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श्रमण और समाज : पुरातन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
सहस्र से भी अधिक वर्षों से अक्षुण्ण चली आ रही है। का उपदेश देते थे। इसी समय वर्तमान तुर्की और उससे इसी की समकालीन सभ्यताएँ सुमेर, असुर और बाबुल दक्षिण मे लेबनान और सीरिया मे हत्ती और मित्तन्नी की हैं, जो मिटती और बनती रही है। इन सभी सभ्य- सभ्यताये विकसित हो रही थी। इन दोनो सभ्यतामो तानो मे पुरोहित-परम्परा का पूर्ण विकास हुआ है। ये की भारतीय सभ्यता से गहरी समानता थी, पूज्य देव तक पुरोहित प्राय. पूरे समाज के ही सचालक बन गए थे, दोनो के एक ही प्रतीत होते है। इसी प्रकार, दोनो ही मे साम्राज्यो के निर्माण-विनाश तक की सामर्थ्य उन्होने पुरोहितो मीर संन्यासियो की सुस्थापित परम्पराए थी। प्राप्त कर ली थी। इनमे अधिकाश पुरोहित श्रमण के इनका सीधा प्रभाव यूनान की सभ्यता और उसकी प्रर्थ में केवल लोक-हितपी तो अवश्य ही रहे होगे, किन्तु उत्तराधिकारी रोम की सभ्यता पर भी पड़ा । किन्तु सर्व-त्यागी सन्यासी की भाति जीवन-यापन करने की रोम की कर्म-काण्ड तथा इहलोक-प्रधान जीवन-शैली म परम्परा के अस दिग्ध प्रमाण इनमे नही प्राप्त होते। यह विचार धारा जमी न रह सकी । रोम मे सन्यास निःसन्देह तुर्की में अफगानिस्तान तक की मरुभूमि और का प्रवेश बाद मे यहदियो और ईसाइयो के माध्यम से निर्जन स्थलियों में उस समय भी स्थान-स्थान पर गह- हुआ सातवी छटी शताब्दी ईसवी पूर्व म ईरान के माध्यम त्यागी धमण घूमते थे। लेकिन समाज के कल्याण के से यूनान के साथ सास्कृतिक सम्बन्ध स्थापित होने के बाद लिए सर्वस्व त्याग कर निस्पृह घूमने वाले सन्यासी-वर्ग से, यूनान के दर्शन पर भारतीय दर्शन का प्रभाव स्पष्ट की अक्षुण्ण परम्पग यहूदी समाज ने ही स्थापित की। लक्षित होने लगा। साथ ही, सन्यास की परम्परा भी मूसा से ईसा तक यह परम्परा चली आई है। ये पैगम्बर वहाँ बल पकड़ती गई । प्रायः निजन-वास करते; अत्यन्त अल्प और मोटे वस्त्र, चीन और मध्य एशिया या वृक्षो की खाल पहनते; परिव्राजकों की भाति घूमते चीन का दर्शन इहलोक-प्रधान रहा । इस कारण और कठोर तप करते थे । स्वयं मूसा को परमात्मा की वहाँ के सतो मे, बौद्ध-धर्म से पूर्व, गहन्यागी मन्यासियो प्राप्ति के लिए च.नीय दिन तक सिनाई-पर्वत पर भूखे- या श्रमणो की प्रवृति का तो परिचय नही मिलता. प्यासे रह कर ना करना पड़ता था। धीरे-धीरे यह किन्तु पुरोहितो से पृथक ऐसे मनो की परम्पग अवश्य परम्परा अन्य साम्प्रतिक सभ्यताओं में भी फैली और थी, जो लोक-हितैषणा से ही कार्य करते थे, मन्यासी न परोहित नथा सर्वत्यागी संन्यासी का भेद स्पष्ट होने होते हुए भी, सादा जीवन बिताते थे। ईसवी पूर्व पहली
ईमा के जन्म से चार-सौ वर्ष से भी पहले से ऐसे शती में बौद्ध-धर्म के प्रवेश के पश्चात तो श्रमण शैली संन्यासियों के प्राथम और संघ विधिवत् स्थापित होने लगे समाज का प्रधान और पज्य अंग ही बन गई । चीन से थे। इतिहास साक्षी है कि इस जीवन-शैली पर भारतीय पश्चिम और उनर-पश्चिम के पठारो-खोतान, काशगर विचार-धारा का गहरा प्रभाव है। व्यापार के माध्यम से प्रादि क्षेत्रों के साथ भारत के सम्बन्ध और भी प्राचीन जो सास्कृतिक लेन-देन स्वाभाविक ही होता है, उसके है; बौद्ध-धर्म से पूर्व ही भारतीय सन्यासी वहाँ विचरण परिणाम-स्वरूप उत्तरी अफ्रीका के उत्तरी तट पर, लेब- करते थे । इस प्रकार, श्रमण-सघ वहां स्थापित हो चुके नान और सीरिया में भारतीय दर्शन और उसी के परि- थे। चीन मे बौद्ध-धर्म का प्रसार वास्तव में, णाम स्वरूप संन्यासी-मघ-शैली का प्रचार हुना होगा। परिव्राजको का प्रसाद है । अाज भी, बौद्धेतर अन्य यूनान और रोम
ममाज अपने पुराहितो को शमन ही कहता है। यूनान मे सभ्यता का विकास ईसा से लगभग १५०० प्राचीन अमरीका वर्ष पर्व प्रारम्भ हया है। वहा भी इस प्रकार के लोक- प्राचीन अमरीका मे ईमवी पर्व प्रथम शती सही
तो की परम्पराएँ अत्यन्त प्राचीन है, जो प्रचलित माया-सभ्यता उन्नति के शिखर पर पहुँच की थी। अब कर्मकाण्ड मे दर रहकर दसरो को भी सरल जीवन-यापन इस बात के पर्याप्त प्रमाण मिल चुके है कि माया-मभ्यता