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________________ श्रमण साहित्य में वर्णित विभिन्न सम्प्रदाय D० भागचन्द जैन भास्कर, नागपुर विश्वविद्यालय प्राचीन साहित्य मे साहित्यकार स्वपालित दर्शन को निश्चित स्थिति ज्ञान तक न पहुंचने पर अमराविक्खेपवाद, उपस्थित करने के साथ ही इतर दर्शनों का खण्डन किया नेवसजीनासीवाद, उच्छेदवाद प्रादि जैसे सिद्धान्तों करता था । श्रमण (जैन-बौद्ध) साहित्य में यह खण्डन- की स्थापना की गई। प्राकृत साहित्य में सम्भवत इन्हीं मण्डन परम्परा भलीभांति उपलब्ध होती है। यहां हम मतों को ३६३ भेदो मे विभाजित किया गया है-क्रियाभ० महावीर और भ० बुद्ध कालीन ऐसे ही सम्प्रदायों का वाद के १८०, प्रक्रियावाद के ८४, प्रज्ञानवाद के ६७ प्रौर उल्लेख कर रहे है जिनकी परम्परा लगभग छिन्न-भिन्न हो विनयवाद के ३२ । बारहवें अग दृष्टिवाद में भी जनेतरः चुकी है। __मतों का वर्णन रहा होगा । सभ्भव है, इन मतों के मूलत पालि-साहित्य में महात्मा बुद्ध के समकालीन छः दो भेद रहे हो-क्रियावाद और प्रक्रियावाद । तटस्थ-वतितीर्थंकरों का उल्लेख पाता है-पूरण कस्सप, मक्खलि ने इसके बाद प्रज्ञानवाद को, और उसके उपरान्त विनय गोसाल, अजित-केसकम्बलि, प्रबुध कच्चायन, संजय वेलट्ठि- वाद को जन्म दिया होगा। पुत्त तथा निगण्ठनातपुत (महावीर)। इनके अतिरिक्त १. क्रियावाद - इस दर्शन के अनुसार जीव का और भी छोटे-मोटे शास्ता थे जो अपने सिद्धांतो को समाज अस्तित्व है और वह अपने पुण्य-पाप रूप कर्मों के फल का भोक्ता है। इन कर्मों की निर्जरा कर उसके मत में जीव मत इस प्रसंग में उल्लेखनीय है जिन्हें वहां दुर्जेय कहा निर्वाण प्राप्त कर लेता है। कही-कही क्रिया का अर्थ गया है। चारित्र भी किया गया है । तदनूसार व्यक्ति को क्रिया ही १. प्रादि सम्बन्धी १८ मत (पुब्बान्तानुदिट्ठि फलदायी होती है, ज्ञान नही; क्योंकि वह ज्ञान से संतुष्ट अठारसहि वत्थूहि) नहीं होता। अत: एकान्त रूप से जीवादि पदार्थो को (i) सस्सतवाद स्वीकारने वाला मत क्रियावाद है। उसके १८० भेद हैं। (ii) एकच्चसस्सतवाद जीव, अजीव, प्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य पौर (iii) अन्तानन्तवाद (iv) अमराविक्षेपवाद पाप, ये नव पदार्थों के स्वत: और परत के भेद से दो प्रकार (v) अधिच्चसगुपान्तवाद के है। वे नित्य और अनित्य भी रहते है। पुन: ये सभी २. अन्त सम्बन्धो ४४ मत (अपरन्तानुदिट्ठी- भेद काल, यदृच्छा, नियति, स्वभाव, ईश्वर और प्रात्मा चतुचतारी वत्थूहि) के भेद से ५ प्रकार के है। इस प्रकार ६x२x२४५ १. उद्धमाघातनिका सञ्जीवादा १६) =१८० भेद हुए। २. " असञ्जीवादा क्रियावाद की दृष्टि में ज्ञान रहित क्रिया से ३. " नेवसजीनासजीवादा ८४४+१= किसी भी कार्य की सिद्धि नहीं होती। 'इसीलिए पढम ४. उच्छेदवाद ७] ६२ ५. दिट्ठधम्मनिब्बानवाद नाणं तपो दया" कहा गया है। 'अहं सु विज्जाचरणं इन बासठ मिथ्यादष्टियों में प्रात्मा, लोक, पुनर्जन्म पमोक्खम' का भी यही सदर्भ है। इसी प्रसंग में सांख्य, जैसे प्रश्नों पर विशेष रूप से विचार किया गया है। किसी वैशेषिक, नैयायिक एवं बौद्धों को क्रियावादी कहा गया १. दीघनिकाय, सामञ्चफलसुत्त । २. सूत्रकृतांग, नियुक्ति १, १२, ११६ । ३. वही, १, १२, ११ ।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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