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________________ १३८ २८ ० १ । जय के बाद किया था मौर जिसमें "कलिंग जिन" को समारोह पूर्वक विराजमान किया था। यदि इस अनुभूति में कुछ तथ्य है तो देवसभा से प्राप्त मूर्तियां खारवेल काल की, अर्थात् ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी की माननी होंगी। इन मूर्तियों में एक मूर्ति १४" की अम्बिका की है। देवी ललितासन में श्रासीन है । उसके दायें हाथ में ग्राम गुच्छक है, बायीं गोद में बालक है। यही एक मूर्ति गोमेद पक्ष और अम्बिका यक्षी की है। दोनों ललितासन से बैठे हुए हैं। अम्बिका की बायीं गोद में एक बालक बैठा हुआ है । दूसरा बालक दोनों के बीच में खड़ा है। देवी के ऊपर घास्तवक है । उसके ऊपर तीर्थङ्कर नेमिनाथ की पद्मासन मूर्ति विराजमान है। दोनों पाइयों में चमरेन्द्र बड़े है। मेकाना समय पाठवीं शताब्दी माना गया है। इसी मन्दिर में एक मीटर ऊंचे शिला-फलक में अम्बिका की एक स्वतन्त्र मूर्ति है उसमें दोनों बालक है, माम्रगुच्छक है। इसके ऊपर । सिहासन का दस इंच ऊंचा शीर्षफलक है। देवी के भयोभाग में उसका वाहन सिंह बैठा हुआ है। अपनी शोधयात्रा में मुझे अम्बिका और गोमेव की एक सुन्दर मूर्ति खुखुन्दू ( जिला देवरिया, उत्तर प्रदेश ) मे देखने का अवसर प्राप्त हुआ । यह मूर्ति गुप्त काल की मानी जाती है और उत्खनन में प्राप्त हुई है। इसमे विका के साथ केवल एक बालक है । इसमे यक्ष मूर्ति का भीकन है । खुखुन्दू के निकट कहाऊ ग्राम में पाषाणनिर्मित एक मानस्तम्भ है । यह स्तम्भ उसके शिलालेख के अनुसार समुद्रगुप्त काल का है । खुखुन्दू और कहाऊ | सुमुन्द्र और कहाऊ का सम्पूर्ण पुरातत्व गुप्तकालीन है। इसलिए अम्बिका और गोमेद की उक्त मूर्ति को गुप्तकालीन मानने में कोई बाबा नही है। राजगृही के वंभारगिरि पर उत्खनन में प्राप्त भन जिनालय में अनेक मूर्तियाँ रखी हुई है। यहाँ की कुछ मूर्तियां नालन्दा संग्रहालय में तथा कुछ मूर्तियां राजगृही नगर के बाल मन्दिर में पहुंचा दी गयी है। वैभारगिरि के इस मन्दिर में सवा दो फुट के एक शिलाफलक में अम्बिका प्रोर गोमेद की मूर्तियाँ उत्कीर्ण है । प्राम्रगुच्छक, बालक, नेमिनाथ- प्रतिमा सव पूर्व की भांति है। विशेषता यह है कि देवी के चरणों के नीचे पांच भक्त बैठे हुए हैं। देवी का एक हाथ भूमि स्पर्श करता हुधा रखा है तथा दूसरा हाथ छाती पर रखा है। तीर्थङ्कर प्रतिमा का मुख कित है शासन देवता की इस मूर्ति का सर्वसम्मत १. Ay/13 भुवनेश्वर से प्राप्त । एक अन्य मूर्ति है जो बड़ी श्रद्भुत है। एक शिलाफलक में तीन पंक्तियों में २३ तीर्थर मूर्ति बनी हुई है। चौथी पंक्ति में तीर्थङ्कर माता लेटी हुई है। उनके बगल में बालक तीर्थदूर लेटे हुए है। इनके मध्य में भग वान नेमिनाथ की पद्मासन प्रतिमा बनी हुई है। इसके बाद अम्बिका देवी अपने दोनो बालकों- शुभकर मौर प्रियंकर को लेकर बैठी हुई है। सबसे धन्त में चमरवाहिनी - है । इस मूर्ति के पतिरिक्त अन्य कई मूर्तियाँ हैं, जो नवग्रह नव देवता, नव देवियों की है। इन सबका धनुमा निक काल पाठवीं शताब्दी प्रतीत होता है । भुवनेश्वर के राजकीय संग्रहालय में गोमुख यक्ष' की माठ इंच ऊंची मूर्ति सुरक्षित है, जिसका स्वीकृत समय सातवी शताब्दी है। उपर्युक्त विवरण से यह सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि न तो यक्ष-यक्षियों का प्रचलन नौवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुमा धौरन 'तिलोयपण्णत्ती' नामक प्रार्थग्रन्थ का यक्ष-पक्षी से सम्बन्धित भश प्रक्षिप्त है । अपितु प्राचार्य यतिवृषभ द्वारा यक्ष-यक्षियों का उल्लेख करने के पूर्व ही तीर्थंकरों के साथ और स्वतन्त्र रूप से भी यक्ष-यक्षियों की मूर्तियों का निर्माण प्रचलित हो गया था। शासन देवताओं के मूर्तिशिल्प का क्रमिक विकास शासन देवताओ के मूर्तिशिल्प का किस प्रकार क्रमिक विकास हुआ, इसका कोई इतिहास नहीं मिलता है। वर्त मान में उनका जो विकसित रूप हमे उपलब्ध होता है, इतिहास के विभिन्न युगों में सदा ही यह रूप नहीं रहा । कला कभी स्थिर नही रही उसकी माना विधाओं ने विभिन्न देश-कालो की धाराम्रो मे विभिन्न प्राकार ग्रहण किये। किन्तु किसी भी काल की विधा के लिए कोई एक निश्चित सिद्धान्त स्थिर नहीं किया जा सकता । अनुमान के माधार पर केवल कल्पना ही की जा सकती है।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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