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तीर्थंकरों के शासन-देव और देवियां
पं० बलभद्र जैन, दिल्ली
पहन्त प्रतिमा और शासन देवता : जैन प्रतिमा- के साथ यक्ष-यक्षी की स्थापना का विधान पूर्वागत परम्परा शिल्प में तीर्थङ्कर-प्रतिमानों के साथ यक्ष और के अनुसार निम्न प्रकार किया हैयक्षी की मूर्ति बनाने का विधान है। ये यक्ष-यक्षी इन्द्रो जिनेन्द्रोत्तमशासनस्य त्राणे प्रवीणं प्रतिशासनाहम् । ही शासन देवता अथवा शासन देव और देवियाँ न्ययंक्त सत्कृत्य यमादरातं न्यसामि यक्षं जिनसध्यभागे। कहलाती है। अनेक प्राचार्यों ने और प्रतिष्ठा पाठ के रच- लम्याधिकारी जिनशासनस्य त्राणेततः शासनदेवतेति । यिता विद्वानों ने तीर्थडर प्रतिमाओं के साथ यक्ष-यक्षियों रूढां भवि प्रौढतरप्रभावां न्यसामि यक्षी जिनवामभागे । की संरचना का विधान किया है। प्राचार्य वसुनन्दि ने, जो अर्थात इन्द्र ने जिनेन्द्र भगवान के उत्तम शासन की ११-१२वी शताब्दी के विद्वान् है: प्रतिष्ठा सार संग्रह रक्षा में प्रवीण और प्रतिशासन में सक्षम जिस यक्ष को नामक प्रतिष्ठा-ग्रंथ में तीर्थंकर प्रतिमा के साथ यक्ष-यक्षी सत्कार करके नियुक्त किया था, उसको मैं पादरपूर्वक को अनिवार्य बताते हए बहुत ही स्पष्ट शब्दों में उल्लेख जिनेन्द्रदेव के दक्षिण पार्श्व में स्थापित करता हूं। जिनेन्द्र किया है, जो इस प्रकार है
के शासन की रक्षा करने का जिसे अधिकार प्राप्त है और 'यसं च दक्षिणे पार्वे वामे शासन देवताम् ।
लोक में जो शासनदेवता के रूप में प्रसिद्ध है और जो लांछनं पादपीठाधः स्थापयेद् यस्य यद्भवेत् ॥५॥१२॥
अत्यन्त प्रभावयुक्त है, ऐसी यक्षी की स्थापना मैं जिनेन्द्रयक्षाणां देवतानाञ्च सर्वालङ्कारभूषितम् ।
के वाम पार्श्व में करता है। स्ववाहानयुधोपेतं कुर्यात्सर्वाङ्गसुन्दरम् ॥४॥७॥
इन उपयुक्त उल्लेखो से सहज ही यह निष्कर्ष निकअर्थात् दक्षिण पार्श्व में यक्ष और वाम पार्श्व में शासन
लता है कि जिनेन्द्र प्रतिमा के दक्षिण पार्श्व में यक्ष देवता की स्थापना करे तथा पादपीठ के नीचे जिस तीर्थ
और वाम पार्श्व में यक्षी को संयोजना करने का कर का जो लांछन (चिह्न) हो, वह उत्कीर्ण करावे ।
विधान है । यक्ष-यक्षी की मूर्ति-संरचना में उन्हे यक्षों और शासन देवियों की मूर्ति सम्पूर्ण अलंकारों से
सर्वालंकार विभूषित, तथा उनके वाहन एवं आयुधों विभूषित, उनके वाहनों और प्रायुधो से युक्त तथा सर्वाङ्ग
से युक्त ही निर्मित करने की आवश्यकता पर विशेष सुन्दर बनावे। इसी प्रकार, पं० प्राशाधर ने-जो १३वीं शताब्दी के बल दिया गया है तथा उन्हें जिन शासन के रक्षक
शासन देवता के रूप में स्वीकार किया गया है। विद्वान हैं-भी इसका स्पष्ट उल्लेख किया है । यथा"रोबाविदोषनिर्मक्तं प्रातिहायोकयक्षयत ।
तिलोयपण्णत्ती और यक्ष-यक्षी : प्रतिष्ठा ग्रंथों से -प्रतिष्ठासारोद्धार। लगभग ६.७ शताब्दी पूर्व रचित 'तिलोयपण्णत्ती' नामक अर्थात प्रहन्त प्रतिमा रोद्र आदि बारह दोषों से रहित आर्ष ग्रन्थ में प्रत्येक तीर्थकर के साथ एक यक्ष और एक यक्षी हो अशोक वक्षादि प्रष्ट प्रातिहार्यों से युक्त हो तथा उसके का विधान किया गया है। यह विधान तीर्थंकर के महनीय दोनो पावों में यक्ष-यक्षी हों।
और दिव्य प्रभाव को प्रगट करते हुए किया गया हैप्राचार्य नेमिचन्द-जो १५वी शताब्दी के विद्वान् हैं- 'गुज्झको इदि एदे जक्खा चउवीस उसह पहीणं । ने अपने प्रतिष्ठा ग्रन्थ 'प्रतिष्ठातिलक" में जिनेन्द्र प्रतिमा तित्थयराणं पासे चे,ते भत्तिसंजुत्ता ॥४९३६॥
१. प्रकाशक : दोशी सखाराम नेमचन्द्र, सोलापुर, वीर संवत् २४५१.