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________________ 'दर्शनसार' का हिन्दी पद्यानुवाद १३५ काष्ठा संघ उत्पत्ति पदमनंदी जतिनाथ श्रीमंधर जिन झलक । श्री मुनि वीर सुसेनि सिक्ष श्रुत ज्ञाता जिनसेनि । नव विबोधय सिव पाय मुनि किम पावइ शुद्ध यग ।।४३।। पदमनंदि श्री पछइ चउसंघउ धारिउ तेन ॥३०॥ पुहुपवंत बलिभूत देख दखिन मनुक्रम धरम । तास सिक्ष गुणवंत गुणभा ज्ञान परिपूर । जे भासित मुनि सूत निरविकलप जे तत्ववित् ॥४४॥ दक्षिण विज्झि सुदेस पुहकलपुर मनि वीरचंद । पक्ष सुबुद्धि विवेक जन भाव लिंगी तप सूर ॥३१ बीत अठारह सेसु भिल्लय संघ प्ररूपये ॥४५।। फुनि तिनि पीछे तत्ववित विनय सेन मुनि सार । तिन सिद्धान्त श्रत घोषि निज सुरग लोक गति धार ॥३२ सो निज गच्छकराफ भिन्त पडिकवण और क्रिया। विनयसेन दिक्षत प्रगट भयो कुमार सुसेनि । ग्यानावरण विपाक सुष्ट हम जिन मार गहं ॥४६॥ प्रगृहीत दिक्षा बहुरि जिहि सन्यास भजेन || ३|| बहुरि न कहियो कोय गुण गणधर पुंगमिछत । परिवजित पीछी चमर गही मोह कलितेन । दुखम प्रति यक होय मिथ्या दरशन नाश कर ॥४७॥ उन्मारग प्रगटित सबन वागड देश सुजेन ॥३४॥ धार मूल गुणेहि वीर मुनि नाम हुए। त्रिय को दीक्षा फुनि खुलिक लोक सुचर्या वीर । प्रातम श्रुत धारेह जन प्रबोध दे वीर वतु ॥४८॥ कर्कस गाहन केस अरु छहउ गुण व्रत धीर ॥३५।। पूरब प्राचारिज कहेउ गाथा तिहि अनुसारि । सोरठा-पागम शास्त्र पुराण प्रायश्चित कछु अन्यथा । देवसेन श्री मुनि गणी धारा नगर मंझार ॥४६॥ रचित मिथ्यात वखाण मढ़ जननि परवति किय ॥३६॥ सोरठा ----रचिय दरसन सार हार भविय नव से निवेनहे पद्धड़ी-सो श्रवण संघ वाहिकुमार श्रेणी सो समय पास जिन धार। मिथ्यात धार । माह सुकुल दशमी पवित ॥५०॥ छाडिउ जिहि उपसम रुद्र लोन पर रुपिउ कासट संघ हीन रूटउ तूठऊ लोक सत्य कथक तहि जीव के । सात सै तरेपण वर्ष वीत विक्रम राजा मरणे प्रतीत। अथवा नृपति जू कोकु अभय साटिका रहन हुई ॥५१॥ नादयवर ग्राम सुथान जानि काष्ठा संघ उत्पति तहां मानिसत्रह से वहत्तरि प्रधिक भादों तेरसि स्याम । अलपमतिनु कहत यह भाष रच्यो अभिराम ॥५२॥ निपिछ संघ उत्पत्ति इति दर्शन सार भाषा सम्पूर्ण गिति मगसिर सुदी २ पीछे सत वरष गत मथुरा माथुर नाथ । स० १६७६ हस्ताक्षर गनु नाल बडजात्या रामसेणि तिहि नाम कह वरणि निपिच्छ सुपाठ ॥४०॥ जैपुर निवासी। सोरठा-समकित प्रकृति मिथ्यात कहो तिनिहि बिंबजिन । प्राप परस्थित जात भमत बुद्धि के वसन तं ।।४१।। ६८ कुन्ती मार्ग, सोई गुरु मम जान अपर नास्ति चित परि रमण । विश्वास नगर, शाहदरा स्वगुरु कुल अभिमान इतर विभंगैह करन फुनि ॥४२।। दिल्ली ३२ अहिंसा "मारने की सजा देने वाला, प्राणियों के शरीर को काटने वाला, मारने वाला, खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला, व खाने वाला सभी पापो और दुष्ट है। जिसका मांस मैं यहाँ खाता हूँ (मां), मुझको वह भी दूसरे जन्म में अवश्य हो खाएगा।" ---मनुस्मृतिः ५।५५ "जो लोग अण्डे और मांस खाते हैं, मैं उन दुष्टों का नाश करता हैं।" - अथर्ववेद, काण्ड ६, वर्ग ६, मन्त्र १३. "हे अग्नि ! मांस खाने वालों को अपने मुंह में रख ।” । --ऋग्वेद १०६७-२.
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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