SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन संप्रदाय के यापनीय संघ पर कुछ और प्रकाश डा. प्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, एम. ए. डी. लिट्, मैसूर निगण्ठनातपूत या महावीर ने जिस धार्मिक और तिष्य गुप्त द्वारा प्रचलित 'जीवप्रदेश' जैसे सैद्धान्तिक मतभेद श्रमण संघ का नेतृत्व किया था, वह उनसे पूर्व पार्श्वप्रभु तो विद्यमान थे ही।' भ० महावीर के निर्वाण के बाद द्वारा संस्थापित था और इसीलिए भ० महावीर को जैन परम्परा दिगम्बर और श्वेताम्बर रूप में विभाजित 'पासावचिज्ज' कहा जाता था अर्थात् वे पार्श्वप्रभु द्वारा हो गई जिसका मूल कारण सम्भवतः कुछ साधुओं का प्रचलित धर्म का अनुसरण कर रहे थे। उत्तराध्ययन (२३) दक्षिण भारत में स्थायी रूप से बस जाना हो, जिसके पीछे में स्पष्ट उल्लेख है कि पार्श्व प्रभु और भ० महावीर के श्रमण आचारों सम्बन्धी थोड़ी बहुत मतभेदो की तीव्रता शिष्य परस्पर मिलकर अपने श्रमण प्राचारों के विभिन्न हो जो पहले से ही चले पा रहे थे। प्रार्याषाढ़ (भ. विवादो को सुलझाने का प्रयास करते है। यही वे विवाद महावीर के निर्वाण के २१४ वर्ष बाद) द्वारा प्रचलित है जिन्होने आगे चल कर जैन परम्परा में कई वर्ग, धर्म- मतभेद जैन परम्परा मे और अधिक विभाजन करने के भेद या संप्रदाय पैदा कर दिए। लिए चिरस्थायी बन सके। 'समागम सुत्त' में स्पष्ट उल्लेख है कि "महावीर या सदियो पूर्व के मथुरा लेख से स्पष्ट है कि गण, कुल, निगण्ठनातपुत्त के निर्वाण के बाद जैन परम्परा में होने शाखा पोर संभोग जैसे श्रमण वर्ग भेद जैन परम्परा में वाली विघटनकारी प्रवत्तियों एव मतभेदों से महात्मा पहले से ही विद्यमान थे। दिगम्बर प्राम्नाय में सघ (मल. बुद्ध अच्छी तरह परिचित हो गए थे, अतः उन्होंने अपने द्रविड़ आदि) गण, (देशी, सेन, काण्डर आदि) गच्छ, शिष्यों को सावधान किया था कि वे ऐसे वर्गभेद की (पुस्तक प्रादि) अन्वय प्रादि (कुन्दकुन्दादि) तथा प्रवत्तियो से बचें।" भ० महावीर के जीवन काल मे ही श्वेताम्बर आम्नाय मे खरतर, तपा, अंचल, गच्छ जैसे उनके जामाता जामालि द्वारा प्रचलित 'बहुरत' तथा भेद आज भी विद्यमान है।' + यह निबंध १७ जुलाई १९७३ को होने वाली २९वीं १. नलिनाक्ष दत्त की Early History of the spread अन्तर्राष्ट्रीय प्रोरिएन्टल काग्रेस के पेरिस अधिवेशन of Budhhism & Buddhist School, p. 200. में दक्षिण पूर्वी एशिया (भारत) वर्ग में पढ़ा गया था। २. E. Leumains : Die altem Berichtevon ६ प्रारम्भिक अध्ययन के लिए देखो-Indian anti- den Schismen Der Jaina 1, 5. XVIII pp. quary VII P. 34, H. Luders : E, IV P. 338, 91-135. नाथूराम प्रेमी : जैन हितैषी, XIII P. 250-75, A. N. Upadhey : Journal of the Univer ३. Dr. Hoernle, Quoted in South Indian Jainism pp 25-27. sity of Bombay 1956, I, VI, PP. 224 ff%; श्री प्रेमी का जैन साहित्य और इति० द्वितीय सस्करण ४. देखो-विशेषावश्यक भाष्य गाथा २३०४-२५४८ । बम्बई 1956 PP. 565, 1555, 521F, P. B. ५. See the Introduction to Reportore D. Desai : Jainism in South India, Sholapur. epigiaphie Jaina By A. Guerinot Paris 1757, pp 163-66 आदि। 1908. मूलतः अंग्रेजी लेख के अनुवादक-श्री कुन्दनलाल जैन
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy