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________________ भगवान महावीर : एक नवीन दृष्टिकोण महिमा प्रातो है । क्योकि जो छूट गया, वह हमारे लिए लब्धि थी। वह आत्मिक आनन्द था । उस मानन्द के बहुत कुछ था । परन्तु महावीर के लिए वह कीमत रहित सामने जो दो कौड़ी का था, वह छूट गया था। बाहर से था, अर्थ रहित था, कंकड़-पत्थर से भी तुच्छ था। एक देखने वाले को लगा, इतना त्याग करने से महावीर हो बच्चा कंकड़-पत्थर का संग्रह करता है और कोई उससे ले गए। परन्तु भगवान ने जो उपलब्ध किया, वह अन्तर में लेता है तो वह रोता है कि मेरा चला गया। उसके लिए किया था। वह अन्तर-उपलब्धि होने पर, बाहर छट वह कंकड़-पत्थर सब कुछ है। परन्तु जब वही समझता है गया। उस अन्तर उपलब्धि का ज्ञान बाहर से देखने वाले कि जिनको मैने पकड़ रखा है वह ककड़ पत्थर है तो सब को नही हो सकता : छुट जाते है । वहाँ वह यह नहीं कहता कि मैने कुछ त्याग जब नया पत्ता पाने के सम्मुख होता है तो बाहरी किया है, न हम बच्चे के जीवन मे लिखते है कि उसने पत्ता गिर जाता है । बाहर से देखने वाला समझता है इतने ककड़ पत्थर छोड़े। जिस रोज हम जानेगे कि महा- कि बाहरी पत्ता गिरने से नया पत्ता आया है परन्तु वस्तुवीर ने कंकड़-पत्थर छोड़े, उस रोज हम कहेगे कि उन्होने स्थिति ऐसी नही होती। इसी प्रकार जब अकुर उगने के कुछ त्याग किया । महावीर से पूछा जाता कि पाप ने सम्मुख होता है तो जमीन फट जाती है, परन्तु जमीन इतना त्याग किया तो शायद वह कहते, मैंने तो कुछ त्याग फाडने से अकुर नही निकलता । अज्ञानी समझता है जमीन नहीं किया क्योकि त्यागी तो वह चीज जाती है जिसका फाडने से अकुर निकल जाएगा इसलिए उसका पुरुषार्थ कछ मल्य हो । प्राप रोज अपने घर के बाहर कचरा फेंकते बाहर में होता है परन्तु भगवान महावीर का पुरुषार्थ है। अखबार मे नही छपता कि आपने कुछ त्यागा है। अंतर मे था, अपने में था। जो हमारे लिए धन-दौलत है, वह महावीर के लिए कचरा महावीर ने अन्तरात्मिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के हो गया है। हमें वह कचरा नहीं दिखाई पड़ता। असल लिए बाहरी पराधीनता को छोड दिया। बाहर में किसी र में जितना फर्क बच्चे व हमारी चेतना के तल मे है, उतना पदार्थ की अपेक्षा नही रखा, यहाँ तक कि बाल बनाने का ही फर्क हमारी और भगवान महावीर की चेतना के तल उस्तरा भी कौन रखे । बाल बढ जाते है तो उनको उखाड़ मे है। यहाँ इस जगत मे हमे जो भी दिखाई पड़ता है देते है । कोई खाने के बर्तन का उपद्रव नहीं है, पहनने को • महावीर के लिए उसका सारा मूल्य खो गया है, वह निर्मूल कपड़े का झमेला नहीं है। महावीर नग्न हो गये है क्योंकि हो गई है। महावीर छोड़ते नही, चीजें छूट जाती है। जो वह अन्तर से इतने सरल हो गए है, इतने निर्दोष हो गए व्यर्थ हो गई, उसे ढोना असम्भव है। महावीर छोड़ कर है कि उन्हे नग्नता का बगेध ही नहीं कुछ लोग अपने को नहीं जाते, वे जाते है, चीजे छूट जाती है। महावीर दुःख नग्न दिखाना चाहते है। यहाँ पर वह नग्नता नहीं थी। उठाने नहीं जा रहे है, महावीर तो इतने आनन्द से भर । एक आदमी इसलिए नग्न हो जाता है कि उसके मन में गए है कि अब दु ख का कोई उपाय ही नही रहा । कोई जब नग्नता छिपाने का, ढाँकने का, देखने का कोई भाव र महलों में नही हो सकता था । परन्तु महल नही रहा । बालक की तरह निर्दोप हो गया। दूसरा बह सन होकर रहने का अपना प्रानन्द है । महल है जो दिखाना चाहता है कि लोग मुझे नग्न देख। यह बाहर वक्ष के नीचे रहने का अपना ग्रानन्द है । दाना दोनो बाते एक जगह नही हो सकती है। दोनों को अलग' में कोई तुलना नही है। अलग समझने में बड़ा अन्तर है और कठिन भी है। जो महावीर ने जो कुछ प्राप्त किया वह इतना कीमती व्यक्ति सरलता की वजह से नग्न हा है, वह जीवन के था कि उसके सामने जो छोड़ा, वह दो कौड़ी का था। पोर हिस्सो में भी सरल होगा, सारे जीवन मे मिली महावीर की महत्ता तो उस उपलब्धि से है जो उन्होंने होगा । ऐसी नग्नता थी भगवान महावीर की। प्राप्त की थी । वह चेतन प्रात्मस्वरूप, ज्ञातादृष्टापना, भगवान महावीर शरीर को कष्ट नहीं देते। किसी • एक अकेले चैतन्य में जो ठहरना था, वह बड़ी भारी उप- दूसरे को भी कष्ट नही देते । जिसको दसरे को
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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