SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 144
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तोपंधरों के शासनकर देवियां हमारी विनम्र मान्यता है कि यक्ष-यक्षी की कल्पना यक्ष-यक्षियो के कमिक विकास की इस शृंखला में को मौर्यकाल में ही प्राकार प्राप्त होने लगा था। दो बातें विशेष विचारणीय है। प्रथम तो यह कि प्रारम्भिक अवस्था में यक्ष-यक्षी को संभवत: चमर-वाहक यक्ष-यक्षियो मे प्रथम प्राकार किसे मिला, निश्चयाके रूप में साकार किया गया था। दीदारगंज (पटना) से त्मक रूप मे यह कहना कठिन है। दूसरे यह कि प्राप्त चमर-धारिणी यक्षी-मूर्ति इसी काल की है। यह यक्ष-यक्षियों की मूर्तियां पहले स्वतन्त्र बनी अथवा पहले पटना संग्रहालय में सुरक्षित है। कुषाण-कालीन मथरा तीर्थधर मूर्तियों के साथ उनका निर्माण प्रारम्भ हमा, यह शैली में यक्ष-यक्षियों के मूर्ति शिल्प की प्राय: उपेक्षा की। freो पोखी कहना कठिन है, क्योंकि प्रारम्भ से ही दोनों प्रकार की मूर्तियां उपलब्ध होती हैं। गई है। किन्तु प्रायः इसी काल में उदयगिरि-खण्डगिरि की शासन देवता और तन्त्रवाद : कुछ विद्वानों की रानी गुम्फा, अलकापुरी प्रादि में यक्ष यक्षी को द्वार पर मान्यता है कि जैन धर्म के शासन देवता तन्त्रवाद की देन स्थान दिया गया। जिन्हे हम द्वारपाल और द्वाररक्षिका कहते हैं। हम उनकी इस मान्यता से प्रसहमत है, क्योकि पार्षहै, वे यक्ष-यक्षी के अतिरिक्त अन्य कोई नही है। इससे ग्रन्थो में समवसरण की जो सरचना बताई गई है, उसमें लगता है कि जैन मूर्ति शिल्प मे यक्ष-यक्षियों का प्रवेश तो यक्ष-यमियों का भी विशिष्ट स्थान माना गया है। इसलिए उस समय हो गया था, किन्तु उन्हें तब तक जिनालय के यक्ष-यक्षियों की मान्यता किसी प्रभाव का परिणाम महीं बाहर रह कर ही सन्तोष करना पड़ा। दक्षिण और मानी जा सकती। किन्तु यह स्वीकार करने में कोई दक्षिण-पूर्व में कई स्थानों पर जिनालयों के द्वार पर द्वार संकोच नही हो सकता कि एक समय ऐसा भी माया, जब पाल के रूप में यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ मिलती है। उन्हे यक्ष-यक्षियों के कार्यों को कुछ विद्वानों, भट्टारकों मोर जिनालयों के अन्दर प्रवेश पाने और तीर्थङ्कर-मूर्तियों के यतियों ने तन्त्रवाद के साथ सम्बद्ध करने का प्रयल किया। साथ स्थान ग्रहण करने में कुछ शताब्दियों का समय लगा भारत मे जब तन्त्रवाद का बहुत जोर था और बौद्ध एवं होगा। वैदिक धर्म उसकी लपेट में आ गये थे, उस समय प्रध्यात्महमें लगता है कि सर्व प्रथम बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ प्रधान जैन धर्म के विशाल वृक्ष को भी तन्त्रवाद की इस के शासन देवता गोमेद और अम्बिका ने मूर्ति रूप धारण पाँधी ने कुछ झकझोर दिया था। उस काल मे तन्त्रवाद किया। इसके पश्चात् पद्मावती, चक्रेश्वरी, सिद्धायिका ने जैन धर्म की पूजा पद्धति मे प्रवेश पाने का कुछ प्रयत्न और बाद में शेष शासन देवताओं की मूर्तियां निर्मित होने किया था। इसी के फलस्वरूप कुछ विद्वान लेखकों ने यक्षलगीं। ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी तक शासम देव. यक्षियों का दर्गा उपासक से उठाकर आस्य तक पहुंचाने ताओं की मूर्तियों का पर्याप्त विकास हो गया। इतना ही का भगीरथे प्रयत्न किया। इस कार्य मे भट्टारकों का नहीं, नवग्रह, क्षेत्रपाल, सरस्वती प्रादि देव-देवियो ने एवं योगदान उल्लेखनीय रहा। उन्होने ज्वालामालिनी कल्प, प्रतीकात्मक रूप से गंगा-यमुना मादि ने भी इस काल में पद्मावती कल्प प्रादि कला ग्रयों की रचना की; अनेक मन्त्र. अपना उचित स्थान बना लिया। नौवीं-दसवीं शताब्दी मे शास्व रचे गये जिनमें देवतामों को प्रसन्न करने के बहविष तो तीर्थर मूर्तियों के साथ अन्य देव-देवियों को भी विधान बताये गये, ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लिए स्थान प्राप्त होने लगा। शासन देवताओं के मूर्ति-शिल्प के अनेक तान्त्रिक प्रयोगों का सृजन किया गया। जैन पूजाइस क्रमिक विकास का समुचित मूल्यांकन और अध्ययन विधि मे पचाङ्ग पूजा (माह्वानन, स्थापन, सन्निषीकरण, नहीं हो पाया है। यदि इसका व्यवस्थित अध्ययन हो पूजन और विसर्जन) का प्रचलन इसी काल मे हुमा। तो अनेक रोचक रहस्यों का उद्घाटन होने की सम्भा- प्रतिष्ठापाठों में यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, नवग्रहों, वना है। दिग्पालों प्रादि देवताओं का प्रष्टद्रव्य से पचांग पूजन का यह एक रोचक तथ्य है कि यक्षों की अपेक्षा यक्षी- विधान निश्चय ही तन्त्रवाद से प्रभावित रहा है। किन्त मूर्तियो का सदा ही बाहुल्य रहा है। यक्ष-यक्षियों की मान्यता पर तन्त्रवाद का प्रभाव नहीं है,
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy