायस्त्रिंश (वर्षावास),
ऐसे ही नगर है जहां दोनों ने अपने धर्म का पर्याप्त प्रचार८. श्रावस्ती राजगह, वैशाली, सुसुमारिगिरि-चुनार प्रसार किया । यदि महावीर का परिनिर्वाण ५२७ ई. पू. (वर्षावास)
और बुद्ध का परिनिर्वाण ४८३ ई. पू. मान कर चला जाय ६. कौशाम्बी (वर्षावास),
तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि महावीर का निर्वाण हो १०. पारिलेयक (वर्षावास),
जाने पर म. बुद्ध ने धर्मचक्रप्रवर्तन किया। परन्तु यह ११. श्रावस्ती, नाला-नालन्दा (वर्षावास), विचार सही प्रतीत नहीं होता । सूत्रकृतांग में महावीर के १२. कुरू-कल्माषदम्य, मथुरा, वेदंजा (वर्षावास), १९वें वर्षावास के समय राजगृह में प्राद्रकुमार का बौद्ध १३. प्रयाग, काशी, वैशाली, चालियपर्वत (वर्षावास), भिक्ष के साथ शास्त्रार्थ होने की घटना का उल्लेख पाया १४. वैशाली, श्रावस्ती, साकेत, प्रापण श्रावस्ती है।" बद्ध का २२वां वर्षावास भी राजगृह में हुमा। इसी (वर्षावास),
प्रकार और भी अनेक प्रसग है । १५. कुसीनारा, कोसल, कपिलवस्तु, राजगृह, चम्पा,
___महा. राहुल जी ने बुद्धचर्या को कालक्रम की दृष्टि ___ कपिलवस्तु (वर्षावास),
से संजोने का प्रयत्न किया है। तदनुसार धर्मचक्रप्रवर्तन १६. प्रलवी-कानपुर (वर्षावास),
के समय ही बुद्ध की भेंट आजीविक संप्रदाय के भिक्षु से १७. कौशाम्बी, राजगृह (वर्षावास),
हुई। हम जानते हैं, गोशालक महावीर के साथ १०वें १८-१९. चालिय पर्वत,
वर्षावास तक रहा । इसलिए संभव है बुद्ध की उसी से या २०. चम्पा, सुम्हदेश (हजारीबाग जिला), राजगृह उसी के अन्य किसी शिष्य से भेंट हई होगी। (वर्षावास),
बुद्ध" जब मंकुल पर्वत पर ववास कर रहे थे, उस २१. वैशाली, राजगृह, श्रावस्ती (वर्षावास),
समय राजगृह के एक श्रेष्ठी ने चन्दन पात्र को सीके पर २२-४५. वर्षावास श्रावस्ती में किया। इस बीच बुद्ध बांध रखा और उसे दिव्य शक्ति द्वारा उठाने को तीर्थंकरों
कोसल, कुरु, राजगृह, नालन्दा सामगाम (शात्मा- से कहा: परन्त प्रजित केशकम्बली, पकुछ कच्चायन, देश), पावा, वैशाली, कुसीनारा आदि स्थानो पर
संजय वेल टिपुत्त, निगण्ठ नातपुत्त व मक्खलि गोशाल ये विहार करते रहे।
सभी तीर्थकर असफल हए । परन्तु बुद्ध के शिष्य पिण्डोल ४६. वैशाली (वर्षावास)। यह वर्षावास युक्तिसंगत
भारद्वाज ने उस बर्तन को सरलता पूर्वक उठा लिया। नहीं दिखाई देता। २६ वर्ष की अवस्था मे बुद्ध
यह सुनकर बुद्ध ने अपने शिष्यों को प्रातिहार्य न करने ने महाभिनिष्क्रमण किया, ३५ वर्ष की अवस्था में का शिक्षा-पद दिया। बाद में बिम्बिसार ने बुद्ध से प्रातिबोधिलाभ हमा और ८० वर्ष की अवस्था में वर्षा- हार्य करने के लिए कहा क्योंकि उक्त सभी तीथिक उन्हें वास से पूर्व, वैशाख-पूर्णिमा को उनका परिनिर्वाण चेलेंज दे रहे थे। यह जानकर बुद्ध ने चार माह बाद हमा । इसलिए अंगुत्तर निकाय (२.४५) का यह प्रातिहार्य करने को कहा। तीथिक वद्ध के पीछे-पीछे चले। कथन कि बुद्ध का ४६वां वर्षावास वैशाली में हमा, उनके साथ वे राजगह और श्रावस्ती भी पहुंचे। बुद्ध ने भ्रान्तिपूर्ण प्रतीत होता है।
अपना प्रातिहार्य प्रसेनजित के समक्ष किया। फलस्वरूप दोनों महापुरुषों का व्यक्तिगत सम्पर्क :
माम की गुठली ने अचानक एक बड़े वृक्ष का रूप ले भ. महावीर और भ. बुद्ध के वर्षावासों और विहार लिया। तीथिक कोई प्रातिहार्य नहीं कर सके। इस प्रसंग स्थलों पर दष्टिपात करने से दोनों महापुरुषों की विहार- में यह भी उल्लेख है कि निगण्ठ लजाते हुए भाग गये। भमि कभी न कभी निश्चित रूप से एक ही ग्राम रही शक ने बुद्ध की सहायता की। यह ध्यान देने की बात होगी। श्रावस्ती, राजगृह, नालन्दा, कौशाम्बी मादि कुछ है कि यहां निगण्ठ नातपुत्त के स्थान पर निगण्ठ (जन १३. सूत्रकृतांग २. ६. पत्र नं. १२५-१५८ ।
१४. चुल्लवग्ग ५, धम्मपद अट्ठकथा ४.२।
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१५८, वर्ष २८, कि. १
अनेकान्त
साधु) का उल्लेख है। यहां निगण्ठ नातपुत्त के सर्वज्ञत्व में अंगुत्तरनिकाय में भी लिखा है कि सीह बुद्ध का शिष्य पर भी छींटाकशी की गई है। इस घटना से लगता है हो गया। फिर भी बुद्ध ने सीह को कहा कि चिरकाल बुद्ध और महाबीर ने राजगृह और श्रावस्ती में एक साथ से तुम्हारा कूल निगण्ठों के लिए रहा है, इसलिए उन्हें ही वर्षावास बिताया। फिर भी वे एक दूसरे के समक्ष दान देना बन्द नहीं करना चाहिए। वहीं यह भी लिखा स्पष्ट रूप में नहीं पाये।
है कि सीह ने बुद्ध को मांस खिलाया जिसकी घोर निन्दा ___ नालन्दा में भी बुद्ध और महावीर दोनों ने एक साथ निगण्ठों ने की। वर्षावास किषा। संयुत्तनिकाय में कहा गया है कि महा- मन्तगडदसायो (प. ६) में थेणिक के उन पुत्रों और वीर ने श्रमण गौतम बुद्ध से शास्त्रार्थ करने के लिए अपने रानियों के नाम दिये गए है जिन्होंने भ. महावीर से प्रव्रज्या प्रधान शिष्य असिबन्धकपुत्त गामणी को भेजा था और ली थी। पुत्रों में जालि, मयालि, उववालि, पुरुषसेन, उससे यह प्रश्न करने को कहा था कि तथागत जब कुलों वारिसेण, दीर्घदन्त, लष्टदन्त वेहल्ल, वेहास, अभय, दीर्घकी उन्नति और रक्षा की बात करते हैं तो ईतिपूर्ण व सेन, महासेन, गूढदन्त, शुद्घदन्त, हल्ल, दुम, द्रुमसेन, सूखे प्रदेश मे क्यो विहार करते है ? बुद्ध के इस प्रश्न के महाद्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंह सेन और पूर्णसेन" उत्तर से प्रभावित होकर ग्रामणी उनका अनुयायी हो ये नाम मिलते है। पालि त्रिपिटक में निगण्ठनातपुत्त के गया है। इसी समय बुद्ध ने ग्रामणी से प्रश्न किया कि शिष्यों में सीह, दीघनख, उपालि और प्रभय का नाम निगण्ठनातपुत्त अपने श्रावकों को कौनसा धर्मोपदेश करते पाता है। संभव है, ये धेणिक के ही पुत्र हों। है ? ग्रामणी ने उत्तर में कहा कि हिंसा, असत्य, स्तेय, मेण्डक नामक गृहपति भी जैन था जो बाद में बुद्ध कुशील प्रादि कुकृत्य करने वाला दुर्गति पाता है। इस का अनुयायी हो गया, ऐसा पिटक में कहा गया है।" लिए व्यक्ति को इन पापों से बचना चाहिए। इसी उत्तर- यह अंगदेश के भद्दियानगर का रहने वाला श्रेष्ठी था। प्रत्युत्तर से प्रभावित होकर ग्रामणी बुद्ध का शिष्य हो बिबसार राजा के पांच अमित-भोग-संपन्न श्रेष्ठी थेगया। इस घटना से भी यही लगता है कि बद्ध और जोतिय, जटिल, मंडक, पुष्पक और काकवलीय ।" मेडक महावीर दोनों ने कभी एक दूसरे से मिलने का प्रयत्न उनमें एक था। इसी के पुत्र धनंजय श्रेष्ठी की मग्रमहिषी नहीं किया बल्कि वे अपने शिष्यों को ही शास्त्रार्थ के सुमना देवी के गर्भ से ही विशाखा का जन्म हुआ था। लिए भेजते रहे।
कालान्तर में इसका सम्बन्ध श्रावस्ती के मृगार श्रेष्ठी के "इसी प्रकार की एक घटना वैशाली में हुई। यहाँ पुत्र पुण्डवर्धन से हुमा। मृगार निगण्ठों का पूजक था भी दोनों महापुरुष उस समय वैशाली में ठहरे हुए थे। और विशाखा बुद्ध मे अधिक भक्ति रखती थी। मृगार सीह ने नि. नातपुत्त से युद्ध के दर्शन करने को जाने की ने निगण्ठों को बुलाया परन्तु विशाखा ने उनकी कड़ी अनुमति मांगी जिसे नि. ना. ने अस्वीकार कर दिया यह आलोचना की, नग्नत्व की दृष्टि से । फलस्वरूप मृगार कहकर कि क्रियावादी होते हुए प्रक्रियावादी के पास क्यों भी बौद्ध हो गया। यहाँ भी निगण्ठ नातपुत्त का नाम जाते हो? उत्तर में बद्ध ने अपने पापको क्रियावादी नहीं, निगण्ठों का नाम है। फिर भी यह सत्य है कि और प्रक्रियावादी दोनों बताया। सूत्रकृतांग" में भी बौद्ध अंगदेश और श्रावस्ती में जैन-बौद्ध समान रूप से रहते धर्म को प्रक्रियावाद में सम्मिलित किया गया है। बाद थे। १५. संयुत्तनिकाय, ३.१.१ ।
१९. तीर्थकर महावीर, भाग २, पृ. ५३ । १६. संयुत्त निकाय, ४०. १.६ ।
२०. महावग्ग २.२ । १७. अंगुत्तर निकाय, ८.१.२.२ ।
२१. धम्मपद अट्ठकथा ।-४.८ । १८. सूत्रकृतांग १२.६ ते चार्वाकबौद्धादयोऽक्रियावादिन २२. अंगुसर निकाय प. कथा, १.७.२ ।
एवमाचक्षते "पृ. २१८॥
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तीर्थङ्कर महावीर तथा महात्मा बद्ध : व्यक्तिगत सम्पर्क
१६९ शाक्य देश में भी जैन और बौद्घधर्म दोनो लोकप्रिय नालन्दा में महात्मा बुद्ध का जब ४२वां वर्षावास हो थे। मज्झिम निकाय में एक उद्धरण है कि शाक्य देशीय रहा था, उस समय निगण्ठ नानपुन भी वहाँ अपनी बड़ी देवदह ग्राम में महात्मा बुद्ध भिक्षुषों में कहते है कि परिषद के साथ ठहरे हा थे। तब दीर्घतपस्वी निग्रन्थ निगण्ठों का सिद्धान्त है कि व्यक्ति जो मुख, दुख या बुद्ध के पास पहुंचा। बुद्ध ने पूछा-निगण्ठ नातपुत्त अदुख, असुख का अनुभव करता है, वह सब उसके पूर्वकृत पापकर्म के लिए कितने कनों का विधान करते हैं । तपस्वी कर्मों के हेतु से । इन पूर्वकृत कर्मों का तपस्या द्वारा अन्त ने उत्तर दिया-कर्म का नही, दण्ड का विधान करना करने से और नवीन कर्मों का पाथव-द्वार बन्द हो जाने से निगण्ठ नातपुत्त का नियम है। ये दण्ड तीन प्रकार के है, भविष्य मे व्यक्ति परिणाम रहित (अनाथवी) हो जाता कायदण्ड, वचनदण्ड और मोदण्ट । इनमे कायदण्ड महाहै । परिणाम रहित होने से कर्मक्षय, कर्मक्षय से दुखाय, दोषयुक्त है। उपालि गहानि भी महावीर का भक्त था। दुखक्षय से वेदनाक्षय, वेदनाक्षय से सभी दुःख जीर्ण हो गौतम के साथ वादविवाद करने के लिए महावीर ने जाते है। इस सिद्घान्त की यहाँ अनर्गल पालोचना की उपालि को भेजा । अन्त में कहा गया कि उपालि और गई है। राजगृह मे भी बुद्ध ने निगण्ठों के इस सिद्धान्त दीघतपस्वी दोनों बुद्ध के अनुयायी हो गये। यह जानको उन्ही से सुना था और उनका अनुमोदन भी किया कर महावीर उपालि के पास गये और उससे पूछा-तुम था। यही निगण्ठ नातपुत्त के सर्वज्ञत्व की भी कट पालो- किसके शिष्य हो ? उत्तर में पालि ने बद्घ की ओर चना भगवान बुद्ध ने की है। प्रानन्द ने भी सन्दक परि- हाथ जोड़कर सकेत किया। इसके आगे तो यहां तक व्राजक से कौशाम्बी मे निगण्ठ नातपूत्त के सर्वज्ञत्व को बताया कि बुद्ध का सत्कार असह्य हो जाने पर महावीर तीव्र पालोचना की और उसे अनाश्वासिक (मन को संतुष्ट ने मुह से उष्ण रक्त उगल दिया । न करने वाला) बताया।
महात्मा बुद्ध का १७वां वर्षावास राजगह में हया इसके बाद दोनों महापुरुषों का विहार राजगह की था।" उस समय विभिन्न मतावलम्बियों ने यह जानकर और हुमा । राजगृह में निगण्ठ नातपुत्त ने अभय राजहर्ष व्यक्त किया कि इस बार अग-मगधों को प्राध्या- कुमार को गौतम के पास वादविवाद करने को भेजा और त्मिक लाभ मिलने का स्वर्ण अवसर है जो कि राजगह कहा कि गौतम से पूछो-"क्या अन्ते ! तथागत ऐसे मे पूर्ण काश्यप, मक्वलि गोसाल, अजितकेश कम्बली, वचन बोल सकते है जो दूसरो को अप्रिय-अपमानपूर्ण हों ?" पकुध कच्चायन, सजय वेलट्रिपूत्र और निगण्ठ नातवृत्त यदि "हाँ" कहे तो प्रतिप्रश्न करना कि पृथक्जन (साधावर्षावास के लिए पाये हुए है। भगवान महावीर का रण मंसारी जीव) और तथागत में क्या भेद हुना?" १६वाँ, २२वा, २४वां वर्षावास राजगह में या, यह और यदि उत्तर निपेधारक रहे तो कहना “मापने देवजैनागमों से भी ज्ञात होता है।
दत्त के लिए भविष्यवाणी क्यों की है कि देवदत्त प्रापाचम्पा में भी भ. बदध ने सभी तीर्थकरो की तपस्या यिक है, देवदत्त नैरयिक है, देवदत्त कल्पस्थ है, देवदत्त की पालोचना की, वज्जिय महित गहपति से । आलोचना अचिकित्स्य है। व्यापके इस वचन से देवदत्त को प्रसन्नोष तभी की जाती है जब उस सिद्धान्त का प्रचार अधिक हमा। गौतम ने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि यह हो जाता है। हम जानते हैं कि चम्पा महावीर की मुर य । एकाशिक (बिना अपवाद के) दृष्टि से कहा जा सकता। विहार-भूमि रही है।
__ अन्त में अभय बुद्ध का शिष्य बन गया। २३. मज्झिम निकाय ३.१.१ ।
२६. मज्झिम निकाय २.६.७ । २४. मज्झिम निकाय १.२.४ ।
२७. म. निकाय, २.२.६ । २५. चुल्लवग्ग, ६. चलसकुलदायी सुत्त (राजगह) में भी '
सकुल उदायी परिव्राजक ने नि. नातपुत्त के सर्वज्ञत्व २८. अभयराजकुमार सुत्त, मज्झिम निकाय, १.५.८ । की मालोचना की।
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१७०, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
राजगृह में ही घटित एक और घटना है। अजात उस समय की प्रजा भी धर्म-सहिष्णु हा करती थी। शत्रु ने तत्कालीन सभी तीर्थक सें से सामञफल (धमण्य- राजाओं में श्रेणिक, कुणिक (अजातशत्र), चेटक, चण्डफल) पूछा । निगण्ठ नातपुत्त ने उत्तर में चातुर्यामसवर प्रद्योत, प्रसेनजित, अभयकुमार आदि ऐसे थे जिन्होने महाबताया।" यहाँ ज्ञातव्य है कि चातुर्याम सबर निगण्ठ वीर और बुद्ध दोनों से समान रूप से सम्पर्क बनाये रखा। नातपुत का नही था, पार्श्वनाथ का था।
यही कारण है कि दोनो-जैन और बौद्ध साहित्य-- राजगह की इन घटनाओं से लगता है, महावीर और उन्हें अपना-अपना बतलाते है। महावीर और बदध के बद्ध दोनों के शिष्य परस्पर मिलते-जलते थे और वाद- व्यक्तिगत सम्पर्क बनने और बिगड़ने में इन राजानों की विवाद भी करते थे । सम्भव है, दोनो महापुरुषो का यहां भी पर्याप्त भूमिका रही है। लेख के विस्तार के भय से व्यक्तिगत सम्पर्क भी हुआ हो; जैसा उक्न उद्धरणो से इस प्रसंग को यहा उपस्थित नहीं करना चाहता। प्रतीत होता है। सूत्रकृतांग के अनुसार प्राईक कुमार (महावीर का परम शिष्य) ने शाक्यपूत्रों से वादविवाद उपतहार किया और उन्हें पराजित किया।"
अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि भगवान महावीर-विषयक अन्तिम उद्धरण सामगाम सत्त मे महावीर और महात्मा बुद्ध दोनो महापुरुषों के बीच दिया गया है जिसमे पावा में महावीर के परिनिर्वत हो
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्तिगत सम्पर्क बना रहा है। जाने की सूचना बुद्ध को दी गई। कुछ लोगो का कहना
यद्यपि जैनागमो में एतद्विषयक सामग्री लगभग न के है कि यह सूचना वस्तुत. गोशालक से सम्बन्धित है,
वराबर है, परन्तु पालि त्रिपिटक मे जो जैसा भी निगण्ठ निगण्ठ नातपुत्त से नही। परन्तु ऐमा तर्क प्रस्तुत करना।
नातपुत्त के सन्दर्भ मे मिलता है, उसे हम पूर्णतः अस्वीकार युक्ति संगत नही जंचता। अभी हमने ऐसे उदधरण देखे नहीं कर सकते ; भले ही वह पक्षपातपूर्ण रहा हो। महाजिनसे दोनों महापुरुषों के अनेक वर्षावास अन्तिम समय
वीर के निर्वाण-काल के विषय में भी इस सन्दर्भ में
वार तक एक ही स्थान पर होते रहे।
पर्याप्त विचार किया जाना चाहिए । मुझे तो ऐसा लगता
है, यदि महावीर का परिनिर्वाण ५४५ ई.पू और बुद्ध समान व्यक्तिगत सम्पर्क बनाये रखने वाले राज-परिवार: कापरिनिर्वाण ५४३ ई.पू स्वीकार कर लिया जाय तो
भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध से समान रूप अधिक युक्तिसंगत है। से व्यक्तिगत सम्पर्क बनाये रखने वाले अनेक राजा थे।
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भगवान अपनी चर्या के अनुसार घर-घर में धमते और से ही खाली हाथ लोट पाते । इस चर्या में पांच मास और पच्चीस दिन पूरे हो गये । छब्बीसवें दिन भगवान् धनावह थेष्ठि के घर पहुंचे। वहां एक कुमारी देहली के बीच खड़ी थी। उसके पैरों में बेड़ी थी। सिर मंडित था। तीन दिन की भखी थी। उसके पास एक सूप था। उसके कोने में उबले हुए उड़द थे। यह राजपुत्री थी। वर्तमान में वह दासी का जीवन बिता रही थी।
कुमारी ने भगवान को देखा। उसका चेहरा खिल उठा । दुख की घटायें विलीन हो गई। उसका रोमरोम पुलकित हो उठा। वह मदित स्वर में बोली--'भन्ते मेरे पास और कुछ नहीं है। ये उबले हुए उड़द हैं।' प्राप अनुग्रह करें। मेरे हाथ से पाहार लें। भगवान को प्राते देख कुमारी को लगा, वे माहार लेने को मुद्रा में हैं। किन्तु कुछ ही क्षणों में उसकी प्राशा, निराशा में बदल गयी, भगवान प्राहार लिए बिना ही मुड़ गये। उसके चेहरे पर उवासी छा गई। आँखों से प्रासू बह चले। भगवान ने सिसकियां सुनी। वे वापस मुड़े । कुमारी के हाथ से उबले हुए उड़द का पाहार ले लिया।
प्राचार्य श्री तुलसी २६. दीघनिकाय, १.१.२ ।
३०. तीर्थङ्कर महावीर, भाग २, पृ. ५७-५८ ।
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महावीर के विदेशी समकालीन
डा० भगवतशरण उपाध्याय, उज्जैन
थे, कर्मों के फल, ग्रात्मा, पुनर्जन्म को अस्वीकार करते थे । पकुध भौतिक जगत् सुख-दुख आदि का रचयिता किसी को नहीं मानते थे और न ही वध, हत्या, पीड़ा श्रादि मे कोई दोष मानते थे । संजय संदेहवादी दर्शन के प्रवक्ता थे और मक्खलि श्राजीवक संप्रदाय के प्रर्वतक थे जो अन्त मे महावीर के शिष्य हो गए थे। इनके अतिरिक्त दो और दार्शनिक उस काल में अपने सघ लिए लोगों को उपदेश भारत में यह युग उपनिषदों का था, जिन्होंने वेदों के दिया करते थे - प्रालार कालाम और उद्दक ( रुद्रक) बहुदेववाद से विद्रोह कर 'ब्रह्म' की प्रतिष्ठा की, चितन रामपुत्त दोनो बुद्ध के गुरु रह चुके थे। इनके श्राश्रमों को हिंसात्मक यज्ञों से ऊपर रखा, ब्राह्मणों के मे को प्रभुत्व कुछ काल रह कर बुद्धत्व प्राप्त करने से पहले गौतम तिरस्कृत कर क्षत्रियो को सत्ता दर्शन के क्षेत्र में स्थापित ने ज्ञानार्जन किया था, पर वहाँ अपने प्रश्नो के सही उत्तर की। उस काल मे सत्य की खोज में विचारो का संघर्ष करते न पा उनसे विरक्त होकर वे राजगिरि की ओर जा पहाअनेक साधु, प्राचार्य और परिव्राजक अपने-अपने शिष्य - ड़ियाँ लांघ गया पहुचे थे और वहा उन्होंने सम्यक् सम्बोधि सघ लिए देश मे फिरा करते और तर्क तथा प्रज्ञा से सत्य प्राप्त की थी । को परखते । ये प्रायः सभी विचारक दार्शनिक - कम से कम महावीर और बुद्ध के समकालीन - अनीश्वरवादी अध्यात्मवादी थे । इनमें अग्रणी महावीर और बुद्ध थे जो क्षत्रिय और अभिजात थे और अश्वपति कैकेय, प्रवहण जैवलि, प्रजात शत्रु काशेय और जनक विदेह की राजपरम्परा में विचारों के प्रवर्तक हुए। इन्होने उपनिपदो के 'ब्रह्म' को भी छोड़ दिया, आत्मा को भी और वैचारिक विद्रोह को आगे बढ़ाया ।
महावीर के समसामयिकों, स्वदेशी चितकों में बुद्ध थे, जिनके विचारों का देश-विदेश मे सर्वत्र घना प्रचार हुआ । इनके अतिरिक्त पाँच अन्य दार्शनिको के नाम तत्कालीन साहित्य ने बचा रखे है-ये थे पुराण कश्यप, अजित केश-कम्बलिन्, पकुच कात्यायन, सजय बेलट्ठपुत्त, और मक्खलि गोसाल । पुराण कश्यप, पापपुण्य मे भेद नहीं मानते थे, न उनकी सम्भावना ही स्वीकार करते थे । अजित, जो केशो का कम्बल धारण करते
ईसा पूर्व छठी सदी, जिसमें तीर्थङ्कर महावीर का जन्म हुआ था (५६६-२७ ), संसार के इतिहास में असाधारण उथल-पुथल की सदी थी। सारे संसार मे तब चिंतन के क्षेत्र में विद्रोह हो रहा था और नये विचार प्रतिष्ठित किए जा रहे थे, नये दर्शन रचे- परिभाषित किये जा रहे थे । भारत, चीन, ईरान, इस्रायल - सर्वत्र नये विचारो की धुन लगी थी ।
चीन मे उसके इतिहास का क्लासिकल काल - चुन. चिउ का सामन्ती युग - प्राय ७२२ ई० पू० ही जन्म ले चुका था और राजनीति अब सस्कृति की श्रोर नेतृत्व के लिए देख रही थी। नेतृत्व दर्शन और धर्म ने दिया भी उसे । महावीर के प्रायः जीवन काल में ही, छठी सदी ई० पू० में, चीन के विशाल देश मे तीन महापुरुष जन्मेकन्फ्यूशस (ल० ५५१-४७९ ई० पू० ), लामो-रजू (ल० ५६० ई० पू० ) और मोत्ज् ( ल० ५००.४२० ई० पू० ) लाम्रो-त्जू तो सम्भवतः ऐतिहासिक व्यक्ति न था पर उसका ऐश्वयं पर्याप्त फला-फूला। शेष दोनों धार्मिकदार्शनिक नेता अभिजात कुलो के थे, महावीर और बुद्ध की ही भाँति । कन्फ्यूनस लू राज्य का रहने वाला था और सुरंग राजकुल की एक शाखा में जन्मा था । उसके पूर्वज वस्तुतः शाग सम्राटों के वंशज थे जो कालान्तर में लू राज्य में जा बसे थे । कन्फ्यूशस का दर्शन तस्वत. राजनीतिक था । उसका चिन्तन यद्यपि प्रतिक्रियावादी थ
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१७२, वर्ष २८, कि० १
प्रनेकान्त क्योंकि वह अपने समाज को 'डिकेडेन्ट --निम्नगामी- महत्त्व की बात है कि कन्फ्यूशस को छोड़ शेष प्रायः मानता था और अतीत के स्वर्ण युग को लौट जाना चाहता सारे चोनी दार्शनिक चिन्तक भारतीय चिन्तकों की ही था। उसी दिशा मे उसने प्रयत्न भी किये पर प्रतिक्रिया- भांति अस्तेय, अपरिग्रह, अहिंसा का जीवन जी रहे थे वादी होते हुए भी उसका वैचारिक आदोलन चल निकला और उसका प्रचार कर रहे थे। यही कारण था कि बौद्ध और उसने जनता पर अपने मोह का जादू डाला, ठीक भिक्षुओं का जव चीन में प्रवेश हुमा, तब वहाँ के श्रद्धाउसी तरह जिस तरह प्रतिक्रियावादी होते हुए भी अव- लुप्रो को वह नया बौद्ध धर्म सर्वथा विदेशी नहीं लगा। नीन्द्रनाथ टैगोर का अजन्तावादी अांदोलन भारत मे चल वस्तुतः इन आदोलनों ने उस धर्म के लिए भमि तैयार गया था और उसका जादू बंगाल पर दीर्घ काल तक छाए कर दी। कुछ ही काल बाद चीन मे एक विकट घटना रहा था। कमायूशस ने प्राचीन ग्रंथों का अपने चिन्तन घटी। उत्तर-पश्चिम मे सूखा पड़ा, कान्सू के हण विचल दर्शन के अनुरूप ढालकर उनकी व्याख्या की और आदिम हुए, चरागाहों की खोज में पश्चिम की ओर चले अकृत्रिम जीवन की ओर उसने अपने अनुयायियों को लौट और उनकी टक्करो से यूहची उखड़ गये । यहचियों ने चलने को कहा। प्राचार उसका परम प्राराध्य बना। शको को और पश्चिम में ढकेला । शको ने वक्ष (ग्रामभारत के दार्शनिक, महावीर के साथ-साथ सभी भारतीय दरिया की घाटी) से ग्रीकों को भगा दिया। यहची चिन्तक, रूढि विरोधी थे, अपनी तर्कसत्ता की लीक पर की पीठ पर ही हूण भी थे जो अपनी बारी (ग्राम दरिया) चलते थे। अनुकरण मौलिक चिन्तन का शत्र है यह वे में जा बसे । तभी भारत का अशोक बौद्धधर्म के साधुनो जानते थे और अपनी ही खोजी राह पर चलते थे।
को देशान्तरो मे भेज रहा था। जिसके पितामह चन्द्रगुप्त
मौर्य ने महावीर के धर्म को अपनाया था और जिसके मोत्ज कन्फ्युशस का एकान्त प्रतिगामी था, रूढियों पौत्र, दशरथ और सम्प्रति क्रमश. आजीवक और जैन का अप्रतिम शत्रु । वह सगठित समाज को ही अस्वीकार धर्मों का पालन-प्रचार कर रहे थे। चीन ने देखा तककरता था। उसे अनित्य और दुखकर मानता था । महा- लाम-कान-तुर्फान-तुनहुप्रांग की राह भारतीय चीवरधारी वीर के भारतीय समकालीनो मे मोत्ज अत्यन्त निकट था। भिक्ष उन भारतीय बस्तियो की ओर जानलेवा राह से वह भी अभिजात था, उसका दर्शन भी आभिजात्यमूचक चले पा रहे थे जो रेशमी व्यापार के महापथ पर बस एकान्तिक था। उसका दार्शनिक प्रादोलन मोहिस्त नाम
गई थी और जो उस बौद्ध ऐश्वर्य को भोग रही थी,
की से फैला।
जिसका अनेकांश महावीर चिन्तन से प्रभावित था। नाग्रोवाद का प्रवर्तक लामोत्ज़ भी प्राय. तभी हुमा पश्चिमी एशिया साम्राज्यों की सत्ता से संत्रस्त था। था। यद्यपि उसकी ऐतिहासिकता मे कुछ लोगों ने सुमेरियों के ध्वंसावशेष पर बाबुली उठे थे, बाबुलियों के अविश्वास किया है । लामोत्जू चाहे ऐतिहासिक व्यक्ति न भग्नस्तूपों पर अमुरो ने अपने अपूर्व भवनो के स्तम्भ खड़े रहा हो, पर उसके दर्शन की बेल उसी काल लगी, जब किए थे और तलवार से अपनी कीति लिखी थी। उनका केवली महावीर अपने देखे सत्य का भारत में प्रचार कर साम्राज्य अब नष्ट हो रहा था। प्रार्य मीदियों की उठती रहे थे । तानोवाद पर्याप्त फैला जो वस्तुत. प्राज तक हुई सत्ता के अब वे शिकार हो रहे थे। उन्होने असुरों मर नही पाया। बौद्धधर्म के चीन में प्रचार के बाद की राजधानी निनेवे को जला डाला था और महावीर के उसका दर्शन नए धर्म का सबल प्रतिद्वन्दी सिद्ध हुआ। समकालीन ईरानी सम्राट कुरुप ने मिस से प्रारमीनीया अपने सावधि समाज को उसने भी निम्नगामी-डिकेडेन्ट तक और सीरिया से सिन्धु तक की भूमि जीत ली थी, माना और अकृत्रिम सहज जीवन को उसने अपनाया। जिसकी साम्राज्य सीमा पूरब मे दारा ने सिन्धु नदी लांघ उसने प्रग्रज्या को सराहा और कभी राजसत्ता का अनुगामी रावी तक बढ़ा ली थी। जब महावीर बासठ वर्ष के हुए वह नही बना।
तभी ५३७ ई० पूर्व में उधर एक महान घटना घटी
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महावीर के विदेशी समकालीन
कुरु ने वन की मतदारा प्रभाव उत्पन्न करने वाली घटना थी, कारण कि इसने उन यहूदी नवियों को बन्धन मुक्त कर दिया, जिन्हे खल्दी सम्राट ने इस्रायल से लाकर कैद में डाल दिया था । बाइबिल की 'पुरानी पोथी' की वह घटना भी तभी घटी थी जिसका उल्लेख हर भाषा का मुहावरा करता है। सर्वनाश के लिए 'दीवाल का लेख' । बाबुल का राजा वेल्शज्जार तब जशन में मस्त था । दावत चल रही थी । नगी नारियां भोजन परस रही थी। किवदन्ती है, एक हाथ निकला और महल की दीवाल पर उसने निल दिया तुम तौले जा चुके हो, तुम्हारे दिन समाप्त हो चुके है, तुम्हारा अन्त निकट है – मेने, मेने, तेल, उफार्सीन । और कुरुष ने तत्काल हमला कर बाबुल को जीत लिया । बाबुल जीत तो लिया गया पर वायु के पुराने गयी असुरो का देवता 'असुर' ईरानियों के सिर जादू बनकर जा पड़ा। उसका उल्ले महान देवता के रूप मे बाहर मज्दा के नाम से जेन्दावेस्ता में हुया और उसी देवता के प्रधान पूजक महावीर के प्राय सनकालीन पारसियों के नवी जरथुत्र हुए। अग्नि की पूजा के समर्थक, आचार को घर्म मे प्रधान स्थान देने वाले इस धार्मिक ने ईरान की सीमाओ को सपने उपदेशों से गुंजा दिया । जरथुम का धर्म हो गया दारा प्रादि सभी राजाओ ने उसे स्वी कार किया। पर स्वयं उस धर्म के प्रचारक को धर्मार्थ बलि हो जाना पड़ा। अग्निशिखा के सामने मन्दिर मे यह पूजा कर रहा था। तब असहाय ने उसमे प्रवेश कर महात्मा का वध कर दिया। भारत इस प्रकार की हत्याओ से धर्म और दर्शन के क्षेत्र मे सर्वथा मुक्त था ।
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ग्रीस युद्धों में व्यस्त था, वहा के पेरिक्ाियन युग का भी धारम्भ नहीं हुआ था उसके मुकरात पीर दियोजनीज, अफलातून और अरस्तू सभी भविष्य के गर्भ मे थे पर हा, पश्चिमी एशिया के भूमध्य सागरीय । पूर्वी अचल में एक ऐसी जाति का जन्म कुछ सदियो से हो गया था जिसके नबियों के समान शक्तिमान् स्वर मे धार्मिक नेता कही और कभी न बोल थे। वह जाति थी यहूदी, फिलिस्तीन की जूदिया इवान की इब्राहिम धीर मूसा की सन्तान शाब्दिक शक्ति और चुनौती भरी
वाणी में उनका संसार मे कोई साथी नहीं उन्हीं में कालान्तर मे ईसा और बतिस्मावादी योहन का जन्म हुआ पर हम बात तो उनकी कह रहे है जिन्होंने खूनी असुर सम्राटो को ललकारा था और निर्भीकता का राज नीति और धर्म के क्षेत्र मे साका चलाया था - वे भी महावीर के समकालीन थे । उनको ही कुरुष ने खल्दी सम्राटों के वचन से बाबुन में मुक्त किया था।
एकेश्वरवाद की कल्पना सबसे पहले यहूदियों ने की, यहवा अथवा जेहोवा की जिसका नाम ऋग्वेद तक में विशेषण के रूप मे इन्द्र, वरुण आदि महान ग्रार्य देवताओं के नामो के साथ जुड़ा मिलता है। यहूदियो, विशेषकर उनके नबियो के अन्य देवता का इस्रायल में पूजा जाना
श्रम था । अत्याचारियों को धिक्कारने का कार्य सन्त एलिजा और एलिशा के समय ही प्रारम्भ हो गया था। वायो ने महावीर से सो साल ही पहले शान्ति के पक्ष मे युद्ध के विरोध में पहली आवाज उठाई थी उन्हें अपनी तलवारो को गला कर हल के फल बनाने पड़ेंगे' और 'एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के विरुद्ध तलवार नही उठा सकेगा ।' जैरेमिया ने असुर सम्राट असुर बनिपाल के विध्वसात्मक आक्रमण से अपनी जनता को तो आगाह किया ही था। उस सम्राट को भी उसकी खूनी युद्ध-नीति के लिए धिक्कारा था।
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"
नाम के जीवन काल मे ही महावीर जन्मे थे। सहन सर्वनाशी मसुर सम्राटो की राजधानी के प्रति निवे के प्रति उसके विश्वत के पूर्व नाहून ने चुनौती ओर विकार के स्वर मे ललकारा था 'देख और सुन ले, निनेवे, इस्रायल का देवता तेरा दुश्मन है— देख तरी कारवाजी तेरे सूनी कारनामे, तुझे नगा करके, हम राष्ट्रों और जातियों को दिखा देंगे तु चैन की नींद नहीं सो पायेगा, प्राग की लपटों मे जल मरेगा तेरे शासक । तेरे अभिजात बिखर जाएंगे, दूर दूर पहाड़ी चोटियों पर टुकड़े टुकडे होकर कुचल जाएगे। उन्हें कोई इकट्टा न कर पायेगा तेरा कोई नामलेवापुसाहाल न रहूंगा ! मुन" तिने नही उठती हुई धार्यो की शक्ति से नष्ट कर दिया गया ।
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अहिंसा : प्राचीन से वर्तमान तक
॥ श्री जगन्नाथ उपाध्याय, वाराणसी अहिंसा भारतीय परम्परा मे एक विकसनशील होने की धारणा पुष्ट होती गयी। बीसवी शताब्दी में आध्यात्मिक प्रयोग है और वह विभिन्न प्रयोगों के द्वारा महात्मा गाँधी ने इस आध्यात्मिक तत्व को व्यावहारिक ही एक उच्चतम मानसिक गुण तथा नीति-धर्म के रूप में तथ्य के रूप में लाकर खड़ा कर दिया। उन्होंने इस क्षेत्र विकसित हुअा है। अहिंसा का स्वरूप प्रयोगात्मक इस में युगान्तरकारी साहस का परिचय दिया और इसके लिए अर्थ में रहा है कि वह अन्य अनेक प्राध्यात्मिक तत्वों की राजनीति का क्षेत्र चना, जो व्यावहारिक दृष्टि से बहुत तरह पूर्व से विश्वास-प्राप्त धर्म नहीं, प्रत्युत उसके पीछे ही विषम और जटिल होता है, जिसके लिए धर्म और व्यावहारिक परिणतियाँ और साधको के अनुभव दीख इतिहास ने कूटनीति या प्रनीति को भी ग्राह्य, न्याय्य पड़ते हैं । इस प्रकार व्यावहारिक अनुभव और मानसिक और क्षम्य माना है । गाँधी जी के महान् प्रयोगों ने इस साधना के द्वारा यह एक अपाजित तथ्य के रूप में प्रस्तुत दिशा की अग्रिम सम्भावनाओं को वहुत ही मुखरित कर है, जो सदा विद्यमान स्थिति में रहा है। इस विकास क्रम दिया है। अब हम इस स्थिति में है कि अहिंसा के इतिमें अहिंसा जब तक अधिक व्यक्तिगत रही है, तब तक हास का तर्क समस्त वैज्ञानिक अध्ययन कर सकें और उसका व्यवहार क्षेत्र में सामान्य परीक्षण नही हो सकता इसकी नयी व्यावहारिक सम्भावनाओं पर अपना विचार था किन्तु प्राचीन काल मे ही जैसे-जैसे व्यक्तिगत अनु- व्यक्त कर सके। भवों की व्यावहारिक सिद्धि के रूप में संभावना की जाने प्राचीन भारतवर्ष मे अहिसा के विकास के दो क्षेत्र लगी. वैसे-वैसे उसके वैज्ञानिक तथ्य के रूप में विकसित रहे है-एक व्यक्तिगत साधना का तथा दूसरा व्याव
इस्राइल जब अपनी शक्तिम भविष्यवाणी से दिशाए हारिक कल्पना का । व्यक्तिगत साधना के रूप में विकास गंजा रहा था। तब महावीर चालीस साल के थे। उसने का एक मात्र थेय योग-शास्त्र को है और उसके व्यावअपनी आवाज से अपनी जनता (यह दियो) को फिर जगाया हारिक सम्भावनाप्रो का सुविस्तृत विवेचन बौद्ध जातकों इसी के समय बाबुली कैद से कुरुष ने, महावीर के जीवन महाभारत, बौद्ध-त्रिपिटकों, जैन कथानों मे तथा इनके काल में ही नबियों को डाया, जहाँ वे दशकों बन्दी रहे वर्ण्य विषयो पर जो पश्चाद्वर्ती साहित्य काव्य, नाटक. थे और धार्मिक नेताओं के साथ वह भी इस्रायल लौट, पुराणादि लिखे गए है, उनमे ऊहापोह के साथ वणित है। और कुछ ही दिनों बाद सुलेमान (सालोमन) का विध्वस्त
योग की प्रामाणिकता में चार्वाक और मीमांसकों को मंदिर फिर जेरुसलम में उठ खड़ा हुआ।
छोड़ कर किसी भी भारतीय दार्शनिक परम्परा मे विवाद इस्रायली यहूदी नबी बाबुली कैद में कुचले जाते रहे नहीं रहा है। यह स्पष्ट है कि योग मे भी विश्वास-लब्ध या उन्होंने अपने धार्मिक विश्वासों पर पांच नहीं माने तत्वों की भावना के लिए पर्याप्त अवकाश है, इसके दी, न अपना धर्म छोड़ा, न यहबो के अतिरिक्त दूसरे देवता प्राधार पर परमात्मा में मतभेद भी रहा है, किन्तु अहिंसा को स्वीकार किया । उसी कैदखाने में उन्होंने अपनी धर्म की स्थिति उनसे भिन्न है। सभी एकमत से अहिंसा की पुस्तक के पांच आधार पेन्तुतुख' लिखे जो बाइबिल मे 'पुरानी पोथी'-प्रोल्ड टेस्टामेन्ट के नाम से प्रसिद्ध हुए।
उपयोगिता को स्वीकार करते है। परिभाषा और विश्ले00
षण में भी प्रायः सभी समान है। एक तो अहिंसा की अध्यक्ष-प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग, गणना बौद्धों के अनुसार शील मे, वैदिकों के अनुसार
विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म०प्र०) 'यम' में तथा जैनो के अनुसार 'अण-व्रतो' में की गई है,
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महिंसा: प्राचीन से वर्तमान तक
जो वास्तव में प्रधान रूप से योग नही, योगाङ्ग है । यह अन्य नैतिक एवं व्यावहारिक गुणो शेरी, सत्य, सुरा पान प्रादि विरतियो— के साथ पटित है। इस प्रकार महिला को वयं नत्वनी माना गया है। यही कारण है कि बहुत प्राचीनकाल में ही प्रयोग दृष्टि से हिंसा के क्षेत्र को बहुत व्यापक समझा जाने लगा। उसे बौद्धो ने 'प्रमाण' जनों ने 'महाव्रत तथा पातलों ने 'सार्वभौम महाव्रत' की संज्ञा दी है। इस प्रकार प्राचीनकाल में ही अहिसा के निरपवाद नियम होने की क्षमता कति कर ली गई थी । पतजलि यह स्वीकार करते हैं कि अहसा जाति, देश और काल की सीमाओ से बधी हुई नही है । पुराने यज्ञवादियों ने तथा उनके पोपक मीमासकों ने अहिसा को सीमित करने का विपुल प्रयास किया है। उसमें उनको अांशिक सफलता भी मिली है। योगियों ने भी लोक व्यवहार में विविध विगताओं के कारण अपने ढंग से हिंसा की सीमा मानी है, किन्तु धार्मिक आधार पर नही । यहाँ तक कि वैदिक योगियों ने भी ग्रहिसा के समक्ष हिसक यज्ञादि को को कभी नहीं स्वीकार किया | योगियो के प्रभाव से मनु श्रादि धर्मशास्त्रकारों तक को यज्ञ के एक श्रेष्ठ विकल्प के रूप मे अहिसा को स्वीकार करना पड़ा । मनु किसी एक देशी प्राचार्य का मत बताते है कि वे लोग यज्ञशास्त्रवेत्ता है, किन्तु उसका अनुष्ठान न करके सदा विषयों का होम इन्द्रियों में करते
है ।
एतान् एते महायज्ञान् पशशास्त्रविदो जनाः । प्रनीमाना सतत इन्द्रियेष्वेव जुहू व वति ॥ मनु स्वयं भी कहते हैं कि सभी धेयस्कर एवं अनु शासन पूर्ण कार्य महिमा से ही सम्पन्न हो सकते है ।
अहिंसय भूतानां कार्यपोऽनुशासनम् ।
उक्त तथ्यों के आधार पर हिंसा की मान्यता के सम्बन्ध में सभी भारतीय विचारकों का जो ऐकमत्य मालूम होता है, वह इतिहास के अनेक पात-प्रतिघाती का समन्वित परिणाम है, जिसे हम परवर्तीकाल मे भारतीय संस्कृति मे प्रतिफलित पाते हैं किन्तु महिला की मूल समस्या का हम तब तक आवश्यक विश्लेषण
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और समाधान नही कर पायेंगे, जब तक प्राचीन भारत को उन स्पष्ट दो धाराम्रो को ध्यान में नहीं रखेंगे, जिन्हें प्रवृत्ति और निवृत्ति अथवा ब्राह्मण और श्रमण अथवा ऋषि-मुनि श्रथवा हिंसक अहिंसक नाम से जाना जाता है । इन दो धाराम्रों में भारतवर्ष का संपूर्ण वाह्य और प्रान्तर जीवन विभक्त रहा है। संपूर्ण भारतीय इतिहास में इस विभाजन को हम कभी प्रति स्पष्ट कभी ईपत् स्पष्ट और कभी अन्तर्लीन पाते है। वर्तमान जीवन भी इस विभाजन से अछूता नहीं है। इन प्रवृत्तियों के विश्लेपण के बिना भारतीय जीवन के अंतरंग को समझना सम्भव नही है और न तो इसके बिना भारतीय समाज को कोई निर्वाध दिशा ही दी जा सकती है। इन विकास धाराम्रो के समुचित ज्ञान पर ही अहिंसात्मक प्रयोगों का वर्तमान और भविष्य बहुत कुछ निर्भर है । प्रहिंसा का अन्तर्राष्ट्रीय प्रयोग भी भारतीय परिवेश मे एक भिन्न प्रकार का ही होगा । इस अनिवार्यता का भी हमें ध्यान रखना होगा।
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अहिंसा का तत्वज्ञान और उसका प्रयोग श्रमणधारा की विशेषता है। इसका प्रारम्भ महावीर धीर बुद्ध से ही नही, प्रत्युत इसके प्रारंभिक सकेत ऋग्वेद, ब्राह्मणग्रन्थो मे तथा विभिन्न प्रकार के सांख्य सम्प्रदायों में भी मिलते है । महावीर और बुद्ध ने अपने सामाजिक मौर धार्मिक प्रान्दोलनों से इसे ऐसा महत्व प्रदान किया, जिससे इसके अनुरूप एक और तत्वज्ञान और ग्राचार का विकास हुआ, दूसरी ओर हिंसा-सम्मत यज्ञयागादि विविध कर्मकाण्डो का विरोध भी खड़ा हुआ । श्रमण शम प्रधान और निवृत्तिवादी थे । इनका प्रधान कर्त्तव्य था जीवनशोधक श्रीर उद्देश्य था दुःख निवृत्ति या निःश्रेयस् । ब्राह्मणो का उद्देश्य ऐहिक एवं धामिक सुख भोग था। उनका प्रधान कर्तव्य था समाज मे ऐसे सुदु वर्ग बने रहें जिसमे विद्या, रक्षा और धन की किसी प्रकार कमी न हो। निवृत्ति वादियों में समानता नहीं थी। बुद्ध मेघपने सद्धर्म के विस्तार का प्रदम्य उत्साह था। वह प्रज्ञा के प्रकाश से ही सम्भव था, अतः उन्होने प्रज्ञा पर विशेष जोर दिया। महावीर ने व्यक्ति की शुद्धि पौर उसके प्राचार पर विशेष महत्व दिया। दोनों में सम और
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१७६, वर्ष २८, कि०१
प्रनेकान्त
शम, समता और शांति ऐसी समान मान्यताएं थी जिन सैकड़ों अनुयायियों को स्वयं अहिंसक प्राचरण पर अहिंसा का विकास सम्भव होता। ब्राह्मणो का एवं व्यवहार का प्रशिक्षण दिया, जो हिंसक समाज मे झकाव सुख और व्यवस्था की ओर होने से उनका विरोध पहंच कर सद्धर्म का प्रयास करें तथा मरणान्त अपनी विषमता, युद्ध या अशान्ति से नहीं था । अतः अहिसा अहिंसक वृत्ति को न छोड़ें । बद्ध का कहना था कि दोनों की तरफ उनका आकर्षण तब तक नहीं हुआ, जब तक तरफ से डण्डे और भाले चलते हों, उनकी चोट से अग यह संभावना खड़ी नही हो गयी कि अहिंसा भी यथासभव अंग छिद गया हो, उस पर भी हमारे अनुयायी के मन सुख और व्यवस्था का साधन बन सकती है। श्रमण जिस में दौस (द्वेष) या जाए तो वह धर्मशासन की रक्षा नहीं समाज में रहते थे, वह बड़ा ही विषम और कोलाहलपूर्ण कर सकता । इस परिस्थिति में पड़ा हुआ व्यक्ति हिसक था, उसमे समता और शान्ति मूलक व्यवस्था आवश्यक को यह शिक्षा दे, 'न चेव नो चित विपरिणत भविस्सति थी, अतः उनके लिए यह आवश्यक हुआ कि वे व्यक्तिगत न च पापिक वाचं निछारेस्साम, हितानुम्मी च विहिस्साम अहिंसा का समाजोन्मुख प्रयोग करें। जीवन की इन मेतचित्ता, न दोमान्तरा (मज्झि ककचूपम सुत्त) दो दोनों धाराओं के कारण शताब्दियों तक हिंसा और सीमानो मे स्थिति नदी के पानी को लेकर लिच्छवि और अहिंसा के सामर्थ्य-असामर्थ्य तथा धर्म अधर्म के सम्बन्ध बज्जियों के बीच होने वाले सर्प को बुद्ध द्वारा बचाने में ऊहापोह एवं शास्त्रार्थ होता रहा। यह कार्य विचार का प्रयास, उनके द्वारा अङ्गुलिमाल जैसे भयकर
और माधना के क्षेत्र में ही नहीं, प्रत्युत सामाजिक और डाकृमो के सुधारने का प्रयत्न, अहिमक प्रयोगों की सफव्यावहारिक क्षेत्र मे भी हुआ।
लता का निदर्शन है। ऐसी घटनाग्रो का वैज्ञानिक अध्ययज्ञपि अहिसा के विकास की दृष्टि से अब तक भार
यन करके हिसा-शक्ति की सभावनाएं समझी जानी तीय इतिहास का परिशीलन नहीं किया गया है, तथापि चाहिए। इस प्रकार के अध्ययन की पर्याप्त सामग्री विकीर्ण गिलती
यह जानने की बात है कि बौद्ध तथा जैन धर्मों के अनु. है। अति प्राचीनकाल में जैनो में नेमिनाथ, पार्श्वनाथ यामी गणतन्यो और राजाओं द्वारा समाजसुधार और और महावीर द्वारा किए प्रयोगों का संग्रह होना चाहिए।
धर्मप्रचार का कौन सा अहिपक मार्ग अपनाया गया था, कहा जाता है कि यदुवंशी नेमिनाथ के विरोध से विवा
जिससे कहीं भी विपक्षियों के खून का एक कतरा भी नहीं हादि उत्सवों में होने वाले पशनो का बघ और मत्स्य
गिरा और शताब्दियों शताब्दियो तक प्रजा पर श्रमण मांस सुरा आदि से संबन्धित फिजूलखर्ची बन्द हुई थी।
विचारो का प्रभाव छाया रहा। देश में ही नहीं, सुदूर काशीराज अश्वपति के कुमार पार्श्वनाथ ने उस समय
विदेशों तक संबडों और हजारो की संख्या मे निहत्थे प्रचलित तपस्यानों द्वारा होने वाली अनेकानेक प्रकार की
भिक्ष पहच कर धर्म का साम्राज्य स्थापित कर सके थे। हिंसानों का विरोध किया। महावीर स्वामी के कार्यों का
उसके पीछे एक ऐमी अदम्य शक्तियों का संकेत है, जो साक्ष्य प्राचीन जैनागमों में सुरक्षित ही है।
हजारो कुर्बानियों के बाद भी उसकी प्रेरणा से धर्म दूत भगवान बद्ध अहिसात्मक प्रान्दोलन के प्रवर्तकों मे आगे बढ़ते गये । हमें एशिया के विभिन्न देशों के ऐतिमहानायक है, जिन्होने व्यक्ति, समाज और धर्म के क्षेत्र हासिक साक्ष्यो के आधार पर उस कार्य-विधि का अध्यमें प्रचलित हिंसा का एक साथ विरोध किया । उन्होंने यन करना होगा। अवश्य ही उससे विभिन्न प्रकार के अपनी आलोचनामों से हिंसा के विरोध में केवल लोकमत अहिंसात्मक प्रयोग सामने प्रायेंगे । अपने देश में ही ही तैयार नहीं किया, अपितु हिंसक राजन्यों और ब्राह्मणों अशोक और उनके पुत्र एवं पौत्र, कलिंगराज, खारवेल, गुर्जर के बीच स्वयं उपस्थित होकर हजारों यज्ञीय पशुओं प्रतिहार सिद्धराज, कुमारपाल, धर्मपाल प्रादि ऐसे दर्जनों को छोड़वाया और यज्ञयूपों को तुड़वाया। उन्होंने अपने ऐतिहासिक राजानों के नाम हैं, जिनकी शासन-विधि के
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माहिसा : प्राचीन से वर्तमान तक
माधार पर हम ऐसे निष्कर्ष निकाल सकते हैं, जो अहिंसा दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न है। गीता के प्रति प्रसिद्य प्रसंग के विकास में महत्वपूर्ण साबित होंगे।
को ही लें, मर्जन द्वारा प्रारम्भ में जिस उत्कृष्ट कोटि की महिंसा के सम्बन्ध में किसी निष्कर्ष पर पहचने के त्यागपूर्ण अहिंसा-वृत्ति का उल्लेख कराया गया है और लिए श्रमण ब्राह्मणों द्वारा अहिंसा या हिंसा की श्रेष्ठता
उसके जवाब में पूरी गीता द्वारा अहिंसा के गुण मनाऔर उपयोगिता सिद्ध करने के लिए काव्य, कथा, पुराणों
सक्ति से समन्वित क्षात्रधर्म और हिंसा को श्रेष्ठ रूप में और जातकों में लिखित ऐतिहासिक, अर्घ ऐतिहासिक या
खड़ा किया गया । इस प्रकार के प्रसंगों के सूक्ष्म अध्ययन मनतिहासिक घटनामों के संयोजन करने का जो भावा
से हम केवल अपनी संस्कृति को ही नहीं पहचानेंगे, पपितु त्मक एवं कलात्मक प्रयास किया गया है, उससे भारतीय ।
उससे हम हिंसा अहिंसा के मूलभत प्रश्नों को लेकर संस्कृति के हिंसा-अहिंसा-प्रधान पक्षों पर महत्वपूर्ण
भाधुनिक सन्दर्भ में भी सोचने में सहायता ले लेंगे। आलोक पड़ता है। उससे दोनों पक्षों की समन्वयात्मक भारतीय जीवन में महिंसा के सम्बन्ध में हजारों प्रवृत्ति का भी अध्ययन होता है। इसमें महाभारत के वर्षों से अन्तः शोध तथा व्यावहारिक प्रयोग चल रहे हैं, भनेकानेक स्थल जैसे श्रीमदभगवत गीता प्रादि, अश्वघोष, किन्त अभी तक वे अपनी प्रयोगावस्था में ही हैं। किसी कालिदास के काव्य-नाटक, आर्य शूर, सुबन्धु, वाण के प्रयोग को दर्शन की कोटि में लाने के लिए यह प्रावश्यक काव्य सहायक होगे । इसी प्रकार प्राकृत काव्य और है कि विभिन्न प्रयोगों और मान्यताओं के आधार पर अन्य जैन ग्रन्थो में पउम चरिय, रयणचूडरायचरिय, विचार प्रतिफलित हों, अथवा वे विचार प्रयोगो से समनिशीथ चूणि, उपदेशमाला, कथाकोश आदि, इस प्रकार थित एव परीक्षित हो । भारतवर्ष ने इस विषय में जो के अध्ययन में उपयोगी है । उदाहरण स्वरूप व्याघ्री प्रभत अनभव प्राप्त किए है, किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के जातक के अादर्श को लें-बोधिसत्व ने दूर से भूख से तड़- लिए उनका उपयोग होना चाहिए । इसी दृष्टि से कुछ फड़ाती व्याघ्री को तत्काल प्रसव से पैदा हए अपने ही बच्चों ऐतिहासिक और सास्कृतिक तथ्यो की ओर ध्यान आकृष्ट
को खाते जाते हुए देख, अपने अनुगामी शिष्य को दूसरे किया गया। किन्तु यह सब अहिंसा का बहिरंग स्वरूप मार्ग चल कर भागे प्रतीक्षा करने के लिए भेज कर बोधि- है। उसका अन्तरग उसके अपने अन्दर का ही संगत सत्व स्वय अपने को ही समर्पित कर व्याघ्री के बच्चों को विकास है, जो विशेष रूप से मानसिक साधना का और अपने शिष्य को बचा लेते है । ढंढते हए शिष्य ने क्षेत्र है। इस अन्तरग विवेचन से यह देखा जा सकता है कि अन्त मे गुरु की कुछ हड्डियाँ ही प्राप्त की। इस अहि- प्राचीन भारत के मनीषी उनकी चारित्रिक उत्क्रान्ति सक प्रादर्श के जवाब मे कालिदास ने रघवश मे गुरु की अहिंसा के विकास की किस मंजिल तक पहुंची थी, मागे गाय नन्दिनी को बचाने के लिए व्याघ्र के समक्ष अपने चलकर महात्मा गांधी के युगान्तरकारी प्रयासों से उसमें को समर्पित न करके क्षत्रिय धर्म के अनुसार दिलीप ने क्या प्रगति हुई । इससे हम अहिंसा के भविष्य की संभावबाण खीचा, किन्तु तरकस से हाय सट जाने के कारण नाएं पूरी तरह से ज्ञात भी कर सकते हैं। स्वयं अपने को ही अर्पित कर देना चाहा । इस घटना
00 की पूरी संरचना, और वहां के कथोपकथन से क्षात्र धर्म की श्रेष्ठता और हिंसा की कथंचित उपयोगिता स्पष्ट की
अध्यक्ष-पालि एवं बौद्ध-दर्शन विभाग, जाती है। अश्वघोष मौर कालिदास के सभी काव्य इस
वाराणसेय मंस्कृत विश्वविद्यालय, दृष्टि से वाद-प्रतिवाद के समान है। महाभारत भी इस
बाराणसी-२
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भारतीय संस्कृति को जैनकला का योग-दान
श्री नीरज जैन, एम. ए., सतना (म०प्र०) भारतीय संस्कृति का विकास अपनी जिस लम्बी सवा दो हजार वर्ष पूर्व-तीसरी मती ई. पू. से यात्रा को पार करके अपने वर्तमान तक पहुंचा है, उस मिलना प्रारम्भ होते हैं । इसी समय से ही हमें जैन स्थायात्रा की कथा बड़ी रोचक है। संस्कृति के सन्दर्भ में पत्य तथा मूर्तियां बड़ी संख्या में प्राप्त होती है। अवशेषों भारतवर्ष को हम एक बड़े भारी उपवन की तरह समझ सकते हैं। उपवन की शोभावृद्धि में हर पौधे का, प्रत्येक मोहनजोदड़ो के अवशेषों की गणना नहीं कर रहे क्योंकि लता का और यहां तक कि धरती की दूब का भी महत्वपूर्ण अभी तक उस कला का न तो पूर्वापर सम्बन्ध जोड़ा जा योग होता है। दूब, लता, पोषे पौर वृक्ष अपने भाप में सका है और न उस काल की लिपि ही पढ़ी जा सकी है। उपवन नहीं कहे जा सकते, किन्तु इनका समूह सहज ही तो भी, संन्धव सभ्यता के अवशेषों में हमें पशुपों में एक उपवन का नाम पा जाता है और उसकी शोभा सुषमा विशाल स्कन्ध युक्त बृषभ तथा एक जटाधारी योगी का का भागीदार बन जाता है । इसी प्रकार भारतीय संस्कृति प्रकन-वहां प्राप्त हुए हैं । वृषभ तथा जटाजूट के कारण के विकास में कला की जिन विधामों का और कला के हम योगी की प्रतिमा को प्रथम जैन तीर्थकर मान सकते जिन प्रकारों का योगदान है, वे सब उसकी महानता के हैं। यहां से प्राप्त अवशेषों में एक धड़ भी है जो खड्गाभागीदार हैं।
सन है तथा स्पष्ट ही जैन-मूर्ति से मिलता-जुलता है । भारतीय संस्कृति के विकास की इस प्रक्रिया में जनों
वर्तमान प्रमाणों के प्राधार पर यदि हम तीसरी शती का बहुमुखी योगदान रहा है। पाहे वह साहित्य का क्षेत्र रहा हो, चाहे ललित कलामों की किसी भी विद्या का
ई०पू० के काल को भारतीय मूर्तिकला के उद्भव का
प्रारम्भ मानें तो हमे ज्ञात होता है कि प्रारम्भ से ही क्षेत्र रहा हो। मादिम युग की भित्ति-चित्रकला से लेकर परवर्ती काल के पाण्डुलिपि-चित्र-फलकों तक तथा ई०पू०
भारतीय मूर्तिकला के उद्भव और विकास की इस यात्रा के स्तूपीय वास्तु शिल्प से लेकर, शिलोत्कीर्ण गुफा मन्दिरों
में जैन कलाकारों का योगदान उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण
रहा है। भारतीय मूर्तिकला की कोई ऐसी परम्परा या को दुर्गम राह से होते हुए परवर्तीकाल के गगनचुम्बी,
विधा नहीं है, जिसका सम्पूर्ण और सही प्रतिनिधित्व जैन शिखर शोभित प्रलंकृत मंदिरों तक और शुगकालीन
कलावशेषों में प्राप्त न होता हो। यह बात केवल विविमायागपट्ट की प्रतीक प्रतिमानों से लेकर कुण्डलपुर के
धता पर ही नहीं, बहुलता पर भी लागू होती है। उत्तर बड़े बाबा और श्रवणवेलगोल के गोम्मतेश्वर तक भार
से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक प्रायः समस्त देश में तीय कला के विकास में सर्वत्र जैन कलाकार अपना
प्रत्येक काल का प्रतिनिधित्व करने वाले जैन शिल्पावशेष महत्वपूर्ण योगदान बड़ी सक्षमता के साथ अर्पित करता
इतनी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते है कि उनके माध्यम से दिखाई देता है।
भारतीय मूर्तिकला का सर्वांगीण अध्ययन किया जा सकता इस छोटे से लेख में हम भारतीय संस्कृति को जैन
है। नागरी लिपि के क्रमिक विकास का अध्ययन किया मूर्तिकला और पुरातत्त्व के योगदान का ही एक संक्षिप्त
जा सकता है। गुर्वावली तथा गच्छ और गण परम्परा में लेखा-जोखा प्रस्तुत करेंगे।
भनेक नये नाम जोड़े जा सकते हैं पौर जैन कथा साहित्य हमारे देश में मूर्तिकला के अवशेष तथा प्रमाण पान के कतिपय सर्वथा नवीन पाख्यानों का उद्घाटन किया
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भारतीय संस्कृति को नाका योगदान जा सकता है। यह बात अवश्य स्वीकार करनी पड़ेगी में मगध पर पाक्रमण करके विजय प्राप्त की पौर भगकि 'पत्थरों से सिर टकराकर' इन उपलब्धियों की प्राप्ति बान् जिनेन्द्र की वह प्रसिद्ध प्रतिमा पुनः प्राप्त की जिसे के लिए जो मध्यवसाय और श्रम किया जाना चाहिए, कभी राजा नन्द उठाकर लाया था मोर जो 'कलिंग जिन, उसका शतांश भी अभी नहीं किया गया है।
नाम से प्रसिद्घ थी। इस प्रकार ईसा से बहुत पहले जैन यही स्थिति भप्रकाशित जैन साहित्य तथा प्रसिद्ध मूतियो का न केवल अस्तित्व सिद्ध होता है बल्कि जैन चित्रकला की भी है। साहित्य में तो मेरी गति नहीं
* उनकी लोकप्रसिद्धि भी सिद्ध होती है।
न है पर इतना मैं कह सकता है कि सितम्नवासल्ल' के जैन जैन कलाकार इस काल में अपने पाराध्य तीर्थकरों मदिरों की अनुपम चित्रकारी, एलोरा की जैन गुफा, इन्द्र
की एक से एक मनोज्ञ मोर सुन्दर मतियां बनाने लगे थे। सभा को विस्मृतप्राय चित्रसम्प्रदा और 'जिन कांची' प्रादि यो
यद्यपि वैदिक पीठ पोर तोरण पूजा के माध्यमों का अंकन
__ मथुरा के जैन स्तूपों में भी मिला है परन्तु तात्कालिक तब भारतीय चित्रकला का इतिहास नये सिरे से लिखने
तीर्थकर प्रतिमानो की भी वहां कमी नही है । मथुरा में की आवश्यकता पड़ेगी।
तो जैन तीर्थकर प्रतिमामों के निर्माण की यह शृंखला
उत्तरोत्तर विकसित होती हुई, गुप्तकाल में हमें अद्भुत मौर्य एवं शंगकाल
रूप में दिखाई देती है। देश के अनेक भागों में, दूर-दूर भारत पर सिकन्दर महान के भाक्रमण ( ३२६ ई. तक, मथुरा के स्थानीय लाल बलुवा पत्थर से मथुरा में ही पू० ) के उपरान्त उत्तर भारत में प्रसिद्ध मौर्य साम्राज्य बनी हुई प्रतिमाएं इतनी अधिक मात्रा में प्राप्त हुई है जिनसे स्थापित हुमा । इस साम्राज्य का सबसे प्रतापी सम्राट नगता है कि या तो इन प्रतिमाओं का निर्माण किसी बृहद अशोक हुमा । अशोक यद्यपि बौद्ध धर्मानुयायी था परन्तु मौर सुनियोजित धार्मिक अनुष्ठान अभियान अन्तर्गत हुमा जीवन के अन्तिम समय में उसके द्वारा जैन धर्म अंगीकार होगा या फिर मथुरा में व्यापारिक दृष्टिकोण से ये मूर्तियां कर लिए जाने के उल्लेख जैन साहित्य मे मिलते हैं। बनाकर देश-देशान्तर को भेजी जाती थी। शुंगकाल में जैनधर्म, साहित्य और कला को अशोक का संरक्षण प्राप्त मथुरा में जिस पदभत शिल्प का निर्माण हुमा, उसमें होने का भी उल्लेख भाता है। अशोक के पौत्र सम्प्रति जैन मायागपट्ट तथा कतिपय जैन तीर्थकर मूर्तियां उम्र ने तो न केवल जैनधर्न धारण किया वरन देश भर में तथा काल की समची निर्मिति अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। देश के बाहर अफगानिस्तान तक उसका प्रचार भी किया। प्रायागपट्ट के मध्य में तीर्थकर का अंकन करके चारों बिहार में जो इतिहास प्रसिद्ध जैन राजा हए, उनमें मोर स्वस्तिक, नंद्यावर्त, धर्मचक्र, मीनयुपल, स्वस्तिक, श्रेणिक ( बिम्बिसार), पजातशत्र, चेटक, जितशत्र, नन्द- कलश तथा अनेक प्रकार के लता वृक्षों का जो मनोहारी वर्डन, चन्द्रगुप्त मौर सम्प्रति के नाम उल्लेखनीय है। संयोजन मथुरा के कलाकार ने किया है अथवा उसकी
यद्यपि इस काल मे बौद्धमठ, विहार, स्तुप और कुशल मोर प्रवण छेनी से तीर्थकर मतियों पर देवत्व स्तम्भ ही अधिकतर निर्मित किये गए तथा जन मोर और वीतरागता के जो भाव अवतरित हुए है, उससे वहां शव निर्माण बहुत ही अल्प हुए, फिर भी इस काल के के कलाकार के सौन्दर्यबोध और भावांकन की क्षमता कुछ बहुत शानदार अवशेष खण्डगिरि उदयगिरि की का प्रमाण मिलता है। गुफामों मे, बिहार में पटना के पास-पास तथा मथुरा से लगभग उसी काल में निर्मित खण्डगिरि-उदयगिरि प्राप्त हए हैं। खण्डगिरि उदयगिरि की जैन गुफामों का की गफानों में भी तात्कालिक विकसित और एक सर्वथा निर्माता सम्राट खारवेल अशोक की ही तरह महान् प्रतापी सुनियोजित जैन मूर्तिकला के दर्शन होते हैं । वहा 'कलिंग धार्मिक और एशस्वी सम्राट था। हाथीगुम्फा शिलालेस जिन' की पुनःस्थापना का महोत्सव मनाते हुए सम्राट खारके अनुसार, बारबेल ने अपने शासनकाल के प्रारह वर्षः वेल और उनकी रावमाहितीमा उल्लासपूर्णः.अंकल तो.
