________________
भारतीय नारी की गौरव गरिमा की प्रतीक श्रीमती रमा जैन का अकस्मात देहावसान
साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति सुप्रसिद्ध समाज सेविका, भारतीय संस्कृति की प्रतीक, पीठ का पुनीत उद्देश्य । 'मूति देवी ग्रन्थमाला' तथा साहित्य, कला एवं रचनात्मक कार्यों की प्राण, श्रेष्ठ अनेकानेक अन्य प्रन्यरत्नों के प्रकाशन से यह उद्देश्य पूर्ण श्राविका, परम विदुषी श्रीमती रमा जैन प्रब हमारे मध्य । प्रतिफलित हया । श्रीमती रमाजी के निर्देशन में इस दिशा नहीं रहीं । २१-२२ जुलाई, १९७५ की रात्रिको २-१० पर में जो विविध कार्य सम्पन्न हुए, वे साहित्य-जगत के लिए हृदय गति रुक जाने से रमा जी का देहावसान हो गया। गौरव एव प्रेरणा के विषय है। 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' को
प्रसिद्ध उद्योगपति तथा वीर सेवा मदिर के अध्यक्ष योजना तो इस क्षेत्र में उनके महान कार्यों की चरम श्री साह शान्ति प्रसाद जैन को सहमिणी एव भारतीय परिणति सिद्ध हई। ज्ञानपीठ को सस्थापिका-प्रध्यक्षा श्रीमती रमा जी का
भगवान महावीर के २५००वें परिनियाण वर्ष में साहित्य-जगत को अपूर्व योगदान रहा है। प्रति वर्ष एक जो अनेकानेक कार्य सम्पन्न ए, उनके मल मे श्रीमती रमा लाख रुपये के ज्ञानपीठ पुरस्कार द्वारा भारतीय भाषाओं के जी को प्रेरणा का प्रमुख स्थान रहा है। मुनि श्री विद्या. घेष्ठ साहित्यकारों का सम्मान तो इस दिशा मे उनको
नन्द जी को प्रेरणा से स्थापित 'वीर-निर्वाण-भारती' के अलौकिक उदारता का जीवन्त शिलालेख है, जो भाषानों
अनेक पुरस्कार प्रायोजनो में भी प्रापका सक्रिय योगके समान तथा समचित मूल्यांकन के द्वारा विभिन्न भाषा
दान रहा है। समण सुत्तं' का संकलन एवं प्रकाशन अपने भाषी भारतीयों के एकीकरण तथा एकसूत्रण का अनूठा आप में एक अभूतपूर्व घटना है । सब सम्प्रदायों के साधुप्रयोग है।
वर्ग एवं विद्वानो के सहयोग एवं प्राचार्य विनोबा भावे, श्रीमती रमाजी का जन्म सन् १९१७ में कलकत्ते में सेठ श्री जिनेन्द्र वर्णी एवं श्रीमती रमा जैन के स्तुत्य प्रयास रामकृष्ण डालमिया के घर हमा। बाल्यावस्था से ही सेठ से ही यह महान कार्य सम्पन्न हो सका है। जैन कला जमनालाल बजाज के पाम, वर्धा के प्रेरणाप्रद एवं राष्ट्रीय एवं स्थापत्य विषयक शोध-कार्य की स्थायी योजना, जैनचेतना-पूर्ण तथा गांधीवादी भावनामय वातावरण में प्राप चित्र प्रदर्शनी, 'ब्राह्मी : विश्व को मूल लिपि' नामक ग्रथ का लालन-पालन तथा शिक्षण हुमा । सबके प्रति का प्रकाशन प्रादि उनके अनेकानेक महत्त्वपूर्ण कार्य समता एवं उदारतामय दृष्टि तथा अनुशासन भावना चिरस्मरणीय रहेगे । वर्धा की ही देन थी।
श्रीमती रमा जी सुसम्पन्न एवं सर्व समर्थ परिवारो उनमे धर्म और दर्शन के प्रति बाल्यकाल से ही प्राक- की पुत्री तथा वधु अवश्य थी, किन्तु वस्तुतः इस सबसे परे, र्षण था। विवाहोपरान्त जैन दर्शन के प्रति विशेष प्राकर्षण उनका अपने प्राप में परिपूर्ण, प्रोजस्वी, हा जो अन्त में सम्यक् श्रद्धा में परिणत हो गया। ज्वल एवं स्वयंप्रभ व्यक्तित्व था । फलस्वरूप, उनका सम्पूर्ण जीवन धर्म-प्रभावना, साहित्य
श्रीमती रमा जी के प्रसामयिक निधन से देश की सेवा तथा समाज-सुधार के प्रति समर्पित रहा । गम्भीर
अपूरणीय साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक क्षति ई एवं व्यापक अध्ययन से उनका मानस अप्रतिम ज्ञान
है। 'अनेकान्त-परिवार' इस प्रति दु.खद घटना से प्रत्यन्त ज्योति एवं सांस्कृतिक चेतना से समृद्ध हुमा ।
शोकाकुल है तथा श्रीमती रमा जी के समस्त सत्कृत्यों सन १९४४ में वाराणसी में भारतीय ज्ञानपीठ को एवं पुनीत कार्यों का पुण्य स्मरण करते हुए, भगवान जिनेन्द्र स्थापना से साहू जी तया श्रीमती रमा जी के साहित्यिक से प्रार्थना करता है कि विवगत प्रान्मा को सुगति तथा अनुष्ठान का शुभारम्भ हुमा । 'ज्ञान को विलुप्त धौर शान्ति प्राप्त हो तथा शोकात साहू परिवार को इस अनुपलब्ध सामग्री का अनुसन्धान एव प्रकाशन तथा अपार क्षति एवं भीषण दुःख को सहन करने का भल एव लोकहितकारी मौलिक साहित्य की रचना यह था ज्ञान- धर्य प्राप्त हो।
--सम्पादक