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________________ ६८, वर्ष २८, कि. १ अनेकान्त प्रायः मानवीकरण के रूप में ही चित्रण है। रात्रि, पूर्व प्रतीत होता है, जिसमें राष्ट्रकट के शासक गोविन्द ने दिशा प्रादि कही अभिसारिका के रूप में, कहीं ईर्ष्या कलु. वेंगी के विष्णुवर्धन चतुर्थ चालुक्य को परास्त किया। पित नायिका के रूप मे चित्रित है। सूर्य एवं चन्द्र कही प्रेमी यदि कवि इस घटना से प्रभावित है तो वह वेंगी के निकनायक, कही राजा, कहीं भ्रमणप्रेमी, कहीं पक्षी, कही। टस्थ दोनों का निवासी होना चाहिए, किन्तु इसके काव्य योद्धा प्रादि के रूप में वर्णित है। नदी, श्मशान, समुद्र, में द्राविड़ भाषामों का प्रभाव न होने के कारण कह सकते मटवी, पर्वत, तपोवन, सरोवर, प्रासाद, उपवन, नगर हैं कि यह बेंगी या भीमेश्वर तीर्थ के निकटस्थ क्षेत्रों का आदि के भी भव्य चित्र प्राप्त होते हैं। निवासी नही है। वह महाराष्ट्री प्राकृत तथा महाराष्ट्र 17 पारित होने में ये देश की बोली से केवल परिचित ही नहीं, अपित उसके कथाये अधिक मर्मस्पशिनी एवं हृदयहारिणी है। व्यक्ति प्रति प्रात्मीयता प्रदर्शित करता है यह भाषात्मक प्राधार की स्वाभाविक दुर्बलताओं का यथार्थ निदर्शन होने से बहुत प्रबल प्राधार है, जिसके कारण हम उसे महाराष्ट इनमे सुन्दर मनोवैज्ञानिक चित्रण प्राप्त होते हैं। देश का निवासी मान सकते है। लीला-वई-कहा के प्रणेता कोऊहल बहलादित नामक ____ध्वन्यालोक में प्राप्त लीलावई-कहा के वस्तुतत्व की ओर संकेत इसकी अपर सीमा निर्धारण करने में सहायक तीनों वेदो के ज्ञाता याज्ञिक ब्राह्मण के पौत्र तथा भूषण भट्ट है। इसकी प्रपरसीमा (पानन्दवर्द्धन का काल) ८६०के पुत्र थे । ग्रंथ की एक गाथा 'कोऊहलेण-विरइया' ८९० ई० है। इतिहासकारों के अनुसार सातवाहन राजउल्लेख है, कोऊहल का अर्थ औत्सुक्य भी हो सकता है, वंश की सत्ता का अवसान ३०० ई. से पहले हो चुका क्योंकि परवर्ती ग्रंथो में ऐसे उल्लेख नही है, जिनमे कौतु है। लीलावई-कहा के वस्तुतत्व को देखते हुए प्रतीत होता हल, कुतूहल अथवा कोऊहल को कविरूप मे स्मरण किया है कि यह रामायण, महाभारत, वृहत्कथा, अभिज्ञानगया हो। लीलावई-कहा की एकमात्र उपलब्थ संस्कृत शाकुन्तल, विक्रमोर्वशीयं, कुमार संभव, कादम्बरी, सुबन्धुटीका मे कुतूहल शब्द को कवि के नाम के रूप में ग्रहण कृत वासवदत्ता, रत्नावली आदि ग्रथो से प्रभावित है। ये किया गया है। उक्त संस्कृत टीकाकार परम्परा के प्राधार समस्त ग्रथ सातवी शती तक रचे जा चुके थे । समराइच्चपर ही कुतूहल को विप्र और लीलावई-कहा का कर्ता कहा और कुवलयमाला (७७६ ई.) से भी यह परिचित बतला रहा है। इतना ही नही, टीकाकार कवि की पत्नी हो सकता है। प्रस्तावना श्लोकों मे गउडवहो (६६६. का नाम भी असन्दिग्ध रूप से सावित्री लिखता है, ७३५ ई.) का प्रभाव परिलक्षित होता है। इसमें राष्ट्र'जबकि गाथाम्रो मे यह नाम कही नहीं है। प्राफे की सूची कूट और चालुक्यो के संन्य सचरण का उल्लेख है। प्रथम मे कुतूहल पण्डित का उल्लेख होने से डा. उपाध्ये ने तात्का राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग में ही है और उसका सैन्य सचरण ७४० लिक रूप से लीलावई के कर्ता को कुतूहल माना है। हम ई० के निकट प्रभावी रूप में हुअा, प्रतः कोऊहल ने जो उस परम्परा पर अधिक बल देना चाहते है, जिसका उल्लेख किया, उसका सम्बन्ध उन घटनाओं से नहीं हो प्राधार सस्कृत टीकाकार ने ग्रहण किया है। हमे इस में सकता, जो ७४० ई० के पूर्व की होगी। कोऊहल का सन्देह नहीं है कि कोऊहल या कुतूहल वास्तव में कवि के स्थितिकाल इससे पीछे ही मानना होगा। यदि कोऊहल नाम है। के मन में बादामी के चालुक्यो के अभियानों का प्रभाव है कोहल कवि के निवास का प्रश्न केवल अनुमान का तो वे ७५३ ई. के पश्चात् निःसत्व हो चुके थे। इस विषय है। इसने एक गाथा में राष्ट्र कट तथा चालुक्य स्थिति को स्वीकार करने पर मानना होगा कि इसे ७४० सेनापो का उल्लेख किया है। श्री उपाध्ये के अनुसार से ७५३ ई. के निकट रखा जा सकता है। इस उल्लेख मे राष्ट्रकूट और चालुक्यों के उन संघर्षों का निम्न है. जो उत्तरपूर्वीय क्षेत्रो में प्राठवीं शती के मध्य मे कोऊहल का युग (८वीं-हवी शती ई०) प्राचीन भारत पहंचे। श्री उपाध्ये का संकेत ७७२ ई. के उस युद्ध की भोर की समाप्ति का तथा कान्यकुब्ज साम्राज्य का युग है। इस
SR No.538028
Book TitleAnekant 1975 Book 28 Ank Visheshank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokulprasad Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1975
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size15 MB
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