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१८०,
२८, कि० १
दर्शनीय ही बन पड़ा है। उसके अतिरिक्त पूजन की भुमरा और नचना के शिव तथा पार्वती मंदिर पूर्व सामग्री लेकर जाते हुए राजपुरुषों तथा क्रीड़ारत बालकों गुप्तकाल के अच्छे उदाहरण माने जाते हैं। इन्हीं मंदिरों प्रादि का अंकन भी हुआ है। तीर्थकर प्रतिमायो के परि- के पाव में, उसी काल मे सीरा पहाड़ की जैन गुफामों वार में शासनदेवियों का प्रायुध, वाहन आदि के साथ तथा उनमें स्थित मनोहर तीर्थकर प्रतिमानो का निर्माण बनाया जाना भी खण्डगिरि की अपनी विशेषता है। पुरा- हुमा तथा सिद्धनाथ की जटाजूट युक्त सुन्दर जैन मूर्तियां तत्व में शासनदेवियों का प्राचीनतम अस्तित्व संभवतः अस्तित्व मे पायीं। सीरा पहाड़ की मूर्तियो के इन्द्र यहीं प्राप्त होता है। इस स्थान की सामग्री की शोध और विद्याधर युगल अपनी सुन्दरता और सुघड़ता के कराकर उसे प्रकाश में लाने की बड़ी आवश्यकता है। कारण गुप्तकाल के उत्तम प्रतिनिधि हैं, तथा वहां से इस दिशा में स्व. बाब छोटेलाल जी का कार्य अधूरा पडा प्राप्त भगवान पारसनाथ की सप्तफणावलि युक्त उत्थित हना है जिसे भागे बढ़ाया जाना चाहिए। लोहानीपुर पद्मासन प्रतिमा-जो अब रामन (सतना) के तुलसी (पटना) से प्राप्त कतिपय तीर्थकर प्रतिमाएं भी जो पटना संग्रहालय में स्थित है-उस काल की प्राणवान् कला का संग्रहालय में संग्रहीत है, इस काल का अच्छा प्रतिनिधित्व एक श्रेष्ठ उदाहरण है। करती है।
उत्तर तथा मध्यभारत में गुप्तकाल के अवशेषों में गुप्तकालीन मूर्तिकला :
देवगढ, राजघाट, वाराणसी, मन्दसौर और पवाया आदि
अनेकों स्थानों से प्राप्त सामग्री की गणना की जाती है। कला और संस्कृति के विकास में गुप्तकाल (चौथी,
म गुप्तकाल (चाया, देवगढ में यद्यपि मध्ययुग का शिल्प ही अधिक है तथापि पांचवी और छठवी शती ई०) को इस देश का स्वर्णकाल
वहाँ की कतिपय मूर्तियां और एक दो मन्दिर निश्चित ही कहा जाता है। स्थापत्य, शिल्प, चित्रांकन और साहित्य
गुप्तकाल की रचना हैं। ये मूर्तियां सज्जा की विविधता रचना का जो कार्य इस काल में हुआ, वह उसके बाद उतनी तथा कला के अंकन में गूप्तकालीन कला के मान की विशिष्ट कलात्मक और मौलिक शैली में फिर कभी नहीं
रक्षा करती हैं। राजघाट से प्राप्त धरणेन्द्र-पद्मावती
। हो सका।
सहित पारसनाथ प्रतिमा भी कला की दृष्टि से उत्कृष्ट इस काल में भी कला के किसी भी शाखा के विकास मानी गयी है। यह मूर्ति भारत कला भवन, वाराणसी में और निर्माण में जनों का योगदान कम नही रहा । चित्रां- संगहीत है। कन तथा साहित्य-सृजन के अलावा शिल्प के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य हुमा है । इस काल में जैन धर्म की स्थिति,
दक्षिण का योगदान : देश में प्रायः हर जगह अच्छी थी। जगह-जगह नागर विख्यात पुरातत्त्वज्ञ श्री टी. एन. रामचन्द्रन के शैली के ऊंचे-ऊंचे शिखरबंद मंदिरों का निर्माण हमा। मतानुसार 'दक्षिण में जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का इतिहास इन मंदिरों के शिखर नीचे की मोर से उत्तरोत्तर संकीर्ण द्रविड़ों को पार्य सभ्यता का पाठ पढ़ाने का ही इतिहास होते हुए ऊपर जाकर एक मंगलकलश के रूप में परि- है।' इस अभियान का प्रारम्भ तीसरी शती ई०पू० में वर्तित हो जाते थे। जैनों के प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ प्राचार्य भद्रबाहु की दक्षिण यात्रा से हुमा । सम्राट चन्द्रकी तपस्या भूमि और निर्वाण स्थली कैलाश थी। अतः ये गुप्त मौर्य इस यात्रा में साथ रहा और उसी समय से शिखर उसी की अनुकृति के रूप में निर्मित किए जाते थे। जैनकला और साहित्य की गतिविधिया दक्षिण में परिनागवंशियों द्वारा अपनी राज्य-सीमा के प्रतीकरूप में लक्षित होती हैं। नागर शैली के मंदिरों के प्रवेश-द्वार पर गंगा पोर यमुना प्राचार्य भद्रबाह के उपरान्त कालकाचार्य पौर का अंकन प्रारम्भ किया गया था। राज्यचिह्न होने के विशाखाचार्य द्वारा भी दक्षिण की यात्रा की गयी। पैठा कारण जैनों ने इस परति को बीमपनाया।
के राजदरबार में कामकाचार्य की बड़ी मान्यता थी।
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भारतीय संस्कृति को नकला का योगदान
पठन प्रतिष्ठान के नाम से प्रसिद्ध था और यहीं चतुर्थकाल की ऊंचाइयां भी जितनी इस मूर्ति ने पाई है, उतनी अन्यत्र में तीर्थकर मनि सुव्रतनाथ की प्रतिमा स्थापित किये देखने में नही आती। अपनी उसी महानता पौर विशिजाने का उल्लेख पद्मपुराण में है। पैठन के सातवाहन ष्टता के कारण यह प्रतिमा संसार के माश्चर्यों में गिनी राजाओं द्वारा निर्मित दूसरी शती ई० पू० का स्थापत्य जाती है तथा भारतीय मूर्तिकला में जैन कलाकारों का उपलब्ध है। छठवीं शती ई० में कवि रविकीति द्वारा यह संभवतः सबसे निराला, बहुमूल्य और महत्त्वपूर्ण योगऐहोल मे विशाल जैन मन्दिर का निर्माण हमा । चालुक्धों दान है। के राज्यकाल में इसी समय ऐहोल तथा बदामी में अन्य कतिपय विशाल-प्रतिमाएं: अनेक मन्दिरों, मूर्तियों तथा गृहामन्दिरों का निर्माण
बाहुबलि की खड़गासन मूर्तियों की स्थापना दक्षिण हुमा । ऐहोल मे रविकीर्ति के शिलालेख में इस राज्याश्रय
भारत को अपनी विशेषता रही है। ऐहोल और बादामी का उल्लेख है। यहाँ की विशाल अम्बिका मूर्ति भी कला
की गुफानों तथा मन्दिरों में छठवी शती में निर्मित बाहुकी दृष्टि से उल्लेखनीय है।
बलि की अनेक सुन्दर मूर्तियां उपलब्ध हैं। आठवीं, नौवीं कर्नाटक मे जैनकाल के लिए स्वर्णयुग का प्रारम्भ
और दसवी शती में एलोरा की जैन गुफामों का निर्माण गंगवंश के राज्यकाल से हा। कहा जाता है कि इस राजवंश की स्थापना में जैनाचार्य सिहनन्दि का बड़ा हाथ
हुआ जो जैनकला का एक अद्वितीय उदाहरण है । यहाँ
भी बाहुबलि की स्थापना की यह परम्परा वर्तमान रही था और वंश के प्रथम राजा को उनका परामर्श भी प्राप्त
है जिसके प्रमाण में हम कारकल की ४२ फुट ऊंची तथा या। इसी राजवंश का तीसरा राजा दुविनीत (६०५-५०
बेलूर की ३५ फुट की उन प्रतिमामों को ले सकते हैं ई०) हुआ जो प्राचार्य पूज्यपाद का बड़ा भक्त था।
जिनका निर्माण क्रमशः १४३२ मोर १६०४ ई. में हुआ। दुविनीत के पूत्र मश्कर ने तो जैनधर्म को राज्यधर्म ही घोषित कर दिया।
उत्तर भारत में बाहबलि की स्थापना प्राचीनकाल में इसी वंश में राजल्ल प्रथम (८१७-२८ ई०) हुमा प्रायः नहीं हई। खजुराहो, देवगढ़, बिलहरी, तेवर आदि जिसने अरकाट जिले मे वल्ली मलई ग्राम में एक विशाल में जहां उनका अंकन हुआ भी, वहाँ प्राय: छोटी-छोटी जैन गुफा और कुछेक मन्दिरों का निर्माण कराया। इस मूर्तियां बनाकर ही सन्तोष कर लिया गया, परन्तु प्रायः राजवंश के दीर्घ शासनकाल में दक्षिण में अनेक जगह इन सभी स्थानों पर सोलहवें तीर्थङ्कर शान्तिनाथ की समय-समय पर जो मूर्तियाँ, मन्दिर और गुफायें निर्मित मूर्ति अथवा तीनों चक्रवर्ती तीर्थडुरों-शान्तिनाथ, कुन्थुहुई, वे दक्षिण भारत मे जैनकला के एक मुनियोजित और नाथ, अरहनाथ-की एकत्र प्रतिमायें एक से एक बढ़कर क्रमिक विकास की साक्षी है। यह राजवश जैनधर्म के विशाल और सुन्दर बनायी गयी। उन मूर्तियों के सन्दर्भ प्रति इतना प्रास्थावान तथा श्रद्धालु था कि इसके एक में अहार, देवगढ़, खजुराहो, वानपुर, बजरंगगढ़, ऊन, प्रतापी राजा मारसिह तृतीय (९६१-७४ ई.) द्वारा ग्वालियर ग्रादि के नाम उल्लेखनीय हैं। इनमें प्राहार अन्त में सल्लेखना मरण अगीकार करने का उल्लेख मिलता क्षेत्र पर १२३५ ई० में स्थापित १४ फुट ऊंची भगवान है। इसी मारसिंह के स्वनामधन्य सेनापति श्री चामण्डराय शान्तिनाथ की चमकदार पालिश से युक्त प्रतिमा सर्वाधिक हुए जिनके द्वारा श्रवणबेलगोल की अद्भत गोम्मटेश्वर सुन्दर और आकर्षक है । इसे 'उत्तर भारत का गोमटेश्वर प्रतिमा का निर्माण हुमा।
कह सकते है। दशवीं शती ई. के अन्तिम चरण में निर्मित भगवान् विशाल प्रतिमानों का यह वर्णन तब तक पूरा नहीं बाहुबली की यह विशाल एवं सौम्य प्रतिमा ५७ फोट कहा जा सकता जब तक इसमें कुण्डलपुर (दमोह, म. ऊंची है। इस मूर्ति में केवल माकार में ही ऊंचाई नहीं प्र.) की विशाल पद्मासन प्रतिमा का उल्लेख न कर हैबरन शरीर-सौष्ठव, अनुपात, कला पौर भाव-प्रवणता दिया जाय। भव्य मासन भोर सौम्यरूप में विराजमान
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१६२८,f.. १४ फुट ऊंची यह मूर्ति जटाजूट युक्त भगवान आदिनाथ खजुराहो में जैन कलाकार के महत्वपूर्ण योगदान का की है। सिंहासनस्थ यक्ष गोमुख और चक्रेश्वरी भी इसी मूल्यांकन करना अधिक प्रासान है क्योकि वहाँ एक ही की साक्षी है पर तीन सौ वर्ष पूर्व इस मन्दिर के जीर्णोद्धार केन्द्र में शैव, वैष्णव और शाक्त मन्दिरों के समूह भी पाये के समय, सिंहासन के सिंह युगल से प्रभावित होकर एक गये हैं। इनमें विशालता की दृष्टि से कन्दर्प महादेव का तत्कालीन शिलालेख में इसे महावीर की प्रतिमा मान मन्दिर सबसे बड़ा है परन्तु जैन समूह का पार्श्वनाथ लिया गया। तब से यह मूर्ति महावीर रूप में ही पूजी मन्दिर खजुराहो के मन्दिरों में अपनी विशेषता रखता जा रही है। वैसे तो देश में अनेक स्थानों पर इससे भी है। बाह्य भित्तियों पर निर्मित अप्सरा और यक्षिणी विशाल पद्मासन प्रतिमायें है परन्तु कला का जो सबल मूर्तियों में उस मन्दिर ने खजुराहो में अद्वितीय ख्याति पौर अविस्मरणीय प्रभाव तथा वीतरागता की जो भपूर्व पायी है। इन मूर्तियों का प्राकार समूचे खजुराहो के अनुभूति इस प्रतिमा से होती है, वह अन्यत्र दुर्लभ ही है। किसी भी मन्दिर की मूर्तियों के प्राकार से बड़ा है। इसका निर्माण पूर्व मध्यकाल में हुमा।
हास्य, लास्य, नृत्य, शृंगार, युद्ध, राग-रंग, क्रीड़ा तथा मध्यकाल-पाज देश में जितने भी शिल्पावशेष उप. छोक, मबाल, क्षुधा प्रादि के साथ मजन, पूजन, अर्चना, बन्ध होते हैं, उनमें से अधिकांश का निर्माण मध्यकाल में ही स्तुति, शास्त्रार्थ, प्रवचन मादि के नाना अभिप्रायों के हुमा । देश के इतिहास में यह समय एक सर्वव्यापी धार्मिक माध्यम से खजुराहो के मूर्ति कलाकार ने कलाकार की चेतना का काल था और इस काल में प्रायः समूचे देश में भावना को इस मन्दिर की भित्तियों पर बड़ी सफलताजो धार्मिक अनुष्ठान, मन्दिर निर्माण और प्रतिमा-प्रतिष्ठायें पूर्वक व्यंजित किया है। शास्त्रीय दृष्टि से देखें तो दिकहुई, उनके खण्डित साक्ष्य प्राज हमारे चारों पोर बिखरे पाल, द्वारपाल, गंगा-यमुना, प्रष्ट मातृकायें, नवगृह, सोलह पड़े हैं। केवल बौदधधर्म को छोडकर इस काल में शैव. विद्यादेवियाँ, चौबीस शासन-देवियाँ मोर अनगिनत यक्षवैष्णव, शाक्त मौर जैन मतावलम्बियों द्वारा अपने-अपने यक्षियां खजुराहो के इन पारसनाथ भोर पादिनाथ मंदिरों माराध्य देवतामों की प्रचुरतापूर्वक स्थापना की गई। में अंकित है। पारसनाथ मन्दिर की तीन-चार अप्सरा बड़े-बड़े मन्दिर ही नही बल्कि भगणित मन्दिरो के समूह प्रतिमायें तो अनेक देशी-विदेशी विद्वानों की सम्मति में पौर नगर भी निर्मित हुए । देवगढ़, खजुराहो, तिरूपत्ति- समूचे खजुराहो की भद्वितीय भनुपम और मनमोल निधि कुनरम, हलेबीड, पाबू, कोक, एलोरा, मूडबद्री, चित्तौड़ है। पादि ऐसे ही स्थान हैं । इस काल मे कला के विकास और शान्तिनाथ मन्दिर में मूलनायक की १४ फूट ऊंची प्रचार-प्रसार के इस दौर में जैनो का योगदान कम नहीं प्रतिमा के अतिरिक्त धरणेन्द्र-पमावती की सर्व सुन्दर युगल है। एलोरा की इन्द्रसभा नामक जैन गुफा की दो मंजिला मूर्ति तथा सत्ताइस नक्षत्रों का शिलांकन उल्लेखनीय है। बनावट, उसमें पारसनाथ, बाहबलि, इन्द्र और अम्बिका घंटाई मन्दिर भी अपनी बारीक कलाकारी के लिए की सविशेष प्रतिमायें तथा उसकी योजनाबद्ध सज्जा सहज प्रासद्ध है। विस्मरणीय नहीं है । देवगढ़ में तो मध्यकाल की जनकला तिरुपत्तिकुनरम् में भी शिवकांची, विष्णुकांची और को सम्पत्ति का जो कोष भरा पड़ा है, उसकी खोज खबर जिनकांची का एकत्र वैभव देखकर हम जैनकला का लेने में भी प्रभी एक यूग लगेगा। यहां परणेन्द्र-पपावती महत्त्व सहज ही पांक लेते हैं । प्राबू के सगमरमर के सैकड़ों युगल मूर्तिखण्ड तथा अम्बिका के विविध रूपों निर्मित जैन मन्दिर तो अपनी विलक्षणतानों के कारण की भनेक मूर्तियाँ और प्रायः सभी शासन देवियों की एक बहुश्रुत हैं । संगमरमर की सूक्ष्म से सूक्ष्म कटाई और रंगसे एक बढ़कर सुन्दर स्वतन्त्र मूर्तियाँ जनकला की उत्कृष्टता, विरंगी पच्चीकारी तथा बडे-बडे खम्भों के पाधार पर सौन्दर्य-बोध भोर सूक्ष्मतर कल्पना-शक्ति का परिचय दिशाल सभाकक्ष आबू की विशेषता है। छतों, मेहराधों देती पाज भी यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं।
और तोरणों की सयोजना में तो वहाँ के कलाकार की
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महावीर - कालीन भारत की सांस्कृतिक झलक
राजनैतिक स्थिति :
महावीर के काल में भारत में प्रायः साठ से अधिक राज्य विद्यमान थे । इन्हें महाजनपद या जनपद कहा जाता था । इनके नाम कम्बोज, गंधार, कैकेय, पंचाल, शाल्व, वैराट, मरु, सिन्धु-सौवीर, कच्छ, सुरठ, मरहट्ट, मत्स्य, ग्राभीर, कुह, सूरसेन, वत्स, भवन्ती, लोहित्य, भग्ग, कोसल, काशी, शाक्य, मल्ल, वज्जि, विदेह, मगध अग, उत्कल, कलिंग, बंग, भुत्तुव, कामरूप, प्रागज्योतिष, कोलीय, मौर्य, सबर, कोंकण, आन्ध्र, पाण्ड्य, ताम्रपण, आदि थे। इनमे वत्स, प्रबन्ती, कोसल धौर मगध मे राजतंत्र था, बाकी गणतंत्रात्मक थे ।
राजतंत्रों का राजा निरकुश नहीं होता था, वह मंत्रि परिषद की राय से कार्य करता था और प्रजा की
कैनी भौर अधिक सन्तुलित भौर अधिक चमत्कार पूर्ण हो उठी है। बड़े महत्त्व की बात यह है कि कला के इन सभी प्राडम्बरों के मध्य भी वीतराग जिनेन्द्र की सादगीपूर्ण सौम्य मुद्रा के अवतरण में भी घाबू के कलाकार को बराबर की सफलता प्राप्त हुई है। चौदहवीं शती में बाबू में डिजाइनों जालियों और पच्चीकारी के जो नमूने इन जैनकला-प्राराधकों ने प्रस्तुत किये थे, उनकी समानता कर पाने मे ताजमहल का कलाकार भी सक्षम नहीं हो सका ।
परवर्तीकाल मे जब भारतीय मूर्तिकला की आराधना दक्षिण मे विशेष रूप से हुई तब वहाँ भी जैन कलाकार पीछे नही रहा । पर जब कला का ह्रास देश में हुआ तो जैनकला का भी ह्रास होता गया। फिर भी आज जो प्रमाण उपलब्ध हैं, उनके सहारे यह कहा जा सकता है कि भारतीय कला के विकास में ही नहीं, प्रसार में भी जैनों का योगदान प्रचुर एवं महत्त्वपूर्ण रहा है। 00 सुषमा प्रेस, सतन ( म०प्र०)
श्री कन्हैयालाल सरायको
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भावना का समादर था । गणतंत्र में कहीं एक मुख्य राधा होता था, कही गणराजाओं की परिषद थी, कहीं मुख्य राजा होते हुए भी गणपरिषद् प्रधान थी और कहीं मुख्यगण बारी-बारी से राज्य करते थे । कुछ एक महत्वाकांक्षी विस्तार - लोलुप सम्राट् भी थे। गणतंत्रों से इनके सम्बन्ध अच्छे नहीं थे और कभी-कभी वे युद्ध तक कर बैठते थे । मग का राजा कुणिक (प्रजातशत्रु) इसका ज्वलंत उदाहरण है । उसने वज्जि, काशी, कोसल, घोर मल्ल राष्ट्रों को प्राक्रमण द्वारा जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया था । कोसल के राजा विदुडम ( विदुधव) ने शाक्यों पर आक्रमण कर उन्हें अपार क्षति पहुंचाई थी, पर शाक्यों पर कोसल का शासन स्थापित नहीं हुधा था। इसमें राज्य विस्तार की कामना न होकर बदले की भावना थी।
गणतंत्रों के सम्बन्ध प्रापस में प्राय: अच्छे थे। कारण विशेष से कभी-कभी कुछ विवाद भी उठते रहते थे । नदी, जल, परिवहन, ग्राम आदि के कारणों से विवाद उठना ही इनमें मुख्य था । कभी-कभी किसी कन्या को लेकर भी झगड़े खड़े हो जाते थे ।
शासन पद्धति :
वज्जियों में एक मुख्य राजा होते हुए भी गणों की परिषद से यह राष्ट्र शासित था । महल राष्ट्र के गणराजा बारी-बारी से राज्य करते थे । जैन शास्त्रों के अनुसार वज्जि और महल गणतन्त्रों की नो नो शाखायें थीं । वज्जि गणतंत्र में लिच्छिवि प्रमुख थे, बाको ज्ञातृ, विदेह, मल्ल, उग्र, भोग, ऐक्ष्वाक आदि थे। ज्ञातु महावीर का पितृकुल था, इसकी परम्परा ऋषभदेव के कुल से संबंधित बताई जाती है । मल्ल भी इक्ष्वाकु के वंश से सम्बन्धित थे । लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु ने इसे बसाया था ।
गणतंत्रों की राज्य प्रणाली सुव्यवस्थित थी और
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१८४,
२८, कि०१
अनेकान्त
नियमों का पूर्ण समादर था। राष्ट्र के रक्षार्थ सेना रखी गणतंत्रों में सबसे बड़ा और शक्तिशाली वज्जि गणजाती थी और मांतरिक सुव्यवस्था के लिए पारक्षी दल तंत्र था। संभवत: भारत वर्ष का सर्वप्रथम गणतंत्र भी रखा जाता था। प्रत्येक गण अपने में स्वतंत्र भी था और यही था। इसमें ७७०७ गण-राजा सम्मिलित थे। मगध परस्पर सम्बद्ध भी था। अपनी सीमा में जहां गणराजा राजतंत्र से सटे होने के कारण मगध की आँखें इस संघ सर्वोपरि थे, वहाँ राष्ट्रीय तल पर एक दूसरे से बंधे हुए पर लगी रहती थीं श्रेणिक (बिम्बसार) ने भी वज्जियों भोर संस्थागार के नियमों के अधीन थे। उस समय अप- पर आक्रमण किया था, पर पीछे चेटक की पुत्री चेल्लना राध कम होते थे और दण्ड-व्यवस्था दृढ, पर सरल थी। से विवाह करने के बाद आपस में संधि हो गई थी। अपराधों के न्याय के लिए उत्तरोत्तर कई न्यायालय बने अजात शत्रु ने तो इस गणतंत्र को सहायकों मल्ल, काशी हुए थे।
मौर कोसल सहित अधीनस्थ कर लिया था। अजेयता के सात कारण :
अधिकारी एवं प्रमात्य : गणतंत्रों की प्रणाली की सव्यवस्थिति पर बुद्ध और गणतंत्रों की राज्य प्रणाली में निम्न अधिकारी एवं अजातशत्रु के महामात्य वर्षकार की वार्ता से समुचित अमात्य होते थे :प्रकाश पड़ता है। यद्यपि प्रस्तुत प्रसग वैशाली (वज्जियों) राजा, उपराजा, सेनाध्यक्ष, भाण्डागारिक (कोषाध्यक्ष) से सम्बध रखता है, पर गणतत्रों की प्रणाली प्रायः मिलती- ये चार मुख्य थे । इनके अतिरिक्त शुल्क, व्यवहार, पारजुलती होने के कारण इसे सभी गणतंत्रो की प्रणाली कह क्षण, वाणिज्य, दौत्य आदि के लिए विभिन्न अमात्य रखे सकते है। बुद्ध ने प्रानन्द के माध्यम से वर्षकार को वज्जियो जाते थे । अधिकारियों और अमात्यो मे चुने हुए और की अजेयता के सात कारण बताये थे जो निम्न प्रकार वेतनभुक्त दोनो प्रकार के लोग होते थे । गणतत्रो में एक
संस्थागार होता था, जिसमे सभी गणराजा उपस्थित होकर १-वज्जि इकट्ठ जटते, उठते-बैठते, उद्यम करते, विचार-विमर्ग करते, नियम बनाते और सम्बन्धित विषयो पौर राष्ट्रीय कर्तव्यो का पालन करते है।
-सधि, विग्रह, परराष्ट्र-सम्बन्ध आदि पर निर्णय लेते थे। २-वज्जि बार-बार इकट्टे होते, इनके जुटाव पूर्ण सामान्यतः निर्णय सर्व-सम्मत होते थे, मतैक्य नहीं होने और सर्व-सम्मिलित होते है;
पर छद (वोट) लिए जाते थे । संस्थागार में जो निर्णय ३-वज्जि सभा की राय से नियम बनाए बिना हो जाता या जो नियम बन जाता, उसे मानना सबके माज्ञा या आदेश नही प्रसारित करते, नियमो का उल्लघन लिए अनिवार्य था। नही करते, पुराने नियमो का पालन करते और संस्थानो छद तीन प्रकार के लिए जाते थे-मौखिक हाथ से मिल कर कार्य करते है।
उठा कर या सहमति सूचक खड़े होकर और शलाकानो के ४-वज्जि वृद्धों का आदर करते, उनकी सेवा करते द्वारा । शलाका छद को गुप्त मतदान कह सकते है। उनकी बातो पर ध्यान देते, मानते हैं,
विभिन्न रंगों की शलाकायें वितरित कर दी जाती थीं ५-बज्जि कुल नारियो मोर कुमारिकानों का और पक्ष-विपक्ष के रंगों की घोषणा के उपरान्त उन्हे समादर करते है, उन पर बलात्कार नहीं करते है। एकत्र कर बहुमत से निर्णय होता था। सावारणतः जब
६-वज्जि देवस्थानों को मानते, उनकी रक्षा करते जो विषय उपस्थित होता था, उसी पर विचार किया है और उनकी सम्पत्तियो को नहीं छीनते है और
जाता था, विषयान्तर में जाने की अनुमति नहीं दी जाती ७-वज्जि महतों की रक्षा करते, उन्हे आदर वेते, थी। न पाए हुभो को बुलाते और पाये हुए राज्य मे इच्छा- कला एवं विद्या : भुसार निरापद विहार करें, इसका ध्यान रखते हैं। उस समय प्रायः मस्सी से भी अधिक कलायें एवं (दीघनिकाय)
विद्यायें प्रचलित थीं, जैसे लेख, गणित नाटक, सगीत,
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महावीर-कालीन भारत की सांस्कृतिक झलक
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वाद्य, युद्ध, शस्त्रयुद्ध, मल्लयुद्ध, गजलक्षण, हयलक्षण, जो राजा प्रथम विवाह अन्य जातियो मे कर लेता गोलक्षण, काव्य, प्रहेलिका, द्यूत प्रादि । राजाओं को इन था, वह जातिच्युत हो जाता था और वह अपनी विवाबिद्यामी का जानना प्रावश्यक माना जाता था । साधारण हिता की जाति का माना जाता था। यह सब रक्तलोग भी अधिक से अधिक विद्याप्रो मे निपुण होते थे। शुद्धि की भावना से किया जाना था। शाक्यो में तो शाक्यों
राजानो के राज्यारोहण के समय विशेष प्रकार के के अतिरिक्त पुरुप या स्त्री से विवाह न करने का कठोर आयोजन होते थे। किसी पुष्करिणी, नदी अथवा नदियो, नियम था । रक्तशुद्धि की रक्षार्थ चाचा की लड़की या तीर्थों आदि के जल से अभिषेक किया जाता था। इस सगी बहन से भी विवाह करना प्रचलित था। नारियाँ अवसर पर अन्य राजा, मत्री, सामत, परिजन, पुरजन, भी विदुषी और युद्धनिपुण होती थी तथा राजकार्यों में पुरोहित प्रादि उपस्थित होते थे और स्वस्ति-वाचन, प्राशी- भी भाग लती थी। सामतो की कन्यानो से भी राजपुरूष
दि, कर्तव्य-शिक्षा प्रादि के साथ सिंहासन पर बैठाया विवाह करत थे । श्वेताम्बर प्रथो के अनुसार महावीर का जाता था और तिलकोपरात प्रजा तथा अमात्य राजभक्ति विवाह महासामत समरवीर की कन्या यशोदा से हुआ की प्रतिज्ञा लेते थे। अनेक प्रकार के मंगल-द्रव्य-कलश, था : दिगम्बर जैन-शास्त्रो के अनुसार महावीर प्राजन्म धान्य, वस्त्र प्रादि रखे जाते थे।
अविवाहित थे। खड्ग, गदा, धनुष-बाण, हल-मूसल, भाले प्रादि युद्ध के मुख्य प्रायुध थे। मल्लयुद्ध भी प्रचलित था । प्रजात.
सामाजिक स्थिति : शत्रु ने दो नये प्रायुधो-रथमूसल और महाशिलाकटक महावीर-काल मे सामाजिक स्थिति भी सुव्यवस्थित का प्रयोग किया था। दोनो महासहारक अस्त्रो के सहारे थी। वर्ण और जातियाँ भी विद्यमान थी, पर उनके घेरे उसने बज्जियो पर विजय पाई थी। गज, घोडे, रथ, ऊँट, क टन नहीं थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद, रजक, खच्चर प्रादि युद्ध की सवारिया थी। राजमहिषियों भी चाण्डाल, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्भकार, दारुशिल्पी आदि रण-कौशल में निष्णात होती थी और आवश्यकता पड़ने जातियाँ थी।माचार-विचार भेद से प्रार्य पोर अनार्य के पर युद्ध भी करती थी। कभी-कभी अपने पतियो की सहा- भी विभाग थे। पहले वर्णाश्रम-व्यवस्था कुछ जटिल थी, यतार्थ भी युद्ध भूमि मे साथ जाती थीं । बन्धुल मल्ल के परन्तु महावीर और बुद्ध की विचाराधारा ने उसमे माथ उसकी पत्नी मल्लिका ने भी अभिषेक-पृष्करिणी के परिवर्तन ला दिया था। लिए लिच्छिवियो से युद्ध किया था।
लोगों में विभिन्न प्रकार के वस्त्र और आभषणों का
भी प्रचलन था । वस्त्रों में देवदूष्य, दुकल, क्षोम, चीनाअन्य राष्ट्रो से मैत्री या विग्रह संस्थागार में विचारो- शुक, पटवास, वल्कल आदि और प्राभूषणों में मुकुट, परान्त ही होता था। विवाह भोर दीक्षा साधारणतः कडल, केयूर, चडामणि, कटक, ककण, मुद्रिका, हार, माता-पिता की अनुमति से होते थे। कही-कही स्वयंवर को मेखला, कटिसूत्र कंठक, रत्नावली, नुपुर ग्रादि का प्रचभी प्रथा थी। स्वयवर मे कन्या का बलपूर्वक हरण भी लन था। प्रसाधन-सामग्रियां भी अनेक थी । साधारण से होता था । ऐसे भी उदाहरण मिलते है कि अपहृत कन्या लेकर बहुमूल्य सामग्रिया व्यवहृत होती थी। चन्दव, की इच्छा के विरुद्ध अपहरणकर्ता उममे विवाह नही कु कुम, अगराग, पालक्तक, अजन, शतपाक तेल, सहस्रकरता था, वग्न् कन्या इच्छित पुरुष को लौटा दी जाती पाक नेल, गध, (इत्र), अनेक सुगन्धित द्रव्य, मिश्रित लेप, थी। राजानो मे बहु विवाह प्रचलित था, अन्तर्जातीय मिदूर, कस्तूरी, माला, ताम्बूल, प्रादि के व्यवहार का विवाह भी होते थे, परन्तु पहला विवाह क्षत्रियाणी से उल्लेख मिलता है। लिच्छिवियों की वेश-भूषा को देख करना अनिवार्य था। क्षत्रियाणी से उत्पन्न सतान ही राज्य कर बुद्ध ने उनकी तुलना वायस्त्रिश स्वर्ग के देवो से की अधिकारी होती थी।
की थी। पुरुष और महिला दोनों ही गहने और सजीले
विवाह:
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१८६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
वस्त्रो से अपने अंग सजाते थे, विभिन्न प्रकार के लेप-गंध को निश्चित शुल्क या भागीदारी के आधार पर ऋण भी प्रादि भी लगाते थे।
देते थे। सार्थो के अपने यान, वाहन, चालक, वाहक, __ मनोरञ्जन के लिए नाटक, गीत, वाद्य, चित्रकला, रक्षक आदि भी होते थे । प्राचीन भारत में सार्थों की छद-रचना, चूत, जलक्रीड़ा, वृक्षारोहण, प्रामली क्रीडा भमिका की विशेष जानकारी डा. मोतीचन्द्र की पुस्तक आदि का प्रमुखता से प्रचलन था । विशेष अवसरो पर 'सार्थवाह' से मिलती है। अनेक सामूहिक महोत्सव भी होते थे। नगर-नारियां भी लेन-देन के लिए निष्क, शतमान, कार्षापण आदि का थी, उन्हें राष्ट्र से बाहर जाने की साधारणत: अनुमति व्यवहार था । मद्रानों पर जनपद, श्रेणी अथवा धामिक नहीं थी।
चिह्न अंकित हा करते थे। वाणिज्य-व्यापार पर राजपावागमन और भारवहन के लिए घोड़े, हाथी, ऊर, कीय नियन्त्रण नही था, कर-भार भी प्राय के दसवे से खच्चर, बैल, शकट, शिविका, रथ, नाव, पोत प्रादि का छठे भाग तक सीमित था । विशेष परिस्थितियो, युद्ध, व्यवहार होता था। मकान कच्चे अोर पक्के दोनो तरह भिक्ष आदि के समय यह अवश्य ध्यान रखा जाता था बनते थे। फूल की कुटिया और पर्वत-गुफापो से लेकर कि कोई अनुचित लाभ न ले सके । जगलो, दुर्गम मार्गो सतखण्डे महल तक बनते थे । मकान काठ, ईट तथा पत्थर में कही कही दस्यूदल भी सक्रिय होते थे । यो अपराध के-जिसकी जहा सुविधा होती, बनते थे । साधुग्रो के बत्त कम होते थे। आवास के लिए सघाराम, विहार, चैत्य आदि बनते थे । ।
घामिक स्थिति : तत्कालीन देश में जहा समृद्धि थी, वहा कुछ उपेक्षित दलित पौर विपन्न भी थे। उन्हे ऊँचा उठाने और समाज
इस युग में प्राचीन धार्मिक परम्पराये टूट रही थी में उपयुक्त स्थान दिलाने की दिशा में महावीर का बहुत ।
. और धार्मिक एवं सामाजिक तल पर महान परिवर्तन हुए
थे । बलि, यज्ञादि क्रियाकाण्डो का स्थान भक्ति, उपाबडा योगदान है। श्रमण सस्कृति ने मानव को समानता का मत्र दिया था। जाति और वर्ण के बदले पाचरण,
सना, सत्कर्म और सदाचार ने ले लिया था। जैन, बौद्ध थेष्ठता और पूज्यता का प्राधार बन गया था।
और वैदिक तीनो सस्कृतियाँ साथ-साथ चल रही थी, आर्थिक स्थिति :
बौद्ध सस्कृति अपेक्षाकृत नवीन थी, पर दिन-दिन इसका प्राथिक दष्टि से भी तत्कालीन भारतवर्ष मम्पन्न विस्तार हो रहा था। महावीर-निर्वाण के बाद इसका था । कृषि, पशुपालन, व्यापार, वाणिज्य, कला-कौशल में
अधिक प्रसार हा। कुछ क्षेत्रो मे इस राजकीय सरक्षण भी यह देश प्रचर प्रगति कर चुका था । प्रातरिक व्या
भी मिला था। उस समय धर्म के नाम और सिद्धातो पर पर के साथ ही विदेशों से भी जलपोतो के सहारे व्यापार
अनेक वाद रचे जाते थे। धर्म-परिवर्तन साधारण-सी बात होता था। पूर्व मे ताम्रलिस्ति और पश्चिम मे भडोच के थी। कही कही एक ही कुल परिवार के व्यक्ति अलगबन्दरगाह प्रसिद्ध थे। यहाँ से रेशमी वस्त्र, मलमल, कबल, अलग धर्मों को मानते थे। सुगन्धित द्रव्य, औषधियाँ, मोती. रत्न, हाथी दांत, लकड़ी, महावीर के काल में श्रमण-संस्कृति में श्रावक, श्राविका सोने-चादी, मिट्टी आदि के सामान विदेशो को भेजे जाते साधु, साध्वी, चतुर्विध संघ की स्थापना हुई थी। जैनों थे । स्थानीय लोग भी इनका व्यवहार करते थे। की देखा-देखी बौद्धों ने भी इसी प्रकार चतुर्विध संघ
दूर देशों या विदेशो में व्यापार-वाणिज्य के लिए कई बनाया था। महावीर के अतिरिक्त अन्य पाँच तीर्थिकव्यापारी समूह में जाते थे और मार्ग दिखाने के लिए सार्थ मखलि गोशाल, प्रकुध कात्यायन, संजय वेलट्टिपुत्र, अजित होते थे। सार्थों को मार्गों का पूरा ज्ञान होता था और केशकम्बल और पूर्ण कास्यप प्रसिद्ध थे। बुद्ध भी एक निरापद यात्रा के लिए उनका सहयोग आवश्यक अथवा समकालीन तीर्थक थे। वैदिक धर्म में भी जटिल, त्रिदण्डी, अनिवार्य था। सार्थ सम्पन्न भी होते थे, वे व्यापारियों मडित आदि अनेक आम्नाय थे । धर्मगुरुषों और साधुनों
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महावीर-कालीन भारत की सांस्कृतिक झलक
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का सम्मान था और उन्हें आवश्यक आवास, आहार, वस्त्र वह मरता है तो पृथ्वी धातु पृथ्वी मे, अप घातु जल में, पात्रादि दिये जाते थे।
तेज धातु तेज में और वायु धातु वायु मे मिल जाते है बौद्ध साहित्य मे उल्लेख :
तथा इन्द्रियाँ आकाश में चली जाती है । दान करने की उपर्यवत सात तीर्थको (धर्मनायको) मे महावीर बात मूर्खतापूर्ण है : मृत्यु के बाद प्राणियों के गुण-अवपौर बुद्ध को छोड़ कर बाकी के विषय में बहत कम गुणो की चर्चा होती है, उनका कुछ भी शेष नहीं बचता' जानकारी मिलती है। इसका कारण सम्भवत. यही है कि सब भस्म हो जाता है। उनके ग्राम्नायो का उच्छेद हो चुका है। बौद्ध साहित्य पूर्ण काश्यप : मे तत्सम्बन्धी जो उल्लेख मिलता है, उसका सार इस पूर्ण काश्यप प्रक्रियावादी थे। वे कहते थे कि किसी प्रकार है
के अच्छे बरे कर्मों का कोई पुण्य-पाप नही होता । चाहे मंखली गोशाल:
कैसा भी दान, यज्ञ किया जाय, उसका पुण्य नहीं होता मखली गोशाल नियतिवादी थे। वे कहते थे-प्राणी की और चाहे जैमी हिमा, चोरी, असत्य-भाषण मादि करे, शुद्धता या अपवित्रता का कोई हेतु नहीं होता । प्राणियो उसका पाप भी नहीं होता। के सामर्थ्य से कुछ नही होता, उनमे बल, पराक्रम, वीर्य नियंठ नातपात (मशवीर) : या शक्ति नहीं है। वे अवश, दुर्बल और निवार्य है। वे
निगट नातपुत्त (महावीर) संवरवादी थे, उनके नियति (भाग्य), सगति एव स्वभाव के कारण परिणत
चार मबर थेहोते है और जन्मो में दुःख भोगते है।
१-निग्रन्थ जल का वारण करता है, जिससे जल के प्रकुध कात्यायन :
जीव न मर जाये। प्रकुध कात्यायन अन्योन्यवादी थे। पृथ्वी, आप, तेज, वायु, २-निर्ग्रन्थ सभी पापा का वारण करता है। सुग्व, दुःख एव जीव-इन मात पदार्थों को वे स्वयभू बताते
३-निर्ग्रन्थ सब पापो के वारण से धूतपाप हो जाता थे, किसी के बनाये हुए नही । उनके अनुसार कोई किसी को न तो सताता है न सुख पहुचाता है । पदार्थों को ४-निर्ग्रन्थ मभी पापो के निवारण में लगा रहता जानने या कहने वाला कोई नही है। कोई किसी के प्राण नही लेता। हत्या करने वाले का शस्त्र सात पदार्थो के
इम प्रकार चार-चार सबरो से संवत रहने के कारण बीच के अवकाश मे घुस गया है, ऐसा मानना चाहिए। निर्ग्रन्थ. गतात्मा (अनिच्छक), यतात्मा (संयमी) प्रार संजय वेलट्टिपुत्र :
स्थितात्मा कहा जाता है। ___सजय वेलट्ठिपुत्र विक्षेपवादी थे । परलोक है या नही, उपर्युक्त वर्णन दीघनिकाय सामञ फल-सुत्त मे प्राणियो की औपपातिकता है या नहीं, अच्छे-बुरे कर्मों का पाता है, जिसे धर्मानन्द कोसाम्बी ने भगवान बुद्घ, पृ० फल होता है या नही. मृत्यु के बाद जीव रहता है या १८१-१८३ में उपस्थित किया है। नही. इन बातों के विषय में उनकी कोई निश्चित धारणा जैन साहित्य में उल्लेख : नही थी।
जैन-माहित्य से भी तत्कालीन धर्मनायकों पर विशेष अजित केशकम्बल :
प्रकाश नही पडता। मंखली गोशाल के विषय में कुछ अजित केशकम्बल उच्छेदवादी थे। उनके अनुसार उल्लेख मिलता है, परन्तु अन्य नाम या उनके सम्प्रदायों इलोक, परलोक, माता-पिता, दान, यज्ञ, होम मे कुछ का नाम देखने मे नही पाता। जन-शास्त्रो के अनुसार नही है। इनको जानने वाला भी कोई नही है । शरीर मवली गांगाल से महावीर का साक्षात्कार हुमा था। कुछ चार भूतो-पृथ्वी, आप, तेज और वायु-का बना है । जब समय तक वे महावीर के शिष्य भी रहे, परन्तु बाद में
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१८८, वर्ष २८ कि.१
अनेकान्त
अलग होकर महावीर के कट्टर विरोधी हो गये; यहां (बिहार) का कुछ भाग भी इसमें सम्मिलित था। तीर्थतक कि उन्होंने महावीर पर तेजोमेश्या तक भी छोड दी थर पुष्पदन्त का जन्म देवरिया के पास ही काकन्दी में थी । महावीर-निर्वाण से सोलह वर्ष पूर्व वह भयंकर हुआ था। बीमारी के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए।
तब और अब : महावीर के जीवन (कर्म-क्षेत्र) से वज्जि, विदेह, महावीरकालीन भारत से प्राज के प्रभावग्रस्त देश मगध और मल्ल देशो का गहरा सम्बन्ध था। वज्जि देश की कोई तुलना नहीं है। उस समय प्रात्मनिर्भरता थी में उनका जन्म, वंशाली-वर्तमान बसाढ-के निकट और प्रगति का माध्यम देशी साधन, भावना, विचार, कोल्लाग सन्निवेश के क्षत्रिय-कुण्डग्राम में हना था । वेष, भाषा और भोजन थे। लोग कर्तव्य-निष्ठ थे और उनके प्रायः बारह वर्षावास इस क्षेत्र मे हुए थे । विदेह उनका नैतिक स्तर ऊँचा था। प्राज हम कृषि, उद्योग, क्षेत्र की मिथिला मे छ: वर्षावास हए थे । मगध मे चौदह वाणिज्य, व्यवसाय, विनिमय, परिवहन, शिक्षा, समाजवर्षावास हुए थे और राजगृह के विपुलाचल और वैभार व्यवस्था, सस्कृति, स्वास्थ्य प्रादि सबके लिए शासन की पर्वतो के प्रान्तों में उनकी देशनाये और प्रागमागों के उप- ही अपेक्षा करते है। कर्तव्य-निष्ठा और प्रात्म-निर्भरता देश हुए थे । मल्ल देश और वज्जि देश की सीमा के का यह शीर्षासन रूप है। हमारा प्रतीत बताता है कि भास-पास जम्भिक ग्राम में उन्हे केवल ज्ञान की प्राप्ति व्यक्ति की प्रात्मनिर्भरता, नैतिकता और कर्तव्य-निष्ठा से हुई थी और मल्ल राष्ट्र के पावानगर में हस्तिपाल की राष्ट्र को प्रात्मनिर्भरता, निष्ठा और नीति थी। अतीत रज्जक-सभा-भवन में वे निर्वाण को प्राप्त हा थे । मल्लो के इतिहास को सुरक्षित रखने और उसके पुननिरीक्षण की और लिच्छिवियो ने निर्वाणोपरान्त उनके सम्मान में सार्थकता तभी है, जब हम इससे प्रेरणा ले और उसके प्रोषध कर दीपावली मनाई थी।
माध्यम से अतीत एवं वर्तमान की त्रुटियो को दूर कर
उज्ज्वल भविष्य का निर्माण कर सकें। महावीर ने जिस बज्जि देश वर्तमान बिहार का ति रहत प्रमण्डल था, अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और अनेकान्त का विचार दिया जिसकी राजधानी वैशाली थी। वैशाली से वायव्य कोण था, उसे व्यक्तिगत और राष्ट्रीय जीवन मे परिस्फुट कर मे कोल्लाग सन्निवेश (कोल्हा ) था और उसी के मन्त- हम सत्यार्थ मे प्रगति की प्रोर अग्रसर होगे पोर एक ऐसे र्गत क्षत्रिय-कुण्डग्राम था। वज्जि गणतन्त्र बनने के पहले सर्वोदणे समाज की रचना कर सकेगे जिसमे अभाव, तिरहुत प्रमण्डल का अधिकाश क्षेत्र नेपाल का दक्षिणी असतोष, उत्पीड़न, अनैतिकता, जमाखोरी, घुसखोरी, हड़भाग विदेह क्षेत्र कहा जाता था, इसकी राजधानी मिथिला ताल, तालाबन्दी, पदलोलुपता, शासकीय नियत्रण मादि थी। अाजकल इसे जनकपुर धाम कहते है । यह नेपाल को स्थान नहीं होगा। की तराई मे है। मिथिला मल्लि और नमि दो-तीर्थडुरों एव प्रकम्पित गणवर की जन्मभूमि रही है। मगध के
महावीर के इस २५००वें निर्वाण-वर्ष के अवसर पर
उनके उपदेशो को जीवन में उतारने की भावना जागरित अन्तर्गत वर्तमान पटना, गया और हजारीबाग के जिले
करने का संकल्प लेना मानव-मात्र का कर्तव्य है। थे, इसकी राजधानी राजगृह मे थी। मल्ल राष्ट्र में वर्तमान देवरिया, भाजमगढ़ (उतर-प्रदेश) के जिले थे। सारन
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महावीर-काल : कुछ ऐतिहासिक व्यक्ति
श्री दिगम्बर दास जैन, एग्वोकेट, सहारनपुर इतिहासकारो का कहना है कि भारत का प्रामाणिक (iv) प्रभावती सिंधु सौवीर ( कच्छ ) देश के राजा इतिहास भ० महावीर के जन्म से प्रारम्भ होता है, इस. उदयन की रानी थी। लिए हम उनके समय के ही कुछ ऐतिहासिक पुरुपो का (v) चेलना जो मगध सम्राट श्रेणिक-बिम्बसार की पट उल्लेख कर रहे है। यदि हम अपनी विपुल सामग्री तथा रानी थी। भावना के अनुसार विस्तार-पूर्वक वर्णन करे तो जितने व्य- (vi) सती चन्दना संसार की कामवासनाओं को रोकने क्तियो का कथन किया जाता है, उतने ही ग्रन्थ लिखने के लिए स्वयं प्राजन्म ब्रह्मचारिणी रही और होगे । स्थान के प्रभाव के कारण हम केवल उनका सक्षप भ० महावीर के समोशरण मे प्रायिका हो गई मे सकेत करना पड़ रहा है
थी और अपने घोर तप-बल से सर्वश्रेष्ठ मुख्य १. महाराज चेटक--- वैशाली के सम्राट् और भ० प्रायिका हुई। महावीर के नाना थे । यह इतने सदृढ जैन थे कि इन्होने (1) ज्येष्टा बचपन से ही वैरागी थी और प्रखण्ड प्रण कर रखा था कि अपनी पुत्रियो को अजैन से नही ब्रह्मचारिणी रही। विवाहगा। प्रजनके घर जैन कन्या जैनधर्म का इच्छानुसार
इस प्रकार महाराजा चेटक समस्त भारत के सुप्रसिद्ध भली प्रकार पालन नहीं कर सकती। इनके महायोद्धा १०
राजाम्रो के निकट सम्बन्धी थे । सत्य तो यह है कि पंचम पुत्र धनदत्त, दत्तभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, सकुम्भोज,
काल में जनधर्म उनके तथा उनकी सतान के ही परिश्रम प्राकम्पन, सुपतंग, प्रभजन, और प्रभास तथा ७ कन्याए
का फल है। थी। (1) सिलादेवी, जो कुण्डल पर के राजा सिद्धार्थ से २. बिम्बसार-उपनाम श्रेणिक, मगध-सम्राट,
व्याही थी और भ० महावीर की माता थी। भारत का प्रथम ऐतिहासिक नरेश, सुदृढ जैनधर्मी । भ. (ii) मृगावती कोशाम्बी नरेश शतानीक की रानी थी। महावीर के समोशरण का सर्वश्रेष्ठ पर मुख्य श्रोता । २४ (in) सप्रभा दशाण देश के राजा दशरथ से ब्याही ताथवरो वा परम भक्त । पटना हाई कोर्ट के जज टी.
डी. बनरजी ने सम्मेद शिखर जी के फैसले मे लिखा है 1. King Chetak and his queen Bhadra were the Jainas held him one of their greatest
devout Jain who observed the daily vows Royal Patrons, whose historicity fortuof a Jay-man, They got 10 sons and 7 nately past all doubts daughters, who all were devotee of Maha- -Jainism in Northern India, p. 116 to 118. vita. -Dr. Kamta Prasad : Religion (ii) Shrenik- Bimbsar was Jain. of Tirthankaras.
-Early History of India, P. 33-45. 2. (1) The literary and legendary traditions of (iii) Shrenika, Bimbsar, Ajat-Satru and Uda
Jains about Shrenika are so varied and yin were followers of Jainism. so well recorded that they are eloquent -Cambridge History of India, Vol. I, witness to the high respect with which
p.161.
थी।
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१६०, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
कि श्रेणिक ने तीर्थंकरों के निर्वाण-स्थान खोजकर वहा से कहा कि आज तुमने मझे सच्चे श्रावकों के दर्शन करा उनकी स्मृति में चरण स्थापित कराये थे ।' विद्वानों का दिए । अभय कुमार पशु-वध के विरुद्ध था। राज्य-सुख मत है कि यदि महाराजा श्रेणिक भ. महावीर से ६० त्याग कर दिगम्बर मनि हो मोक्ष पद पाया। हजार प्रश्न न पूछते तो पचम काल में जैन धर्म सम्बन्धी
४. वारिषेण-वारिपेण भी श्रेणिक पुत्र था। गृहस्थी कुछ भी जानकारी न होती। विस्तार के लिए श्रेणिक में भी प्रत्येक प्रष्टमी और चतुर्दशी की रात्रि को श्मशान चरित्र (सूरत, जो हिन्दी में छप चुका है) देखिए। मे ध्यान लगाता था। बचपन में ही इसे मनि होता देख
३. अभय कुमार-थेणिक पुत्र । समस्त वद्धिमानो कर इसका मित्र तथा राज्यमत्री का पुत्र पुष्पडाल भी उनके में सर्वश्रेष्ठ । एक बार श्रेणिक ने अभय कुमार से एक साथ दिगम्बर मुनि हो गया। परन्तु अपनी काली स्त्री के सफंद, दूसरा काला-दो तम्बू नगरी के बाहर लगवा दिये मोह को न त्याग मका, इसलिए ध्यान में उसका जी न ओर घोषणा करा दी कि जो सच्चे जैनी है, सफेद वे तम्ब लग सका । वारिषेण ने यह बात भांप ली और उसे अपने म और जो नहीं है, वे काले तम्बू में बैठ जायें । शाम का पुराने राजमहल में ले जाकर अपनी अत्यन्त सुन्दर नवश्रेणिक और अभय कुमार देखने गए तो सफेद तम्ब में युवती ३२ रानियाँ दिलाई। पुष्पडाल विचार करने लगा तिल रखने को भी स्थान न था। इतन अधिक व्यक्तिया में कि जब वारिपेण इतने विशाल राज्य-वैभव तथा रूपवती उन्होंने पूछा कि आप अपने को सच्चा जैनी कहते हो ? रानियो का मोह त्याग सकता है तो क्या मै एक काली उन्होने कहा कि हम जैनधर्म के सम्बन्ध में सब कुछ और कुरूप स्त्री को नहीं छोड़ सकता ? उसने वारिषेण जानत है । काले तम्ब मे केवल ३-४ पादमी थे। उनसे का धन्यवाद किया कि आपने मुझे धर्म से डिगने से बचा पूछा कि तुम सच्चे जैनी क्यो नही हो ? उन्होंने कहा कि लिया। दोनों फिर भ० महावीर के समोशरण मे आ गए यत्न करने पर भी हम क्रोध, मान, माया, लोभ को नहीं और शरीर तक मे मोह त्याग कर इतना घोर तप किया कि त्याग सके। अभय कुमार ने कहा-जैनधर्म के सम्बन्ध में केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष-पद पाया । वारिषण सम्यक् भी कुछ जानते है ? उन्होंने कहा-"केवल जानने में स्थिति अग मे सप्रतिष्ठ कहलाने लगे। क्या होता है ? पाचरण तो पूरे रूप में नहीं कर पाते, ५. प्रजातशत्रु-अजातशत्रु भी श्रेणिक पुत्र था । फिर सच्चे धावक कैसे ? |णिक ने अभय कुमार डा० वी० ए० स्मिथ ने प्राक्सफोर्ड हिन्दी ग्राफ इण्डिया 2A. The Hindu Traveller's account, published affected. At night, he went to the houses
in Asiatic Society's Journal, January, 1824, of those officers and asked each one to reveals the fact, how Raja Shrenika of give half ounce flesh of his heart, which Magadha, contemporary of Mahavira had been prescribed, as remedy for the Swami had discovered the Nirvan-place queen. Each one excused himself and of Tirthankaras and established charan gave Abhay Kumar a large amount of (Shrines) at Sammed Shikara (Parshv, money for a promise not to mention their Hill in Bihar).
refusal to the King. Next day, Abhay ---Honble Justice T. D. Banarji, Kumar deposited the amount in the Judge Patna High Court, Judgement of King's court and told that according to Sammed Sikharji case.
his experience, flesh is not available at any 3. In the Court of Bimbasar, some officers price. Those officers also supported him
observed that flesh was rather cheap. and it was decided that flesh should not Abhay Kumar was much agrivously be taken.
