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१४, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
जैसे पदार्थ का शरीर से पृथक् कोई अस्तित्व नहीं। इस त्रता और मुर्गे का रंग यह सब स्वभाव से ही होता है।' दष्टि से यहाँ पुण्य-पाप कर्मों का भी कोई अस्तित्व नहीं।' बुद्धचरित और शास्त्रवार्तासमुच्चय' में भी स्वभाववाद राजप्रश्नीय में केशी और प्रदेशी के बीच जीव और पात्मा की यही व्याख्या की गई है। शीलांक ने इसे तज्जीवके सन्दर्भ में जो विवाद हमा, उसमें प्रदेशी तज्जीवतच्छरी- तच्छरीरवाद से सम्बद्ध किया है और यह कारण दिया है रवादी दिखाई देता है।
कि चूकि पंच महाभूतों से मात्मा पृथक् नही है। इसलिए पालि साहित्य में तज्जीवतच्छरीरवाद को उच्छेदवाद जगत की विचित्रता में स्वभाववाद कारण रूप माना के भेदों में देखा जा सकता है सम्भव है चार्वाक् सम्प्र- जाना चाहिए। दाय में कुछ मतमतान्तर रहे हों। और तज्जीवतच्छरीर. इसके अतिरिक्त प्रव्याकृत वाद, कालवाद, यदृच्छावाद, बाद उनमें से एक रहा हो। शीलांक ने भी इन दोनों पुरुषवाद, पुरुषार्थवाद, ईश्वरवाद, देववाद आदि जैसे अनेक को कहीं कहीं अपृथक माना है।
वादों के उल्लेख मिलते है जिन्हें लोकनिर्माण के कारण भास्मषष्ठवावी
के रूप में स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन में भी इन सूत्र-कृतांग मे इसे सांख्य तथा वैशेषिक दर्शन से सम्बद्ध सभी को कारण माना गया है, परन्तु उनके समन्वित रूप माना है। पांच महाभूत के बाद आत्मा को छठा पदार्थ को, न कि पृथक्-पृथक् रूप को।। मान लेने के कारण वे प्रात्मषष्ठवादी कहे गये है।' नहि कालादि हितो केवलए हितो जायए किंचि । प्रास्मातवाद:
इह मुग्गरषणाइवि ता सब्बे समृदिया हेउ ।' शीलांक प्रात्माद्वैतवाद एवं एकान्तात्मद्वैतवाद दोनों इसके साथ ही जनदर्शन में कर्म को भी ससार के इस शब्दों को समानार्थक मानते है। इसके अनुसार जैसे एक वैचित्र्य का कारण बताया गया है । उसको भी सु ही पृथ्वी समूह विविध रूपों में लक्षित होती है, उसी का कारण माना गया है। कर्म मूर्त है क्योकि सुखादि से प्रकार एक मात्मस्वरूप यह समस्त जगत नाना रूपों में सम्बद्ध होने के कारण भी व्यक्ति तदनुकल अनुभव करता देखा जाला है। उसकी दृष्टि में एक ही ज्ञान पिण्ड प्रात्मा है। मूर्त कर्म द्वारा अमूर्त प्रात्मा का उपघात अधवा उपपृथ्वी आदि भूतों के प्राकार में अनेक प्रकार का देखा कार उसी प्रकार होता है जिस प्रकार मदिरा आदि मूर्त जाता है परन्तु इस भेद के कारण प्रात्मा के उस स्वरूप में वस्तुओं द्वारा विज्ञानादि अमूर्त वस्तुओं का । लोक षड् कोई भेद नहीं होता। चेतन अचेतन रूप समस्त पदार्थ द्रव्यमय है। द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। उसका एक ही प्रात्मा है'। प्रात्माद्वैतवाद में न प्रमाण है,न नूतन पर्यायों में परिणमन, पूर्व पर्यायो का विनाश तथा प्रमेय, न प्रतिपाद्य है, न प्रतिपादक, न हेतु है, न दृष्टान्त मूल अंश की स्थिति रहती है। इसमें ईश्वर को परि
और न उनका प्राभास । समस्त जगत मात्मा से अभिन्न चालक मानने की भावश्यकता ही नहीं। होने के कारण एक हो जाता है। इस स्थिति मे पिता, प्रारण्यक: पत्र, मित्र प्रादि का भेद नहीं रहता, सुखादिक नहीं रहते। प्रारण्यक मारण्य में ही रहना अपना धर्म समझते मतः मात्माद्वैतवाद निर्दोष नहीं।
थे। वे कन्दमूल फलाहारी, वृक्षमूलवासी, ग्रामन्तकवासी स्वभाववाद:
तथा सर्वसावद्यानुष्ठान से पनिवृत रहते थे और एकेन्द्रिय स्वभावबाद के अनुसार जगत की विचित्रता का मूल जीवों के घात से प्रायः वे अपना निर्वाह करते थे। तापस कारण स्वभाव है। कण्टक की तीक्ष्णता, मयूर की विचि- प्रादि ऐसे ही होते थे। वे द्रव्यत: अनेक व्रतों का माचरण १. सूत्रकृतांग १, १, ११ वृत्ति पृ. २०,२।
५. बुद्धचरित ५। २. वही १, १, १६ वृत्ति पृ. २४।। ३. वही, १, १,६वृत्ति पृ. १६ ।
६. शास्त्रवार्ता समुच्चय १६६-१७२ । ४. वही, चूणि पू. ३०, दीपिका पृ०५।
७. सूत्रकृतांग २, ५, १५ वृत्ति ।