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________________ १३४, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त दर्शनसार : हिन्दी पद्यानुवाद विपरीत मिथ्यात दोहा सुव्रत तीरथ समय सुष समकित खीर कदंब । शिष्य तासु दुठ वसु नपति पर सुत परवत तंब ॥१६॥ नमित वीर जिण यंद सुरसे णि नम सुध ग्यानि ।। मत विपरीत कियो सबै संजम लोक विनासि । पूरव सूरिहि कहिउ जिम बरसन सार वखानि ॥१॥ तातें स सब भये घोर महा नरक सातवें वासि ॥१७॥ सोरठा-खेत्र भरत तीर्थेस नाक श्रेष्ठ देवेन्द्र नत । समय होत जिके सुजीव मिथ्यात प्रवर्त जे ॥२॥ विनय मिथ्यात वर्णन दोहा-रिषभ जिनेसुर पुत्र सुत कलंकित मोह मिथ्यात। मौकर के समय उतपति विनय मिथ्यात । महा सर्व विष्टनु धुरी पूरब सूरि विख्यात ॥३॥ सजय मंडित सिर सिखा नगन केय विख्यात ॥१८॥ दोहा-तिहि विचित्र दरसन किए रूप सुमिरत व्याप। दुष्ट जिके गुणवंतहू सब दिन भक्ति समान । तैसें इतरनि फुनि समिक व्रत सुहानि व्रत माप ॥४॥ नांहि बंड मन फुनि जनन मढ नकल पितु ज्ञान ॥१६॥ दोहा-यक एकांत संसय दुतिय विपरित विनय विख्यात । अज्ञान मिथ्यात वर्णन महामोह अग्यान ए कहे पंच मिथ्यात ॥५॥ वीर तीर्थकर बहु श्रुती पास संघ गणि सिक्ष । दोहा ---एकांत मिथ्यात वर्णन मरकट पूरण साधु कथ लोक अग्यान अपिक्ष ||२०| वारे पास जिनंद के सज् तीर पलाप्त । प्रज्ञानिन के मुख कहै मुकति जीव नहिं ग्यान । नगर, शिष्य पिहितावह बुद्धि कीरति मुणी भास ॥६ बहुरि प्रागमन भमण नहीं भव भव जीवनु जानि ॥२१॥ मछि प्रासन पूरन उदर अगनित भ्रष्ट प्रव्रज्य। एक सुद्ध करता सबनु जे जिय सरवस लोक । प्रवति कियो एकांत तिन वस्तर रक्त घरज्य ॥७॥ सूनि ध्यान बरनावरन तिहिं पर सिक्षत कोक ॥२२॥ तातें तिहि बांछन ते भवत पाप प्रबुद्ध । जिन मग वाहिज तत्व जे दरसाये मन पाप । मास मोहिनहि जीव जिय फल सक्कर दधि दध्या सप्तम नरक निगोद जायक विविध कष्ट दुख प्राप ॥२३॥ वरजनीक मदहू नहीं जल जिम द्रव द्रव्य एह। द्राविड संघ उत्पत्ति वर्णन इम लोकन मह घोषि के प्रति पाप किय जेह ।। कर्म कर प्रवर प्रवर भुगते इह सिद्धान्त । पूज्यपाद श्री सिक्ष दुष्ट संघ द्राविड करन । परकलपित किरव ग्यान यह उपज्यो नरक महंत ॥१० वज्रनंदि परतक्ष पाहुड वेदी महत श्रुत ॥२४॥ प्रापने श्रुत वचनेहि भरवन दोष नहि मुनिन कहं। संसय मिथ्यात वर्णन विपरीत रचिउ तेहि इम विशेष विसतारयऊ ॥२५॥ इकसत प्रवर छत्तीस विक्रम राजा मरन गत । बीज मांहि नहीं जीवउभ प्रसन नहीं फासु नहि। सोरठपुर बलभी ससंघ सेत पढऊ सुपनौ ॥११॥ साववि मनइन कीन गिणइन कलपित ग्रंथ किय ॥२६॥ भद्रबाहु श्री मुनि गणी सत्याचारज सिक्ष । कछखेत वासत वणिज करि के जीवन कीन । तास सिक्ष जिणचंद दुठ चारित मंद ध्रविक्ष ॥१२॥ न्हावत सीतल नीर सौं प्रवर पापमय लीन ॥२७॥ तिनहि इहै मत प्रगटि किय त्रिया तिहि भव मोक्ष। विक्रम राय मुए पर्छ बरस पांच से छत्तीस । केवल ज्ञानी फुनि कमल भक्ष रोग तन पोख ॥१३॥ दक्षिण मथरा ते भयो द्वाविर संघ मनीस ॥२८॥ सीझय अंबर जुत जती वीर गरभ चारित्र । परलिंगी हुइ मुकत हुइ फासु भक्ष सरवत्र ॥१४॥ यापनीय संघ की उत्पत्ति इनहिं प्रावि मागम अवर दुष्ट मिध्या सासत्र । बरस सात से पांच गत नगर कल्याण सुजात । रचे प्रापकों थापियो प्रथम नरक वृख तत्र॥१५॥ संघ जापनीय जानियो श्री कलस त विख्यात ॥२६॥
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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