-VOA, 19.7, p. 55.
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महावीर-काल : कुछ ऐतिहासिक व्यक्ति
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पृ० ५१ पर बताया है कि अजातशत्रु बौदधधर्मी नहीं तक को मारना पारमनको है। वे कैसे विजय प्राप्त कर बल्कि सुदृढ जैन था। डा. गधाकृमद मकर्जी प्रादि मकेंगे ? वैशाली सैनापति से शत्रु सेनापति ने कहा-वार अनेक सुप्रसिद्ध इतिहासकार भी इसकी पुष्टि करते है। करो, उसने कहा-वार करना मेरा धर्म नहीं, देश-रक्षा म्वय महात्मा बदर अजातशत्र को बौदध धर्म स्वीकार न (Defence) मेरा धर्म है, यदि आपने वार किया तो करने पर ऐसे महान मम्राट को बदकिस्मत कहते है। नाको चने चबवा दंगा ।शष ने पूरी शक्ति स माक्रमण भ० महावीर का मवशरण इसकी राजधानी में पाया किया। वैशाली-मेना बड़ी वीरता से लडी, ६ मास तक तो इतना हर्षित हया कि जन जग्नल अक्तूबर १९६८ घमामान युद्ध होता रहा, दोनों तरफ से हजारों सैनिक पृ० ६६६६ के अनुसार उसने १२ लाख ५० हजार रुपये मारे गये । अजातशत्र चकित था कि वैशाली सेना इतने सूचना देने वाले को पुरस्कार में दिये और स्वयं अपनी लम्बे समय तक रणभमि में कैसे ठहर सकी ? उसने एक गनी मभद्रा को साथ ले बडी भक्ति और उत्माह से उनकी निमित्त-ज्ञानी मे कारण पूछा तो उसने कहा कि वैशाली वन्दना को गया।
में २०वें तीर्थंकर मनि सुव्रतनाथ का स्तम्भ है। यह ६ बाहत्व कुमार--- यह अजातशत्रु का लघ भ्राता था। उसका अतिशय है कि जब तक वह स्थित है, वैशाली अजय राज्य की वॉट पर अजातशत्रु से इसकी अनबन हो गई। रहेगी। अजातशत्रु बड़ा चतुर था। उसने अपना दूत चेटक अजातशत्रु जिसका उपनाम कुणिक था, इमको जान से के पास भेजा कि मुनि मुव्रतनाथ स्तम्भ उसे दे दिया जावे मरवाना चाहता था जिसके भय से इसने महागजा चेटक तो वह बिना युद्ध वापस लौट जावेगा। चेटक स्तम्भ देना के पास वैशाली जाकर शरण-याचना की। महागज जानते नही चाहते थे, शान्तप्रिय थे। हजारो सैनिकों के मारे थे कि अजातशत्र अत्यन्त बलवान योद्धा है। परन्तु एक जाने मे दुःखी थे और समझते थे कि हजारों और मारे मुदृढ जन गरण मे पाये हए को अभय-दान देने से कैसे जायेंगे । इसलिए वह स्तम्भ उन्होंने उसे दे दिया । स्तम्भ इनकार कर सकता था ? अजातशत्र ने चेटक से बाहत्त्व- का देना था कि वैशाली विजय हो गई। कुमार को मांगा, इनकार करने पर विशाल सेना लेकर ७. धनकुमार-सेठानी प्रभावती का पुत्र । अटूट वैशाली पर प्राश्रमण कर दिया। महाराज चेटक तथा सम्पति का स्वामी यह जैनधर्मी था। भ. महावीर के समव. इसका प्रधान सेनापति सिहभद्र और सेनापति वरण नाग शरण में जिन-दीक्षा ले दिगम्बर मुनि हो गया । मोक्ष-पद
हिसा द्रत के धारी थे। लोग चकित थे कि शत्र अति पाया । विस्तार के लिए धन कुमार चरित्र (सूरत)। प्रबल है और हमाग गजा तथा सेनापति किसी चीटी ८. जीवन्धर-हेमाग देश (ममूर प्रान्त) का सम्राट 4. Both Buddhists and Jainas clained Ajat- such as his inumacy with Deva Dutt--a Satru as one of them The Jaina claim rebel disciple of Buddha : enimity with appears to be well founded.
the Vrijis--a favourite clan of Buddha, -- Dr. V. Smith : Oxford History of
his battle against Prasenajita--a stunch India, 2nd Ediuon 1923, Oxford, p. 51.
devotee and follower of Buddha. 5. Ajat-Satru was a follower of Mahavira in
--Jain Journal (Calcutta) Oct. 1968, the days of Buddha and Mahavira.
p. 65. -Dr. Radha Kumud Mukerjee, The Hindu Civilization (Hindi Edn )
7. Buddha's disregard for Ajat-Satru is clear pp. 19091.
from Buddha's own statement, "Ajat6. There are many more reasons for Ajat
Satru is an unfortunate King." Satru not being a follower of Buddba, -Dighanikaya, Samannyanphala Sutra.
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१९२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
जैनधर्मी था। मरते हुए कुत्ते को णमोकार मन्त्र दिया होने पर भी मझ, शान्ति प्राप्त नही होती। गौतम गणधर जिसके प्रभाव से वह स्वर्ग मे देव हमा। विस्तार के लिए ने कहा-श्रावक के व्रत लो, उनके प्राचरण मे अवश्य जीवन्धर चरित्र ।
मिलेगी। मानन्द ने कहा कि चार व्रतो का तो मैं माज ९. शालिभद्र-यह इतना धन्ना सेठ था कि जिन रत्न भी पालन कर रहा हू । परिग्रह-परिमाण-व्रत का पालन कम्बलों को पसन्द पाने पर महाराजा श्रेणिक भी नही खरीद नहीं हो सकता, क्योकि जो सामग्री मुझेमाज प्राप्त है, सका, उनको सवा लाख स्वर्ण मुद्रा प्रति कम्बल देकर ३१६ उससे कम मे मेरा निर्वाह नही हो सकेगा । गौतम गणधर कम्बल व्यापारियो के पास थे, सब खरीद लिए। श्रेणिक को ने बताया कि शाति प्राकुलता के कारण होती है । प्राकुपता चला तो चकित रह गया और भगवान महावीर से लता की जड इच्छाओं को केवल परिग्रह-परिमाणन्वत वश पूछा कि यह इतना धनी क्यो हुआ ? गौतम गणधर ने में कर सकता है। शान्ति के इच्छ को को प्रारिग्रह-व्रत बताया कि पिछल जन्म में यह सखिया नामक अत्यन्त दरिद्री पालना ही होगा। इसका पालन कुछ भी कठिन नही, ग्वालन का पुत्र सगम था। कई दिन तक इसे भोजन प्राप्त जितनी अपनी ग्रावश्यकता समझो, उतने का परिमाण कर न होता था। एक दिन इसे जिद्द हो गई कि खीर खाऊगा। लो। यदि ग्राप जो सम्पत्ति प्राज है, उनसे अधिक यदि हो माता साचन लगी कि दूध और मीठा कहा स लाएँ ? जावे तो उसका त्याग कर दें। यही परिग्रह-परिमाण है। सयम क रान स पड़ासा का दया माई और उसने दे अानन्द ने यह सुन कर ५ प्रणवतो के पालने की प्रतिज्ञा दिया। खीर खान काही था कि एक मुनि महाराज पाहार कर ली और घर आकर अपने कर्मचारियो को समस्त कनिमित्त श्री गय। सगम उन्हे देख कर वड़ा हपित हया। सम्पत्ति का चिटा बाँधने का आदेश दिया और कहा कि भूल गया अपनी भूख का, बड़ी भक्ति मोर पडगाह से इस चिटठे से सम्पत्ति बढ़ने न पावे, मुझे तुरन्त सूचित प्रगराह कर विधि पूवक उसन मुनि का ग्राहार कराया। करो। अगले दिन पशुगह का दरोगा १ मन दूब लाया, यह इतना भाग्यशाला, धनी, यश और तज का स्वामी
प्रानद ने कहा--५ मेर घर के खर्च के लिए रख कर था। यह दि० मुनि की माहार देन का फल है।
बाकी हस्पताल में मरीगो के लिए भेज दो। बाग का १०. सिंहभद्र-चटक का सेनापति था। भ० महावीर माली सन्त रे, के ने, ग्राम प्रदि के टोकरे लाया तो मानद का उपदश सुन कर उसने कहा कि मै सेनापति ह, शत्रुआ ने आवश्यकता के अनमार रख कर सत्र पाठशालामो मे को मारना मरा धर्म है। मैं चाहता है कि अणुव्रत धारण बच्चो के लिए भिजवा दिए । मनीम गण ने बताया कि करू, परन्तु पहिसा-धम मर सनिक काय म बाधक है। १० हजार व्याज का प्राया है। ग्रानन्द न कहा, धमशाला गोतम गणधर न कहा कि सैनिक घम तो श्रावक का बनवाने में लगा दो । प्रतिदिन ऐसा होने लगा तो सब प्रथम धम है। देश-रक्षा तथा प्रत्याचारों का अन्त यहि- प्रानन्द के यश गाने लगे। प्रानन्द को अधिक कमाने की सक कार्य है, हिसक नहीं। यह सुनकर सिहभद्र ने श्रावक इच्छा न रही । सन्तोप धारण रखने से परम शान्ति क व्रत तुरन्त ल लिए।
मिलने लगी। जो यह समझते थे कि भगवान महावीर ने ११. प्रानन्द-मंशानी के निकट बाणिज्य ग्राम के करोड़ो की सम्पत्ति रखने वाले को भी परिग्रह व्रत का सर्वश्रेष्ठ व्यापारी थे । चार करोड प्रशफियौ ब्याज पर, धारी बना दिया, अब उनके रहस्य को समझे । चार करोड़ कारबार मे, चार करोड अचल सम्पत्ति और १२. महात्मा बुद्ध (५६७-४८७ ई० पू०) राइसचार करोड़ स्वण मुद्राये नकद थी। यह भगवान महावीर डेविड का कहना है कि महात्मा बुद्ध ने अपना धार्मिक की वन्दना को गए और कहा कि इतनी अधिक सम्पत्ति जीवन जैन धर्मी के रूप में प्रारम्भ किया। वास्तव 8. Buddha started his religious life as a Jain. of his Jain teacher. At any rate Gautama gave himself up to
-Budhism And Vaisili (By Public a cause of austerities under the influence
Relation Dept., Bihar Govt.) p. 9.
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महावीर काल . कुछ ऐतिहासिक व्यक्ति
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निकट शान्ति से बैठ गये। केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष व्रत नही पाल सकोगे। राजकुमार ने कहा कि धर्म पालन पाया।
आयु पर नहीं, बल्कि श्रद्धा और विश्वास पर है। वैसे
प्रायु का भरोमा क्या? मृत्यु के लिए बच्चा और बूढा २६. अर्जुन माली-महा भयानक दुष्ट, जो ६ मनुष्य
एक समान है। यदि जीवित भी रहा तो सदा निरोगी और एक स्त्री प्रतिदिन मार डालता था और जिसके भय
रहने का क्या विश्वास ? रोगी स धर्म-पालन नहीं हो से कोई उस जगल मे ग्रा-जा नही सकता था। इसको
सकता । बढापे मे तो धर्म-साधना की शक्ति ही नही पकड़ने के लिए महाराजा श्रोणिक ने १०,००० रुपयो का
रहती । मनुष्य-जीवन बार-बार नहीं मिलता। सयम पुरस्कार घोषित कर रखा था। राजगिरि के सेठ मुदर्शन
मनुष्य ही पाल मकता है। छोटी-सी आयु में हो वह दि. पर जो महावीर-ममोगरण में बन्दना को जा रहा था, यह
मुनि हो गया। झपट पडा। बीरबन्दना-भाव के पुण्य फल से वन-देवता ने उसे कोल दिया। अर्जन बड़ा शक्तिशाली था। उसने
__ ३२ स्पात्यकीय-नामक अन्तिम (११वां) रुद्र ने बहुत यत्न किये, किन्तु बन्धन-मुक्त न हो सका। वह
वीर-तप की परीक्षा के लिए उज्जैन के प्रति मुक्ति नामक
शमशान में रात्रि के समय अपनी मायामयी विद्या के बल मुदान के चरणो मे गिर पड़ा। मुदर्शन ने कहा कि यदि
पर भयानक वर्पा जोरदार वक्षो तक को उखाड़ देने तुम अपना कल्याण चाहते हो तो मेरे साथ वीर-धन्दना को
वाली प्राधी, अादि में महावीर स्वामी पर अत्यन्त धोर चलो। अर्जुन ने कहा कि वहा तो महाराजा श्रेणिक जैसे
उपसर्ग किया । तप से न डिगने पर उसने हजारो विषधनवान और धर्मात्मा आदि को स्थान मिलता है । मुभ,
भरे सर्प, बिच्छु आदि उनके नग्न शरीर से चिपटा दिये । जमे निर्धन और पापी को कौन जाने देगा? सुदर्शन ने कहा कि वहाँ राजा हो या रक, धर्मात्मा हो या पापी,
पर्वत के समान ध्यान मे सुदृढ देखकर चकित हो उसने
उन के चरणों मे गिर कर क्षमा मागी। सब उपसर्ग दूर करके छोटा हो या बडा, सब पुरुषो को एक जैसा स्थान मिलना
सुगन्धित हवा चलाई, परन्तु भ० महावीर तो राग-द्वेष है । यह मुन कर अर्जुन माथ हो लिया और वीर-उपदेश से
रहित थे । उपसगं से दुखी और उनके दूर होने पर सुखी इतना प्रभावित हुआ कि समस्त समारी वस्तुप्रो का मोह ।
न होते हुए निरन्तर ध्यानारूढ हे ।। त्यागकर दिगम्बर मनि हो गया। ऐसे महा दुष्ट और पापी को मुनि अवस्था में देख श्रेणिक चकित रह गया और
३३. गुह्यक-भ. महावीर का गासन देवता (यक्ष) जिसको पकड़ने और मृत्यु-दण्ड देने के लिए भारी पुरस्कार ५
था। उसका वाह्य हाथी था । वीर का परम भक्त था । की घोषणा कर रखी थी, भक्ति भाव से उसे नमस्कार
.४. सिद्धार्नो-वीर शासन-देवी (यक्षिणी) और किया।
वीर भक्ता थी। ३०. शब्दालपुत्र-यह कुम्हार पोलासपुर में रहता और भी अनेक प्रसिद्ध राजे प्रादि वीर-भक्त उनके था। वह वीर के समोशरण मे गया तो इतना प्रभा- ममय मे हए । स्थान के प्रभाव से उन सबका वर्णन नही वित हुआ कि उसने तुरन्त श्रावक के व्रत लिए। उस कर पाये। समय माली, कुम्हार, कहार आदि भी श्रावक-व्रत पालते
__ केवल भारत मे ही नहीं, विदेशो तक में वीर की मान्यता
थी। डा. राधाकृष्णन, भूतपूर्व भारतीय राष्ट्रपतिके, शब्दों ३१. विक्रमसिंह-पौलासपुर का राजा था, जैन धर्म मे वीर-जन्म-शताब्दी ६०० ई पू. प्राध्यात्मिक शान्ति तथा का अनुयायी था। वीर के उपदेश से प्रभावित होकर उसके अन्त करण की शुद्धि के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। चीन में राजकुमार एवन्त ने अपने पिता से दि० मुनि होने की लाप्रोत्से और कनफशम, यूनान में परमेनिडस और एम्पे. प्राज्ञा मॉमी तो उसने कहा कि अभी तुम बच्चे हो, मुनि- दोक्लस, ईरान में जरथुन और भारत में भ० महावीर
थ।
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१६६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
और महात्मा बुद्ध हुए है।
बल्कि कन्दमूल प्रादि को अभक्ष्य गानता था।" ईरान के बादशाह कुरूप (५५४-५३० ई० पू०) का चीन के सन्त विचारक लामोत्से ने अपने देश मे राजकुमार प्राईक तो भ० महावीर की सर्वज्ञता सुनकर ,
रत्नत्रय का प्रचार किया।१८ अपने ५०० मित्रों सहित भ० महावीर की वन्दना की पाया । वह और उसके सव साथी वीर के उपदेश से इतने इतिहास-रत्न डा० ज्योति प्रसाद ने अपनी प्रसिद्ध प्रभावित हुए कि समस्त राज्य-सुख त्याग दिगम्बर मनि रचना भारतीय इतिहास एक दृष्टि पृ. ४८.५० पर बताया (भ० महावीर के समोशरण मे) हो गए।" इनके प्रभाव कि भ० महावीर से भारत में ही नहीं बल्कि समस्त से ईरान में जैन धर्म का प्रचार हा और ईरानी जैन- ममार मे ज्ञान-जागति हई । फिलिस्तीन मे मूमा ग्रादि सिद्धान्त अपनाने लगे।
सन्त विचारक हुये।
यूनान का प्रसिद्ध दर्शनिक पथेगोरस भ० महावार इतिहाम माक्षी है कि वीर-काल मे जगत के विभिन्न का समकालीन था । उसने भी वीर के सिद्धान्तो को अप- भागो में अनेक प्रख्यात विचारक, दार्शनिक, धर्म प्रवर्तक नाया और अपने देश में प्रचार किया। वह प्रात्मा और हरा निन्होंने अपने अपने देशो में भ. महावीर के प्रमख पावागमन को मानता था और न केवल मास-मच्छी सिद्धान्तो का प्रचार किया।
00 15 600 B.C. was remarkable for the Spiritual 17.1 The Greek Philosor her Pythagoras
unrest and intelletual ferment in many (born 580 BC ) was contemporary of countries. In CHINA we had Lao-Tze
ahavira, believed in the theory of and Confusius, in GREECE Parmenides of metapsychosis, transmigration of and Empedocles, in IRAN Zarathustras soul doctrine of Karma and refrained in India, Mahavira and Buddha.
from the destruction of life and eating --Dr. S. Radha Krishnan . Foreward
meat and even regarded a certain vege. 2500 years of Buddhism. Published table as taboo. by Publication Divison, Govt of --The Legacy of India, Oxford (1937)
India, P. V. 16 i. Shrenik's Son Abhay Kumara had
ii. All these beliefs are peculiary and disfriendship with Prince of Persia by name
tinctively Jain and they have little in Ardraka. He called him to India and
common with either the buddhist or took him to Mahavira. Hearing the
the Brahmanic religions. divine discorse, Ardraka becama Jaina
-Dr Jyoti Prashad : Jainism, The monk. He took the massage of Animsa
Oldest Divine Religion, p. 19. to hisc untry.
Lao-Tse, the great sage philosopher of -Religion of Tirthankaras, World Jain ___Mission's publication.
China preached three jewels (1) Forgiveii. Jain Siddhant Bhaskar, Vol XI, P. 2
ness. (2) Restraint, (3) Alysence of asfor details.
piration of being first in the world. iii Dictionary of Jain Biography (Arrab)
-Jain Journal, (Calcutta) Oct. 1966, Pp. 11 to 92.
p.44.
18.
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महाबीर-काल : कुछ ऐतिहासिक व्यक्ति
१६३
मे महात्मा बुद्ध भ. महावीर के सिद्धान्तो से इतना म्वर्ग के देव परीक्षा हेतु एक रोगी कुष्ठी, अत्यंत दुर्गन्ध प्रभावित हुए कि वे जैन बन गए; परन्तु जैन मुनि पूर्ण कि कोई उनके पास भी न जाता था, मुनि बनकर का कठिन तप और २२ परिषह सहन न कर पाने के उनकी नगरी मे पाया। दोनो ने बड़ी श्रद्धा से उनका कारण अपना एक नया मध्यम (बौद्ध) धर्म प्रचलित कर ब्याब्रत किया। उसका मल-मत्र तक भी उन्होंने उठाया दिया। महात्मा बुद्ध स्वय स्वीकार करते है कि उसने जैन जिसे देखकर वह मनि असली देव-रूप मे प्रगट हुमा । उन मनियो की नियाग्रा का पालन किया।" अनेक विद्वानो का दोनो की बड़ी प्रशसा की और महाराजा उदयन सम्यक् कहना है कि महात्मा बुद्ध ने अनेक जैन सिद्धान्त अपने के तीसरे निविचिकित्सा प्रग मे जग प्रसिद्ध हुये। बौद्ध धर्म में शामिल किए।" बुद्ध भ० महावीर को सर्व १४. सती चवना-चेटक की पुत्री इतनी सुन्दर थी दष्टि से ज्ञानी स्वीकार करते थे और कहते थे कि ऐमा कि एक विद्याधर उसे उठाकर ले गया और अपनी पट अनुपम ज्ञान उन्हे (बुद्ध को) प्राप्त नहीं ।
गनी बनाना चाहा। वह सहमत न हुई तो एक भयानक १३ उदय सिन्ध-ये सौवीर के इतने महान सम्राट जगल में छोड़ दिया। वहाँ भीलों के राजा ने अपनी स्त्री कि कई मो मकुट बन्द राजे उनके प्राधीन थे । चेटक की बनाना चाहा और इनकार करने पर कोशाम्बी के बाजार पुत्रा प्रभावती उनकी पट रानी थी। दोनो वीर-भक्त थे। में उसे नीलाम कर दिया। एक वैश्य ने उसे खरीद लिया। अपनी राजधानी में उन्होंने महावीर जैन मन्दिर भ० चन्दना उसके साथ नहीं जाती थी। वहां के सेठ वृपभ महावीर के जीवन काल में ही बनवा लिया था जिसमे सेन बहन-सा धन वेश्या को देकर चन्दना को घर ले उन्होने भ० महावीर की स्वर्णमयी प्रतिमा विराजमान प्राया। उनकी मेठानी ने चन्दना को अपने से भी सुन्दर कर रखी थी।" उनके मंदिर मे भ० महावीर को और चतुर जानकर ईर्ष्याभाव से उसके सर के बाल कटवा मुन्दर काष्ठ की एक बड़ी अनुपम और कलापूर्ण प्रतिमा कर लोहे की जजीरो में जकड़ कर काल कोठरी म बन्द इतनी मनोज्ञ थी कि मालवा देश का राजा चन्द्रप्रद्योत कर दिया और खाने को मिट्टी के प्याले में कोदों के दाने उस सन्दल की वीर-मूति को अपनी राजधानी उज्जैन ले देती थी। भ. महावीर को विहार करते हुये कौशाम्बी प्राये गया और उसे उदयन युद्ध करके वापस लाया।" राजा ६ माह हो गये । राजे महाराजे प्रगाने को खड़े होते पर गनी दोनो दिगम्बर मुनियो के इतने भक्त और मेवक थे कि उनका निमित्त न मिलता । चन्दना ने झरोखे मे उनके 9 In fact Buddha being inspired by the (1) Budoha must have borrowed Jaina teachings of Lord Mahavira, became JAIN
Doctrines. SAINT, but being unable to stand the --- Prof. Sil: J.H.M. November, 1928, p. 3. hard life of a Jain monk, he founded the (1) Jainism is mother of Buddhism. Madhyam Path
---Dr. H. Jacobi, Digamber Jain, Surat, -J.H M. Feb. 1925, p. 26.
Vol. V, p. 48. 10(i) मज्झिम नि० १/२/६ (हिन्दी पृ. ४८-४६)।
12. मज्झिम नि० भाग १, पृ०६२-६३ । (1) विस्तार के लिए, हमारा वर्द्धमान महावीर" पृ. ४३.६ । 11. Karma theory of Jain is an original and 13. Udayin was a devout Jain King. He got integral part of their system. They
built a very beautiful Jaina temple in his (Buddhist's) must have borrowed the
capital with gold image of Lord Mahavira. term (Asrava) from Jains.
- Dr. Kamta Prasad, Sanksipt Jain -Dr. H Jacobi, Encyclopaedia of
Itihas Vol. I, pp. 14-23. Religion & Ethics, Vol. VII, p. 472. 14 Da. U.P. Shah : Studies in Jain Art.
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१९४, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
दर्शन किए जिसके पुण्य फल से उसकी जंजीर स्वयं टट सहित जैन मनि तथा उनके दूसरे गणधर हो गये। गई । मिट्टी का प्याला-स्वर्ण का और कोदे के दाने खीर १९. वायुभूति गौतम-इन्द्रभुति के लघु भ्राता और बन गये। उसने विधि पूर्वक भगवान को प्राहार दिया अपने समय के महाविद्वान् ब्राह्मण थे। ५०० शिष्यों सहित, जिसको मुनकर वहां का राजा शतानीक और उसकी भ० महावीर के ज्ञान से ही प्रभावित हो जैन मुनि हो गये रानी मुगावती उस भाग्यशाली चन्दना के दर्शन करने सेठ और उनके तीसरे गणघर बने । वपभसेन के घर आये । सेठानी घबरा गई कि चन्दना २०. सचिदत्त-अपने समय के बड़े विद्वान ब्राह्मण ने मेरे अत्याचार कह दिये तो प्राणदण्ड मिलेगा। वह चबना पण्डित थे। यज्ञ मे प्रसिद्ध थे। भ. महावीर से प्रभाके चरणों मे पडी। राजा और रानी ने चन्दना को पह- वित होकर दिगम्बर मुनि हो गये और हिंसक तप व यज्ञ चान लिया। वह रानी की सगी बहिन थी। चन्दना को त्याग कर महावीर के चौथे गणवर हुए। राज मंडल में ले जाना चाहा; परन्तु संसार के भयानक २१. मण्डिक-धनदेव की स्त्री विजया देवी के पुत्र दुःखो को देखकर, लोक-कल्याण हेतु जब महावीर स्वामी और प्रसिद्ध ब्राह्मण विद्वान थे। भ० महावीर के उपदेश को केवल ज्ञान हो गया; तो वह उनके समदसरण मे आपिका से प्रभावित होकर जैन मुनि हो गये और पांचवें गणघर हो गयी और योग्यता के बल पर शीध्र ही सर्व प्रमुख बने । प्रायिका कहलाई।
२२. मौर्य-पुत्र-काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण मौर्य के पुत्र १५. चेलना :- चेटक-पुत्री तथा मगध सम्राट श्रेणिक थे। भ० महावीर के समवशरण मे जैनमुनि होकर छठे की पटरानी श्रेणिक ने अपनी राजधानी राजगिरि में, प्रात्म- गणधर कहलाये। धर्म, अगस्त १९६६, १०१७० के अनुसार, चेलना के
२३. प्राकम्पिन--मिथिला-निवामी, गौतम गोत्रीय, कहने पर भगवान महावीर केही जीवन काल में उनका देवदत्तक पुत्र थे। जयन्ती इनकी माता का नाम था। विशाल मन्दिर बनवाया। महाराजा श्रेणिक को सदन जन
ब्राह्मण-धर्म त्याग दिगम्बर मुनि हो गए । भ० महावीर के
सातवें गणधर थे। और वीर-भक्त बनाना इसी महिला-रत्न का कार्य था। १६. यमिनी-महा ताना शालिभद्र की पुत्री, इतनी
२४. अचल वसु- कोसला निवासी ब्राह्मण थे । नन्दा
देवी इनकी माता का नाम था। ब्राह्मण-धर्म त्याग कर विद्वान् और ज्ञानवती थी कि हरिभद्र सूरि जैसे विद्वान्
वीर स्वामी से प्रभावित हो जैन मुनि हो गये और पाठवें को शास्त्रार्थ मे पराजित करके उन्हें जैन धर्म मे दीक्षा
गणधर हुए। दिखलाई।
२५. मंत्रिय-वत्स देश के निवासी। कौडिन्य नामक १७. इन्द्रभूति गौतम-वीर-समय का सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण
ब्राह्मण के पुत्र । माता वरुण देवी । नवें गणघर अत्यन्त विद्वान था। राजगिरि के निकट गोवट ग्राम का निवासी चतर और बद्धिमान । था । इसका गोत्री गौतम था जिसके कारण इसको गौतम २६. प्रभास-इनके पिता का नाम बल और माता भी कहते थे। वसुभति के ज्येष्ठ पुत्र थे। पृथ्वी इनकी कानाध प्रतिभद्रा था। राजगिरि निवासी, महा पण्डित । माता थी। ५०० प्रचण्ड विद्वानो के गुरु थे । भगवान् ब्राह्मण पुत्र, दसवें गणघर थे। महावीर से शास्त्रार्थ करने उनके समवशरण मे गये, परतु २७. सुधर्म-राजगिरि के सुप्रसिद्ध ब्राह्मण के महा उनके अनुपम ज्ञान, सर्वजता से प्रभावित होकर उनके विद्वान पूत्र । जैन मुनि होकर भ. महावीर के ११वें निकट जैन मनि हो गये और अपनी योग्यता से उनके गणधर थे। प्रमुख गणघर बन गये।
२८. यशोषर-महा मुनि, सिंह से भी भयानक ५०० १८. अग्निभूति गौतम- इन्द्रभूति के मझले भ्राता शिकारी कुत्ते एक दुष्ट ने इन पर छोड़ दिये; परन्तु यह और उस समय के प्रचण्ड ब्राह्मण विद्वान् तथा ५०० शिष्यों ध्यान में मग्न रहे और इनकी शान्त मुद्रा तथा तप के के गुरु थे। भ० महावीर से प्रभावित होकर ५०० शिष्यों प्रभाव से वह सब कर कुत्ते प्यार से दुम हिलाते हुए इनके
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महावीर तथा नारी
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भगवान् महावीर ने धर्म-तीर्थ के लिए चतुर्विध संघ- धाम रहता है, वह दुखी रहता है।" ऐसे अनेकानेक मुनि, प्रायिका, श्रावक तथा श्राविका की व्यवस्था की। प्रसंग विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक ग्रन्थों में मिलेंगे। सारे पारिवारिक तथा धार्मिक संस्कारों मे श्रावक तथा इनका पुरुष-समाज पर व्यापक प्रभाव पडा और नारी के श्राविका की स्थिति तथा स्तर समान है। इस सत्य से प्रति पुरुष-संस्कार बहुत क्रूर और अमानवीय बने ।। मुख नहीं मोडा जा सकता । पारिवारिक व्यवस्था, चाहे पारिवारिक स्थिति के अतिरिक्त उस काल में नारी वह किसी भी मस्कृति की हो, पुरुष-प्रधान है । कुछ को चेटिका, दामी, गणिका तथा वेश्या के रूपों को भी अपवादों को छोड़ कर पुरुष-प्रधान-व्यवस्था को ही ग्रादर्श धारण करना पड़ा। अधिकाश में यह परिस्थितियां नारी माना गया है। यह कट सत्य है कि गहम्थ-जीबन मे नागे की स्वेच्छा से उत्पन्न नहीं हुई परन्तु पुरुष-प्रधान समाज का जो अभ्यत्थान होना चाहिए था, वह नही हो पाया ने अपने शारीरिक तथा प्राधिक बल के कारण अपनी है । नारी स्वयं भी मोहग्रस्त रही है और इस व्यवस्था स्वार्थ-पूर्ति के लिए उन पर थोप दी । तुलसी दास जी की को उसने ग्रानन्द और हर्ष से स्वीकार किया है। यह निम्न पक्ति से नारी की सामाजिक बिबशता तथा पर. जन-साधारण की बात है परन्तु कुछ राजा तथा धेष्ठि- वशता का आभास होता है। परिवार इसके अपवाद हो सकते है।
"कत विधि सजी नारि जग माहि। । नारी के विभिन्न रूप
पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं ॥ . पुरुप के व्यक्तिगत तथा सामाजिक मे जीवन हमें नारी
"हे विधाता तूने, औरत की रचना ही क्यों की? के विभिन्न रूप प्राप्त होते है। जैसे -- पत्री बहिन, पत्नी, पराधीन व्यक्ति को सपने में भी सुख नहीं मिलता।"
। दमः यक म्पों में समाज नारी-जीवन की विवशता पर रोना पाता है। उपर्यत तथा पुरुष प्रभावित हसा है और वह स्वयं भी अनेक रूपों पक्तियाँ नारी के अन्तर्मन की व्यथा व्यक्त कर रही है। तथा स्थितियो से प्रभावित हुई है । नारी की दृष्टता की ।
दरता की नारी जीवन के बोझ को अनमने-पन से स्वयं न जी कर चरम सीमा का चित्रण भी है तथा उसकी विशालता, दूसरा के लिए जी रही थी। ऐसी परिस्थिति में भी पूरषकोमलता और प्रेम की उदात्तता के चित्र भी देखने को ममाज उसके मातृत्व की महिमा का गान करके लाभ
उठाने से नही चुका । मा से अपेक्षा की गई कि पुत्र चाहे स्त्रियो के चरित्र के सम्बन्ध में सम्मग जातक (बौद्ध कपूत ही निकले परन्तु माता कभी कुमाता नहीं होती है। ग्रन्थ) मे कहा है कि
धन्य है नारी, उसने इसे भी अक्षरश. पूरा किया। सुरक्खित मेत्ति कथं न विस्ससे ।
साध्वी-व्यवस्था अनेक चितासु न हत्यि रखना।
परन्तु उसे मिला क्या? क्या कभी उमके अन्तर्मन एतादि पाताल पपात सन्निभा।
को शान्ति मिल पायी ? क्या समाज ने समझा कि ऐमी एत्थथ मत्तो व्यसनं निञ्छति ॥
भीषण स्थिति उसमे जीवन के प्रति बंगग्य पैदा नहीं कर "यदि कोई समझता है कि मैंने अपनी स्त्री को सकती। नारी इस वैषम्य से ऊब उठी थी। इस सूत्रकालीन सुरक्षित रखा हुया है तो वह भ्रम में है। उसका कभी व्यवस्था के विरोध मे जो क्रान्ति हुई, उससे नारी ने विश्वास नही करना चाहिए। स्त्री की बुद्धि बहुत ही भिक्षुणी व्यवस्था को स्वीकार किया। वह व्यवस्था नारी चंचल होती है, उसकी रक्षा नहीं की जा सकती है। के प्रति प्रादर के भाव जागृत कर सकी और नारी-जीवन उसका स्वभाव तो झरने की तरह होता है जो बराबर का विशिष्ट अग बन गई। ऊपर से नीचे की ओर ही गिरता रहता है। ऊपर उठना वैदिक-साहित्य में भिक्षणी-साध्वी तथा संन्यासिनी उसके लिए सर्वथा असम्भव है। नीचे गिरना ही उमका या उससे मिलती-जुलती किसी भी ऐसी व्यवस्था का स्वभाव और धर्म है। जो भी व्यक्ति उसके प्रति प्रसाव- उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक युग में साध्वियों का
मिलते है।
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२०० वर्ष २८, कि..
अनेकान्त
अस्तित्व नहीं था। कही-कही विदुषी नारियो तथा ब्रह्म- समाज में दोनो का विशिष्ट स्थान था और ग्राज भी है। वादिनी स्त्रियों का वर्णन अवश्य मिलता है परन्तु वह राजा तथा प्रजा दोनों ही प्रायिका या परिव्राजिका को किसो व्यवस्था का द्योतक नहीं है।
पूरा पूरा विनयपूर्वक सम्मान देते है। ऋषि-पत्नियाँ तथा रानिया पति की सहयोगिनी के जो नारिया पारिवारिक तथा सामाजिक कारणों रूप में ही धार्मिक ( यज्ञादि ) कृत्य करती थी। बान- द्वारा पीड़ित होती थी तथा जिनके मन में वैराग्य के प्रस्थ तथा सन्यासाश्रम में उन्हें प्रवेश करने का अधिकार अंकूर फट निकलते थे, वे प्रवज्या लेती थी। इसमे राजनहीं था। इसमे पुरुष-वर्ग का ही एकाधिकार था। कुल मामन्त तथा श्रेष्ठी व सम्भ्रान्त परिवारो की नारिया उत्तर वैदिक काल में नारी धार्मिक अधिकारो से वचित भी होती थी जिन्हे मसार की असारता की विवेकमयी कर दी गई। कालान्तर मे उसका ह्रास ही होता गया। पन भति हो जाती थी। इस सर्वोदय-तीर्थ में नारी को
जैन-मागमों से भली-भांति स्पष्ट है कि उस काल में भी पूरे प्रात्मोत्थान का अवसर तथा तज्जन्य प्रानन्द प्राप्त नारी को न केवल जैन धर्मानुयायी पुरुषों के समान धामिक होता था । अधिकार प्राप्त थे; बल्कि प्राधिका-सब की व्यवस्था मे तग भयवान महावीर के काल मे कई सम्प्रदाय थे ओर साध्वी बनने पर भी किसी प्रकार का प्रतिबन्ध या अकुश उन सम्प्रदायो के सम्थापको ने अपने लिए भी 'तीर्थकर' नही था। महावीर काल में स्त्रियो को संद्धान्तिक तथा उपाधि का प्रयोग किया है जमे पूरण कास्सप, मक्वलिव्यावह रिक दानो दृष्टियो से पुरुषो के सनान स्तर तथा । गोसाल, अजित केसकम्बलि, पधकच्चायन् (प्रकुध प्रतिष्ठा मिली।
कात्यायन) सञ्जय वेलट्ठियुत्त, शुद्धोदन-पुत्र बोधिसत्व । जैन-आगमो में प्रायिका-सघ की व्यवस्था प्रथम इनके अतिरिक्त भी इनसे छोटे अनेक शाम्ता थे जो अपने तीर्थकर भगवान ऋषभदेव के काल से ही थी। उनकी सिद्वान्तो को उस कान में प्रचलित कर रहे थे। इनमें में दोनो पुत्रियां ब्राह्मी तथा सुन्दरी ने प्रायिका-दीक्षा भगवान कुछ ने महावीर का अनुकरण करके लघुरूप में भिक्षुगीसे ली थी और ब्राह्मी ( मुख्य प्रायिका ) के नतृत्व में सघ की व्यवस्था करने का प्रयास किया परन्तु वह चल तीन लाख अायिकामो का सघ था। उसके बाद भी नहीं पाई। बौद्ध-धर्म में ही अशत उसका पालन हो प्रत्येक तीर्थकर के काल मे प्रायिका-सघ की व्यवस्था थी। पाया। बौद्ध-धर्म को छोड़कर लगभग सभी सम्प्रदाय पाश्वनाथ के काल में प्रायिका-सघ की प्रधान प्रायिका छिन्न-भिन्न हो गए और उनका चिह्नमात्र भी शेप नही पुष्पचल थी तथा उनके नेतृत्व मे ३८ हजार प्राधिका है। थी। महावीर के प्रायिका-सघ मे ३६ हजार प्रायिकाए बौदघ-धर्म में बोधिसत्व ने भिक्ष सघ की स्थापना थी । प्रधान प्रायिका सती चन्दना थी परन्तु कुछ का की परन्तु भिक्षुणी-सघ की स्थापना उसके कई वर्षों कहना है कि प्रधान मायिका यशस्वती थी परन्तु यह (लगभग मात अाठ वर्ष) तक नहीं हुई। उसका कारण विवाद ग्रस्त बात नहीं है कि सती चन्दना प्रसिद्ध प्रायिका यह है कि बुद्घ नारी के प्रति उदासीन रहे । अपनो राजथी।
कुमार अवस्था में उन्होने प्रतापूर की परिचारिकामों को जैन महाव्रती सघ-व्यवस्था मे जैनाचार्य निर्मित घणित रूपो में देखा था और उससे उनके मन में ग्लानि नियमों के आधार पर मनि-सघ तथा आधिका-सघ का उत्पन्न हो गई थी। यह भी उनकी प्रव्रज्या का एक संरक्षण व संचालन करते थे। सत्पात्र नारी को प्रायिका- कारण था । उन्होने स्त्रियो को ब्रह्म वयं का विकार बताया दोआ लेने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती थी। मनि- था। सघ तथा प्रायिका-संघ के स्तर मे थोड़ा ही अन्तर था “इत्यो गल ब्रह्मचरियस्य एत्थाय सज्जते पजा" परन्तु व्यवहार में यह समान ही था। मुनि तथा प्रायिका
सयत निकाय ११३६ की दिनचर्या तथा विनय के नियम लगभग समान ही है। उनका विश्वास था कि नारी पिता, पति तथा पुत्र
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महावीर तथा नारी
॥ श्री रत्नत्रयधारी जैन, नई दिल्ली
"नारी तथा महावीर" विषय अपने आप में बड़ा स्त्री-प्राचार-सहिता एकागी रही है, जबकि पुरुष के लिए विचित्र लगता है; क्योकि जनमानस पर यह बात स्पष्ट आचार-सहिता से उसका निरकुश प्रभुत्व व्यक्त होता है। है कि वह जन्मना ब्रह्मचारी, अन्तर्मुखी, प्रात्मदर्शी तथा काव्य-ग्रन्थो में भी नारी के नख-शिख-वर्णन का अपरिग्रही थे; तब उनका नारी से क्या सम्बन्ध हो सकता बाहुल्य है; मानो मानव एवं देवो के मनोगिनोद के लिए ही
नारी की सृष्टि हुई हो। उसे पुरुष के लिए भोग विलास यह भ्राति फैली हुई है कि प्राध्यात्मिक घरातल पर
का अन्यतम साधन माना गया है। नायिका, गणिका, होने से सभवतया उस महामानव ने "गरी नग्कस्य
वारांगना, अभिसारिका, दुती प्रादि अनेक रूपों में नारी द्वारम्" माना है। इस भ्रान्ति का प्राधार है-दिगम्बर
का चित्रण इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है। इससे स्पष्ट है माम्नाय की यह मान्यता- "नारी.पर्याय से मोक्ष निरी
यि स माझ कि रसिक राजा एवं गणप्रधान तथा सम्पन्न श्रेष्ठी-वर्ग नही हो सकता।" इस मान्यता को नारी के प्रति बडा
उन्मत्त प्रणय-व्यापार के लिए नारी का खुलकर उपयोग अनुदार माना गया है। बुद्ध के अनुसार भी स्त्री सम्यक् । करते थे। सम्बुद्ध नही हो सकती। अन्य धर्मों में भी ऐसी मान्य- वैदिक काल में तो नारी का सामाजिक स्तर अच्छी ताएं है कि मोक्ष-प्राप्ति मे परम पुरुषार्थ हेतु पुरुष-पर्याय स्थिति में रहा परन्तु शनैः शनैः इमका ह्रास होता गया; ही अपेक्षित है या प्राध्यात्मिक उत्थान तथा तप की यहाँ तक कि स्मृति-युग मे नारी द्वारा वेद-मन्त्रो के जितनी क्रियाएँ है, वे पुरुष के शरीर-सगठन से ही सहज उच्चारण पर प्रतिबन्ध लगा दिया गय।। स्वतन्त्र जीवनऔर सुलभ है।
यापन उसके लिए निषिद्ध हो गया। नारी की बौद्धिक आज के परिवेश मे; जब यह वर्ष भगवान महावीर शक्ति के प्रति अवज्ञा का भाव प्रकट किया गया। नारी का २५००वा निर्वाण-वर्ष है तथा सयुक्त राष्ट्र-सघ द्वारा को 'अगुलि-भर प्रज्ञा वाली' कह कर अपमानित किया भी इस वर्ष को अन्तर्राष्ट्रीय "नारी-वर्ष" के रूप मे गया। नारी को केवल सन्तानोत्पत्ति का साधन माना मनाया जा रहा है। प्रस्तुत विषय पर चर्चा अत्यन्त गया।
मातृ-सत्तात्मक समाज के स्थान पर पितृसत्तात्मक पावश्यक एवं समीचीन है।
समाज की स्थापना से नारी की दशा दिन-प्रतिदिन दयजनेतर ग्रन्थों में नारी:
नीय होती गई। नारी के जितने रूप ग्रन्थों में उपलब्ध रामायण, महाभारत आदि अनेक जैनेतर ग्रन्थों के होते है
होते है, वे पुरुष-सत्ता से प्रभावित है। मध्यकालीन कतिपय उद्धरणो मे जहां एक ओर नारी को हीन, पतित,
उद्धरणा म जहा एक प्रार नारा का हान, पातत, साहित्य मे नारी-व्यक्तित्व की मरणासन्न दशा व्यक्त पापिनी, अविश्वसनीय तथा पुरुष की सम्पत्ति कहा गया
होती है । शृङ्गार-परक साहित्य ने न केवल अपने युग है, वहां देवी रूपी नारी को लक्ष्मी, सरस्वती तथा शक्ति को प्रभावित किया अपितु इसका कुप्रभाव सुदीर्घ काल का उच्चतम रूप माना गया है। यह सब होते हुए भी तक बना रहा।
१. पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने। पुत्रस्तु स्थविरे भावे, न स्त्री स्वातल्यमहति ॥
-बोधायन धर्म-सूत्र, २।२।२
२. प्रजननाचं स्त्रियः मृष्टाः, सन्तानार्थं च मानवाः ।
- मनुस्मृति ६६६
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१९८, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य-धर्म-सूत्र,
जैन-प्रन्थों में नारी वसिष्ठ-धर्म-सूत्र, हरिवंश-पुराण प्रादि वैदिक ग्रन्थों तथा
वैदिक संस्कृति में पुत्र के जन्म को महत्व दिया गया दीघनिकाय, सुल्लावग्ग, जातक-कथा आदि बौद्ध ग्रन्थों से नारी की हीन सामाजिक स्थिति पूर्णतया स्पष्ट हो जाती
है। पितृ-ऋण से मक्ति पाने के लिए पुत्र-प्राप्ति परम है। इन ग्रन्थों ने यदा-कदा जहाँ भी नारी को सम्मानित
पावश्यक मानी गई है। परन्तु श्रमण (जैन व बौद्ध) रूप में प्रदर्शित किया है, वे नारिया केवल राजकुल,
सस्कृति में इस पर कोई प्राग्रह नही। वहाँ इसकी उपेक्षा सामन्त, श्रेष्ठि-वर्ग की कुछ नारियाँ हैं। सामान्य नारी
की गयी है । पुत्र नरक से पिता की रक्षा नहीं कर सकता
है। कर्म में प्रत्येक जीव स्वतत्र है। इसलिए उसे पिण्ड को तो वेश्या, शुद्र तथा पशु की स्थिति में रखा गया है।
तथा जल-तर्पण आदि क्रिया काण्ड की कोई आवश्यकता नही इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि वौद्ध एवं जैन युग के है। इस मान्यता से पुत्र तथा पुत्री की समानता के प्रति ग्रारम्भ तक नारी की स्थिति हीन तथा दयनीय हो दृष्टिकोण को बल मिलता है। अन्य सस्कारो मे भी नारी चुकी थी।
के व्यक्तित्व को पागमो मे सम्मान से देखा गया है। महावीर द्वारा क्रान्ति का सूत्रपात
जैन-पागमो में भी कई स्थलो पर नारी के प्रति कटु लिच्छवि गणराज्य में जन्मे महावीर इससे भली भांति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने क्रान्ति की उदघोषणा
एव दुर्भावना-पूर्ण वाक्यो का उपयोग हुआ है । इसका एक
कारण यह है कि भगवान महावीर के बाद जैन-साहित्य की और धार्मिक जड़ता, कर्मकाण्ड तथा पुरुप-प्रधान
तथा प्रागम-ग्रथ वैदिक तथा बौद्ध प्रभाव से अछूते नही समाज-व्यवस्था तथा ब्राह्मणवाद का बहिष्कार करने को
रह सके । सस्कृतियो का आदान-प्रदान एक काल में कहा । वर्ण-व्यवस्था पर सीधा कुठाराघात किया। मानव
इतना व्यापक और गहरा होता है कि कभी कभी मूल की समानता तथा सम्मान को धर्म का मूल कहा । प्राणि
मान्यता उसकी चपेट मे पूर्णतया नष्ट हो जाती है। मात्र के प्रति समता तथा प्रेम भाव की प्रेरणा दी। एकागी दृष्टिकोण और भ्रान्ति तथा हटाग्रह की अग्नि से जलते
ध्यान पूर्वक चिंतन तथा मनन करने पर ज्ञात होगा कि हए लोगो को अनेकान्त तथा स्याद्वाद का रस-पान नारी के विषय मे जो कुछ भी कहा गया है, वह मयम-पालन कराया। मानवीय गुणो की वृद्धि तथा प्रत्येक व्यक्तित्व के तथा उसकी रक्षा हेतु है। अगर पुरुष के मयम-पालन म चरम विकास का लक्ष्य रखा। इसी से नारी का भी स्त्री बाधक होती है तो उसी प्रकार नारी के सयम पालन में अभ्युदय तथा चरम विकास हुमा।
पुरुप बाधक होता है। वास्तव मे जो भी दोष है, वह पुरुष नारी को भगवान् ने प्रतिष्ठित किया। उसके मातृत्व या नारी का एक दूसरे के प्रति दृष्टिकोण तथा भावानुभूति को पूज्य बनाया। उस आत्म-कल्याण का मार्ग बतलाया। का है। जिस भाव की स्थापना की जाती है, वैसे ही रूप उस पथ पर नारी की अग्रगति के लिए भिक्षुणी तथा के दर्शन होते हैं और वैसी ही क्रिया तथा प्रतिक्रिया का प्रायिका-संघों की स्थापना हुई। उसे पुरुष के समान ही फल होता है । जैन-दर्शन की नीव गुण-पूना पर प्राधारित धामिक अधिकार मिले । जैसे-जैसे महावीर की विचार- है, इस लिए किसी भी बाह्य पदार्थ तथा व्यक्ति से, चाहे धारा फैली, वैसे-वैसे नारी का उत्साह बढता गया और वह स्त्री हो या पुरुष, साधना प्रभावित नहीं हो सकती, वह सम्मानित स्थान प्राप्त करती गई।
जब तक व्यक्ति की दृष्टि स्वयं प्रभावित न हो। भावना भगवान महावीर ने कहा कि नारी ही तीर्थकर तथा प्रधान होने से जो भी परिणाम होता है, उसका कर्ना शलाका पुरुषो को जन्म देने वाली है। उन्होंने कहा कि स्वयं जीव होता है। अन्य कोई भी उसका हित अहित, नारी त्याग की मूर्ति है और जब वह विवेक से विचरण नही कर सकता है। बौद्ध तथा जैन आगमों ने नारी को करती है, अपनी इच्छायें अल्प कर लेती है।
सात तथा चौदह रत्नों में से एक माना है।
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महावीर तथा नारी
२०१
के अधीन गृहस्थ में रह कर यथाशक्ति धर्म का पालन मठों, विहारों, चैत्यों तथा मन्दिरों में भिक्षुणी-संघ का करे । वे सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक दष्टि से स्त्रियो को प्रभाव-सा ही है। उस काल में भी बौद्ध भिक्षुणी तथा सघ में प्रवेश देने के पक्ष में नही थे । उस काल में नारी जैन प्रायिका-सघ की संख्या के अनुपात में बड़ा अन्तर का ब्रह्मचर्य में विश्वास व उसे पालने की इच्छा होने पर था। जैन प्रागमो मे कहीं भी ऐसा वर्णन नहीं मिलता भी शारीरिक रचना के कारण उसे पुरुष के बल-प्रयोग कि किसी गणिका ने पायिका-दीक्षा ली हो; परन्तु अनेक द्वारा भ्रष्ट किया जा सकता था।
गणिकानों ने बौद्ध भिक्ष-संघ मे दीक्षा ली थी। उनमें से बुद्ध के प्रधान भिक्षु प्रान द इस सम्बन्ध में उदार थे प्रख्यात प्राम्रपाली है। भिक्षणी-संघ तथा मायिका-संघऔर महावीर का श्रमणी-संघ भी उनकी दृष्टि में था। दोनों दीक्षित नारी-संघो की किस प्रकार की व्यवस्था उन्होंने कितनी बार चाहा कि भिक्षणी-सघ भी स्थापित होगी, यह इस पोर इगित करता है। हो, परन्तु बुद्ध ने इसके लिए अनुमति नहीं दी । इसी
भगवान महावीर की चतुर्मखी-संघ-व्यवस्था ने धर्मप्रकार का प्रयास बुद्ध की मौसी गौतमी भी करती रही।
तीर्थ की वृद्धि में पर्याप्त महत्वपूर्ण योग दिया है । इससे उनके हाथ भी निराशा लगी। एक बार उन्होने अपने
समाज में नारी का श्राविका तथा श्रमणिका के रूप में केशों को कटवा लिया था तथा बौद्ध भिक्षुप्रो के समान
सम्मान का स्थान बना रहा है। काषाय वस्त्र धारण कर लिए और अन्य बहुत-सी स्त्रियों को भी अपने साथ ले लिया और कपिल-वस्तु से वैशाली
भगवान महावीर के काल की अनेक घटनायें ऐसी हैं
जब कि नारी ने उनके प्रात्मदीप के प्रकाश में शान्ति तथा की पद-यात्रा की। प्रानन्द तथा गौतमी ने एक के बाद एक तर्क दिए
कल्याण की अनुभूति की। परन्तु यहाँ दो घटनामों की
चर्चा से नारी के प्रति उनके कल्याणमय तथा करुणामय पौर बुद्ध ने अनिच्छा तथा अनमने-रन से सहमति प्रदान
हर दृष्टिकोण के दर्शन होते है। की थी। प्रानन्द ने भिक्षणी-संघ के विधान की रचना की दृष्टि और इस व्यवस्था से भिक्षुणी बनने के लिए मार्ग खोल
सती चन्दनबाला दिया। इस संघ की प्रमुखता भिक्षुत्रों के हाथ मे थी। सती चन्दनबाला की कथा से कौन परिचित नहीं है ? भिक्ष और भिक्षणी का स्तर जैन मुनि तथा प्रायिका के राजा शतानीक ने विजयदशमी का पर्व चम्पा नगरी को लूट समान एक-से स्तर का नहीं बन पाया।
कर मनाया था। सैनिको ने महारानी धारिणी तथा वसुभिक्ष भौर भिक्षुणी-सध की स्थापना से कई नवीन मती का अपहरण कर लिया। धारिणी की मृत्यु मार्य में समस्यायें समाज के सामने उत्पन्न हुई। यह देश का रथ से कूदने के कारण हो गई। अनेक दुःखद परिस्थिदुर्भाग्य रहा कि उस काल की राज्य-व्यवस्था के कारण तियों मे से होकर अन्त में चन्दना का विक्रय हुमा और भिक्षुणी के साथ अनुचित कार्य करने से कुशील व्यक्ति धनवाह सेठ ने वसूमती को धन देकर प्राप्त कर लिया। सामाजिक या राजदण्ड का भागी नही होता था। भिक्षुणी- अब वह दासी का जीवन जी रही थी। संव प्रतिष्ठा तथा सम्मान प्राप्त नहीं कर सका।
महावीर के ज्ञान में वसुमती की सारी स्थिति चित्रित आज भी बौद्ध धर्मावलम्बियों में मान्यता है कि नारी हो गई। वह अभिग्रह रख कर माहार को निकले । दासी (निम्न जीव) को संघ में प्रवेश कराकर शाक्य मुनि ने के वीभत्स रूप पर वह प्रहार करना चाहते थे। उनकी अच्छा नहीं किया। ऐसा करके उन्होंने बौद्ध-धर्म की उन्नति भावना थी कि नारी के लिए यह अभिशाप सदैव के लिए को ५०० वर्ष पीछे धकेल दिया है । आज भी हिमालय मिट जाए। के किन्नर प्रदेश, तिब्बत एवं लद्दाख में (जो कि बौद्ध- महावीर कौशाम्बी में निरन्तर कितने ही दिन निराहार धर्म के गढ़ हैं), नारी को सम्मानित पद प्राप्त नहीं है। लौट पाते। सारी नगरी चिन्ता में डब गई कि चार महीने माज बौद्ध भिक्षुणी नाम-मात्र को रह गई हैं। गोम्फानों, से भगवान् प्रतिदिन माहार के बिना वैसे ही लौट जाते हैं।
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२०२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
महाराज शतानीक ने उपस्थित होकर भगवान से अपनी शक्ति के सामने वह एक बाल-प्रयास ही था। युद्ध का तथा नगरवासियों की ओर से प्रार्थना की, परन्तु वे मौन अातंक छा गया। रहे। इस दशा में लगभग ६ महीने बीत गए।
मगावती ने इस घोरतम अंधकार तथा निस्सहाय अवस्था एक दिन भगवान् महावीर धनवाह सेठ के घर की में भगवान महावीर का स्मरण किया। भगवान महावीर उस चौखट पर जाकर खड़े हो गए जहाँ पर चन्दना बन्दिनी कौशाम्बी के उद्यान में आ गये। महावीर का आगमन होते का जीवन व्यतीत कर रही थी। वह भगवान् को देख कर ही मृगावती ने कौशाम्बी नगर के सब द्वार खुलवा दिए। एकदम खड़ी हो गई । वह प्रसन्न थी, सब अभिग्रह पूरे थे भय तथा अन्धकार अभय तथा प्रकाश में परिवर्तित हो परन्तु प्रभुकण नही थे। भगवान मुडे, ऐसा देख कर गए । मृगावती भगवान के समवसरण में आई। वहां पर चन्दना की आखों से अश्रधारा बह निकली। उसने प्रार्थना चण्डप्रद्योत भी प्राया। भगवान् की दिव्य-ध्वनि हुई। की-पाप तो नारी जाति के उद्धारक हैं। दास-प्रथा सबने प्रात्मधर्म तथा अहिंसा का रस-पान किया। तोड़ने के लिए कटिबद्ध है, फिर भी आप लौट चले। चण्डप्रद्योत का आक्रोश तथा काम शान्त हो गया। रानी भगवान् ने मुड़ कर देखा और वापिस आ गए। अब तो ने भगवान से प्रार्थना की और साध्वी होने की इच्छा सभी संकल्प पूरे हो गए थे। चन्दना ने उबले उड़द का प्रकट की। कौशाम्बी के राजकुमार अपने पुत्र उदयन ग्राहार भगवान् को दिया । सब बेड़ियां टूट गई, सती की सुरक्षा का भार चण्डप्रद्योत को सौंपकर उसने जयन्ती का तेज चमक उठा । दासी से आहार लिया । यह बात (शतानीक की भगिनी) के साथ प्रायिका-दीक्षा ले ली। सारे नगर में फैल गई । दासी चन्दना को पहचान लिया वासना का तमस् प्रेम में बदल गया। प्राक्रान्ता संरक्षक गया कि वह राजा दधिवाहन की पुत्री वसुमती है। बन गया। मृगावती का शील सुरक्षित रह गया - यह दासत्व से चन्दना की मुक्ति हो गई । दासत्व पर कुठारा. नारी की सुरक्षा तथा अहिंसा का अद्वितीय उदाहरण है। घात तथा नारी-बन्ध-विमोचन की इससे बड़ो घटना और
चतुर्विध संघ में नारी क्या हो सकती है ? नारी-उत्थान का अनुपम प्रयोग था।
भगवान महावीर के सर्वोदय-तीर्थ में हिंसा तथा दासचन्दनबाला ने संसार त्याग कर भगवान से प्रायिकादीक्षा ले ली। वह प्रात्मोत्थान के मार्ग की पथिक बन
प्रथा का विरोध है और समता का उपदेश है। जातिगई। नारी-जाति के विकास का अवरुद्ध द्वार खुल
प्रथा और ऊंच-नीच का इसमें कोई स्थान नहीं। नारी
जाति का पूर्णोदय उसमें है। नारी की गरिमा का सम्यक् गया।
मूल्यांकन है। महावीर भगवान द्वारा प्रतिपादित चतविध मृगावती की कथा
संघ-श्रमण, श्रमणिका श्रावक तथा श्राविका-माज भी दूसरी घटना बड़ी ही विचित्र है । अहिंसा तथा नारी
चल रहा है। कल्याण का अद्भुत प्रयोग है।
संघ-व्यवस्था धर्म-तीर्थ के लिए प्रत्यन्नावश्यक मानी उज्जयिनी का राजा चण्डप्रद्योत बहुत शक्तिशाली
गई है। वर्तमान काल में भी श्राविका (गहस्थ-नारी) को तथा कामुक था । वह शतानीक की पत्नी मह:
चतुर्विध संघ की प्रवृत्ति में केन्द्र माना गया है। सुशील, रानी मृगावती पर मोहित हो गया था और अपने लिए उसकी मांग की। शतानीक ने प्रस्ताव ठुकरा दिया ।
चरित्रवती तथा धर्मज्ञा नारी पति को सुखी रखने का इसका प्रत्याशित फल कौशाम्बी पर प्राक्रमण हुआ। शता
कारण बनती है तथा श्रमण और श्रमणिका को नवधा
भक्ति से माहार देकर धर्म-तीर्थ के अवगाहन में बड़ा योग नीक घबरा गया और रुग्ण होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ।
देती है। महारानी तथा जनता ने कौशाम्बी की यथाशक्ति गांधी जी गुजरात-निवासी थे। गुजरात प्रदेश की रक्षा करने का प्रयास किया, परन्तु चण्डप्रद्योत की सैन्य संस्कृति नत्व-प्रधान रही है। वहां पर नारियों का बड़ा
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महावीर तथा नारी
२०३
सम्मान रहा है तथा धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में प्राचार्य विनोबा भावे ने स्त्री शक्ति के सन्दर्भ में कहा : उनका बहुमूल्य योगदान रहा है। इसका गांधी जी पर "मैं मानता है कि जब तक शकराचार्य के समान प्रभाव पड़ा और इसी कारण उन्होंने अपने सब कार्यों में प्रखर वैराग्य-सम्पन्न स्त्री पैदा नहीं होती; तब तक स्त्रियो जैसे प्राश्रमों व भान्दोलनों में, नारी जाति से पूर्ण सहयोग
का उद्धार कृष्ण, बुद्ध, गाधी जैसे पुरुष भी नहीं कर सकते लिया । उन पर प्रायिका-संघ का अपूर्व प्रभाव था। इस
हैं । कुछ सीमा तक मदद की जा सकती है। किन्तु स्त्रियों लिए सब राष्ट्रीय प्रवृत्तियों में उन्होंने नारियों का सहयोग का उद्धार स्त्रियों से ही होने वाला है; वैराग्य, शील और प्राप्त किया था। आज की राष्ट्रीय चेतना भी नारी-चेतना
ज्ञान का प्रचार करने वाली बहनें, जिनसे शास्त्र बन सकता बनी है। महावीर की सर्वोदय-क्रान्ति को गांधी जी ने
है, क्यो न निकले, यह मेरी समझ में नहीं पाता। अहिंसा-पालन और नारी-जाति का उत्थान करके अपने में समग्रतया उतार लिया था।
"अगर मैं स्त्री होता तो न जाने कितनी बगावत उनका अटूट विश्वास था कि स्त्रियों में अहिंसा की।
करता। मैं तो चाहता है कि स्त्रियों की तरफ से बगावत विशेष शक्ति रहती है और इसीलिए सर्वोतम कान्ति उन्ही ।
हो। लेकिन बगावत तो वह स्त्री करेगी जो वैराग्य की के द्वारा सिद्ध होगी।
मृति होगी। वैराग्य-वृत्ति प्रगट होगी तभी तो मातृत्व
सिद्ध होगा। स्त्रियाँ स्वतंत्रता चाहती है तो उन्हे वासना विनोबा जी के (पवनार आश्रम से व्यक्त) निम्न
के बहाव में बहना नहीं चाहिए।" भाव हैं :
महाबीर ने दामी चन्दना को प्रधान प्रापिका के रूप "जैनधर्म के प्राचार्य श्री महावीर स्वामी का यह
में दीक्षित करके नारी को क्रान्ति की प्रेरणा दी। महा२५००वां निर्वाण-वर्ष है । महावीर स्वामी पहले धर्माचार्य
प्रकृति को उसकी महाशक्ति का ज्ञान कराया तथा उसकी है, जिन्होने समाज-प्रवाह के विरुद्ध जाकर महिलाओं को
वैराग्य-वत्ति को सम्यक् धर्म का उपदेश देकर सम्पुष्ट अपने धर्म-सम्प्रदाय में आदर का स्थान दिया। यही,
किया। नारी मात्र को त्रिशला का सम्मान दिया। कारण है कि आज देश में हजारों जैन साध्वियां अहिंसा
इसे देवी, सुखद तथा विचित्र सयोग कहे या प्रकृति संयम, सहिष्णुता और अपरिग्रह का व्रत लेकर हिम्मत के
की सत्यता का उद्घोष कहे कि महावीर के इम २५००वे साथ धर्मोपदेश देती हुई समाज में विचरती है।"
निर्वाण-महोत्सव-वर्ष को 'संयुक्त-राष्ट्र सव' ने 'नारी-वर्ष' -मैत्री, जून १९७५ पृ. ४०४
घोषित करके भगवान महावीर को उपयुक्त श्रद्धाञ्जलि महर्षि रमण ने भी कहा था :
अपित की है। "पति के लिए चरित्र, संतान के लिए ममता, समाज के लिए शील, विश्व के लिए दया तथा जीवमात्र के लिए करुणा संजोने वाली महाप्रकृति का नाम ही नारी है।" नई दिल्ली-१
८, जनपथ लेन,
000
महावीर-वाणी जो परिग्रह में फंसे हुए हैं. वे वर को ही बढ़ाते हैं। जिसका चित्त विषयों से विरक्त है, वह योगी ही प्रात्मा को जान सकता है। जो मात्मा को जानता है, वह सब शास्त्रों को जानता है।
000
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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
। स्व. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, पारा
"ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्र"-सूर्यादि ग्रह से की गई है। समस्त नक्षत्रों का कुल, उपकुल और पौर काल का बोध कराने वाला शास्त्र ज्योतिष कहलाता कुलोपकुलों में विभाजन कर वर्णन किया गया है। यह है। अत्यन्त प्राचीन काल से प्राकाश-मण्डल मानव के लिए वर्णन-प्रणाली ज्योतिष के विकास में अपना महत्वपूर्ण कौतूहल का विषय रहा है । सूर्य और चन्द्रमा से परिचित स्थान रखती है। घनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, हो जाने के उपरान्त तारामों, ग्रहों एवं उपग्रहों की जान- कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, कारी भी मानव ने प्राप्त की। जैन परम्परा बतलाती है विसाखा, मूल एवं उत्तराषाढा-ये नक्षत्र कुलसंज्ञक; कि माज से लाखों वर्ष पूर्व कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रथम श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, कलकर प्रतिश्रति के समय में, जब मनुष्यों को सर्व- प्राश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा एवं पूर्वा. प्रथम सूर्य और चन्द्रमा दिखलायी पड़े, तो वे सशं- षाढा-ये नक्षत्र उपकुलसंज्ञक और अभिजित्, शतमिषा, कित हए और अपनी उत्कंठा शान्त करने के लिए उक्त पार्द्रा एवं अनुराधा कुलोपकुल-संज्ञक है। यह कुलोपकुल प्रतिश्रुति नामक कुलकर मनु के पास गये। उक्त कुलकर का विभाजन पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रो के आधार सौर-ज्योतिष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। आगमिक पर- पर किया गया है। अभिप्राय यह है कि श्रावण मास के म्परा भनविच्छिन्न रूप से अनादि होने पर भी इस युग में घनिष्ठा, श्रवण और अभिजित ; भाद्रपदमास के उत्तराभाद्र. ज्योतिष-साहित्य की नीव का इतिहास यहाँ से प्रारम्भ पद, पूर्वाभाद्रपद और शतमिषा; आश्विनमास के अश्विनी होता है। यों तो जो ज्योतिप-साहित्य अाजकल उपलब्ध और रेवती; कातिकमास के कृत्तिका और भरणी, अगहन है, वह प्रतिश्रुति कुलकर से लाखों वर्ष पीछे का लिखा या मार्गशीर्ष मास के मृगशिरा और रोहिणी, पौषमास के
पुष्य, पुनर्वसु और पार्दा, माघमास के मधा और आश्लेषा, जैन ज्योतिष-साहित्य का उद्गम और विकास- फाल्गुनमास के उत्तराफाल्गुनी और पूर्वाफाल्गुनी, चैत्रमास प्रागमिक दृष्टि से ज्योतिष शास्त्र का विकास विद्यानु. के चित्रा और हस्त, वैशाखमास के विशाखा और स्वाति, वादांग और परिकर्मों से हुआ है। समस्त गणित-सिद्धान्त ज्येष्ठमास के ज्येष्ठा, मूल और अनुराधा एवं प्राषाढमास ज्योतिष-परिकर्मों में अकित था और अष्टांग निमित्त का के उत्तराषाढा और पूर्वाषाढा नक्षत्र बताए गए है। प्रत्येक विवेचन विद्यानुवादांग मे किया गया था। षट्खडागम मास की पूर्णमासी को उस मास का प्रथम नक्षत्र कुलसंज्ञक, घवला-टीका' मे रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारगट, दैत्य, वैरोचन, दूसरा उपकुलसज्ञक और तीसरा कुलोपकुलसजक होता है। वैश्वदेव. अभिजित, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, इस वर्णन का प्रयोजन उस महीने का फल निश्चय करना मर्यमन मोर भाग्य-ये पन्द्रह मुहूर्त माये है। मुहूर्तों की है। इस ग्रन्थ मे ऋतु, प्रयन, मास, पक्ष और तिथि नामावली वीरसेन स्वामी की अपनी नहीं है, किन्तु पूर्व सम्बन्धी चर्चायें भी उपलब्ध है। परम्परा से प्राप्त श्लोकों को उन्होने उद्धृत किया है। समवायाङ्ग में नक्षत्रों की तारायें, उनके दिशादार अतः मुहूर्त-चर्चा पर्याप्त प्राचीन है।
मादि का वर्णन है। कहा गया है-"कत्तिपाइया सत्तणनव्याकरण में नक्षत्रों की मीमांसा कई दृष्टिकोणों कात्ता पुच्चदारिमा । महाइया तत्तणयत्ता दाहिणदारिमा। १. धवला टीका, जिल्द ४, पृ. ३१८.
