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________________ १२२, वर्ष २८, कि०१ भनेकान्त वर्ष का प्रथम साम्राज्य और महानगरी राजगृह को उसका तक कह दिया गया कि काशी मे कोई कौवा भी मरे तो केन्द्र बनने का श्रेय प्राप्त हुमा। पांचवीं शती ईसा पूर्व के सीधा बैकुण्ठ जाय और मगध मे मनुष्य भी मरे तो गर्दभप्रारम्भ में ही राजधानी राजगृह से नवीन नगर पाटलि. योनि में जन्म ले । मगधवासियों को अयज्वयन, अकर्म, पुत्र (पटना), अपरनाम कुसुमपुर, पुष्पपुर या पुष्पभद्र में अन्य व्रत, देवपीयु आदि अपशब्दो से सम्बोधित किया जाता स्थानान्तरित हो गयी थी और अगले एक सहस्राब्द था। उनके क्षत्रियों को घृणापूर्वक व्रात्य-क्षत्रिय, क्षात्रपर्यन्त-बीच के तीन-चार शतियों के अन्तराल को बंधु, वृषल आदि संज्ञाएं दी जाती थीं। उन्हे मध्यदेशीय छोड़ कर-वही भारतवर्ष की सर्वोपरि राज्य-सत्ता का वैदिक आर्य क्षत्रियो से बहुत नीचा समझा जाता था। केन्द्र रही। शिशुनाग, शैशुनाक, नन्द, मौर्य, शुग और गुप्त इतना ही नही, मगध के ब्राह्मणो को भी पश्चिमी ब्राह्मणों सम्राटों की प्रधान राजधानी मगध की महानगरी ही रही। की अपेक्षा अति निम्न कोटि का समझा जाता था। उनके वैदिक साहित्य और मगध : विषय मे धारणा थी कि वे वेद और वेदानुमोदित यज्ञयाग ऐसे विलक्षण ऐतिहा सिक महत्व के होते एवं कर्मकाण्ड को सहज ही छोड़ देते है । हुए भी प्राचीन ब्राह्मणीय साहित्य एवं अनुश्रुतियों में मगध और मगधवासियों की निन्दा भर्त्सना, श्रमण-संस्कृति का केन्द्र-मगध : तिरस्कार एवं उपेक्षा ही प्राप्त होती है। ऋग्वेद कारण स्पष्ट है कि भारतवर्ष के प्राचीन सप्तखण्डों में मगध नाम का उल्लेख नहीं मिलता किन्तु एक में से प्राच्य खण्ड से मूचित भू-भाग, जिसमे मगध और मंत्र (३१५३११४) में कहा गया है कि "कीकटों के देश में उसके पडोसी विदेह, अंग, बंग, कलिंग आदि जनपद विद्यवे क्या करते है ? जहाँ गउएं सोमयाग के लिए भी पर्याप्त मान थे, वैदिक आर्यों की सभ्यता, संस्कृति और धर्म से दूध नहीं देतीं। अत: हे मघवन प्रमंगद (अवैदिक) नैचा- बहुत पीछे के समय तक अछता रहता पाया था । न केवल शाख (नीच, अनार्य) लोगों के (मध्यदेश वैदिक आर्यों वहाँ के निवासी वैदिक प्रार्य ब्राह्मणो एवं क्षत्रियों की की निवास भूमि के) पूर्व दिशा में स्थित उस प्रदेश को सन्तति में नहीं थे, वे वातराना, अर्हत, व्रात्य, निर्ग्रन्थ, अपने हुंकार से भर दे।" स्पष्ट ही है कि कीकट, प्रमंगद श्रमण तीर्थकरों की परम्परा के उपासक तथा अनुयायी, और नचाशाख शब्दों से मगध और मगधवासियों की ओर इतिहासातीत ही नही, अनुमानातीत काल से रहते आये संकेत है। अथर्व वेद में एक स्थान (५:२३११४) मे तो थे । उनकी सभ्यता भी नाग, यक्ष, वज्जि, लिच्छवि, ज्वरनाशनदेव से यह प्रार्थना की गयी है कि वह मगध के ज्ञातक, झल्ल, मल्ल, मोरिय, कोलिय, भंगि प्रादि अनार्य निवासियों को (मगधेभ्यः) ज्वर से पीडित कर दे । अन्यत्र प्रवैदिक तत्वों द्वारा संपोषित एवं पल्लवित हुई थी और (१५।२।४५) "प्रात्य" का प्रिय धाम प्राची दिशा, उसकी ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, शिल्प प्रादि की दृष्टि से वैदिक पुंश्चली (रखैल) श्रद्धा और मित्र मागध (मगधवासी) प्रार्य सभ्यता की अपेक्षा श्रेष्ठतर एवं नागरिक सभ्यता बताए गये हैं। शतपथ ब्राह्मण (१४,१०) में मागधों को थी। चिरकाल तक नाग जाति का प्राधान्य रहने के कारण ब्राह्मण या वैदिक धर्म के बाहर बताया गया है। कात्या- यह नाग सभ्यता भी कहलाई । नगर, नागर, नागरी, नागपन (२२१४१२२) पौर लाट्यायन (१६।२८) के श्रीत रिक प्रादि शब्द, स्थापत्य की नागर शैली, भाषा की नागरी सूत्रों में कहा गया है कि व्रात्य धन या तो पतित ब्राह्मण लिपि उसी सभ्यता की देन हैं। स्वयं प्राचीन युग की को दिया जाय या मगध के ब्राह्मणों को दिया जाय । मनु- भारतीय जनभाषा प्राकृत और नागभाषा शब्द पर्यायस्मृति प्रादि अन्य अनेक ब्राह्मणीय ग्रन्थों से स्पष्ट है कि वाची रहे हैं । यही भाषा चिरकाल तक मागधी या अर्घमध्यदेश (प्राय: वर्तमान उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, मागधी कहलाई। मागष या नाग सभ्यता का प्रसार होने पंजाब) के वैदिक आर्य मगध को पाप भूमि कहते थे और और प्रभावक्षेत्र बढ़ने पर यह अर्धमागधी प्राकृत प्रायः उस प्रदेश में 'गमनागमन करने का निषेध करते थे; यहाँ पूरे भारत की लोक-भाषा वन गई थी। श्रमण तीथंकरों
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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