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________________ भगवान महावीर का जीवन-दर्शन : आधुनिक सन्दर्भ में प्रो० श्री रंजन सूरिदेव, पटना मानवता के विकास की दृष्टि से भारतीय संस्कृति सन्दर्भ मे, राष्ट्रीय संस्कृति के प्रति निष्ठा तथा व्यापक मख्यतः दो घारामो मे विभक्त होकर कार्यशील रहती मानवीय मूल्यो के आधार पर अभिनव समाज की संरचना पाई है। एक है वैदिक परम्परा, जिसे 'ब्राह्मण-संस्कृति' से उक्तविध देश व अवधारणाओं का पुनमत्यांकन केवल के नाम से अभिहित किया जाता है और दूसरी है अवैदिक बौद्धिक चर्चा के लिए ही नहीं, अपितु जन-जागरण के परम्परा, जो 'श्रमण-संस्कृति' की संज्ञा धारण करती है। लिए भी नितान्त आवश्यक है। इसी परिप्रेक्ष्य मे, माज ये दोनों संस्कृतियां परस्पर एक-दूसरे पर हावी होने की भगवान् महावीर के २५०० वे निर्वाण-महोत्सव के अबहोड़ के साथ सतत प्रवहमाण है। कहना न होगा कि ये सर पर, उनके जीवन-दर्शन का मूल्याकन अपेक्षित है। दोनो ही सस्कृतियाँ प्राचीन और ऐश्वर्यवान् है। किन्तु. भगवान महावीर का जीवन-दर्शन मुख्यतया अहिंसा, भारतीय संस्कृति की अब तक जो व्याख्या की गई है, अपरिग्रह और अनेकान्त की त्रयी पर प्राधत है। दृष्टिउसमें सिर्फ ब्राह्मण-संस्कृति की विशेषता पर ही अधिक निपुणता तथा सभी प्राणियो के प्रति सयम ही अहिंसा है। प्रकाश डाला गया है, जिसकी व्यापकता निर्विवाद है। दृष्टि निपुणता का प्रर्थ है सतत जागरूकता तथा संयम का किन्तु, ब्राह्मणेतर सस्कृतियो के परिवेश से हटकर की प्रर्थ है मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं का नियमन । जाने वाली, भारतीय संस्कृति की व्याख्या एकागी है। जीवन के स्तर पर जागरूकता का अर्थ तभी साकार होता समाज-विज्ञान के चिन्तकों का विचार है कि ब्राह्मण होता है, जब उसकी परिणति संयम मे हो । संयम का संस्कृति पर देववाद, सुख-दुःख के चक्रवत् परिवर्तन के लक्ष्य तभी सिद्ध हो सकता है, जब उसका जागरूकता से प्रति नितान्त भाग्यवादी सम्मान, एकमात्र ईश्वर के सतत दिशा-निर्देश होता रहे। लक्ष्यहीन और दिग्म्रष्ट कतत्व में विश्वास और वर्णवाद जैसी, मानव को अपने संयम अर्थहीन कायक्लेश-मात्र बनकर रह जाता है। पुरुषार्थ से विरत करने वाली अवधारणाओं या जड़ीभत समाजगत शुचि और अशुचि की अवधारणा के मूल में संस्कारों का व्यापक प्रभाव है। फलस्वरूप, हमारा देश यही संयम या नियम भ्रान्त अर्य मे समाविष्ट है। किन्तु, वैचारिक परिवर्तन और सामाजिक प्रगति के लिए प्रांत- यहां स्मरणीय है कि ब्राह्मण-सस्कृति के संयम-नियम या रिक रूप से अक्षम है। इस प्रकार के द्वन्द्विल विचारो के 'नेम-घरम' से श्रमण-सस्कृति का संयम भिन्न अर्थ रखता समर्थन और विरोध में प्रायः ब्राह्मण-ग्रन्थों या वैदिक है। ब्राह्मण-संस्कृति का संयम आजकल प्राय: विलास-वैभव शास्त्रो को ही प्राधार मानकर पक्ष और विपक्ष के विद्वान् या व्यक्तिगत प्राभिजात्य के अभिमान की भावना से चिन्तन करते रहे हैं । यद्यपि जैन और बौद्ध जैसी श्रमण- उत्पन्न शुचि और प्रशुचि की अवधारणा में बदल गया संस्कृतियों के शास्त्रों में जड़ संस्कारों के परिवर्तन और है। इससे समाज मे अमीर-गरीब, ऊँच-नीच और स्पृश्याक्रान्तिकारी प्रगति की ओर प्रेरित या दिनिर्देश करने स्पृश्य. यानी छूत-प्रछूत, जैसे वर्गभेद को परिपोषण मिल वाली प्रचर प्रवधारणाएं निहित है। परन्तु, दुर्भाग्यवश रहा है। किन्तु, भगवान् महावीर की श्रमण सस्कृति के अधिकांश समाजचिन्तक श्रमण-संस्कृति की उक्त अवधार- सन्दर्भ में ज्ञानदृष्टि के प्राधार पर जीवन-चर्या का सयणामों से अपरिचित रहे हैं। प्रथ च, दार्शनिक विद्वान् मन ही तात्विक संयम है। जीवन-चर्या के संयमन के इन्हें केवल शुष्क नर्क का विषय बनाए हुए हैं। प्राधुनिक बिना मानव-जाति में एकता की प्रतिष्ठा तथा विलास
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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