२. प्रश्नव्याकरण, १०.५.
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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
२०५
अनुराहा-इया सत्तणक्खता अवरदारिया । घनिदाइया चंदिम सूरियस्स अट्ठासीइ मइग्गहा परिवारो', अर्थात् सत्तणक्खता उत्तरदारिया'' अर्थात् कृत्तिका, रोहिणी, एक एक चन्द्र और सूर्य के परिवार में, प्रवासी-प्रट्रासी मृगशिरा, पार्दा, पुनर्वसु, पुष्य और पाश्लेषा-ये सात नक्षत्र महाग्रह है। प्रश्न-व्याकरण में सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, पूर्वद्वार, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु या धूमकेतु-इन नौ ग्रहों स्वाति क्षौर विशाखा-ये नक्षत्र दक्षिणद्वार, अनुराधा, के सम्बन्ध मे प्रकाश डाला गया है। ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, अभिजित् और श्रवण- समवायांग में ग्रहण के कारणों का भी विवेचन ये सात नक्षत्र पश्चिमद्वार एवं धनिष्ठा, शतमिषा पूर्वाभाद्र- मिलता है। इसमें राहु के दो भेद बतलाये गये हैंपद, रेवती, अश्विनी और भरणी-ये सात नक्षत्र उत्तरद्वार
नित्यराहु और पर्वराह । नित्यराह को कृष्ण पक्ष और वाले हैं। समवायांग ११६, २१४, ३।२, ४१३, २९ में
शुक्ल पक्ष का कारण तथा पर्वराहु को चन्द्रग्रहण का मायी हुई ज्योतिष चर्चाएं महत्वपूर्ण है।
कारण माना है । केतु, जिसका ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदंड ठाणांग मे चन्द्रमा के साथ स्पर्श-योग करने वाले ।
से ऊँचा है, भ्रमणवश वही केतु सूर्यग्रहण का कारण नक्षत्रों का कथन किया गया है। यहाँ बतलाया गया है
होता है। कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराघा और ज्येष्ठा-ये पाठ नक्षत्र चन्द्रमा के साथ स्पर्शयोग
दिन-वृद्धि और दिन-ह्रास के सम्बन्ध में भी समकरने वाले है। इस योग का फल तिथियों के अनुसार
वायांग मे विचार-विनिमय किया गया है। सूर्य जब दक्षिविभिन्न प्रकार का होता है। इसी प्रकार नक्षत्रों की अन्य
णायन मे निषध-पर्वत के पाभ्यंतर मण्डन से निकलता संज्ञायें तथा उत्तर, पश्चिम और पूर्व दिशा की ओर से हुआ ४४व मण्डल-गमन मार्ग से प्राता है, उस समय चन्द्रमा के साथ योग करने वाले नक्षत्रों के नाम और
६१/८८ महर्त दिन कम होकर रात बढ़ती है ---इस समय
६४/ उनके फल विस्तार-पूर्वक बतलाये गये है। ठाणांग में
२४ घड़ी का दिन और ३६ घड़ी की रात होती है। उत्तर
दिशा में ४४वें मण्डल-गमन मार्ग पर जब सूर्य पाता है, अंगारक, काल लोहिताक्ष, शनैश्चर, कनक, कनक-वितान, कनक-संतानक, सोमहित, पाश्वासन, कज्जीवग, कर्बट,
तब ६१/८८ मुहूर्त दिन बढ़ने लगता है। इस प्रकार जब अयस्कर, दंदुयन, शंक, शंखवर्ण, दन्द्राग्नि, धूमकेतु, हरि,
सूर्य ६३वे मण्डल पर पहुचता है, तो दिन परमाधिक ३६ पिगल, बुध, शुक्र, बृहस्पति, राह, अगस्त, मानवक, काश, घड़ी का होता है। यह स्थिति प्राषाढ़ी पूणिमा को प्राती स्पर्श, पूर, प्रमख, विकट, विसन्धि, विमल, पीपल, जटि- है। लक, अरुण, अगिल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवास्तिक, इस प्रकार जैन आगम ग्रथों मे ऋतु, प्रयन, दिनमान, वर्द्धमान, पुष्पमानक. अकश. प्रलम्ब, नित्यलोक. नित्योदि- दिनद्धि, दिनहास, नक्षत्रमान, नक्षत्रों की विविध सनायें. चित, स्वयंप्रभ, उसण, श्रेयंकर, प्रेयंकर, प्रायंकर, ग्रहों के मण्डल, विमानों के स्वरूप और विस्तार ग्रहो की प्रथंकर, अपराजित, अरज, अशोक, विगतशोक, निर्मल, प्राकृतियों आदि का फुटकर रूप मे वर्णन मिलता है। विमुख, वितत, विऋत, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्तक, यद्यपि अागम गन्थो का संग्रह काल ई. सन की प्रारंभिक एकजटी, द्विजटी, करकरीक, राजगल, पुष्पकेतु एव भाव- शताब्दी या उसके पश्चात् ही विद्वान् मानते है, किन्तु केतु मादि ८८ ग्रहों के नाम बताए गए है।' समवायांग ज्योतिष की उपर्युक्त चर्चाये पर्याप्त प्राचीन हैं । इन्हीं में भी उक्त ८८ ग्रहो का कथन पाया है। "एगमेगस्सण मौलिक मान्यताओं के माधार पर जैन ज्योतिष के ३. समवायाग, स. ६, सूत्र ५.
७. बहिरामों उत्तराम्रोणं कट्ठामो सूरिए पउमं छम्मासं ४. ठाणांग, पृ. ६८-१००.
प्रयमाणे चोयालिस इमे मडलगते अद्रासीति एगसीट ५. समवायांग, स. ८८.१.
भागे मुत्तस दिवसखेत्तस निबुठेत्ता एयणीखेसस ६. समवायांग, स. १५.३.
मभिनिवुठेत्ता सूरिए चौर चरइ। -स. ८८.४.
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२०६, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
सिद्धान्तों को ग्रीकपूर्व सिद्ध किया गया है।
सूर्य का संस्थान तथा तापक्षेत्र का संस्थान विस्तार से इतिहासज्ञ विद्वान् गणित ज्योतिष से भी फलित को बताया गया है। इसमें समचतुस्त्र, विषमचतुस्त्र आदि प्राचीन मानते हैं । अतः अपने कार्यो की सिद्धि के लिए विभिन्न आकारों का खण्डन कर सोलह वीथियों में चन्द्रमा समय-शद्धि की आवश्यकता प्रादिम मानव को भी रही को समचतुस्त्र गोल आकार बताया गया है। इसका होगी। इसी कारण जैन प्रागम ग्रन्थो मे फलित ज्योतिष कारण यह है कि सुषमा-सुषमाकाल प्रादि के श्रावण के बीज तिथि, नक्षत्र-योग, करण, वार, समय-शुद्धि, कृष्णा प्रतिपदा के दिन जम्बूद्वीप का प्रथम सूर्य पूर्व-दक्षिणदिनशुद्धि आदि की चर्चायें विद्यमान है।
अग्निकोण में और द्वितीय सर्य पश्चिमोत्तर-वायव्यकोण जैन ज्योतिष साहित्य का सांगोपांग परिचय प्राप्त ।
में चला। इसी प्रकार प्रथम चन्द्रमा पूर्वोत्तर-ईशानकोण करने के लिए इसे निम्न चार कालखण्डों में विभाजित
मे और द्वितीय चन्द्रमा पश्चिम-दक्षिण नैऋत्य कोण में कर हृदयंगम करने में सरलता होगी।
चला । प्रतगव युगादि में सूर्य और चन्द्रमा का समचतुस्त्र आदिकाल- ई. पू. ३०० से ६०० ई. तक। संस्थान था, पर उदय होते समय ये ग्रह वर्तुलाकार पूर्व मध्य काल- ६०१ ई. से १००० ई. तक। निकले, अत: चन्द्रमा और सूर्य का प्राकार अर्धकपीठ-अर्ध उत्तर मध्य काल- १००१ ई. से १६०० ई. तक। समचतुस्त्र गोल बताया गया है। पर्वाचीन काल- १६०१ ई. से १८६० ई. तक। चन्द्रप्रज्ञप्ति में छायासाधन किया गया है और छाया
आदिकाल की रचनाओं में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्रमाण पर से दिनमान भी निकाला गया है। ज्योतिष की अंगविज्जा, लोकविजययन्त्र एवं ज्योतिष्करण्डक आदि दृष्टि से यह विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहाँ प्रश्न उल्लेखनीय हैं।
किया गया है कि जब अर्धपुरुष-प्रमाण छाया हो, उस सूर्यप्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा में लिखित एक प्राचीन समय कितना दिन व्यतीत हा और कितना शेष रहा? रचना है । इस पर मलय गिरि की संस्कृत टीका है। ई० इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि ऐसी छाया की स्थिति सन् से दो वर्ष पूर्व की यह रचना निर्विवाद सिद्ध है। मे दिनमान का तृतीयाश व्यतीत हुआ समझना चाहिए। इसमें पंचवर्षात्मक युग मानकर तिथि, नक्षत्रादि का यहाँ विशेषता इतनी है कि यदि दोपहर के पहले अर्धपुरुषसाधन किया गया है। भगवान महावीर की शासनतिथि प्रमाण छाया हो तो दो तिहाई भाग-प्रमाण दिन गत और श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से, जबकि चन्द्रमा अभिजित नक्षत्र एक भाग प्रमाण दिन शेष समझना चाहिए । पुरुष प्रमाण पर रहता है, युगारम्भ माना गया है ।
छाया होने पर दिन का चौथाई भाग गत और तीन चौथाई चन्द्रप्रज्ञप्ति में सूर्य के गमनमार्ग, प्रायु, परिवार भाग शेष, डेढ़ पुरुष प्रमाण छाया होने पर दिन का पंचम मादि के प्रतिपादन के साथ पंचवर्षात्मक युग के अयनों भाग गत और चार पंचम भाग (६ भाग) अवशेष दिन के नक्षत्र, तिथि और मास का वर्णन भी किया गया है। समझना चाहिए। चन्द्रप्रज्ञप्ति का विषय प्रायः सूर्यप्रज्ञप्ति के समान
इस ग्रंथ में गोल, त्रिकोण, लम्बी एवं चौकोर वस्तूपों है। विषय की अपेक्षा यह सूर्यप्रज्ञप्ति से अधिक महत्वपूर्ण की छाया पर से दिनमान का प्रानयन किया गया है। है। इसमें सूर्य की प्रतिदिन की योजनात्मिका गति निकाली चन्द्रमा के साथ तीस मुहूर्त तक योग करने वाले श्रवण, गई है तथा उत्तरायण और दक्षिणायन की विधियों का घनिष्ठा, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा अलग-अलग विस्तार निकाल कर सूर्य और चन्द्र की गति पूष्य, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, अनुराधा, मूल निश्चित की गई है। इसके चतुर्थ प्राभूत में चन्द्र और और पूर्वाषाढ़-ये पन्द्रह नक्षत्र बताए गए है। पैतालीस ८. चन्दाबाई-अभिनन्दन-ग्रन्थ के अन्तर्गत 'ग्रीकपूर्व जैन ता तिभागे गए वा ता सेसे वा, पोरिसाणं छाया
ज्योतिष विचारधारा' शीर्षक निबन्ध, पृ. ४६२. दिवस्स कि गए वा सेसे वा जाव चउभाग गए सेसे ९. ता प्रवडपोरिसाणं छाया दिवसस्स कि गते सेसे वा वा । चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्र. ६.५.
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जन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
२०७
मुहूर्त तक चन्द्रमा के साथ योग करने वाले उत्तराभाद्रपद, इसका विचार ४५ वें अध्याय में किया गया है। ५२ व रोहिणी, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा और उत्तरा- अध्याय में इन्द्र-धनुष, विद्युत, चन्द्र ग्रह, नक्षत्र, तारा, षाढ़ा-ये छः नक्षत्र एवं पन्द्रह महर्त तक चन्द्रमा के साथ उदय, अस्त, अमावस्या, पूर्णमासी, मंडल, वीची, युग, योग करने वाले शतमिपा, भरणी, आर्द्रा, आश्लेषा, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, क्षण, लव, मुहूर्त, उत्कापात, स्वाति और ज्येष्ठा- ये छ. नक्षत्र बताये गये है। दिशादाह आदि निमित्तों से फलकथन किया गया है।
चन्द्रप्रज्ञप्ति के १६ वें प्राभत में चन्द्रमा को स्वतः सत्ताईस नक्षत्र पौर उनसे होने वाले शुभाशुभ फल का प्रकाशमान बतलाया है तथा इसके घटने बढ़ने का कारण भी विस्तार से उल्लेख है । सन्धि में इस ग्रंथ में अष्टांग भी स्पष्ट किया गया है। १८वें प्राभत में पृथ्वी तल से निमित्त का विस्तारपूर्वक विभिन्न दृष्टियों से कथन किया सूर्यादि ग्रहों की ऊँचाई बतलाई गयी है।
गया है।" ज्योतिष्करण्डक एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है । इसमे अय- लोकविजय-यन्त्र भी एक प्राचीन ज्योतिष-रचना नादि के कथन के साथ नक्षत्र लग्न का भी निरूपण किया है। यह प्राकृत भाषा मे ३० गाथानों में लिखा गया है। गया है । यह लग्न-निरूपण की प्रणाली सर्वथा नवीन और इसमें प्रधानरूप से सुभिक्ष, दुर्भिक्ष की जानकारी दी गयी मौलिक है
है । प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए कहा है - लग्गं च दक्षिणाय विसुवे सुवि प्रस उत्तर प्रयणे। पणमिय पयारविंदे तिलोचनाहस्स जगपईवस्स लागं साई विसुवेसू पंचसु वि दक्षिणे प्रयणे बुच्छामि लोयविजयं जंतं जंतुण सिद्धिकयं ॥
अर्थात् अश्विनी और स्वाति ये नक्षत्र विषुव के लग्न जगत्पति नाभिराय के पुत्र त्रिलोकनाथ ऋषभदेव बताये गये है। जिस प्रकार नक्षत्रों की विशिष्ट अवस्था के चरणकमलों में प्रणाम करके जीवों की सिद्धि के लिए को राशि कहा जाता है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रों की लोक विजय यन्त्र का वर्णन करता है। विशिष्ट अवस्था को लग्न बताया गया है।
इसमे १४५ से प्रारम्भ कर १५३ तक ध्रुवा बतइस ग्रंथ में कृत्तिकादि, घनिष्ठादि, भरण्यादि, श्रव- लाए गए हैं। इन ध्र वों पर से ही अपने स्थान के शुभाणादि एवं अभिजित आदि नक्षत्र गणनाओं की विवेचना शुभ फल का प्रतिपादन किया गया है । कृपिशास्त्र की की गई है। ज्योतिष्कर ण्ड का रचनाकाल ई०प० ३०० दष्टि से भी यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। के लगभग है। विषय और भाषा-दोनो ही दष्टियों से कालकाचार्य - यह भी निमित्त और ज्योतिष के यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है।
प्रकाण्ड विद्वान थे। इन्होंने अपनी प्रतिभा से शककुल के अंगविज्जा का रचनाकाल कुषाण-गुप्त-युग का साहि को स्ववश किया था तथा गर्दभिल्ल को दण्ड सन्धिकाल माना गया है । शरीर के लक्षणों से अथवा दिया था। जैन परम्परा में ज्योतिष के प्रवर्तकों में इनका अन्य प्रकार के निमित्त या चिह्नों से किसी के लिए शुभा- मुख्य स्थान है। यदि यह प्राचार्य निमित्त और संहिता का शुभ फल का कथन करना ही इस ग्रंथ का वर्ण्य विषय है। निर्माण न करते, तो उत्तरवर्ती जैन लेखक ज्योतिष को इस ग्रन्थ में कुल साठ अध्याय है। लम्बे अध्यायों का पापश्रुत समझकर अछूता ही छोड़ देते। पाटलों में विभाजन किया गया है। प्रारम्भ के अध्यायो वराहमिहिर ने बृहज्जातक में कालकसंहिता का में अंगविद्या की उत्पत्ति, स्वरूप, शिष्य के गुण-दोष, अग- उल्लेख किया है। निशीथ चूणि, आवश्यक-णि मादि विद्या का माहात्म्य प्रभृति विषयों का विवेचन किया गया ग्रन्थों से इनके ज्योतिष-ज्ञान का पता चलता है। है । गृह-प्रवेश, यात्रारम्भ, वस्त्र, यान, धान्य, चर्या, चेष्टा उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थ मूत्र में जैन ज्योतिष के मादि के द्वारा शुभाशुभ फल का कथन किया गया है। मूल सिद्धान्तों का निरूपण किया है। इनके मत से ग्रहों प्रवासी घर कब और किसी स्थिति में लौटकर पायेगा, का केन्द्र सुमेरु पर्वत है, ग्रह नित्य गतिशील होते हुए मेक १०. भारतीय ज्योतिष, पृ. २०७.
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२०८, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
प्रदक्षिणा करते रहते है। चौथे अध्याय में ग्रह, नक्षत्र, घरतर संज्ञक होते हैं। दग्धसंज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनों प्रकीर्णक और तारों का वर्णन किया है। संक्षिप्त रूप में में मिलने से दग्धतम संज्ञक होते है। इन संज्ञामों के माई हुई इनकी चर्चाएं ज्योतिष की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पश्चात् फलाफल निकाला गया है। जय-पराजय, लाभा
इस प्रकार आदिकाल में ज्योतिष की अनेक रचनाएं लाभ, जीवन-मरण आदि का विवेचन भी किया गया है । हुई। स्वतंत्र ग्रंथों के अतिरिक्त अन्य विषयों के धार्मिक इस छोटी-सी कृति में बहुत कुछ निबद्ध कर दिया गया ग्रंथों, आगम ग्रंथों की चणियों, वत्तियों और भाष्यों में भी है। इस कृति की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है। इसमें ज्योतिष की महत्त्वपूर्ण बातें अंकित की गई। तिलोय- मध्यवर्ती क, ग और त के स्थान पर य श्रुति पायी पण्णत्ति में ज्योतिर्मण्डल का महत्वपूर्ण वर्णन पाया है। " ज्योतिलोकान्धकार में अयन, गमनमार्ग, नक्षत्र एवं दिन
करलक्खण-यह सामुद्रिक-शास्त्र का छोटा-सा ग्रंथ मान आदि का विस्तार पूर्वक विवेचन किया है।
है। इसमें रेखाओं का महत्व, स्त्री और पुरुष के हाथों पूर्व मध्यकाल में गणित और फलित दोनों प्रकार के
के विभिन्न लक्षण, अंगुलियों के बीच के अन्तराल पर्वो के ज्योतिष का यथेष्ट विकास हुआ। इसमें ऋषिपुत्र, महा
फल, मणिबन्ध, विद्यारेखा, कुल, धन, ऊर्ध्व, सम्मान, वीराचार्य, चन्द्रसेन, श्रीधर प्रभति ज्योतिविदों ने अपनी समृद्धि, प्रायु, धर्म, व्रत आदि रेखाओं का वर्णन किया है । ममूल्य रचनाओं के द्वारा इस साहित्य की श्रीवद्धि की। भाई, बहन, सन्तान प्रादि की द्योतक रेखाओं के वर्णन के
भद्रबाहु के नाम पर अर्हच्चूडामणिसार नामक एक उपरान्त अंगुष्ठ के अधोभाग मे रहने वाले यव का विभिन्न प्रश्नशास्त्र-सम्बन्धी, ६८ प्राकृत गाथानों में, रचना उप- परिस्थितियों में प्रतिपादन किया गया है। यव का यह लब्ध है । यह रचना चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाह की है, इसमें प्रकरण नौ गाथाओ में पाया जाता है। इस ग्रन्थ का तो सन्देह है । हमें ऐसा लगता है कि यह भद्रबाह वराह- उद्देश्य ग्रंथकार ने स्वयं ही स्पष्ट कर दिया हैं :मिहिर के भाई थे, प्रत: संभव है कि इस कृति के लेखक इय करलक्खणमेयं समासमो वंसिनं जइजणस्स । यह द्वितीय भद्रबाह ही होंगे। प्रारम्भ मे वर्णों की संज्ञाएं पुवायरिएहि णरं परिवज्जणं वयं दिज्जा ॥६॥ बतलायी गयी है। भइए प्रो, ये चार स्वर तथा क च यतियों के लिए संक्षेप में करलक्षणों का वर्णन किया ट त प य श ग ज ढ द व लस, ये चौदह व्यंजन प्रालि- गया है। इन लक्षणों के द्वारा व्रत-ग्रहण करने वाले की गित संज्ञक हैं। इनका सभग, उत्तर और संकट नाम भी परीक्षा कर लेनी चाहिए । जब शिष्य में पूरी योग्यता हो, है। पाई ऐ मो, ये चार स्वर तथा ख छठ थफर वह व्रतों का निर्वाह कर सके तथा व्रती जीवन को प्रभावक पशठ, ध म वह ये चौदह व्यंजन अभिप्रमित संज्ञक बना सके, तभी उसे व्रतों की दीक्षा देनी चाहिए। प्रतः हैं। इनके मध्य, उत्तराधर और विकट नाम भी हैं। स्पष्ट है कि इस ग्रंथ का उद्देश्य जनकल्याण के साथ उ ऊ अं अः ये चार स्वर तथा ङ, अंजण न म य व्यंजन नवागत शिष्य की परीक्षा करना ही है । इसका प्रचार भी दग्धसंज्ञक हैं। इनका विकट, संकट, अधर और अशुभ
साधुनों में रहा होगा। नाम भी है। प्रश्न में सभी प्रालिंगित अक्षर हों, तो प्रश्न
ऋषिपुत्र का नाम भी प्रथम श्रेणी के ज्योतिविदों में कर्ता की कार्यसिद्धि होती है।
परिगणित है । इन्हें गर्ग का पुत्र कहा गया है। गर्ग मुनि प्रश्नाक्षरों के दग्ध होने पर कार्यसिद्धि का विनाश
ज्योतिष के धुरन्धर विद्वान् थे, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
आश इनके सम्बन्ध में लिखा मिलता हैहोता है। उत्तर संज्ञक स्वर उत्तर-संज्ञक व्यंजनों में जैन प्रासोज्जगद्वंद्यो गर्गनामा महामनिः । संयुक्त होने से उत्तरतम और उत्तराधर तथा अधर स्वरों तेन स्वयं सुनिर्णीतः यः सत्पात्रः केवली। से संयुक्त होने पर उत्तर और अधर संज्ञक होते हैं । प्रधर एतज्ज्ञानं महाज्ञानं जैनषिभिरुदाहृतम् । संज्ञक स्वर दग्धसंज्ञक व्यंजनों में संयुक्त होने पर प्रधरा- प्रकाश्य शुद्धशीलाय कुलीनाय महात्मना । ११. अर्हच्चूडामणिसार,"गाथा १.८.
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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
२०६
सम्भवतः इन्हीं गर्ग के वंश में ऋपिपूत्र हए होगे। महाविराचार्य - ये धुरन्धर गणितज्ञ थे। ये राष्ट्रकूट इनका नाम ही इस बात का साक्षी है कि यह किसी ऋषि वश के अमोघवर्ष नप तुक के समय में हुए थे, अतः इनका के वंशज थे अथवा किसी मुनि के आशीर्वाद से उत्पन्न समय ई० सन् ८५० माना जाता है। इन्होंने ज्योतिषपटल हए थे। ऋषिपुत्र का एक ग्रथ निमित्त -शारत्र ही उपलब्ध और गणितसार-संग्रह नाम के ज्योतिष ग्रन्थों की रचना है। इनके द्वारा रची गयी एक सहिता का भी मदनरत्न की है। ये दोनों ही अन्य गणित ज्योतिष के है और इन नामक ग्रंथ में उल्लेख मिलता है। ऋषिपूत्र के उद्धरण ग्रंथो से इनकी विद्वत्ता का ज्ञान सहज ही प्रांका जा सकता बृहत्साहिता की महोत्पली टीका मे उपलब्ध है।
है। गणितसार के प्रारम्भ में गणित की प्रशंसा करते हुए ऋपिपुत्र का समय वराहमिहिर के पहले होना बताया है कि गणित के बिना संसार के किसी भी शास्त्र चाहिए । प्रतः ऋषिपुत्र का प्रभाव वराहमिहिर पर स्पष्ट की जानकारी नहीं हो सकती है। कामशास्त्र, गान्धर्व, है। यहां दो-एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया जायगा। नाटक, सूपशास्त्र, वास्तुविद्या, छन्दशास्त्र, अलंकार, काव्य, ससलोहिवण्णहोवरि संकुण इत्ति होइ णायथ्यो। तर्क, व्याकरण, कलाप्रवृति का पर्याय ज्ञान गणित के बिना संजामं पुण घोरं खज्जं सूरो णिवेदई ।
सम्भव नही है । अतः गणित विद्या सर्वोपरि है।
-ऋपिपुत्र निमित्तशास्त्र इस ग्रंथ में संज्ञाधिकार, परिकर्म-व्यवहार, कलाशशिरुधिरवणे भानो नभस्थले भवन्ति संग्रामाः । सवर्ण व्यवहार, प्रकीर्ण व्यवहार, राशि व्यवहार, मिश्रक
-वराहमिहिर व्यवहार, क्षेत्र-गणित व्यवहार, ज्ञातव्य व्यवहार एवं छाया अपने निमित्तशास्त्र में पृथ्वी पर दिखाई देने वाले व्यवहार नाम के प्रकरण हैं। मिथक व्यवहार में समकुप्राकाश में दृष्टिगोचर होने वाले और विभिन्न प्रकार के ट्टीकरण, विषम कुट्टीकरण और मिश्रक कुट्टीकरण शब्द-श्रवण द्वारा प्रकट होने वाले इन तीन प्रकार के प्रादि अनेक प्रकार के गणित हैं । पाटीगणित और रेखानिमित्तों द्वारा फलाफल का अच्छा निरूपण किया है। गणित की दृष्टि से इसमें अनेक विशेषतायें हैं। इस क्षेत्रवर्षोत्पात, देवोत्पात, रजोत्पात, उल्कोत्पात, गन्धर्वोत्पात व्यवहार प्रकरण में प्रायत को वर्ग और वर्ग को वृत्त में इत्यादि अनेक उत्पातों द्वारा शुभाशुभत्व की मीमामा बड़े परिणत करने के सिद्धान्त दिये गये है । समत्रिभुज, विषमसुन्दर ढंग से की गई है।
त्रिभुज, समकोण चतुर्भुज, विषमकोण चतुर्भुज, वृत्तक्षेत्र, ___ लग्नशुद्धि या लग्नकुडिका नाम की रचना हरिभद्र सूची व्यास, पचभुज क्षेत्र एवं बहुभुज क्षेत्रों का क्षेत्रफल की मिलती है। हरिभद्र दर्शन, कथा और प्रागम शास्त्र के तथा धनफल निकाला गया है। बहुत बड़े विद्वान् थे। इनका समय पाठवी शती माना ज्योतिप-पटल मे ग्रहों के चार क्षेत्र, सूर्य के भण्डल, माना जाता है। इन्होने १४४० प्रकरण ग्रन्थ रचे हैं। नक्षत्र और तारामों के संस्थान, गीत, स्थिति मौर इनकी अब तक ८८ रचनाओं का पता मुनि जिनविजयजी संख्या आदि का प्रतिपादन किया है। ने लगाया है। इनकी २६ रचनाएं प्रकाशित हो चुकी है। चन्द्रसेन के द्वारा 'केवल ज्ञान होरा' नामक महत्व__ लग्नशुद्धि प्राकृत भाषा में लिखी गयी ज्योतिष-रचना पूर्ण विशालकाय पथ लिखा गया है । यह ग्रन्थ कल्याणहै। इसमें लग्न के फल, द्वादश भावों के नाम, उनके वर्मा के पीछे का रचा गया प्रतीत होता है। इसके प्रकविचारणीय विषय, लग्न के सम्बन्ध में ग्रहों का फल, ग्रहों रण सारावली से मिलते-जुलते हैं, पर दक्षिण में रचना का स्वरूप, नवांश, उच्चांश मादि का कथन किया गया होने के कारण कर्णाटक प्रदेशों के ज्योतिष का पूर्ण प्रभाव है। जातकशास्त्र या होरा शास्त्र का यह प्रन्थ है । उप- है। इन्होंने ग्रंथ के विषय को स्पष्ट करने के लिए बीचयोगिता की दृष्टि से इसका अधिक महत्व है । ग्रहों के बीच में कन्नड़ भाषा का भी प्राश्रय लिया है। यह अन्य बल तथा लग्न की सभी प्रकार से शुद्धि, पाप ग्रहो का अनुमानतः चार हजार श्लोकों में पूर्ण हुमा हैं। पंथ .मभव, शुभ ग्रहों का सदभाव वणित है।
के प्रारम्भ में कहा गया है कि
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२१०, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
होरा नाम महाविद्या वक्तध्यं च भवद्धितम् । जातकशास्त्र सम्बन्धी रचना है। इस ग्रंथ में लग्न, ग्रह, ज्योतिर्निकसारं भषणं बुधपोषणम् ॥
ग्रहयोग एवं जन्म-कुण्डली सम्बन्धी फलादेश का निरूपण उन्होंने अपनी प्रशंसा भी प्रचुर परिमाण में की हैं- किया गया है । दक्षिण भारत में इस ग्रन्थ का अधिक मागमः सदृशो जैनः चन्द्रसेनसमो मुनिः। प्रचार है। देवलीसदशी विद्या दुर्लभा सचराचरे ।
चन्द्रोन्मीलन प्रश्न भी प्रश्न-शास्त्र की एक महत्वपूर्ण इस ग्रंथ में हेम प्रकरण, दाम्य प्रकरण, शिला प्रकरण
रचना है। इस ग्रन्थ के कर्ता के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात मृत्तिका-प्रकरण, वृक्ष-प्रकरण, कर्पास-गुल्म, बल्कल-तृण, रोम-चर्म-पट प्रकरण, संख्या प्रकरण, नष्ट द्रव्य प्रकरण,
नही है । ग्रंथ को देखने में यह अवश्य अवगत होता है कि
इस प्रश्न-प्रणाली का प्रचार खूब था । प्रश्नकर्ता के प्रश्ननिर्वाह प्रकरण, अपत्य प्रकरण, लाभालाभ प्रकरण, स्वर
वर्णो का संयुक्त, असंयुक्त, अभिधातित, अधिप्रमित, मालिंप्रकरण, स्वप्न प्रकरण, वस्तु प्रकरण, भोजन प्रकरण, देह
गित, और दग्ध-इन संज्ञानों में विभाजन कर प्रश्नों के लोह दिक्षा प्रकरण, अंजन विद्या प्रकरण एवं विष प्रकरण प्रादि है। ग्रन्थ को प्राद्योपान्त देखने से अवगत होता है
उत्तर में चन्द्रोन्मीलन का खण्डन किया गया है । "प्रोक्तं कि यह सहिता-विषयक रचना है, होगविषयक नहीं।
चन्द्रोन्मीलनं शुक्लवस्त्रस्तच्चाशुद्धम्" इससे ज्ञात होता है
कि यह प्रणाली लोकप्रिय थी। चन्द्रोन्मीलन नाम का जो श्रीधर-ये ज्योतिष-शास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान थे।
अन्य उपलब्ध है, वह साधारण है। इनका समय दशवी शती का अन्तिम भाग है । ये कर्णाटक प्रान्त के निवासी थे । इनकी माता का नाम अब्बोका उत्तर मध्यकाल में फलित ज्योतिष का बहुत विकास और पिता का नाम बलदेव शर्मा था। इन्होंने बचपन में हुग्रा । मुहूर्त जातक, संहिता, प्रश्न, सामुद्रिक शास्त्र प्रति अपने पिता से ही सस्कृत और कन्नड़-साहित्य का अध्ययन विषयों की अनेक महत्त्वपूर्ण रचनायें लिखी गयी हैं। इस किया था। प्रारम्भ में ये शैव थे, किन्तु बाद में जैन धर्मा- युग में सर्वप्रथम और प्रसिद्ध ज्योतिषी दुर्गदेव हैं। दुर्गदेव नुयायी हो गये थे । इनकी गणितसार मौर ज्योतिर्ज्ञान विधि के नाम से यों तो अनेक रचनायें मिलती है, पर दो रचसंस्कृत भाषा में तथा जातकतिलक कन्नड़ भाषा मे रच- नायें प्रमुख हैं-रिट्ठसमुच्चय और अर्घकाण्ड । दुर्गदेव का नायें है । गणितसार में अभिन्न गुणक, भागहार, वर्ग, वर्ग- समय सन् १०३२ माना गया है । रिट्ठसमुच्चय की रचना मूल, घन, घनमूल, भिन्न, समच्छेद, भागजाति, प्रभाग- अपने गुरु संयमदेव के वचनानुसार की है। ग्रंथ मे एक जाति, भागानुबन्ध, भागमात्र जाति, त्रैराशिक, सप्तराशिक, स्थान पर संयमदेव के गुरु संयमसेन और उनके गुरु माधव नवराशिक, भाण्डप्रतिभाण्ड, मिश्रक व्यवहार, एकपत्री- चन्द्र बताए गये हैं। रिट्ठसमुच्चय शौरसेनी प्राकृत में करण, सुवर्ण गणित, प्रक्षेपक गणित, समक्रय-विक्रय, श्रेणी- २६१ गाथाओं में रचा गया है। इसमें शकुन और शुभाव्यवहार, खातव्यवहार, चितिध्यवहार, काष्ठक व्यवहार, शुभ निमित्तों का संकलन किया गया है। लेखक ने रिष्टों
राशि-व्यवहार, एवं छाया व्यवहार मादि गणितों का के पिण्डस्थ, पदस्थ, पदस्थ और रूपस्थ नामक तीन भेद निरूपण किया है।
किए हैं। प्रथम श्रेणी में अंगुलियों का टूठया, नेत्र-ज्योति _ 'ज्योतिर्ज्ञानविधि' प्रारम्भिक ज्योतिष का प्रन्थ है। की हीनता, स्साशाम की न्यूनता, नेत्रों से लगातार जलइसमें व्यवहारोपयोगी मुहुर्त भी दिये गये हैं। प्रारम्भ में प्रवाह एवं जिह्वा न देख सकना मादि को परिगणित संवत्सरों के नाम, नक्षत्र-नाम, योग-करण, तथा उमके किया है। रितीय श्रेणी में सूर्य और चन्द्रमा का अनेकों शुभाशुभत्व दिये गये हैं। इसमें मास शोध, मासाधिपति- स्पों में दर्शन, प्रज्वलित दीपक को शीतल अनुभव करना, शेष, दिनशेष एवं दिनाधिपति शेष प्रादि गणितानयन की चन्द्रमा को त्रिभंगी रूप में देखना, चन्द्रलांछन का दर्शन अद्भुत प्रक्रियायें बतायी गयी है।
न होना इत्यादि को ग्रहण किया है। तृतीय में निजछाया, जातकतिलक-कन्नड़ भाषा में लिखिड होश या परछाया तथा छायापुरुष का वर्णन किया है। प्रश्नाभर,
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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
२११ शकून प्रौर स्वप्न प्रादि का भी विस्तार-पूर्वक वर्णन किया सिद्धि प्रसिद्धि प्रादि का विचार विस्तार पूर्वक किया गया गया है।
है। प्रश्नशास्त्र की दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रर्धकाण्ड में तेजी-मन्दी का ग्रहयोग के अनुसार है। विचार किया गया है। यह ग्रंथ भी १४६ प्राकृत गाथानों उदय प्रभदेव - इनके गुरु का नाम विजयसेन सूरि में लिखा गया है।
था। इनका समय ई. सन् १२२० बताया जाता है। मल्लिसेन-ये संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के इन्होने ज्योतिष विषयक, प्रारम्भ सिद्घि, अपरनामा व्यवप्रकाण्ड विद्वान थे। इनके पिता का नाम जिनसेन सूरि हारचर्या ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ पर वि० सं० था। ये दक्षिण भारत के धारवाड़ जिले के अन्तर्गत गदक- १५१४ में रत्नशेखर सूरि के शिष्य हेमहंस मणि ने एक तालुका नामक स्थान के रहने वाले थे। इनका समय ई० विस्तृत टीका लिखी है । इस टीका मे इन्होंने मुहर्त संबंधी सन् १०४३ माना गया है। इनका मार्यसद्भाव नामक
___ साहित्य का अच्छा संकलन किया है। लेखक ने प्रथ के ज्योतिषग्रथ उपलब्ध है । प्रारम्भ मे ही कहा है
प्रारम्भ में ग्रंथोक्त अध्यायों का संक्षिप्त नामकरण निम्न
प्रकार दिया है। सुग्रीवादिमनीन्द्रः रचितं शास्त्रं यदार्यसभावम् । तत्सम्प्रत्यार्याभिविरच्यते मल्लिषेणेन ॥
वैवज्ञदीपकालिका व्यवहारचर्यामारम्मसिद्धिमदयप्रभ
देवानाम शास्तिक्रमेण तिथिवारमयोगराशिगोचर्य-कार्याध्वजघूमसिंहमण्डल वृषखरगजवायसा भवन्त्याः । मायन्ते ते विद्वदभिरिहैकोत्तरगणनया चाष्टो।
गमवास्तुविलग्नोमिः । इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि इनके पूर्व भी सुग्रीव हेमहंसगणि ने व्यवहारचर्या नाम की सार्थकता दिखप्रादि जैन मुनियों के द्वारा इस विषय की और रचनायें लाते हुए लिखा हैभी हई थीं, उन्हीं के सारांश को लेकर प्रार्यसदभाव की "व्यवहार शिष्टजनसमाचारः शुभतिथिवारादिष रचना की गई है। इस कृति में १६५ पार्याय और अन्त शुभकार्यकरणादिरूपस्तस्य चर्या ।" यह ग्रन्थ 'महर्त चिता. मे एक गाथा, इस तरह कुल १६६ पद्य है । इसमे ध्वज,
मणि' के समान उपयोगी और पूर्ण है। महर्त विषय की घुम, सिंह, मण्डल, वृष, खर, गज और वायस-इन पाठों जानकारी इस अकेले ग्रंथ के अध्ययन से की जा सकती पार्यों के स्वरूप और फलादेश वणित है।
भट्टवोसरि-'प्रायज्ञान' तिलक, नामक ग्रन्थ के रच- राजादित्य - इनके पिता का नाम श्रीपति और माता यिता दिगम्बराचार्य दामनन्दी के शिष्य भट्टवोसरि है। का नाम वसन्ता था। इनका जन्म कोडिमण्डल के 'यविनयह प्रश्नशास्त्र का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमे २५ प्रकरण बाग' नामक स्थान में हुआ था। इनके नामान्तर राज
और ४१५ गाथायें है। ग्रन्थकर्ता की सर्वोपज्ञ वृत्ति भी वर्म, भास्कर और वाचिराज बताये जाते है। ये विष्णहै। दामनन्दी का उल्लेख श्रवणबेल्गोल के शिलालेख नं० वर्धन राजा की सभा के प्रधान पण्डित थे, अतः इनका ५५ मे पाया जाता है। ये प्रभाचन्द्राचार्य के सधर्मा या समय सन् ११२० के लगभग है । यह कवि होने के साथगुरुभाई थे। अतः इनका समय विक्रम सम्वत की ११वीं साथ गणित के माने हुए विद्वान थे। शती है और भट्टवोसरि का भी इन्ही के पास-पास का "कर्णाटक-कवि-चरित" के लेखक का कथन है कि समय है।
कन्नड़ साहित्य में गणित का प्रथ लिखने वाला यह सबसे इस ग्रन्थ मे ध्वज, धूम, सिंह, गज, खर, श्वान, वृष, बड़ा विद्वान् था। इनके द्वारा रचित व्यवहारगणित, क्षेत्र. ध्वांक्ष-इन पाठ पार्यों द्वारा प्रश्नों के फलादेश का विस्तृत गणित, व्यवहाररत्न तथा जैन-गणित-मूत्रटीकोदाहरण और विवेचन किया है। इसमें कार्य, प्रकार्य, जय-पराजय, लीलावती-ये गणित ग्रन्थ उपलब्ध है।
१२. प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार, प्रस्तावना, पृ० ६५-६६ तथा पुरातन वाक्य सूची
की प्रस्तावना, पृ० १०१-१०२ ।
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२१२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
पद्मप्रभसूरि-नागौर की तपागच्छीय पट्टावली से संवत्सरफल, ग्रहद्वेष, मेघों के नाम, कुलवर्ण-ध्वनि-विचार, पता चलता है कि ये वादिदेव सूरि के शिष्य थे । इन्होने देशवृष्टि, मासफल, राहुचन्द्र, १४ नक्षत्रफल, संक्रान्ति-फल भुवनदीपक या ग्रहभावप्रकाश नामक ज्योतिष का ग्रन्थ आदि विषयों का निरूपण किया गया है। लिखा है। इस ग्रंथ पर सिंहतिलक सूरि ने वि० सं० १३- महेन्द्रसूरि-ये भूपुपुर निवासी मदनसूरि के शिष्य ३६ में एक विवृत्ति लिखी है । "जैन साहित्य नो इति· तथा फिरोजशाह तुगलक के प्रधान सभा-पण्डित थे। इन्होंने हास" नामक ग्रंथ मे इन्होने इनके गुरु का नाम विबुधप्रभ नाड़ीवृत्ति के धरातल में गोल पृष्ठस्थ सभी वृत्तों का परिसूरि बताया है। भुवनदीपक का रचना काल वि० सं० णमन करके यन्त्र राज नामक ग्रह-गणित का उपयोगी ग्रंथ १२९४ है। यह ग्रंथ छोटा होते हुए भी अत्यन्त महत्व- लिखा है। इनके शिष्य मलयेन्दु सूरि ने इस पर सोदाहरण पूर्ण है। इसमें ३६ द्वारा प्रकरण है। राशिस्वामी, उच्च- टीका लिखी है। इस ग्रंथ में परमाक्रान्ति २३ अंश ३५ नीचत्व, मित्र-शत्रु, राहु का गह, केतु स्थान, ग्रहो के स्व. व.ला मानी गई है। इसकी रचना शक सम्वत् १२६३ में हुई रूप, द्वादश भावो से विचारणीय बातें, इष्टकाल ज्ञान, है। इसमें गणिताध्याय, यन्त्र-घटनाध्याय, यन्त्र-रचनालग्न सम्बन्धी विचार, विनष्टगृह, राजयोग का कथन ध्याय, यन्त्र शोधनाध्याय और यन्त्र-विचारणाध्याय-ये लाभालाभ, विचार लग्नेश की स्थिति का फल. प्रश्न द्वारा पांच अध्याय हैं। गर्भ-विचार, प्रदन द्वारा प्रसव, ज्ञान, यमज्ञ विचार. मत्य- "क्रमोत्कमज्यानयन, भुजकोटिज्या का चापसाधन, योग, चौर्यज्ञान, द्रेष्काणादि के फलो का विचार विस्तार क्रान्तिसाधक युज्याखंडसाधन, युज्याफलानयन, सौम्यसे किया है। इसमें कुल १०० श्लोक है। इसकी भाषा गणित के विभिन्न गणितों का साधन, अक्षांश से उन्नतांश संस्कृत है।
साधन, ग्रंथ के नक्षत्र ध्रुवादिक से अभीष्ट वर्ष के ध्रुवानरचन्द्र उपाध्याय-ये कातदहगच्छ के सिंहसरि के दिक का साधन, नक्षत्रों के हक कर्मसाधन, द्वादश राशियों शिष्य थे। उन्होने ज्योतिष शास्त्र के कई ग्रथो की रचना के विभिन्न वृत्त सम्बन्धी गणितों का साधन, इष्ट शंकु की है। वर्तमान मे इनके बेड़ा जातक वृत्ति, प्रश्न शतक, से छायाकरण साधन, यन्त्रशोधन प्रकार और उसके अनुप्रश्न-चतुविश तिवा, जन्म-समटीका, लग्न विचार और सार विभिन्न यन्त्रों द्वारा सभी ग्रहों के साधन का गणित ज्योतिष प्रकाश उपलब्ध है। नरचन्द्र ने सं० १३२४ में बहुत सुन्दर ढंग से बताया गया है। इस ग्रथ मे पचांगमाघ सुदी ८ रविवार को बेड़ा जातक वत्ति की रचना निर्माण करने की विधि का निरूपण किया है। १०५० श्लोक प्रमाण में की है । ज्ञानदीपिका नाम की 'भद्रबाहु-संहिता' अष्टांग निमित्त का एक महत्वपूर्ण एक अन्य रचना भी इनकी मानी जाती है । ज्योतिष- ग्रन्थ है। इसके प्रारम्भ के २७ अध्यायो में निमित्त और प्रकाश संहिता और जातक सम्बन्धी महत्वपूर्ण रचना है। संहिता विषय का प्रतिपादन किया गया है । ३०वें अध्याय
अट्ठकवि या अहंदास-ये जैन ब्राह्मग थे। इनका में अरिष्टों का वर्णन किया गया है। इन प्रन्थों का समय ईस्वी सन् १३०० के आसपास है । प्रहंदास के पिता निर्माण श्रुतकेवली भद्रबाहु के वचनों के आधार पर हुआ नागकुमार थे। अर्हदास कन्नड़ भाषा के प्रकाण्ड विद्वान है। विषय निरूपण और शैली की दृष्टि से इसका रचनाथे। इन्होने कन्नड़ मे अट्ठमत नामक ज्योतिष का महत्व- काल ८.६वी शती के पश्चात् नहीं हो सकता है। हाँ, पूर्ण ग्रन्थ लिखा है । शक संवत की चौदहवी शताब्दी में लोकोपयोगी रचना होने के कारण उसमें समय-समय पर भास्कर नाम के प्रान्ध्र कवि ने इस ग्रंथ का तेलगू भाषा संशोधन और परिवर्तन होता रहा है। में अनुवाद किया था। अटुमत मे वर्षा के चिह्न, प्राक- इस ग्रंथ में व्यञ्जन, अंग, स्वर, भौम, छन्न, अन्तस्मिक लक्षण, शकुन, वायुचक्र, गृह-प्रवेश, भूकम्प, भूजात- रिक्ष, लक्षण एवं स्वप्न-इन पाठों निमित्तों का फल-निरूफल, उत्पात-लक्षण, परिवेश-लक्षण, इन्द्रधनुर्लक्षण, प्रथम- पणसहित विवेचन किया गया है। उल्का, परिवेशण, विद्युत, गर्भ-लक्षण, द्रोणसंख्या, विद्युत-लक्षण, प्रतिसूर्य-लक्षण, अभ्र, सन्ध्या, मेष, बात, प्रवर्षण, गन्धर्वनगर, गर्भ लक्षण
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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सर्वेक्षण
यात्रा, उत्पात, ग्रहचार, ग्रहयुद्ध, स्वप्न, मुहूर्त, तिथि, प्रारंभ में १० श्लोको मे लर 'ज्ञान का निरूपण है । इस प्रककारण, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु, इन्द्रसम्पदा, लक्षण, रण में भावो के स्वामी, ग्रहो के छः प्रकार के बल, दष्टिव्यञ्जन, चिह्न, लग्न, विद्या, औषध, प्रभृति सभी निमित्तो विचार, शत्रु, मित्र,- वक्री माश्री, उच्च-नीच, भवों की के बलाबल, विरोध और पराजय आदि विषयों का संज्ञाएं, भावराशि, ग्रहबल-विचार प्रादि का विवेचन विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। यह निमित्त-शास्त्र किया गया। द्वितीय प्रकरण मे योगविशेष-धनी, सूखी,. का बहुत ही महत्वपूर्ण और उपयोगी ग्रंथ है । इससे वर्षा, दरिद्र, राज्यप्राप्ति, सन्तानप्राप्ति, विद्याप्राप्ति प्रादि का कृषि, धान्यभाव, एव अनेक लोकोपयोगी बातों की जान- कथन है । तृतीय प्रकरण में, निधिप्राप्ति घर या जमीन कारी प्राप्त की जा सकती है।
के भीतर रखे गए धन और उस धन को निकालने की केवलज्ञान प्रश्न चड़ामणि के रचयिता समन्तभद्र का विधि का विवेचन है । यह प्रकरण बहुत ही महत्वपूर्ण है। समय १३वी शती है। ये समन्त विजयत्र के पुत्र थे। इतने सरल और सीधे ढंग से इस विषय का निरूपण विजयपत्र के भाई नेमिचन्द्र ने प्रतिष्ठातिलक की रचना अन्यत्र नहीं है। चतुर्थ प्रकरण भोजन और पंचम ग्रामप्रानन्द संवत्सर मे चैत्रमास की पंचमी को की है । अतः पृच्छा है । इन तीनो प्रकरणों में नाम के अनुसार विभिन्न समन्तभद्र का जन्म समय १३वी शती है । इस ग्रथ में दृष्टियो से विभिन्न प्रकार के योगो का प्रतिपादन किया धातु, मूल, जीव, नष्ट, मुष्टि, लाभ, हानि, रोग, मृत्यु, गया है । षष्ठ-पुत्र-प्रकरण है, इसमें सन्तान-प्राप्ति का भोजन, शयन, शकुन, जन्म, कर्म, अस्त्र, शस्त्र, वृष्टि, समय, सन्तान-सख्या, पुत्र-पुत्रियो की प्राप्ति मावि का अतिवृष्टि, अनावष्टि. सिद्धि, असिद्धि प्रादि विषयो का कथन है । सप्तम प्रकरण में छठे भाव से विभिन्न प्रकार प्ररूपण किया गया है। इस ग्रंथ मे अच ट त प य श के रोगों का विवेचन, अप्टम मे सप्तम भाव से दाम्पत्य अथवा पा ए क च ट प य श इन अक्षरो का प्रथम वर्ग, सबध और नवम में विभिन्न दृष्टियो से स्त्री-सूख का प्रा ए ख छठ व फ र प इन अक्षरो का द्वितीय वर्ग, 3 विचार किया गया है । दशम प्रकरण स्त्री-जातक में यो ग ज ड द ब ल स इन अक्षरो का तृतीय वर्ग ई प्रो स्त्रियों की दुष्टि से फलाफल का निरूपण किया गया है। घज्ञ म वहन इन अक्षरो का चतुर्थ वर्ग और उऊण एकादश मे परचक्रगमन, द्वादश में गमनागमन, त्रयोदश मे न भ अ अः इन अक्षरों का पंचम वर्ग बताया गया है। युद्ध, चतुर्दश में सन्धिविग्रह, पंचदश मे वृक्षज्ञान, षोडश प्रश्न कर्ता के वाक्य या प्रश्नाक्षरों को ग्रहण कर संयुक्त. मे ग्रह दोष, ग्रह-पीड़ा, सप्तदश मे पायु, अष्टादश में प्रवअसंयुक्त, अभिहित और अभिधातित-इन पाचों द्वारा तथा हण और एकोनविश मे प्रव्रज्या का विवेचन किया है। प्रालिंगित अभिधुमित और दग्ध-इन तीनों क्रियाविशेषणों बीसवे प्रकरण में राज्य या पदप्राप्ति, इक्कीसवे मे वष्टि. द्वारा प्रश्नो के फलाफल का विचार किया गया है। इस वाईसवे मे अर्धकाण्ड, तेईसवें में स्त्रीलाभ, चौबीसवें में ग्रन्थ में मूक प्रश्नो के उत्तर भी निकाले गये है। यह नष्ट वस्तु की प्राप्ति एव पच्चीसवें में ग्रहो के उदयास्त. प्रश्नशास्त्र की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है।
सुभिक्ष-दुभिक्ष, महर्ष, समर्घ और विभिन्न प्रकार से तेजीहेमप्रभ-इनके गुरु का नाम देवेन्द्र मूरि था । इनका
मन्दी की जानकारी बतलायी गयी है। इस ग्रन्थ की समय चौदहवीं शती का प्रथम पाद है। सम्बत् १३०५ में प्रशसा स्वय ही इन्होंने की है। त्रैलोक्य प्रकाश रचना की गयी है । इनकी दो रचनायें श्रीमद्देवेन्द्रसूरीणां शिष्येण ज्ञानवर्षणः । उपलब्ध है-त्रैलोक्य प्रकाश और मेघमाला।"
विश्वप्रकाशकश्चके श्रीहेमप्रभसूरिणा ॥ - अलोक्यप्रकाश बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें ११६० श्लोक है। इस एक ग्रन्थ के अध्ययन से फलित श्री देवेन्द्र सूरि के शिष्य श्री हेमप्रभ सूरि ने विश्वज्योतिप की अच्छी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। प्रकाशक और ज्ञानदर्पण इस ग्रन्थ को रचा।
१३. जन ग्रन्थावली, पृ० ३५६.
