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श्रमण साहित्य में वणित विभिन्न सम्प्रदाय
उपर्युक्त चारों मतों के पुरस्कर्तामों के विषय में इस मत के अनुसार सत्त्वों के क्लेश मौर शुद्धि का पर्याप्त मतभेद है । अकलक' ने इस सन्दर्भ में कुछ नाम कोई हेतु-प्रत्यय नही। वे निर्बल, निर्वीर्य, भाग्य मौर गिनाये है। उनके अनुसार कोल्कल, काणेविद्धि, कौशिक, संयोग से छ: जातियों में उत्पन्न होते हैं और सुख-दुःख हरिस्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, अश्वलायन भोगते है। वहाँ शील, व्रत, तप, ब्रह्मचर्य प्रादि का कोई प्रादि प्राचार्य क्रियावादी है। मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, स्थान नही । सुख-दुःख द्रोण से तुले हुए है। जैसे सूत की गार्य, व्याघ्रभूति, वादूलि, माठर, मौद्गलायन आदि गोली फेंकने पर उछलती हुई गिरती है, वैसे ही मूर्ख और भाचार्य प्रक्रियावादी परम्परा के है। साकल्य, बल्कल, पण्डित दौड़कर आवागमन में पड़कर दुःखों का अन्त कुथुमि, सात्यमग्र, नारायण, वृद्ध, माध्यन्दिन, मौद, पप्लाद, करेंगे।' प्राकृत साहित्य में भी निर्यातवाद इसी रूप में वादरायण, अम्बष्ठि, कृदौविकायन, वसू, जेमिनि प्रादि वणित है। वहाँ कहा गया है कि निर्यातवाद के अनुसार प्राचार्य अज्ञानवादी है। वसिष्ठ, पाराशर, जतुकर्णी, बाह्य कारणों से उत्पन्न सुख-दुःख स्वयंकृत अथवा परकृत वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औष- नहीं। इसके पीछे काल, ईश्वर, स्वभाव, कर्म और पुरुमन्यव, इन्द्रदत्त, अयस्थूण आदि वैनयिक आचार्य हैं। इन षार्थ भी कारण नहीं। उसके पीछे मात्र एक कारण मतों का निरूपण दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में हुग्रा नियति है। महान् प्रयत्न करने पर भी अभव्य वस्तु की है । चूकि यह अग उपलब्ध नहीं, अत: इस विषय में कुछ उत्पत्ति नहीं होती और भव्य वस्तु का विनाश नहीं होता। भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी यह द्रष्टव्य है कि शीलांक ने प्राजीवक, अज्ञानवादी और वैनयिक के उक्त प्राचार्यों में अधिकांश आचार्य पौराणिक है। व्याख्या सिद्धान्तों को मिश्रित कर दिया है और इन तीनों का प्रज्ञप्ति के तीसवें शतक में इन चारों वादों की अपेक्षा से प्रस्थापक गोशालक को मान लिया है। यह निश्चित ही समस्त जीवों का विचार किया गया है।
भ्रामक है। पर इससे यह अनुमान अवश्य लगाया जा नियतिवाद :
सकता है कि प्रज्ञानवाद और विनयवाद अधिक लोकप्रिय नियतिवाद का प्रस्थापक मक्खलि पुत्त गोशालक को नहीं हो सके और शीलांक के समय तक ये प्राजीविक माना जाता है । यही आजीविक सम्प्रदाय का प्रवर्तक है। सम्प्रदाय के अग बन गये। गोशालक का राशिक पालि साहित्य में मक्खलि शब्द मिलता है पर प्राकृत सिद्धान्त प्रसिद्ध ही है। उसे भी शीलांक ने अस्पष्ट ही साहित्य 'मंख लिपुत्र' शब्द का उल्लेख आता है। मंख का रहने दिया । अर्थ है-हाथ में चित्रपट लेकर उनके द्वारा लोगों को सजीवतच्छरीरवाद : उपदेश देकर प्राजीविका चलाने वाला भिक्षुक । व्याख्या सूत्र कृताग में प्रथमतः चार्वाक और तज्जीवतच्छरीप्रज्ञप्ति के पन्द्रहवें शतक के उल्लेख से ऐसा लगता है कि रवादियों के मत को पृथक्-पृथक् बताया है और बाद में यह मंख परम्परा भ० महावीर से पूर्व भी प्रचलित थी। दोनो को एक कर दिया है। तज्जीवतच्छरीरवादी वह है मंखलि महावीर का शिष्य भी बना और बाद मे सघ से जो शरीर और जीव को एक माने । भूतवादी चार्वाक और पृथक् भी हुआ। उसके शांत, कलंद, कणिकार, अछिद्र, तज्जीवछरीरवादी में अन्तर यह है कि भूतवादी के अनुअग्निवेश्यायन और गोमायुपुत्र अर्जुन इन छः शिष्यों सार पांच भूत ही शरीर रूप में परिणत होकर सब (दिशाचरों) का भी उल्लेख मिलता है। ये शिष्य महा- क्रियायें करते है परन्तु तज्जीवतच्छरीरवादी के मन में वीर के पथभ्रष्ट शिष्य थे। इसलिए मक्खलि को और शरीर रूप में परिणत उन पांच भूतो से चैतन्य शक्ति की इन शिष्यों को चर्णिकार ने 'पासत्थ कहा है। पासत्थ उत्पत्ति होती है। शरीर के नष्ट होने पर उसका भी पथभ्रष्ट भिक्षयों के लिए ही अधिक प्रयुक्त हुया है। विनाश हो जाता है। कर्मफलभोक्ता परलोकगामी मात्मा १. तत्वार्थ वार्तिक १,२०, १२ पृ. ४७ । । २. सूत्रकृतांग ३, ४, ६ वृत्ति पृ. ६८, ११, ११३ वृत्ति ३. दीघनिकाय, सामञ फल सुत्त ।
पृ. १६६ इत्यादि।