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________________ १४, वर्ष २८, क. १ कर देने में माता है, वही अपने को कष्ट देने में आहार मिलता है कि नहीं मिलता, कोई गाली निकालता प्रानन्द समझता है । कष्ट देना, दुःख सहना , धर्म नहीं है कि सम्मान करता है, कोई राजा नमस्कार करता है तो परम प्रानन्द को प्राप्त होना है। इसलिए जब कि गरीब करता है. क्योंकि यह कोई दायित्व अब उनका भगवान महावीर परम प्रानन्द को प्राप्त होते हैं तो उन्हें नहीं रहा । मैं अपने में हूं, बाहर से जो हो रहा है, वह शरीर की स्थिति का बोध नहीं रहता। लोक मे देखा हो। कोई उपसर्ग कर रहा है तब भी मैं अपने में है, कोई जाता है कि जब कोई प्रानन्द में मग्न होता है तो पूजा कर रहा है तब भी मैं अपने में हं । कर्मों में बहता भख नहीं रहती। यही हाल भगवान महावीर का था और जा रहा हूं, अब तैरने की बात नही रही। महीनों-महीनों महावीर ध्यान में खड़े रहते, उन्हें भुख भीतर में भगवान महावीर अनन्त प्रेम से भर जाते का अनुभव ही नहीं रहता। यहां पर भी वही बात है। है, बाहर में हिंसा का विलय हो जाता है, निज त्रिकाल बाहर से देखने वाला समझता है कि भगवान महावीर की साधना शरीर को कष्ट देने की सावना है। परन्तु भगवान सत्य स्वभाव को प्राप्त करते है तो बाहर में असत्य का महावीर को साधना शरीर को कष्ट देने की नहीं, परंत परम विलय हो जाता है । भीतर निज वस्तु को ग्रहण करते मानंद की साधना है। वे प्रानन्द में, मात्मिक प्रानंद में मग्न है तो बाहर 'पर' वस्तु का ग्रहण नहीं रहता । अंतर में निज ब्रह्म की चर्या में लगते है तो बाहर में प्रब्रह्म विसथे, अपने में मग्न थे। इससे 'पर' की फिक्र छुट गयी थी। जित हो जाता है । अन्तर में निज स्वभाव की निष्ठा को माज उनकी नकल करने वाले शरीर को कष्ट देने की। प्राप्त होते है तो परनिष्ठा विसजित हो जाती है। अनन्त चेष्टा करते है परन्तु आत्मिक आनन्द को प्राप्त करने का पुरुषार्थ नहीं करते क्योंकि वे बाहर से देखते है। नाद को सुन रहे है इसलिए बाहर मे कुछ सुनने का नहीं रहा । अनन्तरस का पान करा रहे है इसलिए बाहरी स्पर्श जोबानी व्यक्ति होता है, जिसने यह निर्णय किया की जरूरत नहीं रही। निज वैभव का अवलोकन करा रहे है, अनुभव किया है कि मैं एक अकेला चैतन्य हं, वह बाहर है इसलिए बाहर मे कुछ देखने को नहीं रहा। निज गंध के सामने 'पर' गंध नहीं रही । इस प्रकार कषाय पोर में जो जो कुछ होता है, उसका मालिक नहीं बनता। 'उसके प्रति अत्यन्त उदासीन वृत्ति की प्राप्ति को जाता इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करते है। सहज व्रतों का पालन है। वह मैं नहीं हूँ, उस ज्ञान सापेक्ष उस दूसरे पक्ष को होता है । वीतराग भाव उत्पन्न हुआ है इसलिए बाहर चाहे कर्म कृत कह कर उससे प्रपना दायित्व छोड़े, चाहे में मन, वचन, कार्य की चेष्टा से रहित हो गये हैं ऐसी केवल ज्ञान में झलका है वैसा हो रहा है, यह कहकर अपना गुप्ति का पालन करते है । इसी प्रकार वीतराग भाव के दायित्व छोड़े, बात है उससे अपना दायित्व को छोड़ने हान से सहज समितियों का पालन हो रहा है। वह भग. वान महावीर मात्र वर्तमान में है, न भूतकाल का विचार की। यह वही छोड़ सकता है जो ज्ञान का मालिक बनता है जो अन्तर में ज्ञान का मालिक तो बना नहीं, बाहर में है, न भविष्य की चिन्ता है । इस प्रकार कितने साल ध्यान, तपादि करते हुए, अनेक जगह विहार करके, बारह उत्तरदायित्व छोड़ देता है तो यह एकान्त पक्ष बन जाता वर्ष के बाद अपने निज स्वभाव की साधना से, दर्शन-ज्ञान है । दायित्व छोड़ना उसका सही है जिसने ज्ञान को चारित्र की एकता को प्राप्त होकर, शुक्ल ध्यान को प्राप्त 'पकड़ा । पर्याय का दयित्व छोड़ना उसका मिथ्या है जिसने अभी ज्ञान को नहीं पकड़ा । वह बचने के लिए, दायित्व होते हैं और रागादि दोषों का सर्वथा प्रभाव करके, ज्ञान से घबरा कर छोड़ रहा है। पहले वाले के पास दायित्व और आनन्द की पूर्णता को प्राप्त होते हैं । रहा ही नहीं। यही बात भगवान महावीर की थी। उन्होंने उस ज्ञान रूपी दीपक से लोक-प्रलोक प्रकाशित होता बाहर का, पर्याय का दायित्व छोड़ दिया। मव क्या होता है । वहाँ ज्ञान के प्याले को ज्ञान रूपी जल का पान है, इसकी चिन्ता नहीं। गर्मी पड़ती है कि सर्दी पड़ती है, कराया जाता है और देव-दानव, मनुष्य, पशु तक सभी
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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