________________
श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
'श्रमण' शब्द की व्युत्पति ही 'श्रम' धातु मे युच् या तीर्थकर माना है। वास्तव में, अवधूतों या नाथों से पृथक् ल्युट् प्रत्यय के योग से होती है । यो श्रमण का अर्थ जैन धर्म का प्रारम्भ, ऐतिहासिक दृष्टि से, भगवान कठोर तपस्वी होता है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान महावीर से माना जाना चाहिए । बर्द्धमान संन्यासियों के विभिन्न भेद बहुत पहले ही हो चुके थे। महावीर को बुद्ध ने 'निगण्ठ' (निर्ग्रन्थ) कहा है । बाद में रामायण में (१. १.४ १२) में श्रमण और तापस शब्द उन्हें ही 'जिन' भी कहा गया । पर, स्वय बुद्ध को भी इकट्ठे आए है जिसमे स्पष्ट है कि श्रमण और कठोर अनेक स्थानो पर 'जिन' और 'ग्रहत्' कहा गया है और तपस्वी मे भी भेद है ।
यही विशेषण स्वयं महावीर के लिए भी प्रयुक्त हुए है । इनमें भी सबसे महान संवर्ग अवधतों का है। पुराणो इसी प्रकार दोनो सम्प्रदायो के संन्यामी भी आगे चल कर ने अवधूतों को परम्परा स्वयं शिव से स्थापित की है। श्रमण' कहलाए । खेद यही रहा है कि बौद्ध धर्म का किन्तु ऐतिहामिक दृष्टि से अवधत परम्परा के ग्रादि- स्थायी प्रभाव भारत की सीमा से बाहर भी रहा है, आचाय भगवान ऋषभदेव है। भगवान ऋपभदेव परम- किन्तु वर्द्धमान की श्रमण-परम्परा भारत से बाहर स्थायी अवधूत श्रेणी को प्राप्त संन्यासी थे । ये विष्णु के अवतार प्रसार न पा सकी।
और प्रादिनाथ नाम से जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर माने उपसंहार गए है। इन भगवान ऋषभदेव से ही दिगम्बर अवधतो यों मानव समाज में इतिहास काल के प्रारम्भ में की परम्परा का प्रारम्भ है। इतिहास-क्रम से यह घटना अब तक श्रमण या संन्यासी ने सम्मान पूर्ण स्थान पाया सिन्धु काल के प्रारम्भ की भी हो सकती है क्योंकि एक है। थमण समाज का गुरु है । श्रमण के पतन से सदा सिन्धु-मुद्रा पर योगी और वृषभ चिन्ह अंकित पाया गया समाज का पतन हुआ है, या समाज यदि सवल रहा है है । लेख तो अभी निर्धान्त रूप से पढा नहीं गया है, तो उसी ने पतित थमण का नाश करके अपने पापको किन्तु चिन्ह से वह योगी-मूर्ति ऋषभदेव की भी मानी पतन से बचाया है। भारत से बौद्ध धर्म का लोप कुछ जा सकती है, क्योकि जैन-परम्पग में वपभ भगवान बौद्ध भिक्षुओं की इसी प्रवृति का परिणाम है । यह हुग्रा ऋषभ देव का चिन्ह है।
है और होता रहेगा। समाज ने मदा से अब तक जिस ऋषभदेव के पुत्र भरत भी अवधूत थे, जिन्होंने भद्र
श्रमण का सम्मान किया है, वह मठों या सघारामो का काली के सम्मुख बलि-पशु के स्थान पर स्वय को उपस्थित
ऐश्वर्यशाली स्वामी श्रमण नही था; वह वही था, जो करके पशु-बलि के विरुद्ध मौन-सत्याग्रह किया। शायद
गीता की भाषा में स्थितप्रज, निस्पृह, निमग योगी था, वेदों के शुनःशेष के बाद पशु-बलि के विरुद्ध प्रथम सशक्त जिस बुद्ध न घ
जिसे बुद्ध ने धम्मपद मे 'बम्हन' कहा, जो निर्ग्रन्थ, स्वर भरत का ही है।
इन्द्रिय-जेता, जिन कहलाने का वास्तविक अधिकारी था. भगवान ऋषभदेव के बाद, अवधूत पराम्परा के जिसने लोक-कल्याण के लिये सदा अपना बलिदान दिया बाइस प्राचार्य और हुए, लेकिन तेईसवे प्राचार्य भगवान है। ऐसे 'थमण' जब तक रहेंगे, मानव समाज सदा पतन पार्श्वनाथ के समय से अवधुतो का एक सम्प्रदाय उनसे के गम्भीरतम गह्वरो से उभर कर कल्याण मार्ग पर पृथक हो गया और नाथ सम्प्रदाय कहाया । पार्श्वनाथ का आता रहेगा । मानव समाज भी जब तक ऐसे सच्चे मूल सम्प्रदाय इस युग से निग्रन्थ सम्प्रदाय कहा जाने संन्यासियो को वास्तविक हार्दिक सम्मान देता रहेगा, लगा। इसी निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय में चौबीसवें प्राचार्य वर्द्धमान जब तक उनके चरण-चिन्हो का अनुसरण करता रहेगा, थे, जिनको जैन मतावलम्बियों ने चौबीसवां प्रौर अन्तिम तब तक कोई भय नही है।
00 पता :- मकान नं० १८६७, गली नं० ४५,
नाईवाला, करौल कग, नई दिल्ली