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________________ कुन्दाकुन्दाचार्य और उनकी रचनाएँ का तथा उनके विपरीत मिथ्या-दर्शनादिके त्याग का विधान मूल कृति पर हेमराज पाण्डे ने हिन्दी में बालबोध किया गया है और इसी को जीवन का सार निर्दिष्ट लिखा है। किया गया है। पाहत नियमसार में प्राप्त, आगम और तत्वों की श्रद्धा से _कई विद्वानों की मान्यता है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने सम्यकत्व की उत्पति, अठारह दोषो का उल्लेख, प्रागम, ८४ पाहुड़ लिखे थे। परन्तु इन सबके अब तक भी नाम जीव प्रादि छः तत्वार्थ, ज्ञान एवं दर्शनरूप उपयोग के प्रकार, स्वभाव पर्याय एवं विभाव पर्याय, मनुष्यादि के उपलब्ध नही हुए है"। जैन शौरसेनी में पाठ पाहुड़ प्राप्त होते है। जो निम्न प्रकार से है : भेद, व्यवहार एवं निश्चय से कर्तृत्व और भोक्तृत्व पुद्गल मादि अजीव पदार्थों का स्वरूप, हेय एवं उपादेय तत्व, १-नसणपाहुड़ (दर्शन प्राभुति) शुद्ध जीव में बन्ध स्थान, उदय स्थान, क्षायक आदि चार इसमें सम्यग्दर्शना के महात्म्यादि का वर्णन ३६ भावों के स्थान, जीव स्थान और मार्गणा स्थान का गाथाओं में है। इससे यह जाना जाता है कि सम्यग्दर्शन प्रभाव, शुद्ध जीव का स्वरूप, संसारी जीव का प्रात्मा से को ज्ञान और चरित्र पर प्रधानता प्राप्त है। वह धर्म का अभेद, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान की व्याख्या, अहिमा मूल है और इसलिए जो सम्यग्दर्शन से जीवादि तत्वों के प्रादि पच महाव्रत की, ईर्या आदि पाँच समिति की तथा यथार्थ-श्रद्धान से भ्रष्ट है, उसको मक्ति की प्राप्ति नही व्यवहार एवं निश्चय नय की अपेक्षा से मनोगुप्ति आदि हो सकती। २६वी गाथा में तीर्थङ्कर चौंसठ चामरों से तीन गुप्ति की स्पष्टता, पंच परमेष्ठी का स्वरूप, भेद युक्त होते है और जिनके चौतीस अतिशय होते है तथा विज्ञान के द्वारा निश्चय, चारित्र की प्राप्ति, निश्चय नय ३५वी गाथा में उनकी देह १००८ लक्षणों से लक्षित होती के अनुसार प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, चतुर्विध पालोचना, है, इस बात का प्ररूपण है। प्रायश्चित, परम समाधि, सामयिक एवं परम भक्ति का निरूपण, निश्चय बहिरात्मा और अन्तरात्मा, व्यवहार एवं टीका : दसणपाहुड़ पर विद्यानन्द के शिष्य श्रुत सागर" ने संस्कृत मे टीका लिखी है। दसणपाहुड़ पर निश्चय नय के अनुसार सर्वज्ञता, केवल ज्ञानी में ज्ञान अमृतचन्द्र ने टीका लिखी थी। ऐसा कई लोगों का और दर्शन का एक ही समय में सद्भाव आदि । अनुमान है। ____टीकाएं : इस ग्रन्थ पर एक मात्र संस्कृत टीका पद्म. प्रभ मलचरिदेव की टीका उपलब्ध है। इसके अनुसार २-चारित्रपाहुड़ (चारित्र प्राभूत) गाथानों की संख्या १८७ है । टीका का नाम 'तात्पर्यवति' इस ग्रथकी गाथा संख्या ४४ तथा विषय सम्यकचारित्र है । इसमें उन्होने अमृताशीति, श्रुतबन्धु और मार्गप्रकाश है। यह चरित्र तथा उसके दो भेद सम्यक्त्वचरण मौर में से उद्धरण दिये है। सयम-चरण ऐसे दो भेदों में विभक्त करके उनका अलग-अलग इनके अतिरिक्त अकलंक, अमृतच द्र, गुणभद्र, चन्द्र- स्वरूप बताता है और सयमचरण के सागार और अनागार कोति, पूज्यपाद, माधवसेन, बीर नन्दी, समन्तभद्र, ऐसे दो भेद करके उनके द्वारा क्रमश. श्रावकधर्म का सूचनासिद्धसेन, और सोमदेव का भी उल्लेख पाता है। त्मक निर्देश करता है। १४. ये पाहुड और प्रत्येक की संस्कृत छाया, दसपाहुड १५, इनका परिचय इन्ही की रचित प्रौदार्यचिन्तामणि प्रादि प्रारम्भ के छपाहुडो की श्रुतसागर कृत संस्कृत इत्यादि विविध कृतियों के निर्देश के साय मैंने 'जैन टीका, रयणसार और वारसाणु-वेक्खा 'षट्प्राभूतादि- संस्कृत साहित्यनों के इतिहास' [खंड १: सार्वजनीन संग्रह:' के नाम से माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथ- साहित्य पृष्ठ ४२-४४ और ४६ और ३००) में दिया माला में प्रकाशित हुए है। है। श्रत सागर विक्रम सोलहवीं सदी में हए थे।
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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