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२२६, वर्ष २८, कि०१
इन सब उल्लेखों से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीपाल रत्नकीति नाम के और भी विद्वान् हुए हैं, जिनका विद्य देव और उनकी शिष्य-परम्परा ने जैन शासन की संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :सेवा की है। उक्त श्रीपाल विद्य देव ईसा की १२वीं एक रत्नकीति वे हैं जिनका उल्लेख, खरगोन से ऊन शताब्दी के प्रतिभा-सम्पन्न विद्वान थे।
जाने वाली सड़क पर ऋषभदेव का एक विशाल मन्दिर में रत्न कीति :
प्राप्त हमा है । चौवारा देरा नं. १ में एक बड़ी मूर्ति पर काष्ठासंघ माथुरान्वय के प्रसिद्ध भ० अनन्तकीर्ति के वि० सं० ११८२ का एक लेख अंकित है, जिसमें जैनापट्टधर क्षेमकीति के शिष्य थे : क्षेमकीर्ति के पट्टधर हेम- चार्य रत्नकीति का नाम अंकित है जिससे यह रत्नकीर्ति कीति थे। रत्नकीति प्राकृत-संस्कृत भाषा के अच्छे विद्वान् विक्रम की १२वीं शताब्दी के उपान्त्य समय के प्राचार्य थे। इन्होंने अपने गुरु की प्राज्ञा से प्राचार्य देवसेन के जान पड़ते हैं। 'पाराघनासार' की टीका बनाई थी। आराधनासार मूल- दूसरे रत्नकोति वे हैं जिनका उल्लेख सं० १३३४ के ग्रन्थ प्राकृत भाषा का है, उसमें ११५ गाथाओं में सम्यर- एक लेख में पाया जाता है, जिसमें पण्डिताचार्य रत्नकीर्ति दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चार द्वारा एक मूर्ति के स्थापित किए जाने का उल्लेख है। माराधनाओं का कथन किया गया है । टीका विशद, सुगम १४वीं शताब्दी का यह लेख इन्दौर के म्यूजियम में संर. और सरल है। गाथानों के अर्थ का बोध कराते हुए वस्तु क्षित है। स्वरूप का विवेचन किया है और माराधनामों की कथा तीसरे रत्नकीर्ति वे हैं जो नन्दिसंघ बलात्कार गण
नाकत किया है जिससे पाठका का गाथामा के भद्रारक धर्मचक्र के पट्टधर थे । यह स्यावाद विद्याका रहस्य समझने में सरलता हो गई है । यद्यपि इस ग्रंथ सागर, बालब्रह्मचारी, तप के प्रभाव से पूजित और मजपर पण्डित प्रवर पाशाधर जी की टीका भी उपलब्ध है, मेर पट के पट्टधर थे। यह अजमेर के पट्ट पर सं० १२६६ जिसे उन्होंने विनय चक्र के अनुरोध से विक्रम की १३वीं में १३१0 तक रहे हैं। देवगढ़ के सं० १४८१ के लेख में शताब्दी में बनाई थी; पर वह अत्यन्त संक्षिप्त भी इन रत्नकीति का उल्लेख किया गया है। है। रत्नकीर्ति की यह टीका विस्तृत है। टीकाकार ने
(जैन लेख सं० भ० ३ पृ० ४६१) अपनी लघुता व्यक्त करते हुए लिखा है कि मैंने यह टीका
चौथे रत्नकीति वे हैं, जो भट्रारक जिनचन्द्र के शिष्य यश के निमित्त नही बनाई । किन्तु स्व के बोध के लिए थे। इनका समय विक्रम की १६वी शताब्दी है। क्योंकि बनाई है:-'मया यमाराधनासाराख्यो ग्रन्थो व्यरचि न भटारक जिनचन्द्र का वि० सं० १५०७ में प्रतिष्ठित होने पुनर्यशोनिमित्तं, यदुक्तं-न कवित्वाभिमानेन न कीर्ति का उल्लेख पाया जाता है। अनेक ग्रन्थों की लिपि प्रशप्रसरेच्छया । कृतिः किन्तु मदीयेवं स्वबोधार्यव केवलम् ॥ स्तियों में भी इन रलकीति का जिनचन्द्र के शिष्य रूप
टीकाकार ने टीका में उसका रचना-काल नहीं दिया, में उल्लेख पाया जाता है। जिससे उसका समय निश्चित करने में कठिनाई हो रही
' ना हो रहा पांचवें रलकीति काष्ठा संघ माथुरगच्छ पुष्कर गण है। प्रतएव अन्य सामग्री पर से उसका विचार किया
वचार किया के भट्रारक कमलकीर्ति के शिष्य थे; उन्होंने संवत
है जाता है। सं० १४६६ की प्रवचनसार की अमृतचन्द्र कृत
र का अमृतचन्द्र कृत १५१६ में ववागांव के मन्दिर का जीणोद्धार कराया था। तात्पर्य-वृत्ति की लिपि प्रशस्ति में मुनि अश्वसेन, क्षेम
(जैन लेख सं० भा०३ पृ. ४६०) कीति और हेमकीति का नामोल्लेख किया है। रत्नकोति के शिष्य थे। प्रतएव इस टीकाकार का रचना-काल क्षेम- प्रचित्रकर्ण पणनम्बी: कोति विक्रम की १५वीं शताब्दी का मध्यकाल होना यह मूलसंघ देशीय गण के विद्वान् गोल्लाचार्य के चाहिए । प्रस्तुत रनकीति विक्रम की १५वीं शताब्दी के शिष्य थे । यह पविद्धकर्ण थे-कर्णवध संस्कार होने से विद्वान् हैं।
पूर्व ही वासावस्था में दीक्षित हो गए थे। इसी से यह