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________________ 'दर्शन सार' का हिन्दी पद्यानुवाद 0 श्री कुन्दन लाल जैन, दिल्ली देवसेनकृत 'दर्शनसार' जैन वाङ्गमय में बहत ही कुछ दिनों तक दर्शनसार और उसके कर्ता देवसेन पर प्रसिद्ध और अपनी प्राचीनता के लिए विख्यात भी है। विद्वानों में बड़ी चर्चा एवं ऊहापोह हुआ था जो तत्कालीन मूलतः यह प्राकृत में है पर इसकी ऐतिहासिकता ने अनेकों शोध पत्रों में देखा जा सकता है। प्राचार्य देवसेन गणी विद्वानों को अपनी पोर आकर्षित किया है । फलतः इसके के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए स्व० डा० नेमीसंस्कृत, हिन्दी, गद्य, पद्य मे अनेकों अनुवाद हुए है। चन्द्र जी ज्योतिषाचार्य लिखित बृहद्ग्रंथ "तीर्थंकर महा'दर्शनसार' की सर्वप्रथम खोज डा० पीटर्सन ने सन १८८४ वीर और उनकी प्राचार्य परम्परा", भाग २, पृ० ३७० पर मे की थी। वे उस समय जैनाचार्य पूज्यपाद स्वामी के काल देखा जा सकता है। यहां हमारा उद्देश्य उपर्युक्त विस्तार निर्णय के सम्बन्ध में खोज-शोध कर रहे थे। पूज्यपाद का मे जाने का नहीं है। अपितु हमे दिल्ली के जैन भण्डारों में उल्लेख दर्शन सार की २४वी गाथा में है। अतः डा० स्थित पांडुलिपियों की विवरणात्मक सूची तैयार करते पीटर्सन ने भाण्डारकर प्रोरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट पूना, हुए दर्शनसार का हिन्दी पद्यानुवाद देखने को मिला था, में क्रमांक ५०७ पर स्थित 'दर्शनसार' की प्रति देखी और हम उसी की चर्चा करना चाहते हैं। इसे प्रकाशित भी कराया, पर यह प्रकाशन पूर्णतया शुद्ध और अधिकृत न था। इसके बाद और भी प्रकाशन हुए, पर दर्शनसार भाषा (पद्य) दि. जैन खडेलवाल मन्दिर, वैद वाडा, दिल्ली के शास्त्र भंडार मे क्रमांक १६२ बी वे कुछ विशेष महत्त्वपूर्ण सिद्ध न हुए। से सुशोभित है। इसकी लम्बाई ११३ इंच तथा चौड़ाई पं० नाथराम जी प्रेमी ने जैन हितपी' के १३३ ४ इंच है । इसमे केवल ३ ही पत्र है। प्रत्येक पत्र मे E-६ भाग मे दर्शन सार की चर्चा निबंध रूप में की, तथा बाद मे पक्तियां है तथा हर एक पक्ति मे ६०-६० अक्षर है। इस सन् १९१७ में 'दर्शन सार' शीर्षक से ग्रन्थरूप मे हिन्दी प्रति को मगसिर सुदी २, सं० १६७६ में श्री राजुलाल जी प्रन्थ रत्नाकर कार्यालय से प्रकाशित कराया। इसमे मूल बडजात्या ने जयपुर मे लिखा था। इसकी रचना किसी पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अर्थ तथा समीक्षात्मक विवेचन अध्यात्म प्रेमी ने भादो वदी १६, स. १७७२ मे की थी भी था । सन् १९३४ के आसपास डा० आदिनाथ नेमिनाथ जो निम्न छन्द से स्पष्ट है। उपाध्ये ने 'यापनीय संघ : एक संप्रदाय' शीर्षक लेख सत्तरह से वहरि अधिक भावौं तेरसि स्याम । लिखा तो उस समय उन्हे 'दर्शन सार' की उपयोगिता प्रलपमति नु कहत यह भाष रचो अभिराम ॥ अनुभव हुई, क्योकि इसकी २९वी गाथा मे यापनीय संघ का उल्लेख है। अतः उन्होने भाण्डारकर प्रोरिएन्टल उपयुक्त अनुवाद मेरे ख्याल से सर्वथा अप्रकाशित इस्टीट्यूट, पूना में स्थित लगभग आधी दर्जन पांडुलिपियो एव अज्ञात है जिसे हम यहां अविकल रूप से प्रस्तुत कर के आधार पर एक सर्वशुद्ध अधिकृत पाठ तैयार किया और रहे है । प्राशा है कि प्राकृत से अनभिज्ञ हिन्दी प्रेमी इसका Annals of the Bhandarkar Oriental Research रसास्वादन कर सकेंगे। इस प्रति मे ३६वी गाथा का Institute, Poona, Vol. XV, Part III-IV, 1934 अनुवाद नहीं है। इसका क्या कारण है, कुछ भी कहना AD में पृ. १९८ पर प्रकाशित कराया था। उस समय कठिन है । अनुसधाता विद्वान् इससे लाभ उठावें।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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