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________________ १२, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त है । जैन दर्शन भी क्रियावादी है। उसके अनुसार काल, सकते। अजीवादि पदार्थों में भी प्रत्येक के सात विकल्प स्वभाव, नियति, पुरुषार्थ, कर्म आदि समस्त पदार्थों को होते है। प्रतः ६४७-६३ मत हुए। इनमें चार भेद पृथक्-पृथक् मानना मिथ्या है। उनके सम्मिलित स्वरूप और मिलाये जाते है ---(iiii) अर्थ की उत्पत्ति सत् को ही यहाँ स्वीकार किया गया है। असत्, सद्सत् से होती है, यह कौन जानता है और उससे २. प्रक्रियावाद-क्रियावाद के विपरीत प्रक्रियावाद फल भी क्या है, (iv) वह प्रवक्तव्य भी होती है, यह मात्मा, पुण्य, पाप आदि कर्मों का कोई स्थान नहीं। कौन जानता है और उस जानने से फल भी क्या है । लोकायतिक और बौद्धों को इस दष्टि से प्रक्रियावादी दीघनिकाय के अनुसार अज्ञानवाद का प्रस्थापक कहा जा सकता है। पालि साहित्य मे निगण्ठनातपुत्त को सञ्जयवेलट्रिपुत्त है। वे हर दार्शनिक समस्या के प्रति क्रियावादी कहा गया है जबकि बुद्ध ने स्वयं को क्रिया अज्ञानता और अनिश्चितता व्यक्त करते है। शीलांक वादी और प्रक्रियावादी, दोनो माना है। क्रियावादी इस सञ्जय का नाम ही भूल गये। उन्होंने उपयुक्त सिद्धान्त लिए कि वे जीवों को सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करते जिन प्राचार्यों से सम्बद्ध मानते है वे शत प्रतिशत् सही है और प्रक्रियावादी इसलिए कि वे इस कर्म को त्यागने नहीं लगते । उदाहरणार्थ उन्होने मक्खलि गोसाल का का उपदेश देते है। सूत्रकृतांग में भी बद्ध को एक स्थान सम्बन्ध प्रज्ञानवाद, नियतिवाद और विनयवाद से जोड़ा पर क्रियावादी और दूसरे स्थान पर प्रक्रियावादी कहा है जबकि सजय वेलट्रिपुत्त से अपरिचितता व्यक्त की गया है। प्रात्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करने के कारण है । वस्तुतः अज्ञानवाद सजय वेलट्रिपुत्त का सिद्धान्त है। उसे यहां सम्मिलित किया गया है; अन्यथा वह क्रिया और नियतिवाद मक्खलि गोसाल का। पालि साहित्य में वादी ही है। इसे अधिक स्पष्ट किया गया है। भगवती सूत्र में भी प्रक्रियावाद के ८४ भेद है। जीवादि सप्त पदार्थ गोसालक को नियतिवाद का प्रवक्ता माना गया है। और उनके स्व-पर के भेद से दो भेद है। वे सभी भेद सूत्रकृतांग ने अज्ञानवाद को 'पासबद्धा', 'मिच्छादिट्ठी', पुनः काल, यदृच्छा प्रादि के भेद से छ प्रकार के हैं। इस 'अणारिया' जैसे विशेषणों से सम्बद्ध किया है । भ० महाप्रकार ७४२x६=८४ हुए। प्रात्माके अक्रिय होने पर वीर के धर्म को स्वीकारने वालों में सञ्जय का नाम प्रक्रियावाद में कृतनाश और अकृताभ्यागमदोष मावेगे। पाता है । संभव है, वे सजय वेलट्टिपुत्त ही हों । समस्त वस्तु जगत भी सर्व वस्तु स्वरूप हो जायेगा। ३. प्रमानवाव-इसके अनुसार श्रमण ब्राह्मणों के ४. विनयवाद - विनयवादी विनय से ही मुक्ति मत परस्पर विरुद्ध है, अत: असत्य के अधिक निकट है। मानते है। समस्त प्राणियों के प्रति वे पादर भाव व्यक्त इसलिए अज्ञान को ही श्रेष्ठ माना जाना चाहिए। करते है। किसी की निन्दा नहीं करते । विनयवाद के ३२ फिर संसार में कोई अतिशय ज्ञानी नहीं जिसे सर्वज्ञ कहा भेद हैं-देवता, राजा, यति, ज्ञाति, वृद्ध, अधम, माता जा सके । ज्ञान ज्ञेय पदार्थ के पूर्ण स्वरूप को एक साथ जान और पिता। इन पाठ व्यक्तियों का मन, वचन, काय और भी नहीं सकता। अज्ञानता होने से चित्त-विशद्धि अधिक वाद के द्वारा विनय करना अभीष्ट है। प्रतः ५४४= बनी रह सकती है। प्रज्ञानवादी जिस प्रज्ञान को कल्याण ३२ भेद हुए। पालि साहित्य से पता चलता है कि यह का कारण मानते है । वह ६७ प्रकार का है-सत्, असत्, बात लोकप्रिय रहा होगा। महात्मा बुद्ध भी स्वयं को सदसत्, प्रवक्तव्य, असद् वक्तव्य और सद्सद्वक्तव्व। वेनयिको समणो गोतमो कहते है। सूत्रकृतांग ने वही इन सात प्रकारों से जीवादिक नव पदार्थ नहीं जाने जा विनय कल्याणकारी बताया है जो सम्यग्दर्शन से युक्त हो। १. वही, १, १२ : नियुक्ति १२१, वृत्ति पृ. २१०-१। ३. वही, १, १२, नि. १२१, वृत्ति पृ. २१०-१। २. सूत्रकृतांग १, १, १२, वृ. पृ. २०८-१; नियुक्ति ४. वही, १, १२, २ की वृत्ति । ११६-१२१, ६, २७, ३. पृ. १५२ । ५. अंगुत्तरनिकाय, भाग ३, पृ. २६५ ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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