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२१४, वर्ष २८, कि० १
मेघमाला की श्लोक संख्या १०० बतायी गयी है । प्रो०एच० डी वेलंकर ने जैन ग्रन्थावली में उक्त प्रकार काही निर्देश किया है ।
रत्नशेखरसूरि ने दिनशुद्धि दीपिका नामक एक ज्योतिम्र ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखा है। इनका समय १५ वीं शती बताया जाता है । ग्रन्थ के अन्त में निम्न प्रकाशित गाथा मिलती है। हिरियरसेण गुरुपट्ट नाहीसरिहेमतिलयसूरीणं ।
पसाया एसा रयणसिहरसूरिणा विसिया ॥४४॥
सेन गुरू के पट्टर श्री हेमतिलक सूरि के प्रसाद से रत्नशेखर सूरि ने दिनशुद्धि प्रकरण की रचना की ।
प्रनेकान्त
इसे 'मुनिमणभवणपयांस' प्रर्थात् मुनियों के मन रूपी भवन को प्रकाशित करने वाला कहा है। इसमें कुल १४४ गाथाएं हैं । इस ग्रन्थ में वारद्वार, कालहोरा, वारप्रारम्भ, कुलिकादियोग, वर्ज्यप्रहर, नन्दभद्रादि संज्ञायें, क्रूर तिथि, वज्येतिथि, दग्धतिथि, करण, भद्राविचार, नक्षत्रद्वार, राशिद्वार, लग्नद्वार, चन्द्र अवस्था, शुभरवियोग, राजयोग, श्रानन्दादि योग, अमृतसिद्धियोग, उत्पादियोग, लग्नविचार प्रयाणकालीन शुभाशुभ विचार, वस्तु मुहूर्त, षडष्टकादि, राशिकूट, नक्षत्रयोनि विचार, विविध मूहूर्त, नक्षत्र- दोषविचार, छायासाधन और उसके द्वारा फलादेश एवं विभिन्न प्रकार के शकुनों का विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ व्यवहारोपयोगी है ।
चौदहवीं शताब्दी में ठक्कर फेरू का नाम भी उल्लेखनीय है । इन्होंने गणितसार और जोइमसार ये दो महत्व - पूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । गणितसार में पाटीगणित और परिकर्माष्टक की मीमांसा की गई है। जोइससार मे नक्षत्रों की नामावलि से लेकर ग्रहों के विभिन्न योगों का सम्यक् विवेचन किया गया है।
उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त हर्षकीर्ति कृत जन्मपत्रपद्धति, जिनवल्लभ कृत स्वप्नसंहिता जयविजय कृत शकुनदीपिका, पुण्य तिलक कृत ग्रहायुसाधन, गर्गमुनि कृत पासावली, समुद्र कवि कृत सामुद्रिक शास्त्र, मानसागरकृत मानसागरीपद्धति, जिनसेन कृत निमित्तदीपक आदि ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । ज्योतिषसार ज्योतिषसंग्रह, १४. केवलज्ञान प्रश्नचूडामणि का प्रस्तावना भाग ।
शकुन संग्रह, शकुनदीपिका, शकुनविचार, जन्मपत्री पद्धति, गृहपाल नामक भनेक ऐसे सग्रह ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनके कर्ता का पता ही नहीं चलता है ।
अर्वाचीन काल में कई अच्छे ज्योतिर्विद् हुए हैं जिन्होंने जैन ज्योतिष साहित्य को बहुत आगे बढ़ाया है।" यहाँ प्रमुख लेखकों का उनकी कृतियों के साथ परिचय दिया जाता है। इस युग में सबसे प्रमुख है मेघविजय गणि । ये ज्योतिष शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इनका समय वि० सं० १०३६ के आस पास माना गया है । इनके द्वारा रचित मेघ महोदय या वर्षप्रबोध, उदयदीपिका, या रमलशास्त्र और हस्तसंजीवन आदि मुख्य हैं । वर्षप्रबोध में १५ अधिकार और ३५ प्रकरण हैं। इसमें उत्पात प्रकरण, कर्पूरचक्र, पद्मिनीचक मण्डलूपकरण, सूर्य और चन्द्रग्रहण का फल, मास, वायु-विचार, सवत्सर का फल, ग्रहों के उदयास्त और वक्री अयन मास का विचार, संक्रान्ति फल, वर्ष के राजा, मंत्री, घान्थेश, रमेश आदि का निरूपण, आय व्यय विचार, सर्वतोभद्रचक्र एवं शकुन आदि विषयों का निरूपण किया गया है । ज्योतिष विषय की जानकारी प्राप्त करने के लिए यह रचना उपयोगी है।
हस्तसजीवन में तीन अधिकार है। प्रथम दर्शनाधिकार में हाथ देखने की प्रक्रिया, हाथ की रेखानों पर से ही मास, दिन, घड़ी, पल आदि का कथन एवं हस्तरेखानों के आधार पर से ही लग्नकुण्डली बनाना तथा उसका फलादेश निरूपण करना वर्णित है। द्वितीय स्पर्शनाधिकार में हाथ की रेखाओं के स्पर्श पर से ही समस्त शुभाशुभ फल का प्रतिपादन किया गया है। इस अधिकार में मूल प्रश्नों के उत्तर देने की प्रक्रिया भी वर्णित है । तृतीय विमर्शनाधिकार में रेखानों पर से ही श्रायु, सन्तान, स्त्री, भाग्योदय, जीवन की प्रमुख घटनायें, सांसारिक सुख, विद्या, बुद्धि, राज्यसम्मान और पदोन्नति का विवेचन किया गया है । यह ग्रंथ सामुद्रिक शास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और पठनीय हैं।
उभयकुशल - इनका समय १८वीं शती का पूर्वार्द्ध है । यह फलित ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे । इन्होंने बिवाह
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जैन ज्योतिष-साहित्य : एक सबक्षण
२१५
पटल और चमत्कारचिन्तामणि टबा नामक दो ग्रंथों की बताया जाता है। ये ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और रचना की है। ये महर्त और जातक, दोनों ही विषयों के दर्शन शास्त्र के धुरन्धर विद्वान थे। इन्होंने ग्रहलाघव के पूर्ण पंडित थे। चिन्तामणि टवा में द्वादश भावों के अनुसार ऊपर वातिक नाम की टीका लिखी है। वि० सं० १०६२ ग्रहों के फलादेश का प्रतिपादन किया गया है। विवाह में जन्मकुण्डली विषय को लेकर "यशोराज-पद्धति" नामक पटल में विवाह के महूर्त और कुण्डली मिलान का सागो- एक व्यवहारोपयोगी ग्रंथ लिखा है । यह ग्रन्थ जन्मकुण्डली पांग वर्णन किया गया है।
की रचना के नियमों के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालता
है। उत्तरार्द्ध में जातक पद्धति के अनुसार सक्षिप्त फल लब्धचन्द्रगणि-ये खरतर-गच्छीय कल्याणनिधान
बताया है। के शिष्य थे। इन्होंने वि० सं० १०५१ में कार्तिक मास में जन्मपत्री-पद्धति नामक एक व्यवहारोपयोगी ज्योतिष
इनके अतिरिक्त विनयकुशल, हरिकुशल, मेघराज, का ग्रन्थ बनाया है। इस ग्रन्थ में इष्टकाल, मया, भयोग,
जिनपाल, जयरत्न, सूरचन्द्र प्रादि कई ज्योतिषियों की लग्न, नवग्रहो का स्पष्टीकरण, द्वादशभाव, तात्कालिक
ज्योतिष सम्बन्धी रचनायें उपलब्ध है। जैम ज्योतिष चक्र, दशबल, विंशोत्तरी दशा साधन आदि का विवेचन
साहित्य का विकास आज भी शोष-टीकामों का निर्माण
एवं संग्रह-ग्रन्थों के रूप में हो रहा है। संक्षेप में प्रककिया गया है।
गणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमितिगणित, प्रतिबाधती मनि-ये पाश्व-चन्द्रगच्छीय शाखा क मुनि भागणित, पंचाग निर्माण गणित, जन्मपत्र निर्माण गणित थे। इनका समय वि० सं० १०८३ माना जाता है। प्रादि गणित-ज्योतिष के अंगों के साथ होराशास्त्र, इन्होंने तिथिसारिणी नामक ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ
सहिता," मुहूर्त सामुद्रिक शास्त्र, प्रश्नशास्त्र, स्वप्नशास्त्र, लिखा है। इसके अतिरिक्त इनके दो-तीन फलित ज्योतिप ।
निमित्तशास्त्र, रमलशास्त्र, पासाकेवली प्रति फलित के भी मुहर्त सम्बन्धी ग्रन्थ उपलब्ध है। इनका सारणी
अगों का विवेचन जैन ज्योतिष में किया गया है। जैन ग्रन्थ, मकरन्द सारणी के समान उपयोगी है।
ज्योतिष साहित्य के अब तक पांच सौ ग्रन्थों का पता लग यशस्वतसागर-इनका दूसरा नाम जसवंतसागर भी चुका है।"
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महावीर-वाणी
उत्तम अति मिलने पर मी श्रद्धा का होना दुर्लमतर , मिथ्यात्वोपासक जन हैं, मत कर प्रमाद, गौतम ! क्षण-मर । धार्मिक श्रदा पा फिर धर्म निमाने वाले दुलं मतर , काम-गृद्ध बहुजन है, भतः न कर प्रमाद, गौतम क्षण-मर ॥
-उत्तराध्ययन-सूत्र पद्यानुवाद-मुनि श्री मांगीलाल 'मुकुस'
१५. भद्रबाहु-संहिता का प्रस्तावना अंश । १६. महावीर स्मृतिग्रन्थ के अन्तर्गत "जैन ज्योतिष की
व्यवहारिकता" शीर्षक निबन्ध, पृ. १६६-१६७ ।
१७. वर्णी-अभिनन्दम-ग्रन्थ के अन्तर्गत "ज्योतिष का
पोषक जैन ज्योतिष", पृ. ४७५-४६३
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स्यादवाद का इतिहास
श्री मिश्रीलाल जैन, एडवोकेट, गुना (म०प्र०)
स्याद्वाद विषयक दार्शनिक साहित्य के इतिहास पर घान आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रस्तुत नहीं किया। द्वितीय दृष्टिपात करने पर भगवती सूत्र मे ही 'सिय अस्थि, सिय टीकाकार जयसेन ने इसका रहस्योद्घाटन किया है। पत्थि सिय अक्तव्वं ।'-इन तीन भागों का निर्देश प्राप्त वे लिखते है कि स्यादस्ति यह वाक्य सकलवस्तु का बोध होता है। इसके उपरान्त प्राचार्य कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय कराता है, अतः प्रमाण वाक्य है तथा स्यादस्त्येव द्रव्यं पौर प्रवचनसार में एक-एक गाथा देकर सातों भागों के यह वाक्य वस्तु के एक धर्म का वाचक है, अतः नयवाक्य नाम निर्देश किए है। दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट सप्तभंगी है। के क्रम में अन्तर है। पंचास्तिकाय में स्यावाद का निर्देश स्थावस्तीति सकलवस्तुग्राहकत्वात् प्रमाणवाक्यं । करने वाली गाथा इस प्रकार है
स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वान्नयवाक्यम् ॥ सिय प्रत्यि त्थि उहवयं प्रवत्तवं पुणो य तत्तिवयं ।
प्रवचनसार की टीका मे इसे और स्पष्ट करते है कि दव्वं खु सत्तभंग प्रावेसवसेण संभवदि ।। पंचास्तिकाय मे स्यादस्ति इस प्रमाण वाक्य द्वारा प्रमाण ___ जो द्रव्य अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से है, वही सप्तभंगी तथा प्रवचनसार में स्यादस्त्येव वाक्य द्वारा द्रव्य पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से नहीं है। वही प्रमाण सप्तभंगी तथा प्रवचनसार में स्यदस्त्येव वाक्य में द्रव्य है और नहीं भी है। इस प्रकार उभयरूप है। वहीं एवकार का ग्रहण नय सप्तभंगी को बतलाने के लिए किया द्रव्य एक साथ कथन मे नही आता अर्थात् प्रवक्तव्य है। गया है। वही द्वव्य है पर कहने में नही आता, वही द्रव्य नहीं हैं पर्व-पंचास्तिकाये स्थादस्तीत्यादि प्रमाणवाक्येन प्रमाणऔर कहने में नही पाता, वह द्रव्य है भी और नही भी सप्तभंगी व्याख्याता । अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकार ग्रहण है, पर कहने में नहीं आता है। इस प्रकार द्रव्य की सप्त तन्नयज्ञापनार्थमिति भावार्थः । भंगों द्वारा विवेचना संभव है।
प्राचार्य समन्तभद्राचार्य की प्राप्तमीमांसा में केवल प्रवचनसार में प्राचार्य कहते है कि किसी पर्याय से
नयसप्तभंगी का वर्णन है, प्रमाण सप्तभंगी का नहीं । अन्त उत्पाद और किसी से विनाश, सर्व पदार्थमात्र के होता है में प्राचार्य श्री का कथन है कि एकत्व अनेकत्व प्रादि और किसी पर्याय से पदार्थ वास्तव मे ध्रुव है। विकल्पों में भी नय विशारद को उक्त सप्तभगी की योजना उप्पादो व विणासो विज्जवि सत्वस्स अट्ठजादस्स। उचित रीति से कर लेनी चाहिए। इस ग्रन्थ में सत्पज्जाएण दु केणवि अट्ठो खलु होदि सम्भूदो ॥ असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, द्वैत-अद्वैत, देव-पुरुषार्थ
प्राचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन प्रवचनसार के टीका- आदि अनेक दष्टिकोणों से जैन दष्टि का सुन्दर समन्वय कार है । प्रवचनसार के पाठ से दोनों टीकाकारों ने एवकार प्रस्तुत किया गया है। (ही) ग्रहण किया है। प्राचार्य अमृतचन्द्र पंचास्तिकाय देव और पुरुषार्थ के प्रचलित मतभेद के सन्दर्भ में को टीका में स्यादस्ति द्रव्यं (स्यात् द्रव्य है) और प्रवचन- आप्तमीमासा मे समन्तभद्र स्वामी ने लिखा है-न कोई सार की टीका में स्यादस्त्येव (कथंचित है ही) लिखते कार्य देव से होता, न पुरुषार्थ से। दोनों रस्सियों से दधिहैं । प्राचार्य कुन्दकुन्द ने भिन्न-भिन्न ग्रन्थो मे पथक्-पृथक मंथन होता है । जहाँ बद्धिपूर्वक प्रयत्न के प्रभाव में फलदष्टि से व्याख्यान क्यों दिया? इस प्रश्न का कोई समा- प्राप्ति हो, वहाँ देव को प्रधान तथा पुरुषार्थ को गौण तथा
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स्यावाद का इतिहास
२१७ जहाँ बुद्धिपूर्वक कार्य से सिद्धि हो, वहां पुरुषार्थ को प्रधान, बौद्धों के माक्रमण से जैन दर्शन की रक्षा का भगीरथ दैव को गौण माना जायेगा।
प्रयत्न किया। इसकी अनेकांत-जयपताका और अनेकांतवादसिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति-तर्क के नयकांड में नय- प्रवेश इसके लिए प्रमुखरूप से द्रष्टव्य है। सप्तभंगी का ही वर्णन किया है। स्याद्वाद सप्तभगी विक्रम की ११ वीं शताब्दी में हेमचन्द्रसूरि ने स्याद् के वर्तमान रूप के लिए जैन दर्शन दोनों प्राचार्यों का वादरत्नाकर तथा मुनिचन्द्र सूरि ने अनेकांत-जयपताका ऋणी है । जैन दर्शन के इस स्यादवाद-सिदधान्त से समस्त टिप्पणग्रन्थों की रचना की। जैनेतर दृष्टियों का वस्तुस्पर्शी समन्वय स्वतः हो जाता है धर्मभूषण यति ने न्यायदीपिका रची। १८वीं शती इन दोनों प्राचार्यों ने केवल नय-सप्तभंगी का ही वर्णन में उपाध्याय यशोविजय जी का नाम उल्लेखनीय है । किया है, प्रमाणसप्तभंगी का नहीं। यद्यपि उक्त प्राचार्यों इन्होंने नव्य-न्याय की शैली में अनेक ग्रंथों का निर्माण के ग्रंथों का सूक्ष्म परीक्षण करने पर प्रमाण-सप्तभंगी के किया। विमलदास की सप्तभंगीतरंगिणी सप्तभंगी का बीजभूत वाक्यों का अन्वेषण किया जा सकता है; तथापि प्रतिपादन करने वाली अनूठी रचना है। प्रमाणसप्तभंगी का सर्वप्रथम स्पष्ट निर्देश करने का श्रेय संक्षेप में उपर्युक्त ग्रन्थ ही स्याद्वाब को प्रतिपाद्य भट्टाकलंक को ही प्राप्त है। प्रकलंक देव ने राजवातिक विषय बनाने वाले प्रमुख ग्रंथ है। और विद्यानंदि ने श्लोकवार्तिक में प्रमाण सप्तभंगी और प्राचार्य समन्तभद्र की प्राप्तमीमांसा में प्रमाण-सप्तऔर नयसप्तभंगी का पृथक-पृथक वर्णन किया है। विक्रमी
क्रम भंगी तथा नयसप्तभंग्री दोनों का संकेत मिलता है। वे की छठी शताब्दी में पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि तथा
लिखते हैं कि प्रापका युगपत सर्व पदार्थों का प्रतिभासनरूप मल्लवादि ने नयचक्र नामक बृहद् ग्रन्थों की रचना की।
तत्त्वज्ञान प्रमाणभूत है, क्योंकि वह स्यादवाद तथा नयों से नयचक्र मे नय के विविध भंगो द्वारा जैमेतर दष्टियों के
संस्कृत हो रहा है। समन्वय का सफल प्रयत्न हुआ है।
तत्वज्ञानं प्रमाणं ते पुगपत सर्वभासनं । पाठवीं शताब्दी के एक और महान प्राचार्य है-हरि- क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्यादव बनयसंस्कृतम् ॥ भद्रसूरि जिन्होंने विविध शास्त्र तथा काव्य-ग्रन्थों की सर्जना कर मस्तिष्क की प्रौढ़ता और हृदय की सरसता पृथ्वी राज मार्ग, का परिचय किया है। इन्होंने जनेतर विद्वानों विशेषतः गुना (म० प्र०)
000
महावीर-वाणी पका हुमा तरु-पत्र ज्यों कि गिर जाता समय बीतने पर, त्यों मनुजों का जीवन है, मत कर प्रमाद, गौतम ! क्षण-भर । ज्यों कुशाग्रस्थित प्रोस-बिन्दु की स्वल्प-काल-स्थिति है सुन्दर, त्यों मनुजों का जीवन है, मत कर प्रमाद, गौतम ! क्षण-भर ।।
-उत्तराध्ययन-सत्र
पद्यानुवाद-मुनिश्री मांगी लाल 'मुकुल' 000
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श्रमण संस्कृति एवं परम्परा
भारतीय संस्कृति एवं इतिहास की संकल्पना एवं संरचना में श्रमण-संस्कृति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । अनेक ऐतिहासिक शोध कार्यों एवं पुरातात्विक उत्ख ननों से यह सिद्ध हो चुका है कि अति प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में वैदिक एवं श्रमण- ये दो सस्कृति-धारायें अजस्र रूप से प्रवाहित होती रही है । जहा वैदिक संस्कृति के मूलाधार यज्ञ, कर्मकाण्ड, वर्णाश्रम व्यवस्था एवं मानन्दवा रहे है, वहां त्यागी श्रमणों ने लोकषणा का त्याग करके निःश्रेयस की सिद्धि के लिए निवृत्तिपरक मार्ग प्रतिपादित किया है । 'श्रमण' शब्द की रचना 'श्रम' धातु ( श्रमु तपसि खेदे च ) मे ल्युट् प्रत्यय जोड़कर हुई है । प्राचार्य हरिभद्रसूरि ( दशवैकालिक, सूत्र १।३ ) का कथन है--" श्राम्यतीति' श्रमणः तपस्यतीत्यर्थः " अर्थात् जो तप करता है, वह श्रमण है। इस प्रकार 'श्रमण' का अर्थ हैतपस्वी या परिव्राजक । श्रमण शब्द का अर्थ प्रत्यन्त व्यापक है । इसे केवल जैनों तक सीमित रखना अनुचित होगा । विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध, श्रमण शब्द के विविध रूप ( समण, शमण, सवणु, श्रवण, भ्रमण, सरमनाई, श्रमणेर श्रादि ) श्रमण-शब्द की विश्व व्यापकता, सिद्ध करते है । मिस्र, सुमेर, असुर, बाबुल, यूनान, रोम, चीन, मध्य एशिया, प्राचीन श्रमरीका, अरब, इसराइल आदि प्राचीन सभ्य देशों में भी श्रमण परम्परा किसी न किसी रूप में विद्यमान थी, यह अनेक ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों से सिद्ध हो चुका है। विश्व के १. तृदिला प्रतृदिलासो श्रद्रयोऽश्रमणा प्रथिता श्रमृत्यवः । ऋग्वेद १०/६४।११. श्रश्रमणाः - श्रमण- वर्जिताः
सायण भाष्य ।
२. मुनयो वातरशना पिशङ्गा वसते मलाः । - ऋग्वेद १०११३५२.
श्री युगेश जैन, दिल्ली
प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद में श्रमण शब्द तथा वातरशनाः मुनयः (वायु जिनकी मेखला है, ऐसे नग्न मुनि) का उल्लेख हुआ है ।" बृहदारण्यक उपनिषद् में श्रमण के साथ-साथ 'तापस' शब्द का पृथक् प्रयोग हुआ है । इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल से ही तापस ब्राह्मण एवं श्रमण भिन्न माने जाते थे । तैत्तिरीय प्रारण्यक में तो ऋग्वेद के 'मुनयो वातरशनाः;' को श्रमण ही बताया गया है । उपर्युक्त उद्धरणो से प्राचीन वैदिक काल से ही श्रमणों का अस्तित्व एवं प्रभाव स्पष्ट रूप से व्यक्त होता है ।
पुरातत्व की दृष्टि से भी श्रमण संस्कृति की प्राचीनता शनैः शनैः सिद्ध होती जा रही है। भारतीय पुरातत्व का इतिहास मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्रारम्भ होता है । यद्यपि इन स्थानों से प्राप्त मुद्रानों की लिपि --- सिन्धु-लिपि का प्रामाणिक वाचन नहीं हो सका है और इसी कारण सिन्धु सभ्यता के निर्माताओं की जाति अथवा नृवंश के सम्बन्ध में निर्विवाद रूप से कहना सम्भव नहीं; तथापि सिन्धु घाटी के अवशेषों में उपलब्ध कतिपय प्रतीकों को श्रमण संस्कृति से सम्बद्ध माना जा सकता है । सर जान मार्शल के अनुसार, मोहंजोदड़ो से प्राप्त कुछ मूर्तियां योगियों की मूर्तियां प्रतीत होती हैं । इन मूर्तियों में से एक, योगासन स्थित त्रिमुख योगी की प्रतिमा विशेषतः उल्लेखनीय है । इस मूर्ति के सम्मुख हाथी, व्याघ्र महिष, मृग प्रादि पशु स्थित हैं । कुछ विद्वानों के मतानुसार, यह पशुपति शिव की मूर्ति है ।" अन्य विद्वानों के ३. श्रमणोऽश्र मणस्तापसोऽतापसः ....... भवति बृहदारण्यकोपनिषद ४।३।२२
४.
५.
Mohan-jodro and Indus civilization (1931) Vol. 1, pp. 52-3. -- Sir John Marshal
वातरशना ह व ऋषयः श्रमणाः ऊर्ध्वमन्थिनो बभवु:तैत्तिरीयारण्यक २७.
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श्रमण-संस्कृति एवं परम्परा
अनुसार, यह मूर्ति किसी पहुंचे हुए योगी की मूर्ति है ।" "इस त्रिमुख मूर्ति के अवलोकन से भर्हत्-प्रतिशयों से safe कोई भी विद्वान् यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि यह समवशरण स्थित चतुर्मुख तीर्थंकर का ही कोई शिल्प-चित्रण है जिसका एक मुख उसकी बनावट के कारण प्रदृश्य हो गया है ।" अस्तु, श्रार्यों के आगमन से पूर्व यहाँ एक समुन्नत संस्कृति एवं सभ्यता विद्यमान थी जो अहिंसा, सत्य, एवं त्याग पर आधारित थी ।
इस विषय में अधिकारी विद्वान् श्री चन्दा का निम्नलिखित मत विचारणीय है
'सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में अंकित, न केवल बैठी हुई देव-मूर्तियाँ योग मुद्रा में है और वे उस सुन्दर अतीत में योग मार्ग के प्रचार को सिद्ध करती है, अपितु खड्गासनस्थ देव मूर्तियां भी योग की कायोत्सर्ग-मुद्रा में स्थित है । यह कायोत्सर्ग-मुद्रा विशेषतः जैन है । श्रादि पुराण - १५ / ३ में ऋषभदेव के तप के सम्बन्ध में कायो त्सर्ग-मुद्रा का उल्लेख है । जैन तीर्थंकर ऋषभदेव की कायोत्सर्ग-मुद्रा मे स्थित एक खड्गासनस्थ मूर्ति ( द्वितीय शताब्दी ईस्वी) मथुरा संग्रहालय में है । इस मूर्ति की शैली से सिन्धु-घाटी से प्राप्त मुद्रानों में अंकित खड़ी हुई देव-मूर्तियो की शैली बिल्कुल मिलती है ।"
'वृषभ का अर्थ है - बैल । ऋषभदेव का चिह्न बैल है । मुद्रा सं. ३ से ५ तक में प्रति देव-मूर्तियो के साथ बैल भी अंकित है जो ऋषभ का पूर्व रूप हो सकता है ।"
डा. राधाकुमुद मुकर्जी ने भी 'हिन्दू सभ्यता' नामक ग्रन्थ में श्री चंदा के उपर्युक्त मत की पुष्टि की है और ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता को जैन धर्म का मूल प्रतिपादित किया है । प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता श्री टी. ऐन. रामचन्द्रन् ने ६. Ahimsa in Indian Culture.
--- Dr. Nathmal Tantia
७. मुनिश्री नगराज जी, वीर ( श्रमण श्रंक ), वीर निर्वाण सं. २४६०, पृष्ठ ४६. ८. माडर्न रिव्यू, जून, ९. माडर्न रिव्यू, जून,
१९३२, श्री चंदा का लेख । १९३२, श्री चंदा का लेख । १०. तापसाः भुंजते चापि श्रमणाश्चैव भुंजते । - रामायण,
८१४१२
११. महाभारत, १२।१५४।२१.
२१६
हड़प्पा से प्राप्त दो मूर्तियों में से प्रथम मूर्ति को 'नटराज शिव का प्राचीन प्रतिरूप' तथा द्वितीय को तीर्थंकर- मूर्ति माना है। वेदों में वर्णित 'शिर देवाः का प्रर्थं लिंगपूजक के अतिरिक्त शिश्नयुक्त अर्थात् नग्न देवताओं के पूजक भी हो सकता है। उपर्युक्त दोनों मूर्तियों के नग्न होने के कारण इनकी संगति 'शिश्नदेवा:' से स्थापित की जा सकती है तथा सिन्धु सभ्यता मे श्रमण संस्कृति के बीज ढूँढ जा सकते है । उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि प्रागायं एवं प्रावैदिक काल से श्रमण-संकृति की पुनीत स्रोतस्विनी निरन्तर प्रवाहित होती रही है ।
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वैदिक वाङ्मय के प्रतिरिक्त, रामायण, महाभारत, ' तथा भागवतपुराण" में श्रमणों का स्पष्ट उल्लेख हुमा है। श्रमण संस्कृति के श्राद्य प्रवर्तक भगवान् ऋषभदेव का भी उल्लेख वेदों" तथा पुराणों में श्रद्धापूर्वक किया गया है। उत्तरकालीन भाष्यकारों ने साम्प्रदायिक दुराग्रह के कारण इन उल्लेखों का अन्यार्थ सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। वस्तुतः श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों संस्कृतियो की जन्मभूमि एक ही भूमि - भारतभूमि रही है । अन्य प्राचीन साहित्य के अभाव में हमे श्रमण-संस्कृति के बीज भी वैदिक वाङ्मय में ढूढने होगे । सम्भव है कि अत्यन्त प्राचीन काल मे वेद दोनों संस्कृतियों के मान्य ग्रन्थ रहे हों परन्तु कालान्तर मे याज्ञिक पुरोहितों के प्राबल्य के कारण वेदो मे से श्रमण-सम्बन्धी उद्धरणो को निकालने की चेष्टा की गई हो जिसके फलस्वरूप श्रमणों ने वेदों का प्रामाण्य अस्वीकृत कर दिया हो । अस्तु, प्राचीन भारतीय साहित्य एव संस्कृति की सरचना में श्रमणों का योगदान किसी अन्य सम्प्रदाय या वर्ग से कम नहीं रहा
है ।
१२. सन्तुष्टाः करुणा मंत्रा शान्ता दान्तास्तितिक्षवः । श्रात्मारामाः समदृशः प्रायशः श्रमणाः जनाः । १३. ऋग्वेद १०११०२।६. तथा ४।५८ । ३.
१४. 'बर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान् परमर्षिभिः प्रसादितो नाभेः प्रियचिकीर्षया तदवशेघायने मेरुदेव्यां धर्मान् दर्शयितुकामो वातरशनाना श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिना शुक्लया तनुवावततार ॥' भागवत पुराण ५।३।२०
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२२०, बर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
भगवान ऋषभदेव के अनन्तर, द्वितीय तीर्थकर श्री क्रान्ति की। पारस्परिक खण्डन-मण्डन में व्यस्त दार्षतिकों अजितनाथ से लेकर २१वें तीर्थंकर श्री नमिनाथ तक के को स्याद्वाद तथा अनेकान्त का महामन्त्र देकर सम्मार्ग काल का ऐतिहासिक अनुशीलन, पुरातात्त्विक प्रमाणों के दिखाया। लोक-भाषा में उपदेश देकर उन्होंने पण्डिों के प्रभाव में, अभी सम्भव नहीं हो पाया है। बाईसवें तीर्थ- निरंकुश वर्चस्व को समाप्त किया और वैचारिक-जगत् मे दूर श्री नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) का ऐतिहासिक अस्तित्व कान्ति की। अनेक विद्वानो द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है। भगवान महावीर के ही समय में महात्मा बुद्ध का तेईसवें तीर्थकर श्री पार्श्वनाथ तो अब ऐतिहासिक महा- माविर्भाव हमा, जिन्होंने श्रमण-संस्कृति की अन्य धारापुरुषों की कोटि में पा चुके हैं। अहिंसा के इतिहास में बौद्ध धर्म का 'मध्यम मार्ग'-प्रतिपादित किया। भगवान् पार्श्वनाथ का 'चातुर्याम' अपूर्व कोटि का माना जाता है। महावीर तथा महात्मा बुद्ध की समकालीनता के कारण कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान् महावीर और महात्मा श्रमण-सस्कृति की दोनो घारामों-जन तथा बौद्ध-के बुद्ध की सुविकसित अहिंसा का मूल उद्गम पार्श्वनाथ का सिवान्तों तथा पारिभाषिक शब्दावली में किंचित समानता चातुर्याम ही है।"
स्वाभाविक ही है। भ० महावीर तथा बुद्ध के लिए प्रयुक्त भारतीय इतिहास में ईसा-पूर्व छठी शताब्दी का काल 'जिन' तथा 'अर्हत्' शब्द इस बात के ज्वलन्त प्रमाण' हैं। विशेष महत्वपूर्ण रहा है। वस्तुत: यह काल संक्रान्ति-काल इसी प्रकार दोनों सम्प्रदायों के साधु-संन्यासी 'श्रमण' था जिसमे प्रागैतिहासिक युग की मान्यताएं शनैः शनैः कहलाए । विकृत रूप धारण कर रही थी। लोग धर्म के वास्तविक इस प्रकार लगभग पांच हजार वर्षों से श्रमण संस्कृति स्वरूप को पुरोहित-वर्ग के क्रियाकांड में फंस कर भूल की स्रोतस्विनी अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित होती आ रही है । चुके थे और वे प्रश्वमेध मादि यज्ञो में प्राणियों के बलि- समय-समय पर इसे अनेक बाधानों का सामना करना पड़ा दान को ही धर्म की इतिश्री मानने लगे थे। वाणी-रहित है। एक युग में तो स्थिति यहाँ तक विषम हो गई थी दीन एवं निरीह पशुओं का क्रन्दन सामूहिक मन्त्रोच्चार कि श्रमणो तथा ब्राह्मणों का विरोध शाश्वत माना जाने की ध्वनि में विलीन कर दिया जाता था । क्षणिक मानन्द लगा। विरोधी प्रहारो को सहन करते हुए भी नि.श्रेयस् ही मनुष्य का ध्येय बन गया था और इस ध्येय पूर्ति का की सिद्धि में संलग्न श्रमण अदम्य सहिष्णुता, त्याग-वृत्ति साधन माना जाता था-यशो का कर्मकाण्ड । पुरोहित- एवं साधना का प्राश्रय लेकर श्रमण संस्कृति का विकास वर्ग के वशीभूत कतिपय शक्तिशाली राजाओं का प्राश्रय एवं प्रसार करते रहे। पाकर यह यज्ञवाद इतना प्रबल हो चुका था कि किसी
भ. महावीर के २५००वें परिनिर्वाण-महोत्सव-वर्ष साधारण व्यक्ति के लिए इसका विरोध करना असम्भव
की इस पावन वेला मे हमारा कर्तव्य है कि हम भाचार हो गया था।
एव विचार मे श्रमण संस्कृति के पवित्र प्रादों को ग्रहण ऐसे संकटग्रस्त काल मे वैशाली के राजकुमार वर्धमान
1 करके देश-विदेश में इसका प्रचार एवं प्रसार करें।
र महावीर ने एक सर्वतोमुखी क्रान्ति का सूत्रपात किया। उन्होंने अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहइन पांच महाव्रतों (श्रमणों के लिए) तथा अणुव्रतों १४६४, कूचा सेठ, (श्रावकों के लिए) का विधान करके भाचार जगत् में दरीबा, दिल्ली-६ १५. (क) श्री धर्मानन्द कौशाम्बी- भारतीय संस्कृति १७. 'येषां च विरोषः शाश्वतिकः' (मष्टाध्यायी, २४९) और महिंसा, पृष्ठ ५७
पर पातंजल महाभाष्य-"येषां च-'इत्यस्यावकाशः (ख) The Religion of Ahinsa, P. 14.
मार्जार-मूषकं श्रमणब्राह्मणमित्यादी ज्ञेयः" । १६. पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृष्ठ २८-२९.
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अहिंसा के आयाम : महावीर और गांधी
0 श्री यशपाल जैन, दिल्ली
महिंसा की श्रेष्ठता :
कारण बनते । परशुराम से यह सहन न हुमा । उन्होंने मानव-जाति के कल्याण के लिए अहिंसा ही एकमात्र धनुष-बाण उठाया, फरसा लिया और संसार से क्षत्रियों साधन है, इस तथ्य को ग्राज सारा संसार स्वीकार करता को समाप्त करने के लिए निकल पड़े। जो भी क्षत्रिय है, लेकिन कम ही लोग जानते है कि अहिसा की श्रेष्ठता मिलना, उसे वे मौत के घाट उतार देते। कहते है, उन्होंने की ओर प्राचीनकाल से ही भारतवासियो का ध्यान रहा २१ बार इस भूमि को क्षत्रियों से खाली कर दिया, लेकिन है । वैदिक काल मे हिंसा होती थी, यज्ञों मे पशुओं की हिंसा की जड़ फिर भी बनी रही । विश्वामित्र महिंसा के बलि दी जाती थी, लेकिन उस युग में भी ऐसे व्यक्ति थे, व्रती थे, वे स्वयं हिसा नहीं करते थे, पर दूसरों से हिंसा जो अनुभव करते थे कि जिस प्रकार हमें दुःख-दर्द का करवाने मे उन्हें हिचक नहीं हुई। परशुराम हिंसा से अनुभव होता है, उसी प्रकार दूसरे प्राणियों को भी होता अहिंसा स्थापित करना चाहते थे। दोनों की अहिंसा में है, अतः जीवों को मारना उचित नही है। आगे चलकर निष्ठा थी, किन्तु उनका मार्ग सही नहीं था। उसमे हिंसा यह भावना और भी विकसित हुई। महाभारत के 'शान्ति के लिए गुजाइश थी और हिंसा से अहिंसा की स्थापना पर्व' मे हम भीष्मपितामह के मुह से सुनते है कि हिसा हो नहीं सकती थी। अत्यन्त अनर्थकारी है। उससे न केवल मनुष्यों का संहार बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय : होता है, अपितु जो जीवित रह जाते है, उनका भी भारी भगवान बुद्ध ने एक नयी दिशा दी। समाज के हित पतन होता है। उस समय ऐसे व्यक्तियों की संख्या कम को ध्यान में रख कर 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' का नही थी, जो मानते थे कि यदि हिंसा से एकदम बचा नही घोष किया। उन्होंने कहा, "वह काम करो, जिसमें बहजा सकता तो कम-से-कम उन्हे अपने हाथ से तो हिंसा संख्यक लोगों को लाभ पहुचे, सुख मिले।" इससे स्पष्ट या नही करनी चाहिए। उन्होंने यह काम कुछ लोगों को सौप कि उन्होने अनजाने मारने की मर्यादा को छूट दी अर्थात् दिया, जो बाद में क्षत्रिय कहलाये। ब्राह्मण उनसे कहते जिस कार्य से समाज के अधिकांश व्यक्तियों का हित थे कि हम अहिंसा का व्रत लेते है, हिसा नहीं करेगे, लेकिन साधन होता हो, उसे उचित ठहराया, भले ही उससे अल्पयदि हम पर कोई प्राक्रमण करे अथवा राक्षस हमारे यज्ञ सख्यको के हितों की उपेक्षा क्यो न होती हो। मे बाधा डाल, तो तुम हमारी रक्षा करना। विश्वामित्र महावीर और मागे बढे ब्रह्मर्षि थे, धनुविद्या में निष्णात थे, पर उन्होंने अहिंसा का भगवान महावीर एक कदम आगे बढ़े। उन्होंने सबके व्रत ले रखा था। अपने हाथ से किसी को नही मार सकते कल्याण की कल्पना की और अहिंसा को परम धर्म मान थे । उन्होने राम-लक्ष्मण को धनुष-बाण चलाना सिखाया कर प्रत्येक प्राणी के लिए उसे अनिवार्य ठहराया। उन्होंने और अपने यज्ञ की सुरक्षा का दायित्व उन्हे सौंपा।
कहामारने की शक्ति हाथ में प्रा जाने से क्षत्रियों का 'सव्वे पाणा पिया उया, सुहसाया, दुक्खपडिकला. प्रभुत्व बढ़ गया। वे शत्रु के आने पर उसका सामना प्राप्पियवहा । करते। धीरे-धीरे हिसा उनका स्वभाव बन गया। जब पिय जीविणो जीविउकामा, (तम्हा) णातिवाएज्ज शत्रु न होता तो वे मापस मे ही लड़ पड़ते और दुःख का किंचणं ॥
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२२२, वर्ष २८, कि.१
भनेकान्त
अर्थात, सब प्राणियों को प्रायु प्रिय है, सब सुख के दो', अर्थात यदि तुम चाहते हो कि सुखपूर्वक जीवन व्यतीत प्रभिलाषी हैं, दुःख सबके प्रतिकूल है, वध सबको अप्रिय है, करो तो उसके लिए आवश्यक है कि दूसरों को भी उसी सब जीने की इच्छा रखते हैं, इससे किसी को मारना अथवा प्रकार जीने का अवसर दो। उन्होंने समष्टि के हित में कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए।
व्यष्टि के हित को समाविष्ट कर देने की प्रेरणा दी। हम देखते हैं कि महावीर से पहले भी अनेक धर्म- वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन को विकृत करने वाली प्रवर्तकों तथा महापुरुषों ने अहिंसा के महत्व एवं उसकी सभी बुराइयों की मोर उनका ध्यान गया और उन्हें दूर उपादेयता पर प्रकाश डाला था, लेकिन महावीर ने अहिंसा- करने के लिए उन्होंने मार्ग सुझाया। तत्व की जितनी विस्त त, सूक्ष्म तथा गहन मीमांसा की, महावीर की अहिंसा प्रेम के व्यापक विस्तार में से उतनी शायद ही और किसी ने की हो । उन्होंने अहिंसा उपजी थी। उनका प्रेम प्रसीम था। वह केवल मनुष्यको गण-स्थानो मे प्रथम स्थान पर रखा और उस तत्व जाति को प्रेम नही करते थे, उनकी करुणा समस्त जीवको चरम सीमा तक पहुंचा दिया। कहना होगा कि उन्होंने धारियों तक व्याप्त थी। छोटे बड़े, ऊंच-नीच प्रादि के प्रहिंसा को सैद्धांतिक भमिका पर ही खड़ा नहीं किया, भेदभाव को उनके प्रेम ने कभी स्वीकार नही किया । यही उसे माचरण का अधिष्ठान भी बनाया। उनका कहना कारण है कि अहिंसा का उनका महान आदर्श प्रत्येक था
मानव के लिए कल्याणकारी था। सयं तिवायए पाणे, अदुवन्नेहि धायए ।
जिसने राज्य छोड़ा, राजसी ऐश्वर्य को तिलांजलि वणतं वाणजाणाइ, देरं वड्ढइ अप्पणी ॥ दी, भरी जवानी में घर-बार से मुंह मोड़ा, सारा वैभव
(जो मनुष्य प्राणियो की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों छोड़कर अकिंचन बना और जिसने बारह वर्षों तक दर्ष से हिसा करवाता है और हिंसा करवाने वालों का अनु- तपस्या की, उसके पात्मिक बल की सहज ही कल्पना नहीं मोदन करता है, वह संसार में अपने लिए बैर बढ़ाता है। की जा सकती। महावीर ने रात-दिन अपने को तपाया अहिंसा की व्याख्या करते हुए वह कहते है :
और कंचन बने । उनकी अहिंसा वीरों का प्रस्त्र थी, दुर्बल तेसिं प्रच्छण जो एव, निच्च होयब्वयं सिया।
व्यक्ति उसका उपयोग नहीं कर सकता था। जो मारने मणसा कायवक्केण, एव हवदू संजय ॥
की सामर्थ्य रखता है, फिर भी मारता नहीं और निरन्तर (मन, वचन और काया, इनमे से किसी एक के द्वारा क्षमाशील रहता है, वही अहिसा का पालन कर सकता है। भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न हो, ऐसा व्यवहार याद कोई चूहा कहे कि वह बिल्ली पर आक्रमण नहीं ही संयमी जीवन है। ऐसे जीवन का निरन्तर धारण ही करेगा, उसने उसे क्षमा कर दिया है, तो उसे अहिंसक नहीं अहिंसा है।)
माना जा सकता । वह दिल में बिल्ली को कोसता है, पर सब जीवों के प्रति प्रात्मभाव रखने, किसी को त्रास उसमें दम ही नहीं कि उसका कुछ बिगाड़ सके। इसी से न पहुंचाने, किसी के भी प्रति वर-विरोध-भाव न रखने, कहा है-"क्षमा वीरस्य भूषणम् ।" यही बात अहिंसा के अपने कर्म के प्रति सदा विवेकशील रहने, निर्भय बनने, विषय में कही जा सकती है। कायर या निवी दूसरो को अभय देने, प्रादि-मादि बातो पर महावीर ने अहिंसक नही हो सकता है। विशेष बल दिया, जो स्वाभाविक ही था। मानव-जीवन इस प्रकार हम देखते हैं कि महावीर ने अहिंसा का को ऊर्ध्वगामी बनाने और समाज में फैली नाना प्रकार व्यापक प्रचार-प्रसार किया और उसे धर्म का शक्तिशाली की व्याधियों को दूर करके उसे स्थायी सुख और शांति अंग बनाया। उस जमाने में पशु-वध आदि के रूप में घोर प्रदान करने के अभिलाषी महावीर ने समस्त चराचर हिंसा होती थी। महावीर ने उसके विरुद्ध अपनी आवाज प्राणियों के बीच समता लाने और उन्हें एकसूत्र में बांधने ऊंची की। उन्होंने लोगों में यह विश्वास पैदा किया कि का प्रयत्न किया। उनका सिद्धान्त था-'जीयो मोर जीने हिंसा अस्वाभाविक है। मनुष्य का स्वाभाविक धर्म अहिंसा
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महिंसा के मायान: महावीर और गांधी
२२॥
है । उसी का अनुसरण करके वह स्वयं सुखी रह सकता लिए उन्होंने धार्मिक ही नहीं, सामाजिक, पार्थिक, राजहै, दूसरों को सुखी रख सकता है।
नैतिक तथा अन्य सभी क्षेत्रो में महिंसा के पालन का प्राग्रह इस दिशा में हम ईसा के योगदान को भी नहीं भूल किया। उन्होने कहा : सकते हैं। उन्होंने हिसा का निषेध किया और यहां तक "हम लोगों के दिल में इस झठी मान्यता ने घर कर कहा कि यदि कोई तुम्हारे एक गाल पर तमाचा मारे तो
लिया है कि अहिंसा व्यक्तिगत रूप से ही विकसित की दूसरा गाल भी उसके सामने कर दो। उन्होने यह भी
जा सकती है और वह व्यक्ति तक ही मर्यादित है । वास्तव कहा कि तुम अपने को जितना प्रेम करते हो, उतना ही
मे बात ऐसी नहीं है । अहिसा सामाजिक धर्म है और वह अपने पड़ोसी को भी करो।
सामाजिक धर्म के रूप में विकसित की जा सकती है, यह अहिंसा का व्यापक प्रचार :
मनवाने का मेरा प्रयत्न और प्रयोग है।" इतना ही नहीं, इसके पश्चात् अहिंसा के प्रचार के बहुत से उदाहरण उन्हान यहा तक कहा : मिलते हैं। कलिंग-युद्ध में एक लाख व्यक्तियो के मारे "अगर अहिंमा व्यक्तिगत गुण है तो वह मेरे लिए जाने से सम्राट अशोक का मन किस प्रकार अहिंसा की त्याज्य वस्तु है । मेरी अहिंसा की कल्पना व्यापक है। यह ओर आकृष्ट हुमा, यह सर्वविदित है। अपने शिला-लेखो करोडों की है । मैं तो उनका सेवक ह। जो चीज करोडों में अशोक ने धर्म की जो शिक्षा दी, उससे अहिंसा को सब की नही हो सकती है, वह मेरे लिए त्याज्य है और मेरे से ऊंचा स्थान मिला। तेरहवी-चौदहवी सदी में वैष्णव धर्म साथियों के लिए त्याज्य होनी चाहिए। हम तो यह सिद्ध की लहर उठी। उसने अहिसा के स्वर को देश के एक करने के लिए पैदा हुए है कि सत्य और अहिंसा व्यक्तिछोर से दूसरे छोर तक पहुंचा दिया। महाराष्ट्र में यार- गत प्राचार के ही नियम नहीं है, वे समुदाय, जाति और करी सम्प्रदाय ने भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया। राष्ट्र की नीति हो सकते है। मेरा यह विश्वास है कि और भी बहुत से सम्प्रदायों ने हिंसा को रोकने के लिए अहिंसा हमेशा के लिए है, वह प्रात्मा का गुण है, इसलिए प्रयत्न किये। सन्तों की वाणी ने लाखों-करोडो नर-नारियों वह व्यापक है, क्योंकि प्रात्मा तो सभी के होती है। को प्रभावित किया।
अहिसा सबके लिए है, सब जगहों के लिए है, सब समय परिणाम यह हुआ कि जो अहिंसा किसी समय केवल के लिए है। अगर वह वास्तव में प्रात्मा का गुण है तो तपश्चरण की वस्तु मानी जाती थी, उसकी उपयोगिता हमारे लिए यह सहज हो जाना चाहिए।" जीवन तथा समाज में व्याप्त हुई। उसके लिए जहां कोई लोगों ने कहा, "सत्य और अहिंसा व्यापार में नहीं सामूहिक प्रयास नहीं होता था, वहाँ अब बहुत से लोग चल सकते । राजनीति में उनकी जगह नहीं हो सकती।" मिलजुल कर काम करने लगे। इन प्रयासों का प्रत्यक्ष परि- ऐसे व्यक्तियों को उत्तर देते हुए गांधी जी ने कहा । णाम दृष्टिगोचर होने लगा। जिन मनुष्यों और जातियों
"माज कहा जाता है कि सत्य व्यापार में नहीं चलता, ने हिंसा का त्याग कर दिया, वे सभ्य कहलाने लगीं, उन्हे
राजकारण में नहीं चलता, तो फिर कहाँ चलता है ? प्रमर समाज में अधिक सम्मान मिलने लगा।
सत्य जीवन के सभी क्षेत्रों में और सभी व्यवहारों में नहीं अहिंसा की सामाजिकता और गांधी :
चल सकता तो वह कौड़ी कीमत की चीज नही है। जीवन लेकिन अहिंसा के विकास की यह मन्तिम सीमा नहीं में उसका उपयोग ही क्या रहा? सत्य और अहिंसा कोई थी । वर्तमान अवस्था तक पाने में उसे कुछ मौर सीढ़ियां प्राकाश-पुष्प नहीं हैं। उन्हें हमारे प्रत्येक शब्द, व्यापार चढ़नी थीं। वह अवसर उसे युग-पुरुष गांधी ने दिया। और कर्म में प्रकट होना चाहिए।" उन्होंने देखा कि निजी जीवन में महिंसा और बाह्य क्षेत्र गांधीजी ने यह सब कहा ही नहीं, इस पर अमल कर में हिंसा, ये बोनों चीजें साथ-साथ नहीं चल सकतीं, इस- के भी दिखाया। उन्होंने प्राचीनकाल से चली मा रही
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२६४, वर्ष २८, कि०
अनेकान्त
अहिंसा की परम्परा को आगे बढ़ाया, उसे नया मोड़ दिया। स्थिति मधिक समय तक चलने वाली नहीं है। यातायात उन्होंने जहाँ वैयक्तिक जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा की, के साधनों ने दुनिया को बहुत छोटा कर दिया है और वहां उसे सामाजिक तथा राजनैतिक कार्यों की माधार- छोटे-बड़े सभी राष्ट्र यह मानने लगे हैं कि उनका अस्तित्व शिला भी बनाया। अहिंसा के वैयक्तिक एवं सामूहिक युद्ध से नहीं, प्रेम से ही सुरक्षित रह सकता है । पर उनमें प्रयोग के जितने दृष्टान्त हमें गांधीजी के जीवन में मिलते अभी इतना साहस नही है कि वर्ष में ३६४ दिन संहारक हैं, उतने कदाचित किसी दूसरे महापुरुष के जीवन में नहीं अस्त्रों का निर्माण करें और ३६५वें दिन उन सारे अस्त्रों मिलते।
को समुद्र में फेंक दें। अहिंसा अब नये मोड़ पर खड़ी है
और संकेत करके कह रही है कि विज्ञान के साथ अध्यात्म हिसा-प्रहिंसा की प्रांख-मिचौनी:
को जोड़ो और वैज्ञानिक प्राविष्कारों को रचनात्मक पर दुर्भाग्य से हिंसा और अहिंसा की प्रांख-मिचौनी दिशा में मोडो। जीवन का चरम लक्ष्य सुख और शांति माज भी चल रही है। गांधीजी ने अपने प्रात्मिक नल से है। उसकी उपलब्धि संघर्ष से नहीं, सद्भाव से होगी। अहिंसा को जो प्रतिष्ठा प्रदान की थी, वह प्रब क्षीण अहिंसा में निराशा को स्थान नहीं । वह जानती है कि उषा हो गयी है। अहिंसा की तेजस्विता मन्द पड़ गयी है, हिंसा के प्रागमन से पूर्व रात्रि के अन्तिम प्रहर का अन्धकार का स्वर प्रखर हो गया है। इसीसे हम देखते हैं कि प्राज गहनतम होता है । आज विश्व में जो कुछ हो रहा है। वह चारों ओर हिंसा का बोलबाला है। विज्ञान की कृपा से इस बात का सूचक है कि अब शीघ्र ही नये युग का उदय नये-नये पाविष्कार हो रहे है और शक्तिशाली राष्ट्रों को होगा और संसार में यह विवेक जागृत होगा कि मानव प्रभुता का प्राधार विनाशकारी प्राणविक अस्त्र बने हुए तथा मानव-नीति से अधिक श्रेष्ठ और कुछ नहीं है । प्राज हैं। हिरोशिमा और नागासाकी के नरसंहार की कहानी नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, वह दिन प्रायेगा जब
और वहां के प्रसंख्य पीड़ितों की कराह प्राज भी दिग्- राष्ट नया साहस बटोर पायेंगे और वीर-शासन के सर्वोदिगंत में व्याप्त है, फिर भी राष्ट्रों की भौतिक महत्वा- दय तीर्थ तथा गांधी के रामराज्य की कल्पना को चरितार्थ कांक्षा तथा अधिकार-लिप्सा तृप्त नहीं हो पा रही है। करेंगे। संहारक प्रस्त्रों का निर्माण तेजी से हो रहा है और उनका भगवान महावीर के निर्वाण-महोत्सव-वर्ष में हम प्रयोग माज भी कुछ राष्ट्र बेघड़क कर रहे है।
अपने जीवन मे नया मोड़ ला सकें तो उससे हमारा भला लेकिन हम यह न भूलें कि अहिंसा की जड़ें बहुत होगा और समाज का भी कल्याण होगा। चारित्र्य के बिना गहरी हैं। उन्हें उखाड़ फेंकना सम्भव नहीं है। उसका ज्ञान और दर्शन अधूरे है, इस सत्य को हमें अच्छी तरह विकास निरन्तर होता गया है और अब भी उसकी प्रगति हृदयंगम कर लेना चाहिए। रुकेगी नही । हम दो विश्वयुद्ध देख चुके है और भाज भी
00 शीतयुद्ध की विभीषिका देख रहे हैं। विजेता और परा- ७/८, दरियागंज, जित, दोनों ही अनुभव कर रहे हैं कि यह भस्वाभाविक
दिल्ली।
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कुछ प्राचीन जैन विद्वान
पं० परमानन्द जैन शास्त्री, दिल्ली
बीपाल विद्य देव:
भी वहां रहे हैं। राजा जयसिंह दक्षिण के चौलुक्य या श्रीपाल विद्य देव द्रमिल संघ और प्ररुङ्गलान्वय सोलंकी वंश के राजा थे, वीर और पराक्रमी थे। सिंहपुर के प्राचार्य थे । यह अपने समय के बड़े भारी विद्वान् और उन्हीं के राज्य में था। उनके राज्यकाल के अनेक शिलातपस्वी थे। वे परवादिमर्श और षटदल्लन मे निष्णात योगी- लेख उपलब्ध हुए हैं। शक सं०६३८ से १६४ तक २६ श्वर थे। इनकी स्याद्वाद-भूषण, वादीभसिंह, वादीकोला- वर्ष तो उनका राज्य निश्चित ही रहा है। वादिराज तो हल और विद्य चक्रवर्ती मादि उपाधियां थीं। इससे उनकी राजधानी में रहे हैं और उनकी सभा में अनेक यह उस समय के बड़े भारी प्रतिष्ठित विद्वान जान पड़ते वादियों को पराजित भी किया है । वादिराज के गुरु
मतिसागर श्रीपाल विद्य देव के शिष्य थे। यस्य वागमतं लोके मिथ्यकान्त विषापहम् ।
शक सं० १०६७, सन् ११७५ ई०, के एक शिलालेख तस्मै श्रीपाल देवाय नमस्त्रविद्य-चक्रिणे
में होयसल वंश के विष्णुवर्धन पोमसलदेव ने जिन-मन्दिरों ॥(जैन खेख सं० भा० ३ पृ.७२)। के जीणोद्धारार्थ और ऋषियों के माहार-दानार्थ वादिराज जिनके वचनरूप अमृत से मिथ्या एकान्त रूप विष के वंशज श्रीपाल योगीश्वर को 'शल्य' नाम का एक गांव दूर हो जाता है; उन विद्य चक्रवर्ती श्रीपाल देव को दान मे दिया था : नमस्कार हो।
इनके दूसरे शिष्य वासुपूज्य व्रतीन्द्र थे, जो बड़े विद्वान सन् ११४५ ई. के एक लेख में उन्हें-'स्याद्वादाचलमस्तके थे। ये शिक्षा-दीक्षा और सुरक्षा में निपुण थे। जैसा कि स्थितिरसो श्रीपाल कण्ठीरवः' लिखा है। यह गद्य-पद्य- शिलालेख के निम्न पद्य से प्रकट है। रूप दोनों तरह की रचना मे कुशल थे। इससे वे प्रकाण्ड श्रीपाल विद्य विद्यापति पद कमलाराधना-लब्ध-बुद्धि, विद्वान् ज्ञात होते है । पर खेद है कि उनकी इस समय सिद्धान्ताम्भो-निधान प्रविसरबमृतास्वाद - पुष्ट-प्रमोदः। कोई रचना उपलब्ध नही है । जैन शिलालेख-संग्रह दीक्षा-शिक्षा-सुरक्षा-कम-वृत्ति-निपुणः सन्तत भव्य-सेव्यः, तृतीय भाग के अनेक लेखों में श्रीपाल विद्य की प्रशंसा सोऽयं दाक्षिण्य-मूर्तिजंगति विजयते वासुपूज्यः वतीनः ।। की गई है। इनके अनेक विद्वान शिष्य थे। बादिराज
जैन लेख सं० भा० ३ पु० १४८ ॥ सूरि ने 'पाश्वनाथ चरित' की प्रशस्ति में अपने दादा गुरु श क सं० १०९५-११७३ ई. में श्रीपाल विद्य देव श्रीपाल देव को "सिंहपुरक-मुख्य' लिखा है, जिससे स्पष्ट के शिष्य वासुपूज्य देव को, होयसल बल्लाल देव के सन्धि हकि वे सिंहपुर के निवासी थे। सम्भवतः यह सिंहपुर विग्रही मंत्री चिमप्प ने सिगेनाड माकली में त्रिकूट उन्हें जागीर में मिला हुआ था। इस परम्परा का मठ जिनालय बनवा कर उस गांव के देवता की पूजा पौर भी वहाँ था। वादिराज और उनकी परम्परा के मनिजन माहार-दानादि के लिए दान दिया था। १. 'इन्तु निरवद्य स्याद्वाद भूषण गण पोषण समे सरु- २. अकलक सिंहासनारूतसं ताकिक पक्रवतिगलु पावन
मागि वादीम सिंह वाविकोलाहल ताकिक चक्रवर्ती- विषयमो षट् तर्काविलबहु-नि-सङ्गतं श्रीपालदेम्बा श्रीपाल विध देवर्ने ।' (जैन लेख सं० भा. विद्य-गद्य-पद्य-बचो-विन्यासं निसर्ग-विजय-विला:
सम् ।" (जैन लेख सं० भा० ३ पृ. ११५)
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२२६, वर्ष २८, कि०१
इन सब उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीपाल रत्नकीति नाम के और भी विद्वान् हुए हैं, जिनका विद्य देव और उनकी शिष्य-परम्परा ने जैन शासन की संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :सेवा की है। उक्त श्रीपाल विद्य देव ईसा की १२वीं एक रत्नकीति वे हैं जिनका उल्लेख, खरगोन से ऊन शताब्दी के प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान थे।
जाने वाली सड़क पर ऋषभदेव का एक विशाल मन्दिर में रत्न कीति :
प्राप्त हमा है । चौवारा देरा नं. १ में एक बड़ी मूर्ति पर काष्ठासंघ माथुरान्वय के प्रसिद्ध भ० अनन्तकीर्ति के वि० सं० ११८२ का एक लेख अंकित है, जिसमें जैनापट्टधर क्षेमकीति के शिष्य थे : क्षेमकीर्ति के पट्टधर हेम- चार्य रत्नकीति का नाम अंकित है जिससे यह रत्नकीर्ति कीति थे। रत्नकीति प्राकृत-संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान् विक्रम की १२वीं शताब्दी के उपान्त्य समय के प्राचार्य थे। इन्होंने अपने गुरु की प्राज्ञा से प्राचार्य देवसेन के जान पड़ते हैं। 'पाराघनासार' की टीका बनाई थी। आराधनासार मूल- दूसरे रत्नकोति वे हैं जिनका उल्लेख सं० १३३४ के ग्रन्थ प्राकृत भाषा का है, उसमें ११५ गाथाओं में सम्यर- एक लेख में पाया जाता है, जिसमें पण्डिताचार्य रत्नकीर्ति दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चार द्वारा एक मूर्ति के स्थापित किए जाने का उल्लेख है। माराधनाओं का कथन किया गया है । टीका विशद, सुगम १४वीं शताब्दी का यह लेख इन्दौर के म्यूजियम में संर. और सरल है। गाथानों के अर्थ का बोध कराते हुए वस्तु क्षित है। स्वरूप का विवेचन किया है और माराधनामों की कथा तीसरे रत्नकीर्ति वे हैं जो नन्दिसंघ बलात्कार गण
नाकत किया है जिससे पाठका का गाथामा के भद्रारक धर्मचक्र के पट्टधर थे । यह स्यावाद विद्याका रहस्य समझने में सरलता हो गई है । यद्यपि इस ग्रंथ सागर, बालब्रह्मचारी, तप के प्रभाव से पूजित और मजपर पण्डित प्रवर पाशाधर जी की टीका भी उपलब्ध है, मेर पट के पट्टधर थे। यह अजमेर के पट्ट पर सं० १२६६ जिसे उन्होंने विनय चक्र के अनुरोध से विक्रम की १३वीं में १३१0 तक रहे हैं। देवगढ़ के सं० १४८१ के लेख में शताब्दी में बनाई थी; पर वह अत्यन्त संक्षिप्त भी इन रत्नकीति का उल्लेख किया गया है। है। रत्नकीर्ति की यह टीका विस्तृत है। टीकाकार ने
(जैन लेख सं० भ० ३ पृ० ४६१) अपनी लघुता व्यक्त करते हुए लिखा है कि मैंने यह टीका
चौथे रत्नकीति वे हैं, जो भट्रारक जिनचन्द्र के शिष्य यश के निमित्त नही बनाई । किन्तु स्व के बोध के लिए थे। इनका समय विक्रम की १६वी शताब्दी है। क्योंकि बनाई है:-'मया यमाराधनासाराख्यो ग्रन्थो व्यरचि न भटारक जिनचन्द्र का वि० सं० १५०७ में प्रतिष्ठित होने पुनर्यशोनिमित्तं, यदुक्तं-न कवित्वाभिमानेन न कीर्ति का उल्लेख पाया जाता है। अनेक ग्रन्थों की लिपि प्रशप्रसरेच्छया । कृतिः किन्तु मदीयेवं स्वबोधार्यव केवलम् ॥ स्तियों में भी इन रलकीति का जिनचन्द्र के शिष्य रूप
टीकाकार ने टीका में उसका रचना-काल नहीं दिया, में उल्लेख पाया जाता है। जिससे उसका समय निश्चित करने में कठिनाई हो रही
' ना हो रहा पांचवें रलकीति काष्ठा संघ माथुरगच्छ पुष्कर गण है। प्रतएव अन्य सामग्री पर से उसका विचार किया
वचार किया के भट्रारक कमलकीर्ति के शिष्य थे; उन्होंने संवत
है जाता है। सं० १४६६ की प्रवचनसार की अमृतचन्द्र कृत
र का अमृतचन्द्र कृत १५१६ में ववागांव के मन्दिर का जीणोद्धार कराया था। तात्पर्य-वृत्ति की लिपि प्रशस्ति में मुनि अश्वसेन, क्षेम
(जैन लेख सं० भा०३ पृ. ४६०) कीति और हेमकीति का नामोल्लेख किया है। रत्नकोति के शिष्य थे। प्रतएव इस टीकाकार का रचना-काल क्षेम- प्रचित्रकर्ण पणनम्बी: कोति विक्रम की १५वीं शताब्दी का मध्यकाल होना यह मूलसंघ देशीय गण के विद्वान् गोल्लाचार्य के चाहिए । प्रस्तुत रनकीति विक्रम की १५वीं शताब्दी के शिष्य थे । यह पविद्धकर्ण थे-कर्णवध संस्कार होने से विद्वान् हैं।
पूर्व ही वासावस्था में दीक्षित हो गए थे। इसी से यह
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कुछ प्राचीन केन विद्वान
२२५ कौमारखती कहलाते थे।' सिद्धान्त शास्त्र के बड़े भारी कार थे। कुलभूषण के शिष्य कुलचन्द्र मुनीन्द्र थे जो विद्वान्, प्रशान्त तपस्वी और धीर-वीर थे । विद्वद् समूह अपने प्रजित यश से जंगमतीर्थ के समान थे। सच्चरित्र के भूषण थे और प्रफुल्ल कमल के समान सुशोभित होते और विवेक बुद्धि द्वारा कामदेव को अपने पास फटथे। उनका मन शान्त भावना में निमग्न रहता था । मन कने नहीं देते थे । वे बड़े तपस्वी मोर सैद्धान्तिक विद्वान में सरस्वती का निवास होने से वे सहज ही सुन्दर शरीर थे। के अधिकारी थे । इनके दो शिष्य थे, कुलभूषण और कुलभूषण मुनि ने अपना कोई समय नहीं दिया और प्रमाचन्द्र । इनमें कुल भूषण सद्-वृत्त तपस्वी और सैद्धां- न इनकी कोई कृति ही उपलब्ध है जिससे उनके सम्बन्ध तिक विद्वान थे, और प्रभाचंद्र प्रथित तर्ककार थे। वे दर्शन में विशेष जानकारी प्राप्त होती । यह ईसा की ११वीं शास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान थे। साथ ही सिद्धान्त के भी शताब्दी के विद्वान् जान पड़ते हैं । यह अपने समय के पारगामी थे। इनकी न्याय शास्त्र की दो कृतियां प्रमेय- प्रभावशाली पाचार्य थे। कमल मार्तण्ड और न्याय कुमुद चन्द्र, माणिकचन्द्र ग्रन्थ- भट्टारक मल्लिभूषण : माला से प्रकाशित हो चुके हैं। इनका समय ईसा की
मूलसंघ बलात्कार गण सरस्वती गच्छ के भट्टारक ११वी शताब्दी जान पड़ता है।
विद्यानन्द के पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे । अपने समय के कुलभूषण :
मच्छ विद्वान थे और मल्लिभषण गुरु के नाम से उल्ले___यह मूल संघान्तर्गत नन्दीगण के भेदरूप देशी गण के खित किए जाते थे। ब्रह्मश्रुत सागर ने इनका सुन्दरगोल्लाचार्य के शिष्य प्रविद्धकर्ण कौमारवती पधमन्दी शब्दों में स्मरण किया है । 'तत्पट्टमुनि मल्लिभूषण गुरुसैद्धान्तिक के शिष्य थे। कुलभूषण को शिलालेख के पद्य भट्टारको नंदतु' (प्रक्षय निधि विधान कथा पं०५०)। में चारित्रसागर और सिद्धान्त के पारगामी बतलाया गया तत्पाद-पंकज रजो रचितोत्तमांगे, श्री मल्लिभूषण गुरुर्विदुषां है। यह सिद्धान्त मुनीन्द्र अपने प्रजित यश से उज्ज्वल वरेण्यः। (पल्लिविधान कथा २४०) इससे स्पष्ट है कि होने के कारण जंगमतीर्थ के समान थे । मंत्रण, मोक्ष और मल्लिभूषण विद्वान भट्टारक थे । ब्रह्मश्रुत सागर ने पल्लसदगुणों के समुद्र को बढ़ाने में वे चन्द्रमा के समान थे। विधान कथा की रचना मल्लि भूषण गुरु के उपदेश से तथा सरस्वती देवी के चित्त रूपी वल्ली के पद-पंकज (के रची थी। जैसा कि उसके निम्न पद्यांश से प्रकट हैनिवास) से मर्वयुक्त विद्वत्समुदाय के हृदय कमल के अंतर- 'श्री मल्लिभूषण गुरु प्रवरोपदेशात् शास्त्र व्यवापयदिदं राग से उनका मन रंजायमान था।
कृतिनां हृदिष्टं" २४८ । इनके सपर्मा प्रथित तर्ककार प्रभाचन्द्र थे, जो दर्शन- विरुदावली में मल्लिभूषण को 'प्रवादिगजयुथ-केसरी, शास्त्र के अतिरिक्त सिद्धान्त के विद्वान् एवं कुशल टीका- और पद्मावती के उपासक बतलाया है । इन्होंने मंडप३. प्राविद्ध कर्णादिक पद्मनन्दी सैद्धान्तिकारण्योजनि
चन्द्राख्यो मुनिराज पण्डितवरः श्री कुन्द-कुन्दान्वयः । यस्य लोके ।।
श्रवण वेल्लोल लेख नं.४० कौमारदेव तिता प्रसिद्धि जीयस्त सोशामनिधिः
तस्य श्री कुलभूषणाख्य सुमुनेश्शिष्यो विनेयस्तुतः । स धीरः ॥ . -श्रवण वेल्गोल लेख नं.४० प्राविद्ध कर्णादिक पद्मनन्दि सदान्तिकारव्योऽजनि
सद्वत्त: कुलचन्द्र देव मुनिर्यस्सिद्धान्त विद्या निधिः ॥ यस्यलोके।
श्रवण वेल्गोल नं. ४० कौमारदेव तिता प्रसिद्धि यस्तु सो ज्ञान-निधि- ५. मंत्रण मोक्षसद्गुण गणब्धि य बुद्धिगे चद्र नंते वासुधीरः ॥१५॥
कांतेय चित्तवल्लि पदपंकजद्दप्त बुघालि हृत्सरीतच्छिष्यः कुलभूषणारव्य यतिपश्चारित्र वारान्निधि- जांतररागरंजित मनं कुलभूषण दिव्य सेव्य'स्सिद्धान्ताम्बुधिपारिगो नत विनेयस्तत्सधौ महान ।' सद्धान्त मुनीन्द्र रूजित-यशोज्वल जंगमतीर्थ कल्परू १२ शकाम्भोरुहभास्करः प्रपित तर्क प्रग्यकाः प्रभा
ताडपत्रीय धबला की कन्नड लिपि प्रशस्ति
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२२८, वर्ष २८,कि.१
गिरि और गोपाचल (ग्वालियर) की यात्रा की थी और पुत्री जिनमती विस्सही कारापिता प्रणमति श्रेयाम् । मंडपगढ़ के सुलतान ग्यासदीन की सभा में सम्मान प्राप्त
-दानवीर माणिकचन्द पृ०४३ किया था ।' यह मालवे का सुलतान था, इसका राज्य- भट्टारक मल्लि भूषण की अन्य-सूचियों पर से तीन काल सन् १४६६ से १५००ई० तक रहा है। इसकी रचनामों का पता चला है। पंच कल्याण पूजा (ईडर) राजधानी मण्डप दुर्ग थी।
धन्यकुमार चरित पत्र संख्या २०,दि. जैन पावर्वनाथ
मन्दिर चौगान बूंदी (राजस्थान) जैन ग्रन्थ सूची भान मल्लिभषण ने प्राचार्य अमरकीर्ति को पंचास्तिकाय प्र० ३३६), दशलक्षष व्रतोद्यापन पूजा पत्र १४ (ग्रंथ. की प्रति प्रदान की थी और सं० १५४४ में एक निषषी सबी भाग ४१०४९ इनके अतिरिक्त इनकी और भी का निर्माण कराया था। जैसा कि निम्न लेख से स्पष्ट
कृतियाँ होंगी, खास कर ईडर और सूरत के भण्डारी
आदि में अन्वेषण करने पर प्राप्त हो सकती हैं। सं० १५४४ वर्षे वैसाख सुदी ३ सोमे श्री मूलसंधे- मल्लि भूषण गुरु के शिष्य ब्रह्म नेमिदत्त थे। उन्होंने सरस्वति गच्छे बलात्कार गणे भ० विद्यानन्दि देवः तत्प? इनका अपनी कृतियों में स्मरण किया है। इनका समय ल्लिभूषण, श्री स्तम्भतीर्थ हुवड ज्ञातीय श्रेष्ठी विक्रम की १६वी शताब्दी है।
00 . चांपामार्यारूपिणी तत्पुत्री श्री अजिका रत्नसिरि झुल्लिका
एफ ६२, जवाहर पार्क, जिनमती, श्री विद्यानन्द दीक्षिता माथिका कल्याणसिरि, वेस्ट लक्ष्मीनगर, तत्वल्लभी अग्रोतकाशातीय साह देवा भार्या नारंगदेव- दिल्ली-५१
00D
मेरक वाणी धर्मः सुखस्य हेतुर्हेतुर्न विराधकः स्वकार्यस्य ।
तस्मात्सुखभङ्गभिया माभूर्षमस्य विमुखस्त्वम् । अर्थ-धर्म सुख का कारण है । कारण कभी भी अपने कार्य का विरोषी नहीं होता; प्रतः 'धर्म के प्राचरण से सुख नष्ट हो जाएगा ऐसा समझ कर तू धर्म से विमुख मत हो।
सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वराः विदुः ।
यदीये प्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ।। अर्थ-प्राचार्यों ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है। इनके विपरीत-मिण्यावर्शन, मिथ्याज्ञान और मिण्याचारित्र-संसार-परम्परा को बढ़ाने वाले होते हैं।
-प्राचार्य सुषमा 000
६. तत्पट्टोद्याचल बाल भास्कर प्रवर परवादि गज यूथ
केसरि मण्डपगिरिषाद समस्या प्रचन्द्र पूर्ण विकटवादि गोपाचल दुर्ग मेषाकर्षक भविक जन-सस्यामत बापियर्णण-सुरेन्द्र नागेन्द्र ऋगेन्द्रादि सेवित परणार
विंदाना म्वासदीन समामध्य प्राप्त सनमान-पखावत्युपस्तकानां श्री महिलभूषण भट्टारक वर्षणाम् ।
जैन सि.भा. भा. १७ पृ५१
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जैन न्याय-परिशीलन
डा० दरबारी लाल कोठिया, बारामती
नेमि इए, जो उनके चाचा समुद्रविजय के पुत्र थे। इनका साहित्य, इतिहास और पुरातत्व की साक्षियों से यह वैदिक साहित्य में उल्लेख मिलता है। सिद्ध हो च का है कि भारतीय धर्म होते हुए भी जैन धर्म परिष्टनेमि के कोई एक हजार वर्ष पीछे तेईसवें वैदिक और बौद्ध दोनों भारतीय धर्मों से जुदा धर्म है। तीर्थकर पार्श्वनाथ हुए, जो काशी (वाराणसी) के राजा इसके प्रवर्तक हिन्दू धर्म के २४ अवतारों और बौद्ध धर्म विश्वसेन के राजकुमार थे पोर जिन्हें ऐतिहासिक महाके २४ बुद्धों से भिन्न २४ तीर्थकर हैं। इनमें प्रथम तीर्थ- पुरुष मान लिया गया है। इनके पढ़ाई सौ वर्ष बाद कर ऋषभदेव है, जिन्हें प्रादि ब्रह्मा, प्रादिनाथ, बृहद्देव, चौबीसवें तीर्थकर वर्द्धमान-महावीर हुए, जो मन्तिम तीर्थपुरुदेव और वृषभ नामों से भी उल्लेखित किया गया है। कर और बौद्ध धर्म के शास्ता बुद्ध के समकालीन थे एवं युगारम्भ में उन्होंने प्रजा को भोग-भूमि की समाप्ति होने जिन्हें माज २५०० वर्ष हो गए हैं। पर भाजीविका हेतु कृषि (खेती करने), मसि (लिखने
बावशांग मुत: पढ़ने), प्रसि (तलवार मादि साधनों से रक्षा करने)
इन तीर्थंकरों ने जन कल्याण के लिए जो धर्मोपदेश आदि वृत्तियों की शिक्षा दी थी, इससे इन्हें प्रजा
दिया, उसे उनके गणघरों (योग्यतम प्रधान शिष्यों) ने पति भी कहा गया है।' महापुराण, पउमचरिय' मादि के उल्लेखानुसार इनके गर्भ में प्राने पर हिरण्य (सुवर्ण)
में 'द्वादशांग ध्रुत' कहा जाता है। पार्ष, मागम, सिद्धान्त की वर्षा होने के कारण इनका हिरण्यगर्भ भी नाम था।
या। प्रवचन मादि नामों से भी उसका उल्लेख किया जाता है। प्रजापति, हिरण्यगर्भ और वृषभ नामों से इनकी ऋग्वेद,
यह श्रुत मूलत: दो भागों में विभक्त है-(१) अंगप्रविष्ट अथर्ववेद, श्रीमद्भागवत आदि वैदिक वाङ्मय में भी ।
मौर (२) अंमबाह्य । अंगप्रविष्ट वह श्रुत है जो तीर्थकर संस्तुति की गई है । भागवत में तो वृषभावतार के रूप में
की साक्षात् वाणी सुनकर गणधर द्वारा रचा जाता है। पूरा जीवन-चरित देते हुए इन्हें महत-धर्म का प्रवर्तक
इसे वे सुविधानुसार बारह भागों में निबद्ध करते हैं। भी कहा है । अतः ऋषभदेव की मान्यता प्रायः सभी
इस प्रकार है-(१) प्राचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने स्वीकार की है।
स्थानांग, (४) समवायांग, (५) व्याख्या-प्रज्ञप्ति, (६) ऋषभदेव के बाद विभिन्न समयों में क्रमशः अजित- नाथधर्म कथा, (७) उपासकाध्ययन, (८) अन्तःकृद्दश, नाथ से लेकर नमिनाथ पर्यन्त बीस' अन्य तीर्थकर हुए, (8) अनुत्तरोपपादिक दश, (१०) प्रश्नव्याकरण, (११) जिनका जैन वाङ्मय में सविशेष वर्णन है और जो महा- विपाकसूत्र, पौर (१२) दुष्टिवाद । इनमें दृष्टिवाद के भारत काल से प्राक्कालीन हैं। इनके पश्चात् महाभारत पांच भेद हैं-(१) परिकर्म, (२) सूत्र, (३) प्रयमानुकाल में श्री कृष्ण के समय में बाइसवें तीर्थकर मरिष्ट- योग, (४) पूर्वगत और (५) चल्लिका । इनके भी प्रवा१. प्राचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र श्लोक २॥ ५. अथर्ववेद १५, १, २.७ । २. जिनसेन, महापुराण १२-६५ ।
६. भा. पु., स्क. ५, म. ३ । ३. विमलसूरि, पउमचरि० ३-६८।
७. प्राचार्य कुन्दकुन्द, चवीस-तित्थयर-भत्ति, गा.३,४.५ ५. बही, २, ३३, १५।
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अनेकान्त
न्तर भेद किए गए हैं। परिकर्म के ५, पूर्वगत के १४, है। प्रारम्भ में वह शिष्य-परम्परा में स्मृति के प्राधार पौर चल्लिका के पांच भेद हैं । परिकर्म के पांच भेद ये पर विद्यमान रहा। बाद में उसका संकलन किया गया। हैं:-(१) चन्द्र प्रज्ञप्ति, (२) सूर्य प्रज्ञप्ति, (३) जम्बू- वर्तमान में जो श्रुत प्राप्त है, वह दिगम्बर परम्परा के द्वीपप्रज्ञप्ति, (४) द्वीपसागर प्रज्ञप्ति और (५) व्याख्या- अनुसार दृष्टिवाद का कुछ अंश है, शेष ग्यारह अंग और प्राप्ति, (यह पांचवें अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति से अलग है)। बारहवें अंग का बहुभाग नष्ट एवं लुप्त हो चुका है । श्वेपूर्वगत के १४ भेद निम्न हैं-(१) उत्पाद, (२) प्राग्रा- ताम्बर परम्परा का मत इसके विपरीत है। यणीय, (३) वीर्यानुप्रवाद, (४) अस्ति-नास्ति प्रवाद, सार ग्यारह अंगों की उपलब्धि और बारहवें दृष्टिवाद (५) ज्ञान प्रसाद, (६) सत्य प्रवाद, (७) प्रात्मप्रवाद, अंग की अनुपलब्धि है।
कर्म प्रवाद, (६) प्रत्याख्यान प्रवाद, (१०) विद्या- धर्म. वर्शन और न्याय : नवाद, (११) कल्याणनामधेय, (१२) प्राणावाय, (१३) उक्त श्रत में धर्म, दर्शन और न्याय तीनों का समाक्रियाविशाल, और (१४) लोक-बिन्दुसार । चूल्लिका के वेग पडता
पूलिका २ वेश रहता है । मुख्यतया प्राचार के प्रतिपादन का नाम ५ भेद इस प्रकार हैं-(१) जलगता, (२) स्थलगता, धर्म है। इस धर्म का जिन विचारों द्वारा समर्थन एवं (३) मायागता, (४) रूपगता और (५) भाकाशगता।
सम्पोषण किया जाता है उन विचारों को दर्शन कहा इनमें उनके नामानुसार विषयों का वर्णन है।
जाता है। जब धर्म के समर्थन के लिए प्रस्तुत विचारों श्रुत का दूसरा भेव अंगबाह्य है । यह श्रुत मंगप्रविष्ट
को युक्ति-प्रतियुक्ति, खण्डन-मण्डन, प्रश्न-उत्तर और श्रुत के पाधार से प्राचार्यों द्वारा रचा जाता है, इसी से
शंका-समाधान पूर्वक दृढ़ किया जाता है तो उसे न्याय इसे अंगबाह्य श्रुत कहा है। इसके १४ भेद किये गये है।
कहते हैं । धर्म, दर्शन और न्याय में यही मौलिक भेद है। है-(१) सामायिक, (२) चतुर्विशतिस्तव, (३) धर्म-शास्त्र कहता है कि 'सब जीवों पर दया करो, किसी वन्दना, (४) प्रतिक्रमण, (५) वैनयिक, (६) कृतिकर्म, जीव की हिंसा न करो' अथवा 'सत्य बोलो, असत्य कभी
दशवकालिक, (6) उत्तराध्ययन, (९) कल्प्य व्य- मत बोलो' । दर्शनशास्त्र धर्मशास्त्र के इस कथन (नियम) बहार, (१०) कल्प्याकल्प्य, (११) महाकल्प, (१२) को हृदय में उतारता हया कहता है कि 'जीवों पर दया परीक, (१३) महापुण्डरीक और (१४) निषिद्धिका। करना कर्तव्य है, गुण है, पुण्य है और सुख मिलता है। इस श्रुत में मुख्यतया साध्वाचार वर्णित है।
किन्तु जीव की हिंसा प्रकर्तव्य है, दोष है, पाप है, और : उत्तरकाल में अल्पमेधा के धारक प्राचार्य इसी द्विविध दुःख मिलता है।" इसी तरह सत्य बोलना कर्तव्य है, गुण श्रत का पाश्रय लेकर विविध ग्रन्थों की रचना करते और है, पुण्य है, और सुख मिलता है। किन्तु असत्य बोलना जन्हें जन-जन तक पहुँचाने का प्रयत्ल करते हैं। अकर्तव्य है, दोष है, पाप है और दुःख मिलता है। न्यायउपलब्ध श्रुतः
शास्त्र दर्शनशास्त्र के इस समर्थन को युक्ति देकर दृढ़ ' ऋषभदेव का द्वादशांग श्रुत अजितनाथ तक, अजित- करता है कि यतः दया जीव का स्वभाव है, अन्यथा कोई नाथ का शम्भवनाथ तक और शम्भवनाथ का अभिनन्दन- भी जीव जीवित नहीं रह सकता। परिवार में, देश में नाथ तक, इस तरह पूर्व तीर्थकर का श्रुत उत्तरवर्ती मगले और राष्ट्रों में अनवरत हिंसा रहने पर शान्ति और सुख तीर्थकर तक रहा । तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ का द्वाद- कभी उपलब्ध नहीं हो सकते । इसी प्रकार 'सत्य बोलना शांग श्रुत तब तक रहा, जब तक महावीर तीर्थंकर नहीं मनुष्य का स्वभाव न हो तो परस्पर में अविश्वास छा हुए। आज जो द्वादशांग श्रुत उपलब्ध है, वह तीर्थंकर जायेगा और लेन-देन प्रादि सारे सामाजिक व्यवहार या महावीर का है । अन्य सभी तीर्थकरों का द्वादशांग श्रुत तो भ्रष्ट हो जायेंगे मोर या समाप्त हो जायेंगे। तात्पर्य मष्ट एवं लुप्त हो जाने से अनुपलब्ध एवं प्राप्त है। यह है कि धर्म जहाँ सदाचार का विधान पौर दुराचार वर्षमान महावीर का द्वादशांग श्रुत भी पूरा उपलब्ध नहीं का मात्र निषेध करता है वहाँ दर्शनशास्त्र उनमें कर्तव्या
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जनन्याय परिशीलन
शा
कर्तव्य, पुण्या-पुण्य पौर सुख-दुःख का विचार पैदा करता द्वारा ही सम्भव है। हैएवं मार्ग-दर्शन करता है तथा न्यायशास्त्र दर्शनशास्त्र श्वेताम्बर परम्परा के भागमों में भी "से केवढे के विचार को हेतुपूर्वक मस्तिष्क में बिठा देता है। वस्तुतः भंते एवमच्चाई जीवाणं भंते? कि सासया प्रसासया। न्यायशास्त्र से विचार को जो दृढ़ता मिलती है। वह चिर- गोयमा। जीवा सिय सासया सिय प्रसासया । गोयमा। स्थायी, विवेकाधूत और निर्णयात्मक होती है। उसमें संदेह, दम्बठ्ठयाए सासया भावठ्याए प्रसासमा" । जैसे तर्कगर्भ विपर्यय या अनिश्चितता की स्थिति नहीं रहती। इसी प्रश्नोत्तर मिलते है। "सिया' या 'सिय' शब्द 'स्यात्' (कर्षकारण भारतीय दर्शनों में न्यायशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान चिदर्थबोधक) संस्कृत शब्द का पर्यायवाची प्राकृत शब्द है,
जो स्याद्वाद न्याय का प्रदर्शक है। यशोविजय ने" स्पष्ट जैन न्याय का उद्गम:
लिखा है कि "स्यावादार्थी दृष्टिवादार्णवोत्थः" । स्यावादार्थ प्रस्तुत में जन न्याय, उसके उदगम और विकास पर -जैन न्याय दृष्टिवाद रूप अर्णव (समुद्र) से उत्पन्न विचार करना मुख्यतय: अभीष्ट है । प्रथमतः उसके उद्गम हुमा है । यथार्थ में 'स्याद्वाद' जंन न्याय का ही पर्याय शब्द पर विचार किया जाता है।
है। समन्तभद्र ने" सभी तीर्थकरों को स्याद्वादी-स्यावावहम ऊपर दृष्टिवाद अंग का उल्लेख कर पाये है। न्यायप्रतिपादक भोर उनके न्याय को स्याद्वादन्याय बतइसमें जैन न्याय के प्रचुर मात्रा में उद्गम-बीज उपलब्ध लाया है। हैं। प्राचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त कृत "षट्खण्डागम" में, यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ब्राह्मण-न्याय पोर जो उक्त दृष्टिवाद अंग का ही अंश है, 'सिया पज्जता, बौद्ध-न्याय के बाद जैन न्याय का विकास हुमा है, इसलिए सिया अपज्जता 'मणास-अपज्जता दव्वपमाणेण केवडिया, उसकी उत्पत्ति इन दोनों से मानी जानी चाहिए। छान्दोअंसखेज्जा,' जैसे 'स्यात्' शब्द और प्रश्नोत्तर शैली को ग्योपनिषद् (प्र०७) एक 'वाकोवाक्य' शास्त्र-विद्या का लिए हुए प्रचुर वाक्य पाए जाते हैं, जो जैन न्याय के वीज उल्लेख किया गया है, जिसका अर्थ तर्कशास्त्र, उत्तर-प्रत्युहैं-उनसे उसकी उत्पत्ति हुई है, यह कहा जा सकता है। तरशास्त्र, युक्ति-प्रति-युक्तिशास्त्र किया जाता है।" 'षट्खण्डागम' के आधार से रचित आचार्य कुन्दकुन्द के वात्स्यायन के न्यायभाष्य" में भी एक आन्वीक्षिकी विद्या पंचास्तिकाय, प्रवचनसार प्रादि पार्ष-ग्रंथों में भी उसके का, जिसे न्याय-विद्या अथवा न्यायशास्त्र कहा गया है, कुछ और अधिक उदगम-बीज मिलते हैं। "सिय पत्थि- कथन मिलता है। तक्षशिला के विश्वविद्यालय में दर्शनणत्थि उहयं', 'जम्हा,''तम्हा' जैसे युक्तिप्रवण वाक्यों एवं शास्त्र एवं न्यायशास्त्र के अध्ययन, अध्यापन के प्रमाण शब्द प्रयोगों द्वरा उनमें प्रश्नोत्तर उठा कर विषयों को भी मिलते बताये जाते हैं ।" इससे जैन न्याय का उद्भव दृढ़ किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि जैन न्याय ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय से हुआ प्रतीत होता है ? का उद्भव दृष्टिवाद अंगश्रुत से हमा है। दृष्टिवाद का यह प्रश्न युक्त नहीं है, क्योंकि उपर्यक्त न्यायों से भी जो स्वरूप दिया गया है, उससे भी उक्त कथन की पुष्टि पूर्ववर्ती उक्त दृष्टिवाव श्रुत पाया जाता है और उसमें होती हैं । उसके स्वरूप में कहा गया" कि 'उसमें विविध प्रचुर मात्रा में जैन न्याय के बीज समाविष्ट हैं । प्रतः दृष्टियों-वादियों की मान्यतामों का प्ररूपण और उनकी उसका उदय उसी से मानना उपयुक्त है । दूसरी बात यह समीक्षा की जाती है।' यह समीक्षा हेतुपों एवं युक्तियों है कि ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय में कहीं भी स्थाद्वाद ८. षट्खंडा. १२११७६, घव. पु. १ पृ. २१६ ।
१३. स्वयम्भू० १४, १०२ । प्राप्तमी. का. १३ । ६. वही, १२२१५०, पु० ३ पृ० २६२ ।
१४. दर्शन का प्रयोजन, पृ.१। १०. पंचा० १४, १३।
१५. न्याय मा. पृ.४। ११. षट्खं०, धवला, पु. १, पृ.१०८।
१६. विक्रम स्मृति ग्रंथ पृ. ७१८ । १२. प्रष्टस. टी. पृ.१।
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का समर्थन नहीं है, प्रत्युत उसकी मीमांसा है। ऐसी जैन दर्शन क्षेत्र में युगप्रवर्तक का कार्य किया है। उनसे स्थिति में स्याद्वाद रूप जन न्याय का उद्गम स्यावादात्मक पहले बैन दर्शन के प्राणभूत तत्व 'स्याद्वाद' को प्रायः दृष्टिवाद श्रुत से ही सम्भव है। सिद्धसेन," प्रकलंक, आगम रूप ही प्राप्त था और उसका प्रागमिक तत्वों के पौर विद्यानन्द" का भी यही मत है। प्रकलंक देव ने निरूपण में ही उपयोग होता था तथा सीधी-सादी विके म्यायविनिश्चय के प्रारम्भ में कहा है कि "कुछ गुण द्वेषो चना कर दी जाती थी। विशेष युक्तिवाद देने की उस ताकिकों ने कलिकाल के प्रभाव और अज्ञानता से स्वच्छ समय आवश्यकता नहीं होती थी; परन्तु समन्तभद्र के न्याय को मलिन बना दिया है । उस मलिनता को सम्य- समय में उसकी प्रावश्यकता महसूस हुई, क्योंकि दूसरीज्ञानरूपी जल से किसी तरह दूर करने का प्रयत्न करेंगे। तीसरी शताब्दी का समय भारतवर्ष के इतिहा प्रकलंक के इस कथन से ज्ञात होता है कि जैन न्याय दार्शनिक क्रान्ति का रहा है । इस समय विभिन्न दर्शनों में ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्याय से पूर्व विद्यमान था और अनेक क्रान्तिकारी विद्वान पैदा हुए हैं । यद्यपि महावीर जिसे उन्होने मलिन कर दिया था, तथा उस मलिनता को भौर बुद्ध के उपदेशों से यज्ञप्रधान वैदिक परम्परा का प्रकलंक ने दूर किया। अत: जैन न्याय का उद्गम उक्त बढ़ा हुमा प्रभाव काफी कम हो गया था और श्रमणम्यायों से नही हुमा, अपितु दुष्टिवाद श्रुत से हुआ है। जैन तथा बौद्ध परम्परा का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो चुका
सम्भव है कि उक्त न्यायों के साथ जैन न्याय भी था। किन्त कछ शताब्दियों के बाद वैदिक परम्परा का फला-फूला हो; अर्थात् जैन न्याय के विकास में ब्राह्मण- पुन: प्रभाव प्रसृत हुआ और वैदिक विद्वानों द्वारा श्रमणन्याय और बौद्ध न्याय का विकास प्रेरक हुमा हो और परम्परा के सिद्धान्तों की मालोचना एवं काट-छांट प्रारंभ उनकी विविध क्रमिक शास्त्र रचना जैन न्याय की ऋमिक हो गई। फलस्वरूप श्रमण- बौद्ध परम्परा मे अश्वघोष, शास्त्र रचना में सहायक हुई हो । समकालीनों में ऐसा मातृचेट, नागार्जुन प्रभृति विद्वानों का प्रादुर्भाव हुमा और मादान प्रदान होना या प्रेरणा लेना स्वाभाविक है। उन्होंने वैदिक परम्परा के सिद्धान्तों एवं मान्यताओं का जैन न्याय का विकास :
खण्डन और अपने सिदान्तों का मण्डन, प्रतिष्ठापन तथा ___ काल की दृष्टि से जैन न्याय के विकास को तीन
परिष्कार किया। उघर वैदिक परम्परा में भी कणाद, कालों में बांटा जा सकता है और उन कालों के नाम
भक्षपाद, बादरायण, जमिनी मादि महा उद्योगी विद्वानों निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं :
का प्राविर्भाव हमा भौर उन्होंने भी प्रश्वघोषादि बौद्ध. १-पादिकाल अथवा समन्तभद्रकाल (ई० २०० से
विद्वानों के खण्डन-मण्डन का सयुक्तिक जवाब देते हुए ई०६५० तक)।
अपने वैदिक सिद्धान्तों का संरक्षण किया। इसी दार्शनिक २-मध्यकाल अथवा अकलंककाल (ई०६५० से ई० उठापटक में ईश्वरकृष्ण, प्रसंग, वसुवन्धु, विन्ध्यवासी, १०५० तक)।
वात्स्यायन प्रभृति विद्वान् दोनों ही परम्पराओं में हुए। ३-अन्त्यकाल अथवा प्रभाचन्द्रकाल (ई. १०५० से इस तरह उस समय सभी दर्शन अखाड़े बन चुके थे और ई० १७०० तक)।
परस्पर में एक दूसरे को परास्त करने में लगे हुए थे। १.माविकाल अथवा समन्तभद्र काल:
इस सबका भाभास उस काल के अश्वघोषादि विद्वानों के जैन न्याय के विकास का प्रारम्भ स्वामी समन्तभद्रले उपलब्ध साहित्य से होता है। जब ये विद्वान् अपनेहोता है । स्वामी समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्र के अपने दर्शन के एकान्त पक्षों और मान्यताओं के समर्थन १७. द्वात्रिशिका १-३०, ४.१५ ।
२०. महात्म्यात्तमसः स्वयं कलिवशात्प्रायो गुणद्वेषिभिः । १८. तत्वार्थवार्तिक पृ. २६५ ।
न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य ननीयते, १६. प्रष्टसहस्री पृ. २३८ ।
सम्यग्ज्ञानजलचो निरमलस्तत्रानुकम्पापरः ॥
न्यायवि० श्लो०१
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जैन न्याय-परिशीलन
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तथा पर-पक्ष के निराकरण में व्यस्त थे। उसी समय देती है ? मनित्यवादी कहता था कि वस्तु प्रति समय दक्षिण भारत के क्षितिज पर जैन परम्परा में प्राचार्य नष्ट हो रही है, कोई भी वस्त स्थिर नही है। अन्यथा गद्धपिच्छ के बाद स्वामी समन्तभद्र का उदय हमा। ये जन्म, मरण, विनाश, प्रभाव, परिवर्तन प्रादि नही होना प्रतिभा की मूर्ति और क्षात्र तेज से सम्पन्न थे। सूक्ष्म एवं चाहिए, जो स्पष्ट बतलाते है कि वस्तु नित्य नहीं है, अगाध पाण्डित्य और समन्वयकारिणी प्रज्ञा से वे समन्वित अनित्य है। थे। उन्होने उक्त संघर्षों को देखा और अनुभव किया कि इसी तरह भेदवाद-प्रभेदवाद, अपेक्षावाद-अनपेक्षापरस्पर के प्राग्रहों से वास्तविकता लुप्त हो रही है। दार्श- वाद, हेतुवाद-अहेतुवाद, देववाद-पुरुषार्थवाद प्रादि एकनिकों का हठ भावकान्त, प्रभावकांत, वैतकांत, अद्वैत- एक वाद (पक्ष) को माना जाता और परस्पर में संघर्ष कान्त, अनित्यकान्त, नित्यकान्त, भेदकान्त, अभेदै- किया जाता था। कान्त, हेतुवादकान्त, अहेतुवादैकान्त, अपेक्षावादैकान्त, जैन ताकिक समन्तभद्र ने इन सभी दार्शनिकों के पक्षों अनपेक्षावादकान्त, देवकान्त, पुरुषार्थेकान्त, पुण्यकान्त, का गहराई और निष्पक्षदष्टि से अध्ययन किया तथा पापकान्त आदि ऐकान्तिक मान्यतानों में सीमित है।
उनके दृष्टिकोणों को समझ कर स्याद्वादन्याय से उनमें इसकी स्पष्ट झलक समन्तभद्र की 'याप्तमीमासा' में
सामंजस्य स्थापित किया । उन्होंने किसी के पक्ष को मिलती है ।
मिथ्या कह कर तिरस्कृत नहीं किया, क्योंकि वस्तु अनन्त समन्तभद्र ने प्राप्तमीमांसा में दार्शनिकों की इन
धर्मा है। प्रतः कोई पक्ष मिथ्या नही है, वह मिथ्या तभी मान्यताओं को दे कर स्याद्वादन्याय से उनका समन्वय होता है, जब वह इतर का तिरस्कार करता है । किया है । भावकान्तवादी अपने पक्ष की उपस्थापना करते हुए कहता था कि सब भाव रूप ही है, प्रभावरूप कोई समन्तभद्र ने वादियों के उक्त पक्ष-यूगलों में स्याद्वादवस्त नहीं है...'सर्व सर्वत्र विद्यते' (सब सब जगह है), न्याय के माध्यम से सप्तभंगी की विशद योजना करके न कोई प्रागभाव रूप है, न प्रध्वंसाभाव रूप है, न उनके आपसी संघर्षों का जहां शमन किया, वहा उन्होंने अन्योन्याभावरूप है और न अत्यन्त भावरूप है। अभाव- तत्वग्राही एवं पक्षाग्रह-शून्य निष्पक्ष दृष्टि भी प्रस्तुत वादी इसके विपरीत प्रभाव की स्थापना करता था और की। यह निष्पक्ष दृष्टि स्याद्वाद-दृष्टि ही है, क्योकि जगत को शून्य बतलाता था ।
उसमें सभी पक्षों का समादर एव समावेश है । एकान्तअद्वैतवादी का मत था कि एक ही वस्तु है, अनेक दृष्टियो में अपना-अपना भाग्रह होने से अन्य पक्षों का नही । अनेक का दर्शन मायाविज़म्भित अथवा अविषोप- न समादर है और न समावेश है। कल्पित है । प्रतवादियों के भी अनेक पक्ष थे। कोई समन्तभद्र की यह अनोखी किन्तु सही क्रांतिकारी मात्र ब्रह्म का समर्थन करता था, कोई केवल ज्ञान को अहिंसक दृष्टि भारतीय दार्शनिकों, विशेषकर उत्तरवर्ती और कोई केवल शब्द को मानता था। द्वैतवादी इसका जैन ताकिकों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुई। सिद्धसेन, विरोध करते थे और तत्व को अनेक सिद्ध करते थे। प्रकलंक, विद्यानन्द, हरिभद्र प्रादि ताकिको ने उनका द्वतवादियों की भी मान्यतायें भिन्न-भिन्न थीं । कोई अनुगमन किया है। सम्भवतः इसी कारण उन्हें 'कलियुग सात पदार्थ मानता था, कोई सोलह और कोई पच्चीस में स्याद्वादतीर्थ का प्रभावक' और 'स्याद्वादाग्रणी' आदि तत्वों की स्थापना करता था।
रूप में स्मृत किया है। यद्यपि स्याद्वाद और सप्नभंगी का नित्यवादी वस्तु मात्र को नित्य बतलाता था। वह प्रयोग प्रागमों में" तदीय विषयों के निरूपण मे भी होता तर्क देता कि यदि वस्तु अनित्य हो तो उसके नाश हो था, किन्तु जितना विशद और विस्तृत प्रयोग एवं योजना जाने के बाद यह जगत और वस्तुएँ स्थिर क्यों दिखाई उनकी कृतियों में उपलब्ध है उतना उनसे पूर्व प्राप्त नहीं २१. षट्ख ० १. १. ७६, १. २. ५० मादि तथा पंचास्ति० गाथा १४ ।
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२३४, वर्ष २८, कि० १
मनकान्त
है। समन्तभद्र ने 'नययोगान्त' सर्वथा, 'नयनय-विशारदः अनित्य आदि पक्षों के आग्रह को भी समाप्त कर उन्हें जैसे पदप्रयोगों द्वारा सप्तभग नयो से वस्तु की व्यवस्था वास्तविक सिद्ध किया है। उनका कहना था कि इतर होने का विधान बनाया और "कथचित सदेवेष्ट ५ "सदेव पक्ष के तिरस्कारक 'सर्वथा" के आग्रह को छोड कर उस सर्व 'को' नेच्छेत् स्वरूपादि-चतुष्टयात्" जैसे वचनों द्वारा पक्ष के संग्राहक "स्यात्' के वचन मे वस्तु का निरूपण उस विधान को व्यवहृत किया है।
करना चाहिए। इस निरूपण में वस्तु और उसके सभी उदाहरण के लिए हम उनके भाववाद और प्रभाववाद धर्म सुरक्षित रहते हैं। एक-एक पक्ष सत्यांशों का ही के समन्वय को उनकी प्राप्तमीमासा से प्राप्त करते हैं निरूपण करते है, सम्पूर्ण सत्य का नहीं। सम्पूर्ण सत्य का वस्तु कथंचित् भावरूप ही है, क्योकि स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र
निरूपण तभी सम्भव है जब सभी पक्षो को आदर दिया स्वकाल भोर स्वभाव से वह वैसी ही प्रतीत होती है। जाए-उनकी उपेक्षा न की जाए। समन्तभद्र" ने स्पष्ट यदि उसे सब प्रकार से भावरूप माना जाए, तो प्रागभाव,
घोषणा की कि निरपेक्ष--इतर तिरस्कारक पक्ष-सम्यक प्रध्वंमाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव-इन चार नही है, सापेक्ष-इतरसंग्राहक पक्ष ही सम्यक् (सत्य प्रभावों का प्रभाव हो जाएगा, फलतः वस्तु अनादि,
जाएगा. फलतः वस्त प्रताडि प्रतिपादक) है। अनन्त, सर्वात्मक और स्वरूप-रहित हो जाएगी। अतः प्राचार्य समन्तभद्र ने प्रमाणलक्षण, नयलक्षण, सप्तवस्तु स्वरूपचतुष्टय की अपेक्षा भावरूप ही है । इसी तरह भंगीलक्षण, स्याद्वादलक्षण, हेतुलक्षण, प्रमाण-फल व्यवस्था, वस्तु कथंचित् अभावरूप ही है, क्योकि परद्रव्य, परक्षेत्र, वस्तुस्वरूप, सर्वज्ञसिद्धि प्रादि जैन न्याय के कतिपय अंगोंपरकाल और परभाव से वैसी ही अवगत होती है। यदि प्रत्यंगों का भी प्रतिपादन किया, जो प्रायः उनके पूर्व नहीं उसे सर्वथा अभावरूप ही स्वीकार किया जाए तो विधि हुआ था अथवा स्पष्ट था। अत: जैन न्याय के विकास रूप में होने वाले मारे ज्ञान और वचन के व्यवहार लुप्त के आदिकाल को समन्तभद्रकाल कहना सर्वथा उचित है । हो जायेंगे और जगत् अन्ध एवं मूक बन जाएगा। अतः समन्तभद्र के इस महान कार्य को उत्तरवर्ती श्रीदत्त, पूज्यवस्तु परचतुष्टय की अपेक्षा से प्रभावरूप ही है। इसी पाद, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति, पात्रस्वामी प्रभति जैन प्रकार वस्तु कथचित् उभय रूप ही है, क्योकि क्रमश. दोनों ताकिकों ने अपनी महत्वपूर्ण रचनात्रों द्वारा अग्रसर विवक्षाएँ होती है । वस्तु कथचित् प्रवक्तव्य ही है, क्योकि किया। श्रीदत्त ने, जो वेसठ वादियों के विजेता थे, एक साथ दोनों विवक्षाएं सम्भव नही है । इन चार भंगों जल्पनिर्णय ; पूज्यपाद ने सार-संग्रह; सिद्धसेन ने सन्मति (तत्तद् धर्म के प्रतिपादक उत्तर-वाक्यो) को दिखला कर मल्लवादी ने द्वादशार नयचक्र सुमति ने सन्मति-टीका; वचन की शक्यता के आधार पर समन्तभद्र ने अपुनरुक्त पात्रस्वामी ने त्रिलक्षण-कदर्थन जैसी ताकिक कृतियों को तीन भंग (तीन धर्म के प्रतिपादक तीन उत्तरवाक्य) और रचा है। दुर्भाग्य से जल्पनिर्णय, सारसंग्रह, सन्मतिटीका योजित करने की सूचना देते हुए सप्तभगी-योजना प्रदशित और त्रिलक्षण-कदर्थन आज उपलब्ध नही है, केवल उनके की है । इस तरह समन्तभद्र ने भाव (सत्ता) और प्रभाव उल्लेख मिलते है। सिद्धसेन का सन्मति और मल्लवादी (प्रसत्ता) के पक्षो में होने वाले प्राग्रह को समाप्त कर का द्वादशारनयचक्र उपलब्ध है, जो समन्दभद्र की कृतियों दोनो को वास्तविक बतलाया और दोनो को वस्तुवर्म के प्राभारी हैं। निरूपित किया। इसी प्रकार उन्होने द्वैत-अद्वैत, नित्य- हमारा अनुमान है कि इस काल में और भी अनेक
२२. प्राप्तमी० १४॥ २३. वही, का० २३ । २४. प्राप्तमी० का० १४ । २५. वही, १५।
२६. वही, का. ६, १०, ११, १२, १४, १५ । २७. वही, २०, २२, २३ । २८. स्वयम्भू. १०१, १०२ । २६. प्राप्तमी. १०८, स्वय. ६१, युक्त्यनुशा. का. ५१ ।
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जैन न्याय-परिशीलन
२३५ न्याय-अथ रचे गए होगे", क्योंकि एक तो उस समय का शास्त्रार्थ का अग मानना इस काल की देन बन गया"। दार्शनिक वातावरण प्रतिद्वन्द्विता का था। दूसरे, जैन क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शन्यवाद, विज्ञानवाद आदि विद्वानों मे धर्म और दर्शन के ग्रथों को रचने को मुख्य पक्षो का समर्थन इम काल में धड़ल्ले से किया गया और प्रवृत्ति थी। बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षित (ई० ७वी, ८वी कट्टरता से इतर का निरास किया गया। शती) और उनके शिष्य कमलशील (ई० ७वी, ८वी प्रकलक ने इस स्थिति का अध्ययन किया और सभी शती) ने तत्वसंग्रह एवं उसकी टीका में जैन ताकिको के दर्शनो का गहरा एव मुक्ष्म अभ्यास किया। इसके लिए नामोल्लेख और बिना नामोल्लेख के उद्धरण देकर उन्हे काची, नालन्दा ग्रादि के तत्कालीन विद्यापीठो मे उनकी आलोचना की है। परन्तु वे ग्रंथ आज उपलब्ध प्रच्छन्न वेप में रहना पडा। समन्तभद्र द्वारा स्थापित नहीं है । इस तरह इस आदिकाल अथवा समन्तभद्र-काल स्याद्वादन्याय की भूमिका ठीक तरह न समझने के कारण में जैन न्याय की एक योग्य और उत्तम भूमिका तैयार दिङ्नाग, धर्मकीति, उद्योतकर, कुमारिल मादि बौद्धहो गयी थी।
वैदिक विद्वानो ने दूषित कर दी थी और पक्षाग्रही दष्टि २. मध्यकाल अथवा प्रकलंक काल :
का ही समर्थन किया था । ग्रत प्रकलक ने महाप्रयास उक्त भूमिका पर जैन न्याय का उत्तुग और सर्वांग
करके दो अपूर्व कार्य किए ----एक तो स्थाद्वाद न्याय पर पूर्ण महान प्रासाद जिस कुशल और तीक्ष्ण-बुद्धि ताकिक- मारोपित दूषणो को दूर कर उसे स्वच्छ बनाया" और शिल्पी ने खड़ा किया, वह है अकलक । प्रकलक के काल दूसरा कितना ही नया निर्माण किया। यही कारण है कि में भी समन्तभद्र की तरह जबर्दस्त दार्शनिक मठभेड हो उनके द्वारा निर्मित महत्वपूर्ण ग्रथो मे चार ग्रथ तो केवल रही थी। एक तरफ शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि, प्रसिद्ध न्यायशास्त्र पर ही लिखे गए है। यहा अकलक के उक्त मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात उद्योतकर प्रभति दोनो कार्यों का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है -- वैदिक विद्वान अपने पक्षो पर आरूढ थे, तो दूसरी ओर १. दूषणोद्धार : धर्मकीति और उनके तर्कपटु शिष्य एवं व्याख्याकार यो अकलक ने विभिन्न वादियो द्वारा दिए गए सभी प्रज्ञाकार, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि प्रादि बौद्धताकिक अपने पक्ष दूपणो का परिहार कर उनके सिद्धान्तो की कड़ी समीक्षा पर दृढ थे। शास्त्रार्थों और शास्त्र-निर्माण की पराकाष्ठा की है। किन्तु यहा उनके दूपणोद्धार और समीक्षा के थी। प्रत्येक दार्शनिक का प्रयत्न था कि वह जिस किसी केवल दो स्थल प्रस्तुत किए जाते है --- तरह अपने पक्ष को सिद्ध करे और परपक्ष का निरा- (क) प्राप्तमीमासा मे समन्तभद्र" ने मुख्यतया प्राप्त करण कर विजय प्राप्त करे । इतना ही नही, परपक्ष को की सर्वज्ञता और उनके उपदेश ग्याद्वाद की सिद्धि प्रसद् प्रकारो से पराजित एवं तिरस्कृत भी किया जाता की है पीर-केवलज्ञान और स्यादाद में साक्षात पा। विरोधी के लिए 'पशु', 'अहीक' जैसे शब्दो का प्रयोग (प्रत्यक्ष) एव असाक्षात् (परोक्ष) पर्वतत्वप्रकाशन का करके उसे और उसके सिद्धान्तो को तुच्छ प्रकट किया भेद बतलाया है"। कुमारिल ने मीमासारलोकवातिक मे जाता था। यह काल जहाँ तक के विकास का मध्याह्न सर्वज्ञता पर और धर्मकीति ने प्रमावातिक मे स्याद्वाद माना जाता है: वहाँ इस काल में न्याय का बड़ा उपहास (अनेकान्त) पर प्राक्षेप किए है : कुमाग्लि कहते है--- भी हुमा है। तत्व के सरक्षण के लिए छल, जाति और एवं यः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः । निग्रह-स्थानों का खुल पर प्रयोग करना और उन्हे सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ।। ३०. श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. ५४॥६७ मे समति- ३२. न्यायविनिश्चय की कारिका २, जो पहले फुटनोट में
सप्तक नाम के एक महत्वपूर्ण तर्क ग्रंथ का उल्लेख है, पा चुकी है। जो प्राज अनुपलब्ध है।
३३. प्राप्तमी. का. ५ और ११३ । ३१. न्यायसू. १३१०१, ४।२।५०; शरा२,३,४; आदि। ३४. वही, का. १०५।
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९३६, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
नर्ते तदागमात्सिद्धयेन्न च तेनागमो विना।
सुगतोऽपि मगो जाते मृगोऽपि सुगत: स्मृतः। -मीमा. श्लो. ८७। तथापि सुगतो वन्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ जो सूक्ष्मादि विषयक प्रतीन्द्रिय केवलज्ञान पुरुष के तथा वस्तुबलादेव भेदाभेवव्यवस्थितेः । माना जाता है, वह पागम के बिना सिद्ध नहीं होता चोदितो दधि खावेति किमष्टमभिधावति ॥ और उसके बिना आगम सिद्ध नही होता, इस प्रकार
न्यायवि. का. ४७२, ३७३, ३७४ । सर्वज्ञता के स्वीकार में अन्योन्याश्रय दोष है।'
'दधि और ऊंट को एक बतला कर दोष देना धर्मअकलंक कुमारिल के इस दूषण का परिहार करते कीर्ति का पूर्वपक्ष (अनेकान्त) को न समझना है और हुए उत्तर देते है
दूषक हो कर भी वे विदूषक-दूषक नहीं, उपहास्य होते एवं यत्केवलज्ञानमनुमान विजम्भितम् । है, क्योंकि उन्ही की मान्यतानुसार सुगत भी मृग थे और नर्ते तदागमात् सिद्धयेत् न च तेन विनाऽगमः ॥ मृग भी सुगत हुआ है। फिर भी सुगत को वन्दनीय और सत्यमर्थबलावेव पुरुषातिशयो मतः।
मृग को भक्षणीय कहा जाता है और इस तरह पर्यायभेद प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥ से सुगत में वन्दनीय-भक्षणीय की भेदव्यवस्था तथा
-न्यायवि. का. ४१२, ४१३। सुगत व मृग में एक चित्तसन्तान (जीवद्रव्य) की अभेद'यह सच है कि अनुमान द्वारा सिद्ध केवलज्ञान
रामि केवलज्ञान व्यवस्था की जाती है, इसी प्रकार वस्तुबल (पर्याय और (सार्वज्ञय) प्रागम के बिना और पागम केवलज्ञान के
द्रव्य की प्रतीति) से सभी पदार्थों मे भेद और अभेद की बिना सिद्ध नहीं होता, तथापि उनमें अन्योन्याश्रय दोष व्यवस्था है । अतः किसी को 'दही खा' कहने पर वह ऊंट नहीं है क्योंकि पुरुषातिशय-केवलज्ञान अर्थबल-प्रतीति- को खाने के लिए क्यो दौड़गा, क्योकि सत्-द्रव्य की अपेक्षा वश से माना जाता है और इसलिए बीजांकुर के प्रबंध- अभेद होने पर भी पर्याय की अपेक्षा उनमे भेद है। अतसन्तान की तरह इन (केवलज्ञान और पागम) का प्रबन्ध एव वह भक्षणीय दही (पर्याय) को ही खाने के लिए (सन्तान) प्रादि कहा गया है।'
दौड़ेगा, अभक्षणीय ऊंट (पर्याय) को खाने के लिए नही। यहाँ स्पष्ट है कि समन्तभद्र ने अनुमान से जिस यही वस्तु-व्यवस्था है। भेदाभेद (अनेकान्त) तो वस्तु का केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की सिद्धि की थी, कुमारिल ने स्वभाव है, उसका अपलाप नही किया जा सकता। उसी में अन्योन्याश्रय दोप दिया है। प्रकलंकदेव ने सहेतुक
यहाँ प्रकलक ने धर्मकीति के प्राक्षेप का शालीन उपउसी दोष का परिहार किया और सर्वज्ञता तथा प्रागम हा स द्वारा बड़ा ही करारा उत्तर दिया है। बौद्धदोनो को अनादि बतलाया है।
परम्परा मे सुगत पूर्व जन्म मे मृग थे, तब वे भक्षणीय थे (ख) धर्मकीति का स्याद्वाद पर निम्न प्राक्षा है -
और जब वही मृग सुगत हुमा तब वह भक्षणीय नही रहा; सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृते. ।
वन्दनीय बन गया। इस प्रकार एकचित्त सन्तान की अपेक्षा चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ॥
उनमें अभेद है और मृग तथा सुगत दो पर्यायों की दृष्टि -प्रमाणवा. १.१८३ ।।
से भेद है। इसी प्रकार जगत् की प्रत्येक वस्तु इस भेदाभेद 'यदि सब पदार्थ उभयरूप-अनेकान्तात्मक है तो की व्यवस्था का अतिक्रमण नहीं करती। अकलक ने धर्मउनमे भेद न रहने के कारण किसी को "दही खा" कहने कीति के प्रारोप का उत्तर देते हुए यहाँ यही सिद्ध किया पर वह ऊट को खाने के लिए क्यो नही दौड़ता।'
है। इस तरह अकलंक ने दूषणोद्धार का कार्य बड़ी योग्यता धर्मकीर्ति के इस पाक्षेप का सबल उत्तर देते हुए
और सफलता के साथ पूर्ण किया है। अकलंक कहते है -
(२) नव-निर्माण : वध्यष्ट्रादेरभेवत्वप्रसंगादेकचोदनम् ।
अकलंक देव ने दूसरा महत्वपूर्ण कार्य नव-निर्माण का पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषकः ॥
किया। जैन न्याय के जिन आवश्यक तत्वों का उनके
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जैन न्याय-परिशीलन
२३७
समय तक विकास नहीं हो सका था, उनका उन्होंने विकास प्रकलंक ने जैन न्याय की जो रूपरेखा और दिशा किया अथवा उनकी प्रतिष्ठा की। उन्होने अपने चार पथ निर्धारित की, उसी का अनुसरण उत्तरवर्ती सभी जैन न्यायशास्त्र पर लिखे है। वे है--(१) न्याय-विनिश्चय- ताकिकों ने किया है। हरिभद्र, वीरसेन, कुमार नन्दि, (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), (२) सिद्धिविनिश्चय (स्वोपज्ञ- विद्यानन्द, अनन्तवीर्य प्रथम, वादिराज, माणिक्य नन्दि वृत्ति सहित), (३) प्रमाण-संग्रह (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित), आदि मध्ययुगीन आचार्यों ने उनके कार्य को आगे बढ़ाया और (४) लघीयस्त्रय (स्वोपज्ञ वृत्ति सहित)। ये चारो और उसे यशस्वी बनाया है । उनके मूत्रात्मक कथन ग्रंथ कारिकात्मक है। न्याय विनिश्चय में ४८०, सिद्धिवि. इन प्राचार्यों ने अपनी रचनायो द्वारा सुविस्तृत, सुप्रसानिश्चय मे ३६७, प्रमाण संग्रह मे ८७ और लघीयस्त्रय रित और सुपुष्ट किया है। हरिभद्र की अनेकान्त जयमें ७८ कारिकाएँ है । ये चारों ग्रथ बड़े क्लिष्ट और पताका, शास्त्र-वार्ता-समुच्चय, वीरसेन की तर्कबहल दुरूह हैं। न्यायविनिश्चय पर वादिराज ने, सिद्धिविनि- धवला, जयधवला टीकायें, कुनारनदि का वाद न्याय, विद्या श्चय पर अनन्तवीर्य ने और लघीयस्त्रय पर प्रभाचन्द्र ने नन्द के विद्यानन्द महोदय, तत्वार्थ श्लोकवातिक, प्रष्टविस्तृत एवं विशद व्याख्यायें लिखी है । प्रमाण-संग्रह पर सहस्री, प्राप्तपरीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यभी प्राचार्य अनन्तवीर्य का भाष्य (व्याख्या) है, जो उप- शासन-परीक्षा, युक्त्यनुशासनालकार, अनन्तवीर्य की सिद्धिलब्ध नहीं है।
विनिश्चय-टीका, प्रमाणराग्रह भाप्य, वादिराज के न्यायअकलंक ने इनमें विभिन्न दार्शनिकों की समीक्षापूर्वक विनिश्चय विवरण, प्रमाणनिर्णय और माणिक्यनन्दि का प्रमाण, निक्षेप, नय के स्वरूप, प्रमाण की संख्या, विषय, परीक्षामुख इस काल की अनूठी ताकिक रचनायें है। फल का विशद विवेचन, प्रमाण के प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद, (३) अन्त्यकाल प्रयवा प्रभाचन्द्र काल : प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और मुख्य इन दो भेदों की प्रति- यह काल जैन न्याय के विकास का अन्तिम काल है। ष्ठा, परोक्ष प्रमाण के स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, इस काल में मौलिक ग्रंथों के निर्माण की क्षमता कम हो प्रागम-इन पांच गदा की इयत्ता का निर्धारण, उनका गई और व्याख्या-ग्रन्थो का निर्माण हुग्रा। प्रभाचन्द्र ने संयुक्तिक साधन, लक्षण-निरूपण तथा इन्ही के अन्तर्गत इस काल में अपने पूर्वज प्राचार्यों का अनुगमन करते हुए उपमान अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव आदि परकल्पित प्रमाणों जैन न्याय पर जो विशालकाय व्याख्या-ग्रन्थ लिखे है। वैसे का समावेश, सर्वज्ञ की अनेक प्रमाणों से सिद्धि. अनुमान व्याख्याग्रंथ उनके वाद नहीं लिखे गये । अकलंक ने लघीयके साध्य साधन अंगो के लक्षणों और भेदों का विस्तृत स्त्रय पर लघीयस्त्रयालकार, जिसका दूसरा नाम 'न्यायनिरूपण तथा कारण हेतु, पूर्वचर हेतु, उत्तरचर हेतु, सह- कुमुदवन्द्र' है और माणिक्यनन्दि के 'परीक्षामुग्व पर प्रमेय चर हेतु प्रादि अनिवार्य हेतुप्रों की प्रतिष्ठा, अन्यथानुप- कमल-मार्तण्ड' नाम की प्रमेयबहुल एवं तर्कपूर्ण टीकाएं पत्ति के प्रभाव से एक अकिंचित्कर हेत्वाभास का स्वीकार प्रभाचन्द्र की अमोघ तर्कणा और उज्ज्वल यश को प्रसत और उसके भेदरूप से प्रसिद्धादि का प्रतिपादन, दृष्टान्त, करती है। विद्वज्जगत् में इन टीकानों का बहत पादर है। धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थान के स्वरूपादि का जन अभयदेव की सन्मति-तक-टीका और वादि-देवरि का दष्टि से प्रतिपादन, जय-पराजय व्यवस्था प्रादि कितना स्याद्वाद रत्नाकर (प्रमाणनय तत्वालोकालंकार टीका) ये ही नया निर्माण कर के जैन न्याय को न केवल समृद्ध दो टीकायें भी महत्वपूर्ण हैं । किन्तु ये प्रभाचन्द्र की तर्कपौर परिपुष्ट किया, अपितु उसे भारतीय न्यायशास्त्र मे पद्धति से विशेष प्रभावित है। वह गौरवपूर्ण स्थान दिलाया, जो बौद्ध न्याय को धर्मकीति इस काल में लघु अनन्तवीर्य, अभयदेव, देवमूरि, ने दिलाया है। वस्तुतः अकलक जैन न्याय के मध्यकाल अभयचन्द्र, हेमचन्द्र, मल्लिपण मूरि, माशाधर, भावसेनके स्रष्टा है। इससे इस काल को 'प्रकलंक काल' कहा जा विद्य, अजितसेन, अभिनव धर्मभूषण, चारुकीति, विमल. सकता है।
दास, नरेन्द्रसेन, यशोविजय आदि. ताकिको ने अपनी व्या
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२३८, वर्ष २८, कि.१
