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६, वर्ष २८, कि० १
अनेकान्त
टीका: चारित्तपाहुड पर श्रुतसागर की टीका है। ६-मोक्ख पाहड (मोक्ष प्राभूत)
इसमें १०६ पद्य है। इसमें प्रात्मा के बहिरात्मा, ३-सुतपाहुड (सूत्र प्राभूत)
और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके उनके स्वरूप को समयह ग्रन्थ २७ गाथात्मक है। इसमें सूत्रार्थ की मार्गणा झाया है। मुक्ति अथवा मरमात्मा-पद कैसे प्राप्त हो सकता का उपदेश है । प्रागम का महत्व ख्यापित करते हुए उसके है, इसका अनेक प्रकार से निर्देश किया गया है। अनसार चलने की शिक्षा दी गई है, जैसे कि सूत्र से युक्त खान में से निकलने वाला स्वर्ण और शुद्ध किये गये सूई हो तो वह नष्ट नहीं होती, गुम नहीं होती वैसे ही
सुवर्ण में जैसा अन्तर है, वैसा अंतर अन्तरात्मा और परसूत्र का ज्ञाता संसार मे भटकता नही है।
मात्मा में है। टोका : इसकी टीका के रचयिता श्रुतसागर है।
इस दसपाहुड से मोक्खपाहुड तक के छ: प्राभूत ४-बोषपाहुड (बोष प्राभूत)
ग्रंथों पर श्रुतसागर का टीका भी उपलब्ध है, जो कि
माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के षट्प्राभूतादि संग्रह में मूल ग्रंथों इस पाहुड के शरीर में ६२ हड्डियों की गाथानों से
के साथ प्रकाशित हो चुकी है। निर्मित हैं। इसका प्रारम्भ प्राचार्यों के नमस्कार से होता है । इसकी तीसरी तथा चौथी गाथामो में इसमें प्राने ७-लिग पाहुड (लिंग प्राभूत) वाले ग्यारह अधिकारों का निर्देश है-(१)मायतन, यह २२ गाथात्मक ग्रंथ है। इसमे श्रमण लिंग को (२) चैत्यगृह, (३) जिन प्रतिमा, (४) दर्शन, (५)
लक्ष्य लेकर उन पाचरणों का उल्लेख किया गया है जो जिन बिम्ब, (६) जिन मुद्रा, (७) ज्ञान, (८) देव,
इस लिंगधारी जैन साधु के लिए निषिद्ध है। जो श्रमण (९) तीर्थ, (१०) तीर्थङ्कर एव (११) प्रबज्या। प्रब्रह्म का प्राचरण करे, वह संसार में भटकता है। जो टीका : इस पर श्रुतसागर की टीका है। अन्तिम
विवाह कराए, कृषि कर्म, वाणिज्य और जीवघात कराये, तीन गाथानों को उन्होंने 'चूलिका कहा है।
वह द्रव्य-लिंगी नरक में जाता है।
____टीका : लिंग पाहुड पर एक भी संस्कृत टीका अगर ५-भावपाहुड (भाव प्राभूत)
रची भी गई हो तो प्रभाचन्द्र की मानी जाती है। १६३ गाथानों से निर्मित यह ग्रन्थ बड़ा ही महत्व का ८-सील पाहर (शील प्राभत) है। इसमें भाव को चित्तशुद्धि की महत्ता को अनेक प्रकार इस ग्रंथ में ४० गाथाएं हैं। इसमें शील का, विषयों से सर्वोपरि निरूपित किया गया है। बिना भाव के बाह्य से विरा काम
या है। बिना भाव के बाह्य से विराग का महत्व बताया गया। पांचवीं गाथा में एसा परिग्रह का त्याग करके नग्न दिगम्बर साधु होने और बन उल्लेख है कि चारित्र रहित ज्ञान, दर्शन रहित लिंग ग्रहण में जाकर बैठने तक को व्यर्थ ठहराया गया है। परिणाम पौर संयमरहित तप निरर्थक है। उन्नीसवें पद्य में जीवनति के बिना संसार परिभ्रमण नही रुकता और न बिना दया, दम, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान भाव के कोई पुरुषार्थ हो सकता है।
और तप को शील का परिवार कहा है। विषय-लोलुपता इसका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि उपलब्ध
के कारण सत्यकि पुत्र नरक में गया, ऐसा उल्लेख किया
गया है। सभी आठों पाहडों में सबसे बड़ा है। इनमें से (१६३ में से) अधिकांश आर्या छन्द में है।
____टीका: सील पाहड पर भी एक भी संस्कृत टीका
यदि रची गई है तो प्रभाचन्द्र की मानी जाती है। टीका : इस पर श्रुतसागर का टीका है।
१.कुछ पद्य मनुस्टुप में हैं। अधिकांश भाग भार्या छन्द में है।