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________________ २१४, वर्ष २८, कि० १ मेघमाला की श्लोक संख्या १०० बतायी गयी है । प्रो०एच० डी वेलंकर ने जैन ग्रन्थावली में उक्त प्रकार काही निर्देश किया है । रत्नशेखरसूरि ने दिनशुद्धि दीपिका नामक एक ज्योतिम्र ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखा है। इनका समय १५ वीं शती बताया जाता है । ग्रन्थ के अन्त में निम्न प्रकाशित गाथा मिलती है। हिरियरसेण गुरुपट्ट नाहीसरिहेमतिलयसूरीणं । पसाया एसा रयणसिहरसूरिणा विसिया ॥४४॥ सेन गुरू के पट्टर श्री हेमतिलक सूरि के प्रसाद से रत्नशेखर सूरि ने दिनशुद्धि प्रकरण की रचना की । प्रनेकान्त इसे 'मुनिमणभवणपयांस' प्रर्थात् मुनियों के मन रूपी भवन को प्रकाशित करने वाला कहा है। इसमें कुल १४४ गाथाएं हैं । इस ग्रन्थ में वारद्वार, कालहोरा, वारप्रारम्भ, कुलिकादियोग, वर्ज्यप्रहर, नन्दभद्रादि संज्ञायें, क्रूर तिथि, वज्येतिथि, दग्धतिथि, करण, भद्राविचार, नक्षत्रद्वार, राशिद्वार, लग्नद्वार, चन्द्र अवस्था, शुभरवियोग, राजयोग, श्रानन्दादि योग, अमृतसिद्धियोग, उत्पादियोग, लग्नविचार प्रयाणकालीन शुभाशुभ विचार, वस्तु मुहूर्त, षडष्टकादि, राशिकूट, नक्षत्रयोनि विचार, विविध मूहूर्त, नक्षत्र- दोषविचार, छायासाधन और उसके द्वारा फलादेश एवं विभिन्न प्रकार के शकुनों का विवेचन किया गया है। यह ग्रन्थ व्यवहारोपयोगी है । चौदहवीं शताब्दी में ठक्कर फेरू का नाम भी उल्लेखनीय है । इन्होंने गणितसार और जोइमसार ये दो महत्व - पूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । गणितसार में पाटीगणित और परिकर्माष्टक की मीमांसा की गई है। जोइससार मे नक्षत्रों की नामावलि से लेकर ग्रहों के विभिन्न योगों का सम्यक् विवेचन किया गया है। उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त हर्षकीर्ति कृत जन्मपत्रपद्धति, जिनवल्लभ कृत स्वप्नसंहिता जयविजय कृत शकुनदीपिका, पुण्य तिलक कृत ग्रहायुसाधन, गर्गमुनि कृत पासावली, समुद्र कवि कृत सामुद्रिक शास्त्र, मानसागरकृत मानसागरीपद्धति, जिनसेन कृत निमित्तदीपक आदि ग्रन्थ भी महत्त्वपूर्ण हैं । ज्योतिषसार ज्योतिषसंग्रह, १४. केवलज्ञान प्रश्नचूडामणि का प्रस्तावना भाग । शकुन संग्रह, शकुनदीपिका, शकुनविचार, जन्मपत्री पद्धति, गृहपाल नामक भनेक ऐसे सग्रह ग्रंथ उपलब्ध हैं, जिनके कर्ता का पता ही नहीं चलता है । अर्वाचीन काल में कई अच्छे ज्योतिर्विद् हुए हैं जिन्होंने जैन ज्योतिष साहित्य को बहुत आगे बढ़ाया है।" यहाँ प्रमुख लेखकों का उनकी कृतियों के साथ परिचय दिया जाता है। इस युग में सबसे प्रमुख है मेघविजय गणि । ये ज्योतिष शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे । इनका समय वि० सं० १०३६ के आस पास माना गया है । इनके द्वारा रचित मेघ महोदय या वर्षप्रबोध, उदयदीपिका, या रमलशास्त्र और हस्तसंजीवन आदि मुख्य हैं । वर्षप्रबोध में १५ अधिकार और ३५ प्रकरण हैं। इसमें उत्पात प्रकरण, कर्पूरचक्र, पद्मिनीचक मण्डलूपकरण, सूर्य और चन्द्रग्रहण का फल, मास, वायु-विचार, सवत्सर का फल, ग्रहों के उदयास्त और वक्री अयन मास का विचार, संक्रान्ति फल, वर्ष के राजा, मंत्री, घान्थेश, रमेश आदि का निरूपण, आय व्यय विचार, सर्वतोभद्रचक्र एवं शकुन आदि विषयों का निरूपण किया गया है । ज्योतिष विषय की जानकारी प्राप्त करने के लिए यह रचना उपयोगी है। हस्तसजीवन में तीन अधिकार है। प्रथम दर्शनाधिकार में हाथ देखने की प्रक्रिया, हाथ की रेखानों पर से ही मास, दिन, घड़ी, पल आदि का कथन एवं हस्तरेखानों के आधार पर से ही लग्नकुण्डली बनाना तथा उसका फलादेश निरूपण करना वर्णित है। द्वितीय स्पर्शनाधिकार में हाथ की रेखाओं के स्पर्श पर से ही समस्त शुभाशुभ फल का प्रतिपादन किया गया है। इस अधिकार में मूल प्रश्नों के उत्तर देने की प्रक्रिया भी वर्णित है । तृतीय विमर्शनाधिकार में रेखानों पर से ही श्रायु, सन्तान, स्त्री, भाग्योदय, जीवन की प्रमुख घटनायें, सांसारिक सुख, विद्या, बुद्धि, राज्यसम्मान और पदोन्नति का विवेचन किया गया है । यह ग्रंथ सामुद्रिक शास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और पठनीय हैं। उभयकुशल - इनका समय १८वीं शती का पूर्वार्द्ध है । यह फलित ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे । इन्होंने बिवाह
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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