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१४० वर्ष २८, कि० ।
उनके कार्यों को तन्त्रवाद के प्राग्रही कुछ विद्वानों ने तन्त्र- 'सम्यकप्रभावितजिमेश्वर शासन श्री पश्वरी प्रभूतिवाद से प्रभावित करने का अवश्य कुछ प्रयत्न किया।
शासन देवतायाः।' यक्ष-यक्षियों की मान्यता प्राय: जैन प्रतिमा-शिल्प के साथ इसी प्रकार, भाचार्य सोमदेव ने यक्ष-यक्षियों को. ही प्रचलित हो गई थी और यह वह समय था जब तन्त्र. शासन रक्षक स्वीकार किया है और पं० माशाधर ने वाद को समाज में विशेष महत्व प्राप्त नही हमा था। उन्हे शामन देवता माना है। दूसरी ओर, यक्ष-यक्षियों के कार्यों को तन्त्रवाद ने मध्यो. प्रतीत होता है कि उत्तर मध्यकाल में तीर्थङ्करों के तर काल मे कुछ प्रभावित किया था।
उपासक शासन देवताओं को ऐहिक कामना-पूर्ति के नाम जैन धर्म में शासन देवताओं का स्थान : प्रतिष्ठा पर उपास्य का पद प्रदान करने का प्रयत्न प्रारम्भ होने शास्त्रों में यक्ष-यक्षियो को शासन देवता अथवा शासन लगा था। किन्तु तभी इस परम्परा के विरुद्ध प्रवृत्ति का रक्षक देवता स्वीकार किया गया है। प्रत्येक तीर्थङ्कर जोरदार विरोध भी हया । प्राचार्य सोमदेव' ने इस प्रवृत्ति के निकट समवसरण में एक यक्ष और एक यक्षी की जोरदार शब्दो में भर्त्सना करते हुए कहा कि तीनों रहते है। उनके मन में अपने तीर्थङ्कर के प्रति बडी भक्ति लोकों के दष्टा जिनेन्द्रदेव और व्यन्तरादिक देवतानो को रहती है। वे समवसरण में तीर्थङ्कर की प्रथवा उनके पूजा विधान में जो समान समझता है, वह नरक में जाता शासन की सेवा या रक्षा किस प्रकार करते हैं अथवा है। उन्होंने यह तो स्वीकार किया है कि परमागम में इन उनका कार्य क्या है, यह किसी ग्रंथ में देखने में नहीं आया। शासन देवतानों की कल्पना शासन की रक्षा के लिए की किसी प्रतिष्ठा ग्रन्थ अथवा पुराण में भी इस सम्बन्ध मे गई है। अतः सभ्यग्दष्टियों को यज्ञ का कुछ भाग देकर कोई प्रकाश नही डाला गया। किन्तु उन्हे शासन देवता उनका सम्मान करना उचित है। किन्तु उन्होने इस प्रवृत्ति अथवा शासन रक्षक देवता के रूप मे जैन धर्म में मान्यता का कड़ा विरोध किया कि अपनी मनोकामनायों की पूर्ति प्राप्त है, इसमें कोई सन्देह नही है।
के लिए अथवा आपदाओं के निवारण के लिये शासन देव- प्राचार्य नेमिचन्द्र कृत प्रतिष्ठा तिलक में यक्ष पूजा के ताओं की पूजा उपास्य के रूप में की जाय । उन्होने कहा प्रसंग मे यक्षों की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि जैन धर्म के भक्त सम्यग्दृष्टि व्रती पुरुषो के ऊपर तो गया है:
वे शासन देवता और उनके इन्द्र स्वय ही प्रसन्न रहते . 'यमं यजामो जिनमार्गरक्षादक्षं सदा भव्यजनक पक्षम्। है।
निर्वग्बनिःशेषविपक्षकलं प्रतीक्ष्यमत्यक्षसुखे विलक्षम् ॥ इसी प्रकार, पं० प्राश धर ने अपना विरोध का स्वर 5. इसमे यक्षो को जिन शासन में रक्षा-परायण और मुखर करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा-मापदामो से माकुसंदा भव्यजनों का पक्ष लेने वाला बताया गया है। लित होकर भी दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक उनकी निवृत्ति - " इसी प्रकार, यक्षी-पूजा के प्रसंग में उन्हें शासनदेवता के लिये कभी भी शासम देवताओं की सेवा नहीं करता, बताया गया है। सन्दर्भ इस प्रकार है :
पाक्षिक श्रावक ऐसा करता है।
५. तच्छासनकभक्ताना सुदशा सुव्रतात्मनाम् । स्वयमेव प्रसीदन्ति ता: पुसां सपुरन्दराः ।
-----उपासकाध्ययन, ३६६६९ ।
- १. उपासकाध्ययन ३६०६६। .२. सागारधर्मामृत ३७ । .३. देवं जगत्त्रयीनेत्र व्यन्तराद्याश्च देवताः । • सम पूजाविधानेषु पश्यन् दूरं बजेदधः ॥
--उपासकाध्ययन, ३६६६६७ । ४. ताः शासनाधिरक्षार्थ कल्पिता: परमागमे । प्रतो यज्ञांशदातेन माननीया: सुदृष्टिभिः ॥
-उपासकाध्ययन, ३९६९८ ।
प्रापदाकुलितोऽपि दार्शनिकस्तन्निवृत्यर्थ शासनदेवता• दीन कदाचिदपि न भजते, पाक्षिकस्तु भजत्यपीत्येवमर्थ मेंकग्रहणम् -सागारधर्मामत, ३१७.८। ।