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________________ १९२, वर्ष २८, कि०१ अनेकान्त जैनधर्मी था। मरते हुए कुत्ते को णमोकार मन्त्र दिया होने पर भी मझ, शान्ति प्राप्त नही होती। गौतम गणधर जिसके प्रभाव से वह स्वर्ग मे देव हमा। विस्तार के लिए ने कहा-श्रावक के व्रत लो, उनके प्राचरण मे अवश्य जीवन्धर चरित्र । मिलेगी। मानन्द ने कहा कि चार व्रतो का तो मैं माज ९. शालिभद्र-यह इतना धन्ना सेठ था कि जिन रत्न भी पालन कर रहा हू । परिग्रह-परिमाण-व्रत का पालन कम्बलों को पसन्द पाने पर महाराजा श्रेणिक भी नही खरीद नहीं हो सकता, क्योकि जो सामग्री मुझेमाज प्राप्त है, सका, उनको सवा लाख स्वर्ण मुद्रा प्रति कम्बल देकर ३१६ उससे कम मे मेरा निर्वाह नही हो सकेगा । गौतम गणधर कम्बल व्यापारियो के पास थे, सब खरीद लिए। श्रेणिक को ने बताया कि शाति प्राकुलता के कारण होती है । प्राकुपता चला तो चकित रह गया और भगवान महावीर से लता की जड इच्छाओं को केवल परिग्रह-परिमाणन्वत वश पूछा कि यह इतना धनी क्यो हुआ ? गौतम गणधर ने में कर सकता है। शान्ति के इच्छ को को प्रारिग्रह-व्रत बताया कि पिछल जन्म में यह सखिया नामक अत्यन्त दरिद्री पालना ही होगा। इसका पालन कुछ भी कठिन नही, ग्वालन का पुत्र सगम था। कई दिन तक इसे भोजन प्राप्त जितनी अपनी ग्रावश्यकता समझो, उतने का परिमाण कर न होता था। एक दिन इसे जिद्द हो गई कि खीर खाऊगा। लो। यदि ग्राप जो सम्पत्ति प्राज है, उनसे अधिक यदि हो माता साचन लगी कि दूध और मीठा कहा स लाएँ ? जावे तो उसका त्याग कर दें। यही परिग्रह-परिमाण है। सयम क रान स पड़ासा का दया माई और उसने दे अानन्द ने यह सुन कर ५ प्रणवतो के पालने की प्रतिज्ञा दिया। खीर खान काही था कि एक मुनि महाराज पाहार कर ली और घर आकर अपने कर्मचारियो को समस्त कनिमित्त श्री गय। सगम उन्हे देख कर वड़ा हपित हया। सम्पत्ति का चिटा बाँधने का आदेश दिया और कहा कि भूल गया अपनी भूख का, बड़ी भक्ति मोर पडगाह से इस चिटठे से सम्पत्ति बढ़ने न पावे, मुझे तुरन्त सूचित प्रगराह कर विधि पूवक उसन मुनि का ग्राहार कराया। करो। अगले दिन पशुगह का दरोगा १ मन दूब लाया, यह इतना भाग्यशाला, धनी, यश और तज का स्वामी प्रानद ने कहा--५ मेर घर के खर्च के लिए रख कर था। यह दि० मुनि की माहार देन का फल है। बाकी हस्पताल में मरीगो के लिए भेज दो। बाग का १०. सिंहभद्र-चटक का सेनापति था। भ० महावीर माली सन्त रे, के ने, ग्राम प्रदि के टोकरे लाया तो मानद का उपदश सुन कर उसने कहा कि मै सेनापति ह, शत्रुआ ने आवश्यकता के अनमार रख कर सत्र पाठशालामो मे को मारना मरा धर्म है। मैं चाहता है कि अणुव्रत धारण बच्चो के लिए भिजवा दिए । मनीम गण ने बताया कि करू, परन्तु पहिसा-धम मर सनिक काय म बाधक है। १० हजार व्याज का प्राया है। ग्रानन्द न कहा, धमशाला गोतम गणधर न कहा कि सैनिक घम तो श्रावक का बनवाने में लगा दो । प्रतिदिन ऐसा होने लगा तो सब प्रथम धम है। देश-रक्षा तथा प्रत्याचारों का अन्त यहि- प्रानन्द के यश गाने लगे। प्रानन्द को अधिक कमाने की सक कार्य है, हिसक नहीं। यह सुनकर सिहभद्र ने श्रावक इच्छा न रही । सन्तोप धारण रखने से परम शान्ति क व्रत तुरन्त ल लिए। मिलने लगी। जो यह समझते थे कि भगवान महावीर ने ११. प्रानन्द-मंशानी के निकट बाणिज्य ग्राम के करोड़ो की सम्पत्ति रखने वाले को भी परिग्रह व्रत का सर्वश्रेष्ठ व्यापारी थे । चार करोड प्रशफियौ ब्याज पर, धारी बना दिया, अब उनके रहस्य को समझे । चार करोड़ कारबार मे, चार करोड अचल सम्पत्ति और १२. महात्मा बुद्ध (५६७-४८७ ई० पू०) राइसचार करोड़ स्वण मुद्राये नकद थी। यह भगवान महावीर डेविड का कहना है कि महात्मा बुद्ध ने अपना धार्मिक की वन्दना को गए और कहा कि इतनी अधिक सम्पत्ति जीवन जैन धर्मी के रूप में प्रारम्भ किया। वास्तव 8. Buddha started his religious life as a Jain. of his Jain teacher. At any rate Gautama gave himself up to -Budhism And Vaisili (By Public a cause of austerities under the influence Relation Dept., Bihar Govt.) p. 9.
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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