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________________ १०८, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त वैभव का नियन्त्रण सम्भव नही है। एकता और समता भोग या विलास-वैभव के स्थान पर संयम या ब्रह्मचर्य संयम और नियन्त्रण के प्रभाव की स्थिति में हिंसा की रखने का क्रान्तिकारी सन्देश दिया। प्रवति को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे जनता का दुःख भगवान महावीर के अपरिग्रह तथा महिंसा के सिद्धांत बढता है । इसलिए दूसरे के दु.ख को दूर करने की धर्म- अार्थिक विकास तथा वर्तमान समाज की आकांक्षाओं वत्ति को ही अहिंसा कहा गया है । 'परस्स अदुक्खकरण को ऊपर उठाने में अधिकाधिक साधक सिद्ध हो सकते धम्मो ति। ( वसुदेव हिण्डी ) है। किसी के जीवनाधिकार का प्रतिक्रमण न करना . भगवान महावीर ने सम्पूर्ण मानव-जाति को एकता अहिंसा है। जीवन का अधिकार जीवन के प्रमुख तीन का सन्देश दिया। उन्होने कहा-- जन्म से कोई किसी साधनो-भोजन, वस्त्र और आवास की समस्याओं से जाति का मही होता, कर्म से उसकी जाति का निर्धारण संपृक्त है। इन साधनों के बिना जीवन की सत्ता टिक ही होता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये सब जन्मना नही सकती। तात्कालिक आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं, कर्मणा होते है । अर्थात्, कर्म की शुचिता और अशु. करना सर्वथा अनुचित है। क्योकि इससे दूसरे लोग वंचित चिता के आधार पर ही किसी मनुष्य की उच्चता या होते है । आवश्यकता की पत्ति मे भी स्वामित्व का भाव नीचता निर्भर करती है। उसमे जन्म से हीन या उच्च वजित है। परिग्रह स्वामित्व का रूपान्तरण तो है ही, जैसा भाव कुछ नही है। प्रत्येक प्राणी, चाहे वह एक प्रतिगत और सार्वजनिक जीवन के साधनों पर व्यक्तिगत छोटा-सा कीड़ा हो या प्रादमी, अात्मसत्ता के स्तर पर सत्ता का प्रारोपण भी है। शोषण और संग्रह इसी परिसमान है। उसमें अन्तनिहित सम्भावनाए समान है । ग्रह के क्रियात्मक रूप है । और, इसी के निमित्त जाति या वर्ण से कोई श्रेष्ठ या प्रश्रेष्ठ, स्पृश्य या अस्पृश्य कालाबाजारी, करों की चोरी, राज्यविरुद्ध तस्कर-व्यापार नही होता। विकासक्रम से गुजर कर एक कीट भी कभी मिलावट, अप्रामाणिक माप-तौल प्रादि जघन्य कृत्य किये सिद्धात्मा होकर लोकाग्र पर अवस्थित हो सका है। इस जाते है। इसीलिए, भगवान् महावीर ने त्याग और संयम, प्रकार, भगवान् महावीर ने जाति को महत्व न देकर अपरिग्रह पीर प्रचौर्य-पूर्वक भोजन, वस्त्र और प्रावास के मानवता को ही सर्वोपरि स्थान दिया है। अधिग्रहण का आदेश दिया है । प्राधुनिक परिग्रहवाद पर मानवता की प्रतिष्ठा के लिए ही भगवान महावीर इशापानषद् के ईशोपनिषद् के रचयिता ने भी कशाघात किया है : 'तेन ने ईश्वरवाद की अवहेलना करके पुरुषार्थ को महत्त्व त्यक्तेन भुंजीथा, मा गृधः कस्यस्विद् धनम् ।' निष्कर्ष यह दिया । सामान्यतया ईश्वरवाद और भाग्यवाद के व्यापक कि अपने लिए कम से कम उपभोग करना और दूसरों के सिद्धान्त से पुरुषार्थ की अवधारणा शिथिल पड जाती है। लिए अधिक-से-अधिक छोड़ना तथा स्वामित्व का सर्वथा इसीलिए, भगवान महावीर के मनीश्वरवाद मे मानव- परित्याग ही अपरिग्रह है। सत्ता की महत्ता को ही स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया भगवान् महावीर ने अपरिग्रह के व्रत पर इसलिए गया है। उनके मतानुसार, ईश्वर नामक कोई सृष्टिकर्ता बल दिया है कि वे जानते थे-आर्थिक असमानता और पौर सृष्टिनियामक सत्ता नही है । प्रात्मा या जीव की प्रावश्यक वस्तुमो का अनुचित सग्रह सामाजिक जीवन शुद्ध, बुद्ध और मुक्त अवस्था ही ईश्वर है। जीव का को विघटित कर देने वाला है। धन का सीमाकन स्वस्थ सिद्धत्व ही अपने आप मे ईश्वरत्व की अवस्थिति है। समाज के निर्माण के लिए अनिवार्य है। धन सामाजिक प्रत्येक पुरुषार्थी मनुष्य मोक्ष का अधिकारी हो सकता है। व्यवस्था का आधार होता है और उसके कुछ हाथों मे इसीलिए. भगवान महावीर ने भाग्यवाद के स्थान पर सीमित होने से समाज का सम्पूर्ण विकास नही हो पाता पुरुषार्थ, कर्मकाण्ड के स्थान पर सापना, वैषभ्य के स्थान है। जीवनोपयोगी वस्तुप्रो का संग्रह समाज में कृत्रिम पर समता, हिंसा के स्थान पर अहिंसा, युद्ध के स्थान पर प्रभाव की कष्टकर स्थिति पैदा करता है । महावीर ने नि:शस्त्रीकरण, परिग्रह के स्थान पर त्याग और विषय- ऐसे समाज-चातक परिग्रहवाद के विरोध में मावाज
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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