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________________ ४६ :वर्षकिरण १ अनेकांत पर भारतीय सभ्यता की पूरी छाप है। माया-सभ्यता में तो, सूफी, दरवेश, ख्वाजा, फकीर, पीर प्रादि अनेकों की अनुश्रुतियों के अनुसार उनके पूर्वज पूर्व से वहाँ गृह-त्यागी संन्यासियों के सम्प्रदाय इस्लाम का प्रधान अंग पहुंचे। माया-जन की सर्वाधिक पूज्या और इष्ट देवनाता बन गए । यह मानने में संकोच नही होना चाहिये कि माया है, जो भारतीय लक्ष्मी की भांति कमल धारण इस्लाम में संन्यास का प्रवेश ईसाई संन्यासी सम्प्रदायों, किए हैं और प्रधान देव 'हुइत्ज्लीपोख्तली' नागधारी ईरान, अफगानिस्तान और मध्य एसिया के बौद्ध भोर शिव है, जो संन्यासियों के आदि गुरू है । मैक्सिको के बौद्धेतर श्रमण-सम्प्रदायों तथा काश्मीर, सिन्धु और इण्डियन एजटक वास्तव मे प्रास्तीक की सन्तान है। निकटवर्ती क्षेत्रो के हिन्दू संन्यासियों के साथ सम्पर्क का सम्भवतः जनमेजय से संधि के पश्चात् प्रास्तीक नागो, ही परिणाम है। नहपो, और मर्गो को पोलीनेशिया के मार्ग से वर्तमान भारत प्रमरीका मे ले गए थे। आज भी मैक्सिको के आदिवासी भारत में तो श्रमण और गहस्थ का सम्बन्ध और नाग की पजा करते है। भारत से दूर जा बसने पर भी, भी स्पष्ट है । भारत की ज्ञात सभ्यतामों में सर्वाधिक वे भारतीय परम्पराम्रो को नही भूले । अन्य परम्पराम्रो प्राचीन सभ्यता सिन्धु-सभ्यता मानी जाती है । उस काल के साथ. मारत में पूरी विकसित संन्यास पराम्परा भी की मुद्रामो पर उत्कीर्ण चित्रो से यह स्पष्ट है कि सब वहां पहुंची । प्राचीन इतिहासकारो और यात्रियों की कुछ त्याग कर वनों में निवास और कठोर तप करने साक्षी है कि पास्तीक अपने पुरोहितों को 'शमन' कहते वाले संन्यासियो, योगियों की परम्पराएँ तब तक समाज थे, जो स्पष्ट ही 'श्रमण का ही रूपान्तर है । मे सुस्थापित ही नही हो चुकी थी; अपितु समाज का ईसाइयत और इस्लाम पूज्य अंग बन चुकी थी। एक मुद्रा पर एक योगी वृक्ष के पहले ही कहा जा चुका है कि ईसा से कई शताब्दी नीचे समाधिस्थ है और अन्य पशुओ से परिवत है। यद्यपि पूर्व संन्यास की परम्परा अरब, मिस्र, इजरायल और इस सभ्यता को पूर्व-वैदिक कहना तो भूल ही होगा, किन्तु यनान मे जड पकड़ चुकी थी। सीरिया में निर्जनवासी यह स्पष्ट है कि मुद्रानो से प्रकट होने वाला धर्म और संन्यासियो के सघ और प्राथम स्थापित थे ही। उनमें से जीवन-शैली वेदो से प्राप्त धर्म और दर्शन से भिन्न ही कुछ तो अत्यन्त कठोर तप करते थे । स्वयं ईसा के दीक्षा- प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इहलोक-परक गुरू यूहन्ना इसी सम्प्रदाय के थे । कुछ परम्परागों के होने के कारण, प्रवृति-परक वैदिक उपासना और जीवन अनुसार, ईसा ने भी भारत मे आकर, संन्यास और शैली तो अभिलिखित हो गई, किन्तु इहैषणा-रहित भारतीय दर्शन का अध्ययन किया था। आज भी भारत सर्वत्यागियो की जीवन-शैली का अभिलेखन, स्वभावतः में सबसे प्राचीत ईसाई सीरियाई-ईसाई हैं, जो एक प्रकार नहीं हो सका । तथाकथित पूर्व-वैदिक या वेदेतर जीवन से विश्व के प्राचीनतम ईसाई-मतावलम्बी है; क्योकि और उपासना शैली के अभिलेख-प्रमाणो का प्रभाव प्रन्थतियों के अनुसार, वे महात्मा ईसा के प्रत्यक्ष शिष्य सम्भवत. इसी कारण है । सिन्धु लिपि के उद्धार के बाद सत तामस की शिष्य परम्परा मे है। सीरियाई ईसाइयों इस प्रभाव की पूर्ति शायद हो सके। की जीवन-चर्या भारतीय संन्यासियों से अधिक भिन्न वेदो के अन्तिम अंशो, पारण्यकों और उपनिषदों में नही है। उनकी जीवन-चर्या का प्रभाव थोड़ा बहुत सभी अवश्य यह भेद उभर कर पाया है । श्रमण शब्द का ईसाई संप्रदायों पर पड़ा है। उल्लेख भी पहले-पहल वृहदारण्यक उपनिषद् में ही है। इस्लाम का प्रवर्तन हजरत मुहम्मद से है। मुहम्मद वेदों के ऋषियो की परम्परा और श्रमणों की परम्परा साहब स्वयं तो प्रचलित अर्थों में संन्यासी नहीं थे, किन्तु में प्रधान भेद यही रहा है कि ऋषि अधिकांशतः गृहस्थ उनको देवी उपदेशो का दर्शन निर्जन मरुस्थलों में एकान्त रहे, जबकि श्रमण कठोर तप करने वाले परिव्राजक जीवन बिताने और तप करने के बाद ही हुमा था । बाद सर्वस्व त्यागी संन्यासी थे।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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