ख्या या मूल रचनाओं द्वारा जैन न्याय को संक्षेप एवं अनुमान" को न्याय कह कर उससे वस्तु परिच्छित्ति प्रतिसरल भाषा में प्रस्तुत किया है । इस काल की रचनाओं पादन करते है । जैन तार्किक प्राचार्य गद्धपिच्छ ने 'प्रमाण में लय अनन्तवीर्य की प्रमेयरत्नमाला (परीक्षामुखवृत्ति) नयैरधिगमः' (त० सू० १-६) सूत्र द्वारा प्रमाणों और अभयदेव की सन्मति तर्क टीका, देवसूरि का प्रमाणनय- नयों से वस्तु का ज्ञान निरूपित किया है। फलतः अभितत्वालोकालंकार और उसकी स्वोपज्ञ टीका स्याद्वाद रत्ना- नव धर्मभूषण" ने "प्रमाणनयात्मको न्याय:"-प्रमाण पोर कर, अभयचन्द्र की लघीयस्त्रय तात्पर्य वृत्ति, हेमचन्द्र की नय को न्याय कहा है। अतः जैन मान्यतानुसार प्रमाण प्रमाण-मीमांसा, मल्लिषेण सूरि की स्याद्वाद-मंजरी, माशा- और नय दोनो न्याय (वस्त्वधिगम-उपाय) है। घर का प्रमेय रत्नाकर, भावसेन का विश्व तत्व प्रकाश, प्रमाण : प्रजितसेन की न्यायमणि-दीपिका, चारुकीति की अर्थ- पट्खण्डागम" मेंज्ञानमार्गणानुसार पाठ ज्ञानों का प्रकाशिका और प्रमेय-रत्नालंकार, विमलदास की सप्त- प्रतिपादन करते हुए तीन ज्ञानों (कूमति, कुथुत पोर कुमभंगि-तरंगिणी, नरेन्द्रसेन की प्रमाण-प्रमेयकलिका और वधि) को मिथ्याज्ञान और पांच ज्ञानो (मति, श्रत, अवधि यशोविजय के प्रष्टसहस्री-विवरण, ज्ञानबिन्दु और जैन- मन.पर्यय और केवल) को सम्यग्ज्ञान निरूपित किया है। तर्कभाषा विशेष उल्लेख योग्य जैन न्यायग्रंथ हैं । अन्तिम कुन्दकुन्द ने उसका अनुसरण किया है । गद्धपिच्छ" ने तीन ताकिकों ने अपने न्याय ग्रन्थों में नव्यन्याय-शैली को उसमे कुछ नया मोड़ दिया है। उन्होंने मति प्रादि पांच भी अपनाया है। इसके बाद जैन न्याय की धारा प्रायः ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान तो कहा ही है, उन्हें प्रमाण भी प्रतिबन्द-सी हो गई और उसके आगे कोई प्रगति नहीं हुई। पादित किया है। अर्थात् उन्होने मत्यादिरूप पंचविध
सम्यग्ज्ञान को प्रमाण का लक्षण बतलाया है । समन्तभद्र" जैन न्याय :
ने तत्वज्ञान को प्रमाण कहा है। उनका यह तत्वज्ञान उपउक्त काल-खण्डों में विकसित जैन न्याय का यहाँ युक्त सम्यग्ज्ञानरूप ही है। सम्यक् और तत्व दोनों का संक्षेप मे विवेचन किया जाता है।
एक ही अर्थ है और वह है-सत्य-यथार्थ । अतः सम्यनीयते परिच्छित्ते ज्ञायते वस्तुतत्वं येन सो न्यायः ।" रज्ञान या तत्वज्ञान को ही प्रमाण कहा है । अकलंक," इस न्याय शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर न्याय उसे कहा विद्यानन्द" और माणिक्यनन्दि" ने उस सम्यग्ज्ञान को गया है जिसके द्वारा वस्तु स्वरूप जाना जाता है । तात्पर्य "स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मक" सिद्ध किया और प्रमाणयह कि वस्तुस्वरूप के परिच्छेदक साधन (उपाय) को लक्षण मे उपयुक्त विकास किया है। वादिराज," देवसरि न्याय कहते है। कुछ दार्शनिक न्याय के इस स्वरूप के हेमचन्द्र, धर्मभूषण" प्रादि परवर्ती ताकिकों ने प्रायः अनुसार "लक्षणप्रमाणाभ्यामर्थसिद्धिः" लक्षण और यही प्रमाण-लक्षण स्वीकार किया है । यद्यपि हेमचंद्र ने प्रमाण से वस्तु की सिद्धि (ज्ञान) मानते हैं । अन्य दार्श- सम्यक् अर्थ-निर्णय को प्रमाण कहा है, पर सम्यक् अर्थनिक "प्रमाणरर्थपरीक्षणं न्यायः" प्रमाणों से वस्तु परीक्षा निर्णय और सम्यग्ज्ञान मे शाब्दिक भेद के अतिरिक्त कोई बतलाते है । कतिपय तार्किक पंचावयव वाक्य के प्रयोगज अर्थभेद नही है। ३५-३७, न्याय दी० पृ० ५, वीरसेवामंदिर प्रकाशन । ४४. प्रमाण प. पृ. ५, वीरसेवा-मंदिर ट्रस्ट प्रकाशन । ३८. वही, पृ० ५।
४५. परी. मु. १-१ । ३६. षट्खं० १४१०१५।
४६. प्रमाण निर्णय. पृ. १। ४० नियमसा० गा० १०,११,१२ ।
४७. प्र. न. त. १-२। ४१. त. सू. १.६,१०।
४८. प्र. मी. ११११२। ४२. प्राप्तमी. १०१।
४६. न्याय. दी.प.ई। ४३. लघीय. का. ६०।
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जैन न्यायपरिशीलन
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प्रमाण-भेद:
म्परा का भी संरक्षण रहता है। विद्यानंद" और माणिप्रमाण के कितने भेद सम्भव और पावश्पक हैं, इस
क्यनंदि" ने भी प्रमाण के यही दो भेद स्वीकार किए और दिशा में सर्व-प्रथम प्राचार्य गद्धपिच्छ" ने निर्देश किया।
अकलंक की तरह ही उनके लक्षण एवं प्रभेद निरूपित है। उन्होंने प्रमाण के दो भेद बतलाये है--(१) परोक्ष
किए है : उत्तरवर्ती जन ताकिकों ने प्रायः इसी प्रकार का
१९ ह और (२) प्रत्यक्ष । पूर्वोक्त पाँच सम्यग्ज्ञानो मे आदि के प्रतिपादन किया है। दो ज्ञान-- मति और श्रुत-परसापेक्ष होने से परोक्ष तथा परोक्ष : अन्य तीन ज्ञान, अवधि, मन पर्यय और केवल इन्द्रियादि परोक्ष का स्पष्ट लक्षण प्राचार्य पूज्यपाद" ने प्रस्तुत परसापेक्ष न होने एव प्रात्ममात्र की अपेक्षा से होने के किया है। उन्होने बतलाया है कि पर प्रर्थान् इन्द्रिय, मन, कारण प्रत्यक्ष-प्रमाण है। प्रमाण-द्वय का यह प्रतिपादन प्रकाश और उपदेश प्रादि बाह्य निमित्तों तथा स्वावरणइतना विचारपूर्ण और कुशलता से किया गया है कि इन्ही कर्मक्षयोपशमरूप प्राम्यन्तर निमित्त को अपेक्षा से प्रात्मा दो में सब प्रमाणों का समावेश हो जाता है। मति में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह परोक्ष है । अतः मतिज्ञान (इंद्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव), स्मृति, सज्ञा (प्रत्यभि- मोर श्रुतज्ञान दोनों उक्त उभय निमित्तों से उत्पन्न होते ज्ञान), चिन्ता (तकं) और अभिनिबोध (अनुमान)। ये है, अत. ये परोक्ष कहे जाते है । अकलक ने इस लक्षण पांचों ज्ञान इद्रिय और अनिन्द्रिय सापेक्ष होने से मतिज्ञान के साथ परोक्ष का एक लक्षण और किया है, जो उनके के ही अवान्तर भेद है और इस लिए उनका परोक्ष मे ही न्याय प्रथों में उपलब्ध है। वह है अविशद ज्ञान । अर्थात् अन्तर्भाव किया गया है।"
अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है। यद्यपि दोनों (परापेक्ष और जैन न्याय के प्रतिष्ठाता अकलंक ने भी प्रमाण के प्रविशद ज्ञान) लक्षणो में तत्वत: कोई प्रतर नही हैइन्हीं दो भेदों को मान्य किया है। विशेष यह कि उन्होने जो परापेक्ष होगा. वह अविशद होगा, फिर भी वह दार्श. प्रत्येक के लक्षण और भेदो को बतलाते हुए कहा है कि निक दृष्टि से नया एव सक्षिप्त होने से अधिक लोकप्रिय विशद ज्ञान प्रत्यक्ष है और वह मुख्य तथा संव्यवहार के पोर ग्राह्य हुअा है। विद्यानंद ने दोनो लक्षणो को अपभेद से दो प्रकार का है। इसी तरह अविशद ज्ञान परोक्ष नाया है और उन्हे साध्य-साधन के रूप में प्रस्तुत किया है और उसके प्रत्यभिज्ञा प्रादि पांच भेद है। उल्लेख्य है है। उनका मन्तव्य है कि परापेक्ष होने के कारण परोक्ष कि प्रकलंक ने उपयुक्त परोक्ष के प्रथम भेद मति (इद्रिय- अविशद है । माणिक्यनदि ने परोक्ष के इसी अविशदतामनिन्द्रिय-जन्य अनुभव) को सव्यवहार-प्रत्यक्ष भी वणित लक्षण को स्वीकार किया है और उसे प्रत्यक्षादिपूर्वक किया है। इससे इंद्रिय-अनिद्रियजन्य को प्रत्यक्ष मानने होने के कारण परोक्ष कहा है। परवर्ती न्यायलेखकों ने की लोकमान्यता का संग्रह हो जाता है और आगम पर- अकलंकीय परोक्ष लक्षण को ही प्राय: प्रश्रय दिया है। ५०. 'तत्प्रमाणे', 'प्राये परोक्षम', 'प्रत्यक्षमन्यत्'। ५६. 'तथोपात्तानुपात्तपरप्रत्ययापेक्ष परोक्षम्। -त. सू. १-१०, ११, १२ ।
__ - त. वा. १-११। ५१. 'मतिः स्मति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम्'।
'ज्ञानस्येव विशदनिर्भासिनः प्रत्यक्षत्वम्, इतरस्य परो
क्षता'। -लघीय. १.३ की स्वीपज्ञवृत्ति । ५२. लघीय. १.३, प्रमाणसं. १-२।।
५७. 'परोक्षमविशदज्ञानात्मकम, परोक्षत्वात्' । ५३. प्र. परी. पृ. २८, ४१, ४२ ।
-प्रमाणपरी. पृ. ४१। ५४. परी. मु. २-१, २, ३, ५, ११ तथा ३.१, २।
५८, 'परोक्षमितरत्', प्रत्यक्षादिनिमित्त स्मतिप्रत्यभिज्ञान५५. 'पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्य
तर्कानुमानागमभेदम्। -परी. म. ३-१, २। निमित्त प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मनो। मतिश्रुत उत्पद्यमानं परोक्ष मित्याख्यायेते' ।
'५९. 'प्रविशदः परोक्षम्। -स.सि. १.११॥
-प्र. मी. १२२१मादि।
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२४०, वर्ष २८, कि०१
परोक्ष के भेद :
जो साध्य का ज्ञान होता है वह अनुमान है । जैसे घूप से ___ तत्वार्थसूप्रकार" ने परोक्ष के दो भेद कहे है-(१) अग्नि का ज्ञान । शब्द, संकेत प्रादिपूर्वक जो ज्ञान होता है, मतिज्ञान और (२) श्रतज्ञान । इद्रिय और मन की वह श्रुत है । इसे पागम, प्रवचन आदि भी कहते है । सहायता से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मति ज्ञान है तथा जैसे-'मेरु प्रादिक है' शब्दों को सुनकर सुमेरु पर्वत प्रादि मति-ज्ञानपूर्वक होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान का बोध होता है। ये सभी ज्ञान परापेक्ष और अविशद और श्रुतज्ञान--ये प्रागमिक परोक्ष भेद है। अकलंकदेव" है। स्मरण मे अनुभव; प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मने आगम के इन परोक्ष भेदों को अपनाते हुए भी उनका रण; तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान; अनुमान दार्शनिक दृष्टि से विवेचन किया है। उनके विवेचना- में लिंगदर्शन, व्याप्तिस्मरण और श्रुत में शब्द एवं 'संकेनुसार परोक्ष प्रमाण की संख्या तो पांच ही है, किन्तु तादि अपेक्षित है, उनके बिना उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं उनमें मति को छोड़ दिया गया है, क्योंकि उसे संव्यवहार है। अतएव ये और इस प्रकार के उपमान, अर्थापत्ति प्रत्यक्ष माना है तथा श्रुत (प्रागम) को ले लिया है। प्रादि परापेक्ष भविशदज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गए है। इसमे सैद्धातिक और दार्शनिक किसी दृष्टि से भी बाधा अकलंक ने इनके विवेचन मे जो दृष्टि अपनायी, वही नही है । इस तरह परोक्ष के मुख्यतया पांच भेद है"- दृष्टि विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि प्रादि ताकिकों ने अनुसृत (१) स्मृति, (२) संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), (३) चिता- की है। विद्यानन्द" ने प्रमाण-परीक्षा में और माणिक्य(तर्क), (४) अभिनिबोध (अनुमान) और (५) श्रुत- नन्दि५ ने परीक्षा-मुख में स्मृति आदि पाचों परोक्ष (पागम)।
प्रमाणों का विशदता के साथ निरूपण किया है। इन पूर्नानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मति कहते है। जैसे दोनों ताकिको की विशेषता यह है कि उन्होने प्रत्येक की 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान । अनुभव सहेतुक सिद्धि करके उनका परोक्ष में ही समावेश किया तथा स्मरणपूर्वक होने वाला जोड़ रूप ज्ञान संज्ञा ज्ञान है। है। विद्यानन्द" ने इनकी प्रमाणता में सबसे बड़ा हेतु इसे प्रत्यभिज्ञा या प्रत्यभिज्ञान भी कहते हैं । यथा... यह उनका प्रविसंवादी होना बतलाया है। साथ ही यह भी वही है', अथवा 'यह उसी के समान है' या 'यह उससे कहा है कि यदि कोई स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान विलक्षण है' आदि। इसके एकत्व, सादृश्य, वैसादृश्य और श्रुत (पद-वाक्यादि) अपने विषय मे विसवाद(बाधा) प्रातियोगिक प्रादि अनेक भेद माने गए है । अन्वय (विधि) उत्पन्न करते है तो वे स्मृत्याभास, प्रत्यभिज्ञाभास, तर्काऔर व्यतिरेक (निषेध) पूर्वक होने वाला व्याप्ति का भास, अनुमानाभास और श्रुताभास है । यह प्रतिपत्ता का ज्ञान चिन्ता अथवा तर्क है। ऊह अथवा ऊहा भी इसे कर्तव्य है कि वह सावधानी और युक्ति प्रादि पूर्वक निर्णय कहते है । इसका उदाहरण है... इसके होने पर ही यह करे कि अमुक स्मृति निर्बाध होने से प्रमाण है और अमुक होता है और नही होने पर नही ही होता। जैसे "अग्नि सबाध (विसवादी) होने से अप्रमाण है । इसी प्रकार के होने पर ही धुनां होता है और अग्नि के अभाव में प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और श्रुत के प्रामाण्याप्रामाण्य धुप्रां नही ही होता । निश्चित साध्यविनाभावी साधन से का निर्णय करें । ये पाँचों ज्ञान यतः अविशद है, अतः ६०. 'माद्ये परोक्षम्'।
-त. सू. १.११ । शब्दयोजनात् शेषं श्रुतज्ञानमनेकप्रभेदम् ।' लघीय. ६१. प्र. सं. १-२, लघी. १.३।।
२-१० की वृत्ति । ३२. 'परोक्षं प्रत्यभिज्ञादि प्रमाणे इति संग्रहः ।'
६४. प्र०प० पृ० ४१ से ६५ ।
प्रमाणसं.२। ६५.५० म० ३.१ से १०१। ६३. 'प्रविसंवादस्मृत': फलस्य हेतुत्वात् प्रमाणं धारणा। ६६. 'स्मृतिः प्रमाणम्, अविसंवादकत्वात्, प्रत्यक्षवत् । यत्र
स्मृतिः संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य। संज्ञा चिन्तायाः तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा, प्रत्यक्षाभासवत् ।। तर्कस्य । चिन्ता. अभिनिबोधस्य अनुमानादेः। प्राक् . प्र.प.पृ० ४२ ।
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जैन न्याय-परिशीलन
२४१
परोक्ष है, यह भी विद्यानन्द ने स्पष्टता के साथ प्रतिपादन (२) परार्थानुमान। अनुमाता जब स्वयं ही निश्चित किया है।
साध्याविनाभावी साधन से साध्य का ज्ञान करता है तो विद्यानन्द" की एक और विशेषता है । वह है अनुमान उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान कहा जाता है। उदाहरणार्थऔर उसके परिकार का विशेष निरूपण । जितने विस्तार जब वह धूप को देख कर अग्नि का ज्ञान, रस को चख के साथ उन्होने अनुमान का प्रतिपादन किया है, उतना कर उसके सहचर रूप का ज्ञान या कृत्तिका के उदय को स्मृति आदि का नही। तत्वार्थलोकवातिक और प्रमाण देख कर एक मुहुर्त बाद होने वाले संकट के उदय का परीक्षा में अनुमान-निरूपण सर्वाधिक है। पत्रपरीक्षा में ज्ञान करता है; तब उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान है। तो प्राय: अनुमान का ही शास्त्रार्थ उपलब्ध है। विद्या- जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्यो को बोल नन्द ने अनुमान का वही लक्षण दिया है जो प्रकलंक- कर दूसरों को उन साध्य-साधनों की व्याप्ति (अन्यथानुदेव" ने प्रस्तुत किया है, अर्थात् 'साधनात्साध्य विज्ञानम- पत्ति) ग्रहण कराता है और दूसरे, उसके उक्त वचनों को नुमानम्'- साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को उन्होने सुन कर व्याप्ति ग्रहण करके उक्त हेतुओं से उक्त साध्यों अनुमान कहा है। साधन और साध्य का विश्लेषण भी का ज्ञान करते है तो दूसरों का वह अनुमान ज्ञान परार्थाउन्होने अकलंक-प्रदर्शित दिशानुसार किया है। साधन" नुमान है। वह है जो साध्य का नियम से अविनाभावी है। साध्य के धर्मभूषण" ने स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानुहोने पर ही होता है और साध्य के न होने पर नहीं मान के सम्पादक तीन अगो और दो अगों का भी प्रतिहोता । ऐसा अविनाभावी साधन ही साध्य का अनूमापक पादन किया है। वे तीन प्रग है-(१) साधन, (२) होता है, अन्य नहीं। त्रिलक्षण, पंचलक्षण प्रादि साधन- साध्य पोर (३) धर्मी। साधन तो गमक रप अंग है, लक्षण सदोष होने से युक्त नही है"। इस विषय का
साध्य गम्य रूप से और धर्मी दोनों का प्राधार रूप से । विशेष विवेत्तन हमने अन्यत्र किया है।
दो अंग है-(१) पक्ष पोर (२) हेतु । जब साध्य धर्म साध्य" वह है जो इष्ट-अभिप्रेत, शक्य-अबाधित
को धर्मी से पृथक नही माना जाता-उससे विशिष्ट धर्मी पौर अप्रसिद्ध होता है। जो अनिष्ट है, प्रत्यक्षादि से
को पक्ष कहा जाता है तो पक्ष भोर हेतु-ये दो ही अंग बाधित है और प्रसिद्ध है, वह साध्य-सिद्ध करने योग्य
विवक्षित होते है। इन दोनों प्रतिपादनों में मात्र विवक्षानहीं होता । वस्तुतः जिसे सिद्ध करना है, उसे इष्ट होना
भेद है-मौलिक कोई भेद नहीं है। वचनात्मक परार्थानु
मान के, प्रतिपाद्यों की दृष्टि रो, दो, तीन, चार और पाँच चाहिए, अनिष्ट को कोई सिद्ध नही करता। इसी तरह
अवयवों का भी कथन किया गया है। दो अवयव प्रतिज्ञा जो बाधित है-सिद्ध करने के अयोग्य है, उसे भी सिद्ध नही किया जाता तथा जो सिद्ध है उसे पुनः सिद्ध
मोर हेतु है। उदाहरण सहित तीन, उपनय सहित चार करना निरर्थक है। प्रतः निश्चित साध्याविनाभावी साधन मोर निगमन सहित वे पांच अवयव हैं। (हेतु) से जो इष्ट, अबाधित और प्रसिद्ध रूप साध्य का यहाँ उल्लेखनीय है कि विद्यानन्द" ने परार्थानुमान विज्ञान किया जाता है, वह अनुमान प्रमाण है। के अक्षर श्रुत और अनक्षर श्रुत-इन दो भेदो को प्रकट
अनुमान के दो भेद हैं-(१) स्वार्थानुमान और करते हुए उसे अकलंक के अभिप्रायानुसार श्रुतज्ञान बत६७. प्र. प. पृ० ४५ से ५८ ।
७१. प्र०प० पृ० ४५ से ४६ । ६८. प्र०प० पृ० ४५।
७२. जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ६२, वीर६६. 'साधनात्साध्य विज्ञानमनुमानं तदत्थयो '-न्या०वि० सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, १९६६ । द्वि० भा० ॥१॥
७३. प्र. प, पृ. ५७। ७०. 'तत्र साधनं साध्याविनाभावनियमनिश्चयकलक्षणम।' ७४. न्या. दी, पृ. ७२, ३-२४ ।
-प्र०प० पृ० ४५॥
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२४२, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त लाया है और स्वार्थानुमान को" अभिनिबोधरूप मतिज्ञान- प्रत्यक्ष के भेव : विशेष कहा है। पागम की प्राचीन परम्परा यही है। प्रत्यक्ष के भेदों का निर्देश सर्वप्रथम प्राचार्य ग.
श्रतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम- पिच्छ• ने किया है। उन्होंने बतलाया है कि प्रत्यक्ष तीन विशेष रूप अन्तरंग कारण तथा मतिज्ञानरूप बहिरंग- प्रकार का है--(१) अवधिप्रत्यक्ष, (२) मनःपर्ययप्रत्यक्ष कारण के होने पर मन के विषय को जानने वाला जो और (३) केवल प्रत्यक्ष । पूज्यपाद ने इन्हे दो भेदों में प्रविशद ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है"; अथवा प्राप्त के बांटा है-(१) देश प्रत्यक्ष और (२) सर्वप्रत्यक्ष । अवधि वचन, अंगुली प्रादि के सकेत से होने वाला अस्पष्ट ज्ञान प्रौर मनः पर्यय-ये दो प्रत्यक्ष ज्ञानमतिक पदार्थ को ही थत है। यह श्रुतज्ञान सन्तति की अपेक्षा अनादि निधन जानने के कारण देश-प्रत्यक्ष है और केवल प्रत्यक्ष मूर्तिक है। उसकी उत्पादक सर्वज्ञ परम्परा भी अनादिनिधन है।
और अमूर्तिक सभी पदार्थो को विषय करने से सर्वप्रत्यक्ष बीजांकूरसन्तति की तरह दोनो का प्रवाह अनादिनिधन है। किन्त तीनों ही प्रात्ममात्र की अपेक्षा से होने और है। प्रतः सर्वज्ञोक्त वचनों से उत्पन्न ज्ञान श्रुतज्ञान है और इन्द्रियादि पर की अपेक्षा से न होने तथा पूर्ण विशद होने वह निर्दोष पुरुषजन्य एवं अविशद होने से परोक्ष प्रमाण ।
से प्रत्यक्ष है।
अकलंकदेव" ने पागम की इस परम्परा को अपनाते प्रत्यक्ष:
हए भी उसमें कुछ मोड़ दिया है । उन्होने प्रत्यक्ष के मुख्य जो इन्द्रिय, मन, प्रकाश प्रादि पर की अपेक्षा नही और संव्यवहार के भेद से दो नये मेदों का प्रतिपादन रखता और प्रात्ममात्र की अपेक्षा से होता है, वह प्रत्यक्ष किया है। लोक में इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान है" | अकलंक देव" ने इस लक्षण को प्रात्मसात् कहा जाता है। पर जैन दर्शन उन्हे परोक्ष मानता है। करते हुए भी एक नया लक्षण प्रस्तुत किया है, जो दार्श- प्रकलंक ने प्रत्यक्ष का एक संव्यवहारभेद स्वीकार कर निकों द्वारा अधिक ग्राह्य और लोकप्रिय हुआ है। वह है उसके द्वारा उनका संग्रह किया और व्यवहार (उपचार) विशद ज्ञान । जो ज्ञान विशद अर्थात् अनुमानादि ज्ञानों से से उन्हे प्रत्यक्ष कहा। इस प्रकार उन्होने अागम और मधिक विशेष प्रतिभासी होता है, वह प्रत्यक्ष है। उदाहर- लोक दोनों दष्टियो में समेल स्थापित कर उनके विवाद णार्थ-'मग्नि है' ऐसे किसी विश्वस्त व्यक्ति के वचन से को सदा के लिए शान्त किया। उत्पन्न अथवा 'वहां अग्नि है, क्योकि धुओं दिख रहा है' एक दूसरे स्थान पर उन्होने" प्रत्यक्ष के तीन भी भेद ऐसे घूमादि साधनों से जनित अग्निज्ञान से, 'यह अग्नि है। बतलाए है-(१) इन्द्रिय प्रत्यक्ष, (२) अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष अग्नि को देख कर हुए अग्निज्ञान मे जो विशेष प्रतिभास- और (३) अतीन्द्रियप्रत्यक्ष । प्रथम के दो प्रत्यक्ष संव्यव. रूप वैशिष्ट्य अनुभव मे पाता है, उसी का नाम विशदता हार प्रत्यक्ष ही है, क्योकि वे इन्द्रियपूर्वक व प्रनिन्द्रियहै और यह विशदता ही प्रत्यक्ष का लक्षण है। तात्पर्य पूर्वक होते है। अन्त का प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष यह कि जहाँ प्रस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है, वहाँ स्पष्ट ज्ञान है, क्योकि वह इन्द्रिय और मन की अपेक्षा न करके प्रात्मप्रत्यक्ष है।
मात्र की अपेक्षा से उत्पन्न होता है। ७५. प्र. प. पृ.५८ ।
८१. .... तद्वेघा' 'देशप्रत्यक्षं सर्वप्रत्यक्ष च । देशप्रत्यक्ष७६. विशेष के लिए देखें, 'जैन तर्कशास्त्र में अनुमान
मवविमन पर्ययज्ञाने । सर्वप्रत्यक्षं केवलम् ।' विचार', पृ. ७७-८५।
-स. सि. १।२१ की उत्थानिका। ७७. प्र. प. पृ. ५८ ।
५२. त. सू. १२२७, २८ । ७८. स. सि. १२१२, पृ. १०३ । ६६. लघी. १।३।।
८३. त. सू. २२६ । ८०. 'प्रत्यक्षमन्यत्'-त. सू. १।१२।स. सि. १२१ की ८४. लघीय. ११३ । उत्थानिका।
८५. प्र. स. स्वोपज्ञवृत्ति. १।२ ।
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जैन न्याय-परिशीलन
२४३
विद्यानन्द ने इन प्रत्यक्ष भेदों का विशदता और प्रमाण का फल : विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। इन्द्रियप्रत्यक्ष के प्रारम्भ प्रमाण का फल अर्थात प्रयोजन वस्तु को जानना
स्वग्रह, ईहा, अवाय और धारणा–ये चार भेद है । ये प्रो चारों पांच इन्द्रियों और बहु आदि बारह अर्थभेदों के फल है। वस्तु को जानने के उपरान्त उसके ग्राह्य होने निमित्त से होते है। व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नही पर उसमे ग्रहण बुद्धि, हेय होने पर हेध बुद्धि और उपेक्षहोता, केवल चार इन्द्रियो से वह बहु प्रादि बारह प्रकार णीय होने पर उपेक्षा-बद्धि होती है। ये बद्धियां उसका के अर्थों में होता है। अतः ४४१२४५-२४० मोर परम्परा फल है। प्रत्येक प्रमाता को ये दोनों फल उप१x१२४४-४८ कूल २८८ इन्द्रिय प्रत्यक्ष के भेद है। लब्ध होते है। प्रनिन्द्रिय प्रत्यक के ४४१२४१४८ भेद है। इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष ये दोनों मतिज्ञान अर्थात् नय संव्यवहारप्रत्यक्ष के कूल ३३६ भेद है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष पदार्थों का यथार्थ ज्ञान जहाँ प्रमाण से प्रखण्ड के दो भेद है-(१) विकल प्रत्यक्ष और (२) सकल (समग्र) रूप मे होता है, वहा नय से खण्ड (प्रश) रूप प्रत्यक्ष । विकल प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-(१) मे होता है। धर्मी का ज्ञान प्रमाण और धर्म का ज्ञान अवधिज्ञान और (२) मन: पर्ययज्ञान । सकल प्रत्यक्ष मात्र नय है। दूसरे शब्दो में वस्त्वशग्राही ज्ञान नय है। यह एक ही प्रकार का है और वह है केवल प्रत्यक्ष । इनका मूलत. दो प्रकार का है-(१) द्रव्याथिक और (२) विशेष विवेचन प्रमाणपरीक्षा से देखना चाहिए। इस पर्यायाथिक । मथवा (१) निश्चय मोर (२) व्यवहार । प्रकार जैन दर्शन मे प्रमाण के मूलतः प्रत्यक्ष और परोक्ष-- द्रव्याथिक द्रव्य को, पर्यायाधिक पर्याय को, निश्चय प्रसंये दो ही भेद माने गए है।
योगी को और व्यवहार सयोगी को ग्रहण करता है। इन
मूल नयो के प्रवान्तर भेदों का निरूपण जैन शास्त्रों में प्रमाण का विषय :
विपुलमात्रा में उपलब्ध होता है। वस्तु को सही रूप में जैन दर्शन में यतः वस्तु अनेकान्तात्मक है, अत प्रत्यक्ष जानने के लिए उनका सूक्ष्म से सूक्ष्म विश्लेषण किया गया प्रमाण हो, चाहे परोक्ष प्रमाण, सभी सामान्य-विशेषरूप, है। विस्तार के कारण वह यहा नही किया जाता। यहाँ द्रव्य-पर्यायरूप, भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप आदि अनेका- हमने जैन न्याय का सक्षेप में परिशीलन करने का प्रयास न्तात्मक वस्तु को विषय करते अर्थात् जानते है। कोई भी किया है। यों उसके विवेचन के लिए एक पूरा ग्रथ प्रपेप्रमाण केवल सामान्य या केवल विशेष आदि रूप वस्तु क्षित है।
00 को विषय नही करते, क्योकि वैसी वस्तु ही नही है। ११/२८, चमेली कुटीर, वस्तु तो अनेकान्तरूप है और वही प्रमाण का विषय है। डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५
८६. 'तत् त्रिविधम्- इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रियप्रत्यक्षवि- मपि मुख्य प्रत्यक्षम्, मनोक्षानपेक्षत्वात् ।' कल्पात् । तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षं साव्यवहारिक देशतो विश
-प्र. प. पृ. ३८, अनुच्छेद ६१ । दत्वात । तद्वदनिन्द्रियप्रत्यक्षम् । अतीन्द्रिय-प्रत्यक्ष तु ८७. प्र. प. पृ. ४० । द्विविधं विकलप्रत्यक्ष सकलप्रत्यक्षं चेति । विकल- ८८ वही, पृ. ६५ । प्रत्यक्षमपि द्विविधम् -अवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं ६. प्र. प. पृ. ६६ । चेति । सकलप्रत्यक्ष तु केवलज्ञानम् । तदेतत्त्रिविघ- ६०. लघी. नयप्रवेश, का. ३०-४६ ।
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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश
डा. प्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, एम. ए. डी. लिट्, मैसूर
निगण्ठनातपूत या महावीर ने जिस धार्मिक और तिष्य गुप्त द्वारा प्रचलित 'जीवप्रदेश' जैसे सैद्धान्तिक मतभेद श्रमण संघ का नेतृत्व किया था, वह उनसे पूर्व पार्श्वप्रभु तो विद्यमान थे ही।' भ० महावीर के निर्वाण के बाद द्वारा संस्थापित था और इसीलिए भ० महावीर को जैन परम्परा दिगम्बर और श्वेताम्बर रूप में विभाजित 'पासावचिज्ज' कहा जाता था अर्थात् वे पार्श्वप्रभु द्वारा हो गई जिसका मूल कारण सम्भवतः कुछ साधुओं का प्रचलित धर्म का अनुसरण कर रहे थे। उत्तराध्ययन (२३) दक्षिण भारत में स्थायी रूप से बस जाना हो, जिसके पीछे में स्पष्ट उल्लेख है कि पार्श्व प्रभु और भ० महावीर के श्रमण आचारों सम्बन्धी थोड़ी बहुत मतभेदो की तीव्रता शिष्य परस्पर मिलकर अपने श्रमण प्राचारों के विभिन्न हो जो पहले से ही चले पा रहे थे। प्रार्याषाढ़ (भ. विवादो को सुलझाने का प्रयास करते है। यही वे विवाद महावीर के निर्वाण के २१४ वर्ष बाद) द्वारा प्रचलित है जिन्होने आगे चल कर जैन परम्परा में कई वर्ग, धर्म- मतभेद जैन परम्परा मे और अधिक विभाजन करने के भेद या संप्रदाय पैदा कर दिए।
लिए चिरस्थायी बन सके। 'समागम सुत्त' में स्पष्ट उल्लेख है कि "महावीर या सदियो पूर्व के मथुरा लेख से स्पष्ट है कि गण, कुल, निगण्ठनातपुत्त के निर्वाण के बाद जैन परम्परा में होने शाखा पोर संभोग जैसे श्रमण वर्ग भेद जैन परम्परा में वाली विघटनकारी प्रवत्तियों एव मतभेदों से महात्मा पहले से ही विद्यमान थे। दिगम्बर प्राम्नाय में सघ (मल. बुद्ध अच्छी तरह परिचित हो गए थे, अतः उन्होंने अपने द्रविड़ आदि) गण, (देशी, सेन, काण्डर आदि) गच्छ, शिष्यों को सावधान किया था कि वे ऐसे वर्गभेद की (पुस्तक प्रादि) अन्वय प्रादि (कुन्दकुन्दादि) तथा प्रवत्तियो से बचें।" भ० महावीर के जीवन काल मे ही श्वेताम्बर आम्नाय मे खरतर, तपा, अंचल, गच्छ जैसे उनके जामाता जामालि द्वारा प्रचलित 'बहुरत' तथा भेद आज भी विद्यमान है।'
+ यह निबंध १७ जुलाई १९७३ को होने वाली २९वीं १. नलिनाक्ष दत्त की Early History of the spread
अन्तर्राष्ट्रीय प्रोरिएन्टल काग्रेस के पेरिस अधिवेशन of Budhhism & Buddhist School, p. 200.
में दक्षिण पूर्वी एशिया (भारत) वर्ग में पढ़ा गया था। २. E. Leumains : Die altem Berichtevon ६ प्रारम्भिक अध्ययन के लिए देखो-Indian anti- den Schismen Der Jaina 1, 5. XVIII pp. quary VII P. 34, H. Luders : E, IV P. 338,
91-135. नाथूराम प्रेमी : जैन हितैषी, XIII P. 250-75, A. N. Upadhey : Journal of the Univer
३. Dr. Hoernle, Quoted in South Indian
Jainism pp 25-27. sity of Bombay 1956, I, VI, PP. 224 ff%; श्री प्रेमी का जैन साहित्य और इति० द्वितीय सस्करण ४. देखो-विशेषावश्यक भाष्य गाथा २३०४-२५४८ । बम्बई 1956 PP. 565, 1555, 521F, P. B. ५. See the Introduction to Reportore D. Desai : Jainism in South India, Sholapur. epigiaphie Jaina By A. Guerinot Paris 1757, pp 163-66 आदि।
1908. मूलतः अंग्रेजी लेख के अनुवादक-श्री कुन्दनलाल जैन
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थे।
जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश
२४५ प्राचार्य देवसेन (९-१०वी ईस्वी) ने अपने दर्शनसार नही दिया गया है क्योकि एक तो यापनीयों के विरुद्ध कुछ में संघों का कुछ विवरण दिया है, जो यहाँ उल्लेखनीय द्वेष या पूर्वग्रह भाव सा रहा है । दूसरे दिगम्बरो तथा श्वेहै। श्री कलश (विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष बाद) ने ताम्बरो की भांति अाजकल उनका कुछ अस्तित्व भी नहीं यापनीय संघ की, वज्रनंदी ने (विक्रम की मृत्यु के ५२६ है। यापनीयो के उद्गम के बारे में बहुत सी किवदन्तियां वर्ष बाद) द्रविड़ संघ की, कुमार सेन ने (विक्रम की (परम्पराय) है । प्राचार्य देवसेन ने विक्रम की मृत्यु के १०१ मृत्यु के ७५३ वर्ष बाद) काष्ठा संघ की तथा रामसेन ने या ११० वर्ष बाद 'दर्शनसार' की रचना की थी। वे इस (विक्रम की मृत्यु के ६५३ वर्ष बाद) मथरा संघ की ग्रंथ मे लिखते है कि थी कलश नामक श्वेताम्बर साध ने स्थापना की थी। ऐसे विभाजन प्राचारों की विभिन्नता कल्याण नगर मे विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष बाद यापके कारण सर्वथा अपरिहार्य थे क्योकि श्रमणो के सध इस
नीय सघ प्रारम्भ किया था। दूगरे रत्ननदी (१५वीं देश के विभिन्न भागों में प्रवास और विहार किया करते ई० के बाद) ने अपने भद्रबाहु-चरित में यापनीय संघ की
उत्पत्ति के बारे में निम्न घटना लिखी है--"महाराज उपर्युक्त गण, कुल, संघ, गच्छ प्रादि भेदों की कुछ भूपाल करहाटक में राज्य कर रहे थे। उनकी नकलादेवी परिभाषायें भी उपलब्ध हैं। जैसे तीन साधनों के समूह नाम की प्रिया रानी थी। एक बार रानी ने अपने पति को गण, सात साधुग्रो के समूह को गच्छ तथा साघुप्रो की से कहा कि मेरे पैतृक नगर में मेरे कुछ गुरुजन (मनि नियमित जाति को सघ कहा जाता था। पर ये परि- गण) पधारे है, सो पाप वहां जाकर उनसे अनुनय-पूर्वक भाषायें सार्वभौमिक एवं सर्वमान्य न थी। कही-कही गण प्रार्थना करे कि वे (साधु) यहाँ पधारे और हमारे घार्मिक और संघ को एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त करने के उदा- अनुष्ठानो की शोभा बढावे । महाराज भपाल ने नकूला हरण मिलते है । उद्योतन (७७६ ई.) के अनुसार गच्छ देवी के कथनानुसार अपने मत्री बद्धिसागर को गुरुयो के शब्द का प्रयोग मूलत: अपने मखिया के नेतृत्व में विहार पास भेजा जो उन्हें बड़ी प्रार्थना और विनती के साथ करने वाले साधुओं (group) के लिए ही किया करहाटक राज्य मे ले आया। राज्य में साधूग्रो के पधाजाता था। पारपरिक अर्थ तो दिगम्बर-श्वेताम्बरो के रने पर महाराज भूपाल उनकी अगवानी के लिए बड़े प्रमुख साधुनो से ही ग्रहण किए जा सकते है।
ठाट-बाट से गए, पर जैसे ही राजा ने उन साधनों को एक कन्नड पाइलिपि 'गणभेद' मे सघ की अपेक्षा दूर से देखा कि वे नग्न दिगम्बर साधु नही है तो राजा गण को ही अधिक महत्व दिया गया है। इसमे चार को बड़ा आश्चर्य हुप्रा और सोचने लगा कि ये सवस्त्र गण माने गये है जिन्हे कुछ सपो से अन्तवंद्ध किया गया साधु कौन है ? इनके पास भिक्षा पात्र है और लाठी भी है जैसे १. सेनगण (मूलसंघ), २. बलात्कारगण (नंदी- है। गजा को अच्छा न लगा और उसने उन साधयों को संघ) ३. देशीगण (सिंह सघ) और ४. कालोग्रगण अनादर पूर्वक वापिस लोटा दिया और अपनी रानी के (यापनीय सघ)।
पास प्राकर कहा कि उसके गुरुजन तो पाखण्डी और यापनीय संघ की शोघ एवं खोज की ओर विशेष ध्यान नास्तिक है, मै उनका सम्मान और अगवानी करने का
BAnnals of the B.O.R.I.XV. III-IV, pp.
198ff, Poona 1934. ७. देखो मूलाचार पर यशोनंदी की संस्कृत टीका IV
३२ बम्बई १६२० । ८. कुवलयमाला पृ. ८० पंक्ति १७ एफ, बम्बई १९५६ । ६. कालोग्रगण यापनीय संघ से संबधित कण्डर या काणर
गण का संस्कृत रूप प्रतीत होता है।
१०. देखो रत्ननदी का भद्रबाहु-चरित, कोल्हापूर १६२१.
IV पृ. १३५-५४ । H. Jacobi : Uber die cntstehung der Svetambara and Digambara, Scktenzdmg XXXVIII pp. 1-42; H. Luders . HI, IV p,338.
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२४६, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
तैयार नहीं हूं क्योंकि वे जैन (दिगम्बर) साधु नहीं हैं। यापनीय शब्द का मूल अर्थ अपने प्राप में एक स्वतंत्र रानी नकुला देवी अपने पति के अभिप्राय को समझ गई। प्रश्न है। इसकी बहुत सी वर्तनी (हिज्जे) मिलती है जैसे वह तुरन्त ही उन साधुओं के समीप गई और उनसे यापनीय, जापनीय, यपनी, पापनीय, यापुलिय, आपुलिय, प्रार्थना की कि वे वस्त्रादि का त्याग कर निर्ग्रन्थ-वेश जापुलिय, जावुलिय, जाविलिय, जावलिय, जावलिगेय धारण कर लें । साधुओं ने रानी का अनुरोध स्वीकार कर प्रादि मादि । 'या' घातु के साथ कारण प्रत्यय जोड़कर तुरंत ही वस्त्रादि का त्याग कर दिया भोर पीछी कमण्डलु उसके भिन्न-भिन्न प्रथं निकाले गए है। तेलंग के अनसार लेकर दिगम्बर मुद्रा में राज्य में प्रवेश किया; तब तो यापनीय शब्द का अर्थ है-"बिना ठहरे सदा हो विहार महाराज भपाल ने उन साधुप्रो का बड़े ठाट बाट एवं करने वाले"।" प्रवचनसार (११.१०) में दो प्रकार के मानदार तरीके से उन साधूनों का स्वागत-सम्मान एवं गुरुषों का उल्लेख मिलता है १. पव्वज्जादायग और २.
गवानी की। इस तरह यद्यपि वे साधू बाह्य तप सं निज्जावग । 'निज्जावग' का कर्तव्य होता है कि पथभ्रष्ट दिगम्बर वेश में थे पर उनके प्राचार और क्रियाकलाप साधुनों को सन्मार्ग पर पूनः स्थापित करना। वे अधीनस्थों श्वेताम्बर साधुनों जैसे ही थे। मागे चलकर इन्हीं साधुनों पर नियंत्रण रखते है तथा नवागतों का मार्गदर्शन करते ने यापनीय संघ की नीव डाली।
हैं। निज्जावग का शुद्ध संस्कृत रूप निर्यापक की जगह नंदी का उपर्युक्त कथन १५वीं सदी के बाद का निर्यामक ज्यादा उपयुक्त बैठता है। जैन ग्रंथों में 'जवहै. प्रतः इसे पूर्णरूपेण अक्षरशः स्वीकार करने में बड़ी णिज्ज' शब्द का प्रयोग एक से अधिक अर्थों में प्रयुक्त सावधानी की अावश्यकता है, क्योकि इसके कुछ और भी किया हमा मिलता है। 'नायाधम्मकहानो' में इदिय जवअभिप्राय निकल सकते है। ऐसा प्रतीत होता है कि रानी णिज्जे शब्द का प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ यापनीय न नकला देवी श्वेताम्बर विचारधारा की रही हो पोर उन होकर यमनीय होता है, जो यम् (नियत्रणे) घातू से बनता दिनों दक्षिण भारत मे श्वेताम्बर साधुनों को विशेष प्रादर है। इसकी तुलना 'थवणिज्ज' शब्द से की जा सकती है जो एवं प्रसिद्धि नही प्राप्त थी, क्योकि यदि इस करहाटक को स्थापनीय शब्द के लिए प्रयुक्त होता है। इस तरह जवआधुनिक महाराष्ट्र के सतारा जिला स्थित 'कहडि' नामक
णिज्ज' का सही संस्कृत रूप यापनीय नही हो सकता, स्थान माना जाता है तो निश्चय ही दक्षिण भारत में प्रतः जवणिज्ज साधु (यापनीय कहलाने वाले) वे है जो श्वेताम्बर साधुओं की विशेष मान्यता न थी। प्राचार्य
यम-याम का जीवन बिताते थे । इस संदर्भ में पाश्र्वप्रभु के देवसेन और रत्ननंदी के उपर्युक्त विवरणों से ऐसा प्रतीत 'चउज्जाम, चातुर्याम धर्म से यम-याम की तुलना की जा होता है कि यापनीय संघ श्वेताम्बरों के वर्गभेद के रूप मे मी उद्भत हा; भले ही ऊपर से उनका बाह्य परिवेश दिग
यापनीय साधुनों के विषय में हमें कुछ विशद सामग्री म्बर साधुओ जैसा रहा हो। कुछ दिगम्बर विद्वानों की मान्यतानुसार यापनीय
उपलब्ध है अतः यह आवश्यक है कि यापनीय संघ और
उससे संबंधित साधुनों के विषय में, जिनका विभिन्न स्थानों जन नास्तिक वर्ग के थे। इन्द्रनंदी ने अपने नीतिसार (१०वें पद्य) मे यापनीयों को निम्न पाच कृत्रिम वों में व घटनामों से संबंध है और अधिक महत्वपूर्ण सामग्री का
विवेचन किया जाए। सन्निहित किया है :गोपूच्छिकाः श्वेतवासाः द्राविडोयापनीयकाः।
सम्राट खारवेल के हाथी गुफा लेख की १४ वीं, निःपिच्छकश्चेति पंचते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः॥ पंक्ति में 'यापज्ञावकेही' शब्द यापनीयों के प्रसंग में कुछ ११. देखो I.A.VII, P. 34, footnote.
१३. Otherwise the expression in the नायधम्म१२. See my Paper on the meanings of Yap- कहानो cannot be properly explained.
niya' in the श्री कण्ठिका मैसूर १९७२ ।
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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश
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संदेह उत्पन्न करता है, पर इसे सुनिश्चित रूप से कुछ इस मंदिर के अधिकारी यापनीय संघ (कोटि) मडुवगण नहीं कहा जा सकता"।
और पुम्यारह (संभवतः पुनागवक्षगण जैसा ही) नंदीकदंब बंशीय मृगेशवर्मन (४७५-४६० ई.) ने गच्छ के जिनन यापनीय, निग्रंथ और कर्चको को अनुदान दिया था, इनके मंदिर देव थे"। ६८० ई० का सौदति (सुगंधवत्ति) का गुरु का नाम दामकीनि उल्लिखित है । प्रागे मृगेशवर्मन्
शिलालेख भी है जो चालुक्यवंश के तैलपदेव से प्रारम्भ होता के पुत्र (४६७-६३७ ई.) ने भी कुछ ग्राम प्रनुदान मे
है। इसमे शातिवर्म और उनकी रानी चन्द कब्बी का भी दिए थे जिनकी आमदनी से पूजा प्रतिष्ठा के अनुष्ठान
विशेष उल्लेख है । शातिवम ने जो जैन नदिर बनवाया था, किए जाते थे और यापनीय साधूनों के चार माह का
उसके लिए उन्होने भूमिदान किया था। इसमे कुछ साधुओं भरण-पोषण किया जाता था। इसमें जिन गायों के के नाम दिए है जो यापनीय सघ काण्डर गण के थे। इनके नामोल्लेख है, वे है दामकीर्ति, जयकीति, बंधुसेन और नाम है बाहुबलि देव (भट्टारक), (जिनकी उपमा चद्र, कुमारदत्त । संभवतः ये चारो ही यापनीय हों। आगे कृष्ण सिंह प्रादि से की है) रविचन्द्र स्वामी, अर्हनन्दी, शुभचद्र, वर्मन के पुत्र देव वर्मन (४७५.४८० ई.) ने यापनीय
सिद्धान्तदेव, मोनिदेव और प्रभाचद्र देव आदि"। डाo सघ को एक ग्राम दान किया था जिससे मदिर की पी बी. देसाई ने होसुर (सोदत्ति, जिला वेलगाव) के सुरक्षा और दैनिक देखभाल हो सके।
एक दूसरे लेख का विवरण दिया है जिसमे यापनीय संघ
के काण्डरगण के उपदेशको (साधुग्रो, गुरुग्रो) का उल्लेख ८१२ ई. के कदंब दानपत्र में निम्न विवरण प्राप्त
है जिनके नाम है शुभचंद्र प्रथम चन्द्रकीति, शुशवद्र द्वितीय, होता है.---"राष्ट्रकूट राजा प्रभूतवर्ष ने कुछी (ली)
नेमिचन्द्र, कुमारकीति, प्रभाचन्द्र और नेमिचन्द्र द्वितीय"। प्राचार्य के शिष्य अर्ककीति द्वारा संचालित मंदिर को
___ पता चला है कि बेलगाग की दोडा वसदि में भ० स्वयं दान दिण था जो यापनीय नंदी संघ पुन्नाग वृक्ष
नेमिनाथ की प्रतिमा है जो किसी समय किले के मन्दिर मूलगण के श्री कीति प्राचार्य के उत्तराधिकारी थे (बीच
में थी। इसमें जो पीठिका लेख है, उससे पता चलता है कि में कई प्राचार्यों को छोडकर) अर्ककीर्ति ने कुन्नि गिल
यापनीय सघ के पारिसय्य ने १०१३ ई० में इस मन्दिर देश के शामक (गवर्नर) विमलादित्य का उपचार किया
का निर्माण कराया था, जिसे साहणाधिपति (संभवतः था जो शनिग्रह के दुष्प्रभाव से पीड़ित था। नौती ई के
कदम्बशासक जय के शि के दण्डनायक) की माता कत्तय्य किरइप्पाक्कम (चिगलपेट, तमिलनाड) लेख से देशवल्लभ
और जक्कव्वे ने कल्लहविळ (गोकम के पास) ग्राम की नामक एक जैन मदिर का पता चलता है जो यापनीय
भूमि दान में दी थी। उपयुक्त विवरण से ज्ञात होता है संघ और मिलगण के महावीर गुरु के शिष्य प्रमल
कि पारिसय्य साधु या गुरु नही थे अपितु कोई सामान्यमुदल गुरु द्वारा निर्मित कराया गया था" और अनुदान
जन थे जिनके यापनीय सघ से घनिष्ठ सवध रह होंगे पत्र मे पापनीय संघ के साघुरों के भरण-पोषण की भी
इसीलिए उनका विशेषतया उल्लेख किया गया है। व्यवस्था का उल्लेख है।
१०२० ई. के रढवग् लेख में स्पष्ट लिखा है कि हूविनपूर्वी चालुक्यवंश के मम्म द्वितीय ने जैन मंदिर के वागे की भूमि का दान दण्डनायक दासिमरस ने विख्यात लिए मलियपुन्डी (प्रान्ध्र) ग्राम का अनूदान दिया था। यापनीय सघ पूनागवृक्ष मूल गण के प्रसिद्ध उपदेशक 14. E.I.XX No, 7, p. 80,
19. Journal of the B.B A.A.S.X 71-72, teut 15. I.A. VI, pp. 24.7, VII pp. 33.5.
Pp. 206-7. 16. E.C.XII Gubbi 61.
20. Jainism in South India p. 165. 17. A.R.S.I.E. 1954-35, N. 22 p. 10 Delhi 19:8 २१. जिनविजय (कन्नड) जनवरी १९३१ । 18. E.I.IX No.6.
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२४८, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
(आचार्य) कुमारकीति पंडित देव को किया था। इस दान पत्र को मुनिचन्द्र सिद्धान्त देव के शिष्य दायि१०२८-२६ ई. के होसुर (धारवाड) लेख में लिखा है यय्य ने लिपिबद्ध किया था। धर्मपुरी (जिला भिर, कि पोसवर के प्राच्छ-गवन्ड ने सुपारी के बाग एवं कुछ महाराष्ट्र) लेख में लिखा है "नाना प्रकार के करों से घर वसदि (मन्दिर) को दान में दिए थे। यहां यापनीय प्राप्त प्रामदनी भगवान की पूजा तथा साधुओं के भरणसंघ (पुन्नागवृक्षमूल-पूग नही पढा जाता) के गुरु जय- पोषण के लिए अनुदान रूप मे पोहलकेरे के पञ्चपट्टण, कीति का स्पष्ट उल्लेख है। हलि का विवरण दो भागों कञ्चुगारस और तेलुगनगरस द्वारा दी जावे । यह अनुदान में उपलब्ध है, प्रथम, चालुक्यवंशी पाहवमल्ल सोमेश्वर यापनीय संघ और वदीयूरगण के महावीर पंडित के सिपुर्द (१०४४ ई०) का, दूसरा, जगदेव मल्ल के लिए तथा की गई थी जो वसदि के प्राचार्य भी थे। ११वी सदी के इनसे मबंधित साधुओं के लिए अनुदान की व्यवस्था है। रामलिङ्ग मदिर के कलभावी लेख में पश्चिमी गगवंश हूलि के प्रथम विवरण में यापनीय संघ पुन्नागवक्ष के शिवमार का उल्लेख है, शिवमार ने कुमुद वाड नामक मूल के बालचन्द्र भट्टारक देव का उल्लेख है तथा दूसरे ग्राम जैन मदिर को दान दिया था, जिन्हें स्वय ने निमित में रामचन्द्र देव का विशेष उल्लेख है। १०४५ ई० के कराया था, और इसे मइलायान्वय कारेयगण (जो यापमुगद लेख में भी यापनीय संघ और कुमुदिगण का संदर्भ नीय संघ के संबन्धित है ऐसा वइलहोगल विवरण में मिलता है । यह एक पत्र है जिसमें बड़े अच्छे स्पष्टीकरण लिखा है) के गुरु देवकीर्ति के सुपुर्द किया था, इनके पूर्वा
और साधुओं के नामोल्लेख भी है जैसे श्रीकीर्ति गोरवडि, चार्यों में शुभकीति, जिनचन्द्र, नागचन्द्र और गुणकीति प्रभाशशांक, नयवृत्तिनाथ, एकवीर, महावीर, नरेन्द्रकीति, आदि प्राचार्यों का भी उल्लेख है। नागवि विक-वृतीन्द्र, निरवद्यकीति भट्टारक, माधवेन्दु, बाल- ११०८ ई० मे बल्लालदेव और गण्डरादित्य (कोल्हा चन्द्र, रामचन्द्र, मुनिचन्द्र, रविकीति, कुमारकीर्ति, दाम- पूर के शिलाहार वंशीय) के समय में मूल संघ पुन्नागनंदि, विद्य गोवर्धन, दामनंदि, वडढाचार्य आदि । यद्यपि वृक्षमलगण की प्रायिका रात्रिमती-कन्ति की शिष्या बम्मउपयुक्त नामो मे कुछ कृत्रिम और जाली है, फिर भी गवड ने मंदिर बनवाया था जिसके लिए अनुदान का इनमे से बहुत से साधु बड़े विख्यात और ज्ञान तथा उल्लेख होन्नूर लेख में विद्यमान है । बइलहोंगल (जिला चारित्र के क्षेत्र मे अद्वितीय रूप से अत्यधिक प्रसिद्ध थे। बेलगांव) का लेख चालुक्यवंशीय त्रिभुवन मल्ल देव के मोरब (जिला धारवाड़) विवरण में यापनीय संघ के समय का है, इसमे रह महासामन्त अङ्क शान्तियक्क और जयकीति देव के शिष्य नागचन्द्र के समाधिमरण का कुण्डि प्रदेश का उल्लेख है । यह किसी जैन मदिर को उल्लेख है, नागचन्द्र के शिष्य कनकशक्ति थे जो मंत्र दिया गया अनुदान पत्र है, इसमे यापनीय संघ मइलाचडामणि के नाम से प्रसिद्ध थे। त्रिभुवनमल्ल के पान्वय कारेयगण के मल भट्टारक और जिनदेवसूरि का शासन में १०६६ ई. के डोनि (जिला धारवार) विवरण विशेष रूप से स्पष्ट उल्लेख है"। विक्रमादित्य षष्ठ के में यापनीय संघ वृक्षमूलगण के मुनिचन्द्र विद्य भट्टारक शासन कालीन हुलि (जिला बेलगाव) लेख मे यापनीय संघ के शिष्य चारकोति पडित को उपवन दान का उल्लेख है, कण्डुर गण के बहुबलि. शुभचन्द्र, मोनिदेव और माघनदि
22. Journal of the Bombay Historical Society
iii pp. 102-200. 23. S.I.I.XII No. 65, Madras 1940. 24. E.I.XVIII, Also P. B. Desai, Ibidem pp.
174F. 25. S,I.I.XII, No. 78, Madras 1940.
26. A R-S.I.E. 1928-29, No, 239, p. 56. 27. S.I.I.II, iii No. 140. 28. ARS.I.E. 1961-62 B 460-61. 29. I.A.XVIII P.309, Also P.B. Desai Ibidem
p. 115. 30. I.A.NII p. 102. 31. A.R.S.I.E. 1951-52, No. 33, p. 12,
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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश
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मादि का उल्लेख मिलता है।वसाम्बि (जिला बेलगाव) यापनोय मघ के कण्डरगण के सकलेन्दु सिद्धान्तिक के में विजयादित्य (शिलाहार गण्डागदित्य के पुत्र) के सेना- शिष्य थे। तेगलि (जिला गुलवर्ग) मे १२वी सदी पति काल न (ण) द्वारा निर्मित नेमिनाथ वसदि से प्राप्त की प्रतिमा है जिसके पीठिका लेख से ज्ञात होता है कि लेख द्वारा ज्ञात होता है कि यापनीय मघ पुन्नाग वृक्ष मूल इसकी प्रतिष्ठा यापनीय सघ के वडिपुर (वन्दिपूर) गण गण के महामडलाचार्य विजयकीति को मदिर के लिए के नागदेव मिद्धान्तिक के शिष्य ब्रह्मदेव ने कराई थी। भूमिदान किया गण था। इनकी गुरु परम्परा निम्न प्रकार १२वी सदी ई. के मनोलि (जिला वेलगाव) के लेख से मिलती है- मनिचन्द्र, विजयकीनि, कुमारकीति और विदित होता है कि यापनीय मघ के गुरु मनिचन्द्रदेव की विद्य विजयकीति प्रादि । र कातिवीर्य ने ११७५ ई० समाधि निमित कराई गई थी जो सिरिया देवी द्वारा मे इस मन्दिर के ससम्मान दर्शन किए थे"। १२वी मदी सस्थापित वमदि (मन्दिर) के प्राचार्य थे। इसी मे यापके मध्य में लिखे गये असिकेरे (मैमूर) लेख में जैन मदिर नीय सघ के मनिचन्द्र के शिष्य पाल्यकीति के समाधिको दिए गए अनुदान का उल्लेख मिलता है। इस लेख मरण का भी उल्लेख है"। १३वी सदी ई० के प्रदर के प्रारम्भिक छन्दो मे से एक छन्द मे मडवगण यापनीय गुन्छि (जिला घारवार) के विवरण मे यापनीय सघ और (संघ) की भूरि भूरि प्रशसा की गई है, मूर्ति प्रतिष्ठा काण्ड रगण की उच्छगि स्थित वमदि को दी जाने वाली पोन्नाग वृक्ष मूल गण और सघ (यापनीय) के शिष्य भमि की मीमायो का लेखा-जोखा प्राप्त होता है। माणिकशेहि द्वारा कराई गई थी, प्रतिष्ठाचार्य थे कुमार. १३वी सदी के हुकेरि (जिला बेलगाव) विवरण से कीति सिद्धान्त जो यापनीय संघ मडवगण से सम्बन्धित जो सर्वथा अस्त-व्यस्त और कटा-फटा है, यापनीय सघ के थे । एक दूसरे लेख में इसके दानकर्ता का नाम यापनीय किसी गण (गण का नाम मिट गया है) के कीर्ति का सघ के सोमय्य का है। दूसरे अन्य विवरणो की भाति नामोल्लेख मिलता है"। इसमे भी जनसामान्य को यापनीय सब से सुसम्बद्ध किया गवाड (जिला बेलगाव) के तलघर मे भ० नेमिहै । दूसरे, इस लेख के सम्पादक का मत है कि इममे से नाथ की एक विशाल प्रतिमा है जिसके पीठिका-लेख मे यापनीय शब्द को मिटा दिया गया है। तीसरे, काष्ठामुख धर्मकीति और गाम बम्मरस के नामोल्लेग्व है, इसमे जो प्रतिबद्ध जैसा शब्द बाद में इसमें जोडा गया है पर यह तिथि अकित है, वह १३६४ ई. के ममकालीन तिथि है। सब सर्वथा अतिशयोक्ति है । वैसे यापनीयो के विरुद्ध कुछ इम विवरण में कुछ व्यवधान भी है पर यापनीय मध और द्वेष तो अवश्य दर्शाया गया है पर कोई पर्याप्त प्रमाण पनागवृक्ष मूल गज के साधुग्रो मे नेमिचन्द्र (जो तुष्टुवउपलब्ध नहीं है कि उनका काष्ठामुख की ओर झुकाव हो गज्य स्थापनाचार्य भी कहलाते थे) धर्मकीति और नागक्योकि काष्ठामुख प्रतिबद्ध शब्द स्वयं बाद मे जोड़ा गया चन्द्र के नाम भी उल्लेखनीय है"। गया है पर यह समझ में नहीं पाता कि इस असगति कुछ बिना तिथियो के भी विवरण उपलब्ध हैं। को हटाने के लिए जिसने काष्ठामुख प्रतिबद्ध शब्द जोडा सिकर (जमवडि) विवरण से ज्ञात होता है कि पार्श्वनाथ है, उसी ने यापनीय शब्द को मिटाया हो" । १२वी सदी भट्रारक की प्रतिमा कुमुम जिनालय के लिए यापनीय के लोकपुर के (जिला बेलगाव) विवरण में लिखा है कि सघ और वृक्षमूल गण के कालिमेहि ने भेंट की थो"। ब्रह्म (कल्लभावण्ड के पुत्र) ने उभय सिद्धान्त चक्रवर्ती गरम् (जिला धारवार) विवरण में यापनीय सघ कुमुदि32. E.I.XVIII pp. 201F.
