________________
१२, वर्ष २८, कि.१
अनेकान्त
मश्किल हो गया। घर और बाहर का भेद खत्म हो गया। है, यही तेरे करने योग्य है, यही धर्म है. यही कल्याण है । उस समय उन्होने वस्तु-तत्व का विचार किया है कि हे आज तक तूने 'पर' मे, ससार शरीर भोगों में, अपनाआत्मा, ये ससार, शरीर भोग, स्त्री, धन, वैभव, राजपाट, पना माना, जिससे अनन्त काल से तू जन्म मरण कर रहा मां-बाप, पंसा, सब संयोगी पदार्थ है। जिनका सयोग होता है, कर्मों का पास्तव बंध हो रहा है और यह जीव मनुष्यहै उनका वियोग निश्चित है। यह शरीर प्रायु के अधीन देव-नारकी-पशु, योनियों को धारण करके अनन्त दुःखों है। प्रायु के अन्त में यह नहीं रह सकता। कोई बचाना को भोग रहा है। कभी इस जन्म को धारण करता है, चाहे तो बच नहीं सकता। मैं चैतन्य प्रात्मा, मेरा इनसे कभी अन्य जन्म को धारण करता है, कही सुख की प्राप्ति क्या वास्ता? यह मेरी चैतन्य जाति के नहीं, मैं इनकी नहीं होती। अपनी अज्ञानता से पाप कर्म बाँध रहा है जाति का नही। इनकी सत्ता, मेरी सत्ता, मेरा अस्तित्व, और उसके फल को अज्ञानी हया आप ही भोग रहा है हुनका अस्तित्त्व. भिन्न-भिन्न है। यह चाहे अनुकल हा, चाहे और द खी हो रहा है। जब यह शरीर प्रात्मा के भेद को विपरीत हों परन्तु मेरे अपने नहीं है। हे प्रात्मा । तू इनमें जाने, अपने मे अपनत्व बुद्धि को प्राप्त हो, बाहर से हट क्यों रुका हा है। प्रायु के अन्त मे इस शरीर को कोई कर भीतर मे पाए, 'स्व' की महिमा ग्रावे, तब कर्मों का रख नहीं सकता। इस जीव का पर्याय-अपेक्षा मरण प्रास्रव रुके और निज में रमणता को प्राप्त करे तो कर्मों निश्चित है। फिर वह मौका तुझे मिला है उस मौके मे का नाश कर पराधीनता को मेटे । हे प्रात्मा, तू पूर्ण स्वातू अपना आत्म-हित कर ले अन्यथा प्रायु का अत हो धीनता को प्राप्त हो । यह समूचा संसार अनेक प्रकार के जाएगा। यह मौका निकल जाएगा। यह शरीर तो पौद- जीवों से भरा है । उनमे से अनन्तो जीव तो ऐसे है जिनको गलिक है, माँ बाप के सम्बन्ध से उत्पन्न हया है, कर्म के ऐसे पुरुषार्थ का मौका ही नहीं । तुझे, प्रात्मत्व की जागृति अधीन तु उसमे रुका है। अब ऐसा पुरुषार्थ कर कि फिर हुई है। संसार में सब कुछ जीव को प्राप्त हो सकता है ऐसे कर्म का सम्बन्ध ही न हो कि प्रात्मा को शरीर प्राप्त परन्तु यह प्रात्म जागृति अत्यन्त दुर्लभ है । हे प्रात्मा, हो। यह घृणित है तब भी मेरा नही है, यह मुन्दर है, अब तू ऐसा पुरुषार्थ करे कि समस्त राग-द्वेष का नाश कर परम प्रौदारिक है तब भी, हे प्रात्मा ! तेरा नही। इन के पूर्ण ज्ञान और प्रानन्द को प्राप्त हो। 'पर' पदार्थों के संयोग से तो तेरे स्वभाव का तिरस्कार
जब इस प्रकार की भावना भा रहे थे उस समय बड़ेहमा है । इनके संयोग में तेरी महिमा नहीं। इनके संयोग बडे प्रागम ज्ञानियों, देवो ने प्राकर उनके विचारों की से तेरी निंदा है । इनके संयोग के कारण तेरे अनेक नाम
सराहना की और कहा, धन्य है आप जिन्होंने प्रात्मधरे गये, कोई राजा कहता है, कोई बेटा कहता है, कोई कल्याण का विचार किया । उन भावों की सराहना करने कुछ कहता है। कोई कुछ कहता है । यह नाम मेरे नहीं। से वे देव भी धन्य हो गए और भगवान महावीर तब परम मै तो चैतन्य हूं, मैग अपना कुछ नहीं । हे प्रात्मा, अब तू साधना को प्राप्त करने के लिए साधु अवस्था को प्राप्त पुरुषार्थ को प्राप्त हो । देख रणभेरी बज चुकी है, गुलामी । को छोड़ कर विजेता बने । प्रात्मा का एकत्वपना भी बाहर से देखने वाले समझते थे कि महावीर ने राज सर्वलोक मे सुन्दर है । एक अकेली वस्तु अपने में होती है छोडा, पाट छोडा, ऐस-पाराम छोडा, परन्तु बात ऐसी • 'पर' के संयोग से उसका एकत्वपना नष्ट हो जाता है। नही थी । महावीर ने सबको छोड दिया, ऐसा नहीं। इसलिए 'पर'का संयोग प्रसुन्दर है । हे प्रात्मा, तूने काम, उन्होंने कछ छोडा नहीं परन्तु वहाँ पर पकड़ने योग्य कुछ भोग, बन्ध, का परिचय तो अनन्त बार किया, हर जन्म नही था। भगवान ने तो कंकड़-पत्थरों के अलावा कुछ में किया, पूण्य की कथा भी सूनी, पुण्य कार्य भी किया, भी नही छोडा। जब हम अपनी दष्टि से देखते हैं तो हमें परन्तु यह मौका मिला है जब तू अपने आप से परिचय लगता है सारा सुख छोड़ दिया, हीरे जवाहरात छोड़े, कर, 'पर' से हट कर अपने में ठहर जा, यही तेरा कर्तव्य राज-पाट छोड़ा और हमारे भीतर उनके उस छोड़ने की