36. A.R.IE. 1960-91, No. 511 also PB. Desal 13. A.R. of the Mysore Arch. Deptt. 1961,
Ibidem p. 404. pp. 48 FE.
37. A.R S.I.E. 1940-41, No. 563-65, p. 245.
38. A.R.SIE 1941-2. No.3, p. 255. 34. Ed. S. Sattar : J. of the Karnatak Uai
39. A.R SI.E. 1941-42, No. 6, p. 261. versity.x,1965, 159 FF. (Kannada) ४०. जिनविजय (कन्नड) बेलगांव जुलाई १९३१ । ३५. कन्नड शोध संस्थान, धारवार १६४२-४८, नं. ४७। 41. A.R.S.I.E. 1938-39, No. 98, p. 219.
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२५० वर्ष २००१
गण के शांतिवीर देव के समाधिमरण का स्पष्ट उल्लेख है, एक और नष्ट हुए इसी तरह के विवरण में इसी स के विवरण में इसी सघ और गण का उल्लेख मिलता है" रग ( जिला वेल्लरी) विवरण मे निसिदि के निर्माण का उल्लेख है, जिसमे आठ नाम लिखे हैं, उनमें से मूलसघ के चन्द्रभूति तथा यापनीय संघ के चन्द्रेन्द्र, बादय्य और तम्मण के नाम स्वाभिप्रेत है" ।
कुछ और लेख एव विवरण है जो बहुत विलम्ब से प्रकाश में पाये है, उनमे एक है ११२४ ई० का सेम लेख जिसमें मव गण के प्रभावन्द्र विद्या का उल्लेख है। सभवतः यह गण यापनीय संघ से ही मबधित हो" । दूसरा है १२१६ ई० का बदलि ( जिला बेलगाव ) लेख जिसमे यापनीय संघ और कारेय गण का उल्लेख है, इसमें जिन साधुओ के नामोल्लेख है वे है माधव भट्टारक विनयदेव, कीर्ति भट्टारक, कनकप्रभ और श्रीधर विद्य देव" । तीसरा है १२०१ और १२५७ ई० के मरि हलकेरि लेख इसमे यापनीय संघ, महलापान्वय कारयगण का सन्दर्भ मिलते है, इसमें जिन गुरुयो के नाम प्रति है, वे है कनकप्रभ (जो 'जातरूप पर विख्यातम्' कहलाते थे तथा अपनी निर्ग्रन्थता के लिए प्रति प्रसिद्ध थे और श्रीधर ( कनकप्रभ पंडित ) " । चौथा है कोल्हापुर के मगलवार पेठ वाले मंदिर की पहली मंजिल की पीठ वाला कन्नड लेख, जिसमे लिखा है कि वोभियण्ड ने यह पाठशाला बनवाई थी जो यापनीय संघ पुनागवृक्ष मूल गण को विजयकीति के शिष्य रवियण्ण का भाई था। पाँचवा जिसकी प्रतिलिपि डा० गुरूराज भट्ट ने मुझे भेजी थी, जो रंग (द० क०) स्थित प्रतिमा से प्राप्त हुआ है, इसमे काणूर गण का उल्लेख है। श्री भट्ट जी ने इस लेख का गम्भीरता से अध्ययन किया है।
उपर्युक्त यापनीय संघ से संबंधित नाना विवरणों और लेखो का (वीं सदी से १४वी सदी ई० तक) तिथिकम से सर्वेक्षण करने पर संघ के बारे में बहुत से सुनि 42 A.R SIE 1925-26, No. 5441-42, p. 76. 43. ARS,IE. 1919 No 109, p. 12. 44. PB Desai: Ibidem p. 403.
अनेकान्त
श्चित और विस्तृत एवं प्रामाणिक तथ्य प्रकाश मे प्रा है। सर्वप्रथम तो यापनीय जन निर्ग्रन्थों, श्वेतपट और कूर्बको से सर्वथा भिन्न थे। यापनीय संघ का गणो से विशेष संबंध था । जैसे कुमुलिंगण या (कुमुदिगण ) (कोटि) मडुवरण, कण्डर या कारगण, पुनागवृक्ष मूल गण (जो मूल संघ से भी संबंधित है ) वन्दिपुरगण, कारेयगण और नन्दगच्छ और मइलापान्वय आदि आदि। इस तरह विभिन्नगणो से असंगतता से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सब क्रमशः गणो के माध्यम से ही विरुवात हो सका 'गणभेद' ग्रंथ के विवरण से ज्ञात होता है कि वे कर्नाटक और उसके चर्ती क्षेत्र मे अपनिक उपयोगी और प्रसिद्ध थे । फलतः यापनीय मघ किम तरह क्रमश लुप्त होता चला गया और दूसरो के साथ मिलने लगा, खास तौर से दक्षिण मे दिगम्बरो के साथ ही । यापनीय संघ के एक साधु को 'जातरूपघर' कहा गया है जो प्रायः दिगम्बर साधुषो द्वारा ही प्रयुक्त होता था। इस संघ के साधुयो ने अपने चाचार, दर्शन, विचार पादिका ग के साथ कैसे समन्वय किया यह अपने पाप मे शोध का विषय है। इनदि के नीतिमार ( ७२ ) के अनुसार यापनीयो मे सिंह, नदि, सेन और देव सघ प्रादि नाम से सबसे पहले सघ व्यवस्था थी फिर वाद में गण गच्छ प्रादि की व्यवस्था बनी। लेकिन 'गणभेद' ग्रंथ से ज्ञात होता है कि कुछ दिनों बाद गण-विभाजन ने संघ को समाप्त कर उनका स्थान ग्रहण कर लिया। इस गणपक्षपात का विवरण 'श्रुतावतार' (१०१ लोक ) मे स्पष्ट किया गया है जिससे पता चलता है कि किस प्रकार नदि वीर, देव आदि प्रत नाम का " प्रचलन ।
यापनीय संघ का विवरण जिन स्थानों से मिलता है, उनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस सब के साधुषों का वर्चस्व एव प्रभुत्व आाज के धारवार, बेलगांव, कोल्हापुर और गुलवर्ग आदि जिलो के क्षेत्र में अत्यधिक विपुलता से था" मान्ध्र और तमिलनाडु में इस सब से । 46. K. G. Kundamgar : Inscription from N.
45. R.S. Panchamukh Karnataka Inscription 1, Dharwar 1941, pp. 75-6.
Karnatak & Kolhapur State 1931. ४७ जिनविजय (कन्नड) बेलगाव १९३१ (मई-जून) । 48. See Foot Note No 2 cup 11; the Srutavatara is also included in that Volume. 49. See also P.B. Desai, Ibidem pp. 164F.
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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ पोर प्रकाश
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संबंधित जो सामग्री प्राप्त है, वह बहुत ही थोडी है। सागर ने भी उनके विरुद्ध कई बातें कही है। यहां तक श्रमणवेलगोल मे यापनीय सघ से सबधित कुछ भी सामग्री कि यापनीयो द्वारा सस्थापित मूर्तियो की पूजा का भी का न मिलना इस बात का द्योतक है कि इस पीठ का विरोध किया है, भले ही दिगम्बर प्रतिमाएं ही क्यों न विकास यापनीय साधुनों के अलावा अन्य साधुग्रो के हो"। इन सबके होने पर भी यापनीय साधुनो की उनके सहयोग से हया । कर्नाटक के उत्तर भाग में ही यापनीयो उत्कृष्ट ज्ञान और उत्तम चारित्र के कारण विभिन्न लेखों का जोर था जो मुख्यतया मदिरो और मस्थानो से एवं विवरणो मे सम्मान सहित भूरि-भूरि प्रशसा की गई सम्बन्धित रहते थे (और इनमे नेमिनाथ और पार्श्वनाथ है तथा उन्हे समाज में उच्च स्थान प्राप्त होने का उल्लेख की ही प्रतिमानो के प्रति अधिक प्राग्रह रहता था)। किया गया है । दक्षिण भारत मे तो यापनीय साधुग्रो द्वारा विशेष महत्त्व की बात यह दिलाई देती है कि यापनीय साधु पतिष्ठित प्रतिमानो को दिगम्बर लोग बडे भक्ति-भाव से मन्दिरो के प्रबन्ध-व्यवस्थापक या सघो के भरण पोपण पूजा अर्चना करते है, इसी मे विदित होता है कि यापनीय कर्ता के ही रूप में विशेषतया दिखाई देते है। जो प्रायः और दिगम्बर अापस में किस तरह अधिकता से घुलमिल राजानी या समाज के अन्य विशिष्ट वर्ग के व्यक्तियो से गए थे। अन्त में एक दृष्टान्त भी है कि यापनीय माधु अनुदान मे भूमि, बाग आदि प्राप्त किया करते थे । इनको को जातरूपधर कहा गया है जो कि दिगम्बरत्व का भी कार्य-पद्धतिया अपने क्षेत्र मे थोड़ी बहुत आधुनिक भट्टा- प्रतीक है। रको की भाँति प्रचलित थी । जैन नियमो के अनमार यापनीयो का एक सघ था और इसके गुरुजन (माधुमायिका सघ (प्रायिका, काति क्षान्तिका) की अवस्थिति गण) मन्दिरो के अध्यक्ष हुमा करते थे, जिनके निर्माण से तद्भव स्त्री-मुक्ति जैसे मैद्धान्तिक प्रश्नो पर भी कोई एव भरण-पोषण के लिए अनुदान रूप में भमि या धन प्रभाव न था। जैनियो में बड़े-बडे दण्डनायको की व्यवस्था प्राप्त होता था। अत: यह स्वाभाविक ही है कि ये परिहोने पर भी हिसा जैसे प्रमुख सिद्धान्त से कोई बाधा म्यिानया यापनाय साधुना के
स्थितिया यापनीय साधुप्रो की साहित्यिक प्रवृत्तियों के नही पड़ी। आवश्यकता केवल इस बात की थी कि हिसा
विकास में पूर्णतया सहायक मिद्ध हुई । हरिभद्र (८वी सदी और तद्भव स्त्री-मुक्ति की विचारधारा को सही रूप से
ई.) ने यापनीयता मे लिखा है" :-"स्त्रीग्रहण तासासमझा जावे। उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट प्रतीत होना
मपि तद्भव इव ससारक्षयो भवति इति ज्ञापनार्थ वच. है कि यापनीय सघ का जन-सामान्य पर कोई विशेष प्रभाव
यथोक्तम् यापनीयतत्र-णो खलु इत्था अजीवो ण यावि न था। उसका सम्बन्ध तो कुछ विशिष्ट वशो या व्य
अभब्यो ण याविदसण विरोहिणी, णो प्रमाणुसा णो प्रणानि क्तियो तक ही सीमित था, जिनकी इस सघ के साधुग्रो या
उत्पत्ति णो प्रसखे ज्जाउया, णो ग्रह (ए) कुरमई णोण प्राचार्यों पर विशिष्ट श्रद्धा-भक्ति थी।
उवसत मोहा, णो ण मुद्धाचारा, णो अमुद्धवोंदी णो बब___कालान्तर मे सघ, गण, गच्छ, अन्वय आदि शब्दों के
साय वज्जिया, णो अपुवकरण विरोहिणी, णो णव गुणठाण अर्थ बदलने लगे थे। सघ और गण प्रायः परस्पर मे ही
रहिया, णो अजोगलद्धीए, णो अकल्लण भायणति, कदण
उभए धम्म साहिगन्ति।" परिवर्तित होने लगे थे। अब उनका तथा उनके पारम्प- थतमागर ने लिखा है कि 'कल्पसूत्र' की जानकारी के रिक सम्बन्धा का विस्तृत अध्ययन एक प्रभाव की वस्त लिए उन्होंने कल्प का अध्ययन किया था। हो गया है।
पाल्पकीति नाम से प्रसिद्ध, विरूपात वैयाकरण शाकऊपर देखा ही है कि किस तरह इन्द्रनन्दि ने अपने टायन यापनीय थे, ऐसा मलय गिरि ने कहा है और उनके
टायन यापनाय थ, एसा मलयागार न कहा ह ' नीतिसार मे यापनीयो को जैनाभास कहा है और श्रत- संस्कृत व्याकरण" से नियुक्ति भाष्य प्रादि में लिए गए ५०. पटप्राभूतादि संग्रह की सस्कृत टीका, बम्बई १९२०, 52. My eather paper noted in F.NI. on p. 9.
पृ. ७६ । 51. See my earlier paper noted above; also
५३. शाकटायन व्याकरण, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन Hemachandra's Yogasastra, B.I. ed. p. 5 2.
१९७१ प्रस्तावना प्रौर मपादकीय ।
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२५२, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
उद्धरणों से स्पष्ट ज्ञात होता है कि अर्धमागधी भाषा के ने इन्हे श्रत केवली कहा है, सिद्धसेन का दिगम्बरी व श्वे. कुछ पाठ उन्हे स्वीकार्य थे। उन्होने बहुत से ग्रन्थकागे ताम्बरी प्रसिद्ध सिद्धान्तो से स्पष्ट मतभेद था, पर काल. का उल्लेख किया है, जिनमें से कुछ यापनीय सघ के साधु गति के साथ-साथ यापनीयो द्वारा सस्थापित मंदिर तथा भी थे। जैसा कि कुछ टीकाकारो ने लिखा है कि अपभ्रश उनमे प्रतिष्ठित मूर्तियां प्राज दिगम्बरी कहलाती है तथा के प्रसिद्ध कवि स्वयंभू आपुलीय या यापनीय संघ के थ दिगम्बरों द्वारा पूजी जाती है। अत: यह स्वाभाविक ही कुछ विद्वानो का कथन है कि पउमचरिउ के कर्ता श्री है कि विख्यात यापनीयों द्वारा निर्मित साहित्य मुख्यतया विमलसूरि भी यापनीय संघ के थे, पर इस सम्बन्ध मे दक्षिण भारत में ही उपलब्ध है। इसीलिए विमलमूरि के पउमचरिउ के गम्भीर अध्ययन पूर्वक गहन शोध की प्राय- पउम चरिय, रविषेण के पद्मचरित, जटिल (जो सिद्धसेन श्यकता है ।
और उमास्वाति के प्रत्यधिक ऋणी थे) के वराङ्ग-चरित विख्यात वैयाकरण शाकटायन ने प्रात्म-प्रशस्ति में
तथा स्वयंभ के पउम चरिउ प्रादि ग्रन्थो के गम्भीर अध्यनिम्न प्रकार लिखा है५ :-"इति श्री श्रतकेवलि देशी
यन एवं गहन शोघ खोज की आवश्यकता है। याचार्यस्य शाकटायनस्य कृती शब्दानुशासने" इत्यादि ।
यहाँ मै एक और आवश्यक एव ठोस बात कह दूंकि सम्भवत. यही तरीका है जिससे यापनीय साधु (गुरु) स्वय
'गणभेद' ग्रथ के अनुसार अाधुनिक कोप्वल (कोप्पक्ष) को दूसरो से पृथक् समझा करते थे । तत्वार्थ सूत्र के कर्ता उमास्वाति ने भी ऐसा ही वर्णन किया है :
यापनीयो का मुख्यपीठ था और वहां पल्लिक्कि गुन्डु में तत्वार्थ-सूत्र-कर्तारम् उमास्वाति मुनीश्वरम् ।
जटिल या जटाचार्य के चरणचिह्न प्राप्त हुए है। १३वी श्रुत केवलि देशीयम् बन्देऽहम् गुणमन्दिरम् ॥
मदी ई. के प्रारम्भ में कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि जन्न ने सूत्रो और भाष्य का अर्धमागधी भाषा से स्पष्ट मत- जटासिंह नदि को काणर गण का माना है (देखो अनन्तभेद है और पूज्यपाद स्वामी अनेको स्थलो पर मुत्रो के नाथ पुराण I. १७)" जो यापनीय संघ का ही अग था। पाठ से सर्वथा असहमत है ।" स्व. प. नाथराम प्रेमी ने जब मैंने 'वराग चरित' का सम्पादन किया था तो सबसे उमास्वाति के यापनीय होने के पक्ष में प्रबल तर्क प्रस्तुत पहले यही विवाद उठा था कि इसका कर्ता दिगम्बर था किये है। उनका मत है कि शिवार्य और अपराजित मरि या श्वेताम्बर ?" भी यापनीय संघ के ही थे। प्राचीन प्राकृत के श्रेष्ठ ग्रन्थ उपर्युक्त विस्तृत विवरणो से यह स्पष्ट है कि दक्षिण 'प्राराधना' की रचना शिवार्य ने की थी तथा अपगजित भारत के शिलालेखों व विवरणो में यापनीयो का प्रसंग सूरि ने इसकी टीका संस्कृत में की थी । इनके ग्रंथो में बहुलता से विद्यमान है, पर हमें यह भी देखना है कि कन्नड कुछ प्रसग ऐसे है जो श्वेताम्बर या दिगम्बरी दष्टिकोणो और उसके समकक्ष साहित्य में भी यापनीय संघ के कुछ से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते।" सिद्धसेन दिवाकर तो संदर्भ मिलते है कि नहीं ? हरिषेण की"(१३१-३२ ई०) हर सम्भव दृष्टि से यापनीय थे ही, इसी लिए हरिभद्र वृहत्कथा (नं० १३१) मे तथा कन्नड़ के 'वडाराध" ने' ५४. श्री नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास II ५६. देखो 'वरांगचरित' की मेरी प्रस्तावना, बम्बई १६३८ । प्रावृत्ति पृ १६६।
60. Annals of the BO.R I.XIV. 1-11 Poona ५५. शाकटायन व्याकरण कोल्हापुर, १९०७ ।
1933, 3rd Ed. Mysore 1972. 56. E.C.VIII, Nagar No. 46, though lateE१ सिंघी जैन सीरीज १७, बम्बई १९७०।
in age: it is a valuable record of traditinal Information
62. D. L. Narsimhachar, 4th Ed. p. 93. ५७ श्री नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास,
Mysore 1970. पृ. ५६, FF521F द्वि. श्रावृत्ति ।
६३. कन्नड निघण्टु बगलोर ने इस प्रोर मेरा ध्यान ५८. 'सिद्ध सेन दिवाकर का न्यायावतार और अन्य कार्य'
प्राकर्षित किया। श्री हम्पा नागराज ने बताया कि में मेरी प्रस्तावना देखो : जैन साहित्य विकास मडल, कन्नड साहित्य मे जावलिगेप का कहीं उल्लेख नही बम्बई १९७१।
मिलता।
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जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ पौर प्रकाश
२५३
में थोड़ा बहुत जापुलि संघ का उल्ने ख मिलता है । यद्यपि हरिभद्र के पडदर्शन समुच्चय (चौथे अध्याय के प्रारभ प्रसग बडे भ्रामक है, फिर भी दोनो ही ग्रथो मे प्रधंफालक, से) की टीका करते हा गुणरत्न ने लिखा है" :--दिगबरा काम्बलिक, श्वेत भिक्षु और यापनीय का उल्लेख है । १२वी पुनः नाग्न्यलिङ्गाः पाणिपात्राश्च. ते चतुर्धा-काष्ठा-मघ, सदी ई. के कवि जन्न के कन्नड़ अनन्तनाथ पुराण में काणर मूलगघ, माथुग्मघ, गोप्य सघ भेदात् । काष्ठासधे चमरी गण (२.२५) के रामचन्द्र देव का उल्लेख है और वह बालश्च पिच्छिका, मूलसंधे मयूरपिच्छ: पिच्छिका, माथरमुनिचन्द्र विद्य को जावलिगेय विशेषण से अलंकृत करता सघे मूलनोऽपि पिच्छिका नाहता, गोप्या मयूर पिच्छिका है, पर उसकी सही और स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाता है। प्राद्यस्त्रयोऽपि संघा वन्द्यमाना धर्मवद्धि भणन्ति, स्त्रीणां सम्भवत यह यही मनिचन्द्र है जिनका उल्लेख पाइर्व पं० मक्तिम् केवलिना मुक्तिम् सद्वतम्यापि मचीवरस्य मक्ति न (१२२२ ई.) ने अपने कन्नड पार्श्वनाथ पुगण (१३३) मन्यन्ते, गोप्यस्तु वन्द्यमान धर्मलाभं भणन्ति स्वीणा मक्ति मे किया है। " मेरे विचार से जाबलिगेय विदोषण उनके संघ केवलिना च भक्ति च मन्यन्ते। गोप्य यापनीय. इत्युच्यन्ते।" यापनीय के लिए ही जोड़ा गया है। सबसे अधिक रोचक इस तरह यापनीय का एक दूमग नाम गोप्य भी था, तो यह है कि कवि जन्न ने जटासिह नन्दि को और इन्द्र- जिसे दिगम्बरो के अन्तर्गत रखा है; यद्यपि उन्हे स्त्री-मुक्ति नन्दि को काण रगण का बताया है जो कि यापनीय सघ से और केवलि भुक्ति स्वीकार्य थी, जब कि दिगम्बर इन्हे घनिष्ठता से सम्बन्धित था । कवि जन्न द्वारा की गई नही मानते । यापनीयों को स्त्री-मक्ति और केवलि-भक्ति विभिन्न प्राचार्यो की स्तुति से स्पष्ट ज्ञात होता है कि जैसे सिद्धान्त मान्य थे, यह शाकटायन के संस्कृत व्याक. गणगच्छ आदि की पृथकतावादी प्रवृत्ति को इन कवियो ने रण से भी मिद्ध होता है, जिसमें उपयूक्त शीर्षको मे दो नही माना था ।
प्रध्याय भी रचे गये थे जो प्रकाशित भी है।" यह प्रत्यऐतिहासिक लेवो, विवरणो एव साहित्यिक उल्लेखो धिक रुचिकर है कि शाकटायन व्याकरण दक्षिण भारत के यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि यापनीय दिगम्बरो के दिगम्ब्रगे मे अत्यधिक प्रसिद्ध और प्रचलित है। पर ये माथ माथ रहा करते थे । यापनीयो के कुछ मन्दिर और दोनो सिद्धान्त (म्बीमुक्ति केवलि भक्ति) श्वेताम्बरो में मूर्तियाँ पाज भी दक्षिण भारत में दिगम्बगे दवाग प्रजे ही प्रचलित एव मान्य हैं। जाते है । गुणरत्न (१३४८-१४१८ ई.) को यापनीयो अन्त मे श्रुतसागर (१५वी सदी विक्रमी) यापनीयों के बारे में विशेष जानकारी नही है और श्रमागर को को नहीं मानते । वे इन्द्रनन्दि के छन्द को उदधत करते हा (१६वी सदी विक्रमी) तो यापनीयो से तनिक भी महानु- यापनीयो को केवल जैनाभास ही कहते है, और गोपुच्छिक भूति नहीं है और तथ्य यह है कि आज भी बहुत बड़े श्वेतवास, द्रविड और यापनीय के विषय मे लिखते है :रूढिवादी विद्वान यह नही जानते कि जो कुछ थोडी- "द्रविडा. सावद्य प्रामूक च न मन्यन्ते, उदभोजन निराकबहुत मूर्तिया दिगम्बर मन्दिरो मे है, वे सब यापनीयो से वंन्ति यापनीयास्तु वेसरा इवोभय मन्यन्ते, रत्नत्रय पूजही सम्बन्धित हैं। फिर भी यापनीयो द्वारा प्रतिष्ठित एव यन्ति, कल्प च वाचयन्ति, स्त्रीणा तदभवे मोक्ष, केवलि पूज्य प्राचीन मूर्तियों पर आपत्ति करते हैं । यापनीय जिनाना कवलाहार पर शासने मग्रन्थाना मोक्ष च कथप्राचार्यों द्वारा प्रयुक्त सिद्धान्तिक, विद्य आदि उपा- यन्ति ।" धियों से विदित होता है कि वे पट्खण्डागम प्रादि के अध्यक्ष-प्राकृत एवं जैन-विद्या-विभाग, विशिष्ट प्रध्येता थे। इस विषय में अभी और अधिक शोध
मगर विश्वविद्यालय, मानस-गगोत्री की भावश्यकता है।
मैसूर-६ (कर्णाटक)
६४. भारतीय ज्ञानपीट, वाराणसी १६७०, .१६०-६१॥ ६५. See the Appendix to the Intro. by Dr.
Birwe to the शाकटायन व्याकरण noted above.
Muni Sri Jamhu Vijayaji is bringing out
a new ed. along with the स्वोपज्ञ टीका। ६६ उपर्युक्त षट् प्राभतादि संग्रह पृ. ११ ।
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पुस्तक-समीक्षा
तीर्थकर वर्धमान-लेखक-मनि श्री विद्यानन्दजी। पाकर्षक उपशीर्षको द्वारा ग्रन्थ की रोचकता में वृद्धि हुई प्रकाशक-श्री वीर-निर्वाण-ग्रन्थ-प्रकाशन-समिति, इन्दौर है । इतिहास एव उपन्यास का सरस समन्वय इसकी पृष्ठ सं०-१००। मूल्य---तीन रुपये।
मुख्य विशेषता है, जिससे पाठक इसे एक बार पढ़ना मुनि श्री विद्यानन्द-कृत इस शोधपूर्ण ग्रन्थ में 'इक्ष्वाकु प्रारम्भ करके पूरा पढे बिना नहीं छोड़ता। वंश केशरी,' 'लिच्छवि-जाति-प्रदीप,' 'नाथ-कुल-मुकुट- इस उपयोगी प्रकाशन के लिए लेखक तथा पाटक मणि' प्रातः स्मरणीय तीर्थकर महावीर का ऐतिहासिक
बधाई के पात्र है। छपाई, माज-सज्जा आदि की दृष्टि में तथा ज्योतिष शास्त्रीय जीवन-परिचय है । इसके
पुस्तक सुरुचिपूर्ण है। अतिरिक्त ऐतिहासिक काल-गणना तथा वैशाली-वैभव
भगवान महावीर-माधुनिक सन्दर्भ में- सम्पादकका युक्तियुक्त विवेचन इसकी मुख्य विशेषता है ।
डा० नरेन्द्र भानावत । प्रकाशक-अ०भा० साधुमार्गी पूज्य मुनिश्री ने इसमे महावीर की जन्म-कुण्डली, वैशाली
जैन संघ, समता-भवन, गमपुरिया सडक, बीकानेर । पृष्ट की सरचना तथा महावीर-कालीन भारत की भौगोलिक
स०-३५० (सजिल्द) मूल्य--चालीस रुपये। स्थिति का मानचित्र देकर इमे शोधपूर्ण तथा उपयोगी बनाया है। प्रारम्भ मे जीवन्त स्वामी (दीक्षा से पूर्व
उपयुक्त ग्रन्थ मे ५० विद्वान लेखको के विद्वत्तापूर्ण
लेख सकलित है। इनमे ढाई हजार वर्षो के पश्चात, वर्तभगवान महावीर की गुप्तकालीन मूर्ति) का चित्र पुस्तक की सुन्दरता में वृद्धि करता है ।
मान युग की ज्वलन्त समस्याग्रो के परिप्रेक्ष्य में भगवान्
महावीर के व्यक्तित्व एव मिद्धान्तो का युक्ति-युक्त विवेपं० बाबूलाल शास्त्री द्वारा लिखित विद्वत्तापूर्ण भूमिका
चन किया गया है। में प्रस्तुत कृति के सन्दर्भ में वैदिक तथा श्रमण-सस्कृति का समन्वययात्मक चित्रण किया गया है । पुस्तक में जीवन, व्यक्तित्व एव विचार के साथ-साथ राजनैतिक, तथ्यात्मक सामग्री पर्याप्त है । अत शोधार्थी छात्रों तथा सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक साधारण जिज्ञासुमो दोनों के लिए इसकी उपयोगिता स्वय- तथा सास्कृतिक मन्दर्भो मे, प्रस्तुन प्रथ को पाट खण्डो मे सिद्ध है। छपाई-सफाई, कागज तथा साज-सज्जा की। विभाजित किया गया है । नवम खण्ड 'परिचर्चा' मे 'महादृष्टि से पुस्तक सुरुचिपूर्ण है।
वीर और माधुनिक सन्दर्भ' की दृष्टि से प्रस्तुत चार-पांच वैशाली के राजकुमार-वर्धमान महावीर -- लेखक
प्रश्नो पर दस-ग्यारह विद्वानो के विचार सकलित है। डा. नेमिचन्द्र जैन । प्रकाशक-उपर्युक्त । पृष्ठ स०- अधिकाश लेखों का प्रतिपाद्य निष्कर्ष है-वर्तमान २४८. मूल्य-दो रुपये।
बहु-आयामी युग मे मनुष्य ने अनेक वैज्ञानिक एवं भौतिक प्रसिद्ध भाषाविद् एव चिन्तक डा० नेमिचन्द्र द्वारा सुविधाये उपलब्ध की है और वह निरन्तर प्रकृति पर रचित इस पुस्तक में सरल तथा प्रवाहपूर्ण भाषा मे भग- विजय प्राप्त करता जा रहा है । विज्ञान मनुष्य को विद्यावान महावीर के प्रेरक जीवन का हृदयग्राही चित्रण किया धर या इजीनियर बना सकता है, परमात्मा नहीं । जीवन गया है।
के मूल तत्त्वं। या आध्यात्मिक चेतना की दृष्टि से महावीर पुस्तक चार खण्डो में विभाजित है--पूर्वाभास, जीवन, या अन्य वीतराग मनीषियो ने जो दर्शन दिया, वह अतुप्रमग तथा देशना । चारो खण्डी में प्रस्तुत सामग्री प्रात्म- लनीय है। क्षण-स्थायी सन्दर्भो मे से उसको तुलना इष्ट बोघ की ओर पाठक को प्रेरित करती है । छोटे-छोटे नही है।
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पुस्तक-समीक्षा
२५५
इम सकलन में विभिन्न लेखको की विचार-धारायें का योगदान -लेखक-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल । तथा शलिया दरिटगोचर होती है। कई स्थानो पर पाठक प्रकाशक-श्रीलाल पारमाथिक टस्ट फड. रेनवाल (किशनविचारो की पुनरुक्ति, वैचारिक द्वन्द्व या अन्तविरोध में गढ), राजस्थान । उलझ जाता है।
साभर (शाकम्भरी) प्रदेश जैन धर्म, साहित्य एवं मद्रण तथा साज-सज्जा की दृष्टि से ग्रन्थ सुन्दर है। पुरातत्त्व की दृष्टि से गरिमापूर्ण रहा है। प्रस्तुत पुस्तक मूल्य कुछ अधिक प्रतीत होता है।।
मे इसी प्रदेश के सास्कृतिक गौरव का प्रतिपादन किया महाकवि दौलतराम कासलीवाल; व्यक्तित्व एवं गया है। इसके प्रथम अध्याय में प्रदेश के प्रमुख सास्कृकृतित्व-लेखक-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल । प्रका- तिक नगरो का, द्वितीय अध्याय में भट्टारक-परम्परा, शक-श्री सोहनलाल सोगाणी, मत्री-प्र० का०, दि० शास्त्र भण्डारी, जन सन्तो तथा उनके काव्य का, तृतीय जैन अ. क्षेत्र श्री महावीर जी, महावीर-भवन, जयपुर। अध्याय में प्रसिद्ध जैन मन्दिरो का तथा चतुर्थ अध्याय में पृष्ठ स० -११०३१० मूल्य-१० रुपये।
प्रदेश की वर्तमान स्थिति का शोधणं अनुशीलन किया डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल (अध्यक्ष, साहित्य-शोध गया है। विभाग, श्री दि० जैन अ० क्षेत्र श्री महावीर जी, जय
__अजमेर से रणथम्भौर के किले तक विस्तृत इम प्रदेश पुर) की यह अमूल्य कृति 'महावीर-ग्रंथमाला' को १७वें
का ऐतिहासिक महत्त्व शोध का विषय है। विद्वान् सम्पापुष्प के रूप में प्रकाशित हुई है। कौन-मा जैन-धर्म-जिज्ञामु
दक ने शोधपूर्ण प्रस्तावना लिख कर पुस्तक को अधिक प० दौलतगम जी के नाम से अपरिचित होगा? बसवा
प्रामाणिक बनाया है। विद्वद प० टोडरमल जी से निवामी तथा जयपुर-राज्य की सेवा मे रत, १८वी गती
सम्बद्ध इस प्रदेश का खोजपूर्ण चित्रण करके लेखक ने एक ई० के उत्तरार्ध में उत्पन्न, ५० दौलतराम कासलीवाल
बड़े अभाव की पूर्ति की है। पुस्तक पठनीय है। जैन मस्कृति-पुराणों के प्रथम भाषा-गद्य-बचनिकाकार हुए है। प्राजल एवं प्रवाहपूर्ण गद्य के रचयिता प० दौलतराम
पंप यग के जैन कवि-लेखक-पं० के० भुजबली. जी के मुख्य ग्रथ है-जीवधर-स्वामि-चरित, विवेक-विलास,
शास्त्री, मूडबिद्री। सम्पादक एव प्रकाशक-५० वर्धमान, अध्यात्म-बारहखडी, श्रीपाल-चरित, पद्मपुराण (भाषा),
पार्श्वनाथ शास्त्री, मन्त्री प्राचार्य कथुमागर-ग्रथमाला, हरिवशपुराण (भाषा), परमात्म प्रकाश (भाषा टीका)
कल्याण-भवन, सोलापुर-२ । पृष्ठ स० १६० । एवं आदि पूराण । आधुनिक हिन्दी-गद्य के प्रारम्भिक ममीक्ष्य पुस्तक मे महाकवि पम्प तथा उनके यूग के विकाम मे पण्डित जी का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। अनेक कवियो (पोन, रन, चामुण्डगय, श्रीधराचार्य, ___ ऐसे महान् साहित्यकार के विषय मे शोधपूर्ण कृति
दिवाकरनन्दी, शान्तिनाथ, नागचन्द्र, कन्ति, नयसेन प्रादि) देकर डा० कासलीवाल जी ने एक महान् प्रभाव की पूर्ति
के जीवन एवं कृतित्व का परिचय दिया गया है । कन्नड
एवं संस्कृत साहित्य में महाकवि पम्प का नाम इतना की है। राजस्थानी सन्तों, कवियो एवं ग्रथकारो के महान
अधिक महत्वपूर्ण है कि वह युग-प्रवर्तक कवि माने जाने अध्येता तथा अनेक शोधपूर्ण ग्रंथो के प्रणेता डा. कासली
लगे। 'प्रादिपुराण' तथा 'विक्रमार्जन-विजय' नामक दो वाल जी का यह प्रयास अत्यन्त सराहनीय है।
ग्रन्थ संस्कृत-साहित्य की अमूल्य निधि है। विद्वान् लेखक १०३ पृष्ठो की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना मे विद्वान
ने पम्प तथा अन्य कवियों का मूल्याकन करके एक प्रशंसलेखक ने महाकवि दौलतराम जी के व्यक्तित्व एव कृतित्व की शोधपूर्ण विवेचना की है। इसके अतिरिक्त दो कतियो नीय प्रयास किया है। पुस्तक पाठको के लिए उपयोगी
तथा ज्ञानवर्धक है। का पूर्ण पाठ तथा छ ग्रथो पाशिक पाठ देकर प्रथ को त अधिक उपयोगी बनाया गया है। पुस्तक संग्रहणीय है। हिन्दी की प्रावि और मध्यकालीन फाग-कृतियां
शाकम्भरी प्रदेश के सांस्कृतिक विकास में जैन धर्म लेखक-डा. गोविन्द रजनीश । प्रकाशक-मंगल-प्रका
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२५६, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
हात गोविन्द राजियो का रास्ता. जयपर-। पष्ठ सं० जैन धर्म का मौलिक इतिहास (द्वितीय भाग)-- २७५ । मूल्य-२८ रुपये।
लेखक-प्राचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज । प्रकाशकडा. गोविन्द रजनीश के इस शोध-प्रबन्ध में हिन्दी जैन इतिहास-समिति, जयपुर । पुष्ठ सं०-८६३, मूल्य की प्रादि और मध्यकालीन फागु-कृतियो का पालोचना. ४० रुपया। त्मक अध्ययन किया गया। भूमिका-भाग मे फागु-काव्य प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड मे केवली एवं पूर्वधर के परिवेश, परम्परा एव प्रवृत्तियों का विश्लेषण करके मनियो-इन्द्रभति गौतम, आर्य सुधर्मा, प्रार्य जम्बू, हिन्दी की प्रादिकालीन फागु-कृतियो का काव्य-शास्त्रीय प्राचार्य प्रभव स्वामी, प्राचार्य श्री भद्रबाहु, प्रार्य स्थूलएवं छन्दःशास्त्रीय मूल्याकन किया गया है। मूल भाग भद्र, प्रार्य सुहस्ती, वाचनाचार्य, देवद्धि क्षमाश्रमण आदिमे विभिन्न फागु-कृतियो का परिचय देकर उनका प्रवि- के जीवन एव कृतित्व का विवेचन किया गया है । पुस्तक कल पाठ दिया गया है।
पर्याप्त श्रम से तैयार की गई है। इसमे यथासम्भव प्रस्तुत ग्रन्थ से पाठकों को फाग-कृतियों का विशिष्ट श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आम्नायों के साधन-स्रोतो का परिचय प्राप्त होता है । फागु-कृतियों में प्राध्यात्मिक तत्त्व उपयोग करके इसे शोध-दृष्टि से परिपूर्ण बनाया गया है। के अतिरिक्त काव्यगत मनोरजन भी प्राप्त होता है । लेखक की शैली रोचक एवं खोजपूर्ण है। द्वादशांग एक ग्रथ में इतनी फागु कृतियो का समावेश जिज्ञासु का परिचय जैन साहित्य के जिज्ञासु पाठको के लिए पाठको के लिए हितकर है।
उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसी प्रागा है। मुद्रण तथा साजछपाई एवं साज-सज्जा की दप्टि में भी पुस्तक
सज्जा की दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ सुन्दर है। प्रस्तुत ग्रन्य
सग्रहणीय हे। सुन्दर बन पड़ी है।
फडामण्टल्स माफ जैनिज्म (अग्रेजी)-लेखकतीर्थकर वर्धमान महावीर-लेखक प० पद्म चन्द्र
वरिस्टर श्री चम्पतराय जैन, प्रकाशक-वीर-निर्वाणशास्त्री, प्रकाशक-श्री वीर निर्वाण-ग्रन्थ-प्रकाशन समिति,
भारती, ६६, तारगर.न स्ट्रीट, मेरठ (उ. प्र.)। पृष्ठ इन्दौर पृष्ठ--११५, मूल्य-पाठ रुपए।
सख्या १२१, मूल्य आठ रुपए । परम पूज्य उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्द जी की
विदशा म जन-धम-प्रचार के क्षेत्र मे बैरिस्टर श्रा प्रेरणा से लिखित, उपयुक्त ग्रन्थ मे भगवान् महावीर के
चम्पतराय जन का योग-दान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रहा है । जीवन सम्बन्धी तथ्यों को सप्रमाण प्रस्तुत किया गया है।
उनकी महत्त्वपूण पुस्तक 'दि प्रक्टिकल पाथ' का सशाचित प्रारम्भ मे लेखक ने विविध उद्धरणो द्वारा जैन धर्म की
सस्करण प्रकाशित करके वीर-निर्वाण-भारती ने स्तुत्य प्राचीनता प्रतिपादित की है। विभिन्न ग्रन्थो से उद्धरण
प्रयास किया है । आलोच्य पुस्तक में लेखक न दशनशास्त्र देकर लेखक ने महावीर-जीवन-चरित को प्रामाणिक
की एक मुख्य विधि अनकान्तवाद का विश्लषण करक बनाने का प्रयास किया है। यद्यपि लेखक की दृष्टि एव ओली पौराणिक रही है, तथापि शोधार्थी पाठको के लिए
सप्त तत्वो, कर्म-स्वभाव आदि का युक्तियुक्त विवेचन भी इसमे यत्र-तत्र शोध-कण बिखरे हुए है। 'मनसुख
किया है । इसके अतिरिक्त साधना की अवस्थानो---गुणसागर' नामक काव्य-ग्रन्थ से उद्धरण देकर पुस्तक को
स्थानो की विशद व्याख्या की गई है और घम का व्यावरोचक बनाया गया है। ६२ श्लोको से युक्त देशना
हारिक रूप प्रतिपादित किया गया है। मन्त म जैनधर्म मानवोमिटानोकान को तुलनात्मक प्राचीनता सिद्ध करके लखक ने इसे अधिक लेखक ने इसे अधिक उपयोगी बनाया है।
प्रामाणिक बनाया है। भगवान महावीर के भव्य चित्र से सुसज्जित यह धर्म-जिज्ञासु पाठकों के लिए यह पुस्तक प्रवासी पस्तक पाठकों मे धर्म-प्रभावना करेगी, ऐसी माशा है। पठनीय है।
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पुस्तक-समीक्षा
चितेरों के महावीर --लेखक-डा० प्रेम सुमन जैन, वान् महावीर, २. भगवान् महावीर-चिन्तन और पथ, प्रकाशक-ग्रमर जैन साहित्य-सस्थान, उदयपुर । पृष्ठ ३. अतीत के पृष्ठ, ४. विवेक के दर्पण मे। म० १७८, मूल्य–छह रुपए।
पत्रिका का स्तर पूर्ववत् श्रेष्ठ है। अनेक लेख शोधसमीक्ष्य दृति में श्रमण-परम्परा, महातीर-जीवन-चरित दृष्टि से परिपूर्ण है। कवितायें तथा एकाकी अध्यात्मतथा उनके उपदेशो को मरस पीर सुबोध शैली में प्रस्तुत भाव से गुक्त है। मुद्रण एव साज-सज्जा की दृष्टि से किया गया है। उपन्यास-विधा मे प्रस्तुत यह पुस्तक पाठको स्मारिका मुन्दर बन पड़ी है। के लिए रोचक तथा ज्ञानवर्धक होगी ऐसी आशा है ।
२ श्री महावीर-स्मारिका-प्रधान सम्पादक-श्री मुद्रण तथा साज-मज्जा की दृष्टि से पुस्तक सुन्दर है।
अक्षय कुमार जैन, प्रकाशक-जन मित्र मण्डल, धर्मपूरा, पं. उदय जैन अभिनन्दन ग्रन्थ--प्रधान सम्पादक- दिल्ली। मूल्य-पांच रुपए। डा. नरेन्द्र भानावत । प्रकाशक-प० उदय जैन अभिनन्दन- जैन मित्र मंडल की हीरक-जयन्ती पर प्रकाशित इस समारोह-समिति, कानोड़ (गजस्थान)--मूल्य---रु.२०/. स्मारिका में अनेक विद्वानो एव कविगो के लेख एवं कवि
जवाहर--विद्यापीठ, कनोड के संस्थापक-संचालक ताय मकलित है। इसके पाँच खण्ड है --१. प्रारम्भिका. १. श्री उदय जैन की पष्टि-पूर्ति के अवसर पर प्रका- २. महावीर-जीवन एव मिद्धान्त, ३. विचार-वीथि, शित इस अभिनन्दन-ग्रन्थ में पण्डित जी के जीवन, व्यक्ति ४. जैन मित्र मंडल, ५. काव्य-पुष्पाजलि । जैनाचार्यो, त्व, विचार एव कर्तत्व पर अनेक लेयको के लेखो के मनियो, नेतामो तथा समाज-सेवियो के मन्देश, विद्वानो अतिरिक्त शिक्षा तथा समाज-सेवा से सम्बन्धित महत्वपूर्ण के शोधपूर्ण लेखो, जैन मित्र मंडल के मन्त्रि परिचय सामग्री भी सकलित की गई है।
नथा कवियो की हृदयहारिणी कवितायो द्वाग म्मारिका ___ यह ग्रन्थ जीवन एवं कर्त त्व, शिक्षा, समाज-मेवा को सर्वागसुन्दर बनाने का प्रयास किया गया है। तथा राजस्थान की प्रमख जैन शिक्षण-सस्थाये--गीपक मुद्रण तथा माज-सज्जा की दृष्टि से स्मारिका सुन्दर चार खण्डो में विभाजित है। शिक्षा - खण्ड में शिक्षा के है। उद्देश्य और शिक्षित की पहचान' (डा. रामनारायण जैन भारती--महावीर-निर्वाण-विशेषाक मेहरोत्रा), विद्यालयीय शिक्षा--प्रयोजन और प्रक्रिया मम्गादक-थी. बच्छगनम चेती (प्रो. कमल कुमार जैन), प्राचार्य (श्री रमेश मुनि शास्त्री)
प्रकायक --श्री. जैन श्वेताम्बर तेगपथी महासभा, आदि अनेक लेख विशेषत. पठनीय है। राजस्थान की
३, पोचंगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता प्रमुख प्राबासीय शिक्षण संस्थाओं का परिचय ज्ञान
पृष्ठ म० १७६-1-२२. मूल्य-पाच रुपए
ममीक्ष्य विशेपाक मे भगवान महावीर से सम्बद्ध वर्षक है। प्रयाम प्रशमनीय है और छपाई उत्तम है । मूल्य कुछ।
अनेक लेखों तथा कवितानो का मकलन है । अनेक विद्वान् अधिक लगता है।
सन्तो, लेखको एव कवियों ने विद्वत्तापर्ण लेखों में श्रमण
परम्परा तथा भगवान् महावीर के जीवन एवं शिक्षाम्रो पत्र-पत्रिकाएं
का विवेचन किया है। १. महावीर-जयन्ती-स्मारिका. १९७५-सम्पादक- मद्रण एवं माज-मज्जा की दृष्टि से अक मुन्दर प० भंवरलाल पोल्याका। प्रकाशक-थी रतनलाल छाबड़ा, है। सामग्री पठनीय तथा संग्रहणीय है। मन्त्री-गजस्थान जैन सभा, जयपुर-३, मूल्य-चार रुपए। श्री प्रमर भारती-महावीर-निर्वाण-विशेषाक
स्व. पं० चैनसुखदास जी की प्रेरणा से प्रारम्भ की मुख्य सम्पादक-मुनिश्री नेमिचन्द्र जी गई वार्षिक 'महावीर-जयन्ती स्मारिका' के प्रस्तुत अंक
प्रकाशक -सन्मति ज्ञान-पीट, पागरा-२ मेश्रेष्ठविद्वानों द्वारा लिखित लेख संकलित हैं। १. भग
पृष्ठ स०-२७७ मूल्य-पाच रुपए।
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२५८, वर्ष २८, कि०१
अनेकान्त
'अमर भारती' के प्रस्तुत विशेषाक मे भगवान् महा- शक- सस्ता-साहित्य मण्डल प्रकाशन, कनाट सर्कस, नई. वीर के जीवन, सिद्धान्त तथा उपदेशों से सम्बद्ध, अनेक दिल्ली। विद्वानो के लेख, कविताये, कहानियां तथा एकांकी सक- प्रस्तुत विशेषाक मे भगवान महावीर से सम्बद्ध अनेक लित है। इसे चार खंडो में विभाजित किया गया है- लेखों मे उपयोगी सामग्री दी गई है। महात्मा गाँधी प्रादि १. जीवन-रेखा, २. सिद्धान्त, ३. उपदेश तथा ४. वीराय- अनेक सन्तो, विविध राजनेताओ, साहित्यकारो तथा तन । 'वीरायतन' खण्ड मे सन्मति ज्ञानपीठ द्वारा विद्वानो ने अपने विद्वत्तापूर्ण लेखो में भगवान महावीर के संचालित सस्था वीरायतन के उद्दयों एव गतिविधियो चरणो मे श्रद्धाजलि अर्पित की है। विशेषाक सून्दर तथा की चर्चा है।
पठनीय है। ___ मद्रण तथा साज-सज्जा की दृष्टि से विशेषाक सुन्दर जैन-सन्देश- शोधाक (३४), सम्पादक-डा. ज्योतिहै। सामग्री पर्याप्त परिश्रम से तैयार की गई है । विशे- प्रसाद जैन, (फरवरी, ७५) । प्रकाशक-श्री भा० दि० षाक पठनीय तथा सग्रणीय है।
जैन सघ, चौरासी, मथुरा। पृष्ठ सं०-४२, मूल्य-एक जैन जगत--भगवान् महावीर-बन्दना-विशेषाक रुपया ।
(दिसम्बर-जनवरी-७५) विगत गौरवपूर्ण परम्परा के समान, जैन सदेश के सम्पादक-श्री ऋषभदास राका
प्रस्तुत शोधाक मे अनेक शोधपूर्ण लेख प्रकाशित किए गए प्रकाशक-भारत जैन महामण्डल, १५-ए, हानिमन है।
सर्कल, फोर्ट, बम्बई ४००००१ 'महावीर-निर्वाण-काल' तथा जैन संस्कृति के प्रतीक पृष्ठ सं०-१८२ मूल्य-दो रुपए।
मौर्यकालीन अभिलेख विशेषत. पठनीय है। शोधार्थी प्रस्तुत विशेषाक में २५०० वें महाबीर-निर्वाण-महो- विद्यार्थियो के लिए यह अक बहुत उपयोगी है। त्सव कार्यक्रम के शुभावसर पर प्राप्त. प्राचार्यों एवं मुनियो
प्राप्ति-स्वीकृति के प्राशीर्वचन के अतिरिक्त विभिन्न प्रदेशो मे गठित १. सन्मति-वाणी-महावीर जयन्ती-ग्रंक । सम्पादक निर्वाणोत्सव-समितियों के कार्य कलाप का विवरण दिया -श्री नाथूलाल शास्त्री मादि । प्रकाशक-श्री दि० गया है। अप्रैल, ७५ के अक मे भगवान् महावीर के जैन मालवा प्रान्तिक सभा एवं मध्यप्रदेशीय दि० जैन जीवन एवं शिक्षाग्रो के सम्बद्ध विविध लेखो का संकलन तीर्थ-रक्षा समिति, शीशमहल, सर हुकमचन्द मागे, इदौर-२ है। दोनों अक पठनीय है।
२. जैन मिलन-महावीर जयन्ती अक । प्रधान श्रमणोपासक-महावीर-जयन्ती-विशेषांक (अप्रैल-७५) सम्पादक-डा० भागचन्द जैन, प्रकाशक-जैन मिलन, सम्पादक-सर्वश्री जगराज सेठिया, डा. मनोहर शर्मा गांधी चौक मटर नागपर-१। एवं डा. शान्ता भानावत ।
३. महावीर • स्मारिका-प्रधान सम्पादक-६० प्रकाशक-अ. भा. साधु-मार्गी जैन मंघ, समता
परमानन्द शास्त्री । प्रकाशक-पाल इण्डिया दिगम्बरभवन, रामपुरिया, बीकानेर । पृष्ठ सं०-१२४ । एक
भगवान महा वीर २५००वाँ निर्वाण-महोत्सव-सोसाइटी, प्रति का मूल्य-५० पैसे।
लक्ष्मी नगर-शकरपुर-उपक्षेत्रीय समिति, दिल्ली। प्रस्तुत अक मे ख्याति-प्राप्त विद्वानों के, भगवान् महा
४. सन्मति-- श्री महावीर-जयन्ती विशेषांक, भाषावीर-सम्बन्धी निबन्ध, कथायें, एकाकी तथा कविताये सक- मराठी (मार्च अप्रैल, ७५) । सम्पादक-श्री भा० ज. लित है । अनेक लेख विद्वत्तापूर्ण तथा पठनीय है।
भीसीकर इत्यादि । प्रकाशक-श्री वाहुबलि ब्रह्मचर्याश्रम, जीवन-साहित्य-तीर्थकर महावीर - विशेषांक । सन्मति कार्यालय, बाहबलि (कम्भोज) कोल्हापुर । (मार्च-अप्रैल, ७५), संपादक-श्री यशपाल जैन । प्रका- ५. श्रमणोपासक-मई, ७५ अंक ।
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पुस्तक-समीक्षा
२५६
६ महावीर-शताब्दी-सन्देश---प्रकाशक --दि० प्र. प्रकाशक-हिन्दी-भवन, विश्व भारती, शान्ति निकेतन भगवान महावीर २५वी निर्वाण-शताब्दी-समिति, १४१७, (प. बंगाल)। महावीर-भवन, चादनी चौक, दिल्ली-६।
१४ सम्यग्ज्ञान-अप्रैल, ७५ । प्रकाशक-दि० जन ७. वोर-परिनिर्वाण--अप्रैल, ७५ । प्रकाशक-भग- त्रिलोक शोध-सस्थान, ४६१०, पहाडी धीरज दिल्ली । वान् महावीर २५०. वो निर्वाण-महोत्सव-महाममिति, १५ तीर्थडुर-फरवरी, ७५ प्रकाशक-हीरा भैया २१०, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली-१। प्रकाशन' ६५, पत्रकार कालोनी, कनाडिया मार्ग, इन्दौर-१
८. ऋषभ-सन्देश-महावीर - जयन्ती - विशेषाक । १६. जिनवाणी-मार्च, ७५ । प्रकाशक- सम्यग्ज्ञान प्रकाशक-ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, चौरासी, मथुरा। प्रचारक-मण्डल । रामलाल जी का गस्ता, जयपुर-३
. सन्मति सन्देश-महावीर-जयन्ती प्रक। सम्पा- १७. जैन जर्नल-(अंग्रेजी श्रमानिक) प्रकाशक जैन दक -श्री प्रकाश हितैषी । ५३५, गांधीनगर, दिल्ली-३१ भबन, कलकत्ता।
१०.प्रान्म-धर्म---माचं, ७५ । प्रकाशक - श्री दि० १ ८. श्रमण-अप्रैल. ७५ । प्रकाशक-पार्वनाथजैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट । सोनगढ (सौराष्ट्र), विद्याश्रम शोध सस्थान । पाई. टी. पाई. रोड, वारा
११. अहिंसा-वाणी-अप्रैल, ७५ । प्रकाशव-प्र० णसी-५ । वि० जैन मिशन, अलीगज (एटा)।
१६. वोर-महावीर-जयन्ती-विशेषांक । सम्पादक१२. वीर-वाणी-(पाक्षिक) मई, ७५ । सम्पादक- पं० परमेष्ठी दास जैन । प्रकाशना-म० भा० दि. जैन श्री भवरलाल जैन, मनिहारो का रास्ता, जयपुर-३। परिषद, ६६, तीरगरान स्ट्रीट, मेरठ-२। १३. विश्व-भारती पत्रिका जनवरी, मार्च, ७५ ।
-युगेश जैन
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काम-भोगों का स्वरूप
सल्लं कामा विस कामा कामा प्रासीविसोवमा।
कामे पत्थेमाणा प्राकामा जति दोग्गई ।। भावार्थ-काम-भोग शल्य (कोटा) है, विप है, और पाशीविष सर्प के समान है। काम भोग के इच्छुक व्यक्ति उनका सेवन न करते हुए भी, दुर्गति को प्राप्त होते है ।
सुव्वणप्पस्स उ पध्वया भवे, सियाह केलाससमा असंखया ।
नरस्स लुद्धस्स न तेहि किचि, इच्छा हुमागाससमा प्रणतया ॥ भावार्थ - मोने-चांदी के कैलाश पर्वत के ममान असंख्य पर्वत हो जाएँ तो भी सृष्णावान् ममृष्य उनसे थोड़ा-भी तृप्त नही होता । इच्छाएँ तो अाकाश के समान अनन्त हैं।
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भारतीय नारी की गौरव गरिमा की प्रतीक श्रीमती रमा जैन का अकस्मात देहावसान
साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति सुप्रसिद्ध समाज सेविका, भारतीय संस्कृति की प्रतीक, पीठ का पुनीत उद्देश्य । 'मूति देवी ग्रन्थमाला' तथा साहित्य, कला एवं रचनात्मक कार्यों की प्राण, श्रेष्ठ अनेकानेक अन्य प्रन्यरत्नों के प्रकाशन से यह उद्देश्य पूर्ण श्राविका, परम विदुषी श्रीमती रमा जैन प्रब हमारे मध्य । प्रतिफलित हया । श्रीमती रमाजी के निर्देशन में इस दिशा नहीं रहीं । २१-२२ जुलाई, १९७५ की रात्रिको २-१० पर में जो विविध कार्य सम्पन्न हुए, वे साहित्य-जगत के लिए हृदय गति रुक जाने से रमा जी का देहावसान हो गया। गौरव एव प्रेरणा के विषय है। 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' को
प्रसिद्ध उद्योगपति तथा वीर सेवा मदिर के अध्यक्ष योजना तो इस क्षेत्र में उनके महान कार्यों की चरम श्री साह शान्ति प्रसाद जैन को सहमिणी एव भारतीय परिणति सिद्ध हई। ज्ञानपीठ को सस्थापिका-प्रध्यक्षा श्रीमती रमा जी का
भगवान महावीर के २५००वें परिनियाण वर्ष में साहित्य-जगत को अपूर्व योगदान रहा है। प्रति वर्ष एक जो अनेकानेक कार्य सम्पन्न ए, उनके मल मे श्रीमती रमा लाख रुपये के ज्ञानपीठ पुरस्कार द्वारा भारतीय भाषाओं के जी को प्रेरणा का प्रमुख स्थान रहा है। मुनि श्री विद्या. घेष्ठ साहित्यकारों का सम्मान तो इस दिशा मे उनको
नन्द जी को प्रेरणा से स्थापित 'वीर-निर्वाण-भारती' के अलौकिक उदारता का जीवन्त शिलालेख है, जो भाषानों
अनेक पुरस्कार प्रायोजनो में भी प्रापका सक्रिय योगके समान तथा समचित मूल्यांकन के द्वारा विभिन्न भाषा
दान रहा है। समण सुत्तं' का संकलन एवं प्रकाशन अपने भाषी भारतीयों के एकीकरण तथा एकसूत्रण का अनूठा आप में एक अभूतपूर्व घटना है । सब सम्प्रदायों के साधुप्रयोग है।
वर्ग एवं विद्वानो के सहयोग एवं प्राचार्य विनोबा भावे, श्रीमती रमाजी का जन्म सन् १९१७ में कलकत्ते में सेठ श्री जिनेन्द्र वर्णी एवं श्रीमती रमा जैन के स्तुत्य प्रयास रामकृष्ण डालमिया के घर हमा। बाल्यावस्था से ही सेठ से ही यह महान कार्य सम्पन्न हो सका है। जैन कला जमनालाल बजाज के पाम, वर्धा के प्रेरणाप्रद एवं राष्ट्रीय एवं स्थापत्य विषयक शोध-कार्य की स्थायी योजना, जैनचेतना-पूर्ण तथा गांधीवादी भावनामय वातावरण में प्राप चित्र प्रदर्शनी, 'ब्राह्मी : विश्व को मूल लिपि' नामक ग्रथ का लालन-पालन तथा शिक्षण हुमा । सबके प्रति का प्रकाशन प्रादि उनके अनेकानेक महत्त्वपूर्ण कार्य समता एवं उदारतामय दृष्टि तथा अनुशासन भावना चिरस्मरणीय रहेगे । वर्धा की ही देन थी।
श्रीमती रमा जी सुसम्पन्न एवं सर्व समर्थ परिवारो उनमे धर्म और दर्शन के प्रति बाल्यकाल से ही प्राक- की पुत्री तथा वधु अवश्य थी, किन्तु वस्तुतः इस सबसे परे, र्षण था। विवाहोपरान्त जैन दर्शन के प्रति विशेष प्राकर्षण उनका अपने प्राप में परिपूर्ण, प्रोजस्वी, हा जो अन्त में सम्यक् श्रद्धा में परिणत हो गया। ज्वल एवं स्वयंप्रभ व्यक्तित्व था । फलस्वरूप, उनका सम्पूर्ण जीवन धर्म-प्रभावना, साहित्य
श्रीमती रमा जी के प्रसामयिक निधन से देश की सेवा तथा समाज-सुधार के प्रति समर्पित रहा । गम्भीर
अपूरणीय साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक क्षति ई एवं व्यापक अध्ययन से उनका मानस अप्रतिम ज्ञान
है। 'अनेकान्त-परिवार' इस प्रति दु.खद घटना से प्रत्यन्त ज्योति एवं सांस्कृतिक चेतना से समृद्ध हुमा ।
शोकाकुल है तथा श्रीमती रमा जी के समस्त सत्कृत्यों सन १९४४ में वाराणसी में भारतीय ज्ञानपीठ को एवं पुनीत कार्यों का पुण्य स्मरण करते हुए, भगवान जिनेन्द्र स्थापना से साहू जी तया श्रीमती रमा जी के साहित्यिक से प्रार्थना करता है कि विवगत प्रान्मा को सुगति तथा अनुष्ठान का शुभारम्भ हुमा । 'ज्ञान को विलुप्त धौर शान्ति प्राप्त हो तथा शोकात साहू परिवार को इस अनुपलब्ध सामग्री का अनुसन्धान एव प्रकाशन तथा अपार क्षति एवं भीषण दुःख को सहन करने का भल एव लोकहितकारी मौलिक साहित्य की रचना यह था ज्ञान- धर्य प्राप्त हो।
--सम्पादक
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HA
small
Som
ब
परम वितुषो धाविका स्व० श्रीमती रमा जैन
(१९१७ - १९७५)
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मा
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थी महावीर जिन मन्दिर जैन नगर. फिरोजाबाद (उ० प्र०)
(स्थापित : सेठ छदामी लाल जैन ट्रस्ट
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